पुस्तक परिचय पुस्तक का नाम – ऋषि दयानन्द की प्रारमभिक जीवनी

पुस्तक परिचय

पुस्तक का नामऋषि दयानन्द की प्रारमभिक जीवनी

लेखक         – दयाल मुनि आर्य

समपादक      – भावेश मेरजा

प्रकाशकडॉ. राजेन्द्र विद्यालंकार, सत्यार्थ

प्रकाश न्यास, 14251, सै. 13,

अर्बन एस्टेट, कुरु क्षेत्र, हरि.136118

पृष्ठ 168    मूल्य – निःशुल्क

महर्षि दयानन्द के जीवन चरित्र के ऊपर अनेक ऋषि भक्तों ने कार्य किया उनमें मुखय रूप से धर्मवीर पं. लेखराम, बाबु श्री देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, स्वामी सत्यानन्द जी व उर्दू के जीवनी लेखक पं. लक्ष्मण  आर्योपदेशक आदि। इन श्रद्धालु महानुभावों ने अपना अमूल्य समय व धन लगा कर जहाँ-जहाँ ऋषिवर गये वहाँ-वहाँ पहुँचकर ऋषि जीवन की एक-एक घटना को एकत्र करने का पुण्य कार्य किया। जिनके इस पुण्य कार्य के कारण आज हम महर्षि दयानन्द के जीवन से परिचित अपने को अनुभव करते हैं।

महर्षि की मान्यता रही है कि जो भी इतिहास रूप में लिखा जाये वह सत्य के आधार पर ही लिखा जाये। महर्षि ने अपने जीवन के विषय में जो बताया वा लिखा वह तो प्रामाणिक है ही तथा महर्षि के देहपात होने के कुछ काल बाद जो ऋषि के श्रद्धालुओं ने परिश्रम करके ऋषि जीवन को लिखा वह भी  प्रामाणिक है। महर्षि दयानन्द जी की स्वयं इस बात के पक्षधर थे कि उनके विषय में जो लिखा जाये वह इतिहास सत्य ही लिखा जाये। यह बात महर्षि के एक ऐतिहासकि पत्र से ज्ञात होती है। इस पत्र को यहाँ ज्यों का त्यों लिखते हैं-

पण्डित गोपालराव हरि जी, आनन्दित रहो।

आज एक साधु का पत्र मेरे पास आया। वह आपके पास भेजता हूँ। साधु का लेख सत्य है, परन्तु आपने चित्तौड़ समबन्घी इतिहास न जाने कहाँ सुन सुना कर लिख दिया। उस काल उस स्थान में मेरा उदयपुराधीश से केवल तीन ही बार समागम हुआ। आपने प्रतिदिन दो बार होता रहा लिखा है। आप जानते हैं कि मुझे ऐसे कामों के परिशोधन का अवकाश नहीं। यद्यपि आप सत्य-प्रिय और शुद्ध भाव-भावित ही हैं और इसी हित-चित्त से उपकारक काम कर रहे हैं, परन्तु जब आपको मेरा इतिहास ठीक-ठीक विदित नहीं तो उसके लिखने में कभी साहस मत करो। क्योंकि थोड़ा-सा भी असत्य हो जाने से समपूर्ण निर्दोष कृत्य बिगड़ जाता है। ऐसा निश्चय रक्खो। और इस पत्र का उत्तर शीघ्र भेजो।

वैशाख शुक्ल 2 सवत् 1939 / स्थान शाहपुरा

दयानन्द सरस्वती

इस पत्र में महर्षि ने विशेष निर्देश किया है कि जो भी उनके विषय में लि जाये वह सत्य से युक्त हो। महर्षि के जीवन काल में ‘दयानन्द दिग्विजपार्क’ नामक जीवनी महाराष्ट्र के एक सज्जन पं. गोपालराव हरि प्रणतांकर जी ने लिखी थी। उनको यह पत्र महर्षि ने लिखा था।

प्रायः महर्षि के प्रारमभीक जीवन के विषय में सभी लेखकों का स्पष्ट मत नहीं आता दिख रहा है, जन्म स्थान माता-पिता का नाम आदि विषयों पर कुछा्रम-सा रहा है। उसा्रम को दूर करने के लिए ऋषि भक्त, चारों वेदों को गुजराती भाषा में अनुवाद करने का श्रेय प्राप्त करने वाले, अनेकों आयुर्वेद के विशाल ग्रन्थों के गुजराती अनुवादक, आयुर्वेदाचार्य, आयुर्वेद चूड़ामणि, डी.लिट्. (आयुर्वेद) उपाधियुक्त, सरल स्वभाव के धनी, टंकारा निवासी श्रीमान् दयाल मुनि आर्य जीने श्रीमान् डॉ. रामप्रकाश जी (कुरुक्षेत्र) कुलाधिपति गुरुकुल कांगड़ी के निवेदन पर महर्षि दयानन्द जी के प्रारमभिक जीवन का परिश्रम करके अन्वेषण किया, उस अन्वेषण को ‘‘ऋषि दयानन्द की प्रारमभिक जीवनी’’ नाम से पुस्तकाकार दे दिया है। जिस पुस्तक का समपादन ऋषि इतिहास व आर्य समाज के इतिहास में रूचि रखने वाले श्रीमान् भावेश मेरजा जी ने किया है।

पुस्तक में पाठकों को ऋषि के आरमभिक जीवन का परिचय कराने के लिए बारह विषय दिये गये हैं। 1. जन्म स्थान विषयक भ्रम निवारण, 2. ऋषि के भ्रातृवंश समबन्धी भ्रम का निराकरण, 3. ऋषि के वंश-वृक्ष की प्राप्ति के प्रयत्न, 4. टंकारा के जीवापुर मुहल्ले से सबन्धित तथ्य, 5.शिवरात्रि का उपासना मन्दिर, 6. ऋषि के स्व वंश समबन्धी तथ्य तथा एतद् विषयक भ्रम का निवारण, 7. ऋषि की माता का नाम क्या था, 8. ऋषि के भाई-बहन व चाचा के नामों के विषय में भ्रम निवारण, 9. ऋषि के महाभिनिष्क्रमण के समबन्ध में भ्रम निवारण, 10. ऋषि के महाभिनिष्क्रमण के बाद दूसरी रात्रि का निवास-स्थान कौन-सा था? 11. लाला भक्त (भगत) योगी नहीं थे, 12. डॉ. जॉर्डन्स की बात का निराकरण। और इस पुस्तक के परिशिष्ट में बड़ी महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ सात विषयों को लेकर हैं। ऋषि जीवन प्रेमियों के लिए यह पुस्तक अति महत्त्व रखने वाली है।

लेखक ने प्राक्कथन में अपनी पीड़ा रखी-‘‘मैं ऐसा समझता हूँ कि ऋषि जीवनी के शोध कार्य में पण्डित लेखराम और पण्डित देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय के पश्चात् यदि किसी सुयोग्य व्यक्ति ने इस दिशा में शीघ्र ही शोध कार्य को आगे बढ़ाया होता तो उस समय बहुत कुछ बातें सुलभ होतीं, परन्तु ऐसा हो नहीं पाया और इस कार्य की उपेक्षा के परिणामस्वरूप आज भी हमें ऋषि जीवन विषयक कई छोटे-बड़े भ्रम एवं विवादों का निराकरण करने के लिए प्रवृत्त होना पड़ता है।’’

लेखक के विषय में डॉ. रामप्रकाश जी बड़े विश्वास पूर्वक पुस्तक के निवेदन में लिखते हैं- ‘‘वर्तमान में टंकारा निवासी वयोवृद्ध दयाल मुनि एक मात्र ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हें महर्षि के प्रारमभिक जीवनी के विषय में सर्वाधिक सही जानकारी है। उन्होंने यह जानकारी वर्षों की सतत साधना से प्राप्त की है।’’

ऋषि जीवन के प्रारमभीक विषयों के लिए यह पुस्तक समस्त ऋषि प्रेमी, भक्तों को आनन्द देने वाली होगी व जो भी महर्षि जीवनी पर शोध करने वाले हैं उनके लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगी। सुन्दर आवरण,छपाई व कागज से युक्त इस पुस्तक का प्रकाशन आर्य जगत् के युवा विद्वान् डॉ. राजेन्द्र विद्यालंकार जी ने करवाया है। इस पुस्तक को पाठक प्राप्त कर लेखक के शोध कार्य के दर्शन करेंगे।

– आचार्य सोमदेव

 

कुरान समीक्षा : ‘‘खुदा की कसम’’- कुरान में खाने वाला कौन था?

‘‘खुदा की कसम’’- कुरान में खाने वाला कौन था?

क्या इससे यह साबित नहीं है कि कुरान या यह आयत खुदा के अतिरिक्त मुहम्मद या किसी दूसरे खुदा ने लिखी थी?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

व काललल्जी-न क-फरू ला तअ्……….।।

(कुरान मजीद पारा २२ सूरा सबा रूकू १ आयत ३)

और इन्कारी कहने लगे कि हमको वह घड़ी न आवेगी। पोशीदा बातों के जानने वाले अपनें ‘‘परवर्दिगार की कसम’’ जरूर आवेगी।

समीक्षा

यह आयत साबित करती है कि कसम खाने वाला कोई आदमी दूसरा था जिसने कुरान लिखा था।

वैदिक धर्मी बन जाओ

वैदिक धर्मी बन जाओ

– पं. नन्दलाल निर्भय

अब भारत के नर-नारी, वैदिक मर्यादा भूल गए।

अब सभी दुःखी हैं भारी, वैदिक मर्यादा भूल गए।

जगतपिता जगदीश्वर का अब, सुमरन करना छोउ़ दिया।

पत्थर की पूजा करते हैं, अधर्म से नाता जोड़ लिया।।

अच्छाई सभी बिसारी, वैदिक मर्यादा भूल गए।

अब सभी दुःखी हैं भारी, वैदिक मर्यादा भूल गए।।1।।

ऋषियों का यह देश हमारा, सकल विश्व में नाम था।

त्याग तपस्या सदाचार में, भूमण्डल का स्वामी था।।

थे यहाँ सन्त तपधारी, वैदिक मर्यादा भूल गए।

अब सभी दुःखी हैं भारी, वैदिक मर्यादा भूल गए।।2।।

सोलह वर्ष की कन्याएँ सब, युवती मानी जाती थीं।

युवा पुरुष पच्चीस वर्ष के, के संग याह रचाती थीं।।

वैदिक प्रथा थी जारी, वैदिक मर्यादा भूल गए।

अब सभी दुःखी हैं भारी, वैदिक मर्यादा भूल गए।।3।।

ऊँच-नीच का, जाति-पाति का, यहाँ नहीं था रोग सुनों।

कर्म प्रधान मानते थे सब, सब करते थे योग सुनों।।

सच्चे थे ईश पुजारी, वैदिक मर्यादा भूल गए।

अब सभी दुःखी हैं भारी, वैदिक मर्यादा भूल गए।।4।।

परधन धूल समान भारती, मान परम सुख पाते थे।

‘पर नारी को माता मानो’, दुनियां को समझाते थे।।

थे योगी परोपकारी, वैदिक मर्यादा भूल गए।

अब सभी दुःखी हैं भारी, वैदिक मर्यादा भूल गए।।5।।

युवक-युवतियाँ कावड़ लेने, हरिद्वार को जाते हैं।

मात-पिता भूखे रोते हैं, भारी कष्ट उठाते हैं।।

अज्ञानी पापाचारी, वैदिक मर्यादा भूल गए।

अब सभी दुःखी हैं भारी, वैदिक मर्यादा भूल गए।।6।।

मद्य मांस का सेवन करना, महापाप है सुनो सभी।

वेद शास्त्र दर्शाते हैं अब, अमृत विष को चुनो सभी।।

अब मर्जी सुनो तुमहारी, वैदिक मर्यादा भूल गए।

अब सभी दुःखी हैं भारी, वैदिक मर्यादा भूल गए।।7।।

‘नन्दलाल निर्भय’ सब जागो, वैदिक धर्मी बन जाओ।

जीवन सफल बनाओ अपना, व्यर्थ नहीं धक्के खाओ।।

इसमें है भलाई सारी, वैदिक मर्यादा भूल गए।

अब सभी दुःखी हैं भारी, वैदिक मर्यादा भूल गए।।8।।

-आर्य सदन बहीन, जनपद पलवल, हरियाणा

 

संस्कृत के बारे में ये 20 तथ्य

संस्कृत के बारे में ये 20 तथ्य जान कर आपको भारतीय होने पर गर्व होगा आज हम आपको संस्कृत के बारे में कुछ ऐसे तथ्य बता रहे हैं, जो किसी भी भारतीय का सर गर्व से ऊंचा कर देंगे .1. संस्कृत को सभी भाषाओं की जननी माना जाता है। 2. संस्कृत उत्तराखंड की आधिकारिक भाषा है। 3. अरब लोगो की दखलंदाजी से पहले संस्कृत भारत की राष्ट्रीय भाषा थी। 4. NASA के मुताबिक, संस्कृत धरती पर बोली जाने वाली सबसे स्पष्ट भाषा है। 5. संस्कृत में दुनिया की किसी भी भाषा से ज्यादा शब्द है वर्तमान में संस्कृत के शब्दकोष में 102 अरब 78 करोड़ 50 लाख शब्द है। 6. संस्कृत किसी भी विषय के लिए एक अद्भुत खजाना है। जैसे हाथी के लिए ही संस्कृत में 100 से ज्यादा शब्द है। 7. NASA के पास संस्कृत में ताड़पत्रो पर लिखी 60,000 पांडुलिपियां है जिन पर नासा रिसर्च कर रहा है। 8. फ़ोबर्स मैगज़ीन ने जुलाई,1987 में संस्कृत को Computer Software के लिए सबसे बेहतर भाषा माना था। 9. किसी और भाषा के मुकाबले संस्कृत में सबसे कम शब्दो में वाक्य पूरा हो जाता है। 10. संस्कृत दुनिया की अकेली ऐसी भाषा है जिसे बोलने में जीभ की सभी मांसपेशियो का इस्तेमाल होता है। 11. अमेरिकन हिंदु युनिवर्सिटी के अनुसार संस्कृत में बात करने वाला मनुष्य बीपी, मधुमेह, कोलेस्ट्रॉल आदि रोग से मुक्त हो जाएगा. संस्कृत में बात करने से मानव शरीरका तंत्रिका तंत्र सक्रिय रहता है जिससे कि व्यक्ति का शरीर सकारात्मक आवेश(PositiveCharges) के साथ सक्रिय हो जाता है। 12. संस्कृत स्पीच थेरेपी में भी मददगार है यह एकाग्रता को बढ़ाती है। 13. कर्नाटक के मुत्तुर गांव के लोग केवल संस्कृत में ही बात करते है। 14. सुधर्मा संस्कृत का पहला अखबार था, जो 1970 में शुरू हुआ था। आज भी इसका ऑनलाइन संस्करण उपलब्ध है। 15. जर्मनी में बड़ी संख्या में संस्कृतभाषियो की मांग है। जर्मनी की 14 यूनिवर्सिटीज़ में संस्कृत पढ़ाई जाती है। 16. नासा के वैज्ञानिकों के अनुसार जब वो अंतरिक्ष ट्रैवलर्स को मैसेज भेजते थे तोउनके वाक्य उलट हो जाते थे. इस वजह से मैसेज का अर्थ ही बदल जाता था. उन्होंले कई भाषाओं का प्रयोग किया लेकिन हर बार यही समस्या आई. आखिर में उन्होंने संस्कृत में मैसेज भेजा क्योंकि संस्कृत के वाक्य उल्टे हो जाने पर भी अपना अर्थ नही बदलते हैं। जैसे अहम् विद्यालयं गच्छति। विद्यालयं गच्छति अहम्। गच्छति अहम् विद्यालयं । उक्त तीनो के अर्थ में कोई अंतर नहीं है। 17. आपको जानकर हैरानी होगी कि Computer द्वारा गणित के सवालो को हल करने वाली विधि यानि Algorithms संस्कृत में बने है ना कि अंग्रेजी में। 18. नासा के वैज्ञानिको द्वारा बनाए जा रहे 6th और 7th जेनरेशन Super Computers संस्कृतभाषा पर आधारित होंगे जो 2034 तक बनकर तैयार हो जाएंगे। 19. संस्कृत सीखने से दिमाग तेज हो जाता है और याद करने की शक्ति बढ़ जाती है। इसलिए London और Ireland के कई स्कूलो में संस्कृत को Compulsory Subject बना दिया है। 20. इस समय दुनिया के 17 से ज्यादा देशो की कम से कम एक University में तकनीकी शिक्षा के कोर्सेस में संस्कृत पढ़ाई जाती है। संस्कृत के बारे में ये 20 तथ्य जान कर आपको भारतीय होने पर गर्व होगा।
वार्तालाप संवाद समाप्त |

कुरान समीक्षा : खुदा ने व्यभिचार के लिए औरतें भेंट की

खुदा ने व्यभिचार के लिए औरतें भेंट की

क्या खुदा का पेशा जिनाखोरी अर्थात् व्यभिचार के लिये ओरतें पहुंचाना भी है? खुदा ने चचाजात व बुआजात बहिनों से शादी करना सभी मुसलमानों के लिए जायज क्यों नहीं किया? केवल मुहम्मद के साथ पक्षपात क्यों किया। क्या अय्याशी के लिये लोंडियां अब भी मुसलमानों को खुदा (supply) अर्थात् पेश करता है?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

या अय्युहन्नबिय्यु इन्ना अह्लल्ना………….।।

(कुरान मजीद पारा २१ सूरा अहजाब रूकू ६ आयत ५०)

ऐ पैगम्बर! हमने वह बीबियाँ तुझ पर हलाल की जिनको मेहर तू दे चुका है और लोंडियाँ जिन्हें अल्लाह तेरी तरफ लाया और तेरे चचा की बेटियाँ और तेरी बूआ की बेटियाँ जो तेरे साथ देश त्याग कर आई हैं और वह मुसलमान औरतें जिन्होंने अपने को पैगम्बर के लिए दे दिया ।

बशर्ते कि पैगम्बर भी उनके निकाह करना चाहे। यह हुक्म खास तेरे लिए है सब मुसलमानों के लिये नहीं।

समीक्षा

इसमें खुदा औरतों और लोंडियों को मुहम्मद के पास लाया ताकि वह उनको भोग सके खुदा ने खास रियायत मुहम्मद पर की थी। अच्छा होता यदि यही रियायत सभी मुसलमानों को भी दे दी जाती। खुदा जिना अर्थात् दुराचार के लिए औंरते भी supply करता है यह कुरान की बढ़िया बात है।

मुहम्मद साहब को जिन्दगी में औंरतों का पूरा-पूरा आनन्द खुदा देता रहा था। औरतें यदि उनसे सन्तुष्ट ने होकर बदकारी औरों के साथ करती थीं तो खुदा घरेलू मैनेजर की तरह उनको डाँटता भी रहता था जैसा कि पीछे दिखाया भी जा चुका है। देखो पूर्व दिया गया प्रश्न नं० १२२ जिसमें इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।

मैंने आर्य समाज मन्दिर में महर्षि दयानन्द जी का एक स्टेचू (बुत) जो केवल मुँह और गर्दन का है जिसका रंग गहरा ब्राउन है, रखा देखा है। पूछने पर पता चला कि यह किसी ने उपहार में दिया है। आप कृपया स्पष्ट करें कि क्या महर्षि का स्टेचू भेंट में लेना, बनाना और भेंट देना आर्य समाज के सिद्धान्त के अनुरूप है? जहाँ तक मेरा मानना है महर्षि ने अपनी प्रतिमा बनाने की सत मना ही की थी। कृपया स्पष्ट करें।

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासाःआदरणीय समपादक महोदय सादर नमस्ते। निवेदन यह है कि मैंने आर्य समाज मन्दिर में महर्षि दयानन्द जी का एक स्टेचू (बुत) जो केवल मुँह और गर्दन का है जिसका रंग गहरा ब्राउन है, रखा देखा है। पूछने पर पता चला कि यह किसी ने उपहार में दिया है। आप कृपया स्पष्ट करें कि क्या महर्षि का स्टेचू भेंट में लेना, बनाना और भेंट देना आर्य समाज के सिद्धान्त के अनुरूप है? जहाँ तक मेरा मानना है महर्षि ने अपनी प्रतिमा बनाने की सत मना ही की थी। कृपया स्पष्ट करें।

धन्यवाद, सादर।

– डॉ. पाल

समाधानःमहर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में कभी सिद्धान्तों से समझौता नहीं किया। वे वेद की मान्यतानुसार अपने जीवन को चला रहे थे और समपूर्ण विश्व को भी वेद की मान्यता के प्रति लाना चाहते थे। वेद ईश्वर का ज्ञान होने से वह सदा निर्भ्रान्त ज्ञान रहता है, उसमें किसी भी प्रकार के पाखण्ड अन्धविश्वास का लेश भी नहीं है। वेद ही ईश्वर, धर्म, न्याय आदि के विशुद्ध रूप को दर्शाता है। वेद में परमेश्वर को सर्वव्यापक व निराकार कहा है। प्रतिमा पूजन का वेद में किसी भी प्रकार का संकेत नहीं है। महर्षि दयानन्द ने वेद को सर्वोपरि रखा है। महर्षि दयानन्द समाज की अवनति का एक बड़ा कारण निराकार ईश्वर की उपासना के स्थापना पर प्रतिमा पूजन को मानते हैं। जब से विशुद्ध ईश्वर को छोड़ प्रतिमा पूजन चला है तभी से मानव समाज कहीं न कहीं अन्धविश्वास और पाखण्ड में फँसता चला गया। जिस मनुष्य समुदाय में पाखण्ड अन्धविश्वास होता है वह समुदाय धर्म भीरु और विवेक शून्य होता चला जाता है। सृष्टि विरुद्ध मान्यताएँ चल पड़ती हैं, स्वार्थी लोग ऐसा होने पर भोली जनता का शोषण करना आरा कर देते हैं।

महर्षि दयानन्द और अन्य मत समप्रदाय में एक बहुत बड़ा मौलिक भेद है। महर्षि व्यक्ति पूजा से बहुत दूर हैं और अन्य मत वालों का समप्रदाय टिका ही व्यक्ति पूजा पर है। महर्षि ईश्वर की प्रतिमा और मनुष्य आदि की प्रतिमा पूजन का विरोध करते हैं, किन्तु अन्य मत वाले इस काम से ही द्रव्य हरण करते हैं। इस व्यक्ति पूजा के कारण समाज में अनेक प्रकार के अनर्थ हो रहे हैं। इसी कारण बहुत से अयोग्य लोग गुरु बनकर अपनी पूजा करवा रहे हैं। जीते जी तो अपनी पूजा व अपने चित्र की भी पूजा करवाते ही हैं, मरने के बाद भी अपनी पूजा करवाने की बात करते हैं और भोली जनता ऐसा करती भी है। इससे अनेक प्रकार के अनर्थ प्रारमभ हो जाते हैं। महर्षि दयानन्द ने जो अपना चित्र न लगाने की बात कही है, वह इसी अनर्थ को देखते हुए कही है। महर्षि विचारते थे कि इन प्रतिमा पूजकों से प्रभावित हो मेरे चित्र की भी पूजा आरमभ न कर दें। इसी आशंका के कारण महर्षि ने अपने चित्र लगाने का निषेध किया था।

यदि हम आर्य महर्षि के सिद्धान्तों के अनुसार चल रहे हैं, प्रतिमा पूजन आदि नहीं कर रहे हैं तो महर्षि के चित्र आदि लगाए जा सकते हैं रखे जा सकते हैं। चित्र वा मूर्ति रखना अपने आप में कोई दोष नहीं है। दोष तो उनकी पूजा आदि करने में हैं। महर्षि मूर्ति के विरोधी नहीं थे, महर्षि का विरोध तो उसकी पूजा करने से था। यदि महर्षि केवल चित्र वा मूर्ति के विरोधी होते तो अपने जीवन काल में इनको तुड़वा चुके होते, किन्तु महर्षि के जीवन से ऐसा कहीं भी प्रकट नहीं होता कि कहीं महर्षि दयानन्द ने मूर्तियों को तुड़वाया हो। अपितु यह अवश्य वर्णन मिलता है कि जिस समय महर्षि फर्रुखाबाद में थे, उस समय फर्रुखाबाद बाजार की नाप हो रही थी। सड़क के बीच में एक छोटा-सा मन्दिर था, जिसमें लोग धूप दीप जलाया करते थे। बाबू मदनमोहन लाल वकील ने स्वामी जी से कहा कि मैजिस्ट्रेट आपके भक्त हैं, उनसे कहकर इस मठिया को सड़क पर से हटवा दीजिये। स्वामी जी बोले ‘‘मेरा काम लोगों के मनो से मूर्तिपूजा को निकालना है, ईंट पत्थर के मन्दिरों को तोड़ना-तुड़वाना मेरा लक्ष्य नहीं है।’’ यहाँ महर्षि का स्पष्ट मत है कि वे मूर्ति पूजा के विरोधी थे, न कि मूर्ति के।

आर्य समाज का सिद्धान्त निराकार, सर्वव्यापक, न्यायकारी आदि गुणों से युक्त परमेश्वर को मानना व उसकी उपासना करना तथा ईश्वर वा किसी मनुष्य की प्रतिमा पूजन न करना है। इस आधार पर महर्षि का स्टेचू भेंट लेना देना आर्य समाज के सिद्धान्त के विपरीत नहीं, सिद्धान्त विरुद्ध तब होगा जब उस स्टेचू की पूजा आरमभ हो जायेगी। आर्य समाज का सिद्धान्त चित्र की नहीं चरित्र की पूजा अर्थात् महापुरुषों के आदर्शों को देखना अपनाना है।

किसी भी महापुरुष के चित्र वा स्टेचू को देखकर हम उनके गुणों, आदर्शों, उनकी योग्यता विशेष का विचार करते हैं तो स्टेचू का लेना-देना कोई सिद्धान्त विरुद्ध नहीं है। जब हम उपहार में पशुओं वा अन्य किन्हीं का स्टेचू भेंट कर सकते हैं तो महर्षि का क्यों नहीं कर सकते?

घर में जिस प्रकार की वस्तुएँ या चित्र आदि होते हैं उनका वैसा प्रभाव घर में रहने वालों पर पड़ता है। जब फिल्मों में काम करने वाले अभिनेता अभिनेत्रियों के भोंडे कामुकतापूर्ण चित्र वा प्रतिमाएँ रख लेते हैं, लगा लेते हैं तो घर में रहने वाले बड़े वा बच्चों पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है आप स्वयं अनुमान लगाकर देख सकते हैं। इसके विपरीत महापुरुषों क्रान्तिकारियों के चित्र घर में होते हैं तो घर वालों पर और बाहर से आने वालों पर कैसा प्रभाव पड़ता होगा। घर में रहने वालों की विचारधारा को घर में लगे हुए चित्र व वस्तुएँ बता देती हैं। अस्तु।

महर्षि ने अपनी प्रतिमा बनाने का विरोध किया था, वह क्यों किया इसका कारण ऊपर आ चुका है। स्टेचू, चित्र आदि का भेंट में लेना-देना आर्य समाज के सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं है। यह लिया-दिया जा सकता है, कदाचित् इसकी पूजा वा अन्य दुरुपयोग न किया जाय तो। इसमें इसका भी ध्यान रखें कि पुराण प्रतिपादित कल्पित देवता जो कि चार-आठ हाथ व चार-ेपाँच मुँह वाले वा अन्य किसी जानवर के  रूप में हों उनसे लेने देने से बचें।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

 

प्रभु की कृति में उसे देखने वाले का मन विषयों से बचता है

प्रभु की कृति में उसे देखने वाले का मन विषयों से बचता है
डा. अशोक आर्य
ऋग्वेद के पंचम सूक्त में बताया गया था कि हम सोम को शरीर में सुरक्षित कर इशान बनें व सामूहिक रुप से प्रभु की प्रार्थना करें । इन सुरक्षित शरीरों ( जिन में हमारा शरीर , हमारा मन तथा हमारी बुद्धि भी सम्मिलित है ) को हम किन कार्यों में , किन कर्मों में लगावे , व्यस्त करें ? हमारी इस जिज्ञासा का , इस बात को जानने का जो यत्न है , इसका उतर इस मण्डल के सूक्त छ: में दिया है । अत; इसे जानने के लिए सूक्त छ: का स्वाध्याय हम इस छ्टे सूक्त के प्रथम मन्त्र से करते हैं । मन्त्र उपदेश करता है कि : –

युञ्जन्तिब्रध्नमरुषंचरन्तंपरितस्थुषः।
रोचन्तेरोचनादिवि॥ ऋ01.6.1
युन्जन्ति ब्रघ्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुष: ।
रोचन्ते रोचना दिवि ॥रिग्वेद १.६.१ ॥
इस मन्त्र में पाच बातों की और मानव का ध्यान आकर्षित करते हुए इस प्रकार उपदेश किया गया है कि :
१. सूर्य सम्बन्धी ज्ञान :
ऊपर इशान बनने के लिए प्रेरित किया गया है । इशान बनने के लिए , दूसरे शब्दों में इन्द्रियों को विभिन्न प्रकार की वासनाओं से , विषयों से रोकने के लिए अभ्यास करने वाले अपने मन आदि को ब्रध्न में अर्थात आदित्य व सूर्य में लगाते हैं क्योंकि यह ही ब्रध्न हैं । इस प्रकार जब यह अपने मन को सूर्य में लगाते हैं तो यह लोग सूर्य समबन्धी सब ज्ञान को पाने का यत्न करते हैं । सूर्य क्या है ?, इसकी क्या बनावट है ?, इसके क्या लाभ हैं ?, यह कैसे गति करता है ? आदि , इन सब बातों को जानने की यत्न करते हैं । इस प्रकार सूर्य सम्बन्धी सब ज्ञान को पाते हैं तथा यथावश्यक सूर्य से लाभ प्राप्त करते हैं ओर इस से मिलने वाले लाभों में प्रभु की महिमा उन्हें दिखाई देती है , वह उस महिमा को देखते हैं ।
२. अग्नि प्रभु के गुणों का दर्शन :
सूर्य का सम्बन्ध अग्नि से होता है । अत: यह अपना सम्बन्ध अग्नि से जोडने का यत्न करते हैं । अपने मन को अग्नि में लगाते हैं । अब यह अग्नि विज्ञान का भी विषद अध्ययन करते हैं । इस के रहस्यों को भली प्रकार समझ कर अपने मन को इस में लगाते हैं । अग्नि में लगा हुआ यह मन प्रसंगवश जो विष्य आ जाते हैं, उन सब से हमारा यह मन बचा रहता है । जब मन विषयों से दूर होकर अग्नि में लग जाता है तो यह मन अग्नि का ठीक प्रकार से , उत्तम विधि से प्रयोग करता हुआ यह अग्निविद्या – वित पुरुष होने से अग्नि में भी उस प्रभु के महात्म्य का , उस प्रभु की महिमा का , उस प्रभु के गुणों का दर्शन करता है ।
३. वायु में प्रभु की महिमा :
अग्नि के रहस्यों को समझ व उन्हें आत्मसात करने के पश्चात हमारा यह मन वायु को जानने का यत्न करता है । यह वायु विज्ञान के अन्तर्गत वायु के गुणों को भी समझने का प्रयास करता है । वायु के ज्ञान को पाने पर यह इस का जब सदुपयोग काता है तो इससे हमारे स्वास्थ्य को पुष्टि मिलती है । हम स्वस्थ व पुष्ट हो जाते हैं । एसी अवस्था में हमें वायु में भी उस प्रभु की महिमा दिखाई देने लगति है। हम वायु को भी देव स्वीकार कर लेते हैं ।
४. अधिष्ठान्भूत लोकों का ज्ञान :
वायु के रहस्यों को समझने तथा इन्हें आत्मसत करने के पश्चात यह मधुछ्न्दा रुपी जीव अपने मन को अनेक प्रकार के विषयों में फ़ंसने से बचाना चाह्ता है तथा इस हेतु वह इसे इन लोकों के ज्ञान की प्राप्ति में व्यस्त करता है , लगाता है । वह देखता है कि अग्निदेव का निवास पृथिवी पर होता है । जिसे वह वायु रुपि देव स्वीकार कर चुका है , उस देव का निवास अन्तरिक्ष में होता है तथा अग्नि का प्रतीक जिसे उसने सूर्य को स्वीकार किया है , उसका निवास द्युलोक में होता है ।
एक ज्ञानी व्यक्ति अपने मन को जहां अग्नि ,वायु तथा अग्नि के ज्ञान को पाने में लगाता है । इन सब के सम्बन्ध में विस्तार से जानकारी पाने का यत्न करता है वहां वह इन सब के अधिष्ठान्भूत लोकों का , उन लोकों का जो इन सब के अधिष्ठाता कहे जाते हैं , जिनके सहारे यह सब टिके हैं , उन सबका भी ज्ञान पाने का , उन्हें भी विस्तृत रुप से पाने का यत्न करता है । हम जानते हैं कि खाली मन शैतान का घर होता है । जब हमारा मन इन सब प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करने में लग जाता है तो इस मन के पास अन्य किसी ओर जाने का समय ही नहीं होता । जो व्यक्ति सदा कर्म में लगा रहता है , अपने आप को किसी न कीसी कार्य में व्यस्त रखता है , उसके सामने से हाथी भी निकल जावे तो उसे पता नहीं चलता । इस प्रकार के व्यस्त मन का ध्यान कभी विषय – विकारों की ओर जावेगा ,यह तो कोई सोच भी नहीं सकता । अत: एसा मन विषयों के दोष से बचा रहता है । कभी विषयों की ओर जाता ही नहीं ।
५. तारों में प्रभु की कांति : मन्त्र का अन्तिम भाग बता रहा है कि जब मन सब प्रकार से व्यस्त रहता है तथा इन सब के गू्ढ रह्स्यों का ज्ञान पाने का यत्न करता है , सदा इस ज्ञान पाने में व्यस्त रहता है तो यह इन देदिप्यमान नक्षत्रों में लगता है । यह सब नक्षत्र द्युलोक में सदा चमकते हुए दिखाई देते हैं । ये नक्षत्र आकाश को अच्छादित करते हैं , आकाश इन नक्षत्रों , इन तारों से भर जाता है । यह तारे भी तो उस प्रभू का ही स्तवन कर रहे हैं , उस प्रभु के ही गुणों का गायन कर रहे हैं । उसका ही कीर्तन करते से दिखाई देते हैं । तारों में भी प्रभु की कांति दिखाई देती है ।
इस प्रकार यह ज्ञानी मन , यह ज्ञानी पुरूष सदा ज्ञान को पाने का यत्न करता रहता है , ज्ञान प्राप्ति में व्यस्त रहता है । इस कार्य के लिए यह सूर्य , अग्नि, वायु , द्युलोक, पृथिवीलोक, अन्तरिक्ष लोक व नक्षत्रों आदि में भी प्रभु की महिमा को देखता है तथा इस महिमा को देखकर , उसकी इस महान कृति को देखकर वह उस पिता के आगे नत हो जाता है , अपना सिर उस पिता की इस कारागरी के आगे झुका लेता है , वह जान जाता है कि वह प्रभु कितना महान है । उसकी महानता के आगे वह नत हो जाता है । जहां वह प्रभु की इस कारागरी को समझने के कारण वह उसके आगे नत हो जाता है , वहां इस ज्ञान को पाने के निरन्तर यत्न से उसका ध्यान वासनाओं की ओर नहीं जा पाता । वासनाओं से बचे रहने के कारण वह इशन भी बना रहता है । कर्मशील का मन विषयों में जाने से बचा रहता है ।

डा. अशोक आर्य

कुरान समीक्षा : मुहम्मद की बीबियों को खुदा की धमकी

मुहम्मद की बीबियों को खुदा की धमकी

क्या इससे यह प्रगट नहीं होता कि बुढ़ापे में ज्यादा शादियां करने से मुहम्मद की बीबियाँ बदकार हो गई थीं और खुदा को मजबूर होकर उनको बदकारी से बाज आने की धमकी देनी पड़ी थी? बतावें कि खुदा ने ऐसी कमजोर चरित्र वाली औरतें पैगम्बर को क्यों ब्याहने को दे थी? क्यों खुदा पहले से ही नहीं जान पाया था कि ये ओरतें आगे चलकर बदकार बन जावेंगी?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

या निसा अन्नबिय्यि मंय्यअ्ति मिन्कुन्………..।।

(कुरान मजीद पारा २१ सूरा अहजाब रूकू ३ आयत ३०)

ऐ पैगम्बर की बीबियों! तुममें से जो कोई जाहिर बदकारी करेंगी, उसके लिए दोहरी सजा दी जायेगी और अल्लाह के नजदीक यह मामूली बात है।

समीक्षा

इससे स्पष्ट है कि मुहम्मद की बीबियाँ बदकार थीं और खुदा को उन्हें बदकारी से रोकने को धमकी भी देनी पड़ी। ज्यादा शादियाँ करने वालों की बीबियाँ यदि बदकार हो जावें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मुहम्मद साहब की निकाही बीबियाँ बारह थीं और वे निकाही बीबियाँ व लोंडियाँ भी बदलती रहती थी।

आत्मा का स्थान-1

आत्मा का स्थान-1

–  स्वामी आत्मानन्द

आत्मा शरीर में किस स्थान पर रहता है? यह एक प्रश्न है। इस प्रश्न को अवकाश तब ही मिलता है जबकि हम आत्मा को अणु मान लें। व्यापक मान लेने पर तो आत्मा सारे ही शरीर में और शरीर से बाहर भी विद्यमान होगा, अतः इस सिद्धान्त को मानने वाले के सामने तो यह प्रश्न उपस्थित ही नहीं होता। आत्मा को मध्यम परिमाण वाला मानने वाले विचारकों के समान भी यह प्रश्न आता नहीं। क्योंकि वे आत्मा को सारे शरीर में व्यापक मानते हैं उसके किसी एक देश में नहीं। अतः यह प्रश्न उन्हीं विचारकों के सामने उपस्थित होता है जो आत्मा को अणु, और इसी लिये शरीर के किसी एक देश में उसका निवास मानते हैं। यद्यपि प्रसङ्ग-वश उपनिषदों की दृष्टि से आत्मा के परिमाण का भी निर्देश कर दिया जावेगा, परन्तु इस लेख का विचारणीय विषय यह नहीं है कि आत्मा का परिमाण क्या है। इस लेख में दर्शनों के आधार पर नहीं, केवल उपनिषदों के आधार पर इस प्रश्न का उत्तर दिया जावेगा कि ‘आत्मा का निवास हमारे शरीर के किस भाग में है’?

यह लेख इस दृष्टि से नहीं लिखा जा रहा है कि इसे ही सिद्धान्त मान लिया जावे जो विषय इस लेख में प्रतिपादित है। प्रत्युत मैं यह विचार धारा ‘भवद्यः-अवसरप्रदानाय वचान्सि नः’ (=आप कुछ कहें, इसलिए हम बोल रहे हैं) इस भावना से प्रस्तुत कर रहा हूँ। जो विद्वान् महानुभाव इस विचारमाला में अपने मनोहर पुष्पों को युक्ति से गूंथने की कृपा करेंगे मैं उनका आभारी हूँगा। मैं यह कभी आग्रह न करुँगा कि जो कुछ मैंने समझा है वह ही ठीक है। जो उत्तम विचार इस विषय में संगृहीत हो सकें, उनका सङ्कलन कर जनता के लाभ की वस्तु बना देना ही एक मात्र लक्ष्य है। विद्वानों के पारस्परिक विचार प्रसङ्ग में आई हुई कटुता जनता को तथा विद्वानों को स्वयं भी खटकती है और उस कटुता के पर्दे में छिपा हुआ विषय अनुपादेय सा ही बन जाता है। अतः सविनय प्रार्थना है और आशा है कि निबन्ध की त्रुटियों को सुझाता हुआ   विद्वत्समुदाय सन्मार्ग प्रदर्शित करने का यत्न करेगा। आत्मा चेतना का आश्रय है। हमें अपने अन्तःकरण आदि साधनों से जितने ज्ञान होते हैं उन सब का कर्ता आत्मा ही है।

हमारी इन्द्रियाँ, अन्तःकरण तथा मस्तिष्क आदि जितने भी साधन हैं वे सब ही जड़ हैं। इनमें से यद्यपि अन्तःकरण में तथा इन्द्रियों में प्रकाश है, परन्तु उस प्रकार का प्रकाश जिसे चैतन्य कहते हैं, और जो आत्मा में है, इनमें नहीं है। इनके प्रकाश का प्रत्यक्ष अन्तर्मुखी चक्षु से हो सकता है, परन्तु आत्मा के चैतन्य रूप प्रकाश का प्रत्यक्ष चक्षु से नहीं हो सकता। जिस प्रकार सूर्य एक कक्ष पर अपना प्रकाश डालकर उसे प्रकाशित कर देता है, परन्तु जड़ होने के कारण यह नहीं जान सकता कि यह कक्ष है। इसी प्रकार मन और इन्द्रियाँ भी सूर्य की भांति ही कक्ष को प्रकाशित तो करते हैं परन्तु वे भी यह नहीं जान सकते कि यह कक्ष है क्योंकि वे  भी जड़ हैं।

आत्मा, सूर्य, मन, और इन्द्रियों के प्रकाशित किये हुए कक्ष को उन्हीं की भाँति प्रकाशित तो नहीं करता, परन्तु उनके द्वारा प्रकाशित किये उस कक्ष की इसे अपने चैतन्य के बल पर अनुभव हो जाता है, और वह जान लेता है कि यह कक्ष है। इस प्रत्यक्ष की साधन जो आत्मा का चैतन्य है उसका प्रत्यक्ष न इन्द्रियाँ कर सकती हैं और न मन। अपने इस चैतन्य का प्रत्यक्ष या तो आत्मा स्वयं करता है या ईश्वर को इसके ज्ञान का प्रत्यक्ष होता है। इसे अपने ज्ञान का प्रत्यक्ष तब हुआ करता है जब यह कक्ष को जान कर यह कहा करता है कि ‘‘मैं कक्ष को जानता हूँ’’ इसके इस कथन का तात्पर्य यह हुआ करता है कि मेरे पास कक्ष का ज्ञान है। यह आत्मा को अपने उस ज्ञान का प्रत्यक्ष हुआ है जो कि उसे पहिले‘‘यह कक्ष है’’ इस रूप में हुआ था, और जिसमें कि इन्द्रियों का और मन का सहयोग था। परन्तु इस ज्ञान के ज्ञान काल में तो ये सब साधन मौन हैं। इसी कारण आत्मा के तथा ईश्वर के अभौतिक चैतन्य का प्रकाश इन्द्रियों से तथा मन से नहीं हो सकता क्योंकि चैतन्य इस सब की पहुँच से परे है।

उपनिषद् के ‘‘न तत्र सूर्यो भाति’’ (उसके सामने सूर्य नहीं चमक सकता) इस वाक्य का यही तात्पर्य है कि सूर्य का प्रकाश प्रभु के प्रकाश को प्रकाशित नहीं कर सकता। ‘‘तस्य भासा सर्वमिदं विभाति’’ (उसके प्रकाश से यह सब चमक रहा है)इस वाक्य का तात्पर्य भी यह नहीं है, जैसे कि सूर्य और चन्द्रमा के विषय में कहा जाता है, कि सूर्य के प्रकाश से चन्द्रमा चमक रहा है। यदि यह ही तात्पर्य होता तो हमें समझना पड़ता कि जैसा सूर्य का प्रकाश है वैसा ही और उससे सहस्रों गुणा प्रकाश ईश्वर का होगा, जिससे कि सूर्य आदि चमक रहे हैं परन्तु बात ऐसी नहीं है। यदि सूर्य जैसा और सूर्य से सहस्रों गुणा प्रकाश ईश्वर का होता तो वह हमें अपनी इन आंखों द्वारा ही दिखाई देना चाहिये था। और दिखाई देना तो दूर रहा उसे इतने महान प्रकाश से हमारी आंखें इतनी चुन्धिया जाती कि हमें कुछ भी दिखाई न देता, क्योंकि सूर्य तो हमसे बहुत दूर एक ही स्थान पर है और उसका प्रकाश बड़ी दूर से हमारे पास आता है, परन्तु ईश्वर का प्रकाश तो उसके सर्वव्यापक होने से हमारी आंखों के बीच में ही विद्यमान् है। अतः ईश्वर का प्रकाश सूर्य जैसा नहीं, आत्मा जैसा अनुरूप है। परन्तु वह प्रकाश आत्मा के प्रकाश से कितना अधिक है यह लिखने और बोलने की बात नहीं है। इसका अनुमान यहाँ से ही लगा सकते कि जीव एक अणु के समान है और ईश्वर सर्वव्यापक है। इस प्रकार आत्मा का प्रकाश अभौतिक और अनुभव रूप है उसका भौतिक साधनों से प्रत्यक्ष नहीं हो सकता और इसके अतिरिक्त अन्य तत्त्वों का प्रकाश भौतिक है उसका अन्य साधनों के सहकार से आत्मा को प्रत्यक्ष होता है।

‘ईश्वर के प्रकाश से सूर्य आदि चमक रहे हैं’ इस उपनिषद् के वाक्य का तात्पर्य यह ही है कि ईश्वर का ज्ञान इतना अधिक है कि प्रभु उस प्रकाश में प्रकृति के प्रत्येक अणु की शक्ति को पहिचान कर, सूर्य आदि पदार्थों की रचना में ऐसे परमाणुओं की योजना करता है कि उनसे निर्मित पदार्थ एक महान् प्रकाश का भण्डार बन जाता है। यदि ईश्वर का ऐसा ज्ञान न होता तो इन प्रकाश के पुञ्ज पदार्र्थों की रचना न हो सकती। बस यह ही उपनिषद् के इस वाक्य का तात्पर्य है।

इस प्रसङ्ग में आत्मा के सबन्ध में हमने यह बतलाने का यत्न किया है कि आत्मा एक चेतनावान् तत्त्व है। उसे उस चेतना अथवा अनुभव के द्वारा ही सब पदार्थों के ज्ञान होते हैं। इन्द्रियाँ, मन, मस्तिष्क आदि सब उसके इस ज्ञान में साधन हैं। ये स्वयं चेतनावान् नहीं है।

अब प्रश्न यह होता है कि आत्मा यदि चेतनावान् है तो उसकी उस चेतना की प्रतीति तो इस सारे ही शरीर में है। शरीर के प्रत्येक अङ्ग में जो क्रियाएँ अन्दर अथवा बाहर हो रही हैं उन सब को चेतना के आधार पर ही जन्म मिलता है। मन, प्राण, इन्द्रिय आदि साधन इन क्रियाओं की उत्पत्ति में आत्मा के सहायक हो सकते हैं परन्तु जड़ होने के कारण वे स्वयं सोच कर किसी क्रिया को उत्पन्न नहीं कर सकते। और जब क्रियाएँ शरीर के सब अङ्गों में हो रही हैं और आत्मा ही उनका जनक है तो आत्मा का निवास सारे शरीर में ही होना चाहिये। आत्मा शरीर के किसी एक भाग में हो और उसका चैतन्य शरीर के सब अङ्गों में क्रिया को उत्पन्न कर देगा यह माना नहीं जा सकता। क्योंकि गुण अपने गुणी में ही रहा करता हैं।अतःचैतन्य भी शरीर के उसी भाग में होगा जिसमें आत्मा है अतः वह भी सारे शरीर में क्रिया को उत्पन्न नहीं कर सकता। अतः आत्मा को ही इन क्रियाओं की उत्पत्ति के लिये सारे शरीर में व्यापक मानना चाहिये।   क्रमश…..

 

छिपे हुए सच

छिपे हुए सच
“टिकट नहीं है साहब !” लोकल ट्रेन में पास ही बैठे उस लड़के की आवाज से वह सहसा अपने विचारों से उभर आया जिसमें वह अक्सर अपनी यात्रा में खो जाया करता था। उस लड़के ने अपनी बात कहने के साथ ही अपनी कलाई टिकट चेकर की ओर बढ़ा रखी थी जिस पर ‘गोल स्टैम्प’ लगी हुयी थी जो आमतौर पर जेल से रिहा होते समय बतौर पहचान लगा दी जाती है।
चेकर टिकट चेक करता हुआ आगे निकल गया और वह शख्स अब अनायास ही उस लड़के के बारे में जानने को उत्सुक हो उठा।
“क्या किया था बेटा ? जो ‘सजा’ हुयी थी तुम्हे !”
“कुछ नहीं, बस मंदिर से एक मुकुट चोरी का आरोप था।” वह धीरे से मुस्करया।
“क्यों किया था ऐसा ?
“मैंने नही, मेरे एक दोस्त ने चुराया था।”
“और वो दोस्त….!
“वो बच गया, मूर्ति मेरे पास थी।”
“ओह ! सच में क़ानून की आँखों पर पट्टी बंधी है।” उसने अफ़सोस जताया।
“नहीं साहब, उस पट्टी की ओट से बहुत कुछ देखा भी जाता है और झूठ-सच बेचा भी जाता है।” लड़के की बातों में बड़ो जैसी गंभीरता थी।
“मैं समझा नही, क्या कहना चाहते हो ?” उसने लड़के को कुरेदना चाहा।
“साहब ! मेरा दोस्त उसी मंदिर के पुजारी का बेटा है और उनकी सहमति से ही ये चोरी हुयी थी।”
“ओह ! सच में लोगों को अब कानून का डर नही रहा।”
“साहब, जिन्हें ईश्वर की खुली आँखों का डर नही वो कानून की बंद आँखों से क्या डरेंगे?” लड़का समझदारी की बात कह रहा था।
सही कहा बेटा ! पर तुम्हे तो इंसाफ नही मिला। व्यर्थ ही सजा काट आये।” उसने लड़के की ओर देख गहरी सांस ली।
“कोई बात नही साहब ! कभी कभी पर्दे के पीछे का सच भी दिखाई नही देता।” लड़का मुस्कराने लगा। “मुझे सजा काटने का कोई दुःख नही क्योंकि सौदे में मेरा हिस्सा तो मुझे पहले ही मिल गया था।