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बिना मुख ईश्वर ने वेद ज्ञान कैसे दिया?

बिना मुख ईश्वर ने वेद ज्ञान कैसे दिया?

– इन्द्रजित् देव

महर्षि दयानन्द व अन्य ऋषियों, महर्षियों व पौराणिकों की इस बात पर सहमति है कि वेद सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने चार ऋषियों को दिए। वेद अपौरुषेय हैं। उस समय न तो मुद्रणालय थे, न ही नभ से ईश्वर  ने वेद अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा – इन चार ऋषियों के लिए नीचे गिराए, फिर प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि ईश्वर जब निराकार है तो बिना मुख व वाणी वाले ईश्वर ने ज्ञान कैसे दिया?

हमारा निवेदन है कि ईश्वर सर्वव्यापक है, शरीर रहित है-

सः पर्यगाच्छुक्रमकायम्। -यजुर्वेद ४०/८

अर्थात् वह ईश्वर सर्वत्र गया हुआ, व्यापक है, शक्तिशाली है, शीघ्रकारी है, काया रहित है, सर्वान्तर्यामी है। इन गुणों के कारण ही ईश्वर ने चार ऋषियों के मन में वेद ज्ञान स्थापित कर दिया था। वह सर्वशक्तिमान् भी है, जिसका अर्थ यही है कि वह अपने करणीय कार्य बिना किसी अन्य की सहायता के स्वयं ही करता है। बिना हाथ-पैर के ईश्वर अति विस्तृत संसार, गहरे समुद्र, ऊँचे-ऊँचे पर्वत, रंग-बिरंगे पुष्प, गैसों के भण्डार, सहस्रों सूर्य व शीतल चन्द्रमा बना सकता है तो सब पदार्थों व सब आत्माओं में उपस्थित अन्तर्यामी ईश्वर बिना मुख वेद ज्ञान क्यों नहीं दे सकता? गोस्वामी तुलसीदास ने भी लिखा है-

बिनु पग चले सुने बिनु काना।

कर बिनु कर्म करे विधि नाना।।

महर्षि दयानन्द सरस्वती ‘‘ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका’’ के ‘‘अथ वेदोत्पत्तिविषयः’’ अध्याय में लिखते हैं- ‘‘जब जगत् उत्पन्न नहीं हुआ था, उस समय निराकार ईश्वर ने सम्पूर्ण जगत् को बनाया। तब वेदों के रचने में क्या शंका रही?…..हमारे मन में मुखादि अवयव नहीं है, तथापि उसके भीतर प्रश्नोत्तर आदि शब्दों का उच्चारण मानस व्यापार में होता है, वैसे ही परमेश्वर में भी जानना चाहिए।’’

जैसे मनुष्य शरीर से श्वास बाहर निकालता तथा पुनः श्वास भीतर ले लेता है, इसी प्रकार ईश्वर सृष्टि के आरम्भ में वेदों को प्रकाशित करता है । प्रलयावस्था में वेद नहीं रहते, परन्तु ईश्वर के ज्ञान में वेद सदैव बने रहते हैं। वह ईश्वर की विद्या है। वह सर्वशक्तिमान् व अन्तर्यामी है, मुख और प्राणादि बिना भी ईश्वर में मुख व प्राणादि के करने योग्य कार्य करने का सामर्थ्य है।

जब भी हम कोई कार्य करने लगते हैं, तब मन के भीतर से आवाज-सी उठती है। वह कहती है-यह पाप कर्म है अथवा पुण्य कर्म है। यह आवाज बिना कान हम सुनते हैं, क्योंकि यह आवाज बाहर से नहीं आती। यह आवाज विचार के रूप में आती है। यह कार्य शरीरधारी व्यक्ति नहीं करता, न ही कर सकता है। यदि कोई शरीरधारी यह कार्य करेगा तो कर नहीं सकेगा, क्योंकि उसे मुख की आवश्यकता रहेगी। महर्षि दयानन्द जी ‘‘अथ वेदोत्पत्ति विषयः’’ अध्याय में यह भी लिख गए हैं-‘किसी देहधारी ने वेदों को बनाने वाले को साक्षात् कभी नहीं देखा, इससे जाना गया कि वेद निराकार ईश्वर से ही उत्पन्न हुए हैं।…….अग्रि, वायु, आदित्य और अंगिरा- इन चारों मनुष्यों को जैसे वादित्र (=बाजा, वाद्य) को कोई बजावे, काठ की पुतली को चेष्टा करावे, इसी प्रकार ईश्वर ने उनको निमित्त मात्र किया था।’

इस विषय में स्व. डॉ. स्वामी सत्यप्रकाश जी का कथन भी उल्लेखनीय है-आप कहीं नमक भरा एक ट्रक खड़ा कर दीजिए, परन्तु एक भी चींटी उसके पास नहीं आएगी। इसके विपरीत यदि एक चम्मच खाण्ड या मधु रखेंगे तो दो-चार मिनटों में ही कई चींटियाँ वहाँ आ जाएगी। मनुष्य तो चखकर ही जान पाता है कि नमक यह है तथा खाण्ड वह है, परन्तु चींटियों को यह ज्ञान बिना चखे होता है। ईश्वर बिना मुख उन्हें यह ज्ञान देता है। आपने चींटियों को पंक्तिबद्ध एक ओर से दूसरी ओर जाते देख होगा। चलते-चलते वे वहाँ रुक जाती हैं, जहाँ आगे पानी पड़ा होता है अथवा बह रहा होता है। क्यों? पानी में बह जाने का, मर जाने का उन्हें भय होता है। प्राण बचाने हेतु पानी में न जाने का ज्ञान उन्हें निराकार ईश्वर ही देता है। मुख से बोलकर ज्ञान देने का प्रश्न वहाँ भी लागू नहीं होता, क्योंकि ईश्वर काया रहित है तो मुख से बोलेगा कैसे ? वह तो चींटियों के मनों में वाञ्छनीय ज्ञान डालता है।

गुरुकुल काँगड़ी, हरिद्वार के पूर्व आचार्य व उपकुलपति श्री प्रियव्रत जी अपनी एक पुस्तक में लिखते हैं कि मैस्मरो नामक एक विद्वान् ने ध्यान की एकाग्रता के लिए दूसरे व्यक्ति को प्रभावित करने की विद्या सीखी-आविष्कार किया। यह मैस्मरिज्म विशेषज्ञ दूसरे व्यक्ति पर मैस्मरिज्म करके स्वयं बिना बोले ही उससे मनचाही भाषा बुलवा सकता है, चाहे दूसरा व्यक्ति उस भाषा को न जानता हो, चाहे वह भाषा चीनी हो या जर्मनी, जापानी या कोई अन्य भाषा हो। इस विद्या का विशेषज्ञ दूसरे व्यक्ति के मन में अपनी बात डाल देता है।

इस विषय में एक घटना रोचक व प्रेरक है। गुरुकुल काँगड़ी के पूर्व उपकुलपति स्व. डॉ. सत्यव्रत सिद्धांतालंकार जब स्नातक बन कर गुरुकुल से निकले थे तो लुधियाना में एक दिन उन्होंने देखा कि बाजार में एक मौलवी मंच पर खड़ा होकर ध्वनि विस्तारक यन्त्र के आगे बोल रहा था- ‘‘आर्य समाजी कहते हैं कि खुदा निराकार है तथा वेद का ज्ञान खुदा ने दिया था। मैं पूछता हूँ कि जब निराकार है तो बिना मुँह खुदा ने वेद ज्ञान कैसे दिया?’’डॉ. सत्यव्रत सिद्धांतालंकार मौलवी के निकट जा खड़े हुए और दोनों की जो बातचीत हुई, वह इस प्रकार की थी-

‘‘आपने यह लाउडस्पीकर किस लिए लगा रखा है?’’

‘‘अपनी बात दूर खड़े लोगों तक पहुँचाने के लिए।’’

‘‘यदि दूर खड़े व्यक्ति आपके निकट आ जाएँ तो क्या फिर भी आप इसका प्रयोग करेंगे?’’

‘‘नहीं, तब इसकी जरूरत नहीं पड़ेगी। तब मैं पास खड़े आदमी से ऊँची आवाज में नहीं बोलूँगा।’’

‘‘यदि आपकी बात सुनने वाला व्यक्ति आपके अन्दर ही स्थित हो जाए, तब भी क्या आपको उससे बात करने के लिए मुँह की आवश्यकता पड़ेगी?’’

‘‘नहीं, तब मुझे मुँह की जरूरत नहीं रहेगी।’’

‘‘बस, यही उत्तर है, आपके प्रश्न का। ईश्वर सबमें है तथा सबमें ईश्वर है। वह सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक तथा सर्वान्तर्यामी है। उसके साथ बात करने के लिए मनुष्य को मुख की आवश्यकता नहीं पड़ती तथा न ही ईश्वर को हमसे बात करने के लिए मुख की अपेक्षा है। वेद का ज्ञान ईश्वर ने ४ ऋषियों को उनके  मनों में बिना मुख दिया था।’’

मौलवी मौन हो गया। मेरी लेखनी भी मौन हो रही है।

– चूना भट्ठियाँ, सिटी सेन्टर के निकट, यमुनानगर, हरि.

रक्तसाक्षी पं. लेखराम जीः- १२० वें बलिदान पर्व पर

मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द

सम्पादकीय

मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द

– धर्मवीर

मूर्ति शब्द प्रतिमा या साकार वस्तु के अर्थ में प्रचलित है। संस्कृत में मूर्त शब्द व्यक्त होने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसका दूसरा अर्थ निराकार से साकार होना है। संसार में दो प्रकार की सत्ताएँ दृष्टिगोचर होती हैं- एक चेतन और दूसरी अचेतन। ऋषि दयानन्द की मान्यता के अनुसार दो चेतन सत्तायें स्वरूप से अनादि और पृथक्-पृथक् हैं। एक अचेतन सत्ता प्रवाह से अनादि और एक है। दूसरी चेतन सत्ता के रूप में जीव और ईश्वर दोनों निराकार हैं और एक अचेतन सत्ता प्रवाह से अनादि होने के कारण कभी व्यक्त और कभी अव्यक्त होती है। इसी को संसार के रचना काल में व्यक्त और प्रलय काल में अव्यक्त दशा में बताया है। इस प्रकार संसार ही कभी मूर्त व्यक्त और कभी अमूर्त अव्यक्त दशा में होता है। इसी अर्थ में उपनिषद् ग्रन्थों में मूर्तञ्च-अमूर्तञ्च इसका प्रयोग दिखाई देता है।३ संस्कृत साहित्य में मूर्त शब्द का अनेकार्थ प्रयोग पाया जाता है। अमरकोष तृतीय काण्ड नानार्थ वर्ग-३ श्लोक ६६ में मूर्ति शब्द का अर्थ बताते हुए कहा गया है- मूर्तिः काठिन्यकाययोः। -अर्थात् मूर्ति शब्द का प्रयोग कठोरता और काया-शरीर के अर्थ में पाया जाता है। मूर्ति शब्द का अर्थ है- आकार वाली वस्तु। इस प्रकार सोना, चाँदी, पीतल, लोहा, मिट्टी आदि से बनी साकार वस्तु मूर्ति कहलाती है।

एक साकार वस्तु से दूसरी साकार वस्तु की तुलना प्रतिमा कही जाती है। संस्कृत में प्रतिमा शब्द का मूल अर्थ बाट है। जिससे वस्तु को तोला जाता है, उस साधन को प्रतिमा कहा जाता है। एक वस्तु की दूसरी वस्तु से तुलना अनेक प्रकार से होती है- रूप से, भार से, योग्यता से। बहुत प्रकार से किन्हीं दो वस्तुओं के बीच समानता देखी जा सकती है। यह तुलना जड़ पदार्थों में ही सम्भव है। साकार से साकार की प्रतिमा हो सकती है। निराकार से  साकार प्रतिमा की रचना सम्भव नहीं है, इसलिए साकार व्यक्ति, वस्तु आदि की प्रतिमा बन सकती है। एक समान आकृति को देखकर दूसरी समान आकृति का बोध होता है, जैसे चित्र को देखकर व्यक्ति का या व्यक्ति को देख कर चित्र और व्यक्ति की समानता का ज्ञान होता है। ईश्वर के समान कोई नहीं, इसलिए वेद कहता है-

न तस्य प्रतिमा अस्ति।     -यजु. ३२/३।।

आगे चलकर समानता के कारण मूर्ति के लिए भी प्रतिमा शब्द का प्रयोग होने लगा। आज प्रतिमा शब्द से मूर्ति का ही अर्थ ग्रहण किया जाता है।

संसार मूर्त है, इसलिए इसमें मूर्तियों का अभाव नहीं है। साकार पदार्थों से बहुत सारे दूसरे साकार पदार्थ बनाये जाते हैं, स्वतः भी बन सकते हैं, अतः मूर्ति कोई विवाद या विवेचना का विषय नहीं है। मूर्ति के साथ जब पूजा शब्द का उपयोग किया जाता है, तब अर्थ में सन्देह उत्पन्न होता है। पूजा शब्द सत्कार, सेवा, आदर, आज्ञा पालन, रक्षा आदि के अर्थ में प्रयुक्त होता है। पूजा शब्द का उपयोग जब-जब पदार्थों के प्रसंग में किया जाता है, तो सन्देह की स्थिति उत्पन्न होती है। यज्ञ शब्द का प्रयोग अग्निहोत्र के लिए किया जाता है, जिसका अर्थ देवपूजा भी है। वेद में जड़ पदार्थों को भी देवता कहा है। इसी क्रम में चेतन को भी देव कहा गया तथा परमेश्वर को महादेव कहा गया। इस प्रकार देव शब्द से साकार और निराकार तथा जड़ और चेतन दोनों प्रकार के पदार्थों का ग्रहण होने लगा। इनमें एक के मूर्त होने से दूसरे के मूर्त होने की सम्भावना  बन जाती है। मूर्त पदार्थों में जड़ और चेतन दोनों पदार्थ देवता की श्रेणी में आते हैं- पहले अग्नि, वायु, जल आदि, दूसरे माता-पिता, आचार्य, अतिथि आदि। इस प्रकार देव शब्द की समानता से पूजा की समानता जुड़ती दिखाई देती है। इस तरह साकार, निराकार, जड़, चेतन में देवत्व बन गया तो सब की पूजा में भी समानता मानी व की जाने लगी।

सामर्थ्य और उपयोगिता के कारण चेतन से जिस प्रकार प्रार्थना की जाती है, उसी प्रकार जड़ से उसके सामर्थ्य के सामने विवश होकर अग्नि, वायु, जल आदि से भी प्रार्थना की जाने लगी। चेतन को भोजन, आसन, माला, सेवा, सत्कार आदि से सन्तुष्ट किया जाता है, उसी प्रकार जड़ देवता को भी सन्तुष्ट करने की परम्परा चल पड़ी। सभी देव शब्दों का मानवीकरण कर दिया, चाहे वह जड़ हो या चेतन, साकार हो या निराकार। मनुष्यों ने इन सब की मूर्ति बना ली। उन वस्तुओं के गुण उन मूर्तियों में चिह्नित कर दिये गये। ऐसा करते हुए ईश्वर का भी मानवीकरण हो गया। मानवीकरण होने में रूप और नाम के बिना उसका उपयोग नहीं हो सकता, इसलिए महापुरुषों का रूप और नाम ईश्वर की श्रेणी में आ गया। पहले दौर में शिव, विष्णु, राम, कृष्ण आदि रूप देवत्व की श्रेणी में आते दिखाई देते हैं। ईश्वर के स्थान पर समाज में इन देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ पूजी जाने लगीं और इनसे ही प्रार्थना भी होने लगी। इस प्रकार इन मूर्तियों से मनुष्य के दो अभिप्राय सिद्ध हो जाते हैं- प्रथम जो उपस्थित नहीं है, वह उपस्थित हो जाता है। जिसकी मृत्यु हो चुकी है जो इस संसार से जा चुका है, उसकी स्मृति को स्थायित्व मिल जाता है तथा दूसरा अप्रत्यक्ष परमेश्वर इस मूर्ति के माध्यम से प्रत्यक्ष हो जाता है। इस प्रकार निराकार ईश्वर को साकार बनाने का विचार मूर्ति-पूजा का आधार है।

जब ईश्वर को अपनी इच्छानुरूप रूप दिया जा सकता है तो बाद के लोगों ने राम-कृष्ण के स्थान पर उनके इष्ट प्रिय व्यक्तियों को ही ईश्वर के स्थान पर मन्दिर में रख दिया। इस क्रम में मत-मतान्तरों के संस्थापक मन्दिरों के पूज्य देव बन गये। कुछ महावीर, नानक आदि ईश्वर की श्रेणी में आ गये। इसके बाद के युग में मन्दिर के महन्त, महामण्डलेश्वर, गुरु आदि लोगों की भी मूर्तियाँ बनने लगीं, उनकी भी ईश्वर के स्थान पर पूजा होने लगी। कुछ लोगों ने अपने माता-पिता, प्रियजनों को ही मन्दिर के देवताओं के स्थान पर अधिष्ठित कर दिया। उनकी पूजा को ही ईश्वर की पूजा समझने लगे। आज तो शंकराचार्य के स्थान पर आसाराम, रामरहीम, रामपाल दास जैसे कुछ पीर-फकीर भी मूर्ति के रूप में या समाधि के रूप में पूजे जाने लगे और कुछ लोग स्वयं ही अपने को पुजवाने लगे। इस तरह निराकार चेतन, सर्वव्यापक ईश्वर की यात्रा, साकार जड़ में बदल गई।

मूर्तिपूजा का समाज पर दो प्रकार से प्रभाव पड़ा। मूर्तिपूजा करने से मनुष्य कायर और भीरु बनता गया। देवता के रुष्ट होने का भय दिखाकर पुजारियों ने राजा से जनसामान्य तक को ठगा है, आज भी ठग रहे हैं। दूसरा प्रभाव समाज में मूर्तिपूजा का यह हुआ कि पुरुषार्थहीनता बढ़ी। मनुष्य के मन में इस प्रकार के विचार दृढ़ होते गये कि मनुष्य को बिना पुरुषार्थ के ही इच्छित फल की प्राप्ति हो सकती है। देवता पूजा से प्रसन्न होकर मनोवाञ्छित फल प्रदान करते हैं। इस विचार पर आर्य विचारक एवं दार्शनिक पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय ने इस प्रकार लिखा है- ‘‘वह (मूर्तिपूजक) अन्धकार में है और उसी में रहना चाहता है। वह प्रकाश का इच्छुक नहीं है। यदि आप बातचीत करके इस सम्बन्ध में उसे बतलाना चाहें तो वह बात उसे रुचिकर न होगी और वह उससे घबरायेगा। उसे भय है कि इस प्रकार की बौद्धिक छानबीन उसे अविश्वासी न बना दे और इसीलिए वह उससे बच निकलने का प्रयत्न करता है। इसका कारण यह नहीं कि वह तर्क-वितर्क की योग्यता नहीं रखता। मूर्तिपूजकों में आपको सर्वोत्तम वकील, जो चकित करने वाली तीव्र तार्किक बुद्धि रखते हैं, तर्क शास्त्र के उपाध्याय, जो सूक्ष्म हेत्वाभास को ढूँढ़ निकालने की क्षमता रखते हैं तथा चतुर राजनीतिज्ञ, जो संसार के राजनैतिक क्षेत्र में गुह्य-से-गुह्य कार्य करने वाली शक्तियों का सहज साक्षात् कर लेते हैं, मिलेंगे। उनमें आपको वाणिज्य कुशल व्यापारी, जिनकी दृष्टि से संसार की किसी मण्डी का कोई कोना छिपा हुआ नहीं है, अर्थशास्त्री जो शोषक-वर्ग की चालों का सफलतापूर्वक प्रतिकार कर सकते हैं, ज्योतिष-विद्याविशारद, जिनको आकाशस्थ ग्रह-उपग्रहों का अपने ग्रह से भी कहीं अधिक परिज्ञान है तथा गणितज्ञ, जिन्हें गणित के सूक्ष्म तत्त्वों पर पूर्ण अधिकार है, भी मिल जायेंगे। ये सब बुद्धि विशेषज्ञ है, परन्तु आप इन्हें मन्दिरों में अनपढ़ लोगों के साथ वैसी ही भक्ति-भावना तथा अनिश्चित बुद्धि से मूर्तिपूजा करते देखेंगे।’’

(लेखक पं. राजेन्द्र, भारत में मूर्तिपूजा, पृ. १९९)

ऋषि दयानन्द के जीवन में मूर्तिपूजा के प्रति अनास्था का भाव उनके बाल्यकाल से देखने में आता है। जिस समय बालक मूलशंकर की आयु मात्र तेरह वर्ष की थी, उस समय जिस घटना ने उनके जीवन में झंझावात उत्पन्न किया, वह घटना मूर्तिपूजा से ही सम्बन्ध रखती है। महर्षि दयानन्द ने इस घटना का वर्णन अपनी आत्मकथा में इस प्रकार किया है- ‘‘जब मैं मन्दिर में इस प्रकार अकेला जाग रहा था तो घटना उपस्थित हुई। कई चूहे बाहर निकलकर महादेव के पिण्ड के ऊपर दौड़ने लगे और बीच-बीच में महादेव पर जो चावल चढ़ाये गये थे, उन्हें भक्षण करने लगे। मैं जाग्रत रहकर चूहों के इस कार्य को देखने लगा। देखते-देखते मेरे मन में आया कि ये क्या है? जिस महादेव की शान्त पवित्र मूर्ति की कथा, जिस महादेव के प्रचण्ड पाशुपतास्त्र की कथा, जिस महादेव के विशाल वृषारोहण की कथा गत दिवस व्रत के वृत्तान्त में सुनी थी, क्या वह महादेव वास्तव में यही है? इस प्रकार मैं चिन्ता से विचलित चित्त हो उठा। मैंने सोचा भी यदि यथार्थ में ये वही प्रबल, प्रतापी, दुर्दान्तदैत्यदलनकारी महादेव हैं तो अपने शरीर पर से इन थोड़े-से चूहों को क्यों विताड़ित नहीं कर सकते? इस प्रकार बहुत देर तक चिन्ता स्रोत में पड़कर मेरा मस्तिष्क घूमने लगा। मैं आप ही अपने से पूछने लगा कि जो चलते-फिरते हैं, खाते-पीते हैं, हाथ में त्रिशूल धारण करते हैं, डमरु बजाते हैं और मनुष्यों को श्राप दे सकते हैं, क्या यह वही वृषारूढ़ देवता हैं जो मेरे सामने उपस्थित हैं?’’ इस घटना के बाद बालक मूलशंकर ने पिता को जगाकर अपनी शंकाओं का समाधान कराना चाहा, सन्तोषजनक उत्तर न मिलने पर घर आकर व्रत तोड़ दिया और भोजन करके सो गया। हम देखते हैं कि यह बालक जीवन भर मूर्तिपूजा के पाखण्ड को खण्डित करता रहा। इसकी निरर्थकता बताने में जिस योग्यता और साहस को हम देखते हैं, वह उल्लेखनीय है। महर्षि दयानन्द के सामने उदयपुर के भगवान् एकलिंग की गद्दी का प्रस्ताव था, शर्त केवल एक थी- मूर्तिपूजा खण्डन छोड़ना, परन्तु महर्षि दयानन्द का उत्तर था- ‘‘मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ति करूँ अथवा ईश्वरीय आज्ञा का पालन करूँ?’’ (भारत में मूर्ति पूजा, पृ. १६२)

महर्षि दयानन्द ने मूर्ति पूजा के खण्डन में कभी कोई समझौता नहीं किया। इस पर पादरी के. जे. लूकस ने जो विचार दिये हैं, वे ध्यातव्य हैं। उक्त पादरी ने १८७७ में फर्रुखाबाद में मूर्ति पूजा के विषय में उनके व्याख्यान सुने थे, पादरी लूकस ने बतलाया- ‘‘वे मूर्तिपूजा के विरुद्ध इतने बल, इतने स्पष्ट और विश्वास के साथ बोलते थे कि मुझे फर्रुखाबाद की जनता की ओर से उनका हार्दिक स्वागत किये जाने पर आश्चर्य हुआ। मुझे उनका यह कथन स्मरण है कि जब मैंने उनसे कहा कि यदि आपको तोप के मुँह पर रखकर कहा जाए कि यदि तुम मूर्ति को मस्तक न झुकाओगे तो तुम को तोप से उड़ा दिया जायेगा, तो आप क्या कहेंगे? स्वामी जी ने उत्तर दिया कि ‘मैं कहूँगा कि उड़ा दो’ दयानन्द इतने निर्भीक थे।’’

(भारत में मूर्तिपूजा पृ. १६८)

महर्षि दयानन्द का मूर्तिपूजा खण्डन एक आग्रह मात्र नहीं था। उन्होंने मूर्तिपूजा की निरर्थकता सिद्ध करने में दार्शनिक, आर्थिक, सामाजिक-सभी पक्षों पर गहरा विचार किया है। जो लोग ईश्वर उपासना में मूर्तिपूजा को सहायक समझते हैं, उनके तर्कों का प्रबल तर्कों से खण्डन किया है।

‘‘प्रश्न- साकार में मन स्थिर होना और निराकार में स्थिर होना कठिन है, इसलिए मूर्तिपूजा करनी चाहिए।

उत्तर- साकार में मन स्थिर कभी नहीं हो सकता, क्योंकि उसको मन झट ग्रहण करके उसी के एक-एक अवयव में घूमता और दूसरे में दौड़ जाता है और निराकार परमात्मा के ग्रहण में मन अत्यन्त दौड़ता है तो भी अन्त नहीं पाता। निरवयव होने से चञ्चल भी नहीं रहता, किन्तु उसी के गुण-कर्म-स्वभाव का विचार करता-करता आनन्द में मग्न होकर स्थिर हो जाता है और जो साकार में स्थिर होता तो सब जगत् का मन स्थिर हो जाता, क्योंकि जगत् में मनुष्य स्त्री, पुत्र, धन, मित्र आदि साकार में फँसा रहता है, परन्तु किसी का मन स्थिर नहीं होता, जब तक निराकार में न लगावें, क्योंकि निरवयव होने से उसमें मन स्थिर हो जाता है। इसलिए मूर्तिपूजा करना अधर्म है।’’

शेष भाग अगले अंक में…..

– डॉ. धर्मवीर

‘क्या इस सृष्टि को बनाने वाला कोई ईश्वर है?’

ओ३म्

क्या इस सृष्टि को बनाने वाला कोई ईश्वर है?’

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

क्या वस्तुतः ईश्वर है? यह प्रश्न वेद और वैदिक साहित्य से अपरिचित प्रायः सभी मनुष्यों के मन व मस्तिष्क में यदा कदा अवश्य उत्पन्न हुआ होगा। संसार में अपौरुषेय कार्यों, सूर्य सहित समस्त ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, उसके संचालन, मनुष्य आदि प्राणियों की उत्पत्ति सहित कर्मफल व्यवस्था व सुख-दुःख आदि को देखकर ईश्वर का ज्ञान होता है। इसके साथ ही संसार में अधर्म करते हुए लोगों व उनकी सुख-सुविधाओं, ठाठ-बाट आदि को देखकर ईश्वर के अस्तित्व के प्रति संशय भी हो जाता है। परीक्षा की घड़ियों अर्थात् दुःख व विपरीत परिस्थितियों में बहुत से लोगों का ईश्वर के प्रति विश्वास प्रायः डोल जाता है। इसका कारण यह होता है कि उनके ईश्वर सम्बन्धी विचारों का आधार परम्परागत मान्यतायें हुआ करती हैं। संशय को प्राप्त मनुष्य की ईश्वर में आस्था व विश्वास का कोई ठोस, तार्किक व ऊहापोह युक्त आधार नहीं होता। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि मनुष्य जब पूर्ण स्वस्थ व सुखी हो तब उसे अपनी व अन्य मनुष्यों की विपरीत परिस्थितियों के कारणों पर विचार करना चाहिये और उसमें ईश्वर की क्या भूमिका हो सकती है, उनका अनुमान कर उन परिस्थितियों को अपने जीवन से दूर करने का हर संभव प्रयास करना चाहिये। इससे भावी समय में जीवन में विपरीत परिस्थितियों के आने पर उसे उसके पीछे के कारणों का ज्ञान हो जायेगा और वह साधारण व अज्ञानी मनुष्यों के समान ईश्वर को कोसने के स्थान पर विपरीत परिस्थितियों को सुधारने का प्रयास करेगा और साथ ही ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना कर उसकी सहायता भी प्राप्त कर सकेगा।

 

हम सामान्य जनों को यह भी विचार करना चाहिये कि यदि ईश्वर अन्य भौतिक पदार्थों के समान एक स्थूल पदार्थ होता अथवा वह अन्य शरीरधारियों के समान कोई शरीरधारी होता तो वह हमें आंखों से अवश्य दिखाई देता, ठीक वैसे ही जैसा कि हम संसार की अन्य वस्तुओं को देखकर उनका विश्वास कर लेते हैं। आंखों से दिखाई देने वाली वस्तुओं के प्रति हमें कोई संशय नहीं होता। संसार में कोई मनुष्य यह दावा नहीं करता कि उसने अपनी आंखों से ईश्वर को देखा है? न किसी ने पूर्व में कभी किया, न वर्तमान में करता है और न भविष्य में ही करेगा। इसमें सभी योगी, वेदाचार्य, सभी मताचार्य, ज्ञानी व वैज्ञानिक आदि भी सम्मिलित हैं। ईश्ववर के दिखाई न देने से सिद्ध होता है कि ईश्वर हमारी तरह से शरीरधारी कोई सत्ता नहीं है। अतः ईश्वर शरीरधारी नहीं, यह हमने जान लिया। अब यह देखना है कि ऐसे कौन कौन सी पदार्थ हैं जिनका अस्तित्व है परन्तु वह दिखाई नहीं देते। ऐसे पदार्थों में आकाश आता है। आकाश खाली स्थान होता है, परन्न्तु वह दिखाई नहीं देता। अब क्या यह मान सकते हैं कि आकाश है ही नहीं? ऐसा नहीं मान सकते क्योंकि यदि ऐसा मानेंगे तो भी खाली स्थान तो रहेगा ही। उसी मे तो हम व संसार की सभी वस्तुएं विद्यमान है। आकाश के सन्दर्भ में उसका होकर भी दिखाई न देने का एक कारण उसका न होना ही होता है।

 

वायु पर भी चर्चा कर लेते हैं। हम वायु को आंखों से नहीं देख पाते। सर्दी व गर्मी का अनुभव हमें वायु की उपस्थिति का ज्ञान कराता है। विज्ञान भी वायु को मानता है। जब वायु तेजी से आंधी के रूप में चलता है तो वृक्षों के पत्तों व उसकी शाखाओं को वायु की गति के कारण तेजी से हिलते-डुलते हुए पातें है जो वायु होने व उसकी तेज गति का प्रमाण है। हम आंखों से देखने का कार्य लेते हैं। जिस ओर हमारा मुख होगा, उसी ओर की वस्तुएं हम देख पाते हैं। विपरीत दिशाओं की वस्तुएं मुख्यतः पीछे की वस्तुएं होकर भी हम नहीं देख पातें। इससे यह भी ज्ञात होता है कि आंखों का वस्तु की ओर होना आवश्यक है तभी वह वस्तु देखी जा सकेगी। यह तो भौतिक वस्तुओं के विषय की बातें हैं। अब हम अपने बारे में विचार करते हैं। हम और हमारा अस्तित्व असंदिग्ध है। हम क्या हैं? क्या यह शरीर ही हम हैं? क्या शरीर ही देखता, बोलता, सुनता, स्पर्श करता है या इससे भिन्न शरीर के अन्दर किसी अन्य पदार्थ की सत्ता विद्यमान है। मैं मनमोहन हूं, क्या यह मेरा शरीर व उसमें मुंह नामक इन्द्रिय अपने आप बोलता है या कोई उसे बोलने के लिए प्रेरित करता है। यदि अपने आप नहीं बोलता तो मुंह जो कुछ बोलता है, वह उसे कौन बोलने के लिए कहता है। यदि शरीर से भिन्न बोलने, सुनने, देखने, सूंघने व स्पर्श करने वाली पृथक सत्ता न होती तो सब एक जैसी बातें करते, एक जैसा देखते, एक कहता यह अच्छा है तो सभी वही बातें स्वीकार करते, परस्पर मत भिन्नता न होती क्योंकि जड़ पदार्थों में जो गुण होते हैं वह सर्वत्र एक समान व एक जैसे ही होते हैं। अग्नि, वायु, जल, पृथिवी व आकाश का गुण सर्वत्र एक जैसा है। अतः यह सिद्ध होता है कि सभी के शरीर में एक जीवात्मा नाम का चेतन तत्व व पदार्थ है जो सबमें भिन्न भिन्न है। वही मन के द्वारा मुंह को प्रेरणा कर इच्छित बातें बुलवाता है। इसी प्रकार जीवात्मा ही मन के द्वारा अन्य अन्य इन्द्रियों से अपनी इच्छानुसार कार्य कराता है व उनसे उनके विषय यथा, आंख से रूप, कान से शब्द, नाक से गन्ध व जिह्वा से रस व त्वचा से स्पर्श का ग्रहण करता है और इनके अनुभवों से सुखी व दुःखी होता है।

 

इस चिन्तन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि शरीर व इसकी इन्द्रियां साधन है शरीरस्थ एक चेतन सत्ता के जो इसे अपनी क्रियाओं से सुख व दुःख की अनुभूति कराते हैं। उसी की प्रेरणा से शरीर व उसके अंग, इन्द्रियां आदि किसी विषय से संयुक्त होकर उसका ज्ञान जीवात्मा को कराते हैं। यह जीवात्मा हमारे व अन्यों के शरीर में होता है तो शरीर क्रियाशील रहते हुए अपने कार्यों को करता है। इसके न रहने पर शरीर क्रियाशून्य हो जाता है जिसे मृत्यु कहते हैं और तब यह शरीर किसी काम का न रहने पर इसका दाह संस्कार व अन्त्येष्टि कर दी जाती है। शरीर से पृथक होने वाली आत्मा का मृतक के साथ रहने वालों को पता ही नहीं चलता कि वह इससे पृथक होकर कहां गया? उसकी बाहर निकलने व बाहर निकल कर अन्यत्र जाने के पीछे किसकी प्रेरणा, शक्ति व बल कार्य कर रहा है? यह ज्ञान बहुत कम को होता है। यह विचार व चिन्तन का विषय है और इसका उत्तर मिलता है कि प्राणों का बन्द होना व जीवात्मा व प्राणों का शरीर से निकलना तथा शरीर का चेतना शून्य होना एक अदृश्य सत्तावान ईश्वर के कारण ही होता है। यदि ईश्वर न होता तो फिर न यह जीवात्मा जन्म के समय व उससे कुछ काल पूर्व शरीर से संयुक्त होती और न कभी इसकी मृत्यु अर्थात् शरीर से पृथक होने की स्थिति आती। यह कार्य ही ईश्वर करता है अतः ईश्वर सदा, सर्वत्र अपने स्वरुप व सत्ता के साथ विद्यमान रहता है।

 

मनुष्य अल्पज्ञ होता है। अतः इसे अपनी ज्ञान वृद्धि हेतु चिन्तन मनन करने के साथ ईश्वर से संबंधित ज्ञानी व अनुभवी विद्वानों के ग्रन्थों का अध्ययन भी करना चाहिये। इसमें हमारे वेद प्रथम स्थान पर आते हैं जो ईश्वर प्रदत्त हैं। वेदों के पढ़ने वा जानने के इस लिए इसके संस्कृत, हिन्दी व अंग्रेजी आदि भाषाओं के भाष्य उपलब्ध है। इनके साथ दर्शन, उपनिषदें, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों का अध्ययन भी करना चाहिये। योगदर्शन का अपना अलग ही महत्व है। यह ईश्वर के पास जाने व उसका प्रत्यक्ष करने का क्रियात्मक ज्ञान है। योगदर्शन में ईश्वर प्राप्ति के साधनों की जानकारी सहित प्रत्येक छोटी से छोटी बात पर भी गहन व सारगर्भित समाधान अध्येता को प्राप्त होते हैं। यदि ईश्वर का जिज्ञासु इन सभी ग्रन्थों को पढ़़ लेगा तो उसकी सभी शंकायें दूर हो सकती हैं। वह कभी नास्तिकता के विचारों को अपने मन व हृदय में स्थान नहीं देगा। उसे अपने कर्तव्य का बोध भी हो जायेगा और योगदर्शन वर्णित साधनों का उपयोग कर कालान्तर में आध्यात्मिक साधना में प्रगति प्राप्त कर सकता है।

 

एक प्यासे मनुष्य को अपनी पिपासा दूर करने के लिए जल चाहिये। कुआं खोदना उसे अभीष्ट नही होता। महर्षि दयानन्द ने इस तथ्य को सामने रखकर चार वेद, दशर्न, उपनिषद, स्मृति आदि ग्रन्थों का मन्थन कर ईश्वर विषयक ज्ञान वा ईश्वर के गुणों का आर्यसमाज के नियमों व अपनी मान्यताओं स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश में उल्लेख किया है। आर्यसमाज के दूसरे नियम में वह लिखते हैं कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य पवित्र और सृष्टिकर्त्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। सत्यार्थप्रकाश के स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश प्रकरण में वह लिखते हैं कि ईश्वर कि जिस के ब्रह्म परमात्मादि नाम है, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिस के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं। जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हूं। योगदर्शन के अनुसार ईश्वर वह है जो क्लेश, कर्म व उसके कर्मफल से रहित पुरूष विशेष है। वेदों में आता है कि ईश्वर हमें हमारे प्राणों से भी प्रिय, दुःखों से रहित व दुःख दूर करने वाला, सुखस्वरूप व जीवों को उनके कर्मानुसार सुख-दुःख देने वाला, सर्वतोमहान, सबका उत्पादक, संसार की उत्पत्ति स्थिति व प्रलयकर्त्ता, सत्यस्वरूप, ज्ञानस्वरूप व प्रकाशस्वरूप है। सत्यार्थप्रकाश आदि का अध्ययन कर ईश्वर के अनन्त गुणों में से अन्य अनेक आवश्यक गुणों को जाना जा सकता है और इनके द्वारा ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना कर जीवन को दुःखों से रहित बनाकर उसे मोक्ष की प्राप्ति के मार्ग में अग्रसर किया जा सकता है। ईश्वर स्तुति, प्रार्थना व उपासना की विधि जानने व उसका सफल क्रियात्मक अभ्यास कर जीवन को सफल करने हेतु ऋषि दयानन्द की पंच-महायज्ञ विधि सर्वोत्तम पुस्तक है।

 

हम आशा करते हैं कि पाठक जान गये होंगे कि ईश्वर नाम की सच्ची सत्ता है और उसके गुण, कर्म व स्वभाव सभी शुद्ध व पवित्र हैं जिनके स्मरण करने व अपना आचरण सुधारने से दुःखों की निवृत्ति कर सुखी हुआ जा सकता है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

 –मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

पुस्तक – परिचय पुस्तक – जिज्ञासा समाधान

पुस्तक – परिचय

पुस्तक – जिज्ञासा समाधान

लेखक आचार्य सत्यजित्

प्रकाशक वैदिक पुस्तकालय, दयानन्द आश्रम,

केसरगंज, अजमेर (राज.)

पृष्ठ ३१८            मूल्य – १०० रू. मात्र

जिज्ञासा पैदा होना मनुष्य की विचारशीलता का द्योतक है, जब व्यक्ति किसी विषय पर विचार करता है तब उस विषय में जो शंका उत्पन्न होती है, उस शंका का निवारण करने के लिए अपनी शंका को रखना, पूछना जिज्ञासा है, जानने की इच्छा है। जब व्यक्ति विचार शून्य होता है, अथवा जैसा जीवन चल रहा उसी से संतुष्ट है, तब व्यक्ति के अन्दर कुछ विशेष जानने की इच्छा नहीं रहती है। किन्तु विचारशील मनुष्य अवश्य जानने की इच्छा रखता है।

संसार को देख व्यक्ति इसकी विचित्रता के विषय में विचार करता है, इसके आदि-अन्त के विषय में सोचता है, यह अद्भुत संसार कैसे बना, किसने बनाया आदि, जिज्ञासा पैदा होती है। अपने आप को देख जिज्ञासाएं उभरने लगती हैं, मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, किसने मुझे इस शरीर में प्रवेश कराया है, क्यों कराया है आदि-आदि जिज्ञाएं मनुष्य मन में पैदा होती हैं। हमें दुःख क्यों होता है, दुःख का कारण क्या है, कर्म फल कौन देता है, ईश्वर है या नहीं, ईश्वर का स्वरूप कैसा है, क्या उसी ने संसार बनाया अथवा अपने आप बन गया ये सब जिज्ञाएं विचारशील मनुष्यों के अन्दर उत्पन्न होती रहती हैं। इन जिज्ञासाओं को शान्त कर व्यक्ति सन्तोष की अनुभूति करता है, अपने में ज्ञान की वृद्धि को अनुभव करता है।

जिज्ञासा समाधान की परम्परा वैदिक धर्मियों में विशेषकर पायी जाती है। आर्य समाज में जिज्ञासा समाधान का क्रम महर्षि दयानन्द के जीवन काल से लेकर आज पर्यन्त चला आ रहा है। परोपकारिणी सभा का मुख पत्र ‘परोपकारी’ पत्रिका इस कार्य को विशेष रूप से कर रही है। परोपकारी पत्रिका के अन्दर जिज्ञासा समाधान नामक स्तम्भ, वैदिक सिद्धान्तों में निष्णान्त, जिज्ञासा का समाधान करने मे सिद्धहस्त, वैदिक दर्शनों उपनिषदों व व्याकरण विद्या के धनी, उच्च आदर्शों को सामने रखकर चलने वाले, ऋषि के प्रति निष्ठावान् श्रद्धेय आचार्य सत्यजित् जी ने प्रारम्भ किया। इस स्तम्भ के प्रारम्भ होने से आर्य जिज्ञासुओं की जिज्ञासा शान्त होने लगी। जिज्ञासुओं ने सृष्टि विषय, पुनर्जन्म, ईश्वर, कर्मफल, आत्मा, यज्ञ, वृक्षों में जीव है या नहीं, मुक्ति विषय, वेद विषय आदि पर अनेकों जिज्ञासाएँ की जिनका समाधान आदणीय आचार्य सत्यजित् जी ने युक्ति तर्क व शास्त्रानुकूल किया।

परोपकारी में आये ये जिज्ञासा समाधान रूप लेखों को एकत्र कर पुस्तकाकार कर दिया है, जो कि जिज्ञासु पाठकों के लिए प्रसन्नता का विषय है। इस पुस्तक में ७६ विषय दिये गये हैं, जिनका समाधान पुस्तक में पाठक पायेंगे। समाधान सिद्धान्त निष्ठ होते हुए रोचक हैं, पाठक पढ़ना आरम्भ कर उसको पूरा करके ही हटे ऐसे समाधान पुस्तक के अन्दर हैं।

विद्वान् आचार्य लेखक ने अपने मनोभाव इस पुस्तक की भूमिका में प्रकट किये, ‘‘मानव स्वभाव से अधिक जिज्ञासु है। बाल्यावस्था की जिज्ञासा देखते ही बनती है। आयु के साथ मात्र जीवन जीने के विषयों तक जिज्ञासा सीमित नहीं रहती, वह भूत व भविष्य पर अधिक केन्द्रित होने लगती है, वह भौतिक वस्तुओं से आगे बढ़कर सूक्ष्म-अभौतिक, आध्यात्मिक विषयों पर होने लगती है। जिज्ञासा को उचित उपचार न मिले तो वह निराश करती है, जिज्ञासा भाव समाप्त होने लगता है। वैदिक धर्म में जिज्ञासा करने व उसका समाधान करने की परम्परा सदा बनाये रखी गई है। महर्षि दयानन्द व आर्य समाज ने इसका सदा पोषण किया है, इसे प्रोत्साहित यिा है।’’

यह पुस्तक केवल आर्य समाज के लिए ही नहीं अपितु प्रत्येक विचार वाले जिज्ञासा का समाधान अवश्य मिलेगा। पुस्तक साधारण पाठक से लेकर विद्वानों तक का ज्ञान पोषण करने वाली है। इसको जितना एक साधारण पाठक पढ़कर तृप्ति की अनुभूति करेगा, उतना ही एक विद्वान् भी इसका रसास्वादन कर तृप्ति की अनुभूति करेगा। हाँ इतना अवश्य है जिन किन्हीं ने किसी विषय पर अपनी कोई धारणा विशेष बना रखी है और इस पुस्तक में उनकी धारणा के अनुसार बात न मिलने पर निराशा अवश्य हो सकती है। इसलिए यदि व्यक्ति अपनी धारणा को एक ओर रख ऋषियों की धारणा व युक्ति तर्क के आधार पर इसका पठन करेगा तो वह भी सन्तोष प्राप्त करेगा, ऐसा मेरा मत है।

सुन्दर आवरण को लिए, अच्छे कागज व छपाई से युक्त यह पुस्तक प्रत्येक जिज्ञासु को पढ़ने योग्य है। सिद्धान्त को जानने की इच्छा वाले पाठक इस पुस्तक को प्राप्त कर अपनी जिज्ञासा का समाधान पाकर अवश्य ही लेखक का धन्यवाद करेंगे, इस आशा के साथ-

– आचार्य सोमदेव, पुष्कर मार्ग, ऋषि उद्यान, अजमेर।

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-३२

इदं तदक्रिदेवा असपत्ना किलाभुवम्

हम शत्रुता करने को अपना स्वभाव समझते हैं। शत्रुता हमारे जीवन की बाधा है, रुकावट है। शत्रु तो रोकता है, परन्तु शत्रुता का भाव मनुष्य के आन्तरिक गुणों में ह्रास उत्पन्न करता है। इसे दूर करने के लिये मनुष्य को शत्रुता के भाव को भी पराजित करना पड़ता है। इसके लिये व्यक्ति को अपने अन्दर दिव्य भाव उत्पन्न करने पड़ते हैं, दिव्य भाव के बिना मनुष्य शत्रुता के भावों को दूर नहीं कर पाता। इस मन्त्र के शब्द कह रहे हैं- असपत्ना किला भुवम्। मैं शत्रु मठों से रहित हो गई हूँ। इन शत्रुओं से रहित होने के क्रम में मैंने अपने अन्दर की शत्रुता भी समाप्त कर दी है, शत्रु का समाप्त करना, क्रिया का बाहरी प्रभाव है, परन्तु शत्रुता समाप्त करना अन्दर की विजय का परिणाम है।

मनुष्य बाहर के शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते समय वह केवल बाहर ही युद्ध नहीं कर रहा होता है, अपितु उसे अपने अन्दर शत्रु के लिये क्रोध उत्पन्न करना पड़ता है, वीरता का भाव उत्पन्न करना पड़ता है, सामने शत्रु को देखकर उसे भयभीत करने के लिये उसे काल के समान साक्षात् विकराल बनना पड़ता है। बाहर के शत्रु को तो हम पराजित कर लेते हैं, परन्तु शत्रुता के भाव को पराजित करना, उसे निकालना, देवों की सहायता के बिना नहीं होता। जब हम देवों की सहायता लेते हैं, अपने अन्दर दिव्य भाव उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं, तब हमारे अन्दर से शत्रुता का भाव समाप्त होता है।

परमेश्वर सभी शत्रुओं को समाप्त कर देता है, परन्तु उसके अन्दर कभी शत्रुता का भाव नहीं आता, इसका कारण है- उसका भाव क्रोध का भाव नहीं है, उसका भाव मन्यु का भाव है। मन्यु क्रोध से भिन्न जैसे माता अपने शिशु पर अपने बालक पर क्रोध करती है, परन्तु वह क्रोध द्वेष मूलक नहीं होता, द्वेष मूलक क्रोध में शत्रुता का भाव होता है, जब की मन्यु माता का गुरु का क्रोध है। इसीलिये हम उसे सहनशील कहते हैं, सहोदगीन कहते हैं, सहनशीलता में विरोध को, शत्रुता को सहन करना आता है। सहनशीलता शत्रुता में जो अन्तर है, वह सामर्थ्य का अन्तर है। सहन करने वाले या विरोध या शत्रुता करने वाले के सामर्थ्य को कम देखता है, उसकी परवाह करने योग्य भी नहीं समझता। उसे कभी अनुकूल करने योग्य मानता है। जबकि विरोध शत्रु को सीमा का उल्लंघन करने से रोकने का प्रयास है। उसके सामर्थ्य को अधिक बढ़ने से रोकना चाहता है। मनुष्य को अधिक सामर्थ्य के लिये परमेश्वर की सहायता की आवश्यकता होती है। शत्रु पर विजय पाकर शत्रुता के भाव को भी हृदय से निकालने के लिये देवों की दिव्यशक्ति की आवश्यकता होती है। अन्यथा शत्रुओं पर विजय का अहंकार मन से शत्रुता के भाव को निकलने नहीं देता। केनोपनिषद् में कथा आती है- देवताओं ने देवासुर संग्राम में अपनी विजय को अपना सामर्थ्य और अपनी महत्ता समझ लिया। ईश्वर ने समझाया- यह देवत्व से दूर होने का मार्ग है। देवत्व का मार्ग तो उस परमेश्वर की शक्ति को स्वीकार करना है, हमें उस सर्वशक्तिमान को अनुभव करना चाहिये। संसार की शक्तियाँ उसी दिव्य शक्ति से कार्य करती है। देवताओं ने अपरीचित यक्ष को जानने के लिये अग्नि देवता को यक्ष के पास भेजा था, यक्ष ने पूछा- तुम कौन हो? अग्नि ने कहा- मैं अग्नि और जातवेदा हूँ। मेरे में संसार की समस्त वस्तुओं को जलाकर भस्म करने की शक्ति है। यक्ष ने उसके सामने एक तिनका रखकर कहा- इसको जला दो। अग्नि अपने पूरे सामर्थ्य से भी जला न सका। देवताओं ने वायु को कहा, वायु यक्ष के पास पहुँचा। यक्ष ने पूछा- तुम्हारा क्या सामर्थ्य है? वायु ने कहा- जो कुछ इस संसार में है, मैं उसे उड़ा सकता हूँ। यक्ष ने तिनका उसके सामने रखा, उस तिनके को वायु पूरे सामर्थ्य से भी नहीं उड़ा सका। तब आत्मा ने यक्ष को जानने-समझाने का प्रयास किया। बुद्धि से समझ में आया- संसार के सारे सामर्थ्य उस परमेश्वर के हैं, उसके बिना संसार का सामर्थ्य कुछ काम नहीं आता। अतः इस मन्त्र में कहा गया है- देवताओं ने यह सामर्थ्य मुझे दिया है कि मेरे शत्रु और मेरे अन्दर की शत्रुता समाप्त हो गई।

महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के १२ वें समुल्लास में चारवाक, बौद्ध और जैन मत की समीक्षा की है। वहाँ चारवाक मत के जिन श्लोकों को उद्धृत किया है, उनमें से एक है- त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भण्डधूर्त्त निशाचराः। जर्भरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम्।। अर्थात् वेद के बनाने वाले भाँड, धूर्त और निशाचर अर्थात् राक्षस-ये तीन हैं। जर्भरी तुर्फरी इत्यादि पण्डितों के धूर्तता युक्त वचन हैं। इसकी समीक्षा में ऋषि लिखते हैं, ‘‘हाँ! भाँड धूर्त निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए हैं, उनकी धूर्तता है, वेदों की नहीं…..।’’ यहाँ तक तो बात समझ में आती हैं। आगे चारवाक इसी श्लोक में जर्भरी तुर्फरी को पण्डितों के धूर्तता युक्त वचन कह रहा है। जर्भरी तुर्फरी पर ऋषि जी ने पक्ष अथवा विपक्ष में कुछ नहीं लिखा। मुझे भी समझ नहीं पड़ रहा है कि यह जर्भरी तुर्फरी क्या बला है। कृपया, स्पष्ट करने का कष्ट करें कि यह क्या होती है? चारवाक ने उनका खण्डन किस दृष्टि से किया है और उस पर आर्ष मत क्या हो सकता है?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासाआचार्य सोमदेव जी! सादर नमस्ते!

महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के १२ वें समुल्लास में चारवाक, बौद्ध और जैन मत की समीक्षा की है। वहाँ चारवाक मत के जिन श्लोकों को उद्धृत किया है, उनमें से एक है-

त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भण्डधूर्त्त निशाचराः।

जर्भरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम्।।

अर्थात् वेद के बनाने वाले भाँड, धूर्त और निशाचर अर्थात् राक्षस-ये तीन हैं। जर्भरी तुर्फरी इत्यादि पण्डितों के धूर्तता युक्त वचन हैं।

इसकी समीक्षा में ऋषि लिखते हैं, ‘‘हाँ! भाँड धूर्त निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए हैं, उनकी धूर्तता है, वेदों की नहीं…..।’’ यहाँ तक तो बात समझ में आती हैं। आगे चारवाक इसी श्लोक में जर्भरी तुर्फरी को पण्डितों के धूर्तता युक्त वचन कह रहा है। जर्भरी तुर्फरी पर ऋषि जी ने पक्ष अथवा विपक्ष में कुछ नहीं लिखा। मुझे भी समझ नहीं पड़ रहा है कि यह जर्भरी तुर्फरी क्या बला है। कृपया, स्पष्ट करने का कष्ट करें कि यह क्या होती है? चारवाक ने उनका खण्डन किस दृष्टि से किया है और उस पर आर्ष मत क्या हो सकता है?

– जगदीश प्रसाद हरित, गिरदौड़ा, नीमच, म.प्र.

समाधान– आर्यो के आलस्य प्रमाद के कारण वेद मत न्यून होता चला गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि आर्यावर्त्त देश में अनेक-अनेक वेद विरुद्ध मत चल पड़े, जिनमें से चारवाक का वाममार्ग भी एक मत है। चारवाक एक वेद विरोधी नास्तिक व्यक्ति हुआ है। वह ईश्वर, जीव आदि को नहीं मानता था, पूर्वजन्म को नहीं मानता, इसी कारण उसने ऐसी बातें कहीं-

न स्वर्गो नाऽपवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः।

नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः।।    (१)

यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋण कृत्वा घृतं पिबेत्।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनम् कुतः।।         (२)

अर्थात् न कोई स्वर्ग है, न कोई नरक है, न कोई परलोक में जाने वाली आत्मा है और न वर्णाश्रम की क्रिया फलदायक है, इसलिए जब तक जीवे, तब तक सुख से जीवे । जो घर में पदार्थ न हो तो ऋण लेके आनन्द करे, ऋण देना नहीं पड़ेगा, क्योंकि जिस शरीर से खाया-पीया है, उसका पुनरागमन न होगा। फिर किससे कौन माँगेगा और कौन किसको देगा? इस प्रकार की बातें चारवाक ने समाज में फैलाई, जिससे वेदमत की हानि हुई। चारवाक के वेद की निंदा से जुड़े जिस श्लोक को आपने जिज्ञासा समाधानार्थ दिया है वह है-

त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भण्डधूर्त्त निशाचराः।

जर्भरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम्।।

अर्र्थात् नास्तिक चारवाक कहता है-‘‘वेद के बनाने वाले भाँड, धूर्त्त और निशाचर अर्थात् राक्षस-ये तीन हैं। ‘जर्भरी’ ‘तुर्फरी’ इत्यादि पण्डितों के धूर्त्ततायुक्त वचन हैं।’’

इस पर महर्षि दयानन्द समीक्षा देते हुए ‘‘जर्भरी तुर्फरी’’ युक्त मन्त्र का अर्थ व भावार्थ और इन शब्दों की निष्पत्ति लिखते हैं।

महर्षि की समीक्षा-‘‘अब देखिए चारवाक आदि ने वेदादि सत्यशास्त्र देखे, सुने वा पढ़े होते तो वेदों की निन्दा कभी न करते कि ‘‘वेद भाँड, धूर्त्त और निशाचरवत् पुरुष ने बनाए हैं।’’ ऐसा वचन कभी न निकालते। हाँ भाँड, धूर्त्त, निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए हैं, उनकी धूर्त्तता है, वेदों की नहीं, परन्तु शोक है चारवाक, आभाणक, बौद्ध और जैनियों पर कि इन्होंने मूल चार वेदों की संहिताओं को भी न सुना, न देखा और न किसी विद्वान् से पढ़ा, इसलिए नष्ट-भ्रष्ट बुद्धि होकर ऊटपटाँग वेदों की निन्दा करने लगे। दुष्ट वाममार्गियों की प्रमाण शून्य कपोल कल्पित भ्रष्ट टीकाओं को देखकर वेदों से विरोधी होकर अविद्या रूपी अगाध समुद्र में जा गिरे।’’

महर्षि ने यहाँ वेदों के टीकाकार महीधर जैसे को दोषी बताया है, जो कि पवित्र वेद ज्ञान का अर्थ अत्यन्त घृणित करके चला गया । महर्षि की यहाँ यह मान्यता  भी रही है कि यदि चारवाक आदि पक्षपात रहित हो वेदों की मूल संहिताओं को देखते पढ़ते तो कदापि वेदों के विषय में विपरीत बात न कहते।

अब ‘‘जर्भरी तुर्फरी’’ के विषय में लिखते हैं- इन शब्दों से युक्त मन्त्र इस प्रकार है-

सृण्येव जर्भरी तुर्फरीतू नैतोशेव तुर्फरी पर्फरीका।

उदन्यजेव जेमना मदेरुता मे जरारवजरं मरायु।।

– ऋ. १०.१०६.६

इस मन्त्र का अर्थ और इसके विषय में निरुक्त भाष्यकार श्री चन्द्रमणि विद्यालंकार जी ने जो लिखा है वह यहाँ लिखते हैं-

(सृण्या इव जर्भरी तुर्फरीतू) हे द्यावा पृथिवी के स्वामी जगदीश्वर! तू दात्री की तरह भर्त्ता और हन्ता है, (नैतोशा इव तुर्फरी पर्फरीका) तू शत्रुहन्ता राजकुमार की तरह दुष्टों को शीघ्र नष्ट करनेवाला और उन्हें फाड़ने वाला है, (उदन्यजा इव जेमना मदेरु) और तू चन्द्रमस अथवा समुद्र रत्न की तरह मन को जीतने वाला अर्थात् अपनी ओर खींचनेवाला तथा प्रसन्नताप्रद है। (ता मे मरायु जरायु) हे अश्वी! वह तू मेरे मरणधर्मा शरीर को (अजरम्) बुढ़ापे से रहित कर।

वेद का एक भी शब्द निरर्थक नहीं। जिनको वेद के शब्द निरर्थक व्यर्थ दिखते हैं, वे बाल बुद्धि हैं, जैसे चारवाक आदि नास्तिक लोग। इस मन्त्र में आये ‘जर्भरी’, ‘तुर्फरीतू’ आदि शब्दों के  विषय में आपने पूछा है, उनका अर्थ ऊपर मन्त्रार्थ में दे दिया है। जर्भरी का अर्थ है ‘भर्त्ता’ अर्थात् भरण-पोषण करने वाला। यह शब्द यङ्लुगन्त में ‘भृञ्’ धातु से ‘इ’ प्रत्यय करने से बनता है। और तुर्फरीतू का अर्थ है हन्ता, अर्थात् दुष्टों का हनन करने वाला। यह शब्द ‘तृफ’ हिंसायाम् धातु से ‘अरीतु’ प्रत्यय करने पर बनता है। इस प्रकार ये दोनों शब्द परमेश्वर के अर्थ वाचक हैं।

मन्त्र में ‘सृण्या इव’ कहा है, अर्थात् दात्री के तुल्य भरण-पोषण और हनन करने वाला है। दात्री दो तरह की होती है- भर्ती और हन्त्री अर्थात् वह दो काम करती है। चने आदि की खेती में पूर्वावस्था में शाक काटने से कृषि की वृद्धि होती है, परन्तु फसल पकने पर काटने से नष्ट हो जाती है। वह भरण तथा हनन दोनों काम करती है। इसी प्रकार परमेश्वर दोनों काम करता है-सज्जनों की रक्षा तथा दुर्जनों का नाश।

इस मन्त्र का अर्थ वेद भाष्यकार श्रीमान् हरिशरण सिद्धान्तालंकार जी इस प्रकार करते हैं- सृण्या इव= (द्विविधा सृणिर्भवति भर्ता च हन्ता च। नि. १३.५) अंकुश दो कार्य करता है, एक मत्तगज को अवस्थापित करने का और दूसरा अनिष्ट गातियों को रोकने का। इसी प्रकार ये पति-पत्नी जर्भरी= भरण करने वाले होते हैं और तुर्फरीतू= शत्रुओं के हन्ता होते हैं, वाञ्छनीय तत्त्वों का पोषण करने वाले और अवाञ्छनीयों को विनष्ट करने वाले हैं। नैतोषा इव= (नितोषयन्ति हन्ति) काम -क्रोध आदि शत्रुओं को विनष्ट करने वालों के समान तुर्फरी =(क्षिप्रहन्तारौ) शीघ्रता से शत्रुओं को विनष्ट करने वाले तथा पर्फरीका= (शत्रुणां विदारथितारौ) शत्रुओं को विदीर्ण करने वाले हैं, अथवा पात्र व्यक्तियों को धन से पूर्ण करने वाले हैं। (धनेन पूरथितारौ) उदन्यजा इव= (उदकजे इव रत्ने समुद्र्रे, नि. १३.५) समुद्रोत्पन्न कान्तियुक्त निर्मल रत्नों के समान जेमना= जयशील व मदेरु= सदा हर्षयुक्त। ऐसे पति-पत्नी जब माता-पिता बनते हैं तो ता= वे मे= मेरे जरायु= उस जरासे जीर्ण होनेवाले मरायु= मरणशील शरीर को अजरम्= अजीर्ण बनाते हैं, अर्थात् माता-पिता पूर्णरूपेण स्वस्थ शरीरवाले होते हैं तो सन्तान का भी शरीर शीघ्र जीर्ण व मृत हो जाने वाला नहीं होता।

इस प्रकार इस मन्त्र का विशेष अर्थ चारवाक आदि नास्तिक लोग न देखकर वेदों की निंदा में अपना जीवन नष्ट कर गये, और जो भी वेद को विपरीत भाव से देखेगा, उसका भी जीवन व्यर्थ ही जायेगा।

आपने ‘जर्भरी’ ‘तुर्फरीतू’ के विषय में पूछा कि ये क्या बला है, तो आपने इनके विशेष अर्थ देख लिए हैं कि ये बला नहीं, अपितु अपने अन्दर महान् अर्थ को लिए हुए हैं।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

 

लेखमाला की अन्तिम मणियाँ

लेखमाला की अन्तिम मणियाँ

– राजेन्द्र जिज्ञासु

‘परोपकारी’मासिक के संवत् १९६४ के अंकों में वेद विषय पर गोस्वामी घनश्याम जी मुलतान निवासी की एक महत्त्वपूर्ण लेखमाला प्रकाशित हुई थी। इस लेखमाला की अन्तिम मणियाँ हम खोज पाये हैं।

इस लेखमाला के लेखक गोस्वामी घनश्याम अपने समय के जाने-माने विद्वान् थे। आप आर्यसमाजी तो नहीं थे, परन्तु वेद के एवं ऋषि दयानन्द के बड़े भक्त थे। स्वामी वेदानन्द जी महाराज भी कुछ समय आपके पास मुलतान में पढ़े थे।

आपने काशी शास्त्रार्थ में हार-जीत के विषय में सन् १८७९ में पं. बालशास्त्री से पूछा कि आप ठीक-ठीक बताओ कि सन् १८६९ के प्रसिद्ध शास्त्रार्थ में आप जीते अथवा स्वामी दयानन्द? पं. बाल शास्त्री का उत्तर पं. लक्ष्मण जी रचित ऋषि-जीवन के पृष्ठ २८१-२८२ पर पाठक पढ़ें। बाल शास्त्री जी का कथन था कि हम कौन उस वीतराग योगनिष्ठ ब्रह्मचारी को पराजित करने वाले? गोस्वामी जी बाल शास्त्री के शिष्य थे।

गोस्वामी जी के मुख से सुने बाल शास्त्री के शब्द स्वामी वेदानन्द जी ने अपनी पठनीय पुस्तक ऋषि बोध कथा में दिये हैं। प्रकाशन से कई वर्ष पूर्व स्वामी वेदानन्दजी ने व्याख्यानमाला के रूप में यह सारी पुस्तक कादियाँ में सुनाई थी।

उस प्रकाण्ड वैदिक विद्वान् की ये वेद विषयक लेखमाला परोपकारी के पाठकों के सामने प्रस्तुत है।

पं. बाल शास्त्री अपने शिष्यों से प्रायः यह कहा करते थे, ‘‘सत्पथ पर चलना चाहो तो दयानन्द के बताये पथ पर चलो, वह पथ सत्य एवं निर्भ्रान्त है।’’

अंक ६   परोपकारी। अश्विन १९६४

वेद।

पहिले कहा गया है कि विद्, विद्लृ धातु से वेद शब्द बनता है, उसका अर्थ सत्ता, ज्ञान तथा लाभ है। वेद में उक्त तीनों  अर्थों में वेद व्यवहृत हुआ है और ब्राह्मणादि ग्रन्थों में ऋगादि चार पुस्तकों का नाम भी वेद कहा है। यहाँ अब प्रश्न होता है, धात्वर्थ के अनुसार चारों वेद में किसकी सत्ता, ज्ञान और लाभ का वर्णन है? इसके उत्तर को विचारने के लिये उस बात को प्रथम सम्मुख रखना है, जहाँ कहा है कि ऋगादि वेद त्रिकाण्ड अर्थात् कर्म, उपासना, ज्ञान के प्रतिपादक है, परन्तु आधुनिक महीधरादिकृत वेदार्थ पर जब दृष्टि जाती है तो यही कहना पड़ता है कि वेद में केवल कर्म का आदेश है और वह कर्म केवल अग्नि, इन्द्र, सूर्यादि कल्पित देवों के लिये उपदिष्ट है, इसलिये मिस्टर मैक्समूलर आदि साहब कहते थे कि वेदों में ईश्वर का वर्णन नहीं, किन्तु देवपूजा, मूर्ति पूजा और तत्कालीन कहावतें लिखी हैं।

इसका जब आलोचन करते हुए प्रथम उक्त त्रिकाण्ड अर्थात् कर्म उपासना ज्ञान ही सूचित कर रहे हैं कि उक्त वेदों में ईश्वर की उपासना और ज्ञान का उपदेश भी है, पुनः महीधरादि जो कर्मवादी थे, ज्ञान से विमुख थे, उनके पूर्वज स्वामी शंकराचार्य ने ईशोपनिषद् जो यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय है, उसको ईश्वरीय विषय में दर्शाया है। पुनः उन महीधरादि आधुनिक लोकों के अर्थ की क्या गणना है?

सर्वे वेदाः यत्पदामामनन्ति (कठो. २/१५) उपनिषद् कहते हैं कि परमात्मा पद का वर्णन करनेवाले सब वेद हैं फिर मनुजी लिखते हैं कि ‘‘वेदोऽखिलो धर्म्ममूलम्’’ (मनु. २/६) जितने धर्म हैं, वह सब वेद से प्रगट हुए हैं एवं महामुनि पतञ्जलि भी लिखते हैं कि ‘‘धर्म्मः वेदोऽध्ययः’’ (महाभाष्य १/१/१/१) वेद धर्म्म हैं, इन उपनिषद्, मनुस्मृति और महाभाष्य के प्रमाण से साफ है कि पुराकाल में वेद में ईश्वर धर्म्म आदि सब प्रभुता की विद्यता मानी जाती थी। पुनः यह क्योंकर मान्य हो कि वेद में ईश्वर का विषय नहीं केवल कर्म ही हैं, क्योंकि पूर्वोक्त प्रमाणों से साफ है कि वेद में ईश्वर का ज्ञानादि भी विद्यमान है। इसकी पुष्टि के लिये कतिपय आधुनिक पण्डितों के लेख से दिखलाया जाता है कि धात्वर्थ के अनुसर वेदार्थ में धर्म्म, अर्थ, काम, मोक्ष-चारों पदार्थों में धर्म्म की सत्ता, ज्ञान और लाभ का अर्थ लिया गया है-

‘‘विद्यन्ते ज्ञायन्ते लभ्यन्ते वा एभिर्धर्मादि पुरुषार्था इति वेदाः’’ बह्वृक् प्रातिशाख्यवृत्युपक्रमाणिका में विश्वामित्र लिखते हैं कि जिसने धर्म्म पुरुषार्थ जाने जाते, विदित होते वा प्राप्त होते हैं, उनका नाम वेद है। विद्ल् असुम्= विदल्लेतत् लभ्यतेवाऽनेन धर्म्मादि इति वेदाः। ऐसा निघण्टु टीकाकार ने लिखा है। इस प्रकार स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी भी वेद भाष्य भूमिका में लिखते हैं कि ‘‘विद् ज्ञाने, विद्सत्तायां, विद्लृ लाभे, विद् विचारणे, एतेभ्यो हलश्चेति सूत्रेण करणाधिकरणकारकयोर्घञ् प्रत्येये कृते वेदशब्दः साध्यते। विदन्ति, जानन्ति, विद्यन्ते, भवन्ति, विदन्ते, विन्दते,लभन्ते, विदन्ते, विचारयन्ति सर्वे मनुष्याः सर्वाः सत्यविद्याः यैर्र्र्येषुवा तथा विद्वांसश्व भवन्ति ते वेदाः’’ (वेद भाष्यम्) जिनमें सब सत्यविद्या हैं और जिनसे सब सत्यविद्या लोक जानते, प्राप्त करते, विचारते और जिनको जानने से विद्वान् हो जाते हैं, वह वेद है।।

(प्रश्न) पूर्व सब प्रमाण से यही पाया जाता है कि वेद में कर्म, उपासना, ज्ञान और धर्म्मादि चारों पदार्थों का वर्णन है और स्वामी दयानन्द जी ने जो वेदों में सब सत्यविद्या है-ऐसा कहा है इसमें कोई पुरानी साक्षी भी है?

(उत्तर) हाँ, है देखिये। मनुजी आज्ञा करते हैं कि ‘‘सर्वे वेदात्प्रसिध्यति’’ (मनु. १२/१६) सर्व अर्थात् विद्या आदि सब कुछ वेद से लिया जाता है।

(प्रश्न) यहाँ विद्या शब्द का साक्षात् व्यवहार नहीं किया?

(उत्तर) ‘‘धृतिः……विद्यां’’ मनुस्मृति में जहाँ धृति से अक्रोध तक धर्म के दश लक्षण लिखे हैं, उनमें से विद्या भी एक लक्षण साफ इन (विद्या) शब्दों में लिखा है और (मनु. २/६) इस श्लोक में वेद को धर्म का मूल कहा है यह साक्षात् प्रमाण है कि वेद में विद्या वर्णन है।।

अङ्क ७  परोपकारी कार्त्तिक १९६४ वि.

वेद।।

(गताङ्क से आगे)

चर्मनेत्र से ज्ञाननेत्र भिन्न होते हैं-इस जनश्रुति में यह अर्थ निकलता है कि विद्या मानो ज्ञान का मित्र है। जिसकी विद्या की आँखें उत्पन्न हो जावें, वहीं विद्वान् हो जाता है और मनुजी कहते हैं कि ‘‘पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुः सनातनम्’’ (मनु. १२/१) पितृदेव मनुष्यों का वेद ही नेत्र है। यह लोक वेद के जानने से विद्वान् हुए हैं। लोक व्यवहार भी यही विदित कर रहा है कि प्रमाण के जानने से मनुष्य विद्वान् हो जाता है और आपस्तम्ब गृह्यसूत्र में लिखा है कि ‘‘त्रैविद्या वृद्धानान्तु वेदाप्रमाणमितिनिष्ठा’’ (आ.२/९/३/९) तीनों विद्या में जो बड़े हुए हैं, उनके लिये वेद ही प्रमाण है, यूँ कहिये कि वेदरूप प्रमाण से मनुष्य विद्या में वृद्ध हो सकता है। यहाँ यह जतलाना अनुपयोगी नहीं होगा कि वेद के अर्थ समझने के लिये जैसे व्याकरणादि की आवश्यकता होती है वैसे योग की भी आवश्यकता है, क्योंकि ईश्वर ज्ञानस्वरूप है और वेद उसका ज्ञान है उसके जानने के लिये योग ही एकमात्र एकान्त उपाय है। इस बात को आगे वर्णन किया जावेगा कि वेद के अर्थ जानने के लिये योग की भी आवश्यकता है यहाँ तो इसकी सूचना करनी ही थी। यदि यह नहीं कहा जाता तो फिर प्रश्न उठता कि जब वेद में सब विद्या है, उससे प्रकट क्यों नहीं करते? इसके उत्तर में इतना निवेदन करना पर्य्याप्त होगा कि योग युक्त पुरुष अब भी ऐसा कर सकता है और पुराकाल में जितने उपनिषद्कार वदरीनाचार्य्यादि ऋषि मुनि विद्वान् हुए हैं, उन सबका इतिहास कहता है कि उनको सब विद्या वेद के सहारे से प्राप्त हुई थी। वह वेद में से अनेक विद्या प्रकट कर गये हैं। अब भी जो उनके समान होगा, वह वेद से विविध विद्या का प्रकाश कर सकता है। जब से वेद का पठन-पाठन छूट गया है, और योग से विमुखता हो गई है, तब से यहाँ विद्योन्नति का अभाव हो गया है। अब उचित है कि प्रथम वेद के लक्षण को हम जानें।।

अंक आठ

परोपकारी मार्गशीर्ष से सं. १९६४ वि.

वेद।।

(गताङ्क से आगे)

पहिले वेदव्युत्पत्ति विषय में कहा गया है कि वेद का अर्थ लाभ, जानना, ज्ञान, सत्ता और विचार है। इन अर्थों को सृष्टि में किस प्रकार  चरितार्थ तथा व्यवहार में लाया गया है, यह अब कहना है, क्योंकि ‘‘लक्षणाप्रमाणाभ्यां वस्तुसिद्धिः’’ चीज की अस्ति उसके लक्षण और प्रमाण से जानी जाती है, अतएव विचारना है कि जगत् ने वेद पदार्थ को कौन से लक्षण और प्रमाणों में चरितार्थ किया है?

पूर्वलिखित लेखों में जहाँ ‘विद् व विद्ल्’ धातु से वेद पद को सिद्ध किया है, साथ उसके विष्णुमित्र आदि महाशयों ने ‘‘धर्म्म, अर्थ, काम, मोक्ष’’ इन चार पदार्थों के ज्ञान और प्राप्ति के लिये वेद के लक्षण दिखलाये हैं और यजुर्वेद में प्रमाण दिया है कि-

‘वेदाहमेतं पुरुषम्’ (यजु. २१)

जिसके जानने से मोक्ष प्राप्त होता है, उस परमात्मा को जान। ऐसा जानना ‘वेद’ पद से प्रमाणित है और मनुजी कहते हैं कि-

श्रुतिःस्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।

एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्म्मस्य लक्षणम्।।

– (म. २/१२)

धृतिःक्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म्मलक्षणम्।।

– (म. ६/६)

जो परमात्मा से ज्ञान प्राप्त हुआ है, उसको श्रुति कहते हैं, फिर उसका ऋषि लोगों ने वेद पर जैसा चिन्तन् स्मरण किया है और जिसको अपने सदाचरण में आचरित कर दिखलाया है, जो आत्मा के वास्तविक प्रिय हैं, उसका नाम धर्म्म है। प्रश्न होगा कि वे कौन-सी बातें हैं जो श्रुति में कही ऋषियों ने प्रकट की तथा करके दिखलाई और अब भी हम जिनको प्रिय अनुभव कर सकते हैं? इसके उत्तर में फिर मनुजी आज्ञा करते हैं कि वे संक्षेपतया दश लक्षण हैं। वे यह हैं-धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य, अक्रोध। यह धृति आदिक भाव प्रत्येक आर्य्य हिन्दू, मुसलमान, जैन, ईसाई, आस्तिक और नास्तिक सबको उत्तम और प्रिय लगते हैं। जब तक किसी मनुष्य व प्राणी को विशेष स्वार्थ पक्ष= वास्ता नहीं पड़ता, तब तक कोई अधीर नहीं होता। कोई किसी से क्रोध अभिमान नहीं करता। इससे स्पष्ट है कि आत्मा मात्र का धृति आदिक स्वाभाविक धर्म्म है और अधीरता आदि कृत्रिम धर्म्म है, इसलिये कृत्रिम कहीं-कहीं त्याज्य समझे जाते हैं। इस धर्म्म के बारे में मनुजी कहते हैं कि-

श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयः (म. २/१०)

वेदोऽखिलोधर्म्ममूलम् (म. ६)

श्रुति जिसको ऋग्, यजुः, साम, अथर्व पुस्तक कहते हैं, वह वेद है और उनमें मूलरूप तथा धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध सब धर्म्म का वर्णन है। ‘‘लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणम्’’ जिससे जाना जाता है, उसको लक्षण कहते हैं, अतएवं वेद का जानना धृति आदि से हो सकता है, जिसमें धृति आदि का वर्णन है, वही वेद है। प्रश्न होगा कि यदि धृति आदि दूसरी पुस्तकों में वर्णित हो क्या वह भी वेद होंगे? उत्तर यह होगा कि वह वेद के धृति आदि के आदाय को कहने वाले हैं वेद नहीं, प्रश्न होगा कि ऐसी-ऐसी व्यवस्था किसी ने पहिले भी कही हैं, उत्तर है कि हाँ! मनु कहता है कि-

श्रुतिस्तु वेदोविज्ञेयो धर्म्मशास्त्रन्तुवै स्मृतिः (म. २/१०)

जो परमात्मा से ऋषियों ने सुना है, उसको वेद कहते हैं और उसको जिन पुस्तकादि में ऋषियों ने कहा है, उसको स्मृति कहते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि जैसा वेद से प्रयोजन सिद्ध होता है, वैसे अन्य अच्छे पुस्तकों से भी होता है, परन्तु-

या वेदबाह्याःस्मृतयो याश्च काश्च कुदृष्टयः।

सर्वास्ता निष्फलाः प्रेत्य तमोनिष्ठा हिताः स्मृताः।।

– (म. १२/९५)

जो वेद के बाहर वेद के अनुकूल नहीं, जो कुदृष्टि हैं, वह त्याज्य हैं, क्योंकि तमोनिष्ट है और तमोगुण का ज्ञान अल्प होता है, पूर्ण नहीं होता इसलिये वेद से अतिरिक्त पुस्तक जिनमें बड़ी-बड़ी विद्या की बातें भी हैं, वह उत्तम व ग्राह्य होने पर भी निर्भ्रान्त नहीं हो सकती, क्योंकि मनुष्य की बनाई होने से तमोगुण के लेश करके कभी पूर्ण नहीं हो सकती। यही कारण है कि साम्प्रत में साइन्स के नियम भी स्थायी नहीं होने पाते। जैसे पहिले तत्त्व ऐलीमैन्ट थोड़े माने जाते थे, अब बहुत सिद्ध हो गये हैं, आगे प्रतिदिन नूतन आविष्कार होते रहते हैं, फिर उन पुस्तक जिनमें अयुक्त बहुत बातें हैं, पुराण, कुरान, बाइबिल आदि क्योंकर वेद हो सकते हैं?

सम्प्रदायी मतवादी लोगों का नियम है कि उनके अगुए-गुरु ने जो वाक्य कह दिये, फिर जो उनके पुस्तक में लिखे गये, वह उनके लिये प्रमाण हो जाते हैं, फिर यह नहीं सोचते कि वे वाक्य प्रमाण के प्रमाणानुकूल हैं वा नहीं? इस कारण मतवाद का झगड़ा प्रतिदिन बढ़ता जाता है। निपटारा नहीं होने पाता, परन्तु वेद ऐसा नहीं, किन्तु गौतमजी लिखते हैं कि-

प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि (१/१/३)

आप्तोपदेशसामर्थ्याच्छब्दार्थ सम्प्रत्ययः (२/१/५२)

आप्तोपदेशः शब्दः (१/१/८)

आप्तःखलुसाक्षात् कृतधर्म्मा।

संसार की सब वस्तु प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द से सिद्ध होती हैं। इसको प्रमाण कहते हैं। आप्त का उपदेश शब्द हैं, क्योंकि उसके कहने से अर्थज्ञान हो जाता है। वह क्यों, इस पर वात्स्यायनाचार्य्य लिखते हैं कि जिसने जिस पदार्थ को साक्षात् कर लिया हो, उसको वैसा कहे यह उपदेश उसका शब्द है। ऐसा ही ऋषि आर्य्य और म्लेच्छों का व्यवहार सिद्ध समान लक्षण है। और-

श्रुतिप्रामाण्याच (३/१/२९)

इस सूत्र से जतलाया है कि उक्त शब्द को श्रुति वेद कहते हैं, वह प्रमाण है। इस सूत्र के भाष्य से उद्बोध होता है कि ऋषि लोग वेद की बात को पदार्थ विद्या सिद्ध मानते थे।

सूर्य्यन्ते चक्षुर्गच्छतां पृथिवीन्ते चक्षुरिति

सूर्य्य में नेत्र और पृथिवी में शरीर लय होता है, अर्थात् कारण  में कार्य्य का लय होना और कारण में कार्य्य का होना सिद्ध होता है। फिर ऐसी पुस्तक जिनमें लिखा हो कि श्रीकृष्ण जी का शरीर दग्ध होकर पृथिवी आदि को प्राप्त नहीं हुआ और पितृवीर्य्य के बिना मसीह को पैदा होना लिखा है वह कैसे प्रामाण्य हो सकती है। इस पर कह सकेंगे कि वेद में भी ऐसी अनेका गाथाएँ हैं, क्योंकि महीधर आदि ने वेद के वैसे अर्थ किये हैं, परन्तु उनको यह नहीं सूझता कि महीधर आदि का अर्थ क्योंकर प्रमाण हो सकता है, जब उनका अर्थ प्रमाण विरुद्ध है, क्योंकि मनुजी लिखते हैं कि-

आर्षधर्म्मोपदेशश्च वेदशास्त्रीविरोधिना।

यस्तर्केणनुसन्धत्ते स धर्म्मो वेदनेतरः।।

– (म. १२/१०९)

ऋष्युक्त धर्म्मोपदेश जो वेदशास्त्र के प्रतिकूल न हो, युक्ति से सिद्ध हो वह धर्म है, दूसरा नहीं। इससे साफ है कि वेद में युक्ति को विचारना पड़ता है और उसके अर्थ करनेवाले  के कथन अथवा किसी स्वतंत्र ग्रन्थ बनाने वाले की स्वतंत्र पुस्तक में वही बात मानने के योग्य होती जो युक्ति से सिद्ध होगी, फिर क्योंकर उन महीधरादि के वेदार्थ का आश्रय लेकर वेद में असंघटित बातों का सत्व मान सकते हैं? देखिये आगे मीमांसा क्या कहता है।। (क्रमशः)

घनश्याम मुल्तान।

‘पाठकों की प्रतिक्रिया’

‘पाठकों की प्रतिक्रिया’

– डॉ. रामवीर

कवि की तो इतनी ही अपेक्षा

बस मिल जाए सहृदय श्रोता,

श्रोता अगर सराहे तो फिर

स्वाभाविक है कवि खुश होता।

धन्यवाद आभार आपका

बढा प्रशंसा से उत्साह,

ईश करे पूरी कर पाऊँ

प्रकट आपने की जो चाह।

ईश कृपा ईश्वर ही जाने

कब होगी हम नहीं जानते,

हम उसकी सृष्टि में स्वयं को

इक छोटा-सा पूर्जा मानते।

किस से कितना काम है लेना

ईश्वर ही करता निर्धारित,

हम प्रस्ताव तो रख सकते हैं

उसकी इच्छा करे जो पारित।

आशा है आशीष आपका

यूँ ही मिलता रहे सर्वदा,

बड़े भाइयों का स्नेह है

मेरी सब से बड़ी सम्पदा।

– ८६, सै. ४६, फरीदाबाद-१२१०१०,

चलभाषः ९९११२६८१८६

The religion of “peace” strikes again

(TRUNEWS) The religion of peace strikes again.

50 dead, 53 injured in the heart of Florida.

Did you know 11 countries which are controlled by Islamic sharia law still have state legalized executions of homosexuals?

How many more innocent people need to die before we acknowledge Islam has a violence problem?

Why are the trendies screaming about gun control when we have crazed zealot lunatics running around inside our country, committing barbarous acts of slaughter?

We had Paris, we had Brussels, now its finally come to America.

A single Muslim just killed more gays than so called “gay bashing” killed in the last fifty years!

#HugAMuslim and #PrayForOrlando are not going to stop the ticking time bomb of jihadist extremism, waiting for the call for a mass zero-hour-attack which will make this latest shooting pale in comparison.

Only God can help us now, and we need to pray our country turns back to Him, and wholeheartedly rejects the Babylonian culture we have embraced as a nation.

Pray and Prepare, the summer of chaos has begun

(source: http://www.trunews.com/the-religion-of-peace-strikes-again/)

ईसाई मत परीक्षा

ईसाई मत परीक्षा

– स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

पाठक गण! मजहब की श्रेष्ठता उसके नियमों की उत्तमता से ज्ञात होता है, परन्तु मजहब के माने रीति और मार्ग के हैं, इसलिये जो लोग उद्देश्य को नहीं जानते, उनको शुद्ध-अशुद्ध मार्ग का ज्ञान हो ही नहीं सकता है और जब तक सत्यासत्य ‘‘सच और झूठ’’ का ज्ञान न हो, तब तक चलने का विचार करना बड़ी भारी मूर्खता है। जिन लोगों को ईश्वर ने आँख नहीं दी वे भी लाठी के द्वारा मार्ग को टटोल-टटोल कर चलते हैं, जिससे ज्ञात होता है कि मनुष्य की बनावट ही में तमीज का माद्दा है और तमीज की आवश्यकता केवल नेक बद शुभाशुभ जानने के लिये हैं, किन्तु मनुष्यों की बुद्धि पशुओं की बुद्धि से इसी तमीज के कारण उत्तम मानी गई है। अगर तमीज कोई बुरी चीज है तो उस की वजह से मनुष्य को पशु से बुरा होना चाहिये न कि श्रेष्ठ, लेकिन बहुत मजहब तमीज के प्राणलेवा शत्रु ‘‘जानी दुश्मन’’ हैं।

वे तमीज की वजह से मनुष्य को गुनाहगार समझते हैं, इस वास्ते उनमें तमीज बजाय बुजुर्गी के कमीनाई पैदा करती है। हमारे बहुत से मित्र कहेंगे कि संसार में ऐसा कोई मजहब नहीं जो तमीज को बुरा जानता हो, वरन हर एक मजहब इस बात पर एक है, मनुष्य ज्ञान के कारण पशुओं से अच्छा है, परन्तु ऐसा कहने वाले लोग भूल पर हैं, क्योंकि सबसे पहले ईसाई मजहब मौजूद है, जो तमीज को गुनाह गारी बतलाता है। यों तो हर एक ईसाई कहता है कि खुदा की बातों में अकल को दखल नहीं, लेकिन ईसाई धर्म की किताबें और ईसाइयों का खुदा इससे भी अधिक तमीज ज्ञान का बैरी है। वह नहीं चाहता कि मनुष्यों में तमीज पैदा हो, बल्कि जिस समय उसने आदम को उत्पन्न किया, उसी समय नेक व बद की तमीज का फल खाने से रोका। भला जब खुदा ने तमीज को ऐसा बुरा समझा कि उसका फल खाना आदम के लिये मना किया, यहाँ प्रश्न यह पैदा होता है कि खुदा को यह ज्ञात ही था कि आदम इस पेड़ का फल अवश्य खायेगा (यहाँ तक तौरेत से पाया जाता है) परन्तु ज्ञात होता है कि उसे बिल्कुल नहीं मालूम था, क्योंकि उसने सवाल किया (देखो तौरेत उत्त्पत्ति की पुस्तक पर्व ३ आयत ९ व ११ तक) तो परमेश्वर ईश्वर ने आदम को पुकारा और कहा कि तू कहाँ है और वह बोला कि मैंने बारी में तेरा शब्द सुना और डरा, क्योंकि मैं नंगा था, इस कारण मैंने आपको छिपाया और उसने कहा कि तुझे किसने जताया कि तू नंगा है? क्या तूने उस वृक्ष का फल खाया, जिसका खाना तुझको बरजा थीं, ऊपर कही आयत से साफ मालूम होता है कि ईसाइयों का खुदा इतना कम इल्म है कि बिना दर्याफ्त किये काम के बाद तक खबर नहीं होती। जब इस कदर बे इल्म हैं, तभी तो नेक व बद की तमीज के फल खाने से मना करता है। बहुत से लोग कहेंगे कि अभी तक कोई सबूत नहीं दिया कि खुदा ने तमीज का फल खाने को मना किया था। इसका सबूत देखो उत्पत्ति पुस्तक पर्व २ आयत १५/१६/१७ और परमेश्वर ईश्वर ने पहले आदम को अदन के बाग में रक्खा कि उसकी बाग वानी और निगह वानी करै और खुदाबन्द खुदा ने आदम को हुक्म देकर कहा कि-

तू बाग के हर वृक्ष का फल खाया कर, लेकिन नेक व बद की पहिचान के वृक्ष से न खाना, जो खाया तो तू मर जायेगा, ये है ईसाइयों के खुदा का हुक्म! भला जब खुदा ने तो नेक व बद की तमीज से आदम को अलग रक्खा, लेकिन साँप ने कृपा करके आदम को तमीज करा दी, जिससे हमारे भाई ईसाई भी संसार में उत्तम होने में अपना हिस्सा समझने लगेंगे-वरना उनके खुदा को आदमी का बेतमीज ही रखना स्वीकार था, परन्तु बाइबिल साँप ने इन्सान को तमीजदार बना दिया, वह नहीं चाहता था कि मनुष्य तमीज पैदा करके उत्तम बन जावे, बल्कि आदमी को तमीज पैदा करने से ईसाइयों के खुदा को इस बात का डर हुआ कि कदाचित मनुष्य अमृत के पेड़ के फल खाले और हमारे बराबर हो जावे बहुत से लोग हैरान होंगे कि खुदा और खौफ से क्या मतलब, लेकिन जनाब ईसाइयों का खुदा इसी तरह का है। उसके सबूत में देखो किताब उत्पत्ति पर्व ३ आयत २२, और खुदाबन्द खुदा ने कहा कि देखो मनुष्य नेक व बद की पहचान में हममें से एक की मानिंद हो गया और अब ऐसा न हो कि अपना हाथ बढ़ावै और अमृत के वृक्ष से भी कुछ मेवे खावै और हमेशा जीता रहे, इसलिये खुदा बन्द खुदा ने उसको बाग अदन से निकाल दिया-इससे भी बढ़कर और क्या खौफ का सबूत दरकार है, खुदा को डर क्यों न हो, क्योंकि एक और सबका मालिक तो है नहीं जो सब पर जबरदस्ती रखता हो और न वह अपरिमित है, बल्कि ईसाई मजहब में खुदाओं की एक कौम या जमाअत है जैसा कि ऊपर की आयत में खुदा के अपने वाक्य से मालूम होता है।।

क्योंकि वह कहता है कि मुनष्य नेक व बद की तमीज में खुदाई कौम में से एक की मानिंद हो गया, यानी नेक व बद की तमीज में तो खुदा के बराबर होगा, सिर्फ अमृत के फल खाने का फ र्क रहा, ईसाई मजहब में खुदाओं की कौम होने का एक और भी सबूत ले लीजिये-पौलूस का खत इन्द्रियों का पर्व १ आयत ९-ऐ खुदा। तूने नेकी से मुहब्बत और बदी से दुश्मनी रखी इस वास्ते ऐ ईश्वर! तेरे खुदा ने तुझे तेरे शरीकों की निस्बत खुशी के तेल से अधिक अभिषेक किया। क्या अब भी कोई ईसाई इन्कार कर सकता है कि ईसाइयों का खुदा अकेला ही मालिक है, बल्कि उसका खुदा और उसके शरीक भी मौजूद हैं। भला जिनके खुदा का खुदा और शरीक भी हों अब हम पूछते हैं कि वह किस खुदा के पास मुक्ति मानेंगे-पादरी गुलामी मसीह साहब और दीगर पादरियों को जो परमात्मा के पास से मुक्ति मानते हैं, सोचना चाहिये कि किस खुदा के पास  से मुक्ति होगी, क्योंकि ईसाइयों के मजहब में तो खुदाओं का एक झुण्ड है, जो खुदा के अपने वाक्य से प्रगट हो रहा है और ईसाइयों के खुदा का परिमित और शरीरधारी होना भी उनकी किताबों से साबित होता है, क्योंकि ईसाइयों का खुदा भी आदमी की सूरत का और मनुष्य की मानिंद है, उसके सबूत में देखो किताब उत्पत्ति पर्व १ आयत २६-तब खुदा ने कहा कि हम मनुष्य को अपनी सूरत और अपनी मानिंद बनावैं। इस आयत से मालूम होता है कि ईसाइयों के खुदा की शक्ल आदमी के अनुसार है और वह आदमी की तरह अल्पज्ञ और अल्प शक्तिवाला है। इसके अलावा खुदा के परिमित होने का और भी सबूत है, देखो किताब उत्पत्ति पर्व ३ आयत ८-और उन्होंने खुदा और खुदा की आवाज जो ठंडे वक्त बाग में फिरता था सुनी, उसने और उसकी स्त्री ने आपको खुदाबन्द खुदा के सामने से बाग के पेडों में छिपाया। अब बुद्धिमान आदमी समझ सकते हैं कि ईसाइयों का खुदा मनुष्य है या और कोई?

भला कैसे शोक की बात है कि जिस मजहब का खुदा बागों की सैर करता फिरै, जिसको हसद वकीना (ईर्ष्या-द्वेष) होतो तमीज यानी नेक बद की पहिचान आदमी को देना न चाहे और जिसको डर हो कि अगर मनुष्य ने अमृत के पेड़ का फल खाया तो हममें से एक के बराबर हो जायेगा-जिनके खुदा को पैदायश के लिखते समय से भी ख्याल न हो कि वह चौथे दिन सूर्य व चाँद को पैदा करे, भला दिन और रात का फर्क सूर्य और चाँद के कारण है और ये चौथे दिन पैदा हुए तो ईसाई साहबान बतलावें कि पहले तीन दिन किस तरह हुए? जो जबान से तो खुदा को सर्व शक्तिमान कहें, लेकिन अमलन ये साबित करें कि उसे काम के पहले किसी विषय का ज्ञानभी नहीं होता, क्या ऊपर की आयत को पढ़कर कोई अकलमन्द आदमी यह कह सकता है कि ईसाइयों का खुदा सर्वशक्तिमान् और दयालु है? ईसाइयों को जो नेक व बद की तमीज है, वह खुदा की दया से प्राप्त नहीं हुई, बल्कि साँप की मेहरबानी का फल है। जो तमीज और मजहब वालों के पुरुषों एवं पशुओं में श्रेष्ठ बनाने वाले साबित हुए वही तमीज ईसाइयों के पूर्वजों को दोष का तमगा पहनाने वाली हों जब कि ईसाई लोग ईश्वर को शरीरधारी और परिमित मानते हैं तो पूछते हैं कि जमीन और आसमान के पैदा करने से पहले आपका शरीर धारी खुदा जो आदमी की शक्ल का है, कहाँ पर मौजूद था? क्योंकि उस वक्त कोई जगह तो थी ही नहीं और शरीर धारी चीज बगैर जगह के रह नहीं सकती। अब जब तक ईसाई लोग अपने शरीर धारी खुदा के तख्त को ये न बतलावें कि वह कहाँ था, तब तक उनके मजहबी कायदे बालू की भीत से भी अधिक कमजोर रहेंगे और जिस तख्त पर अब उनका खुदा और उनका बेटा मय अपने शरीकों के बैठा है, उस तख्त की उत्पत्ति का जिक्र उत्पत्ति की पुस्तक में दिखाई नहीं देता, कदाचित ये कदीम हो।

ईसाई लोग सिवाय खुदा के किसी को कदीम नहीं मानते। अब यह भी सवाल पैदा होता है कि एक खुदा के सिवाय बाकी खुदाओं की कौम कदीम है और हरएक खुदा अनादि है तो उनमें आपस में कुछ फर्क था नहीं और यह भी सवाल पैदा होता है कि खुदाओं की कौम में किस खुदा ने जमीन व आसमान को पैदा किया था, क्योंकि अगर एक खुदा होता तो हर एक आदमी मान लेता कि एक ही पैदा करने वाला है। चूँकि यहाँ खुदाओं की कौम है तो यह सवाल जायज है कि उसने जमीन व आसमान बनाया और उस समय बाकी खुदा उसकी मदद करते रहे या नहीं और उस खुदाई कौम में सर्व शक्तिमान् खुदा कौन-सा है, क्योंकि जब तक मनुष्य मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि ईसाई मजहब में कर्मों से मुक्ति हो ही नहीं सकती, जिसका इकरार पादरी गुलाम मसीह साहब मास्टर स्कूल मैनपुरी ने अपनी किताब (रद्दतनासुख) में किया है। वह खुदा के फजल से मुक्ति मानते हैं और परमात्माओें की एक कौम मालूम होती है अब उसमें से किस खुदा के फजल से मुक्ति में कौन पास होगा और आत्मा का तगाजा किस खुदा के पास पहुँचना है? जब तक ईसाई साहबान इन सवालों का जवाब न दें, तब तक उनके  सारे दावे व्यर्थ मालूम होते हैं, पहला हेतु-कोई परिमित चीज अपरिमित शक्ति रख नहीं सकती, दूसरा हेतु-कोई साकार चीज बिना आधार रह नही सकती, तीसरा हेतु-सर्वशक्तिमान् परमात्माओं का झुंड हो नहीं सकता, चौथा हेतु- सब विद्याओं का जानने वाला ईश्वर किसी काम में गलती नहीं कर सकता, पाँचवां हेतु-सर्वशक्तिमान् ईश्वर को कहीं यह डर हो ही नहीं सकता कि कोई उसकी उत्पन्न की हुई तमीज और अमृत का फल खाने से उसके बराबर हो जावेगा और आदमी की शक्ल वाला ईश्वर इस संसार को पैदा नहीं कर सकता, क्योंकि परमित चीज की शक्ति परिमित होने उससे अपरिमित कामों का होना असम्भव है। हमारे बहुत से दोस्त कहेंगे कि जब ऐसी हालत ईसाई मजहब की है तो बुद्धिमान् लोग उसे किस तरह मान गये? पाठकगण! यह तो आपको ऊपर की आयतों से स्पष्ट पता लग गया होगा कि ईसाई मजहब तो अक्ल व तमीज को गुनाह का कारण बतलाकर पहले अलग करा देता है। जब बुद्धि दूर हो गई तो फिर तहकीकात कौन कर सकता है, क्योंकि किताब पैदायश के लेखानुसार बुद्धि शैतान की दी हुई और मनुष्य को अपराधी बनाने वाली है। केवल बुद्धिहीन पशु ही मजहब में अच्छे हैं और मसीह ने इंजील में भी इस बात को बतलाया है, क्योंकि वह कुल्ल अपने चेलों को भेड़ें और अपने को गडरिया बतला रहा है। भला जो गडरिये की भेड़ें हों, वह तहकीकात क्या कर सकती है? चाहे कोई मसीह कैसा ही बुद्धिमान् हो, वह जब तक भेड़ बनकर मसीही मजहब की बातों को न माने, तब तक उसको मसीह पर मजहब कामिल नहीं हो सकता। जो शख्स इनकी भेड़ों को अक्ल सिखावे, उसे वह शैतान का बहकाया हुआ कह देते हैं, स्वयं भेड़ बन जाने से तमीज नहीं रही। ईसाइयों का परमेश्वर तो मनुष्यों को बेतमीज रखना चाहता था, लेकिन साँप की कृपा से न रख सका। उसके बेटे मसीह ने अपने बाप का काम पूरा कर दिया अर्थात् मनुष्यों से अक्ल दूर करवाकर उनको भेड़ बना दिया और आप गडरिया बन गया और करोड़ों आदमी उस गडरिया गुरु की पैरवी में लग गये। जहाँ ईसाई मजहब ने अक्ल के दखल को मजहब से दूर किया वहाँ हजारों गलत बातों को कबूल करना पड़ा, क्योंकि अक्ल ही एक ऐसा औजार है कि जिसके कारण मनुष्य गलतियों से बचकर सीधी राह पर जा सकता है। ईसाई लोगों को यह विश्वास कितना कमजोर है कि वह आत्मा को पैदा हुई मानकर मुक्ति को अनन्त मानते हैं, परन्तु संसार में पैदा हुई चीज कभी अनन्त नहीं कहलाती, क्योंकि एक किनारे वाली नदी नहीं होती, लेकिन उनके मजहब की फिलासफी ही निराली है कि परमेश्वर को परिमित मानकर सर्व शक्तिमान् मानना आत्मा को पैदा हुई मानकर अनन्त बतलाना। अगर कोई इनसे पूछे कि क्यों कभी अनित्य भी अनन्त हो सकता है? अनन्त होने के लिये अनादि होना लाजिमी है, नित्य की तारीफ है। आप उन बातों को जिनको गुजरने के बाद लोगों ने तहकीकात करके लिखा है अपौरुष वाक्य बताते हैं। इतिहास को अपौरुष वाक्य बताने वाले भी हजरत हैं और आपके दिमाग में वह लेख जिनमें आपस में विरोध है जिनके विषय बुद्धि के विरुद्ध हों, कानून कुदरत के खिलाफ हों। जब अपौरुष वाक्य है तो कौनसी गलती हैं, जिसके होने से आपका मजहब झूठ हो सकता है? हमें अफसोस होता है कि जब इस मजहब के चलने वाले कहते हैं कि हम क्यों तहकीकात करें? हमें अपने मजहब में शक हो तो हम बहम करें अगले नम्बरों में हम मसीह मजहब की तमाम इल्मी कमजोरियों को सिलसिलेवार पेश करेंगे और जिस तरह हमारे मसीह दोस्तों ने रामकृष्ण परीक्षा में उनके चाल व चलन की तहकीकात की है, अब हम अकली तौर पर मसीह के चाल व चलन की परीक्षा करेंगे और दिखलावेंगे कि श्रीरामचन्द्र व मसीह की सुशीलता में किस कदर अन्तर है? जहाँ तक होगा हम किसी के प्राचीन बुजुर्गों पर अपनी तरफ से गढ़ कर अपराध नहीं लगावेंगे, बल्कि बाइबिल के लेख पर अपनी तहकीकात को बुनियाद रक्खेंगे। हम अपने व्याख्यानों में कम से कम चालीस व्याख्यान ईसाई मजहब के मुतल्लिक पेश करेंगे और दिखलावेंगे कि जिन लोगों ने अपने धर्म के न जानने से ईसाई मजहब को कबूल किया है, उन्होंने कैसी गलती खाई है, और यह भी दिखलावेंगे कि इन गलतियों के पैदा होने के कारण क्या हैं? गरजे कि हम थोड़े अरसे में ही ईसाई मजहब की चिकनी बातों पर जिसको भोले-भाले लोग गलती से सही समझकर भूल जाते हैं और अपने धर्म और जिन्दगी को तबाह करके ईश्वर के हुक्म की तामील से अलग होकर दुःखों के गहरे गड़हे में गिर जाते हैं, उनको सच्ची तहकीकात पेश कर के पब्लिक को ईसाइयों के धोखे से बचाने की कोशिश करेंगे।