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व्रती व्यक्ति सदा निरोग व प्रसन्न रहता है

ओउम
व्रती व्यक्ति सदा निरोग व प्रसन्न रहता है
डा. अशोक आर्य
अग्नि को तेज का प्रतीक माना गया है | विश्व का प्रत्येक व्यक्ति तेज पाने की आकाक्षा रखता है | इस आकांक्षा की पूर्ति के लिए वह सतत प्रयास भी करता है | यदि उस का यह प्रयास सही दिशा में है तो मन वांछित फल उसे मिलता है और यदि वह भटका हुआ है, उसे सही दिशा का ज्ञान नहीं तो उस के लिए सफलता भी संदिग्ध ही है | कहा भी है कि चल गया तो तीर नहीं तो तुक्का | प्रत्येक सफलता के लिए मानव को कई प्रकार के व्रत करने होते है | व्रत की सफलता से व्यक्ति को प्रसन्नता मिलती हैं तथा प्रसन्न व्यक्ति ही निरोग होता है | अथर्ववेद के मन्त्र ७.७४.४ में इस तथ्य पर ही प्रकाश डाला गया है | मन्त्र का अवलोकन करें : –
मन्त्र पाठ : –
व्रतें तवं व्रतपते समक्तो
विश्वाहा सुमना दीदिहिह |
तं त्वा वयं जातवेदा
प्रजावंत उप सदेम सर्वे || अथर्व .७.७४.४||
: समिद्धन
भावार्थ : –
हे व्रतों के स्वामी , हे व्रतों के पालक अग्नि देव ! तुम व्रत से सुसंस्कृत होने से यहाँ सदा प्रसन्नचित्त हो कर प्रकाशित होना ! हे अग्नि ! हम सब अपनी संतानों के साथ प्रदीप्त हो तेरे समीप बैठें |
व्रतों से हमें अनेक लाभ होते हैं | इन लाभों का वर्णन ही इस मन्त्र का मुख्य विषय है | व्रतों से मिलाने वाले लाभ इस प्रकार हैं : –
१) शुद्धता
२) निरोगता
३) पवित्रता
४) प्रसन्नचित्तत़ा
इस मन्त्र के अनुसार अग्नि ही व्रतपति है | व्रत से शुद्ध, पवित्र तथा तेजस्वी भी अग्नि ही है | स्पष्ट है कि यहाँ व्रत के उदहारण अग्नि को रखा गया है | जिस प्रकार अग्नि में डाला गया प्रत्येक पदार्थ या सामग्री जल कर नष्ट हो जाते हैं किन्तु जलते जलते भी यह तत्व अग्नि को तेजस्विता प्रदान करते हैं | अग्नि का धर्म है जलना | यदि ज्वाला नहीं तो हम उसे अग्नि कैसे कह सकते हैं ? तो भी अग्नि को जलने के लिए कुछ पदार्थों की , कुछ तत्वों की आवश्यकता होती है | बिना किसी वास्तु के तो अग्नि भी जल नहीं सकती | ज्वलन्शिलता अग्नि का गुण तो है किन्तु यह गुण तब ही गतिशील होता है , जब किसी पदार्थ के संपर्क में आता है | किसी पदार्थ के संपर्क के बिना अग्नि जल ही नहीं सकती तथा जों भी पदार्थ इस अग्नि के संपर्क में आता है , उसे भी यह अग्नि जला कर राख कर देती है | अग्नि के जलने से उस के आस पास जितने भी दूषित तत्व होते हैं , उन sab को भी जला कर अग्नि नष्ट कर देती है | इस प्रकार अग्नि के जलने मात्र से वायु मंडल शुद्ध हो जाता है , वातावरण में शुद्धता आ जाती है , पर्यावरण स्वच्छ हो जाता है | निर्दोषता का सर्वत्र साम्राज्य स्थापित हो जाता है |
जहाँ तक व्रत अथवा उपवास का सम्बन्ध है यह भी हमारे शरीर में अग्नि के समान ही कार्य करता है | जिस प्रकार अग्नि अपने आस पास व पड़ोस के दुर्गुणों को जला कर नष्ट कर देती है , उस प्रकार ही व्रत अथवा उपवास भी शरीर के अंदर विद्यमान सब प्रकार के दूषित तत्वों को नष्ट कर देते हैं | दूषित तत्वों के नष्ट होने से शरीर में शुद्धता आती है | शरीर के निर्दोष होने से शरीर चुस्त व दुरुस्त हो जाता है | निर्दोष, चुस्त व शुद्ध शरीर ही निरोगता की कुंजी है | अत: शरीर जितना शुद्ध व निर्दोष रहेगा , उतना ही शरीर निरोगी होगा | शरीर की इस निरोगता को पाने के लिए ही हम व्रत करते हैं | इस से स्पष्ट होता है की व्रत स्वस्थ व शुद्ध शरीर स्थापित करने का साधन होने से निरोगता की कुंजी होते हैं | यह ही निरोगता का साधन हैं |
व्रत को ही मानवीय प्रसंन्नचितता का आधार माना गया है | यह मन्त्र का दूसरा लाभ है | जो सदा प्रसन्न रहता है मन्त्र ने उसे विश्वाहा सुमना: कहा है | इस का भाव भी प्रसन्नचितता ही है | प्रसन्न कौन होता है ? इसका उत्तर मन्त्र ने ऊपर इस प्रकार दिया है कि जो शुद्ध, पवित्र, तेजस्वी है, वह प्रसन्नचित्त होता है | अत: ऊपर के उपाय करने के पश्चात जीव स्वयमेव ही प्रसन्न चित्त हो जाता है | व्रतों द्वारा शरीर के शुद्धि करण से शरीर सब प्रकार से स्वच्छ हो जाता है | दूषित शरीर में जो रोग , शोक , आलस्य, निद्रा, तन्द्रा प्रमाद आदि दुर्गुण थे , वह सब इन व्रतों से धुल कर स्वच्छ हो गए | इन सब दुर्गुणों के , दोषों के नाश से मन प्रसन्नता से प्रफुलित हो उठता है , उस में एक विचित्र सी उमंग ठाठें मारने लगती है | इस उमंग को ही प्रसन्नता कहते हैं | अत: दोष निवारण से मन पूर्णतया प्रसन्न हो जाता है | अब मानवीय मन सदैव प्रसन्न रहता है | स्वास्थ्य के लिए वरदान प्रसन्नचितता के लिए योगीराज श्री कृषण जी ने गीता में भी बड़ी सुन्दर चर्चा की है | इस सम्बन्ध में गीता का श्लोक २-६५ दर्शनीय है | जो इस प्रकार है : –

प्रसादे सर्वदु:खानां , हानिरस्योपजायते |
प्रसन्नचेततो ह्याशु: ,बुद्धि: प्र्यवातिष्ठते || गीता २-६५ ||
प्रसन्नता दु:खों का विनाश करती है | अत: जो व्यक्ति प्रसन्नचित्त होता है उसके सब दु:खों का नाश स्वयमेव ही हो जाता है | जिस प्रकार जल से भरे गिलास में वायु नहीं रह सकती , उस प्रकार ही प्रसन्न बदन में दु:ख , शोक , क्लेश इत्यादि दुर्गुण नहीं रह सकते | जब शरीर दु:ख रहित है तो मन शांत हो जाता है | शांत मन के साथ बुद्धि कभी आक्रोशित नहीं हो सकती , इस कारण उसकी बुद्धि भी शांत हो जाती है | शांत बुद्धि मानवीय शरीर की सुव्यवस्था का साधन है | अत: व्रती व्यक्ति का शरीर भी सुव्यवस्थित रहता है | सुव्यवस्थित शरीर में किसी भी प्रकार का शल्य प्रवेश नहीं कर सकता | जब मन प्रसन्न है , बुद्धि शांत है तथा पूरा शरीर सुव्यवस्थित कार्य कर रहा है तो इस के सदुपयोग से परिवार ऊपर उठता है | परिवार के उन्नत होने से समाज , देश व विश्व की भी उन्नति होती है | सब प्रकार से कल्याण का साम्राज्य छा जाता है | जब एक व्रत से ही विश्व का कल्याण संभव है तो हमें व्रती बनने से परहेज करने की क्या आवश्यकता है ? विश्व कल्याण के लिए हम व्रती बनें अपना भी कल्याण करें , समाज का भी उत्थान करें तथा विश्व का भी कल्याण करें |

डा. अशोक आर्य
१०४ – शिप्रा अपार्टमैंट ,कौशाम्बी (गाजियाबाद)
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