मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द -2

मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द

पिछले अंक का शेष भाग…..

महर्षि दयानन्द मूर्तिपूजा को आर्थिक हानि का कारण मानते हैं। इससे सामाजिक भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा मिलता है। (सत्यार्थप्रकाश 11वाँ समुल्लास मूर्तिपूजा से 15 हानियाँ) मूर्तिपूजा के लिये दिये जाने वाले तर्कों की समीक्षा भी उन्होंने की है। जो लोग मूर्तिपूजा को स्थूल लक्ष्य और ईश्वर तक पहुँचने की सीढ़ी बताते हैं, उनके लिए महर्षि दयानन्द कहते हैं- मूर्तिपूजा सीढ़ी नहीं, खाई है। मूर्तिपूजा गुड़ियों के खेल के समान ब्रह्म तक जाने का साधन मानने वालों  को महर्षि दयानन्द अज्ञानी मानते हैं, अतः शास्त्रों का अध्ययन, विद्वानों की सेवा, सत्संग, सत्यभाषाणादि व्यवहार से ही ब्रह्म की प्राप्ति सभव है। परमेश्वर को मूर्ति में व्यापक होने से मूर्तिपूजा से परमेश्वर की पूजा हो जाती है- ऐसा मानने वालों के लिए महर्षि दयानन्द का उत्तर है- ‘‘जब परमेश्वर सर्वत्र व्यापक है तो किसी एक वस्तु में परमेश्वर की भावना करना, अन्यत्र न करना- यह ऐसी बात है कि जैसे चक्रवर्ती राजा को सब राज्य की सत्ता से छुड़ा के एक छोटी-सी झोंपड़ी का स्वामी मानना।’’ (सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास 11वाँ) जो लोग मूर्ति में परमेश्वर की भावना करने की बात करते हैं, उनके लिए महर्षि दयानन्द का उत्तर है- ‘‘भाव सत्य है या झूठ? जो कहो सत्य है तो तुहारे भाव के अधीन होकर परमेश्वर बद्ध हो जायेगा और तुम मृत्तिका में सुवर्ण-रजतादि, पाषाण में हीरा-पन्ना आदि, समुद्रफेन में मोती, जल में घृत, दुग्ध, दही आदि और धूलि में मैदा-शक्कर आदि की भावना करके उनको वैसा क्यों नहीं बनाते हो?’’

(सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास 11वाँ, पृ. 368)

मन्त्रों के आवाहन-विसर्जन से देवता के आ जाने और चले जाने की बात पर वे कहते हैं- ‘‘जो मन्त्र पढ़कर आवाहन करने से देवता आ जाता है तो मूर्ति चेतन क्यों नहीं हो जाती? और विसर्जन करने से चला जाता है तो वह कहाँ से आता और कहाँ जाता है? सुनो अन्धो! पूर्ण परमात्मा न आता और न जाता है। जो तुम मन्त्र बल से परमेश्वर को बुला लेते हो तो उन्हीं मन्त्रों से अपने मरे हुए पुत्र के शरीर में जीव को क्यों नहीं बुला लेते? और शत्रु के शरीर में जीवात्मा का विसर्जन करके क्यों नहीं मार सकते? सुनो भाई भोले लोगो! ये पोप जी तुम को ठग कर अपना प्रयोजन सिद्ध करते हैं। वेदों में पाषाणादि मूर्तिपूजा और परमेश्वर का आवाहन, विसर्जन करने का एक अक्षर भी नहीं।’’ (सत्यार्थप्रकाश 11वाँ समुल्लास, पृ. 369)

जहाँ तर्क युक्तियों से महर्षि दयानन्द ने मूर्ति पूजा का खण्डन किया, वहाँ मूर्तिपूजा वेद विरुद्ध है, इसके लिए भी वेदादिशास्त्रों से प्रमाणों को प्रस्तुत किया। स्तुति प्रार्थना उपासना, ब्रह्म विद्या आदि प्रकरणों में वेद मन्त्रों की व्याखया करते हुए मूर्तिपूजा की व्यर्थता को सिद्ध किया है- ‘‘जो असमभूति अर्थात् अनुत्पन्न अनादि प्रकृति कारण की ब्रह्म के स्थान पर उपासना करते हैं, वे अन्धकार अर्थात् अज्ञान और दुःख सागर में डूबते हैं और समभूति जो कारण से उत्पन्न हुए कार्य रूप पृथ्वी आदि भूत, पाषाण और वृक्षादि अवयव और मनुष्यादि के शरीर की उपासना ब्रह्म के स्थान में करते हैं, वे इस अन्धकार से भी अधिक अन्धकार अर्थात् महामूर्ख, चिरकाल घोर दुःख रूप नरक में गिर के महाक्लेश भोगते हैं।9

जो सब जगत् में व्यापक है, उस निराकार परमात्मा की प्रतिमा, परिमाण, सादृश्य वा मूर्ति नहीं है।।10

जो वाणी की इदन्ता अर्थात् यह जल है लीजिए, वैसा विषय नहीं और जिसके धारण और सत्ता से वाणी की प्रवृत्ति होती है उसी को ब्रह्म जान और उपासना कर और जो उससे भिन्न है, वह उपासनीय नहीं। जो मन से ‘इयत्ता’ करके मनन में नहीं आता, जो मन को जानता है उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर। जो उससे भिन्न जीव और अन्तःकरण है, उसकी उपासना ब्रह्म के स्थान में मत कर। जो आँख से नहीं दीख पड़ता और जिससे सब आँखें देखती हैं, उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर और जो उससे भिन्न सूर्य, विद्युत् और अग्नि आदि जड़ पदार्थ हैं, उनकी उपासना मत कर। जो श्रोत्र से नहीं सुना जाता और जिससे श्रोत्र सुनता है, उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर और उससे भिन्न शबदादि की उपासना उसके स्थान में मत कर। जो प्राणों से चलायमान नहीं होता, जिससे प्राण गमन को प्राप्त होता है, उसी ब्रह्म को तू जान और उसी की उपासना कर। जो यह उससे भिन्न वायु है, उसकी उपासना मत कर।’’ (सत्यार्थप्रकाश 11वाँ समुल्लास, पृ. 371)11

महर्षि दयानन्द ने वेद में निराकार सर्वव्यापक ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन करने वाले अनेक मन्त्रों का उल्लेख अपने वेदभाष्य और अन्य ग्रन्थों में किया है, सपर्यगात्0, सहस्रशीर्षा0, विश्वतश्चक्षु0, आदि  मन्त्र तथा उपनिषद् वाक्यों के प्रमाण दिये हैं।

जहाँ महर्षि दयानन्द ने मूर्तिपूजा का खण्डन किया है, वहीं इस खण्डन से मूर्तिपूजा के अभाव में होने वाली रिक्तता को भी पूर्ण किया है। पञ्चमहायज्ञविधि, संस्कारविधि, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में निराकार ब्रह्म की उपासना कैसे की जाती है- इसका भी उल्लेख किया है। मूर्तिपूजा का खण्डन करते हुए देवपूजा का प्रकार बताते हुए वास्तविक देव और उनकी पूजा के प्रकार का भी उल्लेख किया है, यथा ‘‘प्रश्न- किसी प्रकार की मूर्तिपूजा करनी नहीं और जो अपने आर्यवर्त्त में पञ्चदेवपूजा शबद प्राचीन परमपरा से चला आता है, उसकी यही पञ्चायतन पूजा जो कि शिव, विष्णु, अमबिका, गणेश और सूर्य की मूर्ति बनाकर पूजते हैं, यह पञ्चायतन पूजा है या नहीं?

उत्तर- किसी प्रकार की मूर्तिपूजा न करना, किन्तु ‘मूर्तिमान्’ जो नीचे कहेंगे, उनकी पूजा अर्थात् सत्कार करना चाहिए। वह पञ्चदेवपूजा, पञ्चायतन पूजा शबद बहुत अच्छा अर्थ वाला है, परन्तु विद्याविहीन मूढ़ों ने उसके उत्तम अर्थ को छोड़ कर निकृष्ट अर्थ को पकड़ लिया। जो आजकल शिव आदि पाँचों की मूर्तियाँ बनाकर पूजते हैं, उनका खण्डन तो अभी कर चुके हैं, पर जो सच्ची पञ्चायतन वेदोक्त और वेदानुकूल देवपूजा और मूर्ति पूजा है, सुनो- प्रथम माता- मूर्तिमती पूजनीय देवता, अर्थात् सन्तानों को तन, मन, धन से सेवा करके माता को खुश रखना, हिंसा अर्थात् ताड़ना कभी न करना। दूसरा पिता- सत्कर्त्तव्य देव, उसकी भी माता के समान सेवा करनी। तीसरा- आचार्य जो विद्या का देने वाला है, उसकी तन, मन, धन से सेवा करनी। चौथा अतिथि- जो विद्वान् धार्मिक, निष्कपटी, सबकी उन्नति चाहने वाला जगत् में भ्रमण करता हुआ सत्य उपदेश से सबको सुखी करता है, उसकी सेवा करें। पाँचवाँ स्त्री के लिए पति और पुरुष के लिए स्व-पत्नी पूजनीय है।12

ये पाँच मूर्तिमान् देव जिनके संग से, मनुष्य देह की उत्पत्ति पालन, सत्यशिक्षा, विद्या और सत्योपदेश की प्राप्ति होती है। ये ही परमेश्वर को प्राप्त करने की सीढ़ियाँ हैं। इनकी सेवा न करके जो पाषणादि मूर्ति पूजते हैं, वे अतीव वेदविरोधी हैं। (पृ. 375-376)

ऋषि दयानन्द के जीवन में जो क्रान्ति मूर्ति की पूजा करने से उत्पन्न हुई थी, वह उनके पूरे जीवन में बनी रही। महर्षि दयानन्द ने अपने भाषण, लेखन, वार्तालाप द्वारा मूर्तिपूजा की निस्सारता को प्रतिपादित किया है। ऐसी पद्धति जो जीवन में लाभ के स्थान पर हानि करती है, जिससे व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक लाभ की कोई समभावना नहीं, जिसके करने से मनुष्य का पतन अवश्यभावी है, वह कार्य इस समय में इतने बड़े रूप में कैसे चला? इसके चलने के पीछे क्या कारण है, इनका भी उन्होंने युक्ति प्रमाण पुरस्सर प्रदर्शन किया है। इस प्रकार संक्षेप में कह सकते हैं कि महर्षि दयानन्द ने मूर्तिपूजा के दार्शनिक, सामाजिक, आर्थिक सभी पक्षों का गहराई से अध्ययन किया और साहसपूर्वक समाज के सामने रखा। समाज में जिनको मूर्तिपूजा से प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ मिलता है, वे कभी भी  इसका खण्डन देखना नहीं चाहेंगे, परन्तु महर्षि दयानन्द ने अपने प्राणों की परवाह किये बिना इसका प्रबल खण्डन किया और एक निराकार सर्वव्यापक ईश्वर जिसका स्वरूप आर्यसमाज के दूसरे नियम में बताया गया है, उसी की पूजा करने का विधान किया।

स्वामी दयानन्द ने जब भली प्रकार समझ लिया कि मूर्ति पूजा असत्य के साथ पाखण्ड भी है, जिसके द्वारा जनता को भ्रमित करके उनका धन लूटा जा रहा है, उन्हें अकर्मण्य बना कर भीरु परमुखापेक्षी बनाने में समाज का श्रेष्ठ कहा जाने वाला वर्ग लगा है, इससे समाज को जो दिशा और मार्गदर्शन मिलना चाहिए, वह तो नहीं मिला उसके स्थान पर समाज के रक्षक ही समाज को लूटने वाले बन गये। इसके लिए महर्षि दयानन्द ने जो मार्ग अपनाया, उनमें प्रथम यह था कि समाज में जिन वेदों की प्रतिष्ठा थी, उन वेदों में तथा वेदानुकूल वैदिक साहित्य में मूर्ति पूजा का विधान नहीं है, यह घोषणा की। इसके साथ दूसरा- युक्ति और तर्क से भी मूर्ति पूजा को निरर्थक और पाखण्ड पूर्ण कृत्य है, यह सिद्ध किया।

महर्षि दयानन्द ने प्रचार क्षेत्र में उतरने के साथ ही मूर्तिपूजा पर प्रहार करना प्रारभ कर दिया। पण्डित लोग शास्त्रार्थ में पराजित हो जाते थे, बुद्धिमान् श्रोता स्वामी जी की युक्ति व प्रमाणों से सहमत होकर मूर्तिपूजा छोड़ने के लिए तैयार हो जाते थे, परन्तु पण्डे, पूजारी, मन्दिर, मठ के संचालकों की आजीविका पर यह सीधी चोट थी, इसलिए पण्डित लोग भागकर काशी पहुँचते थे और काशी के पण्डितों से मूर्ति पूजा के पक्ष में व्यवस्था लिखवा लाते थे। इसी कारण मूर्तिपूजा के गढ़ काशी को ही जीतने के लिए स्वामी दयानन्द ने काशी के पण्डितों को चुनौती दे डाली और यह चुनौती भी काशी नरेश के माध्यम से दी।

काशी शास्त्रार्थ का निश्चय काशी नरेश की आज्ञा अनुसार हुआ। वे शास्त्रार्थ में मध्यस्थ बने। मूर्तिपूजा के पक्ष-विपक्ष में जो कुछ इस शास्त्रार्थ में मिलता है, वह विषय से समबद्ध तो न्यून ही है, शास्त्रार्थ की दिशा भटकाने वाला अधिक है। इसकी चर्चा काशी शास्त्रार्थ की छपी पुस्तक की भूमिका देखने से स्पष्ट हो जाता है-

  1. पाषाणादि मूर्ति पूजनादि में वैदिक प्रमाण होता तो क्यों न कहते?
  2. 2. स्व पक्ष को वैदिक प्रमाणों से सिद्ध किये बिना मनुस्मृति आदि को वेदानुकूल हैं या नहीं, इस प्रकरणान्तर में क्यों जा गिरते?
  3. 3. पुराण आदि शबद ब्रह्म वैवर्त आदि ग्रन्थों से भी अपना पक्ष सिद्ध नहीं कर सके।
  4. 4. प्रतिमा शबद से मूर्तिपूजा को सिद्ध करना चाहा, वह भी उनसे नहीं हो सका।
  5. 5. पुराण शबद स्वामी जी विशेषण वाची मानते हैं, काशीस्थ पण्डित विशेष्य वाची, परन्तु पण्डित लोग अपना पक्ष सिद्ध नहीं कर सके।

(स्वामी दयानन्द, काशी शास्त्रार्थ, दयानन्द ग्रन्थमाला, भाग-3, पृ.-451-452)

स्वामी दयानन्द के मूर्ति  पूजा विषयक विचारों को जानने के क्रम में काशी शास्त्रार्थ के पश्चात् स्वामी दयानन्द का एक और संस्कृत भाषा शास्त्रार्थ जो प्रतिमा पूजन विचार नाम से प्रथम बार समवत् 1930 में आर्य भाषा व बंगला भाषा में अनूदित होकर लाइट प्रेस बनारस से छपा था। यह कोलकाता के पास हुगली नामक स्थान में हुआ था। शास्त्रार्थ सवत् 1930 चैत्र शुक्ल एकादशी, मंगलवार तदनुसार 8 अप्रैल 1873 के दिन हुआ था।

इस शास्त्रार्थ में प्रतिमा शबद पर, पुराण शबद पर तथा देवालय, देवपूजा शबद पर विचार किया गया है। स्वामी दयानन्द कहते हैं- प्रतिमा प्रतिमानम्= जिससे प्रमाण अर्थात् परिमाण किया जाय, उसको कहते हैं जैसे पाव, आधा सेर आदि। इसके अतिरिक्त यज्ञ के चमसा आदि को भी प्रतिमा कहते हैं। इसके लिए स्वामी दयानन्द ने मनु का प्रमाण उद्धृत किया है-

तुलामानं प्रतिमानं सर्वं च स्यात् सुलक्षितम्।

षट्सु षट्सु च मासेषु पुनरेव परीक्षयेत्।।              – मनु 8/403

स्वामी दयानन्द पुराणों को अमान्य करते हैं। पुराणों में मूर्ति पूजा का विस्तार से वर्णन है, जिन्हें आजकल की भाषा में शिव, ब्रह्म वैवर्त, भागवत आदि कहते हैं, परन्तु स्वामी दयानन्द पुराण को शदार्थ के रूप में पुराना अथवा पुस्तक के रूप में शतपथ आदि ब्राह्मण ग्रन्थों के नाम पुराण स्वीकार करते हैं।

शेष भाग अगले अंक में…..

– डॉ. धर्मवीर

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