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मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द -2

मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द

पिछले अंक का शेष भाग…..

महर्षि दयानन्द मूर्तिपूजा को आर्थिक हानि का कारण मानते हैं। इससे सामाजिक भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा मिलता है। (सत्यार्थप्रकाश 11वाँ समुल्लास मूर्तिपूजा से 15 हानियाँ) मूर्तिपूजा के लिये दिये जाने वाले तर्कों की समीक्षा भी उन्होंने की है। जो लोग मूर्तिपूजा को स्थूल लक्ष्य और ईश्वर तक पहुँचने की सीढ़ी बताते हैं, उनके लिए महर्षि दयानन्द कहते हैं- मूर्तिपूजा सीढ़ी नहीं, खाई है। मूर्तिपूजा गुड़ियों के खेल के समान ब्रह्म तक जाने का साधन मानने वालों  को महर्षि दयानन्द अज्ञानी मानते हैं, अतः शास्त्रों का अध्ययन, विद्वानों की सेवा, सत्संग, सत्यभाषाणादि व्यवहार से ही ब्रह्म की प्राप्ति सभव है। परमेश्वर को मूर्ति में व्यापक होने से मूर्तिपूजा से परमेश्वर की पूजा हो जाती है- ऐसा मानने वालों के लिए महर्षि दयानन्द का उत्तर है- ‘‘जब परमेश्वर सर्वत्र व्यापक है तो किसी एक वस्तु में परमेश्वर की भावना करना, अन्यत्र न करना- यह ऐसी बात है कि जैसे चक्रवर्ती राजा को सब राज्य की सत्ता से छुड़ा के एक छोटी-सी झोंपड़ी का स्वामी मानना।’’ (सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास 11वाँ) जो लोग मूर्ति में परमेश्वर की भावना करने की बात करते हैं, उनके लिए महर्षि दयानन्द का उत्तर है- ‘‘भाव सत्य है या झूठ? जो कहो सत्य है तो तुहारे भाव के अधीन होकर परमेश्वर बद्ध हो जायेगा और तुम मृत्तिका में सुवर्ण-रजतादि, पाषाण में हीरा-पन्ना आदि, समुद्रफेन में मोती, जल में घृत, दुग्ध, दही आदि और धूलि में मैदा-शक्कर आदि की भावना करके उनको वैसा क्यों नहीं बनाते हो?’’

(सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास 11वाँ, पृ. 368)

मन्त्रों के आवाहन-विसर्जन से देवता के आ जाने और चले जाने की बात पर वे कहते हैं- ‘‘जो मन्त्र पढ़कर आवाहन करने से देवता आ जाता है तो मूर्ति चेतन क्यों नहीं हो जाती? और विसर्जन करने से चला जाता है तो वह कहाँ से आता और कहाँ जाता है? सुनो अन्धो! पूर्ण परमात्मा न आता और न जाता है। जो तुम मन्त्र बल से परमेश्वर को बुला लेते हो तो उन्हीं मन्त्रों से अपने मरे हुए पुत्र के शरीर में जीव को क्यों नहीं बुला लेते? और शत्रु के शरीर में जीवात्मा का विसर्जन करके क्यों नहीं मार सकते? सुनो भाई भोले लोगो! ये पोप जी तुम को ठग कर अपना प्रयोजन सिद्ध करते हैं। वेदों में पाषाणादि मूर्तिपूजा और परमेश्वर का आवाहन, विसर्जन करने का एक अक्षर भी नहीं।’’ (सत्यार्थप्रकाश 11वाँ समुल्लास, पृ. 369)

जहाँ तर्क युक्तियों से महर्षि दयानन्द ने मूर्ति पूजा का खण्डन किया, वहाँ मूर्तिपूजा वेद विरुद्ध है, इसके लिए भी वेदादिशास्त्रों से प्रमाणों को प्रस्तुत किया। स्तुति प्रार्थना उपासना, ब्रह्म विद्या आदि प्रकरणों में वेद मन्त्रों की व्याखया करते हुए मूर्तिपूजा की व्यर्थता को सिद्ध किया है- ‘‘जो असमभूति अर्थात् अनुत्पन्न अनादि प्रकृति कारण की ब्रह्म के स्थान पर उपासना करते हैं, वे अन्धकार अर्थात् अज्ञान और दुःख सागर में डूबते हैं और समभूति जो कारण से उत्पन्न हुए कार्य रूप पृथ्वी आदि भूत, पाषाण और वृक्षादि अवयव और मनुष्यादि के शरीर की उपासना ब्रह्म के स्थान में करते हैं, वे इस अन्धकार से भी अधिक अन्धकार अर्थात् महामूर्ख, चिरकाल घोर दुःख रूप नरक में गिर के महाक्लेश भोगते हैं।9

जो सब जगत् में व्यापक है, उस निराकार परमात्मा की प्रतिमा, परिमाण, सादृश्य वा मूर्ति नहीं है।।10

जो वाणी की इदन्ता अर्थात् यह जल है लीजिए, वैसा विषय नहीं और जिसके धारण और सत्ता से वाणी की प्रवृत्ति होती है उसी को ब्रह्म जान और उपासना कर और जो उससे भिन्न है, वह उपासनीय नहीं। जो मन से ‘इयत्ता’ करके मनन में नहीं आता, जो मन को जानता है उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर। जो उससे भिन्न जीव और अन्तःकरण है, उसकी उपासना ब्रह्म के स्थान में मत कर। जो आँख से नहीं दीख पड़ता और जिससे सब आँखें देखती हैं, उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर और जो उससे भिन्न सूर्य, विद्युत् और अग्नि आदि जड़ पदार्थ हैं, उनकी उपासना मत कर। जो श्रोत्र से नहीं सुना जाता और जिससे श्रोत्र सुनता है, उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर और उससे भिन्न शबदादि की उपासना उसके स्थान में मत कर। जो प्राणों से चलायमान नहीं होता, जिससे प्राण गमन को प्राप्त होता है, उसी ब्रह्म को तू जान और उसी की उपासना कर। जो यह उससे भिन्न वायु है, उसकी उपासना मत कर।’’ (सत्यार्थप्रकाश 11वाँ समुल्लास, पृ. 371)11

महर्षि दयानन्द ने वेद में निराकार सर्वव्यापक ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन करने वाले अनेक मन्त्रों का उल्लेख अपने वेदभाष्य और अन्य ग्रन्थों में किया है, सपर्यगात्0, सहस्रशीर्षा0, विश्वतश्चक्षु0, आदि  मन्त्र तथा उपनिषद् वाक्यों के प्रमाण दिये हैं।

जहाँ महर्षि दयानन्द ने मूर्तिपूजा का खण्डन किया है, वहीं इस खण्डन से मूर्तिपूजा के अभाव में होने वाली रिक्तता को भी पूर्ण किया है। पञ्चमहायज्ञविधि, संस्कारविधि, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में निराकार ब्रह्म की उपासना कैसे की जाती है- इसका भी उल्लेख किया है। मूर्तिपूजा का खण्डन करते हुए देवपूजा का प्रकार बताते हुए वास्तविक देव और उनकी पूजा के प्रकार का भी उल्लेख किया है, यथा ‘‘प्रश्न- किसी प्रकार की मूर्तिपूजा करनी नहीं और जो अपने आर्यवर्त्त में पञ्चदेवपूजा शबद प्राचीन परमपरा से चला आता है, उसकी यही पञ्चायतन पूजा जो कि शिव, विष्णु, अमबिका, गणेश और सूर्य की मूर्ति बनाकर पूजते हैं, यह पञ्चायतन पूजा है या नहीं?

उत्तर- किसी प्रकार की मूर्तिपूजा न करना, किन्तु ‘मूर्तिमान्’ जो नीचे कहेंगे, उनकी पूजा अर्थात् सत्कार करना चाहिए। वह पञ्चदेवपूजा, पञ्चायतन पूजा शबद बहुत अच्छा अर्थ वाला है, परन्तु विद्याविहीन मूढ़ों ने उसके उत्तम अर्थ को छोड़ कर निकृष्ट अर्थ को पकड़ लिया। जो आजकल शिव आदि पाँचों की मूर्तियाँ बनाकर पूजते हैं, उनका खण्डन तो अभी कर चुके हैं, पर जो सच्ची पञ्चायतन वेदोक्त और वेदानुकूल देवपूजा और मूर्ति पूजा है, सुनो- प्रथम माता- मूर्तिमती पूजनीय देवता, अर्थात् सन्तानों को तन, मन, धन से सेवा करके माता को खुश रखना, हिंसा अर्थात् ताड़ना कभी न करना। दूसरा पिता- सत्कर्त्तव्य देव, उसकी भी माता के समान सेवा करनी। तीसरा- आचार्य जो विद्या का देने वाला है, उसकी तन, मन, धन से सेवा करनी। चौथा अतिथि- जो विद्वान् धार्मिक, निष्कपटी, सबकी उन्नति चाहने वाला जगत् में भ्रमण करता हुआ सत्य उपदेश से सबको सुखी करता है, उसकी सेवा करें। पाँचवाँ स्त्री के लिए पति और पुरुष के लिए स्व-पत्नी पूजनीय है।12

ये पाँच मूर्तिमान् देव जिनके संग से, मनुष्य देह की उत्पत्ति पालन, सत्यशिक्षा, विद्या और सत्योपदेश की प्राप्ति होती है। ये ही परमेश्वर को प्राप्त करने की सीढ़ियाँ हैं। इनकी सेवा न करके जो पाषणादि मूर्ति पूजते हैं, वे अतीव वेदविरोधी हैं। (पृ. 375-376)

ऋषि दयानन्द के जीवन में जो क्रान्ति मूर्ति की पूजा करने से उत्पन्न हुई थी, वह उनके पूरे जीवन में बनी रही। महर्षि दयानन्द ने अपने भाषण, लेखन, वार्तालाप द्वारा मूर्तिपूजा की निस्सारता को प्रतिपादित किया है। ऐसी पद्धति जो जीवन में लाभ के स्थान पर हानि करती है, जिससे व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक लाभ की कोई समभावना नहीं, जिसके करने से मनुष्य का पतन अवश्यभावी है, वह कार्य इस समय में इतने बड़े रूप में कैसे चला? इसके चलने के पीछे क्या कारण है, इनका भी उन्होंने युक्ति प्रमाण पुरस्सर प्रदर्शन किया है। इस प्रकार संक्षेप में कह सकते हैं कि महर्षि दयानन्द ने मूर्तिपूजा के दार्शनिक, सामाजिक, आर्थिक सभी पक्षों का गहराई से अध्ययन किया और साहसपूर्वक समाज के सामने रखा। समाज में जिनको मूर्तिपूजा से प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ मिलता है, वे कभी भी  इसका खण्डन देखना नहीं चाहेंगे, परन्तु महर्षि दयानन्द ने अपने प्राणों की परवाह किये बिना इसका प्रबल खण्डन किया और एक निराकार सर्वव्यापक ईश्वर जिसका स्वरूप आर्यसमाज के दूसरे नियम में बताया गया है, उसी की पूजा करने का विधान किया।

स्वामी दयानन्द ने जब भली प्रकार समझ लिया कि मूर्ति पूजा असत्य के साथ पाखण्ड भी है, जिसके द्वारा जनता को भ्रमित करके उनका धन लूटा जा रहा है, उन्हें अकर्मण्य बना कर भीरु परमुखापेक्षी बनाने में समाज का श्रेष्ठ कहा जाने वाला वर्ग लगा है, इससे समाज को जो दिशा और मार्गदर्शन मिलना चाहिए, वह तो नहीं मिला उसके स्थान पर समाज के रक्षक ही समाज को लूटने वाले बन गये। इसके लिए महर्षि दयानन्द ने जो मार्ग अपनाया, उनमें प्रथम यह था कि समाज में जिन वेदों की प्रतिष्ठा थी, उन वेदों में तथा वेदानुकूल वैदिक साहित्य में मूर्ति पूजा का विधान नहीं है, यह घोषणा की। इसके साथ दूसरा- युक्ति और तर्क से भी मूर्ति पूजा को निरर्थक और पाखण्ड पूर्ण कृत्य है, यह सिद्ध किया।

महर्षि दयानन्द ने प्रचार क्षेत्र में उतरने के साथ ही मूर्तिपूजा पर प्रहार करना प्रारभ कर दिया। पण्डित लोग शास्त्रार्थ में पराजित हो जाते थे, बुद्धिमान् श्रोता स्वामी जी की युक्ति व प्रमाणों से सहमत होकर मूर्तिपूजा छोड़ने के लिए तैयार हो जाते थे, परन्तु पण्डे, पूजारी, मन्दिर, मठ के संचालकों की आजीविका पर यह सीधी चोट थी, इसलिए पण्डित लोग भागकर काशी पहुँचते थे और काशी के पण्डितों से मूर्ति पूजा के पक्ष में व्यवस्था लिखवा लाते थे। इसी कारण मूर्तिपूजा के गढ़ काशी को ही जीतने के लिए स्वामी दयानन्द ने काशी के पण्डितों को चुनौती दे डाली और यह चुनौती भी काशी नरेश के माध्यम से दी।

काशी शास्त्रार्थ का निश्चय काशी नरेश की आज्ञा अनुसार हुआ। वे शास्त्रार्थ में मध्यस्थ बने। मूर्तिपूजा के पक्ष-विपक्ष में जो कुछ इस शास्त्रार्थ में मिलता है, वह विषय से समबद्ध तो न्यून ही है, शास्त्रार्थ की दिशा भटकाने वाला अधिक है। इसकी चर्चा काशी शास्त्रार्थ की छपी पुस्तक की भूमिका देखने से स्पष्ट हो जाता है-

  1. पाषाणादि मूर्ति पूजनादि में वैदिक प्रमाण होता तो क्यों न कहते?
  2. 2. स्व पक्ष को वैदिक प्रमाणों से सिद्ध किये बिना मनुस्मृति आदि को वेदानुकूल हैं या नहीं, इस प्रकरणान्तर में क्यों जा गिरते?
  3. 3. पुराण आदि शबद ब्रह्म वैवर्त आदि ग्रन्थों से भी अपना पक्ष सिद्ध नहीं कर सके।
  4. 4. प्रतिमा शबद से मूर्तिपूजा को सिद्ध करना चाहा, वह भी उनसे नहीं हो सका।
  5. 5. पुराण शबद स्वामी जी विशेषण वाची मानते हैं, काशीस्थ पण्डित विशेष्य वाची, परन्तु पण्डित लोग अपना पक्ष सिद्ध नहीं कर सके।

(स्वामी दयानन्द, काशी शास्त्रार्थ, दयानन्द ग्रन्थमाला, भाग-3, पृ.-451-452)

स्वामी दयानन्द के मूर्ति  पूजा विषयक विचारों को जानने के क्रम में काशी शास्त्रार्थ के पश्चात् स्वामी दयानन्द का एक और संस्कृत भाषा शास्त्रार्थ जो प्रतिमा पूजन विचार नाम से प्रथम बार समवत् 1930 में आर्य भाषा व बंगला भाषा में अनूदित होकर लाइट प्रेस बनारस से छपा था। यह कोलकाता के पास हुगली नामक स्थान में हुआ था। शास्त्रार्थ सवत् 1930 चैत्र शुक्ल एकादशी, मंगलवार तदनुसार 8 अप्रैल 1873 के दिन हुआ था।

इस शास्त्रार्थ में प्रतिमा शबद पर, पुराण शबद पर तथा देवालय, देवपूजा शबद पर विचार किया गया है। स्वामी दयानन्द कहते हैं- प्रतिमा प्रतिमानम्= जिससे प्रमाण अर्थात् परिमाण किया जाय, उसको कहते हैं जैसे पाव, आधा सेर आदि। इसके अतिरिक्त यज्ञ के चमसा आदि को भी प्रतिमा कहते हैं। इसके लिए स्वामी दयानन्द ने मनु का प्रमाण उद्धृत किया है-

तुलामानं प्रतिमानं सर्वं च स्यात् सुलक्षितम्।

षट्सु षट्सु च मासेषु पुनरेव परीक्षयेत्।।              – मनु 8/403

स्वामी दयानन्द पुराणों को अमान्य करते हैं। पुराणों में मूर्ति पूजा का विस्तार से वर्णन है, जिन्हें आजकल की भाषा में शिव, ब्रह्म वैवर्त, भागवत आदि कहते हैं, परन्तु स्वामी दयानन्द पुराण को शदार्थ के रूप में पुराना अथवा पुस्तक के रूप में शतपथ आदि ब्राह्मण ग्रन्थों के नाम पुराण स्वीकार करते हैं।

शेष भाग अगले अंक में…..

– डॉ. धर्मवीर

मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द

सम्पादकीय

मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द

– धर्मवीर

मूर्ति शब्द प्रतिमा या साकार वस्तु के अर्थ में प्रचलित है। संस्कृत में मूर्त शब्द व्यक्त होने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसका दूसरा अर्थ निराकार से साकार होना है। संसार में दो प्रकार की सत्ताएँ दृष्टिगोचर होती हैं- एक चेतन और दूसरी अचेतन। ऋषि दयानन्द की मान्यता के अनुसार दो चेतन सत्तायें स्वरूप से अनादि और पृथक्-पृथक् हैं। एक अचेतन सत्ता प्रवाह से अनादि और एक है। दूसरी चेतन सत्ता के रूप में जीव और ईश्वर दोनों निराकार हैं और एक अचेतन सत्ता प्रवाह से अनादि होने के कारण कभी व्यक्त और कभी अव्यक्त होती है। इसी को संसार के रचना काल में व्यक्त और प्रलय काल में अव्यक्त दशा में बताया है। इस प्रकार संसार ही कभी मूर्त व्यक्त और कभी अमूर्त अव्यक्त दशा में होता है। इसी अर्थ में उपनिषद् ग्रन्थों में मूर्तञ्च-अमूर्तञ्च इसका प्रयोग दिखाई देता है।३ संस्कृत साहित्य में मूर्त शब्द का अनेकार्थ प्रयोग पाया जाता है। अमरकोष तृतीय काण्ड नानार्थ वर्ग-३ श्लोक ६६ में मूर्ति शब्द का अर्थ बताते हुए कहा गया है- मूर्तिः काठिन्यकाययोः। -अर्थात् मूर्ति शब्द का प्रयोग कठोरता और काया-शरीर के अर्थ में पाया जाता है। मूर्ति शब्द का अर्थ है- आकार वाली वस्तु। इस प्रकार सोना, चाँदी, पीतल, लोहा, मिट्टी आदि से बनी साकार वस्तु मूर्ति कहलाती है।

एक साकार वस्तु से दूसरी साकार वस्तु की तुलना प्रतिमा कही जाती है। संस्कृत में प्रतिमा शब्द का मूल अर्थ बाट है। जिससे वस्तु को तोला जाता है, उस साधन को प्रतिमा कहा जाता है। एक वस्तु की दूसरी वस्तु से तुलना अनेक प्रकार से होती है- रूप से, भार से, योग्यता से। बहुत प्रकार से किन्हीं दो वस्तुओं के बीच समानता देखी जा सकती है। यह तुलना जड़ पदार्थों में ही सम्भव है। साकार से साकार की प्रतिमा हो सकती है। निराकार से  साकार प्रतिमा की रचना सम्भव नहीं है, इसलिए साकार व्यक्ति, वस्तु आदि की प्रतिमा बन सकती है। एक समान आकृति को देखकर दूसरी समान आकृति का बोध होता है, जैसे चित्र को देखकर व्यक्ति का या व्यक्ति को देख कर चित्र और व्यक्ति की समानता का ज्ञान होता है। ईश्वर के समान कोई नहीं, इसलिए वेद कहता है-

न तस्य प्रतिमा अस्ति।     -यजु. ३२/३।।

आगे चलकर समानता के कारण मूर्ति के लिए भी प्रतिमा शब्द का प्रयोग होने लगा। आज प्रतिमा शब्द से मूर्ति का ही अर्थ ग्रहण किया जाता है।

संसार मूर्त है, इसलिए इसमें मूर्तियों का अभाव नहीं है। साकार पदार्थों से बहुत सारे दूसरे साकार पदार्थ बनाये जाते हैं, स्वतः भी बन सकते हैं, अतः मूर्ति कोई विवाद या विवेचना का विषय नहीं है। मूर्ति के साथ जब पूजा शब्द का उपयोग किया जाता है, तब अर्थ में सन्देह उत्पन्न होता है। पूजा शब्द सत्कार, सेवा, आदर, आज्ञा पालन, रक्षा आदि के अर्थ में प्रयुक्त होता है। पूजा शब्द का उपयोग जब-जब पदार्थों के प्रसंग में किया जाता है, तो सन्देह की स्थिति उत्पन्न होती है। यज्ञ शब्द का प्रयोग अग्निहोत्र के लिए किया जाता है, जिसका अर्थ देवपूजा भी है। वेद में जड़ पदार्थों को भी देवता कहा है। इसी क्रम में चेतन को भी देव कहा गया तथा परमेश्वर को महादेव कहा गया। इस प्रकार देव शब्द से साकार और निराकार तथा जड़ और चेतन दोनों प्रकार के पदार्थों का ग्रहण होने लगा। इनमें एक के मूर्त होने से दूसरे के मूर्त होने की सम्भावना  बन जाती है। मूर्त पदार्थों में जड़ और चेतन दोनों पदार्थ देवता की श्रेणी में आते हैं- पहले अग्नि, वायु, जल आदि, दूसरे माता-पिता, आचार्य, अतिथि आदि। इस प्रकार देव शब्द की समानता से पूजा की समानता जुड़ती दिखाई देती है। इस तरह साकार, निराकार, जड़, चेतन में देवत्व बन गया तो सब की पूजा में भी समानता मानी व की जाने लगी।

सामर्थ्य और उपयोगिता के कारण चेतन से जिस प्रकार प्रार्थना की जाती है, उसी प्रकार जड़ से उसके सामर्थ्य के सामने विवश होकर अग्नि, वायु, जल आदि से भी प्रार्थना की जाने लगी। चेतन को भोजन, आसन, माला, सेवा, सत्कार आदि से सन्तुष्ट किया जाता है, उसी प्रकार जड़ देवता को भी सन्तुष्ट करने की परम्परा चल पड़ी। सभी देव शब्दों का मानवीकरण कर दिया, चाहे वह जड़ हो या चेतन, साकार हो या निराकार। मनुष्यों ने इन सब की मूर्ति बना ली। उन वस्तुओं के गुण उन मूर्तियों में चिह्नित कर दिये गये। ऐसा करते हुए ईश्वर का भी मानवीकरण हो गया। मानवीकरण होने में रूप और नाम के बिना उसका उपयोग नहीं हो सकता, इसलिए महापुरुषों का रूप और नाम ईश्वर की श्रेणी में आ गया। पहले दौर में शिव, विष्णु, राम, कृष्ण आदि रूप देवत्व की श्रेणी में आते दिखाई देते हैं। ईश्वर के स्थान पर समाज में इन देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ पूजी जाने लगीं और इनसे ही प्रार्थना भी होने लगी। इस प्रकार इन मूर्तियों से मनुष्य के दो अभिप्राय सिद्ध हो जाते हैं- प्रथम जो उपस्थित नहीं है, वह उपस्थित हो जाता है। जिसकी मृत्यु हो चुकी है जो इस संसार से जा चुका है, उसकी स्मृति को स्थायित्व मिल जाता है तथा दूसरा अप्रत्यक्ष परमेश्वर इस मूर्ति के माध्यम से प्रत्यक्ष हो जाता है। इस प्रकार निराकार ईश्वर को साकार बनाने का विचार मूर्ति-पूजा का आधार है।

जब ईश्वर को अपनी इच्छानुरूप रूप दिया जा सकता है तो बाद के लोगों ने राम-कृष्ण के स्थान पर उनके इष्ट प्रिय व्यक्तियों को ही ईश्वर के स्थान पर मन्दिर में रख दिया। इस क्रम में मत-मतान्तरों के संस्थापक मन्दिरों के पूज्य देव बन गये। कुछ महावीर, नानक आदि ईश्वर की श्रेणी में आ गये। इसके बाद के युग में मन्दिर के महन्त, महामण्डलेश्वर, गुरु आदि लोगों की भी मूर्तियाँ बनने लगीं, उनकी भी ईश्वर के स्थान पर पूजा होने लगी। कुछ लोगों ने अपने माता-पिता, प्रियजनों को ही मन्दिर के देवताओं के स्थान पर अधिष्ठित कर दिया। उनकी पूजा को ही ईश्वर की पूजा समझने लगे। आज तो शंकराचार्य के स्थान पर आसाराम, रामरहीम, रामपाल दास जैसे कुछ पीर-फकीर भी मूर्ति के रूप में या समाधि के रूप में पूजे जाने लगे और कुछ लोग स्वयं ही अपने को पुजवाने लगे। इस तरह निराकार चेतन, सर्वव्यापक ईश्वर की यात्रा, साकार जड़ में बदल गई।

मूर्तिपूजा का समाज पर दो प्रकार से प्रभाव पड़ा। मूर्तिपूजा करने से मनुष्य कायर और भीरु बनता गया। देवता के रुष्ट होने का भय दिखाकर पुजारियों ने राजा से जनसामान्य तक को ठगा है, आज भी ठग रहे हैं। दूसरा प्रभाव समाज में मूर्तिपूजा का यह हुआ कि पुरुषार्थहीनता बढ़ी। मनुष्य के मन में इस प्रकार के विचार दृढ़ होते गये कि मनुष्य को बिना पुरुषार्थ के ही इच्छित फल की प्राप्ति हो सकती है। देवता पूजा से प्रसन्न होकर मनोवाञ्छित फल प्रदान करते हैं। इस विचार पर आर्य विचारक एवं दार्शनिक पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय ने इस प्रकार लिखा है- ‘‘वह (मूर्तिपूजक) अन्धकार में है और उसी में रहना चाहता है। वह प्रकाश का इच्छुक नहीं है। यदि आप बातचीत करके इस सम्बन्ध में उसे बतलाना चाहें तो वह बात उसे रुचिकर न होगी और वह उससे घबरायेगा। उसे भय है कि इस प्रकार की बौद्धिक छानबीन उसे अविश्वासी न बना दे और इसीलिए वह उससे बच निकलने का प्रयत्न करता है। इसका कारण यह नहीं कि वह तर्क-वितर्क की योग्यता नहीं रखता। मूर्तिपूजकों में आपको सर्वोत्तम वकील, जो चकित करने वाली तीव्र तार्किक बुद्धि रखते हैं, तर्क शास्त्र के उपाध्याय, जो सूक्ष्म हेत्वाभास को ढूँढ़ निकालने की क्षमता रखते हैं तथा चतुर राजनीतिज्ञ, जो संसार के राजनैतिक क्षेत्र में गुह्य-से-गुह्य कार्य करने वाली शक्तियों का सहज साक्षात् कर लेते हैं, मिलेंगे। उनमें आपको वाणिज्य कुशल व्यापारी, जिनकी दृष्टि से संसार की किसी मण्डी का कोई कोना छिपा हुआ नहीं है, अर्थशास्त्री जो शोषक-वर्ग की चालों का सफलतापूर्वक प्रतिकार कर सकते हैं, ज्योतिष-विद्याविशारद, जिनको आकाशस्थ ग्रह-उपग्रहों का अपने ग्रह से भी कहीं अधिक परिज्ञान है तथा गणितज्ञ, जिन्हें गणित के सूक्ष्म तत्त्वों पर पूर्ण अधिकार है, भी मिल जायेंगे। ये सब बुद्धि विशेषज्ञ है, परन्तु आप इन्हें मन्दिरों में अनपढ़ लोगों के साथ वैसी ही भक्ति-भावना तथा अनिश्चित बुद्धि से मूर्तिपूजा करते देखेंगे।’’

(लेखक पं. राजेन्द्र, भारत में मूर्तिपूजा, पृ. १९९)

ऋषि दयानन्द के जीवन में मूर्तिपूजा के प्रति अनास्था का भाव उनके बाल्यकाल से देखने में आता है। जिस समय बालक मूलशंकर की आयु मात्र तेरह वर्ष की थी, उस समय जिस घटना ने उनके जीवन में झंझावात उत्पन्न किया, वह घटना मूर्तिपूजा से ही सम्बन्ध रखती है। महर्षि दयानन्द ने इस घटना का वर्णन अपनी आत्मकथा में इस प्रकार किया है- ‘‘जब मैं मन्दिर में इस प्रकार अकेला जाग रहा था तो घटना उपस्थित हुई। कई चूहे बाहर निकलकर महादेव के पिण्ड के ऊपर दौड़ने लगे और बीच-बीच में महादेव पर जो चावल चढ़ाये गये थे, उन्हें भक्षण करने लगे। मैं जाग्रत रहकर चूहों के इस कार्य को देखने लगा। देखते-देखते मेरे मन में आया कि ये क्या है? जिस महादेव की शान्त पवित्र मूर्ति की कथा, जिस महादेव के प्रचण्ड पाशुपतास्त्र की कथा, जिस महादेव के विशाल वृषारोहण की कथा गत दिवस व्रत के वृत्तान्त में सुनी थी, क्या वह महादेव वास्तव में यही है? इस प्रकार मैं चिन्ता से विचलित चित्त हो उठा। मैंने सोचा भी यदि यथार्थ में ये वही प्रबल, प्रतापी, दुर्दान्तदैत्यदलनकारी महादेव हैं तो अपने शरीर पर से इन थोड़े-से चूहों को क्यों विताड़ित नहीं कर सकते? इस प्रकार बहुत देर तक चिन्ता स्रोत में पड़कर मेरा मस्तिष्क घूमने लगा। मैं आप ही अपने से पूछने लगा कि जो चलते-फिरते हैं, खाते-पीते हैं, हाथ में त्रिशूल धारण करते हैं, डमरु बजाते हैं और मनुष्यों को श्राप दे सकते हैं, क्या यह वही वृषारूढ़ देवता हैं जो मेरे सामने उपस्थित हैं?’’ इस घटना के बाद बालक मूलशंकर ने पिता को जगाकर अपनी शंकाओं का समाधान कराना चाहा, सन्तोषजनक उत्तर न मिलने पर घर आकर व्रत तोड़ दिया और भोजन करके सो गया। हम देखते हैं कि यह बालक जीवन भर मूर्तिपूजा के पाखण्ड को खण्डित करता रहा। इसकी निरर्थकता बताने में जिस योग्यता और साहस को हम देखते हैं, वह उल्लेखनीय है। महर्षि दयानन्द के सामने उदयपुर के भगवान् एकलिंग की गद्दी का प्रस्ताव था, शर्त केवल एक थी- मूर्तिपूजा खण्डन छोड़ना, परन्तु महर्षि दयानन्द का उत्तर था- ‘‘मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ति करूँ अथवा ईश्वरीय आज्ञा का पालन करूँ?’’ (भारत में मूर्ति पूजा, पृ. १६२)

महर्षि दयानन्द ने मूर्ति पूजा के खण्डन में कभी कोई समझौता नहीं किया। इस पर पादरी के. जे. लूकस ने जो विचार दिये हैं, वे ध्यातव्य हैं। उक्त पादरी ने १८७७ में फर्रुखाबाद में मूर्ति पूजा के विषय में उनके व्याख्यान सुने थे, पादरी लूकस ने बतलाया- ‘‘वे मूर्तिपूजा के विरुद्ध इतने बल, इतने स्पष्ट और विश्वास के साथ बोलते थे कि मुझे फर्रुखाबाद की जनता की ओर से उनका हार्दिक स्वागत किये जाने पर आश्चर्य हुआ। मुझे उनका यह कथन स्मरण है कि जब मैंने उनसे कहा कि यदि आपको तोप के मुँह पर रखकर कहा जाए कि यदि तुम मूर्ति को मस्तक न झुकाओगे तो तुम को तोप से उड़ा दिया जायेगा, तो आप क्या कहेंगे? स्वामी जी ने उत्तर दिया कि ‘मैं कहूँगा कि उड़ा दो’ दयानन्द इतने निर्भीक थे।’’

(भारत में मूर्तिपूजा पृ. १६८)

महर्षि दयानन्द का मूर्तिपूजा खण्डन एक आग्रह मात्र नहीं था। उन्होंने मूर्तिपूजा की निरर्थकता सिद्ध करने में दार्शनिक, आर्थिक, सामाजिक-सभी पक्षों पर गहरा विचार किया है। जो लोग ईश्वर उपासना में मूर्तिपूजा को सहायक समझते हैं, उनके तर्कों का प्रबल तर्कों से खण्डन किया है।

‘‘प्रश्न- साकार में मन स्थिर होना और निराकार में स्थिर होना कठिन है, इसलिए मूर्तिपूजा करनी चाहिए।

उत्तर- साकार में मन स्थिर कभी नहीं हो सकता, क्योंकि उसको मन झट ग्रहण करके उसी के एक-एक अवयव में घूमता और दूसरे में दौड़ जाता है और निराकार परमात्मा के ग्रहण में मन अत्यन्त दौड़ता है तो भी अन्त नहीं पाता। निरवयव होने से चञ्चल भी नहीं रहता, किन्तु उसी के गुण-कर्म-स्वभाव का विचार करता-करता आनन्द में मग्न होकर स्थिर हो जाता है और जो साकार में स्थिर होता तो सब जगत् का मन स्थिर हो जाता, क्योंकि जगत् में मनुष्य स्त्री, पुत्र, धन, मित्र आदि साकार में फँसा रहता है, परन्तु किसी का मन स्थिर नहीं होता, जब तक निराकार में न लगावें, क्योंकि निरवयव होने से उसमें मन स्थिर हो जाता है। इसलिए मूर्तिपूजा करना अधर्म है।’’

शेष भाग अगले अंक में…..

– डॉ. धर्मवीर