प्रभु हमारे पालक हैं तथा हमें सब कुछ देते हैं

प्रभु हमारे पालक हैं तथा हमें सब कुछ देते हैं
(सम्पूर्ण सूक्त)
डा. अशोक आर्य
ऋग्वेद के प्रथम मण्ड्ल के इस सप्तम सूक्त में बताया गया है कि सूर्य तथा मेघादि उस पिता की ही विभूतियां हैं । पिता ही हमें विजय़ी करते हैं , वेद ज्ञान का ओढना देता हैं, अनन्त दान करते हैं,हम प्रभु की ( उस गोपाल की ) गोएं हैं , जो हमारा पालन करने वाले हैं तथा हमें आवश्यक धन प्राप्त करते हैं ।
प्रभु गुणगान से मन शान्त,बुद्धि तीव्र व यज्ञात्मक
कर्म से शक्ति मिलती है
डा. अशोक आर्य
प्रभु के गुणगान करने वाले मानव का मन शान्त होता है । उसकी बुद्धि दीप्त हो जाती है , तेज हो जाती है। उसके हाथ यज्ञ जैसे उत्तम कर्म करते हैं , जिससे उसके अन्दर शक्ति का उदय होता है । इस मन्त्र में यह बात इस प्रकार प्रकट की गई है : –
इन्द्रमिद्गाथिनोबृहदिन्द्रमर्केभिरर्किणः।
इन्द्रंवाणीरनूषत॥ ऋ01.7.1
इस मन्त्र में तीन बातों पर बल देते हुए बताया गया है कि :-
१. साम गायन से शांति कि प्राप्ति
उत्तम स्वर में गाए जाने योग्य जो वेद है , उसका नाम साम वेद है । एसे वेद के मन्त्रों से , जो गायन करने के योग्य है , के मन्त्रों को गायन करते हुए उस पिता के उदगाता , उस प्रभु के भक्त , उस पिता के गुणों का गायन करने वाले लोग, निश्चित रुप से ही शत्रुओं को नष्ट करने वाले , उनका विदारण करने वाले , उन्हें क्लेष देने वाले , शत्रुओं को रुलाने वाले ,सब प्रकार के एश्वर्यों के स्वामी होने के कारण सब प्रकार के एश्वर्यों से सम्पन्न उस परम पिता परमात्मा का भरपूरर स्तवन करते हैं , उसका अत्यधिक मन से कीर्तन करते हैं तथा उसके गुणों का , उसके यश का गुणगान करते हैं ।
यह भक्त उस पिता का गुण गान सामवेद के मन्त्रों से गायन ही हुए करते हैं अथवा साम गायन करते हैं , क्योंकि साम कहते हैं शान्ति को । इसलिए साम के मन्त्रों का गायन करने से वह भी साम से युक्त हो जाते हैं अर्थात शान्ति से युक्त हो जाते हैं । उन के सब क्लेष दूर होने से उन का मन सब प्रकार के क्लेषों से छूट कर शान्त हो जाता है । साम गायन वास्तव में शान्त करने वाला ही होता है ।
२. ऋग्वेद ऋग = विज्ञान का साधक
इतना ही नहीं हम ऋग्वेद के मन्त्रों से भी उस पिता के गुणों का गायन करते हैं । हमारा वह प्रभु ऋग्वेद के मन्त्रों में भी बसा हुआ है । इस कारण उसे ऋग्वेद रुप भी कहा जाता है । एसे ऋग्वेद रुप मन्त्रों से अर्थात ऋग्वेद के मन्त्रों से युक्त प्रभु के भक्त , प्रभु के होता, प्रभु के यश का गायन करने वाले , उसका स्तवन , उसका कीर्तन करने वाले , ऋग्वेद के ही मन्त्रों से उस ज्ञान रुप , उस ज्ञान के भण्डार तथा परम एश्वर्यों के स्वामी उस इन्द्र का , उस पिता का , उस पूज्य प्रभु का अत्यधिक स्तवन करते हैं , उसके निकट जाकर उसका गायन करते हैं ।
जब यह भक्तगण ऋग्वेद की इन ऋचाओं के द्वारा परम पिता का स्तवन करते हैं , प्रभु के गुणों का गायन करते हैं तो इन ऋचाओं का भाव भी उन के अन्दर आ जाता है । इन ऋचाओं का भाव क्या है ? इन ऋचाओं के मन्त्रों में ऋक का विज्ञान भरा रहता है । इस कारण प्रभु के एसे भक्त के मस्तिष्क में भी ऋग – विज्ञान भरने वाले यह मन्त्र बनते हैं । भाव यह कि इन के गायन से ऋग – विज्ञान इन के मस्तिष्क में आकर इन्हें प्रकशित करता है तथा यह लोग इस ज्ञान से प्रकाशित हो जाते हैं ।
३. यजुर्वेद के स्वाध्याय से सबल
उन्नति की ओर उठने वालों को , उपर उठने वालों को अर्ध्व्यु कहा जाता है । एसे अर्ध्व्यु लोग , सब प्रकार से बल से युक्त कर्मों को करने वाले , वह सब कर्म जो बल से होते हैं , उन्हें करने के प्रणेता प्रभु की ही त्रितीय अर्थ की वाणी अर्थात यजुर्वेद के मन्त्रों से उस पिता की स्तुति करते हैं , उसकी निकटता प्राप्त करते हैं , उसके गुणों का गायन करते हैं ।
यजुर्वेद के मन्त्रों रुपि वाणियों से , यजुर्वेद के मन्त्रों के गायन से उस पिता का गुणगान ,यशोगान , कीर्तन , भजन व स्तवन करते हुए पिता के यह भक्तजन अधर्वु , उपर उठने वाले लोग , उन्नति पथ पर बढने वाले लोग अपने हाथों से यज्ञ आदि , परोपकार से युक्त उत्तम कर्म करते हैं । यह सदा ही एसे उत्तम कर्म करते है , जिससे दूसरों का भी हित हो । इस प्रकार के कर्म इन भक्तों को सबल करते हैं , सब प्रकार के बलों से युक्त कर , इन्हें बलवान बनाते हैं ।

डा. अशोक आर्य

एक महान् कर्मयोगी का महाप्रयाण

एक महान् कर्मयोगी का महाप्रयाण

– डॉ. रामप्रकाश वर्णी

युगपुरुष महर्षि स्वा. दयानन्द की उस दिव्यैषणा जो कि उन्होंने तदानीन्तन महाराणा जी के अनुरोध पर फाल्गुन कृष्णा 7/1939 वि.सं. को चित्तौड़गढ़ पहुँचकर, वहाँ की रानी पद्मिनी के जौहर और महाराणाओं के त्याग और शौर्य से सभृत स्वमातृभूमि के प्रति विहित आत्मोत्सर्ग के इतिवृत्त को सुनकर, भावविह्वल होकर सजल नयनों से अपने प्रिय शिष्य स्वा. आत्मानन्द सरस्वती के समक्ष प्रकट की थी, ‘‘चित्तौड़गढ़ वह पुण्यभूमि है जिसको देखकर प्रत्येक मनुष्य अपने कर्त्तव्यपालन के लिए प्रोत्साहित होता है, अतः निस्सन्देह यह अत्यन्त कल्याणात्मक बात होगी, यदि चित्तौड़गढ़ में गुरुकुल स्थापित हो जावेगा। हमारे देश के नवयुवक अपने जीवन की उन्नति के लिए सर्वोत्तम शिक्षा इसी स्थान पर प्राप्त कर सकेंगे।’’ महर्षि का हार्द-अभिलाष उनके असामयिक निधन के कारण तब तो पूर्ण नहीं हो सका, किन्तु उसको प्रो. ताराचन्द्र गाजरा द्वारा लिखित ञ्जद्धद्ग रुद्बद्घद्ग शद्घ स्ख्ड्डद्वद्ब ष्ठड्डब्ड्डठ्ठड्डठ्ठस्र में पढ़कर तच्छिष्यानुशिष्य ‘‘गुरुकुल काँगड़ी-हरिद्वार’’ विद्यातपोयां नितान्त निर्मल स्वान्त आदित्य ब्रह्मचारी युधिष्ठिर विद्यालङ्कार ने संन्यस्त होकर ‘वर्णिन् व्रतमेव धनन्ते’ सदृश श्रुतिसुखद-मुखर-मधुर आराव को हृदयङ्गम कर ‘व्रतानन्द’ बनकर ‘उदयपुरनगर’ में आश्विन शुक्ला नवमी वि.सं. 1984 में 08 ब्रह्मचारियों को लेकर एक गुरुकुल का समारभ करके पूर्ण किया। नाना अन्तराय सपात के भीमावर्तों में आघूर्णित होते हुए यही गुरुकुल माघ पूर्णिमा वि.सं. 1986 में ‘चित्तौड़नगर’ में स्थानान्तरित होकर कुछ काल तक चित्तौड़-दुर्ग की अधित्यका में अधिष्ठित भाड़े के भवनों में सञ्चालित होते हुए वि.सं. 1987 सन् 1931 ई. में ‘चित्तौड़गढ़-रेलवे स्थान’ के सन्निकट अपने वर्तमान सुरय प्राङ्गण में आ गया। यहाँ पर पू. स्वा. व्रतानन्द जी महाराज ने सतत् सावहित साधनारत रहकर देश के तात्कालिक विद्वत्तल्लजों को आचार्योपाचार्य के रूप में प्रतिष्ठित करके आर्ष पद्धति से ब्रह्मचारियों को वैदिक-लौकिक उभयविध वाङ्मय और उत्तम चारित्र्य की शिक्षा प्रदान करना आरभ किया। शुक्ल पक्षीय द्वितीया की चन्द्रचन्द्रिका की भाँति निरन्तर उपचीयमान यह भव्य और दिव्यधाम रूप गुरुकुल अपनी यशःसुरभि को दिग्दिगन्त में विकीर्ण करते हुए जग-गण-मन को प्रसह्य अपनी ओर समाकृष्ट करने में समर्थ होता चला गया। इसी यशः सौरभ का आघ्राण करके अजमेर जनपद के ‘यावर’ नगर के प्रसिद्ध नागर श्री मूलचन्द जी के पुत्र श्री महादेव जी ने ई. सन् 1942 में आत्म-प्रेरित होकर अपने पुत्र ‘यज्ञदेव’ को इस गुरुकुल में प्रवेश दिलाया।

शुचि-रुचि रोचिष्णु श्रद्धा-सुमेधा सपन्न इस दृढ़व्रती वर्णी ने श्रवण-मनन-निदिध्यासन पूर्वक अधीति-बोध-आचरण और प्रचारण से अपने अर्च्य आचार्यों और समानधर्मा सतीर्थ्यों को प्रसह्य अपनी ओर आकृष्ट किया तथा पुष्टि-तुष्टि, रति-धृति के द्वारा शक्ति-स्वस्ति का निष्कलुष लाभ लेकर स्व और स्वकुल को धन्य-धन्य कर दिया।

चारु-चारित्र्यचित्रित सारस्वत सत्र रूप अनन्ताध्वन के अथक अध्वा इस विचित्र यज्वा ने स्वल्पकाल में अपनी अशेष शेमुषी का समुचित सदुपयोग करते हुए वेद-वेदाङ्गों का तलस्पृक्-वैदुष्य अर्जित कर अपना कीर्तिकेतु दिग्दिगन्त में फहरा दिया। तत्कालीन ‘वाराणसेय सं. विश्ववि. वाराणसी, (उ.प्र.) से ‘वेद एवं नैरुक्तप्रक्रिया’ विषय में ‘आचार्य’ परीक्षा सर्वोच्च अङ्कों से उत्तीर्ण कर आगरा वि.वि. आगरा, (उ.प्र.) से संस्कृत विषय में ‘एम.ए.’ परीक्षा ‘स्वर्ण पदक’ प्राप्त करके उत्तीर्ण की। इसके अनन्तर ‘गुरुकुल-चित्तौड़गढ़ (रा.प्र.)’ की ‘वेदवागीश’ परीक्षा जो कि इस गुरुकुल की सर्वोच्च और अन्त्य परीक्षा थी, भी ‘शुक्लयजुर्वेद माध्यन्दिनवाजसनेयिसंहिता’ को विषय बनाकर 93 प्रतिशत अङ्कों से उत्तीर्ण कर अपने परीक्षकों को चमत्कृत कर दिया। अब वे ब्र. यज्ञदेव से आचार्य यज्ञदेव वेदवागीश ‘वेदायन’ जी बन गये थे।

इसके बाद वे समभवतः एक वर्ष तक उत्तरप्रदेशस्थ ‘मेरठ कॉ.मेरठ’ में संस्कृत-विभाग में यशस्वी प्राध्यापक के रूप में रहे, किन्तु उनके परमशिवैषी आचार्य स्वा. व्रतानन्द जी को तो उनसे कुछ और ही कराना अभिप्रेत था, अतः उन्होंने बलपूर्वक अपने कठोर और स्नेहिल आदेश से उन्हें उक्त कॉलिज से त्यागपत्र देकर पुनः गुरुकुल में आने को विवश कर दिया। इस प्रकार यहाँ आकर इनके जीवन की द्वितीय पाली प्रारमभ हुई। अब वे गुरुकुल के ‘मुयाधिष्ठाता’ पद पर अधिष्ठित कर दिये गये। उस समय गुरुकुल के चारों ओर भयङ्कर वन और उसमें हिंसक वन्यप्राणियों की विभीषिका भरी आवाजें तथा विषमविषज्वालभरति सरीसृपों की सणत्कारके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था। भवनों, भूमि और संसाधनों का अत्यन्ताभाव पदे-पदे मार्ग में अवरोध बनकर खड़ा था। साथ ही सांसारिक छलछद्म से कोशों दूर रहने वाले दुग्ध-धवल-अमल-कुल्येव भास्वर भाल मुग्धमना स्वामी व्रतानन्द जी ने गुरुकुल के सञ्चालन हेतु इतस्ततः प्रभूत धन राशि ऋण के रूप में धनिकों से ले रखी थी। परिणामतः यह गुरुकुल कर्ज के दल-दल में आकण्ठ विमग्न हो चुका था। इस प्रकार मुयअधिष्ठाता श्री ‘वेदायन’ जी के सामने एक ओर समस्त संसाधनों को जुटाकर गुरुकुल के सफल सञ्चालन की अतिविकट संकटाकीर्ण समस्या थी तो दूसरी ओर गुरुकुल को ऋणमुक्त और आत्मनिर्भर बनाने की दुर्घर्ष चुनौती भी थी। इसके लिए उन्होंने ‘मत्तेभकुभदलने भुवि सन्तिशूराः…..कन्दर्पदर्पदलनेविरला मनुष्याः’ को जानते हुए भी यावज्जीवंब्रह्मचारी रहने की भीष्म प्रतिज्ञा की और यह निहत्था ही महारथी संसार समर में दिग्विजय हेतु कूद पड़ा, जबकि कुछ साथी ‘ऊढ’ होते हुए भी ‘अनूढ’ रहने के लिए रक्ताक्त हस्ताक्षर करके प्रतिज्ञात होने के बाद भी पुनः ‘ऊढ’ हो चुके थे। इन्होंने अहर्निश कठोर परिश्रम करके ‘रायपुरिया’ में स्थित विशाल कृषिक्षेत्र को ‘मानसिंह ग्रुप’ से दान के रूप में प्राप्त करके मरणान्तक कष्ट झेलते हुए उस पर गुरुकुल का कबजा कराया तथा कृषि कार्य हेतु एक ‘मैसी-ट्रैक्टर’ जो कि आज भी है, दान में प्राप्त करके असमभव को भी समभव बनाकर दिखा दिया। गुरुकुल में नव्य-भव्य-भवन भी बने, जिनमें ‘गोविन्द भवन’ प्रमुख है। तब सन् 1980 ई. में स्वा. व्रतानन्द जी यशः शेष हुए तो उन्हीं के कुछ स्नातकों ने दुराभिसन्धिपूर्वक स्वामी जी के मिथ्या हस्ताक्षरों से एक ‘झूंठी वसीयत’ तैयार कराकर गुरुकुल पर अपना दावा ठोक दिया। महाभारत के अभिमन्यु की भाँति एक ओर सात-सात सशस्त्र महारथी दूसरी ओर निहत्था अभिमन्यु रूप यह एकाकी अरथी। उभयपक्ष में तुमुल संग्राम हुआ। महाभारत का अभिमन्यु तो छलपूर्वक मार डाला गया, किन्तु यह अभिमन्यु उन सभी को पराजित कर अतिविषम तद्रचित चक्रव्यूह को तोड़कर विजय पताका फहराते हुए बाहर निकल आया। अब ये इतने अनुभवी और नीतिनिपुण हो चुके थे कि थोड़े से ही समय में लगकर कार्य करके भारतवर्षीय यज्ञशालाओं में अद्वितीय ‘आर्षगुरुकुल’ एटा उ.प्र. की ‘यज्ञशाला’ को भी मात देने वाली सर्वथा सर्वात्मना अनुपम यज्ञशाला के निर्माणता बने। इसके साथ ही सपूर्ण गुरुकुल परिसर और रायपुरियास्थ ‘कृषिक्षेत्र की 7-10 फु ट ऊँची चारदीवारी बनाकर सभी प्रकार की क्षतियों से उसे विक्षत बना दिया। गोशाला, विद्यालय और छात्रावास एवं कई अतिथिशालाओं को सुसज्जित बनाकर एक सुतुच्छ बीज को ‘विशाल-वटवृक्ष’ का रूप देकर वे अपने कीर्तिशेष गुरुवर्य स्वा. व्रतानन्द जी की आशा-प्रत्याशाओं के साधु संवाहक बने।

अभी मैं जब 22 से 24 जुलाई 2016 तक उनके सान्निध्य में अध्युषित रहा तो उन्होंने ‘गुरुकुल परिसर’ से लेकर ‘रायपुरिया-कृषिक्षेत्र’ तक का सूक्ष्मवीक्षण कराया और अन्त में ‘गोविन्दभवन’ में बनाये गये उस विशाल ‘अन्न भण्डार’ को भी दिखाया जो गोधूम आदि अन्नों से परिपूर्ण था। उन्होंने बताया कि वर्ष में दो बार हमको पाँच-पाँच सौ बोरियों से भी अधिक अन्न कृषिक्षेत्र से प्राप्त हो जाता है तथा हमने ‘गभीरी नदी’ के तट पर स्थित खेत को बेचकर समभवतः चार करोड़ रु. की एक ‘स्थिरनिधि’ बना दी है, जिससे हमें लाखों रु. प्रतिमास सूद के रूप में प्राप्त हो जाता है। अब हम गुरुकुल के लिए किसी से दान नहीं लेते हैं। यदि कोई भूल से दान देता भी है तो हम विनम्रता पूर्वक वापिस कर देते हैं। इस प्रकार अब हमारा यह गुरुकुल सब भाँति आत्मनिर्भर हो गया है। फिर भी मुझे विगत कु छ वर्षों के घटनाक्रम और अब भी कुछ-कुछ गुरुकुल विरोधी तत्त्वों की दुश्चिकीर्षाओं को याद करके और सोच-सोचकर बहुत दुःख होता है और मेरा ‘रक्तचाप’ बढ़ जाता है। इस पर मैंने उन्हें सर्वविध तनावमुक्त रहने का व चिकित्सक की तरह ही परामर्श दिया तो वे गम्भीर होकर थोड़ी देर बाद मुस्कराये और बोले ‘तनाव किया नहीं जाता है, हो जाता है।’ उन्होंने चलते समय 24/8/2016 ई. को अपनी एक लेखमाला मुझे दी और कहा ‘इसको ग्रन्थ का रूप देना है।’ मेरे लिए उनका अन्तिम सन्देश था-‘‘तूफानों से कश्ती को लाये हैं निकाल के,

मेरे बच्चो, तुम रखना इसको सम्भाल के’’

मैं खुशी-खुशी गुरुकुल चि. से एटा लौट आया मुझे तनिक भी कहीं सेाी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि आचार्य जी इतनी जल्दी चले जायेंगे। लगता है उन्हें इससे भी कहीं ज्यादा कोई और कार्य करना था, इसलिए वे देश के स्वतन्त्रता दिवस पर गुरुकुल से भी स्वतन्त्र हो गये। इस धरती पर उनका कीर्तिकलाधर यावच्चप्रद्रिवाकारीं चमके गा भले वे यहाँ सशरीर न रहें।

मैं उनके समग्र कर्त्तृव्य को सश्रद्ध प्रणाम करता हूँ।

 

प्रभु भक्त का शरीर दृढ,बुद्धि उज्ज्वल तथा ह्रदय प्रेम से पूर्ण

प्रभु भक्त का शरीर दृढ,बुद्धि उज्ज्वल तथा ह्रदय प्रेम से पूर्ण
डा. अशोक आर्य
जो लोग ईश्वर के भक्त होते हैं , उनका शरीर मजबूत होता है , उनका मस्तिष्क ज्ञान से उज्ज्वल होता है तथा उनका ह्रदय प्रेम की स्निग्ध भावना के कारण पूर्णतया परिपूर्ण होता है । इस बात को मन्त्र इस प्रकार कह रहा है ।:-
इतोवासातिमीमहेदिवोवापार्थिवादधि।
इन्द्रंमहोवारजसः॥ ऋ01.6.10
इस मन्त्र में तीन बातों की ओर संकेत किया गया है :-
१ धन एश्वर्य का स्वामी
प्रभु भक्त तीनों लोकों में अपने उस पिता का निवास अनुभव करता है , उसे देखता है , सर्वत्र उसे प्रभु की महिमा दिखाई देती है । । इसे देखते हुए वह कह उठता है कि हमारा वह प्रभु परम एश्वर्यशाली है । वह दाता है , वह महादेव है । वह प्रभु ही देने वाला है । उससे ही हम याचना करते हैं , प्रार्थना करते हैं , धनेश्वर्य मांगते हैं । क्यों ? क्योंकि वह प्रभु ही धन आदि देने में सक्षम है । वह सक्षम कैसे है ? क्योंकि वह धन आदि का स्वामी है ।
स्पष्ट है कि मांगा उस से जाता है जिस के पास कुछ हो । जिसके पास स्वयं के पास ही कुछ नहीं है , वह दूसरों को क्या दे सकता है ? अर्थात कुछ भी नहीं । जब उसके पास कुछ है ही नहीं , वह स्वयं ही अपनी आवश्यकताएं पूर्ण करने के लिए दूसरों के आगे हाथ फ़ैलाए हुए है तो एसे याचक के आगे अपना हाथ फ़ैला कर कौन याचना करेगा । हम जानते हैं कि प्रभु के पास सब की याचना पूर्ण करने की शक्ति है , साधन है , इसलिए ही इस पार्थिव जगत मे अपने हितों की पूर्ति के लिए सब लोग याचक बन कर उसके आगे हाथ फ़ैलाते हैं ताकि वह हमें धन आदि देकर उपकृत करे । वह पिता ही इस पार्थिव जगत में धन आदि देने वाले हैं ।
पार्थिव जगत या पार्थिव लोक वास्तव में पृथ्वी ही है । जब तक पृथ्वी सुदृढ नहीं होगी तब तक इस पर न तो कुछ वनस्पतियां ही पैदा होती हैं तथा न ही इस पर कोई जीव ही रह सकता है । अत: इस धन आदि का स्वामी पृथ्वी का सुदृढ होना आवश्यक होता है । उपर हम ने जो सुदृढता के लिए याचना की है , वह वास्तव में इस पृथ्वी के लिए ही की है । हमारा शरीर भी तो पृथ्वी रूप ही है , इसका निर्माण भी तो पंचतत्वों का ही परिणाम है । इसलिए ही हम अपने शरीर को पृथ्वी के समान दृढ , मजबूत देखना चाहते हैं । इस लिए ही हम अपने उपर प्रभु कृपा चाहते हैं , आशीर्वादों से भरा उस पिता का हाथ अपने सर पर देखना चाहते हैं ताकि वह हमारे शरीर को वज्र के समान कठोर अथवा मजबूत बना दे । यह शरीर पत्थर के समान दृढ हो जावे तथा हम निरन्तर आसन , व्यायाम ,प्राणायाम करते हुए अपने इस शरीर को वज्र के समान बनाएं । यह ही हमारी प्रभु से कामना है , याचना है ।
२ प्रभु दीप्ती दो ,प्रकाश दो
हम सदा धनवान व साधन सम्पन्न बनना चाहते हैं । हम चाहते हैं कि हमारे पास इतना धन हो कि हम अपनी आवश्यकताएं स्वयं पूर्ण करने में सक्षम हों , किसी के आगे हाथ न फ़ैलाना पडे । इस लिए हम उस पिता से वह धन मांगते हैं जो देवलोक में होता है । हम उससे द्युलोक का एश्वर्य मांगते हैं । अब प्रश्न उठता है कि द्युलोक का धन कौन सा होता है ? मन्त्र कहता है कि द्युलोक का धन होता है दीप्ति , तेज , प्रकाश । हम उस पिता से दीप्ति मांगते है , ज्ञान का प्रकाश मांगते हैं , तेज मांगते हैं । जिस प्रकार द्युलोक में सूर्य चमकता है , उसका प्रकाश समग्र विश्व में फ़ैल जाता है , सब दिशाएं प्रकाशित हो जाती हैं । एसा ही ज्ञान रुपी प्रकाश हम अपने अन्दर देने की कामना उस पिता से करते हैं । ताकि हम भी सब दिशाओं को ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित कर पाने में सशक्त हो सकें ।
३ शीतल ज्योत्स्ना से परिपूर्ण हों
हमारा यह द्युलोक , हमारा यह अन्तरिक्षलोक महान है । इस महान अन्तरिक्ष से हम एसा धन , एसा एश्वर्य मांगते हैं , जो चन्द्र की शीतल , ठंडी किरणों के कारण शीतल ज्योत्स्ना से परिपूर्ण हो ज्योत्स्नामय ही हो रहा है । हम चाहते हैं कि चन्द्र की शीतल चांदनी के ही समान हमारा ह्रदय रुपि अन्तरिक्ष (जो अब तक रिक्त पडा है , खाली पडा है ) भी प्रेम से भरपूर , स्निगधता की भावना से अत्यंत शीतलता को, ठण्डक को प्रभावित करने वाला हो । यह सब में शीतलता भरने में , बांटने में सश्क्त हो , सक्षम हो ।
डा. अशोक आर्य

कुर्बानी कुरान के विरुद्ध?

कुर्बानी कुरान के विरुद्ध?

(इस्लाम के मतावलबी कुर्बानी करने के लिए प्रायः बड़े आग्रही एवं उत्साही बने रहते हैं। इसके लिए उनका दावा रहता है कि पशु की कुर्बानी करना उनका धार्मिक कर्त्तव्य है और इसके लिए उनकी धर्मपुस्तक कुरान शरीफ में आदेश है। हम श्री एस.पी. शुक्ला, विद्वान् मुंसिफ मजिस्ट्रेट लखनऊ द्वारा दिया गया एक फैसला  पाठकों के लाभार्थ यहाँ दे रहे हैं, जिसमें यह कहा गया है कि ‘‘गाय, बैल, भैंस आदि जानवरों की कुर्बानी धार्मिक दृष्टि से अनिवार्य नहीं।’’ इस पूरे वाद का विवरण पुस्तिका के रूप में वर्ष 1983 में नगर आर्य समाज, गंगा प्रसाद रोड (रकाबगंज) लखनऊ द्वारा प्रकाशित किया गया था। विद्वान् मुंसिफ मजिस्ट्रेट द्वारा घोषित निर्णय सार्वजनिक महत्त्व का है-एक तर्कपूर्ण मीमांसा, एक विधि विशेषज्ञ द्वारा की गयी विवेचना से सभी को अवगत होना चाहिए-एतदर्थ इस निर्णय का ज्यों का त्यों प्रकाशन बिना किसी टिप्पणी के आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत है। -समपादक)

पिछले अंक का शेष भाग…..

जहाँ तक भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25-26 का प्रश्न है उनमें प्रारमभ में ही ‘‘स्ह्वड्ढद्भद्गष्ह्ल ह्लश श्चह्वड्ढद्यद्बष् शह्म्स्रद्गह्म् द्वशह्म्ड्डद्यद्बह्लब् × द्धद्गड्डद्यह्लद्ध’’ शबद जुड़े हुए हैं, जो इस बात का प्रतीक हैं कि धार्मिक कृत्य कोई भी पबलिक आर्डर, नैतिकता एवं स्वास्थ्य के विपरीत नहीं किया जायेगा। उदाहरण के लिए हिन्दू धर्म भी सती प्रथा अथवा आत्मदाह किसी पाप के प्रायश्चित करने के प्रकार बताये गये हैं, परन्तु चूँकि वह उपरोक्त तीन शबदों के प्रतिकूल होने के कारण न्यायालय उन्हें इजाजत नहीं दे सकती।

इस बात को भी स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है कि दीवानी अधिकार (सिविल राइट) यदि मौलिक अधिकारों के समक्ष चुनौती उत्पन्न करते हैं तो मौलिक अधिकारों को वरीयता दी जायेगी और दीवानी अधिकार उस हद तक संशोधित एवं निरस्त समझे जायेंगे। यदि वादीगण को प्रतिवादीगण के विरुद्ध केवल दीवानी अधिकार ही प्रदत्त हैं, जबकि भैसें की कुर्बानी करना प्रतिवादीगण का मौलिक अधिकार है, तो निश्चय ही वह प्रतिवादीगण का मौलिक अधिकार माना जायेगा और वादीगण के दीवानी अधिकार निरस्त समझे जायेंगे। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने दुर्गा कमेटी अजमेर आदि बनाम सैयद हुसैन अली आदि ए.आइ.आर. 1964 पेज 1402 के अनुच्छेद 33 में यह स्पष्ट किया है कि बड़ी सफलतापूर्वक यह ध्यान देने योग्य है कि प्रचलित धर्म की रीति धर्म का आवश्यक एवं अभिन्न अंग है अथवा वह चली रीति धर्म का अभिन्न एवं आवश्यक अंग नहीं है और इस तथ्य को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 26 के आवरण में दिखाना होगा। उसी प्रकार प्रचलित धर्म रीति केवल अन्धविश्वास है अथवा अनावश्यक एवं स्वयं में धर्म का अंग न हो,    जब तक धार्मिक प्रचलित रीति आवश्यक एवं अभिन्न धर्म का अंग न हो। अनुच्छेद 26 के तहत सुरक्षा प्रदान नहीं की जा सकती तो उसका बड़ी सावधानीपूर्वक निरीक्षण करना होगा। दूसरे शबदों में संवैधानिक सुरक्षा उन्हीं धार्मिक रीतियों को देता है जो धर्म का आवश्यक एवं अभिन्न अंग हैं। पाक कुरान शरीफ की सन्दर्भित आयतों को देखकर एवं विद्वान् अधिवक्तागण के द्वारा प्रस्तुत किये गये तर्कों का सिंहावलोकन कर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ कि भैंस-भैसे की कुर्बानी एक अन्ध विश्वास की देन है। पाक कुरान शरीफ अथवा इस्लाम का आदेश न होने के कारण इस्लाम धर्म का आवश्यक व अभिन्न अंग नहीं है। इस्लाम धर्म में बहुतेरे पैगबर, सिद्धहस्त फकीर एवं महान् मुसलमान आत्माओं को जन्म दिया है, जिन्होंने कोई कुर्बानी नहीं दी। इसका यह मतलब नहीं हुआ कि कुर्बानी के बिना बहिस्त प्राप्त नहीं हो सकता। वर्तमान वाद में प्रतिवादीगण भैंसे की कुर्बानी को इस्लाम का आवश्यक अंग सिद्ध करने में सर्वथा असमर्थ रहे हैं।

यहाँ पर मैं यहा भी कहना उचित समझता हूँ कि विभिन्न धर्मों के लोग महिला मऊ गाँव में रहते हैं, जहाँ अब तक भैंस-भैंसे की कुर्बानी नहीं हुई और यदि वे इसे बुरा मानते हैं और अहिंसा में विश्वास करते हैं, तो उनकी धार्मिक भावनाओं को भैंसे की कुर्बानी की इजाजत देकर ठेस पहुँचाना कहाँ तक उचित होगा, जबकि वे इतने सहिष्णु हो चुके हैं कि बकरे, भेड़, भेड़ा की कुर्बानी करने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं है।

मेरे समक्ष यह तर्क दिया गया है कि एक बड़े जानवर में सात व्यक्ति शरीक हो सकते हैं, इसलिये भैंस-भैंसे की कुर्बानी एक गरीब व्यक्ति के लिये लाजमी है, जबकि वह व्यक्ति इतना गरीब है कि एक बकरी खरीद कर कुर्बानी नहीं दे सकता तो क्या वह पबलिक आर्डर, नैतिकता की सुरक्षा, मलमूत्र, रक्त आदि विसर्जित करके ठीक से निर्वसन कर सकेंगे, इसमें सन्देह है और निश्चय ही गन्दगी को बढ़ावा मिलेगा। सरकार ने इसलिए बड़े जानवर को काटने के लिए बूचड़खानों का प्रबन्ध किया है।

यदि पाक कुरान शरीफ की गहराइयों में झाँका जाए और बारीकियों को परखा जाए तो व्यक्ति को काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह एवं अहं की कुर्बानी करनी चाहिये न कि बेचारे चौपायों की, जिन्हें चाँदी के कुछ सिक्कों में खरीदा जा सकता है। मनुष्य को इन्द्रियजित, मनोवृत्तिजित् होना चाहिये। किसी भी धर्म के आधारभूत सिद्धान्त हिंसा में विश्वास नहीं करते और मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ कि पाक कुरान शरीफ में भैंस-भैंसे की कुर्बानी का सन्दर्भ कहीं पर नहीं आया है अन्यथा मेरे समक्ष इस प्रकरण एवं तथ्यों पर हुई गवाही में अवश्य आता। इस साक्षी को अपने उलेमाओं से भी मदद लेने का अवसर था, परन्तु फिर भी यह साक्षी मेरे समक्ष इस प्रकार का कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर सका, जिससे अनुमान लगाया जायेगा कि पाक कुरान शरीफ अथवा इस्लाम में कुर्बानी करना फर्ज नहीं है और कुर्बानी भैंस या भैंसे की नहीं हो सकती।

साक्षी सं. 1 हाजी सैयद अली ने और साथ ही साक्षी सं. 5 मो. रफीकुद्दीन ने यह स्वीकार किया है कि कुर्बानी के अलावा भी अन्य तरीकों से भी बहिस्त प्राप्त हो सकती है, गरीब आदमी  इबादत के द्वारा बहिस्त प्राप्त कर सकता है। यदि कुर्बानी द्वारा ही एक मात्र बहिस्त प्राप्त किया गया होता तो निश्चय ही इस्लाम धर्म के सभी राजा-महाराजाओं सेठ-साहूकारों ने बहिस्त प्राप्त कर लिया होता और गरीब फकीर उधर लालयित होकर देखते रहते, जबकि सत्यता इसके प्रतिकूल है।

इसके विपरीत वादीगण की ओर से श्रीराम आर्य को परीक्षित किया गया, जिन्होंने करीब 80 किताबें धार्मिक विचारों पर लिखी हैं। उन्होंने स्वीकार किया कि पाक कुरान शरीफ से समबन्धित आठ-दस किताबें उन्होंने लिखी हैं। कुरान शरीफ की छानबीन, कुरान शरीफ का प्रकाश व पुनर्जन्म, कुरान शरीफ में बुद्धि विज्ञान आदि कई किताबें लिखीं। इस साक्षी ने अपने मुखय कथन में स्पष्ट स्वीकार किया है कि केवल एक ही आदेश हज के समय ऊँट की कुर्बानी का है अन्य किसी जानवर की कुर्बानी का नहीं है। किसी दूसरे जानवर यानी भैंसे की कुर्बानी का आदेश पाक कुरान शरीफ में नहीं है। जो व्यक्ति भैंस-भैंसे को काटता है, उसकी कुर्बानी इस्लाम के खिलाफ है। इस साक्षी ने अपने मुखय कथन में यहा भी कहा कि उसने धार्मिक किताबें हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित की हैं। पृच्छा में इस साक्षी ने यह भी स्वीकार किया कि पाक कुरान शरीफ में कुर्बानी का जिक्र सूरे हज्ज में है, सूरे वक्र में नहीं। सूरे हज्ज में ही केवल कुर्बानी का आदेश है, अन्य कहीं नहीं। पारा बिना किताब देखे नहीं बता सकता। इस साक्षी ने यहा भी स्पष्ट इन्कार किया कि उसने कुरान शरीफ अथवा मुस्लिम कल्चर का पूर्ण अध्ययन नहीं किया है। इस साक्षी ने स्पष्ट स्वीकार किया कि कुरान शरीफ अरबी में उसने नहीं पढ़ा है, परन्तु कुरान शरीफ उसने कई बार पढ़ा। उसका ट्रान्सलेशन अहमद वसीर, काबिल तवीर, काबिल मौलवी लखनऊ, शाह अबदुल कादिर के तर्जुमें पढ़े हैं। इस साक्षी ने भी स्वीकार किया कि ये लोग आलिम हैं या नहीं, परन्तु इनका अनुवाद मान्य है। मैं इस स्वतन्त्र साक्षी के साक्ष्य को ग्राह्य करने का कोई औचित्य नहीं समझता, जबकि इस साक्षी की साक्ष्य का संपुष्टन सफाई साक्षी  नं. 5 मो. रफीकुद्दीन ने भी किया है और कुरान शरीफ में कुर्बानी फर्ज है, नहीं ढूँढ सका और अन्त में उसने विवश होकर यह स्वीकार किया कि हिंसा करना कुरान शरीफ में पाप है और सभी वस्तुएँ अल्लाह की बनाई हुई हैं, किसी को चोट पहुँचाना पाप है। ऐसी दशा में निःसंकोच कहा जा सकता है कि जब प्रतिवादीगण भैंस-भैंसे की बलि इस्लाम में सिद्ध नहीं कर पाये हैं तो उन्हें अनुच्छेद 25 व 26 भारतीय संविधान का लाभ नहीं मिल सकता और वे किस हद तक प्रतिवाद पत्र की धारा 10में वर्णित आधार पर लाभ पा सकते हैं, उत्तर नकारात्मक होगा।

उपरोक्त व्याखया के अनुसार विवाद्यक नं. 2,3 व 5 वादीगण के अनुकूल एवं प्रतिवादी गण के प्रतिकूल निर्णीत किये गये।

विवाद्यक सं. 7

इस विवाद्यक को सिद्ध करने का भार वादीगण पर है। इस समबन्ध में वादी साक्षी नं. 2 महन्त विद्याधर दास ने अपने मुखय कथन में अभिकथित किया कि कुर्बानी का प्रभाव जनता पर पड़ेगा। भैसों की कुर्बानी से हिन्दुओं में उत्तेजना फैलेगी, सामप्रदायिकता बढ़ेगी। इस गाँव में कोई पशुवधशाला नहीं है और न ही पशुवधशाला का अलग स्थान है। इस गाँव में कोई नाली आदि नहीं है जिससे भैंसों का खून आदि रास्ते में बहेगा। इस साक्षी से पृच्छा में जन स्वास्थ्य के बारे में एक भी शबद नहीं पूछा गया, केवल अन्तिम सुझाव दिया गया कि घर के अन्दर कुर्बानी करने से खुन आदि बहने का प्रश्न नहीं उठता, जिसे इस साक्षी ने इन्कार किया। इसके अतिरिक्त प्रतिवादी साक्षी नं. 6 डाक्टर मेहरोत्रा ने प्रथम प्रदर्शक-6 सिद्ध किया और बताया कि मेरे पूर्व डाक्टर श्री शर्मा ने यह प्रपत्र जारी किया था। पृच्छा में इस साक्षी ने स्वीकार किया कि जानवरों की बलि देने से बावत प्रमाणपत्र जारी करने के लिए पशु चिकित्सक अधिकृत नहीं है और न ही पशु चिकित्सक पशुबलि के लिए कोई आदेश अथवा स्वीकृति देना भी निश्चित नियमों के तहत है, जिसमें पशुओं का वध बूचड़खाना में ही हो सकता है, खुले स्थान में नहीं। खुले स्थान में पशुवध करना प्रतिबन्धित है। विवादित गाँव सहिलामऊ में कोई बूचड़खाना नहीं है। बड़े जानवरों को बूचड़खाने के अतिरिक्त अन्य किसी जगह पर काटना प्रतिबन्धित है। ऐसी दशा में यदि खुले स्थान में जानवर काटा जाता है तो निश्चय ही सामप्रदायिकता भड़केगी एवं समाज में घृणा फैलेगी, उनके खून के बहाव एवं हाड़ आदि की दुर्गंध से बीमारियाँ भी फैलने का अंदेशा रहेगा। यही नहीं, इस तथ्य को ध्यान में रखकर ही समभवतः प्रदर्श क-1 आदेश परगनाधिकारी कुमारी लोरेशन, दिगोजा एवं क्षेत्राधिकारी सुभाष जोशी ने जारी किया है।

उपरोक्त व्याखया के आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ कि विवाद्यक नं.-7 वादीगण के अनुकूल एवं प्रतिवादीगण के प्रतिकूल निर्णीत किया जाता है।

शेष भाग अगले अंक में……

 

हम प्रभु स्तवन करते हुए अपने जीवन को गुणों से अलंकृत करें

हम प्रभु स्तवन करते हुए अपने जीवन को गुणों से अलंकृत करें
डा.अशोक आर्य
प्रभु सर्व व्यापक है । उसकी महिमा को हम प्रत्येक लोक में देखें । हम सदा स्वयं को प्रभु में ही स्थित रखते हुए उस प्रभु का स्तवन करें, गुणगान करें । इस प्रकार हम अपने जीवन को गुणों रुपी अलंकारों से अलंकृत करते हैं । इस बात को ही मन्त्र में इस प्रकार कहा गया है । :-
अतःपरिज्मन्नागहिदिवोवारोचनादधि।
समस्मिन्नृञ्जतेगिरः॥ ऋ01.6.9
१. प्रभु के प्रकाश की ज्योति को प्राप्त कर
उस परमपिता परमात्मा का भक्त उस की आराधना करते हुए उस से प्रार्थना करता है कि हे चारों दिशाओं में सर्वव्यापक प्रभो ! आप हमें प्राप्त होइये । मानव जन्म में प्रभु को पाने की अभिलाषा रखता है । इस अभिलाषा की पूर्ति ही इस मानव का लक्ष्य है । इसलिए वह पिता से प्रार्थना करता है की हे पिता ! आप मुझे शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त होइये, मिलिए, दर्शन दीजिए । आप हमें पृथ्वी लोक से , प्राप्त होवें चाहे आप हमें द्युलोक से प्राप्त होवें अथवा अन्तरिक्ष लोक से ( जो केन्द्र व विद्युत् की दीप्ती वाला है, जो केन्द्र व बिजली के प्रकाश से चमकने वाला है ) हमें प्राप्त होवें ।
पृथ्वी में जो अग्नि आदि देव हैं , जो आपके तेज को और भी तेजस्वी करने वाले देव हैं , मैं उन सब देवों का चिन्तन करता हुआ, स्मरण करता हुआ , उन सब देवों में आपसे स्थापित किये गए देवता का दर्शन करूं, उस देवता का दर्शन करुं, जिसे आपने अपने में स्थान दे दिया है । इतना ही नहीं मैं अंतरिक्ष लोक में भी, अंतरिक्ष के देवों के माध्यम से सदा आप ही की महिमा को देखूं , आप ही के दर्शन करुं । द्युलोक को प्रकाशित लोक कहते हैं, इस लोक में भी मैं सदा आप ही के प्रकाश को पाऊं, आप ही के प्रकाश को देखूं ।, आप ही का प्रकाश मुझे मिले । इस प्रकार तीनों लोकों में सर्वत्र मुझे आप ही के प्रकाश के दर्शन हों , आप ही का प्रकाश मुझे दिखाई दे तथा आप ही के प्रकाश की ज्योति को प्राप्त करुं ।
हे प्रभु मैं सर्वत्र आप ही की महिमा के दर्शन करुं । पृथिवी लोक हो चाहे अन्तरिक्ष लोक हो अथवा द्युलोक हो , जहां भी जाऊं सर्वत्र अपनी महिमा के द्वारा आप ही आप दिखाई दें , आप ही की महिमा सर्वत्र कार्यरत ,सर्वत्र गतिमान , सर्वत्र कर्मशील दिखाई दे तथा उस महिमा को देख कर , उस महिमा के दर्शन कर मैं अपने आप को उज्जवल करुं , धन्य करुं ।
२. परमात्मा में जीवन सुभाषित
इस प्रकार जो लोग सब स्थानों पर उस पिता की महिमा को देखते हैं , इस प्रभु स्मरण करने वाले लोग , प्रभु स्तवन करने वाले लोग, प्रभु का कीर्तन करने वाले लोग , प्रभु की निकटता पाने वाले प्रभु भक्त लोग इस परमात्मा में ही अपने जीवन को सुभाषित करते हैं , सजा लेते हैं । इस प्रकार इसे प्रभु की स्तुति करते हुए , इस प्रभु की आराधना करे हुए , इसे प्रभु का कीर्तन करते हुए , इसे प्रभु की समीपता पाने का यत्न करते हुए , यह प्रभु भक्त अपने जीवन को प्रभु के अनुरुप बनाने का यत्न करते हैं , जो गुण प्रभु में हैं , वैसे गुण स्वयं में धारण करने का निर्णय करते हैं । यह लोग स्वयं को भी उस पिता के सामान बनाने का निर्णय लेकर वैसा ही बनने का प्रयास करते हैं । जब यह लोग एसा यत्न ,प्रयास करते हैं तो उनके जीवन में सुन्दरता निरंतर बढ़ने लगती है तथा वह निरंतर सुन्दर तथा और सुन्दर बनते चले जाते हैं ।
डा. अशोक आर्य

आत्मा का स्थान-3

आत्मा का स्थान-3

–  स्वामी आत्मानन्द

चरक सुश्रुत आदि आयुर्वेद के सिद्धान्त ग्रन्थों में आत्मा का तथा  उस के निवास स्थान का वर्णन नहीं किया गया। उन्हें उस के वर्णन की आवश्यकता भी न थी, क्योंकि आत्मा की चिकित्सा उन के शास्त्रों का विषय नहीं। आत्मा की चिकित्सा तो अध्यात्म शास्त्रों का विषय है। इन शास्त्रकारों ने चेतना का वर्णन अवश्य किया है। क्योंकि चेतना की वृद्धि तथा रक्षा के उपाय बतलाना और उस के विकृत हो जाने पर उस से उत्पन्न हुए प्रमाद आदि रोगों की चिकित्सा करना उनके शास्त्रों का  विषय है।

अपनी अयुगत इस चेतना की सत्ता वे सारे ही शरीर में मानते हैं। क्योंकि शरीर में जितने आयन्तर अथवा बाह्य कार्य हो रहे हैं वे सब चेतना के प्रताप से ही हो रहे हैं ऐसा वे मानते हैं।

परन्तु हृदय का वर्णन करते समय इन आचायरें ने भी लिखा है ‘‘चेतना स्थानमुत्तमम्’’ (यह चेतना का उत्तम स्थान है)। यद्यपि ये आचार्य सारे शरीर को ही चेतना का स्थान मानते हैं परन्तु फिर भी इन का हृदय को चेतना का मुय स्थान मानना एक विशेष लक्ष्य की ओर ध्यान को आकर्षित करता है। इस से यह ध्वनित होता है कि चेतना का प्रधान आधार आत्मा है, और मुखय रूप से चेतना का स्थान वह ही होना चाहिये जहाँ आत्मा रहता हो। इसप्रकार इन ग्रन्थकारों ने हृदय को चेतना का मुखय स्थान कह कर प्रकारान्तर से हृदय को आत्मा का स्थान मान लिया है।

आयुर्वेद के एक संहिताकार आचार्य भेल ने चेतना का मुखय स्थान मस्तिष्क को माना है। उन का मन्तव्य है कि प्रमाद रोग मस्तिष्क का रोग है। इस रोग में चेतना ही दूषित होती है। यदि चेतना मुखय रूप से मस्तिष्क में न रहती हो तो मस्तिष्क के तन्तुओं में होने वाला प्रमाद चेतना को दूषित कर मनुष्य को पागल नहीं बना सकता।

उन के इस मन्तव्य की और आचार्यों के साथ इस प्रकार सङ्गति लग सकती है कि चेतना के एक साधन बुद्धि का निवास स्थान हमारा मस्तिष्क  है। बुद्धि के विकार का नाम ही प्रमाद रोग है। क्योंकि मनुष्य के सब ही निर्णयों में बुद्धि का प्रधान भाग रहता है। और पागल हो जाने पर उस का कोई निर्णय भी व्यवस्थित नहीं रहता। अतः समभव है उन्होंने चेतना के मुखय साधन बुद्धि के मस्तिष्क में निवास को ही वहाँ चेतना का मुखय निवास कहा है और साधारणतया वे भी हृदय को ही चेतना का मुखय स्थान मानते हों।

हम पहिले लिख आये हैं कि उपनिषद्कार ऋषियों ने आत्मा का स्थान हृदय कहा है ‘‘वह हृदय हमारे शरीर में कहाँ है’’ इस विषय का स्पष्टीकरण हम आगे के प्रसङ्ग में उपनिषदों के आधार पर ही करेंगे उपनिषदों में हृदय शबद बहुधा शरीर के किसी विशेष स्थान के अर्थ में ही आता है। परन्तु उपनिषदों में ही कतिपय स्थानों में यह शबद, मन और चित्त के अर्थों में भी प्रयुक्त हुआ है।

उपनिषदों के उन प्रसङ्गों का हम पहिले उल्लेख करेंगे जहाँ यह शबद मन के अर्थों में आया है।

यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः।

अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते।।

कठ 6/14

(जब ये कामनाएँ छूट जाती हैं जो इसके हृदय में वर्तमान हैं, उस समय मनुष्य अमर हो जाता है, और यहाँ ही ब्रह्मानन्द का उपयोग करने लग जाता है, जीवनमुक्त हो जाता है।)

यहाँ हृदय शबद मन का वाचक है, आत्मा अथवा मन के आश्रय, किसी स्थान विशेष का वाचक नहीं क्योंकि कामनाओं का आश्रय मन है न कि कोई स्थान विशेष। इसी प्रकार

यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयस्येह ग्रन्थयः।

अथ मर्त्योऽमृतो भवत्येतावद्ध्यनुशासनम््।।

कठ. 6/15

(जब वे सब गांठे खुल जाती हैं जो इस के हृदय में हैं, फिर मनुष्य अमर हो जाता है, यह इतना ही उपदेश है।)

यहाँ संस्कारों तथा अविद्या की गांठे मन के ही एक भाग चित्त में हैं, शरीर के किसी स्थान विशेष मे नहीं अतः यहाँ हृदय शबद चित्त का वाचक है। बृहदारण्यक के निम्न प्रसङ्ग से यह विषय और भी स्पष्ट हो जाता है।

कामः सङ्कल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धाधृतिरधृति र्हेर्धी र्भीरित्ये तत्सर्वं मन एव।

(कामनाएँ, सङ्कल्प, सँशय, श्रद्धा, अश्रद्धा, धैर्य, अधीरता, लज्जा, बुद्धि, भय यह सब मन ही है)

यहाँ कामनाएँ और सशंय आदि अविद्या की ग्रन्थियाँ सब मन के ही धर्म कहे हैं। किसी हृदय नामक स्थान विशेष को इन का आधार नहीं माना।

इसी प्रकार कोषकार अमरसिंह ने भी हृदय को मन का वाचक स्वीकार किया है।

‘‘चित्तन्तु चेतो हृदयं स्वान्त हृन्मानसं मनः’’

(चित्त, चेतस् हृदय, स्वान्त, हृत् मानस और मन ये सब एकार्थक हैं)

इन प्रसङ्गों से स्पष्ट है कि हृदय शबद मन के अर्थों में भी आता है इस के अतिरिक्त उपनिषदों में हृदय शबद शरीर के एक प्रदेश अर्थ में भी आता है। और वह प्रदेश ही आत्मा का निवास स्थान माना जाता है। हमारे शरीर में वे प्रदेश दो हैं । उन में से एक हमारी छाती के बाएं भागों में स्तन के नीचे है। और दूसरा शिर में ब्रह्मरन्ध्र में । इन दोनों हृदयों का परिचय हम पाठकों को उपनिषत्कार महर्षियों की समतियों के आधार पर ही देंगे। पहिले हम छाती के वाम वाले हृदय का साधक प्रमाण उपस्थित करते हैं।

‘‘अग्निर्वाग्भूत्वा मुखं प्राविशद्वायुः प्राणो भूत्वा नासिके प्राविशदादित्यश्चक्षुर्भूत्वाऽक्षिणी प्राविद्दिशः श्रोतं भूत्वा कर्णौ प्राविशन्नोषधिवनस्पतयो लोमानि भूत्वा त्वचं प्राविशंश्चन्दमा मनो भूत्वा हृदयं प्राविशन्मृत्युरपानो भूत्वा नाभिं प्राविशदापो रेतो भूत्वा शिश्नं प्राविशन्’’।

ऐतरेय 1/2/4

(अग्नि वाणी बन कर मुख में प्रविष्ट हो गया। वायु प्राण बन नासिका में प्रविष्ट हो गया। आदित्य चक्षु बन कर नेत्रों में प्रविष्ट हो गया। दिशाएँ श्रोत्र बन कर कानों में प्रविष्ट हो गई। औषधि वनस्पतियाँ रोम बन कर त्वचा में प्रविष्ट हो गई। चन्द्रमा मन बन कर हृदय में प्रविष्ट हो गया। मृत्यु अपान बन कर नाभि में प्रविष्ट हो गया। जल वीर्य बन कर जननेन्द्रिय में प्रविष्ट हो गया)

यहाँ इस प्रसङ्ग में शरीर-रचना की प्रक्रिया चल रही है। शरीर में इन्द्रियों के प्रवेश तथा उन के उपादान कारणों का उल्लेख किया जा रहा। आरमभ में वाणी का मुख में, प्राण का नासिका में, चक्षु का नेत्रों में श्रोत्र का कानों में रोम अथवा त्वच इन्द्रिय का त्वचा में प्रवेश दिखला कर फिर मन हृदय में प्रवेश दिखलाया गया है। और इस के अनन्तर फिर अपान का नाभि में और वीर्य का जननेन्द्रिय में प्रवेश कहा गया है। इस प्रकार यहाँ ऊपर मुख से लेकर नीचे के क्रमिक स्थानों में इन्द्रियों के प्रवेश का वर्णन है । इस प्रसङ्ग में अपान के नाभि में प्रवेश से प्रथम मन के हृदय में प्रवेश का उल्लेख है। हमारी नाभि से ऊपर के भाग में वह ही स्थान है जो हमारे स्तन के नीचे वाम भाग में है। इसलिये मन के प्रवेश के लिए यहाँ इसी शरीर के भाग को हृदय नाम से कहा गया है। अतः यह सिद्ध है कि मन का निवास इस हृदय में है। कभी इन्द्रियों का अधिष्ठाता यक्षमन इस हृदय में रहता है इस का विस्तार से वर्णन ‘‘मनो विज्ञान तथा शिव संङ्कल्प’’ में पढ़िये।

हमारा हृदय हमारे शिर में है उस के लिये भी हम उपनिषद् से ही प्रमाण उद्धृत करते हैं।

क्रमश…….

मेरे पिता जी

मेरे पिता जी

– तपेन्द्र कुमार आई.ए.एस. (से. नि.)

मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मैं अपने पिताजी के समान कट्टर आर्यसमाजी नहीं हूँ और न ही उनके समकक्ष सिद्धान्तों का परिपालन ही अपने जीवन में कर पाया हूँ। उन्होंने साधारण परिवार से होते हुए भी मेरी आजीविका एवं अपने परिवार का ध्यान न रखते हुए-मुझे गुरुकुल में पढ़ने के लिए भेजा, जिससे मैं आर्य बन सकूं, एक अच्छा ‘इन्सान’ बन सकूँ । उन्होंने वित्तीय आवश्यकताओं की बजाय मुझे सद्गुणी बनाने के लिए गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय में भेजा। जबकि मेरे साथ पढ़ने वाले छात्र अच्छे कॉलेजों में गये। उपहास में कहा गया कि गुरुकुल में पढ़कर विवाह संस्कार कराना सीख जायेगा, तो पिताजी ने मुझे भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाने की प्रेरणा दी और उन्हीं के आशीर्वाद से संस्कृत पढ़ा हुआ एक वेदालंकार आई.ए.एस. बन गया।

सिद्धान्तों के धनी मेरे पिता स्व. रघुवरसिंह सुधारक उस समय विधुर हो गये थे, जब मेरी उम्र मुश्किल से चार साल रही होगी। मेरे ननिहाल से अत्यधिक आग्रह होते हुए भी उन्होंने दूसरा विवाह नहीं किया। मेरे पिताजी ने आर्थिक स्थिति मजबूत नहीं होने की स्थितियों में भी दैनिक-यज्ञ किया। वे कहा करते थे कि जब से यज्ञ करना प्रारमभ किया, तब से घर में घी समाप्त नहीं हुआ। उन्होंने कभी बिना सन्ध्या किये भोजन नहीं किया तथा कभी खादी की धोती व कुर्ते के सिवाय कोई वस्त्र धारण नहीं किया। गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय से एक बार मुझे भाषण-प्रतियोगिता के लिए एक बड़े विश्वविद्यालय में जाना था, मेरे पास कोट नहीं था। पिताजी को कोट के लिए कहा, उन्होंने मना नहीं किया, परन्तु बोले-कपड़े भाषण नहीं करते। फिर भी कोट बनाना हो तो बना लो, लेकिन ध्यान रहे, अपने पैरों पर खड़े होने के बाद इससे कई गुना अच्छा कोट पहनना होगा-जो आज की सादगी से ही समभव होगा।

ईश्वर विश्वासी व निडर इतने कि सारी जिन्दगी रास्ते के पास बैठक के बरामदे में सोते रहे (हमारी बैठक गाँव के एक किनारे पर थी।)सत्य के आग्रही ऐसे कि युवावस्था में एक जातीय पंचायत में बड़े-बड़ों के विरोध की परवाह किये बिना एक महिला के अधिकारों के लिए भिड़ गये तथा उसके अधिकार दिलाकर ही माने। युवावस्था में हुक्का पीते थे, एक दिन छोड़ा तो सारी जिन्दगी बीड़ी, सिगरेट, हुक्का आदि नहीं पीया और सैकड़ों लोगों की हुक्के-बीड़ी की लत छुड़ायी। जीवनयापन के लिए जो भी व्यापार किया उसमें पवित्रता इतनी कि चाहे हानि हो जाये, पर झूठ बोल कर पैसा नहीं कमाना। उनका दृढ़ विश्वास था कि परिश्रम और ईमानदारी के रास्ते पर चलने से कोई हानि नहीं होती। शायद यह सत्य भी था, क्योंकि 1954 में हमारी दो मंजिली बैठक पक्की ईंटों से बनी थी तथा उस पर प्लास्टर था।

आर्य समाज के प्रचार की ऐसी इच्छा कि कुछ समय के लिए भजनोपदेशक कार्य भी किया, बाद में स्वास्थ्य व अन्य कारणों से छोड़ना पड़ा। एक बार बीमार हुए तो सहारनपुर के बड़े अस्पताल में भर्ती हो गये। डॉक्टरों ने कहा-बहुत कमजोरी है, अण्डे खाया करो, जल्दी ठीक हो जाओगे। डॉक्टर को झिड़क दिया और बोले-मृत्यु प्रिय है, सिद्धान्त तोड़ना नहीं। तुम यहाँ के मरीजों में जिसे बलवान् समझते हो उससे मेरा मुकाबला करा लो। कई माह अस्पताल में रहते हुए भी नित्य-कर्म व यज्ञ नहीं छोड़ा।

मैंने उत्तर प्रदेश प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दी तथा लिखित परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया। प्रबुद्ध लोगों को पता चला तो पिता जी से कहा-इण्टरव्यू के लिए सिफारिश करा दो, यह अवसर बार-बार नहीं आता। उनके एक मित्र पिता जी को लेकर उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष महोदय के एक नजदीकी रिश्तेदार के घर गये। पता चला कि चालीस हजार रुपये का इन्तजाम करना पड़ेगा। मित्रों ने आग्रह किया-उधार आदि ले लो, परन्तु मौका हाथ से न जाने दो। पिताजी ने दृढ़ शबदों में इंकार कर दिया और बोले-जिसकी नींव ही बेइमानी पर खड़ी हो, ऐसी बड़ी नौकरी हमें नहीं चाहिये। मैं साक्षात्कार में फेल हो गया। ईश्वर-विश्वासी ऐसे बोलेअब पी.सी.एस. नहीं, आई. ए. एस. की परीक्षा दो, वहाँ भ्रष्टाचार नहीं है- पास हो जाओगे। परीक्षा दी, मैं पास भी हो गया।

मेरे जयेष्ठ भ्राता डॉ. जगदेव सिंह विद्यालंकार की कृपा से मुझे हरियाणा के एक डिग्री कॉलेज में संस्कृत प्रवक्ता की नौकरी मिल गयी। प्रवक्ता का वेतनमान आई.ए.एस. के वेतनमान के बराबर सात सौ रुपये था। मैंने पी.जी.कॉलेज बड़ौत में संस्कृत प्रवक्ता हेतु प्रार्थना-पत्र दिया, साक्षात्कार-पत्र आ गया। प्राचार्य महोदय से स्वीकृति माँगी तो मना कर दिया। मैं उनके पीछे-पीछे बस स्टैण्ड तक आया तथा बहुत निवेदन किया। प्राचार्य महोदय बोले हम ने तो 20 साल में पी.जी. कॉलेज के लिए सोचा, तुम अभी से जाना चाहते हो। मैंने उनके सामने ही आवेश में वह कागज फाड़कर फेंक दिया तथा साक्षात्कार के लिए चला गया। जाने पर पता चला कि साक्षात्कार स्थगित हो गया। वापस आया तो कारण बताओ नोटिस मिला। मैंने पिताजी को सारी स्थिति बतायी। उन्होंने कहा- यदि कोई राष्ट्रपति बना दे ओर कहे कि आगे नहीं बढ़ो तो मंजूर नहीं, अपने घर आ जाओ, इतने पैसे यहीं कमा लेंगे। यह वह समय था जब घर की आर्थिक हालत भी ठीक नहीं थी।

भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन होने के लगभग तीन साल बाद मेरा विवाह हुआ। मंसूरी अकादमी से ही बड़े-बड़े रिश्ते आने शुरु हो गये थे। लेकिन गुण-कर्म-स्वभाव को प्राथमिकता देने वाले मेरे पिताजी न तो किसी दबाव में आये और न हीं लालच में। बिना दहेज के विवाह हुआ। मैं अकेली सन्तान हूँ, फिर भी वे मेरी बारात में नहीं गये। स्पष्टतः बारात छोटी थी। दिन में बारात गयी, विवाह संस्कार के उपरान्त शाम तक वापस घर आ गये। कई रिश्तेदारों ने समझाया-दहेज माँग करना गलत है, लेकिन लड़की वाला यदि अपनी इच्छा से देता है तो यह दहेज नहीं। पिताजी का स्पष्ट उत्तर था-कन्या का पिता अपनी औकात से ज्यादा ही देता है, मांगोगे तो भी उतना ही दे पायेगा, नहीं मांगोगे तो भी उतना ही देगा। इसलिये स्पष्ट मना करना चाहिये कि धन या सामान-किसी भी रूप में दहेज नहीं लेंगे। बारात में चलने के लिए सब ने समझाया, आपकी इकलौती सन्तान का विवाह है- तो बोले-मेरा सार्वजनिक जीवन रहा है, मैं अनेकों बारातों में गया हूँ, यदि उन्हें आमन्त्रित नहीं करुँ, तो उचित नहीं, यदि आमन्त्रित करुँ  तो बारात बड़ी होगी, जो कि मुझे स्वीकार्य नहीं, क्योंकि ये मेरे सिद्धान्तों के विरुद्ध है। उनका यह नियम था कि जिस विवाह में शराब पी जावेगी तथा बाजा व नाच होगा, उस विवाह में नहीं जायेंगे। यदि जाने पर शराब या नृत्य का पता चलता तो उसी समय अपना थैला उठाकर चले आते थे।

स्व. महाशय फूल सिंह जी हमारे गाँव के सबसे पुराने आर्यसमाजी थे जो दैनिक यज्ञ करते थे। कई गाँवों के सरपंच थे, जमींदार थे। कोई अफसर आता था, तो उन्हीं की कोठी पर आता था। महाशय जी एवं पिताजी की घनिष्ट मित्रता थी। दोनों ने गाँव में आर्यसमाज की स्थापना की। आस-पास के ग्रामों में स्थापना हेतु प्रेरित किया। महाशय जी प्रधान थे, पिता जी मन्त्री थे, गाँव के समभ्रान्त लोग साथ थे। भजनोपदेशक एवं उपदेशक, संन्यासीगण आते रहते थे, हमारा घर भी उनकी चरण-रज से पवित्र हो जाता था व हमें उनके दर्शन का लाभ मिलता था। एक बार तो आर्यसमाज का उत्सव होली के अवसर पर रख लिया। तीन दिन धूमधाम से उत्सव हुआ। रंगो के बजाय लोग ज्ञान-गंगा में नहाये, शराब की बजाय सत्संग का अमृत चखा।

गुरुकुल महाविद्यालय शुक्रताल ‘पहले वैदिक योग आश्रम शुक्रताल’ था। इसकी स्थापना में पिता जी का पूर्ण योगदान रहा। शुक्रताल सनातनधर्मियों का गढ़ था। वहां मुश्किल से जमीन ली गयी तो भवन-निर्माण में अड़चनें खड़ी कर दी गयीं। आस-पास के गाँव के आर्यों ने आश्रम का पूरा सहयोग किया। आश्रम में खड़े रहकर पिता जी ने भी तन-मन-धन से सहयोग किया। यही नहीं, जब गुरुकुल का आरमभ हुआ तो उन्होंने प्रथम बैच में ही मुझे गुरुकुल पढ़ने भेज दिया। आर्यसमाज के प्रति उनकी निष्ठा अचल थी।

स्व. चौधरी जगतसिंह जी बसेड़ा ग्राम के वियात जमींदार थे, उनके पास कई सौ बीघा जमीन थी। पक्के आर्यसमाजी थे। सादगी व तप की प्रतिमूर्ति थे। ऊंचा कटिवस्त्र व ऊँचा आधी बाँह का सादा कुर्ता पहनते थे। वैदिक योग आश्रम शुक्रताल की स्थापना से पूर्व ही वे जाट धर्मशाला शुक्रताल में बड़े-बड़े यज्ञ कराया करते थे। चौधरी साहब अपनी टीम के साथ कई बार हमारे गाँव से होकर जाते। हमारी बैठक रास्ते पर थी, थोड़ा विश्राम कर लेते थे। यज्ञ के प्रति श्रद्धा एवं आर्यों की एकता के हिमायती पिताजी ने एक बार उनसे निवेदन किया कि गांव की पावर हाउस पर एक निश्चित तिथि को यज्ञ का आयोजन हो जावे तो आस-पास के सभी आर्यजन एकत्रित हो जावें और समाज का काम और आगे बढ़े। दोनों के निश्चय से यज्ञ प्रारमभ हो गया। तब से आज तक पावर आउस पर प्रतिवर्ष शरद् पूर्णिमा पर यज्ञ का भव्य आयोजन हो रहा है।

पिताजी चार दर्जे तक उर्दू पढ़े थे। उर्दू में लिखते थे। ओ3म् तो काफी बाद तक भी उर्दृू में लिखा करते थे। धुन के धनी ने हिन्दी पढ़ना-लिखना सीखा तथा 1962 में तो उनकी भजनों की किताब भी हिन्दी में छप गयी थी। संस्कृत पढ़ना सीखा तथा महर्षि के ग्रन्थ एवं पुराने विद्वानों के ग्रन्थों का अन्त समय तक स्वाध्याय करते रहे। अन्त समय में यज्ञ पर पुस्तक लिखी। जिसे हम प्रकाशित नहीं करा पाये। गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर, गुरुकुल काँगड़ी, वानप्रस्थ आश्रम व मोहन आश्रम के वार्षिक उत्सव लगातार एक के बाद एक हुआ करते थे। पिताजी व अन्य आर्यसमाजी प्रतिवर्ष साइकिलों से हरिद्वार जाते तथा सारे उत्सव देखकर ही वापस लौटते थे। यह क्रम लबे समय तक चलता रहा । वे बहुश्रुत थे व सिद्धान्तों के प्रति दृढ़-प्रतिज्ञ भी, संभवतः यही कारण था कि मंच से यदि सिद्धान्त विरुद्ध बात बोली जाती तो वे कई बार तो उठकर विरोध कर देते थे।

गोभक्त इतने कि स्वयं गाय का दूध प्रयोग करते, दूसरों को प्रेरित करते। इसी प्रभाव से हमारे घर अभी तक भी गाय के दूध का ही उपयोग किया जाता है। वे गोरक्षा आन्दोलन में जेल भी गये थे। उन्होंने वैदिक सिद्धान्तों को अपने जीवन में जिया तथा विपरीत परिस्थितियों में भी उनकी आस्था में लेश मात्र भी परिवर्तन नहीं हुआ। परमपिता परमात्मा उनके सद्गुणों, सद्विचारों का अनुसरण करने की शक्ति हमें प्रदान करें-यही प्रार्थना है।

ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं

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ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं
है अपना ये त्यौहार नहीं
है अपनी ये तो रीत नहीं
है अपना ये व्यवहार नहीं
धरा ठिठुरती है सर्दी से
आकाश में कोहरा गहरा है
बाग़ बाज़ारों की सरहद पर
सर्द हवा का पहरा है
सूना है प्रकृति का आँगन
कुछ रंग नहीं , उमंग नहीं
हर कोई है घर में दुबका हुआ
नव वर्ष का ये कोई ढंग नहीं
चंद मास अभी इंतज़ार करो
निज मन में तनिक विचार करो
नये साल नया कुछ हो तो सही
क्यों नक़ल में सारी अक्ल बही
उल्लास मंद है जन -मन का
आयी है अभी बहार नहीं
ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं
है अपना ये त्यौहार नहीं
ये धुंध कुहासा छंटने दो
रातों का राज्य सिमटने दो
प्रकृति का रूप निखरने  दो
फागुन का रंग बिखरने दो
प्रकृति दुल्हन का रूप धार
जब स्नेह – सुधा बरसायेगी
शस्य – श्यामला धरती माता
घर -घर खुशहाली लायेगी
तब चैत्र  शुक्ल  की प्रथम तिथि
नव वर्ष मनाया जायेगा
आर्यावर्त की पुण्य भूमि पर
जय गान सुनाया जायेगा
युक्ति – प्रमाण से स्वयंसिद्ध
नव वर्ष हमारा हो प्रसिद्ध
आर्यों की कीर्ति सदा -सदा
नव वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा
अनमोल विरासत के धनिकों को
चाहिये कोई उधार नहीं
ये नव वर्ष हमे स्वीकार नहीं
है अपना ये त्यौहार नहीं
है अपनी ये तो रीत नहीं
है अपना ये व्यवहार नहीं …………

–रामधारी सिंह “दिनकर”

यज्ञ की वेदी पर पाखण्ड के पाँव

यज्ञ की वेदी पर पाखण्ड के पाँव

– धर्मवीर

प्रस्तुत समपादकीय प्रो. धर्मवीर जी ने आकस्मिक निधन से पूर्व लिखा था। इसे यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है।

-सपादकगत दिनों एक संस्था की यज्ञशाला देखने का अवसर मिला। यज्ञशाला भव्य और सुन्दर बनी हुई देखकर अच्छा लगा। प्रतिदिन यज्ञ होता है, यह जानकर प्रसन्नता होनी स्वाभाविक है।

यज्ञशाला देखने पर दो बातों की यज्ञ से संगति बैठती नहीं दिखी। संस्था प्रमुख उस समय संस्था में थे नहीं, अतः मन में उठे प्रश्न अनुत्तरित ही रहे। पहली बात यज्ञशाला के बाहर और सब बातों के साथ-साथ एक सूचना पर भी दृष्टि गई, उसमें लिखा था- ‘आप यज्ञ नहीं कर सकते, न करें, आप यज्ञ के निमित्त राशि उक्त संस्था को भेज दें। आपको यज्ञ का फल मिल जायेगा।’

दूसरी बात ने और अधिक चौंकाने का काम किया, वह बात थी कि वहाँ जो रिकॉर्ड बज रहा था, उस पर वेद मन्त्रों की ध्वनि आ रही थी, प्रत्येक मन्त्र के अन्त में स्वाहा बोला जा रहा था। एक व्यक्ति यज्ञ-कुण्ड के पास आसन पर बैठकर घृत की आहुतियाँ दे रहा था। इस क्रम को देखकर विचार आया कि मन्त्र-पाठ का विकल्प तो मिल गया, मन्त्रों को रिकॉर्ड करके बजा लिया पर अभी आहुति डालने वाले का विकल्प काम में नहीं लिया। यदि वह भी ले लिया जाय तो यज्ञ का लाभ भी मिल जायेगा और उस कार्य में लगने वाले समय को अन्यत्र इच्छित कार्य में लगाने का अवसर भी मिल जायेगा। मेरे साथ संयोग से सार्वदेशिक सभा के मन्त्री  प्रकाश आर्य भी थे। मैंने उनसे इस विषय पर प्रश्न किया और उनकी समति जाननी चाही, तो वे केवल मुस्कुरा दिये और कहने लगे- मैं क्या बताऊँ।

इसके बाद इस बात की चर्चा तो बहुत हुई, परन्तु अधिकारी व संस्था-प्रमुख व्यक्ति से संवाद नहीं हो सका। संयोग से कुछ दिन पहले उस संस्था के प्रमुख से साक्षात्कार हुआ, सार्वजनिक मञ्च से मुझे उनसे अपनी शंकाओं का समाधान करने का अवसर मिल गया। जब मैंने दोनों बातें उनके सामने रखकर इसका अभिप्राय जानना चाहा तो उन्होंने अपने चालीस मिनट में इसका उत्तर इस प्रकार दिया। उन्होंने कहा- हमने कभी यह नहीं कहा और न ही कभी हमारा मन्तव्य ऐसा रहा कि हमारा यज्ञ किसी के व्यक्तिगत यज्ञ का विकल्प है। हमारे यज्ञ में सहयोग करने वाले व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से यज्ञ करने का लाभ तो नहीं मिलेगा। परन्तु उसके धन की सहायता से जिस घृत और सामग्री से हमारे यहाँ यज्ञ किया जा रहा है, उस सद्कर्म के पुण्य का लाभ उस व्यक्ति को भी मिलेगा। इसमें आपत्तिजनक कोई भी बात नहीं।

पहली बात व्यक्तिगत रूप से घर पर किया गया यज्ञ करने वाले के घर की परिस्थिति और वातावरण की शुद्धि का कारण होता है, वह दूर देश में जाकर करने पर घर की पवित्रता का कारण नहीं बन सकता। दूसरी बात यज्ञ केवल पर्यावरण शुद्धि का स्थूल कार्य मात्र नहीं है, यह मनुष्य के लिये उपासना का भी आधार है। इससे वेद-मन्त्रों के पाठ, विद्वानों के सत्संग और यज्ञ में किये जाने वाले स्वाध्याय से परमात्मा की उपासना भी होती है। यज्ञ का यह लाभ दूसरे के द्वारा तथा दूर देश में किये जाने पर केवल धन देने वाले यज्ञकर्त्ता या यजमान को प्राप्त नहीं हो सकता। किसी भी शुभ कार्य के लिये किसी के द्वारा दिये सहयोग, दान का पुण्य दाता को अवश्य प्राप्त होगा, क्योंकि वह उस दान का वह कर्त्ता है।

जहाँ तक दूसरे प्रश्न की बात है कि मन्त्र को रिकॉर्ड पर बजाकर आहुति देने से यज्ञ समपन्न होता है। उनका यह कहना ठीक है कि इतने विद्वान् या वेदपाठी कहाँ से लायें, जो पूरे दिन मन्त्र-पाठ कर सकें? रिकॉर्ड पर मन्त्र चलाकर अपने को तो समझा सकते हैं, परन्तु यह अध्यापक या विद्वान् का विकल्प नहीं हो सकता। संसार की सारी वस्तुयें साधन बन सकती हैं, परन्तु कर्त्ता का मूल कार्य तो मनुष्य को ही करना पड़ता है। समभवतः आचार्य के उत्तर से सन्तुष्ट हुआ जा सकता था, परन्तु संस्था की ओर से जो लिखित स्पष्टीकरण प्राप्त हुआ, वह मौलिक स्पष्टीकरण से नितान्त विपरीत है।

स्पष्टीकरण में शास्त्रों की  पंक्तियाँ उद्धृत करके यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि यज्ञ के लिये दान देने वाले को यज्ञ का फल मिलता है, प्रमाण के रूप में मनुस्मृति के ‘‘अनुमन्ता…….’’, योग-दर्शन के ‘‘वितर्का हिंसादय……’’आदि कई प्रमाण दिये गये हैं। वे शायद ये भूल जाते हैं कि संसार की किन्हीं भी दो अलग-अलग क्रियाओं का फल एक जैसा नहीं हो सकता। दान करने वाले व्यक्ति को दान का फल मिलेगा,ये भी हो सकता है कि अन्य कार्यों के लिये दान करने की अपेक्षा यज्ञ हेतु दान करने का फल अधिक अच्छा हो पर फल तो दान का ही होगा। दरअसल जब हम यज्ञ का फल केवल वातावरण की शुद्धि-मात्र ही समझ लेते हैं, तब इस तरह के तर्क मन में उभरने लगते हैं, और जब कहीं के भी वातावरण की शुद्धि को यज्ञ का फल मान बैठें तो तर्क और अधिक प्रबल दिखाई देने लगते हैं।

ऋषि दयानन्द ने जिस दृष्टि से यज्ञ का विधान किया है, वह अन्यों से भिन्न है। उन्होंने यज्ञ का विधान भौतिक शुद्धि के साथ-साथ अध्यात्म और वेद-मन्त्रों की रक्षा के  लिये भी किया है, साथ ही केवल एक ही जगह और कुछ एक व्यक्तियों के द्वारा ही यज्ञ किये जाने से यज्ञ का भौतिक फल एक ही स्थान पर होगा। यदि इन्हीं सब सीमित परिणामों को यज्ञ का फल मान रहे हैं तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है।

एक और तर्क ये दिया गया है कि संस्कार विधि में ऋषि दयानन्द ने पति-पत्नी के एक साथ उपस्थित न होने पर किसी एक के द्वारा ही दोनों की ओर से आहुति देने का विधान किया है, इससे सिद्ध होता है कि एक दूसरे के लिये यज्ञ किया जा सकता है। ऋषि दयानन्द ने ये विधान केवल इसलिये किया है, जिससे कि यज्ञ की परमपरा बनी रहे, न कि कर्मफल की व्यवस्था को परिवर्तित करने के लिये। एक और तर्क ये कि यदि कोई व्यक्ति भण्डारा, ऋषि लंगर आदि की व्यवस्था करता है, तो उसका फल दानी व्यक्ति को ही मिलना है, पकाने या परोसने वाले को नहीं। यहां पर ये महानुभव अपने ही तर्क ‘‘अनुमन्ता विशसिता………’’का खण्डन कर गये, जिसमें उन्होंने कहा था कि हिंसा का अपराध माँस बेचने, खरीदने, सलाह देने वाले आदि सभी व्यक्ति द्वारा होता है। एक और तर्क सुनिये- राजा समयाभाव के कारण अपने माता-पिता की सेवा भृत्यों से कराता है। ऋषि दयानन्द व मनु के अनुसार राजा स्वयं राजकार्य में रहकर अग्निहोत्र व पक्षेष्टि आदि के लिये पुरोहित व ऋत्विज् को नियुक्त करे।

ऐसे कई उदाहरण दिये गये हैं, और अन्य भी दिये जा सकते हैं, पर इन सभी उदाहरणों में एक सामान्य सी बात ये है कि सभी जगह अति-आपात् की स्थिति या अन्य बड़ा दायित्व होने की स्थिति में अन्यों से यज्ञादि कराने का विकल्प है, वह भी तब, जबकि व्यक्ति मन में ईश्वर के प्रति आस्था, अध्यात्म, वेद की रक्षा के प्रति पूर्ण निष्ठा रखता हो और किसी अति-अनिवार्यता के कारण से यज्ञादि कार्य में असमर्थ हो। इस परिस्थिति में जिनको नियुक्त किया जाता है वे वेतन, पारिश्रमिक आदि लेकर कार्य करते हैं। यदि दान लेकर दाता के नाम से यज्ञ कराने वाले भी यज्ञ करने का पारिश्रमिक लेते हैं, और दानदाता वास्तव में यज्ञ, वेद, ईश्वर, अध्यात्म के प्रति पूर्ण निष्ठावान् रहते हुये भी यज्ञ करने में पूर्ण अक्षम है तो शायद बात कुछ मानी जा सके, लेकिन उतने पर भी वायु तो वहाँ की ही शुद्ध होगी, जहाँ यज्ञ हो रहा है, वेद-मन्त्र तो उसे ही स्मरण होंगे जो कि मन्त्र बोल रहा है। ईश्वर व अध्यात्म में अधिक गति तो उसकी होगी जो आहुति दे रहा है।

इतने पर भी आप यदि अपनी बात को सैद्धान्तिक और सत्य मानना चाहें तो मानें, परन्तु यह अवश्य स्मरण रखना होगा कि ऋषि दयानन्द ने जिन अन्धविश्वासों का खण्डन किया था, वह सब मिथ्या और व्यर्थ सिद्ध हो जायेगा। एक बार सोनीपत आर्यसमाज के उत्सव पर वहाँ के कर्मठ कार्यकर्त्ता सत्यपाल आर्य जी ने अपने जीवन की घटना सुनाई, उन्होंने बताया कि लोकनाथ तर्क-वाचस्पति उन्हीं के गाँव के थे, वे स्वतन्त्रता संग्राम में आन्दोलन करके जेल गये। उस धरपकड़ में उनके गाँव का पौराणिक पण्डित भी धर लिया गया। जेल में तो वह रहा, परन्तु छूटते समय लोकनाथ जी से बोला, इतने दिनों में तुमने कुछ कमाई की या नहीं? लोकनाथ जी बोले- जेल में कैसी कमाई करेंगे? तो पण्डित ने कहा- मैंने तो इन दिनों अपने सेठों के नाम पर इतना जप किया है, जाते ही पैसे ले लूंगा। तब आप क्या करेंगे?

सारे पौराणिक पण्डित यही तो करते हैं। इनको जो लोग दान देंगे, तो क्या पण्डित जी के कार्य का पुण्य फल उन भक्तों को नहीं मिलेगा? फिर ईसाई लोग स्वर्ग की हुण्डी लेते थे, तो क्या बुरा करते थे, दान का पुण्य तो स्वर्ग में मिलेगा ही। फिर श्राद्ध का भोजन, गोदान, वैतरणी पार होना, यज्ञ में पशुबलि आदि सब कुछ उचित हो जायेगा।

धार्मिक कार्य स्वयं करने, दूसरों से कराने और कराने की प्रेरणा देने से निश्चित रूप से पुण्य मिलेगा, परन्तु स्वयं करने का विकल्प-करने की प्रेरणा देना और दूसरों को सहायता देकर कराना नहीं हो सकता। मेरा भोजन करना आवश्यक है, मुझे दूसरों को भी भोजन कराना आवश्यक है। मेरे भोजन करने का विकल्प दूसरे को प्रेरणा देना और सहायता देकर कराना नहीं होता। मेरे घर कोई आता है तो उसे भोजन कराना ही है। मेरे घर कोई नहीं आया, तो मेरे संस्कार बने रहें, इसलिये मैं कहीं किसी को भोजन कराने की सहायता देता हूँ, वह स्वयं कराये गये भोजन का विकल्प नहीं है। एक के अभाव में अन्य के भोजन की बात है।

यज्ञ, संस्कार आदि का प्रयोजन ऋषि ने शरीरात्म विशुद्धये कहा है। दूर किये गये यज्ञ से या दूसरे के यज्ञ से मेरे शरीर-आत्मा की शुद्धि नहीं होती। किसी की तो होती है, उससे दूसरे का भला करने का लाभ होगा, पर आत्मलाभ की बात इससे पूर्ण नहीं होती। प्राचीन सन्दर्भ से देखें तो ऋषि का यज्ञ-विधान परपरा से हटकर है। पुराने समय के यज्ञ चाहे राजा के हों या ऋषि के, सभी व्यक्तिगत रूप से किये जाने वाले रूप में मिलते हैं। ऋषि की उहा ने यज्ञ को एक सामूहिक रूप दिया है, जिसमें यजमान के आसन पर बैठा व्यक्ति पूरे समूह का प्रतिनिधि है, यह यज्ञ सामाजिक संगठन का निर्माण करने वाला होता है।

यज्ञ में वेद-मन्त्र पढ़ने का लाभ बताते हुए ऋषि लिखते हैं-

जैसे हाथ से होम करते, आँख से देखते और त्वचा से स्पर्श करते हैं, वैसे ही वाणी से वेद-मन्त्रों को भी पढ़ते हैं, क्योंकि उनके पढ़ने से वेदों की रक्षा, ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना होती है तथा होम से जो फल होते हैं, उनका स्मरण भी होता है। वेद मन्त्रों का बार-बार पाठ करने से वे कण्ठस्थ भी रहते हैं और ईश्वर का होना भी विदित होता है कि कोई नास्तिक न हो जाये, क्योंकि ईश्वर की प्रार्थनापूर्वक ही सब कर्मों का आरमभ करना होता है।

वेद-मन्त्रों के उच्चारण से यज्ञ में तो उसकी प्रार्थना सर्वत्र होती है। इसलिये सब उत्तम कर्म वेद-मन्त्रों से ही करना उचित है। – ऋग्वेद भूमिका पृ. 721

यह बात इस कारण लिखनी आवश्यक हुई, जिससे जनसामान्य यथार्थ से परिचित हों। किसी के दान से किसी को क्यों द्वेष हो तथा किसी की प्रसिद्धि से ईर्ष्या का क्या लेना? इस अवसर पर संस्कृत की एक उक्ति सटीक लगती है, इसलिये लेख दिया-

का नो हानिः परकीयां खलुचरति रासभोद्राक्षम्।

तथापि असमञ्जसमिति ज्ञात्वा खिद्यते चेतः।।

– धर्मवीर

– धर्मवीर

प्रस्तुत समपादकीय प्रो. धर्मवीर जी ने आकस्मिक निधन से पूर्व लिखा था। इसे यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है।

-सपादकगत दिनों एक संस्था की यज्ञशाला देखने का अवसर मिला। यज्ञशाला भव्य और सुन्दर बनी हुई देखकर अच्छा लगा। प्रतिदिन यज्ञ होता है, यह जानकर प्रसन्नता होनी स्वाभाविक है।

यज्ञशाला देखने पर दो बातों की यज्ञ से संगति बैठती नहीं दिखी। संस्था प्रमुख उस समय संस्था में थे नहीं, अतः मन में उठे प्रश्न अनुत्तरित ही रहे। पहली बात यज्ञशाला के बाहर और सब बातों के साथ-साथ एक सूचना पर भी दृष्टि गई, उसमें लिखा था- ‘आप यज्ञ नहीं कर सकते, न करें, आप यज्ञ के निमित्त राशि उक्त संस्था को भेज दें। आपको यज्ञ का फल मिल जायेगा।’

दूसरी बात ने और अधिक चौंकाने का काम किया, वह बात थी कि वहाँ जो रिकॉर्ड बज रहा था, उस पर वेद मन्त्रों की ध्वनि आ रही थी, प्रत्येक मन्त्र के अन्त में स्वाहा बोला जा रहा था। एक व्यक्ति यज्ञ-कुण्ड के पास आसन पर बैठकर घृत की आहुतियाँ दे रहा था। इस क्रम को देखकर विचार आया कि मन्त्र-पाठ का विकल्प तो मिल गया, मन्त्रों को रिकॉर्ड करके बजा लिया पर अभी आहुति डालने वाले का विकल्प काम में नहीं लिया। यदि वह भी ले लिया जाय तो यज्ञ का लाभ भी मिल जायेगा और उस कार्य में लगने वाले समय को अन्यत्र इच्छित कार्य में लगाने का अवसर भी मिल जायेगा। मेरे साथ संयोग से सार्वदेशिक सभा के मन्त्री  प्रकाश आर्य भी थे। मैंने उनसे इस विषय पर प्रश्न किया और उनकी समति जाननी चाही, तो वे केवल मुस्कुरा दिये और कहने लगे- मैं क्या बताऊँ।

इसके बाद इस बात की चर्चा तो बहुत हुई, परन्तु अधिकारी व संस्था-प्रमुख व्यक्ति से संवाद नहीं हो सका। संयोग से कुछ दिन पहले उस संस्था के प्रमुख से साक्षात्कार हुआ, सार्वजनिक मञ्च से मुझे उनसे अपनी शंकाओं का समाधान करने का अवसर मिल गया। जब मैंने दोनों बातें उनके सामने रखकर इसका अभिप्राय जानना चाहा तो उन्होंने अपने चालीस मिनट में इसका उत्तर इस प्रकार दिया। उन्होंने कहा- हमने कभी यह नहीं कहा और न ही कभी हमारा मन्तव्य ऐसा रहा कि हमारा यज्ञ किसी के व्यक्तिगत यज्ञ का विकल्प है। हमारे यज्ञ में सहयोग करने वाले व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से यज्ञ करने का लाभ तो नहीं मिलेगा। परन्तु उसके धन की सहायता से जिस घृत और सामग्री से हमारे यहाँ यज्ञ किया जा रहा है, उस सद्कर्म के पुण्य का लाभ उस व्यक्ति को भी मिलेगा। इसमें आपत्तिजनक कोई भी बात नहीं।

पहली बात व्यक्तिगत रूप से घर पर किया गया यज्ञ करने वाले के घर की परिस्थिति और वातावरण की शुद्धि का कारण होता है, वह दूर देश में जाकर करने पर घर की पवित्रता का कारण नहीं बन सकता। दूसरी बात यज्ञ केवल पर्यावरण शुद्धि का स्थूल कार्य मात्र नहीं है, यह मनुष्य के लिये उपासना का भी आधार है। इससे वेद-मन्त्रों के पाठ, विद्वानों के सत्संग और यज्ञ में किये जाने वाले स्वाध्याय से परमात्मा की उपासना भी होती है। यज्ञ का यह लाभ दूसरे के द्वारा तथा दूर देश में किये जाने पर केवल धन देने वाले यज्ञकर्त्ता या यजमान को प्राप्त नहीं हो सकता। किसी भी शुभ कार्य के लिये किसी के द्वारा दिये सहयोग, दान का पुण्य दाता को अवश्य प्राप्त होगा, क्योंकि वह उस दान का वह कर्त्ता है।

जहाँ तक दूसरे प्रश्न की बात है कि मन्त्र को रिकॉर्ड पर बजाकर आहुति देने से यज्ञ समपन्न होता है। उनका यह कहना ठीक है कि इतने विद्वान् या वेदपाठी कहाँ से लायें, जो पूरे दिन मन्त्र-पाठ कर सकें? रिकॉर्ड पर मन्त्र चलाकर अपने को तो समझा सकते हैं, परन्तु यह अध्यापक या विद्वान् का विकल्प नहीं हो सकता। संसार की सारी वस्तुयें साधन बन सकती हैं, परन्तु कर्त्ता का मूल कार्य तो मनुष्य को ही करना पड़ता है। समभवतः आचार्य के उत्तर से सन्तुष्ट हुआ जा सकता था, परन्तु संस्था की ओर से जो लिखित स्पष्टीकरण प्राप्त हुआ, वह मौलिक स्पष्टीकरण से नितान्त विपरीत है।

स्पष्टीकरण में शास्त्रों की  पंक्तियाँ उद्धृत करके यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि यज्ञ के लिये दान देने वाले को यज्ञ का फल मिलता है, प्रमाण के रूप में मनुस्मृति के ‘‘अनुमन्ता…….’’, योग-दर्शन के ‘‘वितर्का हिंसादय……’’आदि कई प्रमाण दिये गये हैं। वे शायद ये भूल जाते हैं कि संसार की किन्हीं भी दो अलग-अलग क्रियाओं का फल एक जैसा नहीं हो सकता। दान करने वाले व्यक्ति को दान का फल मिलेगा,ये भी हो सकता है कि अन्य कार्यों के लिये दान करने की अपेक्षा यज्ञ हेतु दान करने का फल अधिक अच्छा हो पर फल तो दान का ही होगा। दरअसल जब हम यज्ञ का फल केवल वातावरण की शुद्धि-मात्र ही समझ लेते हैं, तब इस तरह के तर्क मन में उभरने लगते हैं, और जब कहीं के भी वातावरण की शुद्धि को यज्ञ का फल मान बैठें तो तर्क और अधिक प्रबल दिखाई देने लगते हैं।

ऋषि दयानन्द ने जिस दृष्टि से यज्ञ का विधान किया है, वह अन्यों से भिन्न है। उन्होंने यज्ञ का विधान भौतिक शुद्धि के साथ-साथ अध्यात्म और वेद-मन्त्रों की रक्षा के  लिये भी किया है, साथ ही केवल एक ही जगह और कुछ एक व्यक्तियों के द्वारा ही यज्ञ किये जाने से यज्ञ का भौतिक फल एक ही स्थान पर होगा। यदि इन्हीं सब सीमित परिणामों को यज्ञ का फल मान रहे हैं तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है।

एक और तर्क ये दिया गया है कि संस्कार विधि में ऋषि दयानन्द ने पति-पत्नी के एक साथ उपस्थित न होने पर किसी एक के द्वारा ही दोनों की ओर से आहुति देने का विधान किया है, इससे सिद्ध होता है कि एक दूसरे के लिये यज्ञ किया जा सकता है। ऋषि दयानन्द ने ये विधान केवल इसलिये किया है, जिससे कि यज्ञ की परमपरा बनी रहे, न कि कर्मफल की व्यवस्था को परिवर्तित करने के लिये। एक और तर्क ये कि यदि कोई व्यक्ति भण्डारा, ऋषि लंगर आदि की व्यवस्था करता है, तो उसका फल दानी व्यक्ति को ही मिलना है, पकाने या परोसने वाले को नहीं। यहां पर ये महानुभव अपने ही तर्क ‘‘अनुमन्ता विशसिता………’’का खण्डन कर गये, जिसमें उन्होंने कहा था कि हिंसा का अपराध माँस बेचने, खरीदने, सलाह देने वाले आदि सभी व्यक्ति द्वारा होता है। एक और तर्क सुनिये- राजा समयाभाव के कारण अपने माता-पिता की सेवा भृत्यों से कराता है। ऋषि दयानन्द व मनु के अनुसार राजा स्वयं राजकार्य में रहकर अग्निहोत्र व पक्षेष्टि आदि के लिये पुरोहित व ऋत्विज् को नियुक्त करे।

ऐसे कई उदाहरण दिये गये हैं, और अन्य भी दिये जा सकते हैं, पर इन सभी उदाहरणों में एक सामान्य सी बात ये है कि सभी जगह अति-आपात् की स्थिति या अन्य बड़ा दायित्व होने की स्थिति में अन्यों से यज्ञादि कराने का विकल्प है, वह भी तब, जबकि व्यक्ति मन में ईश्वर के प्रति आस्था, अध्यात्म, वेद की रक्षा के प्रति पूर्ण निष्ठा रखता हो और किसी अति-अनिवार्यता के कारण से यज्ञादि कार्य में असमर्थ हो। इस परिस्थिति में जिनको नियुक्त किया जाता है वे वेतन, पारिश्रमिक आदि लेकर कार्य करते हैं। यदि दान लेकर दाता के नाम से यज्ञ कराने वाले भी यज्ञ करने का पारिश्रमिक लेते हैं, और दानदाता वास्तव में यज्ञ, वेद, ईश्वर, अध्यात्म के प्रति पूर्ण निष्ठावान् रहते हुये भी यज्ञ करने में पूर्ण अक्षम है तो शायद बात कुछ मानी जा सके, लेकिन उतने पर भी वायु तो वहाँ की ही शुद्ध होगी, जहाँ यज्ञ हो रहा है, वेद-मन्त्र तो उसे ही स्मरण होंगे जो कि मन्त्र बोल रहा है। ईश्वर व अध्यात्म में अधिक गति तो उसकी होगी जो आहुति दे रहा है।

इतने पर भी आप यदि अपनी बात को सैद्धान्तिक और सत्य मानना चाहें तो मानें, परन्तु यह अवश्य स्मरण रखना होगा कि ऋषि दयानन्द ने जिन अन्धविश्वासों का खण्डन किया था, वह सब मिथ्या और व्यर्थ सिद्ध हो जायेगा। एक बार सोनीपत आर्यसमाज के उत्सव पर वहाँ के कर्मठ कार्यकर्त्ता सत्यपाल आर्य जी ने अपने जीवन की घटना सुनाई, उन्होंने बताया कि लोकनाथ तर्क-वाचस्पति उन्हीं के गाँव के थे, वे स्वतन्त्रता संग्राम में आन्दोलन करके जेल गये। उस धरपकड़ में उनके गाँव का पौराणिक पण्डित भी धर लिया गया। जेल में तो वह रहा, परन्तु छूटते समय लोकनाथ जी से बोला, इतने दिनों में तुमने कुछ कमाई की या नहीं? लोकनाथ जी बोले- जेल में कैसी कमाई करेंगे? तो पण्डित ने कहा- मैंने तो इन दिनों अपने सेठों के नाम पर इतना जप किया है, जाते ही पैसे ले लूंगा। तब आप क्या करेंगे?

सारे पौराणिक पण्डित यही तो करते हैं। इनको जो लोग दान देंगे, तो क्या पण्डित जी के कार्य का पुण्य फल उन भक्तों को नहीं मिलेगा? फिर ईसाई लोग स्वर्ग की हुण्डी लेते थे, तो क्या बुरा करते थे, दान का पुण्य तो स्वर्ग में मिलेगा ही। फिर श्राद्ध का भोजन, गोदान, वैतरणी पार होना, यज्ञ में पशुबलि आदि सब कुछ उचित हो जायेगा।

धार्मिक कार्य स्वयं करने, दूसरों से कराने और कराने की प्रेरणा देने से निश्चित रूप से पुण्य मिलेगा, परन्तु स्वयं करने का विकल्प-करने की प्रेरणा देना और दूसरों को सहायता देकर कराना नहीं हो सकता। मेरा भोजन करना आवश्यक है, मुझे दूसरों को भी भोजन कराना आवश्यक है। मेरे भोजन करने का विकल्प दूसरे को प्रेरणा देना और सहायता देकर कराना नहीं होता। मेरे घर कोई आता है तो उसे भोजन कराना ही है। मेरे घर कोई नहीं आया, तो मेरे संस्कार बने रहें, इसलिये मैं कहीं किसी को भोजन कराने की सहायता देता हूँ, वह स्वयं कराये गये भोजन का विकल्प नहीं है। एक के अभाव में अन्य के भोजन की बात है।

यज्ञ, संस्कार आदि का प्रयोजन ऋषि ने शरीरात्म विशुद्धये कहा है। दूर किये गये यज्ञ से या दूसरे के यज्ञ से मेरे शरीर-आत्मा की शुद्धि नहीं होती। किसी की तो होती है, उससे दूसरे का भला करने का लाभ होगा, पर आत्मलाभ की बात इससे पूर्ण नहीं होती। प्राचीन सन्दर्भ से देखें तो ऋषि का यज्ञ-विधान परपरा से हटकर है। पुराने समय के यज्ञ चाहे राजा के हों या ऋषि के, सभी व्यक्तिगत रूप से किये जाने वाले रूप में मिलते हैं। ऋषि की उहा ने यज्ञ को एक सामूहिक रूप दिया है, जिसमें यजमान के आसन पर बैठा व्यक्ति पूरे समूह का प्रतिनिधि है, यह यज्ञ सामाजिक संगठन का निर्माण करने वाला होता है।

यज्ञ में वेद-मन्त्र पढ़ने का लाभ बताते हुए ऋषि लिखते हैं-

जैसे हाथ से होम करते, आँख से देखते और त्वचा से स्पर्श करते हैं, वैसे ही वाणी से वेद-मन्त्रों को भी पढ़ते हैं, क्योंकि उनके पढ़ने से वेदों की रक्षा, ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना होती है तथा होम से जो फल होते हैं, उनका स्मरण भी होता है। वेद मन्त्रों का बार-बार पाठ करने से वे कण्ठस्थ भी रहते हैं और ईश्वर का होना भी विदित होता है कि कोई नास्तिक न हो जाये, क्योंकि ईश्वर की प्रार्थनापूर्वक ही सब कर्मों का आरमभ करना होता है।

वेद-मन्त्रों के उच्चारण से यज्ञ में तो उसकी प्रार्थना सर्वत्र होती है। इसलिये सब उत्तम कर्म वेद-मन्त्रों से ही करना उचित है। – ऋग्वेद भूमिका पृ. 721

यह बात इस कारण लिखनी आवश्यक हुई, जिससे जनसामान्य यथार्थ से परिचित हों। किसी के दान से किसी को क्यों द्वेष हो तथा किसी की प्रसिद्धि से ईर्ष्या का क्या लेना? इस अवसर पर संस्कृत की एक उक्ति सटीक लगती है, इसलिये लेख दिया-

का नो हानिः परकीयां खलुचरति रासभोद्राक्षम्।

तथापि असमञ्जसमिति ज्ञात्वा खिद्यते चेतः।।

– धर्मवीर

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-४१

सप्तमर्यादाः कवयस्ततक्षुस्तासामेकामिदभ्यंहुरो गात्।

आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य नीडे पथां विसर्गे धरुणेषु तस्थौ।।

– ऋ. १०/५/६

परमेश्वर ने मनुष्य के अन्दर दो सत्ताओं को समाविष्ट कर रखा है। देखने में प्रत्येक प्राणी के पास एक शरीर है, जो उसकी पहचान है। पहचान नष्ट हो जाये तो कोई शरीरधारी उसे खोजकर नहीं ला सकता। जो इस शरीर से पहचाना जाता है, वह जीवात्मा है। आत्मा अपनी इस पहचान से ही जाना जाता है कि वह अपनी संसार यात्रा से कहाँ तक पहुँचा है।

शरीर तो सभी प्राणियों के पास है, एक-एक प्रकार के शरीर धारण किये भी बहुत सारे प्राणी होते हैं और फिर प्राणियों  के प्रकार, नस्ल भी बहुत हैं। ये दो बातें संकेत करने के लिये पर्याप्त हैं कि सभी प्राणी यात्री हैं और प्रत्येक की यात्रा की पहुँच भिन्न-भिन्न चरणों में चल रही है। हमारे लिये इस यात्रा के कारण कोई प्राणी ऊँचा या नीचा हो सकता है, परन्तु परमेश्वर की दृष्टि में तो सभी उस तक पहुँचने के इच्छुक यात्री हैं, कोई उससे बहुत दूर है तो कोई उसके निकट है।

संसार को देखने से दो बाते समझ में आती हैं- जीव बहुत प्रकार के हैं, उसी प्रकार संसार में सबकी अनिवार्यता और उपयोगिता भी है। जैसे भवन के निर्माण में एक व्यक्ति भवन की आवश्यकता वाला है, वह अपने को उसका स्वामी समझता है। वह अपने को निर्माण करने वाला कहता है। स्वयं को स्वामी भले ही कहे, परन्तु वह उसका निर्माण नहीं कर सकता। भवन का निर्माण करने के लिये कुछ व्यक्ति उसके विचार को क्रियान्वित करने का स्वरूप बताते हैं। हम उन्हें वास्तुकार कहते हैं। वे उसे उसकी इच्छा के अनुकूल भवन का चित्र बनाकर देते हैं। कुछ लोग लोहा, मिट्टी, लकड़ी, पत्थर से उस स्वरूप को आकार देते हैं। दूसरे लोग उसे उपयोगी बनाते हैं, तीसरे उसकी सुन्दरता को चित्रित करते हैं, वैसे ही संसार में समस्त प्राणियों की भूमिका बनती है। जैसे हम आशा करते हैं कि सरकार-राज्य इस देश के नागरिकों को कार्य दे और उनके पुरुषार्थ तथा बुद्धि का सदुपयोग ले और उसे सार्थक से करे। उसी प्रकार परमात्मा ने भी संसार में जितने कार्य हैं, उतने प्रकार के प्राणियों की रचना की है। कोई भी प्राणी अनुपयोगी नहीं है, यदि अनुपयोगी होता तो न तो उसको उसके कर्मों का फल मिलता, न संसार के वे विशेष कार्य दूसरा कर सकता।

इन प्राणियों में परमेश्वर ने अपने कार्यों के प्रति कुछ को उत्तरदायी बनाया है, कुछ को उत्तरदायी नहीं बनाया। सांसारिक व्यवस्था में कुछ लोग निर्णय करने वाले होते हैं, कुछ लोग अनुपालना करने वाले। उत्तरदायी निर्णय करने वाले माने जाते हैं। कार्य के अच्छे-बुरे, हानि-लाभ के लिये अनुपालना करने वालों को उत्तरदायी नहीं माना जाता। जो उत्तरदायी है, उसे ही पुरस्कार और दण्ड मिलता है। अनुपालना करने वाले को केवल उसके जीवन यापन के साधन मिलते हैं, जिसे हम मजदूरी कहते हैं।

इसी प्रकार संसार में भोग-योनि के प्राणी अनुपालना करने वाले हैं। परमेश्वर ने उन्हें संसार में जिस कार्य के योग्य बनाया है, वह स्वयं उनके जीवन से पूर्ण होता है और उनके जीवित रहने के उपाय परमेश्वर ने उन्हें दिये हैं। उनके कार्य में बाधा पहुँचाना, उनके जीवन को मध्य में समाप्त करना, उन्हें कष्ट देना- ये कार्य मनुष्य अपने विवेक से करता है, इसके लिये मनुष्य ही इसके परिणाम का उत्तरदायी बनता है। संसार में मनुष्य से भिन्न सारे प्राणी इसी श्रेणी में आते हैं। अतः इनको भोग-योनि कहा जाता है। इनके कार्य का निर्णय परमेश्वर ने इनके जीवन के साथ किया है। अतः वही उत्तरदायी है।