प्रभु की कृति में उसे देखने वाले का मन विषयों से बचता है

प्रभु की कृति में उसे देखने वाले का मन विषयों से बचता है
डा. अशोक आर्य
ऋग्वेद के पंचम सूक्त में बताया गया था कि हम सोम को शरीर में सुरक्षित कर इशान बनें व सामूहिक रुप से प्रभु की प्रार्थना करें । इन सुरक्षित शरीरों ( जिन में हमारा शरीर , हमारा मन तथा हमारी बुद्धि भी सम्मिलित है ) को हम किन कार्यों में , किन कर्मों में लगावे , व्यस्त करें ? हमारी इस जिज्ञासा का , इस बात को जानने का जो यत्न है , इसका उतर इस मण्डल के सूक्त छ: में दिया है । अत; इसे जानने के लिए सूक्त छ: का स्वाध्याय हम इस छ्टे सूक्त के प्रथम मन्त्र से करते हैं । मन्त्र उपदेश करता है कि : –

युञ्जन्तिब्रध्नमरुषंचरन्तंपरितस्थुषः।
रोचन्तेरोचनादिवि॥ ऋ01.6.1
युन्जन्ति ब्रघ्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुष: ।
रोचन्ते रोचना दिवि ॥रिग्वेद १.६.१ ॥
इस मन्त्र में पाच बातों की और मानव का ध्यान आकर्षित करते हुए इस प्रकार उपदेश किया गया है कि :
१. सूर्य सम्बन्धी ज्ञान :
ऊपर इशान बनने के लिए प्रेरित किया गया है । इशान बनने के लिए , दूसरे शब्दों में इन्द्रियों को विभिन्न प्रकार की वासनाओं से , विषयों से रोकने के लिए अभ्यास करने वाले अपने मन आदि को ब्रध्न में अर्थात आदित्य व सूर्य में लगाते हैं क्योंकि यह ही ब्रध्न हैं । इस प्रकार जब यह अपने मन को सूर्य में लगाते हैं तो यह लोग सूर्य समबन्धी सब ज्ञान को पाने का यत्न करते हैं । सूर्य क्या है ?, इसकी क्या बनावट है ?, इसके क्या लाभ हैं ?, यह कैसे गति करता है ? आदि , इन सब बातों को जानने की यत्न करते हैं । इस प्रकार सूर्य सम्बन्धी सब ज्ञान को पाते हैं तथा यथावश्यक सूर्य से लाभ प्राप्त करते हैं ओर इस से मिलने वाले लाभों में प्रभु की महिमा उन्हें दिखाई देती है , वह उस महिमा को देखते हैं ।
२. अग्नि प्रभु के गुणों का दर्शन :
सूर्य का सम्बन्ध अग्नि से होता है । अत: यह अपना सम्बन्ध अग्नि से जोडने का यत्न करते हैं । अपने मन को अग्नि में लगाते हैं । अब यह अग्नि विज्ञान का भी विषद अध्ययन करते हैं । इस के रहस्यों को भली प्रकार समझ कर अपने मन को इस में लगाते हैं । अग्नि में लगा हुआ यह मन प्रसंगवश जो विष्य आ जाते हैं, उन सब से हमारा यह मन बचा रहता है । जब मन विषयों से दूर होकर अग्नि में लग जाता है तो यह मन अग्नि का ठीक प्रकार से , उत्तम विधि से प्रयोग करता हुआ यह अग्निविद्या – वित पुरुष होने से अग्नि में भी उस प्रभु के महात्म्य का , उस प्रभु की महिमा का , उस प्रभु के गुणों का दर्शन करता है ।
३. वायु में प्रभु की महिमा :
अग्नि के रहस्यों को समझ व उन्हें आत्मसात करने के पश्चात हमारा यह मन वायु को जानने का यत्न करता है । यह वायु विज्ञान के अन्तर्गत वायु के गुणों को भी समझने का प्रयास करता है । वायु के ज्ञान को पाने पर यह इस का जब सदुपयोग काता है तो इससे हमारे स्वास्थ्य को पुष्टि मिलती है । हम स्वस्थ व पुष्ट हो जाते हैं । एसी अवस्था में हमें वायु में भी उस प्रभु की महिमा दिखाई देने लगति है। हम वायु को भी देव स्वीकार कर लेते हैं ।
४. अधिष्ठान्भूत लोकों का ज्ञान :
वायु के रहस्यों को समझने तथा इन्हें आत्मसत करने के पश्चात यह मधुछ्न्दा रुपी जीव अपने मन को अनेक प्रकार के विषयों में फ़ंसने से बचाना चाह्ता है तथा इस हेतु वह इसे इन लोकों के ज्ञान की प्राप्ति में व्यस्त करता है , लगाता है । वह देखता है कि अग्निदेव का निवास पृथिवी पर होता है । जिसे वह वायु रुपि देव स्वीकार कर चुका है , उस देव का निवास अन्तरिक्ष में होता है तथा अग्नि का प्रतीक जिसे उसने सूर्य को स्वीकार किया है , उसका निवास द्युलोक में होता है ।
एक ज्ञानी व्यक्ति अपने मन को जहां अग्नि ,वायु तथा अग्नि के ज्ञान को पाने में लगाता है । इन सब के सम्बन्ध में विस्तार से जानकारी पाने का यत्न करता है वहां वह इन सब के अधिष्ठान्भूत लोकों का , उन लोकों का जो इन सब के अधिष्ठाता कहे जाते हैं , जिनके सहारे यह सब टिके हैं , उन सबका भी ज्ञान पाने का , उन्हें भी विस्तृत रुप से पाने का यत्न करता है । हम जानते हैं कि खाली मन शैतान का घर होता है । जब हमारा मन इन सब प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करने में लग जाता है तो इस मन के पास अन्य किसी ओर जाने का समय ही नहीं होता । जो व्यक्ति सदा कर्म में लगा रहता है , अपने आप को किसी न कीसी कार्य में व्यस्त रखता है , उसके सामने से हाथी भी निकल जावे तो उसे पता नहीं चलता । इस प्रकार के व्यस्त मन का ध्यान कभी विषय – विकारों की ओर जावेगा ,यह तो कोई सोच भी नहीं सकता । अत: एसा मन विषयों के दोष से बचा रहता है । कभी विषयों की ओर जाता ही नहीं ।
५. तारों में प्रभु की कांति : मन्त्र का अन्तिम भाग बता रहा है कि जब मन सब प्रकार से व्यस्त रहता है तथा इन सब के गू्ढ रह्स्यों का ज्ञान पाने का यत्न करता है , सदा इस ज्ञान पाने में व्यस्त रहता है तो यह इन देदिप्यमान नक्षत्रों में लगता है । यह सब नक्षत्र द्युलोक में सदा चमकते हुए दिखाई देते हैं । ये नक्षत्र आकाश को अच्छादित करते हैं , आकाश इन नक्षत्रों , इन तारों से भर जाता है । यह तारे भी तो उस प्रभू का ही स्तवन कर रहे हैं , उस प्रभु के ही गुणों का गायन कर रहे हैं । उसका ही कीर्तन करते से दिखाई देते हैं । तारों में भी प्रभु की कांति दिखाई देती है ।
इस प्रकार यह ज्ञानी मन , यह ज्ञानी पुरूष सदा ज्ञान को पाने का यत्न करता रहता है , ज्ञान प्राप्ति में व्यस्त रहता है । इस कार्य के लिए यह सूर्य , अग्नि, वायु , द्युलोक, पृथिवीलोक, अन्तरिक्ष लोक व नक्षत्रों आदि में भी प्रभु की महिमा को देखता है तथा इस महिमा को देखकर , उसकी इस महान कृति को देखकर वह उस पिता के आगे नत हो जाता है , अपना सिर उस पिता की इस कारागरी के आगे झुका लेता है , वह जान जाता है कि वह प्रभु कितना महान है । उसकी महानता के आगे वह नत हो जाता है । जहां वह प्रभु की इस कारागरी को समझने के कारण वह उसके आगे नत हो जाता है , वहां इस ज्ञान को पाने के निरन्तर यत्न से उसका ध्यान वासनाओं की ओर नहीं जा पाता । वासनाओं से बचे रहने के कारण वह इशन भी बना रहता है । कर्मशील का मन विषयों में जाने से बचा रहता है ।

डा. अशोक आर्य

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