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मैंने आर्य समाज मन्दिर में महर्षि दयानन्द जी का एक स्टेचू (बुत) जो केवल मुँह और गर्दन का है जिसका रंग गहरा ब्राउन है, रखा देखा है। पूछने पर पता चला कि यह किसी ने उपहार में दिया है। आप कृपया स्पष्ट करें कि क्या महर्षि का स्टेचू भेंट में लेना, बनाना और भेंट देना आर्य समाज के सिद्धान्त के अनुरूप है? जहाँ तक मेरा मानना है महर्षि ने अपनी प्रतिमा बनाने की सत मना ही की थी। कृपया स्पष्ट करें।

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासाःआदरणीय समपादक महोदय सादर नमस्ते। निवेदन यह है कि मैंने आर्य समाज मन्दिर में महर्षि दयानन्द जी का एक स्टेचू (बुत) जो केवल मुँह और गर्दन का है जिसका रंग गहरा ब्राउन है, रखा देखा है। पूछने पर पता चला कि यह किसी ने उपहार में दिया है। आप कृपया स्पष्ट करें कि क्या महर्षि का स्टेचू भेंट में लेना, बनाना और भेंट देना आर्य समाज के सिद्धान्त के अनुरूप है? जहाँ तक मेरा मानना है महर्षि ने अपनी प्रतिमा बनाने की सत मना ही की थी। कृपया स्पष्ट करें।

धन्यवाद, सादर।

– डॉ. पाल

समाधानःमहर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में कभी सिद्धान्तों से समझौता नहीं किया। वे वेद की मान्यतानुसार अपने जीवन को चला रहे थे और समपूर्ण विश्व को भी वेद की मान्यता के प्रति लाना चाहते थे। वेद ईश्वर का ज्ञान होने से वह सदा निर्भ्रान्त ज्ञान रहता है, उसमें किसी भी प्रकार के पाखण्ड अन्धविश्वास का लेश भी नहीं है। वेद ही ईश्वर, धर्म, न्याय आदि के विशुद्ध रूप को दर्शाता है। वेद में परमेश्वर को सर्वव्यापक व निराकार कहा है। प्रतिमा पूजन का वेद में किसी भी प्रकार का संकेत नहीं है। महर्षि दयानन्द ने वेद को सर्वोपरि रखा है। महर्षि दयानन्द समाज की अवनति का एक बड़ा कारण निराकार ईश्वर की उपासना के स्थापना पर प्रतिमा पूजन को मानते हैं। जब से विशुद्ध ईश्वर को छोड़ प्रतिमा पूजन चला है तभी से मानव समाज कहीं न कहीं अन्धविश्वास और पाखण्ड में फँसता चला गया। जिस मनुष्य समुदाय में पाखण्ड अन्धविश्वास होता है वह समुदाय धर्म भीरु और विवेक शून्य होता चला जाता है। सृष्टि विरुद्ध मान्यताएँ चल पड़ती हैं, स्वार्थी लोग ऐसा होने पर भोली जनता का शोषण करना आरा कर देते हैं।

महर्षि दयानन्द और अन्य मत समप्रदाय में एक बहुत बड़ा मौलिक भेद है। महर्षि व्यक्ति पूजा से बहुत दूर हैं और अन्य मत वालों का समप्रदाय टिका ही व्यक्ति पूजा पर है। महर्षि ईश्वर की प्रतिमा और मनुष्य आदि की प्रतिमा पूजन का विरोध करते हैं, किन्तु अन्य मत वाले इस काम से ही द्रव्य हरण करते हैं। इस व्यक्ति पूजा के कारण समाज में अनेक प्रकार के अनर्थ हो रहे हैं। इसी कारण बहुत से अयोग्य लोग गुरु बनकर अपनी पूजा करवा रहे हैं। जीते जी तो अपनी पूजा व अपने चित्र की भी पूजा करवाते ही हैं, मरने के बाद भी अपनी पूजा करवाने की बात करते हैं और भोली जनता ऐसा करती भी है। इससे अनेक प्रकार के अनर्थ प्रारमभ हो जाते हैं। महर्षि दयानन्द ने जो अपना चित्र न लगाने की बात कही है, वह इसी अनर्थ को देखते हुए कही है। महर्षि विचारते थे कि इन प्रतिमा पूजकों से प्रभावित हो मेरे चित्र की भी पूजा आरमभ न कर दें। इसी आशंका के कारण महर्षि ने अपने चित्र लगाने का निषेध किया था।

यदि हम आर्य महर्षि के सिद्धान्तों के अनुसार चल रहे हैं, प्रतिमा पूजन आदि नहीं कर रहे हैं तो महर्षि के चित्र आदि लगाए जा सकते हैं रखे जा सकते हैं। चित्र वा मूर्ति रखना अपने आप में कोई दोष नहीं है। दोष तो उनकी पूजा आदि करने में हैं। महर्षि मूर्ति के विरोधी नहीं थे, महर्षि का विरोध तो उसकी पूजा करने से था। यदि महर्षि केवल चित्र वा मूर्ति के विरोधी होते तो अपने जीवन काल में इनको तुड़वा चुके होते, किन्तु महर्षि के जीवन से ऐसा कहीं भी प्रकट नहीं होता कि कहीं महर्षि दयानन्द ने मूर्तियों को तुड़वाया हो। अपितु यह अवश्य वर्णन मिलता है कि जिस समय महर्षि फर्रुखाबाद में थे, उस समय फर्रुखाबाद बाजार की नाप हो रही थी। सड़क के बीच में एक छोटा-सा मन्दिर था, जिसमें लोग धूप दीप जलाया करते थे। बाबू मदनमोहन लाल वकील ने स्वामी जी से कहा कि मैजिस्ट्रेट आपके भक्त हैं, उनसे कहकर इस मठिया को सड़क पर से हटवा दीजिये। स्वामी जी बोले ‘‘मेरा काम लोगों के मनो से मूर्तिपूजा को निकालना है, ईंट पत्थर के मन्दिरों को तोड़ना-तुड़वाना मेरा लक्ष्य नहीं है।’’ यहाँ महर्षि का स्पष्ट मत है कि वे मूर्ति पूजा के विरोधी थे, न कि मूर्ति के।

आर्य समाज का सिद्धान्त निराकार, सर्वव्यापक, न्यायकारी आदि गुणों से युक्त परमेश्वर को मानना व उसकी उपासना करना तथा ईश्वर वा किसी मनुष्य की प्रतिमा पूजन न करना है। इस आधार पर महर्षि का स्टेचू भेंट लेना देना आर्य समाज के सिद्धान्त के विपरीत नहीं, सिद्धान्त विरुद्ध तब होगा जब उस स्टेचू की पूजा आरमभ हो जायेगी। आर्य समाज का सिद्धान्त चित्र की नहीं चरित्र की पूजा अर्थात् महापुरुषों के आदर्शों को देखना अपनाना है।

किसी भी महापुरुष के चित्र वा स्टेचू को देखकर हम उनके गुणों, आदर्शों, उनकी योग्यता विशेष का विचार करते हैं तो स्टेचू का लेना-देना कोई सिद्धान्त विरुद्ध नहीं है। जब हम उपहार में पशुओं वा अन्य किन्हीं का स्टेचू भेंट कर सकते हैं तो महर्षि का क्यों नहीं कर सकते?

घर में जिस प्रकार की वस्तुएँ या चित्र आदि होते हैं उनका वैसा प्रभाव घर में रहने वालों पर पड़ता है। जब फिल्मों में काम करने वाले अभिनेता अभिनेत्रियों के भोंडे कामुकतापूर्ण चित्र वा प्रतिमाएँ रख लेते हैं, लगा लेते हैं तो घर में रहने वाले बड़े वा बच्चों पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है आप स्वयं अनुमान लगाकर देख सकते हैं। इसके विपरीत महापुरुषों क्रान्तिकारियों के चित्र घर में होते हैं तो घर वालों पर और बाहर से आने वालों पर कैसा प्रभाव पड़ता होगा। घर में रहने वालों की विचारधारा को घर में लगे हुए चित्र व वस्तुएँ बता देती हैं। अस्तु।

महर्षि ने अपनी प्रतिमा बनाने का विरोध किया था, वह क्यों किया इसका कारण ऊपर आ चुका है। स्टेचू, चित्र आदि का भेंट में लेना-देना आर्य समाज के सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं है। यह लिया-दिया जा सकता है, कदाचित् इसकी पूजा वा अन्य दुरुपयोग न किया जाय तो। इसमें इसका भी ध्यान रखें कि पुराण प्रतिपादित कल्पित देवता जो कि चार-आठ हाथ व चार-ेपाँच मुँह वाले वा अन्य किसी जानवर के  रूप में हों उनसे लेने देने से बचें।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर