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कुरान समीक्षा : कुरान मुहम्मद ने लिखा था

कुरान मुहम्मद ने लिखा था

इस आयत में कुरान सुनाने वाला दूसरा खुदा है या कुरान का लेखक मुहम्मद है यह स्पष्ट किया जावे। दूसरा खुदा कहां रहता है क्या करता है?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

तिल्-क आयातुल्लाहि नत्लू हा……..।।

(कुरान मजीद पारा २ सूरा बकर रूकू ३३ आयत २५२)

यह अल्लाह की आयतें जो मैं तुमको सच्चाई से पढ़-पढ़कर सुनाता हूं और तुम बिना शक पैगम्बरों में से हो।

समीक्षा

कुरान का दावा है कि उसे बनाने वाला खुदा था, उस आयत में कुरान सुनाने वाला खुदा से दूसरा है जो कहता है कि मैं अल्लाह की आयतें सच्चाई से पढ़कर सुनाता हूं। कुरान दो खुदा मानता है, यह स्पष्ट है अथवा कुरान मुहम्मद ने लिखा था?

छः वैदिक दर्शनों का मतैक्य है

छः वैदिक दर्शनों का मतैक्य है

– आचार्य वैद्यनाथ शास्त्री

महादार्शनिक महर्षि दयानन्द की यह स्थापना है कि प्रक्रिया का भेद होते हुए भी छः दर्शनों में परस्पर कोई भेद नहीं हैं। इनमें पूर्णतः समन्वय पाया जाता है। महर्षि की इस स्थापना का प्रचार तो आर्यसमाज करता रहा है, परन्तु इस दिशा में कार्य कुछ भी नहीं हुआ है। विपक्षियों ने जितना अधिक कार्य गत कई वर्षों में पूर्वपक्षीय सामग्री के प्रस्तुत करने में किया है, उसका न्यूनतम भाग भी अपनी तरफ से उत्तर देने में नहीं किया गया है। दो एक छोटी पुस्तकें षड्दर्शनों के समन्वय विषय को लेकर लिखी गईं, परन्तु उनके समन्वय की प्रक्रिया वा प्रकार ऋषि प्रदर्शित प्रकार से कुछ थोड़ा-सा भिन्न रहा, जबकि उनकी उपादेयता में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। दर्शनों के समन्वय का सफल प्रकार यदि कोई हो सकता है तो ऋषि प्रदर्शित प्रकार ही हो सकता है, अतः इस विषय में आगे चलने से पूर्व ऋषि के प्रकार को यहाँ पर दिखलाना सर्वथा ही उचित है, क्योंकि वही इस मार्ग पर अग्रसर होने का परम और मौलिक आधार है। महर्षि ने पूर्व पक्ष उठा कर समाधान करते हुए दो स्थलों पर सत्यार्थ प्रकाश में इस पर प्रकाश डाला है। प्रथम स्थल सत्यार्थ प्रकाश का तृतीय समुल्लास है और द्वितीय स्थल इसी ग्रन्थ का अष्टम समुल्लास है। प्रथम स्थल का वर्णन सृष्टि-रचना प्रकरण की प्रस्तावना पर आधारित है, परन्तु समन्वय का जो सूत्र ऋषि ने दिया है, वह दोनों स्थलों पर सृष्टि प्रकरण के तर्क को लेकर ही है। महर्षि के वाक्य क्रमशः निम्न प्रकार हैंः-

(1) प्रश्न-जैसे सत्यासत्य और दूसरे ग्रन्थों का परस्पर विरोध है, वैसे अन्य शास्त्रों में भी है। जैसा सृष्टि विषय में छः शास्त्रों का विरोध है-मीमांसा कर्म, वैशेषिक काल, न्याय परमाणु योग पुरुषार्थ, सांय प्रकृति और वेदान्त ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति मानता है-क्या यह विरोध नहीं?

उत्तर-प्रथम तो बिना सांय और वेदान्त के दूसरे शास्त्रों में सृष्टि की उत्पत्ति प्रसिद्ध नहीं लिखी और इनमें विरोध नहीं, क्योंकि तुमको विरोधाविरोध का ज्ञान नहीं। मैं तुमसे पूछता हूँ कि विरोध किस स्थान में होता है-क्या एक विषय में अथवा भिन्न-भिन्न विषयों में?

(2)प्रश्न-एक विषय में अनेकों का विरुद्ध कथन हो, उसको विरोध कहते हैं। यहाँ भी सृष्टि का ही विषय है।

उत्तरक्या विद्या एक है या दो? एक है। जो एक है तो व्याकरण, वैद्यक, ज्योतिष आदि का भिन्न-भिन्न विषय क्यों है, जैसा एक विद्या में अनेक विद्या के अवयवों का एक-दूसरे से भिन्न प्रतिपादन होता है, वैसे ही सृष्टि विद्या के भिन्न-भिन्न छः अवयवों का शास्त्रों में प्रतिपादन करने से इनमें कुछ भी विरोध नहीं हैं। जैसे घड़े के बनाने में कर्म, समय, मिट्टी, विचार, संयोग, वियोग आदि का पुरुषार्थ, प्रकृति के गुण और कुमहार कारण है, वैसे ही सृष्टि का जो कर्म कारण है, उसकी व्याखया मीमांसा में, समय की व्याखया वैशेषिक में, उपादान कारण की व्याखया न्याय में, पुरुषार्थ की व्याखया योग में और तत्त्वों के अनुक्रम से परिगणन की व्याखया सांखय में तथा निमित्त कारण जो परमेश्वर है, उसकी व्याखया वेदान्त शास्त्र में है। इससे कुछ भी विरोध नहीं। जैसे वैद्यक शास्त्र में निदान, चिकित्सा, औषधिदान और पथ्य प्रकरण भिन्न-भिन्न कथित, परन्तु सबका सिद्धान्त रोग की निवृत्ति है, वैसे ही सृष्टि के छः कारण हैं। इनमें से एक-एक कारण की व्याखया एक-एक शास्त्र ने की है, इसलिए इनमें कुछ विरोध नहीं। इसकी विशेष व्याखया सृष्टि प्रकरण में करेंगे। (सत्यार्थ प्रकाश तीसरा समुल्लास।)

(3) प्रश्न- जो अविरोधी हैं तो मीमांसा में कर्म, वैशेषिक में काल, न्याय में परमाणु, योग में पुरुषार्थ, सांखय में प्रकृति और वेदान्त में ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति मानी है। अब किसको सच्चा और किसको झूठा मानें?

उत्तरइनमें सब सच्चे हैं, कोई झूठा नहीं, परन्तु विरोध उसको कहते हैं कि एक कार्य में एक ही विषय पर विरुद्धवाद होवे। छः शास्त्रों का अविरोध देखो, जो इस प्रकार है-मीमांसा में ऐसा कोई भी कार्य जगत् में नहीं होता कि जिसके बनाने में कर्म चेष्टा न की जाय, वैशेषिक में समय लगे बिना बने ही नहीं, न्याय में उपादान कारण न होने से कुछ भी नहीं बन सकता, योग में विद्या, ज्ञान, विचार न किया जाय तो नहीं बन सकता, सांखय में तत्त्वों का मेल न होने से नहीं बन सकता और वेदान्त में बनाने वाला न बनावे तो कोई पदार्थ उत्पन्न न हो सके, इसलिए सृष्टि छः कारणों से बनती है।

इन छः कारणों की व्याया एक-एक की एक-एक शास्त्र में है। (सत्यार्थप्रकाश अष्टम समुल्लास)

यहाँ पर महर्षि के दोनों स्थलों का विचार करने पर यह निष्कर्ष निकलता हैः-

1- एक कार्य में एक ही विषय पर विरुद्धवाद होने का नाम विरोध है, परन्तु दर्शनों में प्रक्रिया की भिन्नता होने पर भी ऐसा विरोध नहीं।

2- सृष्टि रचना का प्रसिद्ध वर्णन केवल सांखय और वेदान्त में हैं, शेष चार में प्रसिद्ध वर्णन न होकर प्रासंगिक वर्णन हैं। समन्वय करते समय सृष्टि के विषय को लेकर ही समन्वय करना चाहिए, क्योंकि पूर्व पक्ष इसका स्पर्श करते हुए ही उठाया जाता है।

3- दर्शन के मुखय विषय का तो इनमें विरोध है ही नहीं, सृष्टि की रचना के विषय में जो विरोध लोगों को दिखलाई पड़ता है, वह भी नहीं है।

4- छः दर्शन सृष्टि के छः कारणों की व्याखया करते हैं और वे हैं-कर्म, काल उपादान, पुरुषार्थ, तत्त्वों का परस्पर मेल (संयोग) और ब्रह्म अर्थात् निमित्तकारणभूत कर्त्ता।

यहाँ पर इन्हीं आधारों को दृष्टिपथ में रखते हुए छः दर्शनों में परस्पर विरोध है वा नहीं-इसका विचार किया जाता है। छः दर्शनों में एक विषय पर होने वाला परस्पर विरोध नहीं पाया जाता है। जहाँ कहीं पर ऐसा आभास मिलता है, जिस-जिस पर पूर्वपक्षी अपना विचार स्थापित करते हैं, उनका विचार यहाँ पर करना अपेक्षित है। वैशेषिक में द्रव्यगुण का पृथक् वर्णन है। द्रव्य वह है जो क्रिया वाला, गुण वाला अथवा समवायिकारण हो। गुण द्रव्य के आश्रय से रहता है, परन्तु गुण में गुण नहीं रहता। द्रव्य-द्रव्य का आरमभक है और गुण गुण का। केवल द्रव्य से गुण की उत्पत्ति नहीं और केवल गुण से द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती।

परन्तु सांखय में सत्व, रजस् और तमस् को गुण कहा जाता है और इन तीनों की साखयावस्था का नाम प्रकृति है। प्रकृति जब तीन गुणों की साखयावस्था का नाम है तो फिर गुणरूप होने से उससे द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती है, परन्तु सांखय में प्रकृति से उत्पन्न होने वाले पदार्थ द्रव्य भी हैं। यहाँ एक विषय में होने वाला विरोध नहीं तो फिर क्या है?

इसका समाधान यह है कि सांखय में सत्व्, रजस् और तमस् जिन तीन गुणों का वर्णन है, वे केवल गुण नहीं, बल्कि वैशेषिक के लक्षण वाले गुण और द्रव्य दोनों हैं, अतः प्रकृति सत्वरजस्तमो गुणों की द्रव्यभूत वस्तु है। उसके द्रव्य तत्त्व से द्रव्य और गुण से गुण का आरमभ होता है। गुण नाम रस्सी का है। पुरुष के बन्धन का हेतु बनने से उनमें गुण पद का व्यवहार होता है। वस्तुतः ये गुण और द्रव्य दोनों हैं। इस प्रकार वैशेषिक और सांखय का भेद नहीं। सांय में इन सत्व, रजस्, तमस् के भी लघुत्वादि धर्म माने गये हैं जो यह सिद्ध करते हैं1 कि ये गुणयुक्त द्रव्य हैं।

न्याय, वैशेषिक, वेदान्त और योग शास्त्र में परमेश्वर को जगत् का कर्त्ता एवं निमित्तकारण माना गया है, परन्तु सांखय में उसके अस्तित्व में ही प्रमाण का अभाव माना गया है तथा उसका कारणत्व अस्वीकृत किया गया है। इसका समाधान यह है कि सांखय सूत्रों में कहीं पर ईश्वर के होने का निषेध नहीं है। उसे केवल ऐन्द्रियक प्रत्यक्ष का विषय नहीं माना गया है। सांखय में ईश्वर को सर्ववित् और सर्वकर्त्ता2 स्वीकार किया गया है। प्रकृति को उसके अधीन परतन्त्र माना गया है और समाधि, सुषुप्ति तथा मोक्ष में ब्रह्मरूपता3 को भी मन्तव्य रूप में दिखलाया गया है। सांखय दर्शन के पाँचवें अध्याय में जहाँ4 पर ईश्वर के कारणत्व का खंडन है, वहाँ पर केवल उसके उपादान कारणत्व का निषेध किया गया है, निमित्त कारणत्व का नहीं। कोई भी शास्त्र परमेश्वर को उपादान मानता ही नहीं, फिर विरोध का प्रश्न ही शेष नहीं रह सकता है।

सांखय दर्शन में कुछ ऐसे सूत्र मिलते हैं, जिनसे यह आभास मिलता है कि न्याय और वैशेषिक का उनमें खण्डन किया गया है। उदाहरण के रूप में सांखय दर्शन के पाँचवें अध्याय के 85 वें सूत्र से 90 वें सूत्रों तक को तथा 99 सूत्र को लिया जा सकता है। इनमें क्रमशः पदार्थषट्कत्व, पदार्थषोडशकत्व, अणुनित्यता, परिमाण के चातुर्विध्य और समवाय आदि का खण्डन नहीं, खण्डनाभास मालूम पड़ता है। सांखय में षट् पदार्थ और षोडशपदार्थ की प्रक्रिया एवं सिद्धान्त का खण्डन नहीं है, बल्कि षट्पदार्थ और षोडशपदार्थ के ही ज्ञान से मुक्ति हो सकती है-ऐसा ही नियम है, इस विचार का खण्डन है। वैशेषिक और न्याय में ऐसा एक मात्र नियम निर्धारित नहीं किया गया है कि मुक्ति षट् और षोडश पदार्थ के ज्ञान से ही हो सकती है अन्यथा नहीं हो सकती। षट् और षोडश पदार्थों के ज्ञान से मोक्ष हो सकता है और अन्य दर्शनों में बताये प्रकार से भी। न्याय में तो स्वयं ही पदार्थों के संयैकान्तवाद का खण्डन5 है। अणु की नित्यता के खण्डन से परमाणुओं के नित्यत्व का प्रत्याखयान भी सांखयकर्त्ता को अभिप्रेत नहीं। सांखयकार ने प्रधान की वृत्ति को भी अणुवत् माना हैं। यदि वह अणुओं का खंडन करता तो फिर दूसरे स्थान पर उन्हें स्वीकार क्यों करता6? सांयकार ने वस्तुतः परमाणुओं का खण्डन किया है। महर्षि व्यास के शबदों में नित्यता दो प्रकार की होती है-परिणामी नित्यता और कूटस्थ नित्यता 7। जो वस्तु उपादान कारण होगी (चाहे वह प्रकृति हो अथवा परमाणु हो) उसकी नित्यता परिणामी नित्यता होगी, कूटस्थ नित्यता नहीं। कूटस्थ नित्यता केवल आत्मा और परमात्मा की है। इसी प्रकार सूक्ष्मता के विषय में भी समझना चाहिए। उपादान कारणों की सूक्ष्मता के विषय में भी समझना चाहिए। उपादान कारणों की सूक्ष्मता अन्वयीसूक्ष्मता अर्थात् कार्य की अपेक्षा से सूक्ष्मता है। प्रकृति और परमाणु की सूक्ष्मता कार्य की वह पराकाष्ठा है, जिससे बढ़कर फिर वह सूक्ष्म नहीं हो सकता है। यह अवस्था प्रकृति8 की है और परमाणुओं की है। यहाँ पर अन्तर9 बाहर आदि शदों का प्रयोग नहीं हो सकता और जो विभाजन हैं, उसे ही न्याय और वैशेषिक में परमाणु कहा गया है। यह परमाणु की अन्तिम अवस्था प्रकृति में परिसमाप्त है। सांखयकार ने भूत तन्मात्रारूपी अणुओं को अनित्य माना है, वैशेषिक ोक्त पराकाष्ठा के अपकर्ष को प्राप्त परमाणुओं को नहीं। अनन्वयीय अर्थात् स्वाभाविकी सूक्ष्मता आत्मा और परमात्मा की है। अन्वयी सूक्षमता की पराकाष्ठा प्रकृति एवं परमाणु में है।

सांखय अणु, महत् और विभु परिमाण से ही कार्य चल जावेगा, ऐसा स्वीकार करता है, अतः ह्रस्व और दीर्घ को इनके ही अन्तर्गत मान लेता है, वैशेषिक चारों का वर्णन करता है। यह वस्तुतः खण्डन नहीं है। सामान्य को सांयकर्त्ता ने (सा.-5/91-92) स्वीकार किया ही है। समवाय का भी सांखय में खण्डन नहीं समझना चाहिए। सांखय का यह सिद्धान्त है कि कार्य सत्ता कारण में सत्तारूप से विद्यमान रहती है। उत्पत्ति केवल कार्य के वर्तमानावस्था में आने एवं अभिव्यक्ति को कहा जाता है। कार्य का यह अभिव्यक्त रूप इसी रूप में कारण से समवाय सबन्ध (नित्य सबन्ध) तो हो सकता है, परन्तु कार्य के अभिव्यक्त प्रकार का जो देश और काल से परिछिन्न है, अपने कारण के साथ समवाय सबन्ध नहीं हो सकता। इसी समवाय का सांखय में खण्डन है, वैशेषिकोक्त समवाय का नहीं, क्योंकि वैशेषिक में कहीं भी कार्य के वर्तमान रूप के साथ कारण का समवाय सबन्ध नहीं बतलाया है। सामान्य, विशेष और समवाय आदि अपेक्षा बुद्धि से परिज्ञात होते हैं, अतः अनपेक्षाबुद्धि के विषय भूत साखयावस्थापन्न प्रकृति में इनका परिज्ञान नहीं होता है-इस बात को दर्शाने के लिए सांखय ने समवाय का स्पष्टीकरण किया है।

न्याय और वैशेषिक इन्द्रियों को भूतजन्य मानते हैं, क्योंकि जिस भूत से जो इन्द्रिय उत्पन्न होती है, वह उसी के गुण से युक्त पदार्थ को देखती है। सांखय अहंकार को इन्द्रियों का कारण मानता है। इससे परस्पर विरोध मालूम पड़ता है, परन्तु इसमें भी विरोध की स्थिति नहीं। इन्द्रियाँ ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय भेद से दस हैं। मन उायात्मक है। मन का भी इन इन्द्रियों में ही सन्निवेश है। यह सांखय का सिद्धान्त है। न्याय में विशेषतया पंच ज्ञानेन्द्रियों पर विचार किया गया है। मन को पृथक् माना गया है। इन्द्रियाँ अपने भूतों के गुणों को देखती हैं, अतः एक इन्द्रिय दूसरे के विषय में नहीं देखती है। इन दोनों सिद्धान्तों को विचारने पर पता चलता है कि इन्द्रियों में भौतिकता व अभौतिकता दोनों हैं। इन्द्रियभूतों में विद्यमान रूप आदि गुणों के ग्रहण की जो शक्ति रहती है, वह भौतिक धर्म है, परन्तु गुणों को इनसे प्रत्यक्ष होने पर भी द्रव्य, संखया, जाति और अभाव आदि का प्रत्यक्ष मन से होता है, जबकि ये अपने-अपने ही विषयों को जान सकती हैं और साथ ही मन कर्मेन्द्रिय का कार्य भी करता है। मन के सपर्क से होने वाला इन्द्रियों का कार्य भौतिक धर्म नहीं है। यह शक्ति धर्म है जो मन और अहंकार के सबन्ध से इनमें है। मन का उायात्मकत्व और प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय के विषय के ग्रहण करने में उसकी क्षमता यह सिद्ध करती है कि उसमें आहंकारिक धर्म10 है, अन्यथा वह भी एक ही विषय के ज्ञान से बँधा रहता। सांखय ने मन को इन्द्रियों में माना है। न्याय ने इन्द्रियों को भूतों से मानकर मन को पृथक् माना है, अतः सांखय का दृष्टिकोण मन को इन्द्रिय मानकर उसके भौतिकता का खण्डन है। यदि सब को भौतिक माना जाता तो मन को भी भौतिक मानना पड़ता जो सभव नहीं। सांखय ने अपने मत के स्पष्टीकरण के लिए यह दिखलाया है कि इन्द्रियाँ एकान्ततः भौतिक ही हों-यह सिद्धान्त नहीं हैं, वे आहंकारिक भी हैं, क्योंकि मन का भी उनमें सन्निवेश है। न्याय और वैशेषिक को इन्द्रियों का जो भौतिकत्व अभिप्रेत है, उसका सांखय ने खण्डन नहीं किया है। उसने केवल अपनी प्रक्रिया का स्पष्टीकरण किया है।

इसी प्रकार वेदान्त शास्त्र में सांखय और न्याय, वैशेषिक आदि का खंडन दिखलाई पड़ता है, वह केवल आभासमात्र का खंडन है, वास्तविक खण्डन नहीं। व्यास को इतना ही कहना अभिप्रेत है कि बिना निमित्त कारण परमेश्वर को स्वीकार किये जड़ प्रकृति एवं परमाणु जगत् को उत्पन्न नहीं कर सकते, क्योंकि उनमें ज्ञान और क्रिया का अभाव11है, परन्तु ये जगत् के कारण नहीं अथवा उपादान नहीं है, वा इनकी सत्ता नहीं है, यह वेदान्त-शास्त्रकर्त्ता को अभिप्रेत नहीं है। सांखय न्याय आदि में कहीं पर भी बिना परमेश्वर की निमित्तता के प्रकृति अथवा परमाणु आदि से जगत् की रचना का वर्णन नहीं है, अतः वेदान्त में इन दर्शनों का खण्डन नहीं। केवल ब्रह्मरूपी निमित्त कारण की उपादेयता को सिद्ध करने का यह प्रयास12 है। वेदान्त 2/1/12 से13 योग और वैशेषिक आदि का खण्डन नहीं है। उससे अन्य आचार्यों के उन सिद्धान्तों का खण्डन है जो ब्रह्म को जगत् का कर्त्ता नहीं स्वीकार करते हैं।

सृष्टि रचना के प्रकरण को ही बहुधा दर्शनों के विरुद्ध बतलाया जाता है। आचार्य दयानन्द का कथन यह है कि सृष्टि का वर्णन मुखयतः सांखय और वेदान्त में ही पाया जाता है, शेष चार में तो प्रासंगिक वर्णन है। सांखय में प्रकृति, पुरुष और परमेश्वर तीन तत्त्वों को अनादि मानकर सृष्टि की प्रक्रिया का वर्णन किया गया है। परमात्मा सर्ववित् और सर्वकर्त्ता है। प्रकृति उसके अधीन है। जीव भी अनेक हैं और नित्य हैं, परन्तु उनके भोग आदि की व्यवस्था परमाता के द्वारा होती है। परमात्मा की निमित्तता से प्रकृति में क्षोभ होकर उसकी साखयावस्था भंग होती है। तत्पश्चात् उससे महत्तत्त्व, पुनः उससे अहंकार और अहंकार से एक तरफ पंचतन्मात्राएँ, दूसरी तरफ मन सहित एकादश इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं। पंचतन्मात्राओं से पाँच महाभूत और उनसे पुनः शरीरादि कार्य पदार्थ और विविध सृष्टि पदार्थों की रचना होती14 है। वेदान्त दर्शन में भी ईश्वर, जीव और प्रकृति को अनादि माना गया15 है। ब्रह्म की निमित्तता से प्रकृतिरूपी उपादान में क्षोभ होकर जगत् उत्पन्न होता है। वेदान्त का क्रम भी वही है जो सांखय का क्रम है। सृष्टि की रचना का सांखय का क्रम इतना प्रसिद्ध और वैज्ञानिक है कि वही सर्वत्र स्वीकार किया गया है, अतः इससे किसी प्रकार के मत-भेद का प्रश्न ही नहीं उठता है।

शेष भाग अगले अंक में…..

 

हमारी सेनायें शत्रु परविजयी हों

ओउम
हमारी सेनायें शत्रु परविजयी हों

डा अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
आज विश्व का प्रत्येक देश अपनी सेनाओं की विजय की कामना करता है | विश्व विजेता होने का गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त करना प्रत्येक की लालसा है | किन्तु यह सब कैसे संभव है ? इस स्वप्न को साकार करने के लिए प्रत्ये सैनिक का शूरवीर होना आवश्यक है | आज का युग तो है ही विशेषग्य का | जिस के पास युद्ध कला की विशेष योग्यता होगी, वह ही विजयी हो सकता है | विश्व तो क्या एक छोटेसे क्षेत्र को विजयी बनाने के लिए भी योग्यता की आवश्यकता है | अथर्ववेद राजनीति का वेड है | हम किस प्रकार की निति अपनावें, किस प्रकार का अभ्यास करें कि हमें अन्यों पर विजय मिल सके | इस का अथर्ववेद में विस्तार से विचार किया गया है | विश्व विजय का स्वप्न देखने वाले के लिए अथार्व्वेद का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए | आज कि राजनीति ही विजय व पराजय का मार्ग बतलाती है | इस मार्ग को जानने के लिए इसे अवश्य पढ़ें | योद्धा विजय प्राप्त करें, यह कामना अथार्व्वेद के मन्त्र १९.१३.२ मैं इस प्रकार कि गयी है : –
आशु : शिशानो वृषभो न भीमो ,
घनाघन: क्शोभानाश्चर्श्निनाम |
स्न्क्रन्दनो$निमिष एकवीर :,
शतं सेना अजयत साक्मिन्द्र: || अथर्ववेद १९.१३.२||
शब्दार्थ : –
आशु:) तीव्रगति (शिशान: )तीक्षण शस्त्रधारी, तेज बुद्धि ( वृषभ : न) सांड कि भाँती (घनाघन:) भयंकर शत्रुओं का नाशक (चर्श्निनाम)शत्रुओं को (क्षोभन:) भयभीत करने वाला (स्नक्र्न्दन:) शत्रुओं को युद्ध के निमित ललकारने वाला (अनिमिष:)अत्यंत
सावधान दृष्टि (एकवीर:) अद्वितीय वीर (इंद्र) इंद्र ने (शतं सेना) शत्रु कि असीमित या सैंकड़ों सेनाओं को (साकम) एक बार में ही (अजायत) जीतता है |
भावार्थ : –
तेज गति से तीक्षण अस्त्रों को धारण कर शत्रु का विनाश व् शत्रु पर भयानक बनाकर युद्ध में ललकारने वाले अत्यंत सावधान अद्वितीय वीर इंद्र ने शत्रुओं कि सैंकड़ों सेनाओं को एक साथ ही जीत लिया |
इस मन्त्र में एक महान योद्धा का बड़े ही सुन्दर ढंग से चित्रण किया गया है | योद्धा को किस प्रकार से कार्य करना चाहिए , किस प्रकार के साधनों का युद्धक्षेत्र में प्रयोग करे तथा किस प्रकार से सफलता का वरण करे , इस सब की चर्चा इस मन्त्र का विषय है | इस निमित देवसेना के नायक इंद्र के शौर्य व वीरता का उल्लेख करते हुए कहा है कि इंद्र ने शत्रुओं कि सैंकड़ों सेनाओं पर एक साथ विजय प्राप्त की |
इंद्र ने शत्रुओं की सैंकड़ों सेनाओं को एक साथ जीत लिया | इंद्र की इस सफलता का रहस्य क्या है, जिसे हम भी अपना कर विश्व विजय के स्वप्न को साकार कर सकें ? मन्त्र विजय के इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार देता है की इंद्र आत्मबल, निर्भीकता तथा साधन सम्पन्नता थी | यह तिन ऐसे तत्व है, जो ल्किसी भी सफलता के लिए आवश्यक होते हैं | बिना आत्मबल के विजय तो क्या किसी के ऊपर आक्रमण करने की सोचा भी नहीं जा सकता | एक व्यक्ति के पास आत्मबल तो है किन्तु न तो वह निर्भय है तथा न ही उसके पास साधन ही हैं की वह किसी पर आक्रमण कर सके , एसा व्यक्ति भी युद्ध मैं विजय श्री को नहीं पा सकता | अत: किसी भी प्रकार के युद्ध में सफलता के लिए इन तीनों तत्वों का स्वामी होना आवश्यक है | यह तिन तत्व ही विजय का मुख्या आधार हैं | इन के अतिरिक्त योद्धा मैं कुछ अन्य गुणों का होना भी आवश्यक है | यह गुण है : – : –
(१) तीव्रगति हो : –
युद्ध क्षेत्र में सदा तीव्रता से ही विजय प्राप्त की जा सकती है | जिसकी स्वयं की गति तीव्र है, जिस के घोड़े उत्तम कोटि के तेज गति वाले है, जिसके वाहन तेज चलते हैं , जिसके पास उच्चकोटि की प्रद्योगिकी से युक्त विमान आदि हैं की शत्रु को संभालने से पूर्व ही उसे दबोच ले, एसा योद्धा ही युद्ध क्षेत्र में सफलता पा सकता है |
(२) उत्तम शस्त्रों से संपन्न हो : –

योद्धा के पास केवल गति तीव्र होने से कुछ नहीं होने वाला | तीव्र गति से यदि आप ने शत्रु में घुस कर उसे चुनोती दे दी किन्तु आप शस्त्र विहीन हैं या उत्तम शस्त्रों से रहित है , शत्रु के मुकाबले अच्छे शस्त्र नहीं हैं तो विजयी नहीं होंगे अपितु शत्रु दल में घिर जाने से मारे जाओगे | आज वही विजेता होता है , जिसके पास न केवल तीव्र गति वाले साधन हों साथ ही उसके पास अत्याधुनिक व शत्रु से कहीं उत्तम शस्त्र हों |
(३) युद्ध विद्या मैं निपुण हो : –
गति तीव्र है , शस्त्र भी उत्तम हैं किन्तु युद्ध कला में निपुण नहीं हैं तो भी विजय संभव नहीं क्योंकि जो उत्तम शस्त्र हम लेकर तीव्र गति से शत्रु सेना में घुसेंगे, शस्त्र चलाने की कला में प्रवीण न होने के कारण हम शत्रु सेना पर प्रहार करने से पहले ही पकड़ लिए जावेंगे या मार दिए जावेंगे | अत: शत्रु पर विजय प्राप्त करने की अभिलाषा तब ही पूर्ण होगी जब हम उत्तम शस्त्र प्रयोग करने की विधा को भी अच्छे से जानते होंगे |
(४) निर्भीक हो : –
सैनिक में निर्भीकता का गुण होना भी अति आवश्यक है | वह चाहे कितना ही तीव्रगामी हो , कितने ही उत्तम शास्त्रों से सुसज्जित हो तथा कितना ही उत्तम ढंग से शस्त्रों का परिचालन कर सकता हो, किन्तु तब तक वह विजयी नहीं हो सकता , जब तक वह निर्भय होकर रणभूमि में नहीं खड़ा होता | यदि यह सब उत्तम सामग्री व इस के प्रयोग में प्रवीण होकर युद्ध क्षेत्र में पहुंच तो गया किन्तु युद्धभूमि में भयभीत सा हो कांपते
कांपते शत्रु से मुंह छुपाने का प्रयास कर रहा हो तो वह शत्रु का सामना नहीं कर पाता तथा या तो युद्ध भूमि से भाग खड़ा होता है या पकड़ा जाता है | एसा व्यक्ति कभी योद्धा होने के लायक नहीं तथा निश्चित ही पराजित होता है | अत: विजय के अभिलाषी योद्धा के लिय तीव्रगामी,उत्तम शास्त्रों से सुसज्जित तथा युद्ध कला में प्रवीण होने के साथ ही साथ निर्भीक होना भी आवश्यक है | एक निर्भीक योद्धा युद्ध कला में कुछ कम प्रवीण होते हुए भी अपनी सेनाओं को विजय दिलवा सकता है | अत: विजयी होने के लिए योद्धा के पास निर्भीकता का होना अति आवश्यक है |
(५) असाधारण शक्ति रखता हो : –

युद्ध तो खेल ही शक्ति का है | विजय उसको ही मिलती है जो असाधारण शक्ति का स्वामी हो | असाधारण शक्ति के लिए तीव्र गति से आक्रमण करने की क्षमता, उत्तम शस्त्रों का स्वामी व उनका परिचालन करने की जानकारी, निर्भीकता व aatmvisva से युक्त असाधारण शक्ति का स्वामी होने से शत्रु की सेनायें उस वीर का मुकाबला नहीं कर सकें गी | शत्रु सेनायें या तो भयभीत हो कर भाग जावेंगी, या मारी जावेंगी या फिर आत्म समर्पण कर देंगी | यह आत्मविश्वास की कमी का ही परिणाम था की १९७१ के भारत पाक युद्ध में हमारे से अच्छे शस्त्र व अच्छे सहयोगी होते हुए भी पाकिस्तान की एक लाख से अधिक सेना ने हमारी सेनाओं के सामने आत्म समर्पण कर दिया था | इससे स्पष्ट है की युद्ध क्षेत्र में योद्धा के पास असाधारण शक्ति का भी होना आवश्यक है |
(६) एकाग्रचित हो : –
ऊपर वर्णित सब गुणों के अतिरिक्त एक उत्तम योद्धा, जो विजय की कामना रखता है , युद्ध काल में उसका एकाग्रचित होना भी आवश्यक है | जो युद्ध भूमिं में शत्रु पर गोला फैंकते समय अपने परिजनों की समस्याओं में उलझा है अथवा किसी सुंदर द्रश्य का सपना ले रहा है या किसी अन्य विपति को स्मरण कर रहा है तो उसका ध्यान शत्रु की स्थिति पर न होने से उसका वार तो खाली जावे गा ही अपितु शत्रु का कोई गोला उसकी जान ही ले लेगा | जिस प्रकार अर्जुन को केवल चिड़िया की आँख ही दिखाई देती थी , ठीक उस प्रकार योधा को युद्ध भूमि में शत्रु का मर्म स्थल ही दिखाई देना चाहिए , तभी वह उसे समाप्त कर विजेता बन सकेगा | अत: विजय के अभिलाषी योद्धा के पास एकाग्रचितता का गुण होना भी आवश्यक है |
(७) अपने कार्य को सर्वतोभावेन की भावना से करने वाला हो : –
योद्धा केवल व्यक्तिगत सुख या अहं की पूर्ति के लिए युद्ध न करे | ऐसे योद्धा के साथ कभी भी जनता नहीं होती | जनता के विरोध के कारण उसे विजय की प्राप्ति संभव नहीं हो पाती | यदि वह सर्व जन के सुख को सम्मुख रख रणभूमि में खड़ा है तो जन सहयोग सदा उसके साथ होगा | जनसहयोग साथ होने से उसकी शक्ति बढ़ जावेगी तथा विजय दौड़ते हुए उसके पास आवेगी | इस भावना का युद्ध भूमि मे महत्वपूर्ण स्थान है |
इस सब चर्चा को समझने के लिए इंद्र का अभिप्राय: भी समझना आवश्यक है इंद्र कहते हैं विशेषज्ञ को | जो अपने विषय में पूरी प्रकार से पारंगत हो दुसरे शब्दों में जो अपने विषय का .एच.डी अथवा डी लिट हो , सर्वोच्च ज्ञान पा लिया हो, वह ही अपने विषय का इंद्र होता है | जो योद्धा युद्ध सम्बन्द्धि सब विद्याओं में प्रवीण होता है , उसे रणभूमि का इंद्र कहा जा सकता है | एसा योद्धा एक साथ अनेक सेनाओं का सामना करने और उन्हें पराजित करने की क्षमता रखता है | जब हमारे सैनिक युद्ध कला में इंद्र बन जावेंगे तो निश्चित ही हम सदा विजयी होंगे | मन्त्र में इस लिए ही कहा गया है की इंद्र ने एक साथ अनेक सेनाओं को पराजित कर दिया |
मनुष्य का जीवन भी एक रणभूमि है, जिसमें प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन के लक्ष्य को पाने के लिए अनेक युद्धों में उलझा रहता है | वह बड़ी सफलता के साथ रणभूमि में विजेता होकर संसार सागर को पार करना चाहता है , किन्तु माया , मोह, छल , कपट, अहंकार आदि उसे कुछ भी कर पाने में बाधक होते हैं | जो इन बाधाओं की और देखे बिना केवल अपने लक्ष्य पर ही अपनी दृष्टि गडाए रहता है , वह अपने विषय का इंद्र बन सफल होता है, शेष सब पराजित होते हैं | अत: इस संसार सागर के संग्राम मैं हम अपने विषय का इंद्र बन इसे विजय करने का प्रयास करें तो निश्चय ही सफलता मिलेगी |

डा. अशोक आर्य

कुरान समीक्षा : झूठी कसमें खाने का आदेश

झूठी कसमें खाने का आदेश

झूठी कसमों पर खुदा सजा नहीं देगा इस घोषणा से खुदा मुसलमानों को दुनियाँ में अविश्वास योग्य घोषित करके इस्लाम की क्या बेहतरी की है? क्या कुरान ने उनको झूठी कसमें खाने का प्रोत्साहन नहीं दिया है?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

ला युआखिजकुमुल्लाह विल्लगवि………।।

(कुरान मजीद पारा २ सूरा बकर रूकू २८ आयत २२५)

तुम्हारी फिजूल की कसमों पर खुदा तुमको नहीं पकड़ेगा। लेकिन उनको पकड़ेगा जो तुम्हारे दिली इरादे हैं।

समीक्षा

जब झूठी कसमें खाना जुर्म नहीं और मुसलमान दूसरों को झूठी कसमें खाकर यदि धोखा देने लगें तो उनका कौन विश्वास करेगा?

यदि कोई शरीफ आदमी उन पर विश्वास कर बैठेगा तो निश्चय धोखा खाकर नुकसान उठाने वालों में होगा।

अरबी खुदा की क्या यह शिक्षा दुनियां में बेईमानी फैलाने में सहायक न होगी?

अमेरिका – एक विहंगम दृष्टि

अमेरिका – एक विहंगम दृष्टि

– डॉ. धर्मवीर

लगभग एक करोड़ भारतीय अमेरिका में रहते हैं। लाखों भारतीय प्रतिवर्ष अमेरिका की यात्रा करते हैं। अमेरिका के समबन्ध में हमारे देशवासियों की जानकारी बहुत है, फिर भी गत 11 मार्च को अमेरिका आने पर यात्रा में कुछ बातों ने मेरा ध्यान खींचा। वैसे बातें तो बहुत छोटी हैं, परन्तु किसी व्यक्ति के लिये जिज्ञासा को शान्त करने या उत्सुकता उत्पन्न करने के योग्य हो सकती हैं, ऐसी कुछ बातें यहाँ प्रस्तुत हैं-

सबसे पहले इस देश में आने पर जिस बात ने चौंकाया, वह थी हमारे यहाँ किसी बिजली के बटन को प्रकाश के लिये नीचे करना होता है। यहाँ बिजली, पंखा, दरवाजा सभी को खोलने, बन्द करने के लिये बटन को नीचे से ऊपर करना पड़ता है। ऐसा क्यों है? इसको कोई नहीं बता सका, परन्तु ऐसा होता है। एक ही बटन से बिजली का प्रकाश कम-अधिक भी किया जा सकता है। यहाँ बल्ब ही देखने में आते हैं, दण्ड (ट्यूबलाईट) नहीं।

भारत में बायीं ओर चलने की परमपरा है। गाड़ी में चालक का स्थान भी दायीं ओर होता है। भारत में इंग्लैण्ड के कारण ऐसी परमपरा आई है। वहाँ पर सड़क के बायीं और चलने का नियम है, परन्तु अमेरिका में सड़क के दायीं और चलते हैं। यहाँ की बस, कार, ट्रक आदि में चालक का स्थान बायीं ओर होता है, परन्तु डाक बाँटने वाली गाड़ी में चालक दायीं ओर बैठता है, क्योंकि गाड़ी में बैठे-बैठे वह घर के सामने सड़क के किनारे पर लगे डिबे में पत्र आदि डालता जाता है।

छोटी सड़क बड़ी सड़क से मिलती है, तो वहाँ पर स्टॉप लिखा होता है। यहाँ पर आगे कोई वाहन न होने पर भी रुकना होता है, चाहे वह स्थान जंगल ही क्यों न हो।

सड़क को गन्दा करने पर पाँच सौ से हजार डॉलर तक अर्थ दण्ड हो सकता है।

अमेरिका बहुत बड़ा देश है, यह भौगोलिक दृष्टि से भारत से तीन गुना बड़ा है और जनसंखया में तीन गुना छोटा, अतः सब कुछ बहुत खुला-खुला लगता है।

देश का भूभाग बहुत बड़ा होने के कारण यहाँ समय को तीन भागों में बाँटा गया है। तीनों क्षेत्र में अलग-अलग समय होता है। गर्मी-सर्दी में हमारे यहाँ सुविधा के लिये समय बदलते हैं, जैसे ग्रीष्म काल में कार्य का प्रारमभ साढ़े छः बजे होता है तो शीत काल में सात बजे होगा, परन्तु अमेरिका में घड़ी बदली जाती है। काम तो उतने ही बजे होता है, परन्तु मार्च मास में घड़ी एक घण्टा आगे को जाती है तो नवमबर मास में एक घण्टा पीछे को जाती है। देश की सारी घड़ियाँ ऐसे ही चलती हैं।

नगर केन्द्र भाग को डाउन टाउन कहा जाता है। यहाँ ऊँचे भवन, बाजार आदि होते हैं। डाउन टाउन क्यों कहते हैं, कोई नहीं बता पाया।

यहाँ केन्द्रीय सरकार के पास केवल तीन काम हैं- डाक व्यवस्था, सेना और मुद्रा। उसको यहाँ के लोग थ्री एम कहते हैं- मनी, मिलीट्री, मेल। शेष सब कुछ निजी व्यवस्था में हैं।

नियम-कानून की पालना कठोरता से की जाती है। जब यह कहा जाता है कि यह कानून है, फिर कोई प्रश्न नहीं किया जा सकता, फिर तो पालन करना ही होगा।

निर्धारित गति सीमा से अधिक गाड़ी चलाने पर पुलिस पकड़ती है, तो उसे टिकिट देना कहते हैं। तीन बार टिकिट मिलने पर चालक का लाइसेन्स निरस्त कर दिया जाता है। गलत गाड़ी चलाते हुए पकड़े जाने पर बीमे की राशि अधिक भरनी पड़ती है।

आप कहीं से भी पैदल सड़क पार नहीं कर सकते, सड़क पार करने के लिये सड़क के किनारे खमभे पर बटन लगा रहता है, उसे दबाने पर संकेत मिलता है, तभी सड़क पार कर सकते हैं।

सड़कें बहुत चौड़ी और अच्छी बनी हुई हैं। सड़कों पर पुलों की भरमार है। कहीं-कहीं तो एक ही सड़क पर आठ मार्ग आने के और आठ मार्ग जाने के होते हैं, दो-चार-छः तो प्रायः हैं। लमबे मार्गों पर एक कार एक सौ बीस किलोमीटर की गति से प्रायः चलती है। कार में प्रायः एक व्यक्ति यात्रा करता है। घर में हर सदस्य की कार अलग है। सरकार द्वारा एक से अधिक व्यक्ति यदि एक कार में यात्रा करते हैं, तो सड़क पर चलने के लिये अलग से मार्ग दिया गया है।

इस देश में सार्वजनिक वाहन की व्यवस्था बहुत कम स्थानों पर है। यहाँ पर सभी लोग अपनी-अपनी कार से चलते हैं। कहा जाता है कि यहाँ की कार कमपनियाँ सार्वजनिक वाहन व्यवस्था को बनने ही नहीं देतीं, जिससे कार पर चलना सबकी विवशता है। यहाँ समपन्नता बहुत है, बहुत लोग निजी वायुयान रखते हैं, उसी से यात्रा करते हैं।

इसी प्रकार यहाँ की शस्त्र निर्माण कमपनियाँ भी हथियारों पर रोक नहीं लगाने देती। यहाँ शस्त्रास्त्र व्यवसाय बहुत बड़ा है और इनका सरकार पर बहुत प्रभाव है। शस्त्र के लिये अनुमति-पत्र की आवश्यकता नहीं है।

यह देश वैधानिक रूप से एक ईसाई देश है। जब भी कोई नगर या कॉलोनी बनाई जाती है, तो उसमें तीन-चार बड़े-बड़े प्रमुख स्थान चर्च के लिये छोड़े जाते हैं।

नगर, ग्राम सभी स्थानों पर अग्नि-शमन की सपूर्ण व्यवस्था है। अग्निशमन के समय जहाँ से जल लिया जायेगा, वह स्थान लाल रंग से चिह्नित किया गया होता है, वहाँ पर कोई वाहन नहीं खड़ा किया जा सकता, उस स्थान को सदा खाली रखना होता है। यहाँ लोगों में नियम पालन के अयास में सज्जनता से अधिक दण्ड-भय का है, जिससे सब बचना चाहते हैं।

छोटे-से-छोटे स्थान पर अन्य सुविधाओं के साथ-साथ पुस्तकालय होता है। यह प्रतिदिन प्रातः 9 बजे से रात्रि 9 बजे तक खुला रहता है। पुस्तक को कभी भी जमा किया जा सकता है। यह काम कमप्यूटर से होता है। पुस्तक निर्धारित मशीन में डाल दीजिये, आपके नाम पर जमा हो जायेगी। अलमारी में पुस्तक देखने के लिये ऊँचाई के लिये सीढ़ी तथा बैठकर देखने के लिये छोटी चौपाई सब स्थानों पर सुलभ है। बच्चों के लिये पृथक् कक्ष होता है। कमप्यूटर पर काम करने की सुविधा है। पुस्तकालय का उपयोग करने के लिये केवल उस क्षेत्र का नागरिक होना आवश्यक है। कोई शुल्क नहीं लगता। लोग हर समय पुस्तकालय का उपयोग करते देखे जा सकते हैं।

अमेरिका में साबुन से कपड़े धोने की प्रथा नहीं है, अतः इस देश में स्नान के लिये साबुन मिल जाता है, परन्तु कपड़े धोने का साबुन नहीं मिलता।

कपड़े मशीन में धोये जाते हैं और कपड़े सुखाने का कार्य भी मशीन से किया जाता है। घर के बाहर कपड़े सुखाना असभयता समझी जाती है।

यहाँ सार्वजनिक स्थानों पर पीने के पानी के नल लगे होते हैं, परन्तु उनमें पानी ऊपर की ओर निकलता है। नल की धार में मुँह लगाकर लोग पानी पीते हैं। यहाँ पात्र या अंजलि का प्रयोग कोई नहीं करता।

यहाँ शौचालयों में पानी की व्यवस्था नहीं होती। इस देश में भोजनालय से शौचालय तक सफाई का काम कागज से ही किया जाता है। यहाँ रूमाल का प्रयोग करने की प्रथा नहीं है।

दूरभाष या बैट्री चार्ज करने के लिये उपकरण में पिन के स्थान पर पत्ती होती है। अमेरिका में उतरते ही मेरे सामने सबसे पहले यही समस्या आई। मेरे पास पिन वाला चार्जर था, यहाँ पत्ती वाला काम आता है।

यहाँ के निवासियों को बहुत समय होने पर भी भोजन बनाना नहीं आता। इनका भोजन बर्गर, पिज्जा, नूडल, सिरियल्स आदि कुछ भी मिलाकर, कुछ भी बनाने जैसा है। किसी भी भोजन में मैदा और मांस ही मुखय होता है। इनके भोजन में दाल, शाक जैसी कोई कल्पना नहीं है, इसीलिये इनके यहाँ सूप और सलाद की कल्पना की गई है। हमारे यहाँ दाल, शाक, चटनी जैसी चीजों के रहते सलाद सूप की कल्पना नकल से अधिक कुछ नहीं है। यहाँ के लोग दाल-शाक के अभाव में भोजन के साथ कॉफी या कोक का प्रयोग करते हैं।

यहाँ रहने वाले भारतीय प्रायः अपना भोजन रविवार को बना लेते हैं और एक सप्ताह तक गर्म करके खाते हैं।

एक ओर यहाँ शुद्धता का बहुत ध्यान रखा जाता है, परन्तु इनके भोजन में विटामिन, प्रोटीन, मिनरल के नाम पर खाने के पदार्थों में भयंकर मिलावट रहती है। यहाँ आकर कोई यह नहीं कह सकता कि वह शाकाहारी बचा है। यहाँ दूध में विटामिन आदि के नाम पर कुछ भी पशु उत्पाद मिलाते रहते हैं। दही जमाने के लिये बछड़े की आँतों से निकलने वाले रेनिन का उपयोग किया जाता है। दही को गाढ़ा जमाने के लिये जिलेटिन उसमें मिलाया जाता है। डबल रोटी में अण्डा मिलाना सामान्य बात है, नान और रोटी के आटे में अण्डा मिला देते हैं। पनीर बनाने के लिये रेनिन का ही प्रयोग किया जाता है।

चॉकलेट, टॉफी, बिस्कुट में सब मांस के पदार्थ मिश्रित रहते हैं, अतः कोई भी मिठाई शाकाहार नहीं है।

यहाँ एक अच्छी बात है। भारत में रसोई के कचरे को लेकर बड़ी समस्या होती है। गीले कचरे को बाहर फेंका जाता है, परन्तु अमेरिका में गीला कचरा नल के नीचे डालकर बहा दिया जाता है, जिसे उसमें लगी मशीन चूरा करके पानी के साथ बहा देती है।

इस देश में शिक्षा निःशुल्क है। दसवीं तक शिक्षा के साथ भोजन की आवश्यकता हो तो सरकार उसकी भी व्यवस्था करती है। पूरे देश में शिक्षा व्यवस्था एक जैसी है, पूरे देश की भाषा एक ही है, इसलिये माध्यम में किसी प्रकार का संकट नहीं हैं। जो परिवार जिस क्षेत्र में रहता है, उसे अपने बच्चों को उसी क्षेत्र के विद्यालय में पढ़ाना अनिवार्य होता है। निजी विद्यालय बहुत कम और बहुत महँगे होते हैं।

छोटे बच्चों को कार की आगे की सीट पर बैठाना दण्डनीय होता है, उनके लिये पीछे की सीट पर अलग व्यवस्था करनी पड़ती है।

बारह वर्ष तक के बालक को अकेले घर पर छोड़ना दण्डनीय अपराध है।

दूरभाष पर बात करते हुए समबन्धित व्यक्ति न मिलने पर शबद सन्देश देने की परमपरा है।

घर से निकलते समय व्यक्ति समय के साथ वातावरण कैसा रहेगा, यह भी देखता है।

यहाँ वर्षा, आँधी, हवा, धूप, गर्मी, शीत का अनुमान बहुत पहले लग जाता है। पर्यावरण विज्ञान कार्यालय की घोषणा सटीक होती है, लोग उसके अनुसार अपने कार्यक्रम बनाते हैं।

भारत में पुराने छत के पंखों में दो पत्तियाँ होती थीं, फिर प्रायः तीन पत्ती होती हैं। अब कहीं-कहीं चार पत्तियाँ भी देखी जा सकती है, परन्तु अमेरिका में पंखों में पाँच पत्तियाँ होती हैं।

केलिफोर्निया में पीने का पानी छः सौ मील की दूरी से पहाड़ों से आता है, जबकि प्रदेश समुद्र के किनारे है।

अमेरिका में आयकर बहुत अधिक है। प्रदेश और केन्द्र का आयकर मिलकर चालीस से पैंतालीस प्रतिशत है। सभी सेवा कार्य करने वाले लोग इससे पीड़ित रहते हैं।

अमेरिका में चिकित्सकों की प्रतिष्ठा बहुत है, उनकी आय भी अधिक है। चिकित्सक बीमा कमपनियों से बँधे रहते हैं। स्वतन्त्र चिकित्सक बीमा के बिना देखता है तो बहुत पैसे लगते हैं। एक दाँत उखड़वाने में भारत जाकर आने और दाँत की चिकित्सा कराने जितना पैसा लगता है। सामान्य व्यक्ति के लिये आवास, भोजन, वाहन, भाषा की समस्या का संकट रहता है।

इस देश में सहायता के लिये एक अंक 711 है, इससे भारतीय लोग बहुत भयभीत रहते हैं। किसी भी प्रकार की सहायता के लिये पुलिस को बुलाया जा सकता है। विद्यालय में बच्चों को सिखाया जाता है- जब कोई तुमसे दुर्व्यवहार करे तो तुम इस अंक पर सूचना दे सकते हो। बच्चों को डांटना, पीटना इस देश में अपराध है। ऐसा अनेक बार होता है। भारतीय माता-पिता बच्चों को डाँटते या मारते हैं, तो बच्चे पुलिस में शिकायत कर देते हैं। पुलिस पकड़कर ले जाती है, पीटने वाले को जेल में बन्द कर देती है।

शिकागो में श्री भूपेन्द्र शाह ने बताया कि यहाँ एक माता-पिता अपने पुत्र-पुत्रवधू के पास रहने के लिये भारत छोड़कर अमेरिका आ गये। सास ने किसी बात पर नाराज होकर पुत्रवधू को बहुत डांट दिया। बहू ने इस अंक पर शिकायत कर दी, पुलिस सास-श्वसुर को पकड़कर थाने ले गई। फिर अलग होटल में रखा और फिर भारत भेज दिया।

16 वर्ष की आयु के बाद बच्चे स्वतन्त्र होते हैं। आप उन्हें घर जबरदस्ती नहीं रख सकते, वे घर छोड़कर कहीं भी जा सकते हैं।

इस देश में विद्यालय की शिक्षा निःशुल्क है, परन्तु कॉलेज विश्वविद्यालय की उच्च शिक्षा बहुत महँगी है। जो प्रतिभाशाली बच्चे हैं, उन्हें छात्रवृत्ति मिल जाती है, जो समपन्न है या पुरुषार्थी हैं, स्वयं कमाकर पढ़ते हैं। शेष लोग अपनी आजीविका में लग जाते हैं। यहाँ के संस्थानों में ईसाई लोगों को प्राथमिकता दी जाती है।

इस देश की विशेषता है कि आपके पास धन है तो आपके पास सब कुछ है। आप जो सुविधा चाहो, प्राप्त कर सकते हो। यहाँ पर संवेदना, भावात्मकता का कोई स्थान नहीं। जिन बातों से मन में संवेदना जागती है, उनका यहाँ नितान्त अभाव है। डॉ. सुखदेव सोनी के शबदों में यहाँ के लोगों के पास माता-पिता, गुरु, अतिथि को छोड़कर सब कुछ है। माता-पिता उत्पन्न कर देते है, परन्तु उनका कब और कितनी बार तलाक होगा, पता नहीं। ऐसे में बच्चों की संवेदना किससे जुड़ेगी? कक्षा में शिष्य अध्यापक के सामने टेबल पर पैर फैलाकर बैठता है तो अध्यापक उसे कुछ भी नहीं कह सकता, फिर आदर का भाव कहाँ से उत्पन्न होगा? अतिथि तो यहाँ कोई होता ही नहीं। सबके सब यहाँ अनुमति से आते-जाते हैं।

यहाँ निवास करने वाले भारतीयों का स्वभाव भिन्न है। किसी गोरे व्यक्ति से दृष्टि मिलती है, तो वह हँसकर ‘कैसे हो’ पूछता है, ‘धन्यवाद’ कहता है, परन्तु अधिकांश भारतीयों के चेहरे पर देखकर अप्रसन्नता का भाव प्रकट होता है, आँख मिलने पर चेहरा घुमा लेते हैं।

भारतीय लोग घर में भी अंग्रेजी का व्यवहार करने में गौरव समझते हैं। बच्चों से अंग्रेजी ही बोलते हैं। परिणामस्वरूप बच्चों को मातृभाषा या हिन्दी से परिचय नहीं हो पाता। कुछ परिवार घर में मातृभाषा का प्रयोग करते हैं।

इस देश में दूरी आज भी मील में नापी जाती है, तोल नाप के लिये पौण्ड, गेलन का ही प्रयोग होता है,गर्मी का माप फारनहाइट में ही होता है।

बस में परिचालक नहीं होता। एक पास राज्य या नगर में चलता है। एक यात्रा का नगर में एक ही टिकिट होता है।

सड़क पर कोई पैदल चलता हुआ दिखाई नहीं देता। सड़क पर कारें या बड़े लमबे-लमबे बन्द ट्रक चलते दीखते हैं।

सभी यान, सार्वजनिक स्थानों पर नियम से अशक्तों की पृथक् से व्यवस्था करनी होती है। इसमें किसी प्रकार की कमी दण्डनीय होती है।

कारों में पेट्रोल अपने-आप भरना होता है। कोई सहायक या दुकानदार नहीं होता। लेन-देन का सारा काम क्रेडिट कार्ड से होता है। नकद का व्यवहार बहुत कम होता है।

यहाँ सरकार पर पूँजीपतियों और बड़ी कमपनियों का कबजा है तो दवा बनाने वाले, डॉक्टर, बीमा कपनियाँ और वकील मिलकर जनता को लूटते हैं। एक डॉक्टर ने अपने व्यवसाय के बारे में टिप्पणी करते हुए कहा था- डॉक्टर क्या करता है,एक मनुष्य की सारे जीवन की कमाई का नबे प्रतिशत उसकी आयु के अन्तिम पाँच सालों में लूट लेता है।

बड़ा देश होने के कारण यहाँ की जलवायु सभी प्रदेशों में भिन्न-भिन्न है। आज धूप में चलने पर लॉस एन्जलस में दिल्ली की तरह गर्मी लगती है, वहीं सनीवेल में गर्मी-सर्दी दोनों नहीं है। यहाँ धूप प्रातः पाँच बजे से सायं सात बजे तक रहती है।

शिकागो में प्रातः उठा तब हिमपात हो रहा था। मध्याह्न में धूप निकल रही थी। सायंकाल के समय तेज हवायें चल रही थीं।

ह्यूस्टन पर समुद्र का प्रभाव बहुत रहता है। आज समुद्री तूफान में डूब रहा है, एक दिन उत्तर की हवायें चलती हैं, शीत बढ़ जाता है। दक्षिण की हवा चलती है, उष्णता बढ़ जाती है।

सड़क पर कोई किसी से आगे भागने का प्रयास नहीं करता। बड़े राज मार्ग पर तेज चलने के लिये अपनी पंक्ति बदलनी होती है।

सड़क पर कहीं भी  अकस्मात् रुक नहीं सकते। रुकने के लिये स्थान बने होते हैं।

सड़क को कहीं से पार नहीं कर सकते। सड़क पार करने के लिये निशान बने हैं, गाड़ी वहीं से पार हो सकती है। गाड़ी के उपमार्ग से मुखय मार्ग पर आने का स्थान निश्चित है, उसी प्रकार बाहर निकलने के लिये भी स्थान निश्चित है।

इस देश में सड़क पर यात्रा करते हुए बड़े खेतों में गायों के झुण्ड चरते हुए देख कर प्रसन्न मत होइये। गाय अमेरिका का सबसे दुर्भाग्यशाली पशु है। इसका समबन्ध इसका मांस खाने से है। यहाँ वालों का मुखय भोजन गाय का मांस (बीफ) है। इसके बाद सूअर, घोड़े आदि आते हैं। यहाँ का भाग्यशाली जानवर कुत्ता है, इसकी बहुत सेवा होती है।

दूध मशीन से निकालते हैं, अतः बछड़ा पैदा होने पर मारकर गाय को चारे में मिलाकर खिला देते हैं। दूध में खून आने पर उसका मिल्क चॉकलेट बन जाता है।

इस देश में दैनिक घरेलू काम से लेकर सामाजिक समारोह तक के सारे काम सभी लोग मिल-बाँट कर ही कर लेते हैं। मजदूर से कार्य कराना, महँगा होने से समभव नहीं है।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

 

निश्चिंत रहें सृष्टि अभी समाप्त नहीं होने वाली

निश्चिंत रहें सृष्टि अभी समाप्त नहीं होने वाली
अभी इस सृष्टि की आयु लगभग दो अरब वर्ष से भी अधिक बाकी है
हम देख रहे हैं कि कुछ ही दिनों बाद किसी ज्योतिषी कि भविष्यवाणी को घड कर समाचार पत्र और दूरदर्शन शोरकरने लगते हैं कि अगले महीने दुनिया समाप्त होने वाली है | इस अनर्गल पलाप से भयभीत होने कीआवश्यकता nahin अनेक लोग भयभीत हो जाते हैं | इस प्रकार का ही एक समाचार 26/08/2016 के समाचार पत्र में भी देखने को मिला है किन्तु किसी को डरने की अवश्यकाता नहीं इस प्रकार के समाचार झूठ का पुलिंदा होने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होते परमपिता परमात्मा ने प्रत्येक कल्प कि प्रत्येक मन्वंतर कि और प्रत्येक युगकि आयु निश्चत कर रखी है और वेद में इसका उल्लेख करते हुए बताया भी है | इस आधार परहम जानते हैं कि एकसृष्टि कि आयु लगभग चार अरब वर्ष होती है | हमारी यह जो सृष्टि है इसेबनेअभी १,९६,०८,५३, ११८ वर्ष हुए हैं अर्थात अभी दो अरब वर्ष पुरेहोने में भी लगभग चार करोड़ वर्ष शेष हैं यहदो अर्बवर्षपूर्ण होने के पश्चात भी दो अर्ब वर्ष शेष रह जाते हैं अत: निश्चिन्त रहें दो अरब चार करोड़ वर्ष के लगभग इस सृष्टि कि आयु शेष है इस से पूर्व कोई शक्ति भी इसे समाप्त नहीं कर सकती

हदीस: औरत का दोजक्ख में होना क्यूंकि वह अपने शौहर का नाफ़रमानी करती है |

औरत का  दोजक्ख में होना क्यूंकि वह अपने शौहर का नाफ़रमानी करती है |

इस्लाम में यह बोला जाता है की औरत और पुरुष को एक समान अधिकार है | वह  उपभोग की वस्तु नहीं है | खैर यह हमें दिलासा के लिए बोला जाता है की औरत को एक समान अधिकार है | आज हम कुछ पहलु इस्लाम से जाहिर करते हैं जिससे यह मालुम हो जाएगा की औरत को इस्लाम में एक समान अधिकार नहीं बल्कि एक उपभोग की वस्तु है | कुरआन में भी यह बोला गया है की औरत को खेती समझो | चलिए ज्यादा बाते न बनाते हुए औरत की बारे में सहीह बुखारी हदीस से हम प्रमाण रख रहे हैं |

Saheeh bukhaari hadees  volume 1 book 2 : belief  hadees  number 28

Narrated Ibn Abbas :  The Prophet said : “ I was shown the hell-fire and that the majority of its dwellers were woman who were ungrateful.” It was asked. “do they  disbelieve in allah ? “ (or are they  ungrateful to allah ? ) he replied , “ They are ungrateful to their husbands and are ungrateful for the favors  and good (charitable deeds)  done to them . if you have always been good (benevolent)   to one of them and then she sees something  in you (not of her liking), she will say, ‘ I have never received any good from you.”

मुख़्तसर सहीह बुखारी हदीस जिल्द  1 बुक  2 इमान का बयान   हदीस संख्या  27

इब्ने अब्बास रजि. से रिवायत है, उन्होंने कहा , नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया : मैंने दोजक्ख  में ज्यादातर औरतो को देखा (क्यूंकि) वह कुफ्र करती है | लोगो ने कहा : क्या वह अल्लाह का कुफ्र करती है ? आपने फरमाया : “ नहीं बल्कि वह अपने शौहर की नाफ़रमानी करती है  और एहसान फरामोश है , वह यूँ की अगर तू सारी उम्र औरत से अच्छा सलूक करे फिर वह (मामूली सी ना पसंद ) बात  तुझमे देखे तो कहने लगती है की  मुझे तुझ से कभी आराम नहीं मिला | “

 

ऊपर हमने हदीस से इंग्लिश और हिंदी में प्रमाण दिया है |

समीक्षा :  यह बात समझ में  नहीं आई की यदि कोई शौहर गलत काम करे  तो भी  उस औरत को उसकी  शौहर की बात को मानना पड़े  यदि वह  ना माने  तो  वह दोजख  जायेगी | यह कैसा इस्लाम में औरत  को समानता दी गयी है यह बात समझ से परे है | शौहर गलत ही क्यों ना हो उसका विरोध ना करो | शौहर का सब  बात को सही समझो | सभी बात को स्वीकार करो | क्या औरत खिलौना है ? क्या औरत के पास कोई अक्ल  नहीं है ? सब अक्ल पुरुष के पास है ?  यदि शौहर अपनी बीवी की बात ना माने तो वह कहाँ जाएगा ? वह शौहर दोजख क्यों नहीं जाएगा ? यह कैसा समानता औरत पुरुष में ?

 

यदि लेख में किसी तरह की त्रुटी हुयी हो तो आपके सुझाब सादर आमंत्रित हैं  |

धन्यवाद  |

 

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सांई बाबा मत

सांई बाबा मत

– सत्येन्द्र सिंह आर्य

वर्ष 1875 ईसवी में आर्य समाज की स्थापना के समय भारत में लगभग एक सहस्र मत-मतान्तर विद्यमान थे। उनमें से कुछ की समीक्षा महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में की है। आर्य समाज जैसे सुधारवादी आन्दोलन के आरभ होने के बाद भी नये-नये मतों का उद्भव होता रहा है। सांई बाबा मत भी उन्हीं में से एक है। 20 वीं शतादी के आरभ में इस मत का उदय महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में हुआ।

मध्य-युग (भक्ति काल) में सांई शबद ‘स्वामी’ के अर्थ में, ‘ईश्वर’ के लिए, किसी को आदरपूर्वक सबोधित करने के लिए प्रयोग में होता रहा है। जैसे किसी कवि ने लिखा-

सांई इतना दीजिए जा में कुटम समाय।

मैं भी भूखा न रहूँ, पथिक न भूखा जाय।।

परन्तु इस शबद से किसी मत-पंथ का बोध नहीं होता था। उन्नीसवीं शताबदी के अन्त और बीसवीं शताबदी के आरमभ में शिरडी (महाराष्ट्र) की एक मस्जिद के मुस्लिम फकीर की प्रसिद्धि सांई-बाबा के नाम से हो गयी और उसके नाम से एक नया पंथ चल पड़ा। सांई-बाबा के नाम से मन्दिर बन गये और वही मुस्लिम फकीर हिन्दुओं की अन्ध भक्ति के कारण अवतार, भगवान और न जाने क्या-क्या बन गया।

स्वार्थ की पराकाष्ठा के कारण व्यक्ति कम परिश्रम से कम समय में माला-माल होना चाहता है। मत-पंथों का धन्धा इस हेतु सर्वाधिक अनुकूल सिद्ध होता है। आन्ध्र प्रदेश के अनन्तपुर जिले में चित्रवती नदी के किनारे पुट्टुपर्ती ग्राम में वर्ष 1926 में जन्में ‘सत्यनारायण राजू’ नाम के बालक ने भी युवा होते-होते यही धन्धा अपनाया और ये ‘‘श्री सत्य सांई बाबा’’ नाम से विखयात हो गये। ‘सांई बाबा’ और ‘‘श्री सत्य सांई बाबा’’-ये दोनों नाम एक जैसे ही हैं। अगर ये सत्य नारायण राजू (पुट्टुपर्ती वाले सांई बाबा) अपने को किसी अन्य नाम से पुजवाते तो कुछ कठिनाई भी आती और प्रसिद्धि प्राप्त करने में कुछ समय भी लगता। वह पुराना ‘सांई बाबा’ चला-चलाया नाम था, इन्होंने कह दिया मैं ही आठ वर्ष पहले ‘सांई बाबा’ था, उसी का अवतार मैं हूँ।

(शिरडी वाले सांई बाबा की सन् 1918 में मृत्यु हो गयी थी।) अब ये अवतार बन गये और पुजने लगे। वेद-विद्या के प्रचार-प्रसार के अभाव में देश में भेड़-चाल है। लोग सत्य, सदाचार, न्याय की तुलना में चमत्कार की ओर को खिंचे चले जाते हैं। इन्होंने भी हाथ की सफाई दिखाई, अपने झबरे बालों में से भभूत, हाथ-घड़ी निकालने का चमत्कार दिखाया, कुछ गप्पें अपने बारे में प्रचारित करायीं और सिद्ध बन गये।

शिरडी वाले तो सिर्फ सांई-बाबा ही थे और उनका अवतार होने का सिक्का चल गया था। पहले वाले सांई बाबा के भक्तों ने उन्हें (नये बाबा को) मान्यता नहीं दी, तो इनके भक्तों ने क्या किया, कि सांई बाबा नाम तो उस तथा कथित अवतार का ले लिया तथा ‘‘सत्य’’ शबद जो ‘‘सत्यनारायण राजू’’ नाम बचपन का था, उससे ले लिया। ‘‘श्री ’’ अपनी ओर से समान की दृष्टि से लगाया और बन गए पूरे ‘‘श्री सत्य सांई बाबा’’। यह इसलिए भी किया कि पहले वाले सांई बाबा को असत्य सिद्ध करने की आवश्यकता ही न रही। भक्तों ने स्वयं ही कहना आरमभ कर दिया कि सत्य तो ये ही हैं। ऊपर से चमत्कारों का  प्रोपैगेण्डा आरभ कर दिया जैसे कि इनके चित्र से शहद का टपकना, राख का झड़ना, लाईलाज बीमारियों का ठीक होना। ठगी करने के लिए ये ढोंग आवश्यक हैं ही। पुट्टुपर्थी वाले बाबा (अभी साल दो साल पूर्व ही इनकी मृत्यु हुई है) माडर्न महात्मा अपने को प्रदर्शित करते थे और स्वयं को बाल ब्रह्मचारी बताते थे, परन्तु विवाहित थे और इनकी पत्नी हैदराबाद के एक अस्पताल में नर्स थी। यही अवतारी बाबा पहले औरगांबाद (मराठवाड़ा) में पागलों की भाँति आवारागर्दी करते फिरते थे। यह सब विवरण सार्वदेशिक पत्रिका के 16 सितबर सन् 1973 के अंक में प्रकाशित हुआ है। बड़ी राशि के लेन-देन के सिलसिले में इसी बाबा के विरुद्ध न्यायालय में मुकदमा भी चलाया गया था, जिसमें कुछ रकम तो बाबा को वापस करनी पड़ी थी, परन्तु अर्काट जिले के दो भाइयों श्री टी.एम. रामकृष्ण तथा मुथुकृष्ण के लगभग एक लाा रुपये डकारने में ये अवतारी पुरुष? सफल हो गये थे।

लगभग एक डेढ़ शताबदी के अन्दर काफी सीमा तक एक जैसे ही नाम वाले इन दो सांई बाबाओं के नाम पर सांई-बाबा मत चल निकला और ऐसा चला कि अपनी पन्थाई दुकानदारी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता देखकर एक जगत् गुरु शंकराचार्य तक भी व्यथित हो गए।

सांई बाबा मत का कोई ऐसा प्रामाणिक ग्रन्थ दृष्टि में नहीं आया, जिसमें इस पंथ के ईश्वर, धर्म, सृष्टि-निर्माण, आत्मा-परमात्मा विषयक आध्यात्मिक विवेचन, स्वर्ग, नरक, मुक्ति जैसे विषयों की चर्चा, सुसन्तान के निर्माण, सुाी गृहस्थी बनने के बुद्धि-गय सुझाव दिये गये हों। जो पुस्तकें उपलध हैं, वे इस प्रकार की हैं, जैसे-‘‘अवतार गाथा,’’ ‘सांई बाबा का चमत्कारी व्यक्तित्व’, A Man of Miracles

‘‘श्री सांई सच्चरित्र’’ (श्री सांई बाबा की अद्भुत जीवनी और उनके अमूल्य उपदेश) आदि। पूर्व-उल्लिखित ‘‘श्री सांई सच्चरित्र’’ पुस्तक मूल रूप से मराठी में है और इसके लेखक हैं, कै. गोविन्दराव रघुनाथ दाभोलकर (हेमाडपन्त)। पुस्तक के  हिन्दी संस्करण के अनुवादक श्री शिवराम ठाकुर हैं। इस पुस्तक का जो संस्करण मुझे प्राप्त हो सका, वह सन् 2007 में प्रकाशित हुआ 18 वां संस्करण है, जिसकी 1 लाख प्रतियाँ मुद्रित हुई हैं, ऐसा उल्लेख है और उससे पहले संस्करण (17 वाँ) की प्रतियाँ ढाई लाख बतायी गयी हैं। यदि वास्तव में पुस्तक की इतनी बड़ी संखया में प्रतियाँ छपी हैं, तो यह विस्मयकारी है। पुस्तक में 51 अध्याय हैं।

पुस्तक में सांई बाबा के जीवन की चमत्कारों से परिपूर्ण झाँकिया आदि से अन्त तक भरी पड़ी हैं। मत-पंथ कोई भी हो बिना चमत्कारों के टिक नहीं सकता। ईसाइयत, इस्लाम, जैन, बौद्ध, चारवाक, ब्रह्माकुमारी, राधास्वामी आदि सभी मत अपने-अपने संस्थापकों के जीवन में काल्पनिक चमत्कारों की गाथाएँ जोड़कर ही खड़े रह सके हैं। महाराज मनु प्रोक्त धर्म के 10 लक्षणों से उनका कुछ लेना-देना नहीं होता। सांई बाबा मताी उसी प्रकार चमत्कारों एवं आडबरों का गोरख धन्धा है। सांई को भगवान, भगवान का अवतार, अद्भुत चामत्कारिक शक्तियों से समपन्न अलौकिक दिव्यआत्मा सिद्ध करने के लिए आकाश-पाताल एक किये गये हैं। ‘श्री सांई सच्चरित्र’ पुस्तक के आरा में प्रथम अध्याय में वन्दना करने का उपक्रम करते हुए लेखक सांई का पूरा अवतारीकरण करने का प्रयत्न करता है। उन्हीं के शबदों में-

‘‘पुरातन पद्धति के अनुसार प्रथम श्री गणेश को साष्टांग नमन करते हैं, जो कार्य को निर्विघ्न समाप्त कर उसको यशस्वी बनाते हैं और कहते हैं, कि श्री सांई ही गणपति है।’’

….‘‘श्री सांई भगवती सरस्वती से भिन्न नहीं है, जो कि स्वयं ही अपना जीवन संगीत बयान कर रहे हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश, जो क्रमशः उत्पत्ति, स्थिति और संहारकर्त्ता हैं और कहते हैं कि सांई और वे अभिन्न हैं। वे स्वयं ही गुरु बनकर भवसागर से पार उतार देंगे।’’

सांई बाबा को अन्तर्यामी (सर्वज्ञ) सिद्ध करने के लिए लेखक ने एक घटना का उल्लेख किया है। लेखक शिरडी पहुँचे और वहाँ साठेवाड़ा नाम के स्थान पर अपने एक शुभचिन्तक श्री काक साहेब दीक्षित (जो सांई बाबा के बड़े भक्त और नजदीकी थे) के साथ इस आशय की बात कर रहे थे कि गुरु धारण करने की आवश्यकता नहीं है। इस पर काका साहेब ने उन्हें कहा ‘‘भाई साहब, यह निरी विद्वत्ता छोड़ दो। यह अहंकार तुहारी कुछ भी सहायता न कर सकेगा।’’ इस  प्रकार दोनों पक्षों के खण्डन-मण्डन में एक घण्टा व्यतीत हो  गया और बात अनिर्णीत ही रही। लेखक महोदय आगे कहते हैं-‘‘जब अन्य लोगों के साथ मैं मस्जिद गया तब बाबा ने काका साहेब को समबोधित कर प्रश्न किया कि साठेवाड़ा में क्या चल रहा था? किस विषय में विवाद था? फिर मेरी ओर दृष्टिपात कर बोले कि इन ‘हेमाडपन्त’ ने क्या कहा। ये शबद सुनकर मुझे अधिक अचमभा हुआ। साठेवाड़ा और मस्जिद में पर्याप्त अन्तर था। सर्वज्ञ या अन्तर्यामी हुए बिना बाबा को विवाद का ज्ञान कैसे हो सकता था?’’

बाबा की इस सर्वज्ञता? या अन्तर्यामीपन की पोल एक पौराणिक सद्गृहस्थ-सन्त भक्त रामशरण दास (पिलखुआ) ने इस प्रकार खोली है-

‘‘सांई साहब मुसलमान हैं। वह भी अपने को अतवार तथा और भी न जाने क्या-क्या बतलाया करते थे। बहुत से मनुष्य इनके चंगुल में फँस गये थे, परन्तु कुछ दिन हुए एक लुहारिन ने इनके अवतारपने की सब पोल खोल दी। सांई जी को जब सब लोग बड़ी श्रद्धा के साथ घेरे हुए थे, तो उस समय एक लुहार भी बड़ी श्रद्धा के साथ आपको अपने मकान पर लिवा लाया। लुहार की स्त्री लुहारिन भी वहीं पर उनके पास बैठ गई। कुछ देर में सांई साहब ने एकाएक बहुत क्रोध में आकर बुरा-बुरा मुँह बनाकर अपना डंडा उठाकर धड़ाम से एक किवाड़ में दे मारा और कहा कि ‘जा साले!’ सबने हाथ जोड़कर पूछा कि सांई साहब क्या बात है? सांई साहब ने अपने को त्रिकाल दर्शी कहते हुए कहा कि अरब में इस समय एक कुत्ता काबे को नापाक कर रहा था। मुझे वह दिख रहा था। मैंने उसे यहीं पर बैठे हुए दे मारा है। यह सुनकर सब लोग हाथ जोड़कर और भी ज्यादा श्रद्धा करने लगे।’’

‘‘लुहारिन होशियार थी, उसने कहा कि सांई साहब मैं आपके लिए चावल बनाकर लाती हूँ, आप बैठे रहना। वह अन्दर गई और चावल बनाये, जब चावल बन चुके, तो उसने एकबर्तन में पहले बूरा (चीनी) रखा और फिर बूरा के ऊपर चावल इस तरह से रखे कि जिससे वह बूरा बिल्कुल ही न दिखे। फिर उस बर्तन को लाकर उसने सांई साहब के सामने रख दिया। लुहारिन चावल रखकर एकदम अन्दर मकान में चली गई। सांई साहब ने समझा कि वह मेरे लिए बूरा लेने गयी है। जब बहुत हो गयी तो उन्होंने उसे बुलाया और कहा कि बूरा क्यों नहीं लाई? उसने कहा कि बूरा तो घर में है ही नहीं। साँई साहब ने क्रोध में भरकर कहा कि हम बिना बूरा के चावल नहीं खाते। इतना कहते ही लुहारिन उठी और सांई साहब की दाढ़ी पकड़कर दे मारा और उनका सब सामान उठाकर बाहर फेंक दिया। पूछने पर उसने कहा कि भला इसे हजारों कोस का कुत्ता तो दिखता है, पर बिल्कुल सामने रखा चावलों से ढका बूरा नहीं दिखता। सब यह देखकर चकित हो गये और सबने उसके ढोंग को समझ लिया।’’

सद्गृहस्थ-सन्त, भक्त रामशरणदास-पृष्ठ 385-86

साधु, फकीर, सन्त, संन्यासी तो जमीन पर पैर रखकर सामान्य जन कीााँति चलते फिरते हैं, परन्तु उनके भक्त और अनुयायीगण उनको समुद्र की सतह पर चला देते हैं, आकाश में पक्षियों की भाँति उड़ता हुआ दिखा देते हैं। सांई बाबा के साथाी लेखक ने ऐसा ही किया। ‘‘श्री सांई सच्चरित्र’’ पुस्तक के पृष्ठ 16 पर श्री सांई ने निम्नलिखित अति सुन्दर उपदेश दिया-

‘‘तुम चाहो कहीं भी रहो, जो इच्छा हो, सो करो, परन्तु यह सदैव स्मरण रखो कि जो कुछ तुम करते हो, वह सब मुझे ज्ञात है। मैं ही समस्त प्राणियों का प्रभु हूँ और घट-घट में व्याप्त हूँ।’’

‘‘मेरे ही उदर में सब जड़ व चेतन प्राणी समाये हुए हैं। मैं ही समस्त ब्रह्माण्ड का नियंत्रणकर्त्ता व संचालक हूँ। मैं ही उत्पत्ति स्थिति और संहारकर्त्ता हूँ। मेरी भक्ति करने वालों को कोई हानि नहीं पहुँचा सकता।’’

‘‘बाबा की विशुद्ध कीर्ति का वर्णन निष्ठापूर्वक श्रवण करने से भक्तों के पाप नष्ट होंगे। अतः यह मोक्ष प्राप्ति का भी सरल साधन है। सत्य युग में  शम तथा दम, त्रेता में त्याग, द्वापर में पूजन और कलियुग में भगवत कीर्तन ही मोक्ष का साधन है।’’

शेष भाग अगले अंक में….

व्रती व्यक्ति सदा निरोग व प्रसन्न रहता है

ओउम
व्रती व्यक्ति सदा निरोग व प्रसन्न रहता है
डा. अशोक आर्य
अग्नि को तेज का प्रतीक माना गया है | विश्व का प्रत्येक व्यक्ति तेज पाने की आकाक्षा रखता है | इस आकांक्षा की पूर्ति के लिए वह सतत प्रयास भी करता है | यदि उस का यह प्रयास सही दिशा में है तो मन वांछित फल उसे मिलता है और यदि वह भटका हुआ है, उसे सही दिशा का ज्ञान नहीं तो उस के लिए सफलता भी संदिग्ध ही है | कहा भी है कि चल गया तो तीर नहीं तो तुक्का | प्रत्येक सफलता के लिए मानव को कई प्रकार के व्रत करने होते है | व्रत की सफलता से व्यक्ति को प्रसन्नता मिलती हैं तथा प्रसन्न व्यक्ति ही निरोग होता है | अथर्ववेद के मन्त्र ७.७४.४ में इस तथ्य पर ही प्रकाश डाला गया है | मन्त्र का अवलोकन करें : –
मन्त्र पाठ : –
व्रतें तवं व्रतपते समक्तो
विश्वाहा सुमना दीदिहिह |
तं त्वा वयं जातवेदा
प्रजावंत उप सदेम सर्वे || अथर्व .७.७४.४||
: समिद्धन
भावार्थ : –
हे व्रतों के स्वामी , हे व्रतों के पालक अग्नि देव ! तुम व्रत से सुसंस्कृत होने से यहाँ सदा प्रसन्नचित्त हो कर प्रकाशित होना ! हे अग्नि ! हम सब अपनी संतानों के साथ प्रदीप्त हो तेरे समीप बैठें |
व्रतों से हमें अनेक लाभ होते हैं | इन लाभों का वर्णन ही इस मन्त्र का मुख्य विषय है | व्रतों से मिलाने वाले लाभ इस प्रकार हैं : –
१) शुद्धता
२) निरोगता
३) पवित्रता
४) प्रसन्नचित्तत़ा
इस मन्त्र के अनुसार अग्नि ही व्रतपति है | व्रत से शुद्ध, पवित्र तथा तेजस्वी भी अग्नि ही है | स्पष्ट है कि यहाँ व्रत के उदहारण अग्नि को रखा गया है | जिस प्रकार अग्नि में डाला गया प्रत्येक पदार्थ या सामग्री जल कर नष्ट हो जाते हैं किन्तु जलते जलते भी यह तत्व अग्नि को तेजस्विता प्रदान करते हैं | अग्नि का धर्म है जलना | यदि ज्वाला नहीं तो हम उसे अग्नि कैसे कह सकते हैं ? तो भी अग्नि को जलने के लिए कुछ पदार्थों की , कुछ तत्वों की आवश्यकता होती है | बिना किसी वास्तु के तो अग्नि भी जल नहीं सकती | ज्वलन्शिलता अग्नि का गुण तो है किन्तु यह गुण तब ही गतिशील होता है , जब किसी पदार्थ के संपर्क में आता है | किसी पदार्थ के संपर्क के बिना अग्नि जल ही नहीं सकती तथा जों भी पदार्थ इस अग्नि के संपर्क में आता है , उसे भी यह अग्नि जला कर राख कर देती है | अग्नि के जलने से उस के आस पास जितने भी दूषित तत्व होते हैं , उन sab को भी जला कर अग्नि नष्ट कर देती है | इस प्रकार अग्नि के जलने मात्र से वायु मंडल शुद्ध हो जाता है , वातावरण में शुद्धता आ जाती है , पर्यावरण स्वच्छ हो जाता है | निर्दोषता का सर्वत्र साम्राज्य स्थापित हो जाता है |
जहाँ तक व्रत अथवा उपवास का सम्बन्ध है यह भी हमारे शरीर में अग्नि के समान ही कार्य करता है | जिस प्रकार अग्नि अपने आस पास व पड़ोस के दुर्गुणों को जला कर नष्ट कर देती है , उस प्रकार ही व्रत अथवा उपवास भी शरीर के अंदर विद्यमान सब प्रकार के दूषित तत्वों को नष्ट कर देते हैं | दूषित तत्वों के नष्ट होने से शरीर में शुद्धता आती है | शरीर के निर्दोष होने से शरीर चुस्त व दुरुस्त हो जाता है | निर्दोष, चुस्त व शुद्ध शरीर ही निरोगता की कुंजी है | अत: शरीर जितना शुद्ध व निर्दोष रहेगा , उतना ही शरीर निरोगी होगा | शरीर की इस निरोगता को पाने के लिए ही हम व्रत करते हैं | इस से स्पष्ट होता है की व्रत स्वस्थ व शुद्ध शरीर स्थापित करने का साधन होने से निरोगता की कुंजी होते हैं | यह ही निरोगता का साधन हैं |
व्रत को ही मानवीय प्रसंन्नचितता का आधार माना गया है | यह मन्त्र का दूसरा लाभ है | जो सदा प्रसन्न रहता है मन्त्र ने उसे विश्वाहा सुमना: कहा है | इस का भाव भी प्रसन्नचितता ही है | प्रसन्न कौन होता है ? इसका उत्तर मन्त्र ने ऊपर इस प्रकार दिया है कि जो शुद्ध, पवित्र, तेजस्वी है, वह प्रसन्नचित्त होता है | अत: ऊपर के उपाय करने के पश्चात जीव स्वयमेव ही प्रसन्न चित्त हो जाता है | व्रतों द्वारा शरीर के शुद्धि करण से शरीर सब प्रकार से स्वच्छ हो जाता है | दूषित शरीर में जो रोग , शोक , आलस्य, निद्रा, तन्द्रा प्रमाद आदि दुर्गुण थे , वह सब इन व्रतों से धुल कर स्वच्छ हो गए | इन सब दुर्गुणों के , दोषों के नाश से मन प्रसन्नता से प्रफुलित हो उठता है , उस में एक विचित्र सी उमंग ठाठें मारने लगती है | इस उमंग को ही प्रसन्नता कहते हैं | अत: दोष निवारण से मन पूर्णतया प्रसन्न हो जाता है | अब मानवीय मन सदैव प्रसन्न रहता है | स्वास्थ्य के लिए वरदान प्रसन्नचितता के लिए योगीराज श्री कृषण जी ने गीता में भी बड़ी सुन्दर चर्चा की है | इस सम्बन्ध में गीता का श्लोक २-६५ दर्शनीय है | जो इस प्रकार है : –

प्रसादे सर्वदु:खानां , हानिरस्योपजायते |
प्रसन्नचेततो ह्याशु: ,बुद्धि: प्र्यवातिष्ठते || गीता २-६५ ||
प्रसन्नता दु:खों का विनाश करती है | अत: जो व्यक्ति प्रसन्नचित्त होता है उसके सब दु:खों का नाश स्वयमेव ही हो जाता है | जिस प्रकार जल से भरे गिलास में वायु नहीं रह सकती , उस प्रकार ही प्रसन्न बदन में दु:ख , शोक , क्लेश इत्यादि दुर्गुण नहीं रह सकते | जब शरीर दु:ख रहित है तो मन शांत हो जाता है | शांत मन के साथ बुद्धि कभी आक्रोशित नहीं हो सकती , इस कारण उसकी बुद्धि भी शांत हो जाती है | शांत बुद्धि मानवीय शरीर की सुव्यवस्था का साधन है | अत: व्रती व्यक्ति का शरीर भी सुव्यवस्थित रहता है | सुव्यवस्थित शरीर में किसी भी प्रकार का शल्य प्रवेश नहीं कर सकता | जब मन प्रसन्न है , बुद्धि शांत है तथा पूरा शरीर सुव्यवस्थित कार्य कर रहा है तो इस के सदुपयोग से परिवार ऊपर उठता है | परिवार के उन्नत होने से समाज , देश व विश्व की भी उन्नति होती है | सब प्रकार से कल्याण का साम्राज्य छा जाता है | जब एक व्रत से ही विश्व का कल्याण संभव है तो हमें व्रती बनने से परहेज करने की क्या आवश्यकता है ? विश्व कल्याण के लिए हम व्रती बनें अपना भी कल्याण करें , समाज का भी उत्थान करें तथा विश्व का भी कल्याण करें |

डा. अशोक आर्य
१०४ – शिप्रा अपार्टमैंट ,कौशाम्बी (गाजियाबाद)
चल्वार्ता ०९७१८५२८०६८, 01202773400

कुरान समीक्षा : रोजों में सम्भोग करना जायज किया गया

रोजों में सम्भोग करना जायज किया गया

खुदा ने राजों में औरतों से विषय भोग करने पर पहले पाबन्दी क्यों लगाई थी जो उसे बाद में तोड़नी पड़ी? क्या इससे खुदा की अज्ञानता प्रकट नहीं होती है?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

उहिल-ल लकुम् लैल- तस्सियामिर्र…….।।

(कुरान मजीद पारा २ सूरा बकर रूकू २३ आयत १८७)

(मुसलमानों) रोजो की रातों में अपनी बीबियों के पास जाना तुम्हारे लिये जायज कर दिया गया है, वह तुम्हारी पोशाक हैं और तुम उनकी पोशाक हो। बस! अब उनके साथ रोजों की रातों में भी हमबिस्तर हो सकते हो। अर्थात् सम्भोग कर सकते हो।

समीक्षा

इस पर सही बुखारी भाग १ सफा ३०१ हदीस ९११ में निम्न प्रकार वर्णन आता है-

वरायः जी अल्ला अन्स से रवायत है, कहा मुहम्मद सललाहु वलैहिअस्लम के सहाबों में से जब कोई रोजेदार होता और इफ्तार के वक्त सौ जाता बिना इफ्तार किये तो वह तमाम दिन नहीं खा सकता था, यहां तक कि शाम हो, एक वक्त कैसे बिन बिन सरमह अन्सारी रोजा से थे तो जब इफ्तार का वक्त आया तो अपनी बीबी के पास आये और उससे कहा-तेरे पास कुछ खाना है? उसने कहा नहीं, लेकिन मैं जाती हूँ तलाश करूंगी तुम्हारे लिये कुछ मिल जाये। और वे दिन भर मजदूरी करते थे इसलिए उनकी आँखें उन पर गालिब आई और सो गये। जब उनके पास उनकी बीबी आई तो कहने लगे बड़े खसारा में पड़ गया।

जब दूसरे रोज दोपहर का वक्त हुआ तो उन पर गशी तारी हो गई। उसका जिक्र रसूले खुदा सल्लाहु वलैहिअस्लम से किया गया तो यह आयत नाजिल हुई कि ‘‘तुम्हारे लिये रोजों की रात में अपनी ओर से हमबिस्तरी हलाल है।’’उस वक्त लोग इस आयत के हुक्त से बहुत-बहुत खुश हुए और यह भी नाजिल हो गया कि ‘‘खाओ और पियो जब कि सफेद धागा स्याह धागा से जुदा हो’’ यानी रात बीते तक।

इस हदीस से साफ हो गया कि अमर रोजाअफतारी के वक्त कुछ खाने को न मिल सके रोजेदार अपनी औरत से हमबिस्तरी करके रोजा अफतारी कर सकता है यह आसान व मजेदार नुस्खा खुदा ने बता दिया। इसमें खाने का झंझट भी साफ हो गया। कुछ खाने को न मिले तो भी हमबिस्तरी कर लेने से काम चल जावेगा।