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मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द

मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द

पिछले अंक का शेष भाग…..

  1. पुराभवं पुरा भवा पुराभवश्च इति पुराणं पुराणी पुराणः।
  2. 2. वहाँ ब्राह्मण पुस्तक जो शतपथादिक हैं, उनका ही नाम पुराण है तथा शंकराचार्य जी ने भी शारीरक भाष्य में और उपनिषद् भाष्य में ब्राह्मण और ब्रह्म विद्या का ही पुराण शबद से अर्थ ग्रहण किया है।
  3. 3. तीसरा देवालय और चौथा देव पूजा शबद है। देवालय, देवायतन, देवागार तथा देव मन्दिर इत्यादिक सब नाम यज्ञशालाओं के ही हैं।
  4. 4. इससे परमेश्वर और वेदों के मन्त्र उनको ही देव और देवता मानना उचित है। अन्य कोई नहीं।

(-स्वामी दयानन्द, प्रतिमा पूजन विचार, पृ. 483-485, दयानन्द ग्रन्थमाला)

ऋषि दयानन्द के जीवन में मूर्तिपूजा की अवैदिकता और अनौचित्य पर वाद-संवाद, शास्त्रार्थ, भाषण, चर्चा, परिचर्चा तो बहुत मिलती है, परन्तु एक आश्चर्यजनक प्रसंग भी मिलता है। स्वामी दयानन्द के सिद्धान्तों और मान्यताओं को लेकर कोलकाता की आर्य सन्मार्ग सन्दर्शिनी सभा का एक अधिवेशन 22 जनवरी रविवार सन् 1881 को कोलकाता विश्वविद्यालय के सीनेट हॉल में भारत के 300 विद्वानों की उपस्थिति में हुआ, जिसमें स्वामी दयानन्द के मन्तव्यों को सर्वसमति से अस्वीकार किया गया। इसमें आश्चर्य और महत्त्व की बात यह है कि इस सभा में पूर्व पक्षी के रूप में स्वयं स्वामी दयानन्द या उनका कोई प्रतिनिधि उपस्थित नहीं था, न ही निमन्त्रित किया गया था और न ही किये जाने वाले प्रश्नों के उनसे उत्तर माँगे गये थे। यह कार्य नितान्त एकपक्षी और सभा की ओर से ऋषि दयानन्द की मान्यता को अस्वीकार करते हुए पाँच उत्तर स्वीकृत हुए थे।

आर्यसमाज के आरमभिक काल के एक और सुयोग्य लेखक बाबा छज्जूसिंह जी द्वारा लिखित व सन् 1903 ई. में प्रकाशित  Life and Teachings of Swami Dayananda पुस्तक की भी एतद्विषयक कुछ पंक्तियाँ यहाँ देना उपयोगी रहेगा। विद्वान् लेखक ने लिखा है-

“While Swami Dayananda was at Agra,  a Sabha called the Arya Sanmarg Sandarshini Sabha, was established at Calcutta, with the object of having it decided and settled, once for all, by the most distinguished representatives of orthodoxy in the land (that could be got hold of for the purpose of course) that Dayanand’s views on Shraddha, Tiraths, Idol-Worship, etc. were entirely unorhodox and unjustifiable. Sanskrit scholars rising to the number of three hundred responded to the call of the Sabha, and a grand meeting composed of the local men and of the outsiders, came off in the Senate Hall on 22nd January, 1881. It is significant that not  one of the numerous distinguished pandits present thought of suggesting or moving that the man upon whom the Sabha was going to sit in judgement, should be condemned or acquitted after he had been fully heard. It may be urged that the Sabha was not in humour to acquit Dayanand under any circumstances, but still he should have been permitted to have his say before he was condemned. Surely, one man could be dealt with very well by and assemblage so illustrious and so erudite. But the Pandits and their admirers were wise in their  generation. Dayanand, though ine, had proved too many for still a more learned and august gathering at Benares.”1

(1. Life and Teachings of Swami Dayananda, Page. 39, Part-II)

आर्य सन्मार्ग सन्दर्शिनी सभा कलकत्ता और स्वामी दयानन्द सरस्वती का सिद्धान्त- सबको ज्ञात हो कि 22 जनवरी सन् 1881 ई. को रविवार के दिन सायंकाल सीनेट हॉल कलकत्ता में वहाँ के श्रीमन्त  बड़े-बड़े लोगों और प्रसिद्ध पण्डितों ने एकत्र होकर यह सभा दयानन्द सरस्वती जी की कार्यवाहियों पर विचार करने के उद्देश्य से आयोजित की थी। इस सभा का विस्तृत वृत्तान्त हम ‘सार सुधा निधि’ पत्रिका से नीचे अंकित करते हैं। इस सभा के व्यवस्थापक पण्डित महेशचन्द्र न्यायरत्न जी कॉलेज के प्रिंसिपल थे। इस सभा में पण्डित तारानाथ तर्कवाचस्पति, जीवानन्द विद्यासागर बी.ए. और नवदीप के पण्डित भुवनचन्द्र विद्यारत्न आदि बंगाल के लगभग तीन सौ पण्डित और कानपुर के पण्डित बाँके बिहारी वाजपेयी और यमुना नारायण तिवारी और वृन्दावन के सुदर्शनाचार्य जी और तञ्जौर (मद्रास प्रेसीडैन्सी) के पण्डित राम सुब्रह्मण्यम शास्त्री जिनको सूबा शास्त्री भी कहते हैं, पधारे थे। इनके अतिरिक्त श्रीमन्त लोगों में वहाँ के सुप्रसिद्ध भूपति ऑनरेबल राजा यतीन्द्र मोहन ठाकुर सी.एस.आई., महाराज कमल कृष्ण बहादुर, राजा सुरेन्द्र मोहन ठाकुर, सी.एस.आई., राजा राजेन्द्रलाल मलिक, बाबू जयकिशन मुखोपाध्याय, कुमार देवेन्द्र मलिक, बाबू रामचन्द्र मलिक, ऑनरेबल बाबू कृष्णदास पाल, लाला नारायणदास मथुरा निवासी, राय बद्रीदास लखीम बहादुर, सेठ जुगलकिशोर जी, सेठ नाहरमल, सेठ हंसराज इत्यादि कलकत्ता निवासी सेठ उपस्थित थे। यद्यपि पण्डित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर व बाबू राजेन्द्रलाल मित्र एल.एल.डी. ये दोनों महानुभाव पधार नहीं सके थे, तथापि इन महानुभावों ने सभा की कार्यवाही को जी-जान से स्वीकार किया। जिस समय ये सब सज्जन सीनेट हॉल में एकत्र हुए, तब पण्डित महेशचन्द्र न्यायरत्न जी ने इस सभा के आयोजन करने का विशेष प्रयोजन बता करके निनलिखित प्रश्न प्रस्तुत किये-

प्रश्न 1- पं. महेशचन्द्र न्यायरत्न जी ने पहला प्रश्न यह किया कि वेद का संहिता भाग जैसा प्रामाणिक है ब्राह्मण भाग भी वैसा ही प्रामाणिक है अथवा नहीं? और मनुस्मृति धर्मशास्त्र के समान अन्य स्मृतियाँ मानने योग्य हैं अथवा नहीं। पृ. 639

उत्तर इस प्रकार बहुत-सी युक्तियों से यह बात सिद्ध होती है कि संहिता के समान ब्राह्मण भाग तथा मनुस्मृति के समान विष्णु याज्ञवल्क्य आदि समस्त स्मृतियाँ मानने योग्य हैं तथा यही सब पण्डितों का सर्वसमत मत है। पृ. 641

प्रश्न 2- पण्डित महेशचन्द्र न्यायरत्न ने दूसरा प्रश्न यह किया कि शिव, विष्णु, दुर्गा आदि देवताओं की मूर्तियों की पूजा और मरणोपरान्त पितरों का श्राद्ध आदि और गंगा, कुरुक्षेत्र आदि तीर्थों व क्षेत्रों में स्नान तथा वास, शास्त्र के अनुसार उचित है अथवा अनुचित? पृ. 641

उत्तर …..अतः देवताओं की मूर्ति और उनकी पूजा करना सब श्रुतियों और स्मृतियों के अनुसार उचित है। पृ. 645

….अतः यह बात सुस्पष्ट होकर निर्णीत हो गई कि मृतकों का श्राद्ध श्रुति व स्मृति दोनों के अनुसार विहित है। पृ. 646

…..अतः गंगा आदि का स्नान और कुरुक्षेत्र आदि का वास श्रुति और स्मृति दोनों से सिद्ध है। पृ. 646

प्रश्न 3- पं. महेशचन्द्र न्यायरत्न ने तीसरा प्रश्न यह किया कि अग्निमीळे. इत्यादि मन्त्र में अग्नि शबद से परमात्मा अाि्रिेत है अथवा आग? पृ. 647

उत्तर….अतः इस मन्त्र में अग्नि शबद का अर्थ जलाने वाली आग ही है। पृ. 647

प्रश्न 4- पं. महेशचन्द्र न्यायरत्न जी ने चौथा प्रश्न यह किया कि अग्निहोत्र इत्यादि यज्ञ करने का प्रयोजन (उद्देश्य) जल, वायु की शुद्धि है अथवा स्वर्ग की प्राप्ति? पृ. 647

उत्तरयजुर्वेद के मन्त्रों से अग्निहोत्र आदि यज्ञ स्वर्ग साधक हैं। पृ. 647

प्रश्न 5- पं. महेशचन्द्र जी ने पाँचवाँ प्रश्न यह किया कि वेद के ब्राह्मण भाग का निरादर करने से पाप होता है अथवा नहीं? पृ. 647

उत्तरइसका उत्तर देते हुए पं. सुब्रह्मण्यम शास्त्री ने कहा कि यह तो प्रथम प्रश्न के उत्तर में कह चुके हैं कि ब्राह्मण भाग भी वेद ही हैं, फिर ब्राह्मण भाग का अपमान करने से मानो वेद का ही अपमान हुआ।…. पृ. 647

उसके पश्चात् पण्डितों की समति लेनी आरमभ हुई। निनलिखित पण्डितों ने सर्वसमति से हस्ताक्षर कर दिये। पृ. 648

इन प्रश्नों में दूसरा प्रश्न मूर्तिपूजा से सबन्धित है। इसमें सुब्रह्मण्यम शास्त्री ने मूर्ति पूजा के समर्थन में ऋग्वेद के मन्त्र का उल्लेख करके बताया- शिवलिङ्ग की पूर्ति की पूजा स्थापना आदि से पूजन का फल होता है, मन्त्र है-

तव श्रिये मरुतो मर्जयन्त रुद्र यत्ते जनिम चारु चित्रम्।।

-ऋग्वेद 5/3/3

उसके अतिरिक्त रामतापनी, बृहज्जाबाल उपनिषद् में शिवलिंग की पूजा करना लिखा है। मनुस्मृति में लिखा है-

नित्यं स्नात्वा शुचिः कुर्याद्देवर्षिपितृतर्पणम्।

देवतायर्चनं चैव, समिदाधानमेव च।।

-मनु. 2/176

इसके अतिरिक्त देवल स्मृति, ऋग्वेद गृह्य परिशिष्ट बौधायन सूत्र आदि के प्रमाण दिये हैं।

इन प्रमाणों के उत्तर में लेखक ने स्वामी दयानन्द का जो पक्ष रखा है, उसका मुखय आधार है- वेद स्वतः प्रमाण हैं और शेष ग्रन्थ परतः प्रमाण हैं, अतः उनकी प्रामाणिकता स्वतः सिद्ध नहीं है। फिर भी जिन प्रमाणों को दिया गया है, वह प्रसंग मूर्ति पूजा पर घटित नहीं होता। स्वामी दयानन्द ने सामवेद के ब्राह्मण के पाँचवें अनुवाक के दसवें खण्ड में स्पष्ट लिखा है- सपरन्दिव0 आदि यहाँ देवताओं की मूर्ति का प्रसंग ब्रह्म लोक का है। पृ. 643

मूर्तिपूजा के पक्ष में प्रमाण देते हुए मनु को उद्धृत किया है और कहा गया है- दो ग्रामों के मध्य मन्दिरों का निर्माण करना चाहिए तथा उसमें प्रतिमा स्थापित की जानी चाहिए-

सीमासन्धिषु कार्याणि देवतायतनानि च।

8/248

संक्रमध्वजयष्टीनां प्रतीमानां च भेदकः।

प्रतिकुर्याच्च तत् सर्वं पञ्च दद्याच्छतानि च।।

9/285

मूर्तिपूजा के समर्थन में दिये गये तर्कों पर लेखक ने स्वामी दयानन्द का पक्ष निमन प्रकार से उपस्थित किया है-

स्वामी दयानन्द जिन शास्त्रों का प्रमाण मूर्तिपूजा के खण्डन में देते हैं, मूर्तिपूजा का समर्थन करने वालों को उन्हीं शास्त्रों से मूर्तिपूजा के समर्थन के प्रमाण देने चाहिए जो नहीं दिये गये।

ऋग्वेद के जिस मन्त्र का अर्थ शिवलिंग की स्थापना किया है, वह मर्जयन्त शबद मृज धातु से बना है जिसका अर्थ शुद्ध करना, पवित्र करना, सजाना, शबद करना है, अतः इसका अर्थ पूजा करना कभी नहीं है, अपितु परमेश्वर की स्तुति करना है।

जो गाँव की सीमा में देवताओं के मन्दिर बनाने का विधान है, इसी प्रसंग में सीमा पर तालाब, कूप, बावड़ी आदि के वाचक शबदों का प्रयोग किया गया है, अतः मन्दिर की बात नहीं है। उत्तर काल में इन स्थानों पर मन्दिर बनने लगे, वह शास्त्र विरुद्ध परमपरा है।

अन्त में मूर्ति पूजा वेद विरुद्ध है, इसको बताने के लिए वेद मन्त्रों के प्रमाण दिये गये हैं।

मूर्तिपूजा के निषेध में प्रमाण अतः उपर्युक्त युक्तियों से यह तो भली-भाँति निश्चित हो गया कि मूर्ति-पूजा उचित नहीं और अब उसके खण्डन में वेदों तथा उपनिषदों के कुछ प्रमाण देकर इस विषय को समाप्त करते हैं-

‘‘न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः।’’

अर्थउस परमात्मा की कोई प्रतिमा नहीं, उसका नाम अत्यन्त तेजस्वी है।

स पर्य्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्।

अर्थवह परमात्मा सर्वव्यापक, सर्वद्रष्टा, सर्वशक्तिमान्, शरीररहित, पूर्ण, नस-नाड़ी के बन्धन से रहित, शुद्ध है तथा पापों से पृथक् है।

अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽसंभूतिमुपासते।

ततो भूय इव ते तमो य उ सभूत्यां रताः।।

अर्थजो लोग प्रकृति आदि जड़-पदार्थों की पूजा करते हैं, वे नरक में जाते हैं तथा जो उत्पन्न की हुई वस्तुओं की पूजा करते हैं वे  इससे भी अधिक अन्धकारमय नरक में जाते हैं।

तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्।

जो बुद्धिमान् उसे आत्मा में स्थित देाते हैं, उन्हीं को शाश्वत सुख प्राप्त होता है, औरों को नहीं।

ततो तदुत्तरतरं तदरूपमनामयम्।

य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्त्यथेतरे दुःखमेवापि यान्ति।।

जो सृष्टि व सृष्टि के उपादान कारण से उत्कृष्ट है, वह निराकार व दोषरहित है। जो उसको जानते हैं, उनको अमर जीवन प्राप्त होता है और दूसरे लोग केवल दुःख में फँसे रहते हैं।

तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति,

नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।

अर्थउसी के ज्ञान से मृत्यु के पंजे से छुटकारा होता है और कोई मार्ग ध्येय धाम का नहीं है।

किसी देवता की उपासना भी उचित नहीं है। शतपथ ब्राह्मण में जहाँ तैंतीस देवताओं की व्याखया की है (और उन्हीं तैंतीस के आज तैंतीस करोड़ बन गये हैं और उस सूची के पूरा होने के पश्चात् जो उसमें और गुगा पीर जैसे समय-समय पर सममिलित होते रहे हैं, वे इनसे अतिरिक्त हैं) वहाँ भी परमात्मा के अतिरिक्त किसी अन्य की पूजा विहित नहीं रखी, प्रत्युत उसका खण्डन किया है।

आत्मेत्येवोपासीत। स योऽन्यमात्मनः प्रियं ब्रुवाणं ब्रूयात्प्रियं रोत्स्यतीश्वरो ह तथैव स्यात्।

योऽन्यां देवतामुपास्ते न स वेद।

तथा पशुरेव स देवानाम्।

परमेश्वर जो सबका आत्मा है, उसकी उपासना करनी चाहिये। जो परमेश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य को प्यारा अर्थात् उपास्य समझता है, उसे जो कहे कि तू प्रिय के विरह में दुःख में पड़ेगा, वह सत्य पर है। जो और देवता की उपासना करता है, वह वास्तविकता को नहीं जानता। वह निश्चित रूप से बुद्धिमानों में पशु सदृश है।

(दयानन्द ग्रन्थमाला, पृ. 665)

टिप्पणियाँ

  1. द्वा सुपर्णा., पृ. 277 मुण्डक उपनिषद्, एकादशोपनिषद्, सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार, प्रकाशक- विजयकृष्ण लखनपाल, दिल्ली, संस्करण-2006
  2. अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।

रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्त सञ्ज्ञके।।

– गीता, अध्याय 8, श्लोक 18, गीता प्रेस

  1. पृ. 112, प्रश्नोपनिषद्, एकादशोपनिषद्, सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार, संस्करण-2000, प्रकाशक-विजयकृष्ण लखनपाल, दिल्ली
  2. न तस्य प्रतिमा अस्ति। -यजु. 32 मन्त्र-3, परोपकारिणी सभा, अजमेर, पृ.
  3. यज् वेदपूजा संगतिकरण दानेषु। -धातु पाठ, पाणिनी मुनि
  4. वातो देवता चन्द्रमा देवता।-प्रतिमा पूजन विचार, दयानन्द ग्रन्थमाला, भाग 1,परोपकारिणी सभा, संस्करण-2012
  5. मातृदेवो भव, पृ. 230, तैत्तिरीयोपनिषद्, एकदशोपनिषद्, सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार, संस्करण 2000, प्रकाशक- विजयकृष्ण लखनपाल, दिल्ली
  6. यजु. 40/9, सत्यार्थप्रकाश, पृ. 370, दयानन्द ग्रन्थमाला, भाग 1, प्रकाशक- परोपकारिणी सभा, संस्करण-2012
  7. पृ. 813, उपदेश मञ्जरी, दयानन्द ग्रन्थमाला, भाग 2, प्रकाशक- परोपकारिणी साा, अजमेर, संस्करण-2012
  8. पृ. 373, दयानन्द ग्रन्थमाला भाग 1, प्रकाशक- परोपकारिणी सभा, संस्करण-2012
  9. पृ. 373, दयानन्द ग्रन्थमाला भाग 1, दयानन्द ग्रन्थमाला, प्रकाशक- परोपकारिणी सभा अजमेर, संस्करण-2012
  10. अन्धन्तमः प्रविशन्ति। -यजु. 40/9
  11. केन उपनिषद्। पृ. 230, तैत्तिरीयोपनिषद्, एकादशोपनिषद्, सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार, संस्करण 2000, प्रकाशक- विजयकृष्ण लखनपाल, दिल्ली

– डॉ. धर्मवीर

 

क्या संविधान से ऊपर है सुप्रीम कोर्ट,

क्या संविधान से ऊपर है सुप्रीम कोर्ट,
माननीय सुप्रीम कोर्ट??
काहे का माननीय,
सुप्रीम कोर्ट की इतना साहस की वो हिन्दुओ एक धार्मिक मामलो में हस्तक्षेप करे
संविधान की धारा 25 और 25 ए साफ़ साफ कहती है की सभी धर्मो को अपनी अपनी मान्यताएं मानने का अधिकार है,
जैसे मुसलमान को मुहर्रम, सिख तो गुरु उत्सव, ईसाईयों को क्रिसमस का त्यौहार मनाने का अधिकार है वैसे ही हिन्दुओ को भी उनके अपने अधिकार मनाने का पूर्ण अधिकार है,
धारा 25 ए के अनुसार इन अधिकारों की रक्षा और इन्हें अमल में लाने का दायित्व न केवल राज्य वर्ण केंद्र सरकार का भी है पर सुप्रीम कोर्ट के मामले में राज्य के साथ केंद्र सरकार भी मुंह में दही जमा कर बैठी है,
आखिर सुप्रीम कोर्ट की इतनी हिम्मत कैसे हुई की वो संविधान से ऊपर जाकर देश के बहुसंख्यक समुदाय की आस्था परम्परा और संस्कृति पर कुठराघात करे,
अपनी हद में रहे सुप्रीम कोर्ट नहीं
वीर सनातनी अपने धर्म पर ये कुठराघात कदापि सहन नहीं करेगा,
सुप्रीम कोर्ट के इस असंवैधानिक फैसले का पूर्ण विरोध

कुरान समीक्षा : रोजा रखना जरूरी है

रोजा रखना जरूरी है

दिन में न खाना और रात में खना इस रिवाज को स्वास्थ्य विज्ञान के आधार पर सही साबित करें।

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

या अय्युहल्लजी-न आमनू कुति-ब…….।।

(कुरान मजीद पारा २ सूरा बकर रूकू २३ आयत १८३)

ईमान वालों। जिस तरह तुमसे पहले किताब वालों पर रोजा रखना फर्ज (कत्र्तव्य) था। तुम पर भी फर्ज किया गया, ताकि तुम पापों से बचो।

समीक्षा

रोजा रखने की आज्ञा तौरेत, जबूर और इन्जील नाम की किसी भी पुरानी किताब में नहीं दी गई, यदि कोई मुसलमान मौलवी दिखा सके तो इनाम मिलेगा। इसके अलावा रोजो में दिन भर न खाना और रात में खाना स्वास्थ्य विज्ञान की दृष्टि से भी गलत है। भोजन सूर्य के प्रकाश में या दिन छिपने से पूर्व कर लेना चिकित्सा की दृष्टि से भी उचित रहता है। कुरान का रोजा रखने का तरीका अवैज्ञानिक है। अरबी खुदा का यह आदेश पुरानी पुस्तकों के भी विपरीत है (जिन पर कुरान आधारित है) तथा हानिकारक भी है।

हे प्रभु हमें स्वस्थ्य व बलकारक भोजन दो

ओउम
हे प्रभु हमें स्वस्थ्य व बलकारक भोजन दो
डा. अशोक आर्य
भोजन मानव की ही नहीं प्रत्येक प्राणी की एक एसी आवश्यकता है , जिसके बिना जीवन ही sambhav नहीं | इस लिए प्रत्येक प्राणी का प्रयास होता है कि उसे उतम भोजन प्राप्त हो | एसा भोजन वह उपभोग में लावे कि जिससे उस की न केवल क्षुधा की ही पूर्ति हो अपितु उसका स्वास्थ्य भी उतम हो तथा शरीर में बल भी आवे | अत्यंत स्वादिष्ट ही नहीं अत्यंत पौष्टिक भोजन करने की अभिलाषा प्रत्येक प्राणी अपने में संजोये रहता है | इस समबन्ध में वेद ने भी हमें बड़े सुन्दर शब्दों में प्रेरणा दी है | यजुर्वेद के अध्याय ११ के मन्त्र संख्या ८३ में इस प्रकार परमपिता परमात्मा ने हमें उपदेश किया है : –
ओउम अन्नपते$न्नस्य नो देह्यमीवस्य shushmin: |
प्रप्रं दातारं तारिष उर्ज्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे || यजुर्वेद ११.८३ ||
इस मन्त्र में चार बातों की ओर विशेष ध्यान आकृष्ट किया गया है | यह चार बातें इस प्रकार हैं : –
(१) अन्न अर्थात समस्त भोग्य पदार्थों का स्वामी परमपिता परमात्मा है –
हम जो अन्न का उपभोग करते हैं , उस अन्न का अधिपति , उस अन्न का स्वामी, उस अन्न का maalik हमारा वह परम पिता, सब से बड़ा पिता, जो हम सब का जन्मदाता तथा हम सब का पालक है , उस परमपिता की अपार कृपा से ही हमें यह अन्न मिलता है | इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम इसे परमपिता की अपार कृपा मानते हुए स्वीकार करें तथा इसे ख़राब न होने दें , इसमें न्यूनता न आने दें तथा अपनी थाली में उतना ही लें, जिताना हम ने खाना हो, जूठन कभी मत छोडें | यह प्रभु का प्रसाद होता है , इसे जूठन के स्वरूप छोड़ना महापाप होता है | प्रभु की दी हुयी वस्तु का तिरस्कार होता है तथा जो अन्न संसार के दूसरे प्राणी के ग्रहण के योग्य होता है, उसे जूठन स्वरूप छोड़ देना भी एक महाव्याधि ही तो है |
(२) वही अन्न सेवन में लावें जो svasth रखते हुए बल प्रदान करे : –
संसार का प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि वह सदा svasth रहे | उसे जीवन में कभी कोई रोग न आवे | वह सदा निरोग रहे | svasth जीवन में ही मानव प्रसन्न रह सकता है | प्रसन्नता मानव जीवन की प्रथम आवश्यकता होती है | प्रसन्न व प्रफुल्लित व्यक्ति ही न केवल जीवन व्यापार को अच्छे से कर सकता है अपितु उसे ठीक से संपन्न कर धन एश्वर्य को भी प्राप्त कर सकता है | संसार में कौन सा प्राणी एसा मिलेगा, जो धन की अभिलाषा न रखता हो ? अर्थात सब प्राणी मनुष्य धन प्राप्ति की इच्छा , कामना करते हैं | इस के लिए उनका खान पान , आहार विहार एसा होना आवश्यक है, जिस से उसे अच्छा स्वास्थ्य मिल सके तथा वह तीव्र गति से प्रभु प्रार्थना के साथ ही साथ अधिकतम धन अर्जन कर सके |
मानव की यह भी अभिलाषा रहती है कि परमपिता परमात्मा की महती अनुकम्पा उस पर बनी रहे ताकि वह आजीवन svasth रहने के साथ ही साथ बलवान भी रहे | svasth तो है किन्तु शरीर इतना सशक्त नहीं है कि वह अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए खुले रूप से यत्न कर सके तो एसे स्वस्थ्य शरीर का भी कोई विशेष लाभ नहीं होता | इसलिए मन्त्र में यह कहा गया है कि svasth शरीर के साथ ही साथ हमारा यह शरीर बलिष्ठ भी हो, ताकि हम अपनी आवश्यकताओं को स्वयं ही पूर्ण करने में सक्षम हों | svasth शरीर में ही जीवन की खुशियाँ छुपी रहती हैं , svasth शरीर ही सब प्रकार की प्रसन्नताओं को दिलाने वाला होता है | जब शरीर svasth नहीं , बलिष्ठ नहीं तो मन बुझा बुझा सा रहता है | बुझे मन से जीवन का कोई भी कार्य अच्छे से संपन्न नहीं होता | जब कार्य ही अच्छे से नहीं हो रहा तो हम धन अर्जन कैसे कर सकते हैं ? अत: अधिकतम धन की प्राप्ति के लिए, एशवर्य की प्राप्ति के लिए, सुखों की प्राप्ति के लिए हम परमपिता से उतमस्वास्थ्य की प्रार्थना करते हुए एसा भोजन करते है कि जिससे हम न केवल svasth ही रहे अपितु बलवान भी बनें |
(३) जिस साधन से हम अन्न प्राप्त करते है , उसका kratgya हों : –
मानव स्वार्थी होता है | वह साम,दाम, दंड, भेद से धन एशवर्य तो प्राप्त करने का यत्न करता है किन्तु यह सब प्राप्त करने के पश्चात उस प्रभु का धन्यवाद करना भूल जाता है , उस प्रभु का शुक्रिया करने में प्रमाद कर जाता है , जिसकी महती कृपा से यह सब सुख , साधन, धन,एश्वर्य प्राप्त किया होता है | इस लिए मन्त्र कहता है कि हम सब सुखों को पाने की न केवल इच्छा ही करें अपितु यह सब पाने के पश्चात, यह सब कुछ उपलब्ध कराने वाले उस परमपिता परमात्मा को हम भूलें मत अपितु उस दाता को स्मरण रखें , उसका धन्यवाद करें | वह हम सब का दाता है | जीवन में अनेक बार हम ने उस से कुछ न कुछ माँगते ही रहना है | यदि हम उसका धन्यवाद ही न करेंगे तो भविष्य में हम उससे कुछ ओर मांगना चाहेगे तो कैसे मांगेंगे ? अत: उस दाता का धन्यवाद करना कभी न भूलें |
(4) प्रभु से प्रार्थना करें कि हमारे परिजनों व पशुओं को भी बलकारक भोजन मिले : –
मानव अपने स्वार्थ के कारण स्वयं तो उतामोतम भोग्य प्राप्त करना चाहता है किन्तु दूसरों के सुखों की ओर ध्यान ही नहीं देता | यह तो इतना स्वार्थी है कि मन में यहाँ तक सोचता है कि मेरी तृप्ति ही नहीं होनी चाहिए अपितु मेरे पास अतिरिक्त धन भी इतना होना चाहिए कि मेरे कोष के उपर से छलकता हुआ दिखाई दे , इस के लिए चाहे दूसरे के सुखों का अंत ही kyon न करना pade , यहाँ तक कि दूसरों का बढ ही kyon न करना pade | जब हम अपनी संपत्ति को badhane के लिए दूसरों के नाश तक की kamana करेंगे , प्रभु के बनाए अन्य praniyon के जीवन को भी नष्ट करने पर भय नहीं खायेंगे तो वह प्रभु निश्चित रूप से ही हमसे rusht होकर हमें दण्डित करेगा | इससे हमारी सुख सुविधा में baadha आवेगी | इस लिए मन्त्र कहता है की हे प्राणी ! प्रभु की अपार कृपा से tujhe यह atyadhik धन sampati mili है , इसे tu जितना अपने लिए उपयोगी , अपने लिए आवश्यक समझता है , अपने उपभोग के लिए रख तथा शेष धन से न केवल अपनेपरिजनों को बाँट कर उनकी तृप्ति कर अपितु एसे praniyon ko , पशु pakshiyon को भी बाँट दे जिन को abhi भोजन नहीं मिला | इस प्रकार in शब्दों में मन्त्र मानव को दान करने की , दूसरों का सहयोग करने की , sah astitv की भी प्रेरणा देता है | जब मनुष्य दान करेगा , दूसरों की आवश्यकताओं की पूर्ति में लगेगा तो उसे sammaan मिलेगा, yash मिलेगा, kirti milegi | यह सब उस प्रभु की महती कृपा का ही फल है |
अत: मन्त्र हमें यह उपदेश दे रहा है कि हम उस अन्न को ग्रहण करें जो हमें svasth रखे तथा बलवान बनावे, जिस समाज के sahyog से यह अन्न प्राप्त करो उस समाज का धन्यवाद अवश्य करें तथा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ ही साथ अन्य praniyon की सहायता इस अन्न से करें | इस सब के साथ ही साथ यह भी मत भूलें कि यह जी कुछ भी मिला है , वह उस परमात्मा की महती कृपा का ही परिणाम है तथा वह परमात्मा ही इस सब का स्वामी है | इस लिए सदा उस प्रभु को याद रखें |
हमारा जीवन जिस अन्न के कारण बना हुआ है , उस अन्न की सुरक्षा का भी हम सदा ध्यान रखें | आज कल हमारे परिवारों में जिस प्रकार अन्न का तिरस्कार हो रहा है, नाश हो रहा है , वह पहले कभी न होता था | अन्न भंडार में अन्न को जीव नष्ट कर रहे हैं, साफ़ करते समय बहुत सा अन्न कूड़े में डाल देते हैं , पैरों में फैंक देते है | भोजन बनाते समय बहुत सा अन्न नष्ट कर देते हैं तथा खाते समय भी हम एक भाग जूठन के रूप में ही फैंक देते हैं | इतने अन्न से , जो हमने नष्ट कर दिया , अन्य कितने लोग तृप्त हो जाते | इसलिए मन्त्र अन्न की सुरक्षा व बचत के उपाय करने के लिए भी प्रेरित करता है |
उपनिषदों में भी अन्न निंदा को रोकने के लिए इस प्रकार उपदेश किया है :-
अन्नं न निन्द्यात तद वरतम |
अन्न का तिरस्कार न करने का, निंदा न करने का अथवा नष्ट न करने का प्रत्येक मनुष्य को व्रत लेना चाहिए , प्रतिज्ञा करना चाहिए |
पारस्कर सूत्र में भी इस प्रकार कहा गया ही :-
अन्नं साम्राज्यनामअधिपति: | पारस्कर ग्र्ह्यसुत्र १.५.१० |
जिस राजा के राज्य में प्रजा अन्न के अभाव से दुखी नहीं होती , वह राज्य ही स्थिर होता है | अन्न के अभाव में भूखे लोग दुखी हो कर ,शोषण करने वाले बड़े बड़े राज्यों को भो नष्ट करने का कारण बनते हैं | जब व्यक्ति भूखा होता है तो वह किसी भी ढंग से अपने उदर की तृप्ति के साधन धुन्धता है | इस के लिए चोरी , डाका, क़त्ल आदि उसके मार्ग में बाधा नहीं होता | इस प्रकार राज्य में वह अराजकता पैदा कर देता है तथा उस राज्य के नष्ट का कारण बनता है | इस लिए राजा का भी करे यह कर्तव्य हो जाता है कि अपने राज्य को स्थिर बनाए रखने के लिए प्रजा की प्रसन्नता का तथा उसकी तृप्ति का भी भर पूर प्रयास करो |
upanishad तो यहाँ तक कहता है कि अन्न को ही ब्रह्म samajho | अन्न का यथावश्यक प्रयोग करो , उसका दुरुपयोग कभी मत करो | जो भोजनार्थ अन्न तुम्हारी थाली में परोसा गया है , यदि वह दोषपूर्ण नहीं है तो उसे बिना किसी त्रुटी निकाले प्रसन्नता पूर्वक उपभोग करें | अन्न को ब्रह्म कहने का तथा उसकी उपासना करने का यह ही अभिप्राय है | भाहूत से लोग एसे भी hote हैं जो अन्न में dosh निकलते रहते हैं | इस में मिर्च कम है या अधिक है, यह स्वादिष्ट नहीं है आदि अनेक प्रकार से उसका तिरस्कार करते रहते हैं तथा मन मारकर भोजन करते हैं , एसे व्यक्ति को अन्न का पूर्ण लाभ नहीं मिलता, मात्र पेट भरने का कार्य वह अन्न कर पाता है | ठीक से पौषण नहीं कर पाता | अत: अन्न का तिरस्कार मत करो तथा जो मिला है, उसे प्रसन्नता से ग्रहण करो तो वह ठीक से पौषण करेगा |
मन्त्र हमें यह ही उपदेश करता है कि हम svaasthyprad व पौष्टिक भोजन करें | जिस samaj के sahyog से मिला है, उनका धन्यवाद करें, बाँट कर खावें , जो मिला है, उसे प्रभु का उपहार मानकर प्रसन्नता पूर्वक खावें ,उसमें न्युन्तातायें न निकालें तो यह अन्न हमारे लिए शक्तिवर्धक व स्वास्थ्य को बढ़ानेवाला होगा |

डा. अशोक आर्य

कुरान समीक्षा: औरतों पर खुदाई जुल्म

औरतों पर खुदाई जुल्म

जो खुदा अपनी ही प्रजा (स्त्रियों) पर जुल्म ढाने, उनसे व्यभिचार करने, बलात्कार करने का हुक्म दे तो क्या वह जालिम व दुष्ट नहीं है?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

या अय्युहल्लजी-न आमनू कुति-ब………।।

(कुरान मजीद पारा २ सूरा बकर रूकू २२ आयत १७८)

ऐ ईमान वालों! जो लोग मारे जावें, उनमें तुमको (जान के) बदले जान का हुक्म दिया जाता है। आजाद के बदले आजाद और गुलाम के बदले गुलाम, औरत के बदले औरत।

समीक्षा

इसमें हमारा ऐतराज इस अंश पर है कि ‘‘औरत के बदलने औरत’’ पर जुल्म किया जावे। यदि कोई बदमाश किसी की ओरत पर जुल्म कर डाले तो उस बदमाश को दण्ड देना मुनासिब होगा किन्तु उसकी निर्दोष औरत पर जुल्म ढाना यह तो सरासर बेइन्साफी की बात होगी। ऐसी गलत आज्ञा देना अरबी खुदा को जालिम साबित करता है, न्यायी नहीं।

वल्मुह्सनातु मिनन्निसा-इ इल्ल मा………।।

(कुरान मजीद पारा ५ सूरा निसा रूकू ४ आयत २४)

ऐसी औरतें जिनका खाविन्द जिन्दा है उनको लेना भी हराम है मगर जो कैद होकर तुम्हारे हाथ लगी हों उनके लिये तुमको खुदा का हुक्म है….. फिर जिन औरतों से तुमने मजा उठाया हो तो उनसे जो ठहराया उनके हवाले करो। ठहराये पीछे आपस में राजी होकर जो और ठहरालो तो तुम पर इस में कुछ उज्र नहीं। अल्लाह जानकर हिकमत वाला है।

समीक्षा

निर्दोष औरतों को लूट में पकड़ लाना और उनसे व्यभिचार करने की खुली छूट कुरानी खुदा ने दे दी है, क्या यह अरबी खुदा का स्त्री जाति पर घोर अत्याचार नहीं है? क्या वह व्यभिचार का प्रचारक नहीं था। फीस तय करके औरतों से व्यभिचार करने तथा फीस जो ठहरा ली हो उसे देने की आज्ञा देना क्या खुदाई हुक्म हो सकता है? अरबी खुदा और कुरान जो औरतों पर जुल्म करने का प्रचारक है क्या समझदार लोगों को मान्य हो सकता है?

हे जीव!तूं सूर्य और चन्द्र के समान निर्भय बन

ओउम

हे जीव!तूं सूर्य और चन्द्र के समान निर्भय बन

डा. अशोक आर्य
इस सृष्टि में सूर्य और चंद्रमा दो एसी शक्तियां हैं, जो कभी किसी से भयभीत नहीं
होतीं | सदैव निर्भय हो कर अपने कर्तव्य की पूर्ति में लगी रहती हैं | यह सूर्य और चन्द्र निर्बाध रूप से निरंतर.अपने कर्तव्य पथ पर गतिशील रहते हुए समग्र संसार को प्रकाशित करते हैं | इतना ही नहीं ब्राह्मन व क्षत्रिय ने भी कभी किसी के आगे पराजित होना स्वीकार नहीं किया | विजय प्राप्त करने के लिए वह सदा संघर्षशील रहे हैं | जिस प्रकार यह सब कभी पराजित नहीं होते उस प्रकार ही हे प्राणी ! तूं भी निरंतर अपने कर्तव्य पथ पर बढ़ कभी स्वप्न में भी पराजय का वर्ण मत कर | इस तथ्य को अथर्ववेद के मन्त्र संख्या २.१५.३,४ में इस प्रकार कहा है : –
यथा सूर्यश्च चन्द्रश्च , न विभीतो न रिष्यत: |
एवा में प्राण माँविभे : !! अथर्व. २.१५.३ ||
यथा ब्रह्म च क्षत्रं च , न विभीतो न रिच्यत |
एवा में प्राण माँविभे : !! अथर्व. २.१५.४ ||

यह मन्त्र मानव मात्र को निर्भय रहने की प्रेरणा देता है | मन्त्र कहता है कि हे मानव ! तूं सदा असकता है पने जीवन में निर्भय हो कर रह | किसी भी परिस्थिति में कभी भयभीत न हो | मन्त्र एतदर्थ udaharn देते हुए कहता है कि जिस प्रकार कभी किसी से न डरने के कारण ही सूर्य और चन्द्र कभी नष्ट नहीं होते , जिस प्रकार ब्रह्म शक्ति तथा क्षात्र शक्ति भी कभी किसी से न डरने के कारण ही कभी नष्ट नहीं होती | जब यह निर्भय होने से कभी नष्ट नहीं होते तो तूं भी निर्भय रहते हुए नष्ट होने से बच |
हम डरते हैं डर क्या है ? भयभीत होते हैं , भय क्या है ? जब हम मानसिक रूप से किसी समय शंकित हो कर कार्य करते हैं इसे ही भय कहते हैं | स्पष्ट है कि मनोशक्ति का ह्रास ही भय है | किसी प्रकार की निर्बलता , किसी प्रकार की शंका ही भय का कारण होती है , जो हमें कर्तव्य पथ से च्युत कर भयभीत कर देती है | इससे मनोबल का पतन हो जाता है तथा भयभीत मानव पराजय की और अग्रसर होता है | मनोबल क्यों गिरता है — इस के गिरने का कारण होता है पाप , इसके गिरने का कारण होता है अनाचार , इस के गिरने का कारण होता है मानसिक दुर्बलता | जो प्राणी मानसिक रूप से दुर्बला है , वह ही लोभ में फंस कर अनाचार करता है , पाप करता है , अपराध करता है , अपनी ही दृष्टि में गिर जाता है , संसार मैं सम्मानित कैसे होगा ? कभी नहीं हो सकता |
मेरे अपने जीवन में एक अवसर आया | मेरे पाँव में चोट लगी थी | इस अवस्था में भी मै अपने निवास के ऊँचे दरवाजे पर प्रतिदिन अपना स्कूटर लेकर चढ़ जाता था | चढ़ने का मार्ग अच्छा नहीं था | एक दिन स्कूटर चढाते समय मन में आया कि आज में न चढ़ पाउँगा, गिर जाउंगा | अत: शंकित मन ऊपर जाने का साहस न कर पाया तथा मार्ग से ही लौट आया | पुन: प्रयास किया किन्तु भयभीत मन ने फिर न बढ़ने दिया , तीसरी बार प्रयास कर आगे बढ़ा तो गिर गया | इस तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि जब भी कोई कार्य भ्रमित अवस्था में किया जाता है तो सफलता नहीं मिलती | इसलिए प्रत्येक कार्य निर्भय मन से करना चाहिए सफलता निश्चय ही मिलेगी | प्रत्येक सफलता का आधार निर्भय ही होता है |
हम जानते हैं की मनोबल गिरने का कारण दुर्विचार अथवा पापाचरण ही होते हैं | जब हमारे ह्रदय में पापयुक्त विचार पैदा होते हैं , तब ही तो हम भयभीत होते हैं | जब हम किसी का बुरा करते हैं तब ही तो हमें भय सताने लगता है कि कहीं उसे पता चल गया तो हमारा क्या होगा ? इससे स्पष्ट होता है कि छल पाप तथा दोष पूर्ण व्यवहार से मनोबल गिरता है , जिससे भय की उत्पति होती है तथा यह भय ही है जो हमारी पराजय का कारण बनता है | जब हम निष्कलंक हो जावेंगे तो हमें किसी प्रकार का भय नहीं सता सकता | जब हम निष्पाप हो जावेंगे तो हमें किसी प्रकार से भी भयभीत होने की आवश्यकता नहीं रहती | जब हम निर्दोष व्यक्ति पर अत्याचार नहीं करते तो हम किस से भयभीत हों ? जब हम किसी का बुरा चाहते ही नहीं तो हम इस बात से भयभीत क्यों हों की कहीं कोई हमारा बुरा न कर दे , अहित न कर दे | यह सब तो वह व्यक्ति सोच सकता है , जिसने कभी किसी का अच्छा किया ही नहीं , सदा दूसरों के धन पर , दूसारों की सम्पति पर अधिकार करता रहता है | भला व्यक्ति न तो एसा सोच सकता हो तथा न ही भयभीत हो सकता है |
इसलिए ही मन्त्र में सूर्य तथा चंद्रमा का udaharn दिया है | यह दोनों सर्वदा निर्दोष हैं | इस कारण सूर्य व चंद्रमा को कभी कोई भय नहीं होता | वह यथाव्स्त अपने दैनिक कार्य में व्यस्त रहते हैं , उन्हें कभी कोई बाधा नहीं आती | इस से यह तथ्य सामने आता है कि निर्दोषता ही निर्भयता का मार्ग है , निर्भयता की चाबी है , कुंजी है | अत: यदि हम चाहते हैं कि हम जीवन पर्यंत निर्भय रहे तो यह आवश्यक है कि हम अपने पापों व अपने दुर्गुणों का त्याग करें | पापों , दुर्गुणों को त्यागने पर ही हमें यह संसार तथा यहाँ के लोग मित्र के समान दिखाई देंगे | जब हमारे मन ही मालिन्य से दूषित होंगे तो भय का वातावरण हमें हमारे मित्रों को भी शत्रु बना देता है , क्योंकि हमें शंका बनी रहती है कि कहीं वह हमारी हानि न कर दें | इस लिए हमें निर्भय बनने के लिए पाप का मार्ग त्यागना होगा, छल का मार्ग त्यागना होगा तथा सत्य पथ को अपनाना होगा | यही सत्य है , यही निर्भय होने का मूल मन्त्र है , जिस की और मन्त्र हमें ले जाने का प्रयास कर रहा है |
वेद कहता है कि मित्र व शत्रु , परिचित व अपरिचित , ज्ञात व अज्ञात , प्रत्यक्ष व परोक्ष , सब से हम निर्भय रहे | इतना ही नहीं सब दिशाओं से भी निर्भय रहे | जब सब और से हम निर्भय होंगे तो सारा संसार हमारे लिए मित्र के सामान होगा | अत: संसार को मित्र बनाने के लिए आवश्यक है कि हम सब प्रकार के पापों का आचरण त्यागें तथा सब को मित्र भाव से देखें तो संसार भी हमें मित्र समझने लगेगा | जब संसार के सब लोग हमारे मित्र होंगे तो हमें भय किससे होगा , अर्थात हम निर्भय हो जावेंगे | इस निमित वेदादेश का पालन आवश्यक है |
डा. अशोक आर्य

कुरान समीक्षा : खुदा सर्वज्ञ अर्थात हर हाजिर नाजिर नहीं है

खुदा सर्वज्ञ अर्थात हर हाजिर नाजिर नहीं है

जो खुदा आगे की बातें या मनुष्यों के दिलों की कमजोरी को न जान सके क्या वह खुदा सर्वज्ञा हो सकता है? कुरान में खुदा को सर्वज्ञ कई स्थानों पर लिखा है कुरान का वह दावा इस प्रमाण से गलत साबित हो गया।

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

का-ल इन्नहू यकूलु इन्नहा ब………..।।

(कुरान मजीद पारा २ सूरा बकर रूकू ८ आयत ७१)

(खुदा ने कहा) गरज उन्होंने गाय हलाल की और उनसे उम्मेद न थी कि करेंगे।

समीक्षा

इसमें कुरानी अरबी खुदा कहता है कि मुझे उम्मीद न थी कि वे लोग गाय हलाल करेंगे। इससे स्पष्ट है कि खुदा ने अपनी सर्वज्ञता का स्वयं खण्डन करके स्वयं को अल्पज्ञ घोषित कर दिया है। दो एक प्रमाण और भी देखें-

या अय्युहन्नबिय्यु हर्रिजजिल्-………………।।

(कुरान मजीद पारा ९ सूरा अन्फाल रूकू ८ आयत ६५)

ऐ पैगाम्बर! मुसलमानों को लड़ने पर उत्तेजित करो कि अगर तुम में से जमे रहने वाले बीस भी होंगे तो दो सौ पर ज्यादा ताकतवर बैठेंगे अगर तुमसे से सौ होंगे तो हजार काफिरों पर ज्यादा ताकतवर बैठेंगे। ।

अल्आ-न खफ्फफल्ललाहु अन्कुम………..।।

(कुरान मजीद पारा १ सूरा अन्फाल रूकू ८ आयत ६६)

अब खुदा ने तुम पर से अपने हुक्म का (बोझ) हल्का कर दिया और उसने देखा कि तुममें कमजोरी है तो अगर तुम में से जमे रहने वाले सौ होंगे तो दो सौ पर ज्यादा ताकतवर रहेंगे और अगर तुम में से हजार होंगे खुदा के हुक्म से वह दो हजार पर ज्यादा ताकतवर बैठेंगे। अल्लाह उन लोगों का साथी है जो जमे रहते हैं।

समीक्षा

इन आयतों में खुदा को स्पष्ट रूप से अल्पज्ञ बताया गया है। वह मुसलमानों की ताकत का भी सही अन्दाजा नहीं लगा पाया और धोखे में पहले गलत हुक्म दे बैठा। बाद में अपनी गलती को जब समझ पाया तो पहले हुक्म में तरमीम अर्थात् संशोधन किया गया। समझदार लोग ऐसे अल्पज्ञ अरबी खुदा को अपना पूज्य व रक्षक केसे मान सकते हैं?

देखिये कुरान में अन्यत्र भी लिखा है-

व कजालि-क ज- अल्नाकुम्……….।।

(कुरान मजीद पारा २ सूरा बकर रूकू १७ आयत १४३)

और ऐ पैगम्बर! जिस किब्ले पर तुम थे हमने उसको इसी मतलब से ठहराया था ताकि हमको मालूम हो जावे कि कौन-कौन पैगम्बर के आधीन रहेगा और कौन उल्टा फिरेगा।

समीक्षा

अरबी खुदा ने इसमें साफ-साफ कहा है कि वह यह नहीं जान पाया था कि कौन-कौन व्यक्ति पैगम्बर के आधीन रहेगा और कौन खिलाफ रहेगा? यह बात खुदा जांच करने के बाद ही जान पाया था । क्या ऐसा खुदा दरअसल वास्तविक खुदा माना जा सकता है?

तप से आयु व ज्ञान बढ़ता है

ओउमˎ
तप से आयु व ज्ञान बढ़ता है
डा. अशोक आर्य
यह एक ध्रुव सत्य है कि इस संसार का प्रत्येक व्यक्ति लम्बी आयु प्राप्त करने का अभिलाषी है | इस अभिलाषा के अनुरूप लम्बी आयु तो चाहता है किन्तु इस लम्बी आयु को पाने के लिए उसे कठिन पुरुषार्थ करना होता है | वास्तव में मानव बड़ी बड़ी अभिलाषाएं तो रखता है किन्तु तदनुरूप पुरुषार्थ नहीं करता | फिर इन विशाल अभिलाषाओं का क्या प्रयोजन ? कैसे पूर्ण हों ये अभिलाषाएं ? आज का मानव सब प्रकार से निरोग व हृष्ट पुष्ट रहते हुए ज्ञान का स्वामी बनने के लिए इच्छाओं का सागर तो ढोता है किन्तु इस सागर में से एक बूंद भी पाने के लिए , उस का उपभोग करने के लिए पुरुषार्थ नहीं करता , जब कि सब प्रकार की उपलब्धियां पुरुषार्थ से ही पायी जा सकती हैं | पुरुषार्थ ही इस जीवन का आधार है | इस लिए वेदादि महान ग्रन्थ पुरुषार्थी बनने की प्रेरणा देते हैं | ज्ञान व आयु बढाने के लिए तपोमय जीवन बनाने की प्रेरणा अथर्ववेद के मन्त्र ७.६१.२ मैं इस प्रकार दी गयी है | :-
अग्ने तपस्तप्यामहे , उप तप्यामहे ताप: |
श्रु तानी श्रन्वंतो वयं, आयुष्मंत: सुमेधस: || अथर्व. ७.६१.२ ||
यदि इस मन्त्र का संक्षेप में भाव जानने का प्रयास करते हैं तो हम पाते हैं कि मन्त्र हमें उपदेश दे रहा है कि हे मनुष्य तूं मानसिक व शारीरिक तप कर | इस प्रकार तप द्वारा वेदादि का ज्ञान प्राप्त करते हुए मेधावी व दीर्घ आयु को प्राप्त कर |
भाव से स्पष्ट है कि यह मन्त्र दो प्रकार के तापों का उल्लेख कर रहा है | इन दो प्रकार के तापों का नामकरण इस प्रकार कर सकते हैं : –
१. तप
२. उपतप
मन्त्र कहता है कि इन दो प्रकार के तपों के निरंतर अभ्यास से बुद्धि शुद्ध होती है , निर्मल होती है ,तेजस्वी होती है तथा इस प्रकार के तप से मानव ज्ञान का स्वामी बन जाता है व दीर्घायु को प्राप्त होता है |
यह जो दो प्रकार के तपों का वर्णन इस मन्त्र में आया है इन में से तप को हम मानस तप तथा उपतप को शारीरिक तप का नाम दे सकते हैं | मानस तप उस तप को कहते हैं , जिस के द्वारा शरीर व मन शुद्ध होता है | इस के लिए शरीर को विशेष कष्ट नहीं करना होता | इसे पाने के लिए अधिक परिश्रम अधिक पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं होती | दूसरी प्रकार के तप का नाम उपतप के रूप
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में जो दिया है इस प्रकार के तप को पाने के लिए आसन व प्राणायाम करना होता है | दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि आसन व प्राणायाम को उपतप के नाम से जाना गया है | आसन व प्राणायाम के लिए मनुष्य को प्रयास करना होता है , मेहनत करनी होती है , पुरुषार्थ करना होता है | इस प्रकार शरीर को कुछ कष्ट दे कर इस की शुद्धिकरण का प्रयास आसन व प्राणायाम द्वारा किया जाता है तो इसे उपतप के नाम से जाना गया है | गीता में उपदेश देते हुए श्लोक संख्या १७.१४ तथा श्लोक संख्या १७.१६ के माध्यम से योगी राज श्री कृष्ण जी इस प्रकार उपदेश करते हैं : –
देव्द्विजगुरुप्राग्यपूजनं शौचमार्जवम |
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते || गीता १७.१४ ||

मन: प्रसाद: सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रह: |
भावसंशुद्धिरित्येतत तपो मानसमुच्यते || गीता १७.१६ ||
श्रीमद्भागवद्गीता के उपर्वर्णित श्लोको के अनुसार मानस तप का अति सुन्दर वर्णन किया है | श्लोक हमें उपदेश कर रहा है कि मन की प्रसन्नता, सौम्यता, मनोनिग्रह, भावशुद्धि तथा जितेन्द्रियता आदि को मानस तप जानों | ब्रह्मचर्य, अहिंसा, शरीर की शुद्धि , सरलता आदि शारीरिक तप हैं | इस प्रकार गीता भी वेदोपदेश का ही अनुसरण कर रही है | इतना ही नहीं योगदर्शन भी इसी चर्चा को ही आगे बढ़ा रहा है | योग दर्शन के अनुसार : –
अहिन्सासत्यास्तेय – ब्रह्म्चर्याप्रिग्रहा यमा: || योग. २.३० ||
शौचासंतोश -ताप – स्वाध्यामेश्वर्प्रनिधानानी नियमा: || योग २.३२.||
इस प्रकार योग दर्शन ने यम को मुख्य ताप तथा नियम को गौण या उपताप बताया है | इस के अनुसार यम पांच प्रकार के होते हैं : –
(१.) अहिंसा
(२.) सत्य
(३.) अस्तेय (चोरी न करना
( ४.) ब्रह्मचर्य का पालन
( ५). विषयों से विकृति अर्थात अपरिग्रह
योग – दर्शन कहता है कि सुखों के अभिलाषी को इन पांच यम पर चलना आवश्यक है | इस के बिना वह सुखी नहीं रह सकता | इस के साथ ही योग – दर्शन नियम पालन को भी इस मार्ग का आवश्यक अंग मानता है | इस के अनुसार नियम भी पांच ही होते हैं : _
(१) स्वच्छता , जिसे शौच कहा है
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(२) संतोष
(३) तप
(४) स्वाध्याय
(५) ईश्वर चिंतन जिसे ईश्वर प्रणिधान का नाम दिया गया है
योग दर्शन ने जहाँ पांच तप माने हैं ,वहां तप को नियम का भी भाग माना है तथा पांच नियमों में एक स्थान तप को भी दिया गया है | इस से ही स्पष्ट है की तप अर्थात पुरुषार्थ का महत्व इस में सर्वाधिक है | फिर पुरुषार्थ के बिना तो कोई भी यम अथवा नियम का पालन नहीं किया जा सकता |
अंत में हम कह सकते हैं कि अग्निरूप परमात्मा के आदेश से जब हम मानसिक व शारीरिक तप करते हैं तथा वेदादि सत्य ग्रंथों का स्वाध्याय कर ज्ञान प्राप्त करते हैं तो हमें अतीव प्रसन्नता मिलती है, अतीव आनंद मिलता है | आनंदित व्यक्ति की सब मनोका – मनाएं पूर्ण होती हैं | जिसकी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं , उसकी प्रसन्नता का पारावार नहीं रहता | प्रसन्न व्यक्ति को कभी कोई कष्ट या रोग नहीं होता, वह सदा निरोग रहता है | जो नोरोगी है उसकी आयु में कभी ह्रास नहीं होता , उसकी आयु दीर्घ होती है | अत: वेदादेश को मानते हुए वेद मन्त्र में बताये उपाय करने चाहियें , जिससे हम सुदीर्घ आयु पा सकें |
डा. अशोक आर्य

कुरान समीक्षा : इन्सान को बन्दर बना कर नगद सजा दी

इन्सान को बन्दर बना कर नगद सजा दी

जब हर एक के कार्मों का फैसला कयामत के दिन होने का कुरान का दावा है तो खुदा ने अपने ही उसूल को तोड़कर इन्सान को बन्दर और सुअर क्यों बना दिया? जब खुदा खुद ही अपना कानून तोड़ता है तो उसकी किसी बात पर विश्वास कैसे किया जावे?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

व लकद् अलिम्तुमुल्लजीनअ्-तदौ………..।।

(कुरान मजीद पारा १ सूरा बकर रूकू ८ आयत ६५)

तुममें से जिन्होंने हफ्ते के दिन (शनिवार) में ज्यादती की तो हमने उनसे कहा ‘‘बन्दर बन जाओ’’ (ताकि जहां जाओ) दुतकारे जाओ।

समीक्षा

इस आयत में खुदा ने दो बातें बताई हैं, एक तो यह कि कर्मों का फल मनुष्य से बन्दर की योनि में जाकर अर्थात् पुनर्जन्म’ के बाद भोगा गया।

दूसरी यह कि कर्मों का फल मिलने के लिए कयामत अर्थात् फैसले के दिन तक इन्तजार करना ही होगा यह कोई जरूरी नहीं है।

भारत निवासियों का यह प्राचीन सिद्धान्त है कि कर्मों का फल यहीं पर तथा मनुष्य एवं पशु पक्षी कीट-पतंग आदि की योनियों में भोगने को जाना पड़ता है। उसके लिए पृथक कोई स्वर्ग नरक आदि स्थान नियत नहीं है।

कुरान ने इस आयत में उसी बात को स्वीकार किया है तथा अन्यत्र दोजख या जन्नत में जाने तथा कयामत के दिन फैसला होने की बात का खण्डन किया है।

कोई अकेले नहीं रहना चाहता

लघु कथा
मेरी पति ने कुछ दिनों पहले घर की छत पर कुछ गमले रखवा दिए और एक छोटा सा गार्डन बना लिया।
पिछले दिनों मैं छत पर गई तो ये देख कर हैरान रह गई कि कई गमलों में फूल खिल गए हैं,नींबू के पौधे में दो नींबू भी लटके हुए हैं और दो चार हरीमिर्च भी लटकी हुई नज़रआई।
मैंने देखा कि पिछले हफ्ते उसने बांस का जो पौधा गमले में लगाया था,उस गमले को घसीट कर दूसरे गमले के पास कर रहे थे |
मैं बोली आप इस भारी गमले को क्यों घसीट रहे हो ?
पतिदेव ने मुझसे कहा कि यहां ये बांस का पौधा सूख रहा है, इसे खिसका कर इस पौधे के पास कर देते हैं।
मैं हंस पड़ी और कहा अरे पौधा सूख रहा है तो खाद डालो, पानी डालो। इसे खिसका कर किसी और पौधेके पास कर देने से क्या होगा?”
पति ने मुस्कुराते हुए कहा ये पौधा यहां अकेला है इसलिए मुर्झा रहा है।इसे इस पौधे के पास कर देंगे तो ये फिर लहलहा उठेगा। पौधे अकेले में सूख जाते हैं, लेकिन उन्हें अगर किसी और पौधे का साथ मिल जाए तो जी उठते हैं।
“यह बहुत अजीब सी बात थी। एक-एक कर कई तस्वीरें आखों के आगे बनती चली गईं।…
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…मां की मौत के बाद पिताजी कैसे एक ही रात में बूढ़े, बहुत बूढ़े हो गए थे।हालांकि मां के जाने के बाद सोलह साल तक वो रहे,लेकिन सूखते हुए पौधे की तरह।
…मां के रहते हुए जिस पिता जी को मैंने कभी उदास नहीं देखा था, वो मां के जाने के बाद खामोश से हो गए थे।
मुझे पति के विश्वास पर पूरा विश्वास हो रहा था ।लग रहा था कि सचमुच पौधे अकेले में सूख जाते होंगे।
बचपन में मैं एक बार बाज़ार से एक छोटी सी रंगीन मछली खरीद कर लाई थी औरउसे शीशे के जार में पानी भर कर रख दिया था।
मछली सारा दिन गुमसुम रही।मैंने उसके लिए खाना भी डाली , लेकिन वो चुपचाप इधर-उधर पानी में अनमना सा घूमती रही।सारा खाना जार की तलहटी में जाकर बैठ गया, मछली ने कुछ नहीं खाया। दो दिनों तक वो ऐसे ही रही, और एक सुबह मैंने देखा कि वो पानी की सतह पर उल्टी पड़ी थी।
आज मुझे घर में पाली वो छोटी सी मछली याद आ रही थी।…बचपन में किसी ने मुझे ये नहीं बताया था, अगर मालूम होता तो कम से कम दो, तीन या ढ़ेर सारी मछलियां खरीद लाती और मेरी वो प्यारी मछली यूं तन्हा न मर जाती।
बचपन में माँ से सुनी थी कि लोग मकान बनवाते थे और रौशनी के लिए कमरे में दीपक रखने के लिए दीवार में इसलिए दो मोखे बनवाते थे क्योंकि माँ का कहना था कि बेचारा अकेला मोखा गुमसुम और उदास हो जाता है।
मुझे लगता है कि संसार में किसी को अकेलापन पसंद नहीं।
….आदमी हो या पौधा, हर किसी को किसी न किसी के साथ की ज़रुरत होती है।
आप अपने आसपास झांकिए, अगर कहीं कोई अकेला दिखे तो उसे अपना साथ दीजिए, उसे मुरझाने से बचाइए।
अगर आप अकेले हों, तो आप भी किसी का साथ लीजिए, आप खुद को भी मुरझाने से रोकिए।
💬अकेलापन संसार में सबसे बड़ी सजा है। गमले के पौधे को तो हाथ से खींचकर एक दूसरे पौधे के पास किया जा सकता है, लेकिन आदमी को करीब लाने के लिए जरुरत होती है रिश्तों को समझने की, सहेजने की और समेटने की।
……अगर मन के किसी कोने में आपको लगे कि ज़िंदगी का रस सूख रहा है,जीवन मुरझा रहा है तो उस पर रिश्तों के प्यार का रस डालिए।
खुश रहिए और मुस्कुराइए।
….कोई यूं ही किसी और की गलती से आपसे दूर हो गया हो तो उसे अपने करीब लाने की कोशिश कीजिए
…और हो जाइए हरा-भरा।