विधर्मियों की ओर से आर्य हिन्दू जाति को भ्रमित करने के लिये नया-नया साहित्य छप रहा है। पुस्तक मेला दिल्ली में भी एक पुस्तिका के प्रचार की सभा को सूचना मिली है। सभा से उत्तर देने की माँग हो रही है। ‘ज्ञान घोटाला’ पुस्तक के साथ ही श्रद्धेय पं. शान्तिप्रकाश जी का यह विचारोत्तेजक लेख भी प्रकाशित कर दिया जायेगा। पाठक प्रतिक्षा करें। पण्डित जी के इस लेख को प्रकाशित करते हुए सभा गौरवान्वित हो रही है। – राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’
हमारे शास्त्र ब्रह्मा को संसार का प्रथम गुरु मानते हैं। जैसा कि उपनिषदों में लिखा है कि
यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै।
परमात्मा ब्रह्मा को पूर्ण बनाता और उसके लिये (चार ऋषियों द्वारा) वेदों का ज्ञान देता है। अन्यत्र शतपथादि में भी अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा पर ऋग्यजु: साम और अथर्व का आना लिखा है। सायण ने अपने ‘ऋग्वेदोपोद्घात’ में इन चार ऋषियों पर उन्हीं चार वेदों का आना स्वीकार किया है। वेदों में वेदों को किसी एक व्यक्ति पर प्रकट होना स्वीकार नहीं किया। देखिये-
यज्ञेन वाच: पदवीयमायन्तामन्वविन्दनृषिषु प्रविष्टाम्।
– ऋ. मण्डल १०
इस मन्त्र में ‘वाच:’ वेदवाणियों के लिये बहुवचन है तथा ‘ऋषिषु प्रविष्टाम्’ ऋषियों के लिये भी बहुवचन आया है।
चार वेद और चार ऋषि- ‘चत्वारि वाक् परिमिता पदानि’ चार वेद वाणियाँ हंै, जिनके अक्षर पदादि नपे-तुले हैं। अत: उनमें परिवर्तन हो सकना असम्भव है, क्योंकि यह ईश्वर की रचना है।
देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति।
– अथर्व. १०
परमेश्वर देव के काव्य को देख, जो न मरता है और पुराना होता है। सनातन ईश्वर का ज्ञान भी सनातन है। शाश्वत है।
अपूर्वेणेषिता वाचस्ता वदन्ति यथायथम्।
– अथर्व. १०-७-१४
संसार में प्रथम उत्पन्न हुए ऋषि लोग ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा पृथ्वी के वैज्ञानिक रहस्यों को प्रकट करने में समर्थ अथर्ववेद का प्रकाश ईश प्रेरणा से करते हैं।
प्रेणा तदेषां निहितं गुहावि:।। – ऋ. १०-७१-१
इन ऋषियों की आत्म बुद्धि रूपी गुहा में निहित वेद-ज्ञान-राशि ईश प्रेरणा से प्रकट होती है। इस प्रसिद्ध मन्त्र में भी ऋषियों के लिए ‘एषां’ का प्रयोग बहुवचनान्त है।
अत: उपनिषद् के प्रथम प्रमाण का अभिप्राय यह हुआ कि ब्रह्मा के लिये वेदों का ज्ञान ऋषियों द्वारा प्राप्त हुआ, वह स्पष्ट है।
अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ने चारों वेदों का पूर्ण ज्ञान जिन ऋषियों को दिया, उसमें ब्रह्मा ने सबसे प्रथम मनुष्यों में वेद-धर्म का प्रचार किया और धर्म की व्यवस्था तथा यज्ञों का प्रचलन किया। अत: ब्रह्माजी संसार के सबसे पहले संस्थापक गुरु माने जाने लगे। क्योंकि वेद में ही लिखा है कि-
ब्रह्मा देवानां पदवी:। – ऋग्वेद ९-९६-६
-ब्रह्मा विद्वानों की पदवी है। बड़े-बड़े यज्ञों में चार विद्वान् मन्त्र-प्रसारण का कार्य करते हैं। उनमें होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा अपने-अपने वेदों का पाठ करते हुए ब्रह्मा की व्यवस्था में ही कार्य करते हैं, यह प्राचीन आर्य मर्यादा इस मन्त्र के आधार पर है-
ऋचां त्व: पोषमास्ते पुपुष्वान्
गायत्रं त्वो गायति शक्वरीषु।
ब्रह्मा त्वो वदति जातिवद्यां
यज्ञस्य मात्रां विमिमीत उत्व:। – ऋग्. १०-७१-११
ऋग्वेद की ऋचाओं की पुष्टि होता, सामकी, शक्तिदात्री ऋचाओं की स्तुति उद्गाता, यजु मन्त्रों द्वारा यज्ञमात्रा का अवधारण अध्वर्यु द्वारा होता है और यज्ञ की सारी व्यवस्था तथा यज्ञ कराने वाले होतादि पर नियन्त्रण ब्रह्मा करता है।
मनु-धर्मशास्त्र में तो स्पष्ट वर्णन है-
अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम्।
दुदोह यज्ञ सिद्धयर्थमृग्यजु: सामलक्षणम्।
-मनु. १/२३
-ब्रह्माजी ने अग्नि, वायु, आदित्य ऋषियों से यज्ञ सिद्धि के लिये ऋग्यजु:साम का दोहन किया।
मनु के इस प्रमाण में अथर्ववेद का उल्लेख इसलिये नहीं किया गया कि यज्ञ सिद्धि में अथर्ववेद तो ब्रह्मा जी का अपना वेद है।
वेदत्रयी क्यों- जहाँ-जहाँ यज्ञ का वर्णन होगा, वहाँ-वहाँ तीन वेदों का वर्णन होगा तथा चारों वेदों का विभाजन छन्दों की दृष्टि से भी ऋग्यजुसाम के नाम से पद्यात्मक, गद्यात्मक और गीतात्मक किया गया है। अत: ज्ञानकर्मोपासना-विज्ञान की दृष्टि से वेद चार और छन्दों की दृष्टि से वेद-त्रयी का दो प्रकार का विभाजन है। कुछ भी हो वेद, शास्त्र, उपनिषद् तथा इतिहास के ग्रन्थों में ब्रह्मा को प्रथम वेद-प्रचारक, संसार का अगुवा या पेशवा के नाम से प्रख्यात माना गया है।
यहूदी, ईसाई और मुसलमान संस्कार-वशात् मानते चले आए हैं, जैसा कि उनकी पुस्तकों से प्रकट है।
कुर्बानी का अर्थ- ब्रह्मा यज्ञ का नेता अगुआ या पेशवा है। यज्ञ सबका महोपकारक होने से देवपूजा, संगतिकरण दानार्थक प्रसिद्ध है। इसी को सबसे बड़ा त्याग और कुर्बानी माना गया है। किन्तु वाममार्ग प्रचलित होने पर महाभारत युद्ध के पश्चात् पशु-यज्ञों का प्रचलन भी अधिक-से-अधिक होता चला गया। इससे पूर्व न कोई मांस खाता और न यज्ञों के नाम से कुर्बानी होती थी।
बाईबल के अनुसार भी हजरत नूह से पूर्व मांस खाने का प्रचलन नहीं था, जैसा कि वाचटावर बाईबल एण्ड टे्रक्स सोसायटी ऑफ न्यूयार्क की पुस्तक ‘दी ट्रुथ वेट सीड्स ईटनैल लाईक’ में लिखा है।
यहूदियों और ईसाईयों के अनुसार मांस की कुर्बानी खूदा के नाम से नूह के तूफान के साथ शुरु हुई है। तब इसको हजरत इब्राहीम के नाम से शुरू किया गया कि इब्राहीम ने खुदा के लिये अपने लडक़े की कुर्बानी की, किन्तु खुदा ने लडक़े के स्थान पर स्वर्ग से दुम्बा भेजा, जिसकी कुर्बानी दी गई। स्वर्ग से दुम्बा लाने की बात कमसुलम्बिया में लिखी है।
यहूदी कहते हैं कि हजरत इब्राहीम ने इसहाक की कुर्बानी की थी, जो मुसलमानों के विचार से हजरत इब्राहीम की पत्नी एरा से उत्पन्न हुआ था। किन्तु मुसलमानों का विश्वास है कि हजरत इब्राहीम की दासी हाजरा से उत्पन्न हुए हजरत इस्माईल की कुर्बानी दी गयी थी, जिसके बदले में जिब्राइल ने बहिश्त से दुम्बा लाकर कुर्बानी की रस्म पूरी कराई।
इसलिये मुसलमान भी हजरत इब्राहीम की स्मृति में पशुओं की कुर्बानी देना अपना धार्मिक कत्र्तव्य समझते हैं। परन्तु भूमि के पशुओं की कुर्बानी की आवश्यकता खुदा को होती तो बहिश्त से दुम्बा भेजने की आवश्यकता न पड़ती। दुम्बा तो यहीं धरती पर मिल जाता।
बाईबल के अनुसार तो पशुबलि की प्रथा हजरत इब्राहीम के बहुत पहले नूह के युग में आरम्भ हुई है। जैसा कि पीछे ‘वाच एण्ट टावर’ का प्रमाण दिया जा चुका है। किन्तु वास्तव में ब्रह्मा मनु से पूर्व हुए हैं। मनु को ही नूह माना जाता है।
ब्रह्मा ही इब्राहीम- हाफिज अताउल्ला साहब बरेलवी अनुसार हजरत इब्राहीम तो ब्रह्मा जी का ही नाम है, क्योंकि वेदों में ब्रह्मा और सरस्वती, बाईबिल में इब्राहम हैं और सर: तथा इस्लाम में इब्राहीम सर: यह वैयक्तिक नाम हैं, जो समय पाकर रूपान्तरित हो गये। सर: सरस्वती का संक्षेप है। आर्य-जाति में वती बोलना, न बोलना अपनी इच्छा पर निर्भर है जैसा कि पद्मावती की पद्मा और सरस्वती को सर: (य सरस) बोला जाता है, जो शुद्ध में संस्कृत का शब्द है। सरस्वती शब्द वेदों में कई बार आया है। जैसे-
चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनां।
यज्ञं दधे सरस्वती। – ऋ. १-३-११
सत्य-वक्ता, धर्मात्मा-द्विज, ज्ञानयुक्त लोगों को धर्म की प्रेरणा करती हुई, परोक्ष पर विश्वास रखने वाले सुमतिमान् लोगों को शुभ मार्ग बताती हुई, सरस्वती-वेद वाणी यज्ञो (पंच महायज्ञादि) प्रस्थापना करती है।
अत: स्पष्ट है कि सरस्वती वेद-वाणी को कहते हैं और ब्रह्मा चार वेद का वक्ता होने से ही पौराणिकों में चतुर्मुख प्रसिद्ध हो गया है।
चत्वारो वेदा मुखे यस्येति चतुर्मुख:।
लुप्त बहुब्रीहि समास का यह एक अच्छा उदाहरण है। चारों वेद जिसके मुख में अर्थात् कण्ठस्थ हंै। चारों वेदों में निपुण विद्वान् का नाम ही ब्रह्मा है। ब्रह्मा विद्वानों की एक उच्च पदवी है जो सृष्टि के आरम्भ से अब तक चली आ रही है और जब तक संसार है, यह पदवी मानी जाती रहेगी। अनेकानेक ब्रह्मा संसार में हुए हैं और होंगे।
अब भी यज्ञ का प्रबन्धक ब्रह्मा कहलाता है। ब्रह्मा का वेदपाठ और यज्ञ के साथ विशेष सम्बन्ध है। वेदवाणी को सरस्वती कहा गया है।
यहूदी, ईसाई और मुसलिम मतों में सरस्वती का सर: और ब्रह्मा का इब्राम बन इब्राहीम हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है।
काबा-यज्ञस्थली- ब्रह्मा यज्ञ का आदि प्रवर्तक है। वेद, कुरान और बाईबल इसमें एक मत है। यज्ञशाला चौकोर बनाई जाती है। इसीलिये मक्का में काबा भी चौकोर है, जो इब्राहीम ने बनवाया था। यह यज्ञीय स्थान है। यज्ञ में एक वस्त्र जो सिला न हो, पहनने की प्राचीन प्रथा है। मुसलमानों ने मक्का के हज्ज में इस प्रथा को स्थिर रखा हुआ है। यज्ञ को वेद में अध्वर कहा गया है।
ध्वरति हिंसाकर्म तत्प्रतिषेध:।
अध्वर का अर्थ है, जिसमें हिंसा न की जाय। इसलिये मुसलमान हाजी हज्ज के लिये एहराम बांध लेने के पश्चात् हिंसा करना महापाप मानते हैं।
वैदिक धर्मियों में वाममार्ग युग में हिंसा का प्रचलन हुआ। वाममार्ग के पश्चात् ही वैदिक-धर्म का ह्रास होकर बौद्ध, जैन, यहूदी, ईसाई, इस्लाम आदि मतों का प्रचलन हुआ है। यज्ञों में पशु हत्या और कुर्बानी में पशु बलि की प्रथा भी वाममार्ग=उल्टा मार्ग- ही माना गया है, जो वास्तव में सच्चे यज्ञों अथवा सच्ची कुर्बानी का मार्ग नहीं है।
नमस्=नमाज- आर्यों के पाँच यज्ञों में नमस्कार का प्रयोग हुआ, नमाज नमस् का रूपान्तर है। पाँच नमाज तथा पाँच इस्लाम के अकान पंचयज्ञों के स्थानापन्न हंै:-
कुरान में पंचयज्ञ- १. ब्रह्म यज्ञ- दो समय सन्ध्या- नमाज तथा रोजा कुरान के हाशिया पर लिखा है कि पहिले दो समय नमाज का प्रचलन था। देखो फुर्कान आयत ५
२. देव यज्ञ- हज्ज तथा जकात या दान पुण्य।
३. बलिवैश्वदेवयज्ञ- कुर्बानी पशुओं की नहीं, किन्तु पशु-पक्षी, दरिद्रादि को बलि अर्थात् भेंट देना ही सच्ची कुर्बानी है। धर्म के लिये जीवन दान महाबलिदान है।
४-५. पितृ यज्ञ तथा अतिथि यज्ञ- इस प्रकार आर्यों के पंच यज्ञ और इस्लाम के पाँच अरकानों का कुछ तो मेल है ही। इस्लाम के पाँच अरकार नमाज, जकात, रोजा, हज्ज और कुर्बानी हैं।
कुर्बानी शब्द कुर्व से निकला, जिसके अर्थ समीप होना अर्थात् ईश्वरीय गुणों को धारण कर ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त करना है, इन अर्थों में पशु हत्या तो हिन्दुओं के पशुयज्ञ की भाँति विकृति का परिणाम मात्र है। वेदों में यज्ञ को अध्वर कहा है, जिसका अर्थ है- हिंसारहित शुभकर्म इसी प्रकार कुर्बानी शब्द में भी हिंसा की भावना विद्यमान नहीं।
ब्रह्मा ने वेदों के आधार पर यज्ञों का प्रचलन किया तथा यज्ञों में सबसे बड़े विद्वान् को आर्यों में ब्रह्मा की पदवी से विभूषित किया जाता है। अत: ब्रह्मा शब्द रूढि़वादी नहीं। अनेक ब्रह्मा हुए हैं और होंगे भी। किसी समय फिलस्तीन में ब्रह्मा को इब्राम और अरब देशों में इब्राम का इब्राहीम शब्द रूढ़ हो गया।
वैदिक-ज्ञान को वेद में सरस्वती कहा है, लोक में पद्मावती को केवल पद्मा सरस्वती को केवल सर: कहने की प्रथा का उल्लेख कर चुके हैं। अत: पुराणों में ब्रह्मा और सरस्वती तथा सर: एवं इस्लाम में भी इब्राहीम और सर: शब्दों का प्रचलन होने से सिद्ध होता है कि दोनों शब्द वेदों के अपभ्रंश मात्र होकर इन मतों में विद्यमान हैं।
कुरान शरीफ में लिखा है कि हजरत साहिब फरमाते हैं-
१. लोग कहते हैं कि यहूदी या ईसाई हो जाओ, किन्तु में तो इब्राहीम के धर्म को मानता हूँ, जो एक तरफ का था और मूर्ति-पूजक न था। परमात्मा का सच्चा उपासक था। -सूरा: वकर आयत १३५
२. ईश्वर ने ब्रह्माहीम संसार का इमाम= [धर्म का नेता] बनाया। सूरा बर, आयत १२४
३. ऐ लोगो! इब्राहीम के सम्बन्ध में क्यों झगड़ते हो और इब्राहीम पर तौरेत व इन्जील नहीं उतरी, किन्तु यह तौरेत व इन्जील तो उनके बहुत पीछे की हैं। पर तुम समझदारी क्यों नहीं करते।
इबराहीम न यहूदी था, न ईसाई, किन्तु एक ओर का मुस्लिम था वा मुशरिक मूर्ति-पूजक न था अनेक-ईश्वरवादी भी न था- अल इमरान, आयत ६४.६६
उस इब्राहीम के धर्म को मानो जो एक निराकार का उपासक था और मूर्ति-पूजक न था। -अल, इमरान, आयत ९४
कुरान शरीफ में हिजरत इब्राहीम के यज्ञ मण्डप का नाम काबा शरीफ रखा है। काबा चौकाने यज्ञशाला की भाँति होने से भी प्रमाणित है कि किसी युग में यह अरब के लोगों का यज्ञीय स्थान था, जहाँ हिंसा करना निषिद्ध था, जिसकी परिक्रमा भी होती थी और उपासना करने वालों के लिये उसे हर समय पवित्र रखा जाता था। इसकी आधारशिला इब्राहीम और इस्माईल ने रखी थी। देखो- सूरा बकर, आयत १२५ से १२७
कुरान शरीफ में स्पष्ट लिखा है कि कुर्बानी आग से होती थी। अल इमरान आयत १, २, खूदा की सुन्नत कभी तबदील नहीं होती। सूरा फतह, आयत २४
मूसा को पैगम्बरी आग से मिली। जहाँ जूती पहन के नहीं जाया जाता। सूरा त्वाह, आयत ११-१३
खुदा को कुर्बानी में पशु मांस और रक्त स्वीकार्य नहीं। खुदा तो मनुष्यों से तकवा अर्थात् पशु-जगत् पर दया-परहेजगारी-शुभाचार-सदाचार स्व्ीकारता है। सूरा हज्ज, आयत १७
‘‘हज्ज और अमरा आवश्यक कर लेना एहराम हैं। एहराम यह कि नीयत करे आरम्भ करने की और वाणी से कहे लव्वैक। पुन: जब एहराम में प्रविष्ट हुआ तो स्त्री-पुरुष समागम से पृथक् रहें। पापों और पारस्परिक झगड़ों से पृथक् रहें। बाल उतरवाने, नाखून कटवाने, सुगन्ध लेप तथा शिकार करने से पृथक् रहें। पुरुष शरीर पर सिले वस्त्र न पहिने, सिर न ढके। स्त्री वस्त्र पहिने, सिर ढके, किन्तु मुख पर वस्त्र न डाले। -मौजुहुल्कुरान, सूरा बकर, आयत १९७’’
इस समस्त प्रमाण भाग का ही यही एक अभिप्राय है कि हज्ज में हिंसा की गुंजाइश नहीं। कुर्बानी – कुर्वे खुदा अर्थात् ईश्वरीय सन्निध्य प्राप्ति का नाम हुआ। अत: कुरान-शरीफ में पशुओं की कुर्बानी की मुख्यता नहीं है। ऐसा कहीं नहीं लिखा कि जो पशुहत्या न करे, वह पापी है। हाँ, यह तो लिखा है कि खुदा को पशुओं पर दया करना ही पसन्द है, क्योंकि वह खून का प्यासा नहीं और मांस का भूखा नहीं। -सूरा जारितात, आयत ५६-५८
कुछ स्थानों पर मांस खाने का वर्णन है, किन्तु वह मोहकमात=पक्की आयतें न होकर मुतशावियात=संदिग्ध हैं अथवा उनकी व्याख्या यह है कि आपत्ति काल में केवल जीवन धारण के लिये अत्यन्त अल्प-मात्रा में प्रयुक्त करने का विधान है। देखो-सूरा बकर, आयत १७३
अत: मुस्लिम संसार से प्रार्थना है कि कुरान शरीफ में मांस न खाना पाप नहीं है। खाना सन्दिग्ध कर्म और त्याज्य होने से निरामिष होने में ही भलाई है, यही दीने- इब्राहीम और ब्रह्मा का धर्म है, जिस पर चलने के लिये कुरान शरीफ में बल दिया है।
इसी आधार पर आर्य मुस्लिम एकता तो होगी ही, किन्तु राष्ट्र में हिन्दू मुसलमानों के एक कौम होने का मार्ग भी प्रशस्त हो जायेगा। परमात्मा करे कि ऐसा ही हो।