छः वैदिक दर्शनों का मतैक्य है

छः वैदिक दर्शनों का मतैक्य है

– आचार्य वैद्यनाथ शास्त्री

महादार्शनिक महर्षि दयानन्द की यह स्थापना है कि प्रक्रिया का भेद होते हुए भी छः दर्शनों में परस्पर कोई भेद नहीं हैं। इनमें पूर्णतः समन्वय पाया जाता है। महर्षि की इस स्थापना का प्रचार तो आर्यसमाज करता रहा है, परन्तु इस दिशा में कार्य कुछ भी नहीं हुआ है। विपक्षियों ने जितना अधिक कार्य गत कई वर्षों में पूर्वपक्षीय सामग्री के प्रस्तुत करने में किया है, उसका न्यूनतम भाग भी अपनी तरफ से उत्तर देने में नहीं किया गया है। दो एक छोटी पुस्तकें षड्दर्शनों के समन्वय विषय को लेकर लिखी गईं, परन्तु उनके समन्वय की प्रक्रिया वा प्रकार ऋषि प्रदर्शित प्रकार से कुछ थोड़ा-सा भिन्न रहा, जबकि उनकी उपादेयता में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। दर्शनों के समन्वय का सफल प्रकार यदि कोई हो सकता है तो ऋषि प्रदर्शित प्रकार ही हो सकता है, अतः इस विषय में आगे चलने से पूर्व ऋषि के प्रकार को यहाँ पर दिखलाना सर्वथा ही उचित है, क्योंकि वही इस मार्ग पर अग्रसर होने का परम और मौलिक आधार है। महर्षि ने पूर्व पक्ष उठा कर समाधान करते हुए दो स्थलों पर सत्यार्थ प्रकाश में इस पर प्रकाश डाला है। प्रथम स्थल सत्यार्थ प्रकाश का तृतीय समुल्लास है और द्वितीय स्थल इसी ग्रन्थ का अष्टम समुल्लास है। प्रथम स्थल का वर्णन सृष्टि-रचना प्रकरण की प्रस्तावना पर आधारित है, परन्तु समन्वय का जो सूत्र ऋषि ने दिया है, वह दोनों स्थलों पर सृष्टि प्रकरण के तर्क को लेकर ही है। महर्षि के वाक्य क्रमशः निम्न प्रकार हैंः-

(1) प्रश्न-जैसे सत्यासत्य और दूसरे ग्रन्थों का परस्पर विरोध है, वैसे अन्य शास्त्रों में भी है। जैसा सृष्टि विषय में छः शास्त्रों का विरोध है-मीमांसा कर्म, वैशेषिक काल, न्याय परमाणु योग पुरुषार्थ, सांय प्रकृति और वेदान्त ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति मानता है-क्या यह विरोध नहीं?

उत्तर-प्रथम तो बिना सांय और वेदान्त के दूसरे शास्त्रों में सृष्टि की उत्पत्ति प्रसिद्ध नहीं लिखी और इनमें विरोध नहीं, क्योंकि तुमको विरोधाविरोध का ज्ञान नहीं। मैं तुमसे पूछता हूँ कि विरोध किस स्थान में होता है-क्या एक विषय में अथवा भिन्न-भिन्न विषयों में?

(2)प्रश्न-एक विषय में अनेकों का विरुद्ध कथन हो, उसको विरोध कहते हैं। यहाँ भी सृष्टि का ही विषय है।

उत्तरक्या विद्या एक है या दो? एक है। जो एक है तो व्याकरण, वैद्यक, ज्योतिष आदि का भिन्न-भिन्न विषय क्यों है, जैसा एक विद्या में अनेक विद्या के अवयवों का एक-दूसरे से भिन्न प्रतिपादन होता है, वैसे ही सृष्टि विद्या के भिन्न-भिन्न छः अवयवों का शास्त्रों में प्रतिपादन करने से इनमें कुछ भी विरोध नहीं हैं। जैसे घड़े के बनाने में कर्म, समय, मिट्टी, विचार, संयोग, वियोग आदि का पुरुषार्थ, प्रकृति के गुण और कुमहार कारण है, वैसे ही सृष्टि का जो कर्म कारण है, उसकी व्याखया मीमांसा में, समय की व्याखया वैशेषिक में, उपादान कारण की व्याखया न्याय में, पुरुषार्थ की व्याखया योग में और तत्त्वों के अनुक्रम से परिगणन की व्याखया सांखय में तथा निमित्त कारण जो परमेश्वर है, उसकी व्याखया वेदान्त शास्त्र में है। इससे कुछ भी विरोध नहीं। जैसे वैद्यक शास्त्र में निदान, चिकित्सा, औषधिदान और पथ्य प्रकरण भिन्न-भिन्न कथित, परन्तु सबका सिद्धान्त रोग की निवृत्ति है, वैसे ही सृष्टि के छः कारण हैं। इनमें से एक-एक कारण की व्याखया एक-एक शास्त्र ने की है, इसलिए इनमें कुछ विरोध नहीं। इसकी विशेष व्याखया सृष्टि प्रकरण में करेंगे। (सत्यार्थ प्रकाश तीसरा समुल्लास।)

(3) प्रश्न- जो अविरोधी हैं तो मीमांसा में कर्म, वैशेषिक में काल, न्याय में परमाणु, योग में पुरुषार्थ, सांखय में प्रकृति और वेदान्त में ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति मानी है। अब किसको सच्चा और किसको झूठा मानें?

उत्तरइनमें सब सच्चे हैं, कोई झूठा नहीं, परन्तु विरोध उसको कहते हैं कि एक कार्य में एक ही विषय पर विरुद्धवाद होवे। छः शास्त्रों का अविरोध देखो, जो इस प्रकार है-मीमांसा में ऐसा कोई भी कार्य जगत् में नहीं होता कि जिसके बनाने में कर्म चेष्टा न की जाय, वैशेषिक में समय लगे बिना बने ही नहीं, न्याय में उपादान कारण न होने से कुछ भी नहीं बन सकता, योग में विद्या, ज्ञान, विचार न किया जाय तो नहीं बन सकता, सांखय में तत्त्वों का मेल न होने से नहीं बन सकता और वेदान्त में बनाने वाला न बनावे तो कोई पदार्थ उत्पन्न न हो सके, इसलिए सृष्टि छः कारणों से बनती है।

इन छः कारणों की व्याया एक-एक की एक-एक शास्त्र में है। (सत्यार्थप्रकाश अष्टम समुल्लास)

यहाँ पर महर्षि के दोनों स्थलों का विचार करने पर यह निष्कर्ष निकलता हैः-

1- एक कार्य में एक ही विषय पर विरुद्धवाद होने का नाम विरोध है, परन्तु दर्शनों में प्रक्रिया की भिन्नता होने पर भी ऐसा विरोध नहीं।

2- सृष्टि रचना का प्रसिद्ध वर्णन केवल सांखय और वेदान्त में हैं, शेष चार में प्रसिद्ध वर्णन न होकर प्रासंगिक वर्णन हैं। समन्वय करते समय सृष्टि के विषय को लेकर ही समन्वय करना चाहिए, क्योंकि पूर्व पक्ष इसका स्पर्श करते हुए ही उठाया जाता है।

3- दर्शन के मुखय विषय का तो इनमें विरोध है ही नहीं, सृष्टि की रचना के विषय में जो विरोध लोगों को दिखलाई पड़ता है, वह भी नहीं है।

4- छः दर्शन सृष्टि के छः कारणों की व्याखया करते हैं और वे हैं-कर्म, काल उपादान, पुरुषार्थ, तत्त्वों का परस्पर मेल (संयोग) और ब्रह्म अर्थात् निमित्तकारणभूत कर्त्ता।

यहाँ पर इन्हीं आधारों को दृष्टिपथ में रखते हुए छः दर्शनों में परस्पर विरोध है वा नहीं-इसका विचार किया जाता है। छः दर्शनों में एक विषय पर होने वाला परस्पर विरोध नहीं पाया जाता है। जहाँ कहीं पर ऐसा आभास मिलता है, जिस-जिस पर पूर्वपक्षी अपना विचार स्थापित करते हैं, उनका विचार यहाँ पर करना अपेक्षित है। वैशेषिक में द्रव्यगुण का पृथक् वर्णन है। द्रव्य वह है जो क्रिया वाला, गुण वाला अथवा समवायिकारण हो। गुण द्रव्य के आश्रय से रहता है, परन्तु गुण में गुण नहीं रहता। द्रव्य-द्रव्य का आरमभक है और गुण गुण का। केवल द्रव्य से गुण की उत्पत्ति नहीं और केवल गुण से द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती।

परन्तु सांखय में सत्व, रजस् और तमस् को गुण कहा जाता है और इन तीनों की साखयावस्था का नाम प्रकृति है। प्रकृति जब तीन गुणों की साखयावस्था का नाम है तो फिर गुणरूप होने से उससे द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती है, परन्तु सांखय में प्रकृति से उत्पन्न होने वाले पदार्थ द्रव्य भी हैं। यहाँ एक विषय में होने वाला विरोध नहीं तो फिर क्या है?

इसका समाधान यह है कि सांखय में सत्व्, रजस् और तमस् जिन तीन गुणों का वर्णन है, वे केवल गुण नहीं, बल्कि वैशेषिक के लक्षण वाले गुण और द्रव्य दोनों हैं, अतः प्रकृति सत्वरजस्तमो गुणों की द्रव्यभूत वस्तु है। उसके द्रव्य तत्त्व से द्रव्य और गुण से गुण का आरमभ होता है। गुण नाम रस्सी का है। पुरुष के बन्धन का हेतु बनने से उनमें गुण पद का व्यवहार होता है। वस्तुतः ये गुण और द्रव्य दोनों हैं। इस प्रकार वैशेषिक और सांखय का भेद नहीं। सांय में इन सत्व, रजस्, तमस् के भी लघुत्वादि धर्म माने गये हैं जो यह सिद्ध करते हैं1 कि ये गुणयुक्त द्रव्य हैं।

न्याय, वैशेषिक, वेदान्त और योग शास्त्र में परमेश्वर को जगत् का कर्त्ता एवं निमित्तकारण माना गया है, परन्तु सांखय में उसके अस्तित्व में ही प्रमाण का अभाव माना गया है तथा उसका कारणत्व अस्वीकृत किया गया है। इसका समाधान यह है कि सांखय सूत्रों में कहीं पर ईश्वर के होने का निषेध नहीं है। उसे केवल ऐन्द्रियक प्रत्यक्ष का विषय नहीं माना गया है। सांखय में ईश्वर को सर्ववित् और सर्वकर्त्ता2 स्वीकार किया गया है। प्रकृति को उसके अधीन परतन्त्र माना गया है और समाधि, सुषुप्ति तथा मोक्ष में ब्रह्मरूपता3 को भी मन्तव्य रूप में दिखलाया गया है। सांखय दर्शन के पाँचवें अध्याय में जहाँ4 पर ईश्वर के कारणत्व का खंडन है, वहाँ पर केवल उसके उपादान कारणत्व का निषेध किया गया है, निमित्त कारणत्व का नहीं। कोई भी शास्त्र परमेश्वर को उपादान मानता ही नहीं, फिर विरोध का प्रश्न ही शेष नहीं रह सकता है।

सांखय दर्शन में कुछ ऐसे सूत्र मिलते हैं, जिनसे यह आभास मिलता है कि न्याय और वैशेषिक का उनमें खण्डन किया गया है। उदाहरण के रूप में सांखय दर्शन के पाँचवें अध्याय के 85 वें सूत्र से 90 वें सूत्रों तक को तथा 99 सूत्र को लिया जा सकता है। इनमें क्रमशः पदार्थषट्कत्व, पदार्थषोडशकत्व, अणुनित्यता, परिमाण के चातुर्विध्य और समवाय आदि का खण्डन नहीं, खण्डनाभास मालूम पड़ता है। सांखय में षट् पदार्थ और षोडशपदार्थ की प्रक्रिया एवं सिद्धान्त का खण्डन नहीं है, बल्कि षट्पदार्थ और षोडशपदार्थ के ही ज्ञान से मुक्ति हो सकती है-ऐसा ही नियम है, इस विचार का खण्डन है। वैशेषिक और न्याय में ऐसा एक मात्र नियम निर्धारित नहीं किया गया है कि मुक्ति षट् और षोडश पदार्थ के ज्ञान से ही हो सकती है अन्यथा नहीं हो सकती। षट् और षोडश पदार्थों के ज्ञान से मोक्ष हो सकता है और अन्य दर्शनों में बताये प्रकार से भी। न्याय में तो स्वयं ही पदार्थों के संयैकान्तवाद का खण्डन5 है। अणु की नित्यता के खण्डन से परमाणुओं के नित्यत्व का प्रत्याखयान भी सांखयकर्त्ता को अभिप्रेत नहीं। सांखयकार ने प्रधान की वृत्ति को भी अणुवत् माना हैं। यदि वह अणुओं का खंडन करता तो फिर दूसरे स्थान पर उन्हें स्वीकार क्यों करता6? सांयकार ने वस्तुतः परमाणुओं का खण्डन किया है। महर्षि व्यास के शबदों में नित्यता दो प्रकार की होती है-परिणामी नित्यता और कूटस्थ नित्यता 7। जो वस्तु उपादान कारण होगी (चाहे वह प्रकृति हो अथवा परमाणु हो) उसकी नित्यता परिणामी नित्यता होगी, कूटस्थ नित्यता नहीं। कूटस्थ नित्यता केवल आत्मा और परमात्मा की है। इसी प्रकार सूक्ष्मता के विषय में भी समझना चाहिए। उपादान कारणों की सूक्ष्मता के विषय में भी समझना चाहिए। उपादान कारणों की सूक्ष्मता अन्वयीसूक्ष्मता अर्थात् कार्य की अपेक्षा से सूक्ष्मता है। प्रकृति और परमाणु की सूक्ष्मता कार्य की वह पराकाष्ठा है, जिससे बढ़कर फिर वह सूक्ष्म नहीं हो सकता है। यह अवस्था प्रकृति8 की है और परमाणुओं की है। यहाँ पर अन्तर9 बाहर आदि शदों का प्रयोग नहीं हो सकता और जो विभाजन हैं, उसे ही न्याय और वैशेषिक में परमाणु कहा गया है। यह परमाणु की अन्तिम अवस्था प्रकृति में परिसमाप्त है। सांखयकार ने भूत तन्मात्रारूपी अणुओं को अनित्य माना है, वैशेषिक ोक्त पराकाष्ठा के अपकर्ष को प्राप्त परमाणुओं को नहीं। अनन्वयीय अर्थात् स्वाभाविकी सूक्ष्मता आत्मा और परमात्मा की है। अन्वयी सूक्षमता की पराकाष्ठा प्रकृति एवं परमाणु में है।

सांखय अणु, महत् और विभु परिमाण से ही कार्य चल जावेगा, ऐसा स्वीकार करता है, अतः ह्रस्व और दीर्घ को इनके ही अन्तर्गत मान लेता है, वैशेषिक चारों का वर्णन करता है। यह वस्तुतः खण्डन नहीं है। सामान्य को सांयकर्त्ता ने (सा.-5/91-92) स्वीकार किया ही है। समवाय का भी सांखय में खण्डन नहीं समझना चाहिए। सांखय का यह सिद्धान्त है कि कार्य सत्ता कारण में सत्तारूप से विद्यमान रहती है। उत्पत्ति केवल कार्य के वर्तमानावस्था में आने एवं अभिव्यक्ति को कहा जाता है। कार्य का यह अभिव्यक्त रूप इसी रूप में कारण से समवाय सबन्ध (नित्य सबन्ध) तो हो सकता है, परन्तु कार्य के अभिव्यक्त प्रकार का जो देश और काल से परिछिन्न है, अपने कारण के साथ समवाय सबन्ध नहीं हो सकता। इसी समवाय का सांखय में खण्डन है, वैशेषिकोक्त समवाय का नहीं, क्योंकि वैशेषिक में कहीं भी कार्य के वर्तमान रूप के साथ कारण का समवाय सबन्ध नहीं बतलाया है। सामान्य, विशेष और समवाय आदि अपेक्षा बुद्धि से परिज्ञात होते हैं, अतः अनपेक्षाबुद्धि के विषय भूत साखयावस्थापन्न प्रकृति में इनका परिज्ञान नहीं होता है-इस बात को दर्शाने के लिए सांखय ने समवाय का स्पष्टीकरण किया है।

न्याय और वैशेषिक इन्द्रियों को भूतजन्य मानते हैं, क्योंकि जिस भूत से जो इन्द्रिय उत्पन्न होती है, वह उसी के गुण से युक्त पदार्थ को देखती है। सांखय अहंकार को इन्द्रियों का कारण मानता है। इससे परस्पर विरोध मालूम पड़ता है, परन्तु इसमें भी विरोध की स्थिति नहीं। इन्द्रियाँ ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय भेद से दस हैं। मन उायात्मक है। मन का भी इन इन्द्रियों में ही सन्निवेश है। यह सांखय का सिद्धान्त है। न्याय में विशेषतया पंच ज्ञानेन्द्रियों पर विचार किया गया है। मन को पृथक् माना गया है। इन्द्रियाँ अपने भूतों के गुणों को देखती हैं, अतः एक इन्द्रिय दूसरे के विषय में नहीं देखती है। इन दोनों सिद्धान्तों को विचारने पर पता चलता है कि इन्द्रियों में भौतिकता व अभौतिकता दोनों हैं। इन्द्रियभूतों में विद्यमान रूप आदि गुणों के ग्रहण की जो शक्ति रहती है, वह भौतिक धर्म है, परन्तु गुणों को इनसे प्रत्यक्ष होने पर भी द्रव्य, संखया, जाति और अभाव आदि का प्रत्यक्ष मन से होता है, जबकि ये अपने-अपने ही विषयों को जान सकती हैं और साथ ही मन कर्मेन्द्रिय का कार्य भी करता है। मन के सपर्क से होने वाला इन्द्रियों का कार्य भौतिक धर्म नहीं है। यह शक्ति धर्म है जो मन और अहंकार के सबन्ध से इनमें है। मन का उायात्मकत्व और प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय के विषय के ग्रहण करने में उसकी क्षमता यह सिद्ध करती है कि उसमें आहंकारिक धर्म10 है, अन्यथा वह भी एक ही विषय के ज्ञान से बँधा रहता। सांखय ने मन को इन्द्रियों में माना है। न्याय ने इन्द्रियों को भूतों से मानकर मन को पृथक् माना है, अतः सांखय का दृष्टिकोण मन को इन्द्रिय मानकर उसके भौतिकता का खण्डन है। यदि सब को भौतिक माना जाता तो मन को भी भौतिक मानना पड़ता जो सभव नहीं। सांखय ने अपने मत के स्पष्टीकरण के लिए यह दिखलाया है कि इन्द्रियाँ एकान्ततः भौतिक ही हों-यह सिद्धान्त नहीं हैं, वे आहंकारिक भी हैं, क्योंकि मन का भी उनमें सन्निवेश है। न्याय और वैशेषिक को इन्द्रियों का जो भौतिकत्व अभिप्रेत है, उसका सांखय ने खण्डन नहीं किया है। उसने केवल अपनी प्रक्रिया का स्पष्टीकरण किया है।

इसी प्रकार वेदान्त शास्त्र में सांखय और न्याय, वैशेषिक आदि का खंडन दिखलाई पड़ता है, वह केवल आभासमात्र का खंडन है, वास्तविक खण्डन नहीं। व्यास को इतना ही कहना अभिप्रेत है कि बिना निमित्त कारण परमेश्वर को स्वीकार किये जड़ प्रकृति एवं परमाणु जगत् को उत्पन्न नहीं कर सकते, क्योंकि उनमें ज्ञान और क्रिया का अभाव11है, परन्तु ये जगत् के कारण नहीं अथवा उपादान नहीं है, वा इनकी सत्ता नहीं है, यह वेदान्त-शास्त्रकर्त्ता को अभिप्रेत नहीं है। सांखय न्याय आदि में कहीं पर भी बिना परमेश्वर की निमित्तता के प्रकृति अथवा परमाणु आदि से जगत् की रचना का वर्णन नहीं है, अतः वेदान्त में इन दर्शनों का खण्डन नहीं। केवल ब्रह्मरूपी निमित्त कारण की उपादेयता को सिद्ध करने का यह प्रयास12 है। वेदान्त 2/1/12 से13 योग और वैशेषिक आदि का खण्डन नहीं है। उससे अन्य आचार्यों के उन सिद्धान्तों का खण्डन है जो ब्रह्म को जगत् का कर्त्ता नहीं स्वीकार करते हैं।

सृष्टि रचना के प्रकरण को ही बहुधा दर्शनों के विरुद्ध बतलाया जाता है। आचार्य दयानन्द का कथन यह है कि सृष्टि का वर्णन मुखयतः सांखय और वेदान्त में ही पाया जाता है, शेष चार में तो प्रासंगिक वर्णन है। सांखय में प्रकृति, पुरुष और परमेश्वर तीन तत्त्वों को अनादि मानकर सृष्टि की प्रक्रिया का वर्णन किया गया है। परमात्मा सर्ववित् और सर्वकर्त्ता है। प्रकृति उसके अधीन है। जीव भी अनेक हैं और नित्य हैं, परन्तु उनके भोग आदि की व्यवस्था परमाता के द्वारा होती है। परमात्मा की निमित्तता से प्रकृति में क्षोभ होकर उसकी साखयावस्था भंग होती है। तत्पश्चात् उससे महत्तत्त्व, पुनः उससे अहंकार और अहंकार से एक तरफ पंचतन्मात्राएँ, दूसरी तरफ मन सहित एकादश इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं। पंचतन्मात्राओं से पाँच महाभूत और उनसे पुनः शरीरादि कार्य पदार्थ और विविध सृष्टि पदार्थों की रचना होती14 है। वेदान्त दर्शन में भी ईश्वर, जीव और प्रकृति को अनादि माना गया15 है। ब्रह्म की निमित्तता से प्रकृतिरूपी उपादान में क्षोभ होकर जगत् उत्पन्न होता है। वेदान्त का क्रम भी वही है जो सांखय का क्रम है। सृष्टि की रचना का सांखय का क्रम इतना प्रसिद्ध और वैज्ञानिक है कि वही सर्वत्र स्वीकार किया गया है, अतः इससे किसी प्रकार के मत-भेद का प्रश्न ही नहीं उठता है।

शेष भाग अगले अंक में…..

 

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