कुरान समीक्षा : लोंडियों से व्यभिचार जायज

लोंडियों से व्यभिचार जायज

जब जिना अर्थात् बलात्कार करने की खुली छूट इस्लाम में मौजूद है तो उसें व्यभिचार प्रधान मजहब  यदि माना जावे तो क्योंकर गलत होगा?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

वल्-यस्तअ्‘फिफिल्-न………….।।

(कुरान मजीद पारा १८ सूरा नूर रूकू ४ आयत ३३)

तुम्हारी लोंडियाँ जो पाक रहना चाहती हैं उनको दुनियाँ की जिन्दगी के फायदे की गरज से हरामकारी पर मजबूर न करो और जो उनको मजबूर करेगा तो अल्लाह उनके मजबूर किये गये पीछे क्षमा करना वाला मेहरबान हैं

समीक्षा

बांदियों से जबर्दस्ती जब हरामखोरी करने के बाद खुदा क्षमा कर देगा तो यह आयत बिल्कुल बेकार लिखी गई है।

हरामखोरी करना कुरान में जुर्म नहीं माना गया है यह इसी आयत से स्पष्ट हो गया है।

हम श्रमशील बन पभु आनन्द के भागी बनें

ओउम
हम श्रमशील बन पभु आनन्द के भागी बनें
डा. अशोक आर्य
हम सदा क्रोध जैसे दुर्गुणों से दूर रहते हुए भद्र , उत्तम जीवन बितावें तथा शत्रु द्वारा भी सौभाग्यशाली माने जावें । इस प्रकार हम श्रमशील बनकर प्रभु प्रदत आनन्द के भागी बनें । इस प्रकार क उपदेश देते हुए यह मन्त्र कह रहा है कि : –
उत न: सुभगां अरिर्वोचेयुर्दस्म क्रष्तय: ।
स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि ॥ रिग्वेद १.४.६ ॥
इस मन्त्र में मानव मात्र को तीन प्रकार के उपदेश दिए गए हैं :-
१. हमारे गुण हमारे शत्रु को प्रभावित करें
हे शत्रु विनाशक प्रभो ! हम पर एसी कृपा करो कि हमारा जीवन भद्रता से , उत्तम गुणों से इस प्रकार भरपूर हो कि हमारे गुणों के कारण हमारे शत्रु भी सदा हमारी प्रशंसा ही करे । हे प्रभो ! हमारे अन्दर विपुल भद्र भावनाओं को भरे दें , हमारे अन्दर उत्तम ज्ञान का आघान करो , हमें इतना भाग्यशाली बनाओ , तथा हमें इतनी धन सम्पदा दो कि हमारे शत्रु भी सदा हमारी प्रशंसा करें । हमारी भद्रता के कारण , हमारे उत्तम व्यवहार के कारण , हमारे शत्रु भी सदा हमें सौभाग्यशाली समझते हुए हमारी प्रशन्सा ही करें । शत्रु के ह्रदय ,शत्रु के मन हमारी भद्रता के कारण , हमारे उत्तम व्यवहार के कारण सदा प्रभावित रहें ।
जब हम गुणों के स्वामी होंगे , जब हम धन एश्वर्य के स्वामी होंगे ,जब हम उत्तम ज्ञान से प्रकाशित होंगे , जब हम ऊत्तम भावनाओं वाले होंगेतो हमारी प्रजा, हमारे प्रियजन , हमारे मित्र , हमारे पास पडोस के लोगसदा हमारी प्रशंसा करेंगे । जब हम सब ओर से प्रशंसित होंगे तो हमारे शत्रु भी निश्चय ही हमारी प्रशंसा किए बिना न रह सकेंगे , वह हमें उत्तम भाग्य वाला स्वीकार कर, हमारे गुणों की चर्चा करेंगे । एसा कोई कारण ही
नहीं रहेगा कि हमारे शत्रु हमारे इन गुणों से प्रभावित न हों ।
२. हम कर्मशील बनें
जब हम कर्म करेंगे , जब हम कर्म को , श्रम को ही प्रधानता देंगे तथा जब हम कर्मशील हो सदा कर्म में ही लिप्त रहेंगे तो निश्चय ही हम उस परम एशवर्यशाली पिता जो श्रम को ही अपना सब कुछ मानते हुए सदा श्रम के कार्य करने में ही लगे रहते हैं ।
श्रम ओर अकर्म यह दो प्रतिद्वन्द्वी शक्तियां है । जो श्रमशील होता है , वह कभी अकर्मण्य नहीं हो सकता तथा जो अकर्मण्य है वह कभी मेहनत नही करता । जो अकर्मण्य होता है , उसे प्रभु कभी पसन्द नही करता तथा उसे कभी किसी भी प्रकार का आनन्द नहीं देता ।
३. हमारे अन्दर के शत्रु नष्ट हो
यह मन्त्र शत्रुओं के विनाश का भी उपदेश कर रहा है । मानव के अन्दर काम , क्रोध , मद , लोभ , अहंकार आदि अनेक प्रकार के शत्रु निवास करते है । जो व्यक्ति सदा श्रम करता है , सदा मेहनत करता है , उसके पास इतना समय नहीं होता कि इन शत्रुओं की छत्रछाया प्राप्त करे , इन शत्रुओं की आधीनता स्वीकार कर , इन शत्रुओं की इच्छाओं का गुलाम बने । मानव के लिए यह अन्दर के शत्रु उसके सर्वनाश का कारण होते हैं । किन्तु यह मन्त्र शत्रु के विनाश का वाचक बनकर हमारे सामने आया है तथा हमें उपदेश करता है । यह मन्त्र एक स्पष्ट संकेत दे रहा है कि प्रभु के आशीर्वाद से हमारे यह अन्दर के सब शत्रु नष्ट हो जावे । यह नष्ट कैसे होंग ?, जब हम सदा कार्य करते हुए अपने आप को व्यस्त रखेंगे तो यह सब शत्रु हमारे निकट न आ पावेंगे तथा हम सुन्दर जीवन यापन करने वाले , हम उत्तम जीवन यापन करने वाले एश्वर्य से युक्त बनेंगे तथा प्रभु के द्वारा मिलने वाले सुख , वैभव व आनन्द में हमारी भी भागीदारी हो जावेगी व हम सुखी जीवन व्यतीत कर पाने मे सफ़ल होंगे ।

डा. अशोक आर्य

कुरान समीक्षा : शरीर के अंग गवाही देंगे

शरीर के अंग गवाही देंगे

व्यभिचारि स्त्री पुरूषों की गुप्तेन्द्रियाँ किस भाषा में बोलेंगी? इस आयत को खुलासा किया जावे? क्या वे अरबी भाषा की शायरी में बोलेंगी?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

यौ-म तश्हदु अलैहिम् अल्सि………..।।

(कुरान मजीद पारा १८ सूरा नूर रूकू ३ आयत २४)

जब इनकी जुबानें और इनके हाथ और इनके पाँव इनके कामों की जो कुछ वे करते थे गवाही देंगे।

हत्ता इजा मा जा-ऊहा शहि-द…………..।।

(कुरान मजीद पारा २४ सूरा हामीम अस-सज्दा रूकू ३ आयत २०)

यहाँ तक कि नरक के पास जमा होंगे तो जैसे-जैसे काम यह लोग करते रहे हैं उनके कान और उनकी आँखें और उनके चमड़े उनके मुकाबिले में गवाही देंगे।

समीक्षा

शरीर के अंग अलग-अलग अपने कर्मों की गवाही देंगे यह भी मजेदार बात होगी। व्यभिचारी लोगो व औरतों के अंग भी गवाही देंगे। खुदा के पास कर्मों का रजिस्टर भी मौजूद होगा, मुल्जिमों के वकील भी वहाँ पर पैरवी कर रहे होंगे, किसी तहसीलदार की कचहरी से कम ठाटबाट की अदालत खुदा की न होगी।

हम व्यर्थ में निन्दा न कर खाली समय में प्रभु स्तवन करें

ओउम
हम व्यर्थ में निन्दा न कर खाली समय में प्रभु स्तवन करें
डा. अशोक आर्य
विगत मन्त्र में उपदेश किया था कि हम ज्ञानी व संयमी व्यक्तियों के समीप बैठ कर ,उनसे ज्ञान पावें । अब बताया गया है कि
(क) हम कभी किसी की निन्दा न करें ।
(ख) हम सदा व्यर्थ के कार्यों से दूर रहते हुए अवकाश के क्षणों में पभु की ही चर्चा करें , प्रभु नाम का ही स्मरण करें तथा उस के ही अर्थ का चिन्तन करें । इस बात को मन्त्र इस प्रकार उपदेश कर रहा है: –
उत ब्रुवन्तु नो निदो निरन्यतश्चिदारत ।
दधाना इन्द्र इद दुव: ॥ रिग्वेद १.४.५ ॥
इस मन्त्र में दो बातों पर बल दिया गया है : –
१) हम व्यर्थ में किसी की निन्दा न करें : –
हम कभी निन्दात्मक शब्द न बोलें । हम कभी किसी की निन्दा न करें । यहां तक कि हमारे मुख से कभी भूल कर भी निन्दात्मक शब्दों का उच्चारण न हो , हमारे मुख से कभी किसी की निन्दा में एक भी शब्द न निकले । हम सदा वेदों के दिए उपदेश के अनुगमन में रहते हुए भद्र शब्दों का ही उच्चारण करें । हमारा सदा यह व्रत रहे कि हम सूक्तात्मक अर्थात जो वेद मन्त्र के समूह रूप सूक्त में आदेश दिये गए हैं , उनके अनुरुप चलते हुए स्तुति रुप जो कव्य दिए गए हैं , जो कथन दिए गए हैं , उन्हें ही बोलूं , उनका ही
गायन करूं ।
मन्त्र के इस प्रथम खण्ड में यह जो कुछ कहा गया है , इस सब का भाव है कि मानव जीवन तपश्चर्या का जीवन है । इस जीवन में मानव ने जब भी पग आगे बढाना है बडा ही सोच समझ कर तथा जो समाज के मंगल के लिए हो , कल्याण के लिए हो वही सब करना है । यूं ही इधर उधर भटकते फ़िरना तथा अपने खाली समय में भटकते हुए किसी की निन्दा करते रहना , किसी के अमंगल के लिए सोचते रहना उतम नहीं है । किसी की निन्दा करना धर्म नहीं अधर्म है । इसलिए हम अपने मुख से किसी की निन्दा के लिए एक शब्द का भी उच्चारण न करें । सदा दूसरों के लिए शुभ ही सोचें , शुभ ही विचारें । इस में ही भला है , इसमें ही कल्याण है । जब हम इस प्रकार की प्रतीज्ञा लेकर समाज के कल्याण के लिए कृतसंकल्प होंगे तो हमें सब ओर मंगल ही मंगल दिखाई देगा ।
२.बेकार समय व्यर्थ करने से बचो : –
मन्त्र के इस भाग से हमारे वह पूज्य पिता हमें उपदेश करते हुए कह रहे हैं कि हम कभी दूसरों के कार्यों में अकारण हस्तक्षेप न करें । एसा करना निन्दनीय होता है , दूसरों को कलेश पहुंचाने वाला होता है , दूसरे का तिरस्कार करने वाला , अपमान करने वाला होता है । इसलिए हमें इस प्रकार के हस्तक्षेप से बचते हुए तथा दूसरों की निन्दा से बचते हुए सदा अपना जीवन चलाना चाहिए । अत: हम अनुपयोगी , अनावश्यक तथा बेकार के कामों से अपने को सदा दूर रखें ।
आज अनेक व्यक्ति अपने आप को खाली समझ कर अथवा गाडी आदि में यात्रा के समय ताश आदि खेल कर अपने समय को नष्ट करते हैं , यह उत्तम नही है । हम अपने इस बेकार समय को भी निर्माणात्मक कार्य में लगा कर अपनी हित लाभ के साथ ही साथ अन्य भी अनेक लोगों के भी हित के कार्य कर सकते हैं । इसलिए एसे बेकार के कार्यों में समय नष्ट न कर सदा उत्तम कार्यों में ही कार्यरत हों । यह ही उत्तम है, यह ही कल्याण का , प्रगति का साधन है । इस लिए मन्त्र की भावना के अनुसार बेकार के खेल खेलना तथा बेकार में गप शप करते रहना मानव की प्रगति के पथ में बाधक होता है , इसलिए एसे कार्यों से सदा दूर रहना ही उत्तम है ।
मन्त्र इस तथ्य को ही आगे बढाते हुए बता रहा है कि जब कभी भी हमारे पास अवकाश के क्षण आवें , हमारे पास जब भी कभी खाली समय हो अथवा जब भी हम अपने घर के सब आवश्यक कार्यों से निवृत हो कर स्वयं को खाली समझें , जब भी हम स्वाध्याय करते हुए श्रान्त हो जाये , थक गये हों तो इस समय को हम निश्चय ही उस परम एशवर्य से युक्त पभु में लगावे , प्रभु की परिचर्चा में लगावें , प्रभु के स्मरण में लगावें , प्रभु की स्तुति में लगावें , पभु के समीप बैठकर इस समय को व्यतीत करें । इस प्रकार हम सदा ही प्रभु परिचर्चा को , प्रभु स्तवन को , प्रभु संवाद को धारण करने वाले हों तथा
अपने चित की वृतियों को सदा ही प्रभु के साथ जोडे रखे , यह ही क्ल्याण का साधन है ।

डा. अशोक आर्य

कुरान समीक्षा : आसमान गिरने से रूका है

आसमान गिरने से रूका है

कुरान का यह वाक्य ‘‘आसमान गिरने से रूका है’’ अज्ञानतापूर्ण न माना जावे जबकि आसमान शून्य है, कोई ठोस पदार्थ नहीं है?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

अ-लम् त-र अन्नल्ला-हं सख्ख-र………..।।

(कुरान मजीद पारा १७ सूरा हज्ज रूकू ९ आयत ६५)

आसमान जमीन पर गिरने से थमा है मगर उसके हुक्म से।

समीक्षा

शून्य आकाश, जमीन पर गिर पड़ेगा यह बात अरबी खुदा की अकल की पोल खेलने को उत्तम प्रमाण है। हम खुदाबन्द की इल्मी लियाकत की तारीफ करते हैं।

आचार्य्रु रुप प्रभु से हम सुमति पावे

ओउम
आचार्य्रु रुप प्रभु से हम सुमति पावे
डा. अशोक आर्य
हमारा यह प्रभु ,हमारा आचार्य भी है । जिस गुरुकुल में हम ने शिक्षा प्राप्त करना है , उस गुरुकुल के आचार्य परम पिता परमात्मा के हम अन्त:वासी है । अन्त:वासी होने के नाते हम पिता के समीप रहते हुए उत्तम सुमति पाने का लाभार्थी हों । इस भावना को मन्त्र इस प्रकार कह रहा है :

अथा ते अन्तमानां विद्याम सुमतीनाम।
मा नोअतिक्य आ गहि ॥ ऋग्वेद १.४.३॥
विगत मन्त्र में पिता ने जीव को निर्देश दिया था कि हे जीव ! तुं अपने जीवन को यज्ञात्मक बना, जीवन में सोम पान कर तथा दान करने में ही अनन्द अनुभव कर । इस मन्त्र में प्रभु के इस आदेश का पालन करने की शक्ति पाने के लिए शान्ति की याचना के साथ जीव प्रभु से प्रार्थना करता है कि :
१. बुद्धियों में ज्ञानों का प्रकाश करें
हे पिता ! हम ने सोमपान पाने की कामना के लिए साधना आरम्भ की है। एसे साधक हम आप की अन्तिकम में अत:वासी बन कर अत्यन्त समीप रहें . हम आपके अधिक से अधिक समीप रहने के लिए आप हमारे हृदयों में स्थान ग्रहणकर विद्यमान हों । इस प्रकार उत्तम मतियों , बुद्धियों में उत्तम विचारों व उत्तम ज्ञानों का प्रकाश हमें प्राप्त करावें ।
हमारी प्राचीन वैदिक परम्परा यह ही है कि गुरु के चरणों में बैठकर हम शिक्षा प्राप्त करते हैं । शिक्षा काल में गुरु ही हमारा माता ,गुरू ही हमारा पिता होता है , वह ही हमारा भाई,मित्र तथा अन्य भी जितने शिक्षात्मक सम्बन्ध होते हैं ,वह सब गुरु ही होता है । विद्यार्थी जितना गुरु के समीप रहेगा , उतना ही अधिक व उत्तम ज्ञान का प्रकाश उसे मिलेगा । इस लिए ही हम गुरुकुलीय शिक्षा को उत्तम मानते हैं क्योंकि शिक्षा काल में ब्रहमचारी ( जिसे आजकल विद्यार्थी कहते हैं ) गुरु के पास ही निवास करते हुए शिक्षा प्राप्त करता था । इस शिक्षा के ही परिणाम स्वरुप भारत में महान योद्धा ,महान विद्वान व महान विचारकों को पाते हैं । यह तो अंग्रेज ने शिक्षा की विधि में परिवर्तन कर इस देश का सत्यानाश कर दिया , इसे अपनी ही संस्कृति का दुश्मन बना दिया अन्यथा हमारी धरोहर विश्व की महान धरोहर थी, जिससे पैदा होने वाले इस देश के शूर्मा प्रत्येक क्षेत्र मे अग्रणी थे ।
उत्तम शिक्षा पाने के लिए गुरु के समीप निवास होने का आदेश मन्त्र ने दिया है । इसलिए ही भारतीय विद्यार्थी गुरु को अपने हृदय में स्थान देकर , उसके अन्त:वासी बनकर , उससे शिक्षा पाता था । इस तथ्य के आधार पर जब हम मानते हैं कि वह परमात्मा हमारा सब से उत्तम गुरु होने के कारण हमारी यह कामना है कि वह हमारे हृदय में निवास करे । हम उसे अपने हृदय में आसीन कर उससे उत्तम बुद्धियों को उत्तम ज्ञानों को व उत्तम विचारों का ज्ञान प्रतिक्षण प्राप्त करते रहते हैं तथा हे प्रभु ! आपको अपने हृदयस्थ करते हैं तथा अपने ही अन्दर विद्यमान होने के नाते आप के ज्ञान को पाने के लिए हम सदैव ही यत्न करते रहते हैं ।
इस सूक्त के दूसरे मन्त्र में भी यज्ञ करने , सोमपान तथा दान से यह बात ही संकेत की गई थी । जब हम यज्ञशील होंगे, जब हम अपने सोम अर्थात अपने वीर्य की , अपनी शक्ति की रक्षा के लिए संयमी जीवन बनाएंगे तथा दान करेंगे , इस सब से यह ही भाव प्रकट किया गया है कि हम परोपकार की भावना को सम्मुख रखते हुए संयमी बनकर अपनी शक्तियों की रक्षा करते हुए शिक्षा प्राप्त करें तथा फ़िर प्राप्त ज्ञान का दान करें । इस प्रकार हम लोभ की भावना से उपर उठेंगे तो हे प्रभू ! क्योंकि आप हमारे अन्त: स्थित हैं , आपके अन्त:स्थित होने के कारण जो प्रकाश आप हमारे अन्दर दे रहे हैं उसके दर्शन हम क्यों न करेंगे ? अवश्य करेंगे ।
२. प्रभु हमें दान का पात्र समझे
मन्त्र में दूसरी बात का जो उपदेश किया गया है , वह यह है कि वह प्रभु हमें छोडकर अन्यों को ही अपने ज्ञान का दान न करे । इस का भाव यह है कि प्रभु हमें दान का पात्र समझे । कहीं एसा न हो कि हमें अपात्र समझ कर छोड दे तथा दूसरों को ही यह उतम ज्ञान बांटने लग जावे । इसलिए यहां प्रार्थना की है कि हम प्रभु से, उसका ज्ञान पाने के पात्र बनें । हम पुरुषार्थ कर अपने आप को इस योग्य बनावें कि हम उस प्रभु से ज्ञान पाने
के अधिकारी बनें ।
३. प्रभु हमारे हृदय में निवास करें
मन्त्र के इस तीसरे व अन्तिम खण्ड में प्रार्थना करते हुए जीव कह रहा है कि हे प्रभु ! आपका हमारे हृदय में निवास बना रहे । जैसे कि उपर उपदेश किया गया है कि ज्ञान के अभिलाषी प्राणी को गुरु ( परमात्मा ) के अधिक से अधिक समीप रहना आवश्यक है । जब हम उस पिता से ज्ञान की कामना करते है तो उस पिता के अधिक से अधिक समीप रहना आवश्यक हो जाता है । अत्यधिक समीपता हृदय से ही होती है । इसलिए हम उसे अपने हृदय में स्थापित करते हैं ,अपना अंत:वासी करते है ताकि उसके निकट रहते हुए , उससे सदा ही उत्तम ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करते रहें । एसा करने से ही हमारे प्रभु से सम्पर्क हो सकता है । प्रभू का यह सम्पर्क ज्ञान प्राप्ति के लिए ही तो होता है ओर किस लिए होता है ?
जब हम प्रभु को अपने हृदयस्त कर लेंगे तो वह प्रभु ही हमारे आचार्य होंगे, हम उस प्रभु के विद्यार्थी , उस प्रभु के शिष्य बन जावेंगे , तब ही हमे सुमति रुपि ज्ञान प्राप्ति का लाभ मिलेगा तथा हम कभी भी उस प्रभु से मिलने वाले ज्ञान के प्रकाश से रहित न होंगे ।

डा. अशोक आर्य

कुरान समीक्षा : अल्लाह की मदद करो

अल्लाह की मदद करो

खुदा में इतनी कमजोरी क्यों है कि वह इन्सान की मदद मांगने पर भी मजबूर हो गया? बतावें कि खुदा की किस बात में मदद की जावे?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

अ्ल्लजी-न उख्रिजू मिन् दिया…………।।

(कुरान मजीद पारा १७ सूरा हज्ज रूकू ५ आयत ४०)

… और जो अल्लाह की मदद करेगा अल्लाह अवश्य उसकी मदद करेगा।

समीक्षा

कुरानी अल्लाह भी इन्सान की मदद का मौहताज रहता है यह कुरान ने जाहिर कर दिया है पर उसकी किस मुसीबत में हम लोग मदद करें यह नहीं खेला गया है।

हर मुसलमान का बेचारे अरबी खुदा की मदद अवश्य करनी चाहिये, मुसीबत के दिन किसी पर हमेशा नहीं बने रहने और मदद करने का अहसान हमेशा बना रहता है।

बदले की मदद करना खुदगरजी की मदद है हम खुदा की निःस्वार्थ मदद करेंगे तो हमारा दर्जा खुदा से ऊँचा क्यों नहीं माना जावेगा?

प्रभु दर्शन के लिए सात्विक भोजन आवश्यक

ओ३म
प्रभु दर्शन के लिए सात्विक भोजन आवश्यक

डा. अशोक आर्य
हमारी सदा ही यह इच्छा रही है कि हम उस पिता को , उस प्रभु को प्राप्त करें किन्तु कैसे ? इस निमित्त हम अपनी अन्दर की वासनाओं का नाश करें । वासना विनाश के लिए अपने अन्दर ग्यान का दीप जलाएं । ग्यान का दीप जलाने के लिए सात्विक अन्न का प्रयोग करना आवश्यक है । जब मन वासना रहित होगा , अन्दर ग्यान का प्रकाश होगा तथा जब यह शरीर सात्विक भोजन पर
निर्भर होगा तो हम प्रभु को पाने में सफ़ल होंगे । इस तथ्य पर ही यह मन्त्र इस प्रकार प्रकाश डाल रहा है :-
इन्द्रा याहि तुतुजान उप ब्रह्माणि हरिव: ।
सुते दधिष्व नश्चन: ॥रिग्वेद १.३.६ ॥
इस मन्त्र में ती बातों पर , तीन बिन्दुओं पर प्रकाश डालते हुए इस प्रकार कहा गया है , उप्देश किया गया है : –
१.
जितेन्दिय पुरुष को इन्द्र के नाम से सम्बोधित करते हुए मन्त्र कहता है कि हे जितेन्द्रिय पुरुष ! तूं अति शीघ्रता से सब वासनाओं का नाश करता हुआ मेरे समीप आ । इससे यह स्पष्ट होता है कि मन्त्र के अनुसार प्रभु प्राप्ति की प्र्थम तथा प्रमुख सीटी वासनाओं का नाश ही है । जब तक वासनाओं का नाश नहीं होता तब तक प्रभु प्राप्ति की ओर प्रथम कदम भी नहीं रखा जा सकता । इस लिए प्रभु दर्शन के अभिलाषी प्राणी को सर्व प्रथम जो कार्य करना होता है , उसे हम वासनाओं का नाश के नाम से जानते हैं । अत: प्रभु प्राप्ति के पथिक को सर्व प्रथम वासना नाश रुपि मार्ग को पकडना
होता है । यह ही प्रभु दर्शन का प्रथम साधन है , प्रथम सीटी है ।
२.
वासनाओं का नाश करने के इच्छुक हे प्रशस्त इन्द्रिय रुपि घोडों से युक्त प्राणी ! तुं सदा ग्यान के मध्य निवास करने वाला बन । ग्यान प्राप्ति की रुचि के बिना तुं ग्यान प्राप्त नहीं कर सकता । इस लिए तेरे लिए यह आवश्यक है कि यदि तूं ग्यान प्राप्ति की अभिलाषा रखता है तो अपने अन्दर ग्यान को पाने की इच्छा पैदा कर , रुचि पैदा कर । जब तक तेरे अन्दर ग्यान नहीं है , तब तक वासनाओं का नाश सम्भव ही नहीं है । जब तुझे अच्छे व बुरे का ग्यान ही नहीं है , तब तक तूं बुराई को कैसे छोड सकता है । अत: तूं यह अभिलाषा अपने अन्दर पैदा कर कि तुं ग्यान प्राप्त करे तथा यह इच्छा शक्ति भी अपने अन्दर पैदा कर कि तुं ने उत्तम ग्यान को पैदा करना है, ग्रहण करना है । जब तक तेरे अन्दर वासनाओं को मारने के लिए , वासनाओं का हनन करने के लिए ग्यान ही नहीं है , वासनाओं की बुराई को तुं जानता ही नहीं है , तब तक इनका नाश नही कर सकता । इस लिए महान ग्यानी बनना तेरे लिए आवश्यक है । यह ग्यान ही है जो हमें वासनाओं की हानियों की जानकारी देने वाला है । यह ग्यान ही तो है जो वासनाओं का नाश करता है ।
३.
अपने शरीर में हमने शक्ति पैद करनीहै । शक्ति ही सब सफ़लताओं का मर्ग है, सब सफ़लताओं का मूल है । इस शक्ती को ही सोम कहते हैं । इस लिए हे प्राणी अपने शरीर में सोम की उत्पति के लिए , शक्ति की उतपति के लिए , मैंने जो अन्न तेरे लिए दिया है , पैदा किया है , तुं उसे तुं धारण करने के योग्य बन , आने अन्दर एसे गुण पैदा कर कि तुं इस अन्न का उपभोग करने के योग्य्बन सके , इस अन्न को ग्रहण कर । यह अन्न ही तेरा भूजन है, यह अन्न ही तेरी क्शुधा पूर्ति का साधन है , यह अन्न ही तेरे जीवान का मुख्य भाग है । इस प्रकार यह मन्त्र उप्देश कर रहा है कि गेहूं , चावल , जौ, उडद,दालें, तिल आदि वस्तुएं , जिन्हें अन्न का नाम दिया गया है , ही तुं खाने के लिए सेवन कर , इनका ही उपभोग कर, इन्हें ही तुं ग्रहण कर । मांस मनुष्य का भोजन नहीं है , इसलिए तुंने मांस , मदिरा आदि तुच्छ पदार्थों का अपने भोजन के रूप में सेवन नहीं करना । एसे गन्दे भोजन का सेवन कर तूं अपनी बुद्धि को रजस व्रितियों वाला बना कर वैष्यिक व्रितिवाला बनकर , तामस व्रोइति वाला बनकर सोम रक्शन का कार्य नहीम क्लर पावेगा । सोम रक्शण एसी दूषित व्रितियों से नहीं होता ।यदि तूं अपने शरीर में सोम की ,शक्ति की रक्शा करना चाहता है तो यह आवश्यक है कि तुं उत्तम अन्न व दालों आदि का ही सेवन कर । मां , मदिरा के सम्बन्ध्में सोच भी ना , देख भी न ।
इसस्से ही शक्ति , सोम की प्राप्ति होगी । इस के अतिरिक्त हे जीव ! तुं यह भी कर:-
क) तुं सदा सात्विक भोजन कर
ख) सात्विक भोजन की प्राप्ति से तुं सुक्शम बुद्दि वाला बनकर ग्यान
प्राप्ति के कार्य में लग जा ।
ग) ग्यान प्राप्ती से तुण अच्छे व बुरेर की परख करने वाला बन ।
घ) अच्छे व बुरे का पारखी बनकर तुं अपने अन्दर की विषय वासनाओं की
हानि को समझ तथा अपनी वासनाओं का विनाश कर ।
ड) वासनाओं का विनाश कर तुं अस्पने आप को प्रभु को पाने के योग्य बना ।

दर्शना देवी डा. अशोक आर्य

कुरान समीक्षा : आसमान का लपेटना तथा खुदा को सिज्दा करना

आसमान का लपेटना तथा खुदा को सिज्दा करना

जिस वस्तु का कोई अस्तित्व ही नहीं है उसे कैसे लपेटा जा सकता है स्पष्ट करें?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

अ-लम् त-र अन्नल्लाह यस्जुदु…………।।

(कुरान मजीद पारा १७ सूरा हज्ज रूकू १ आयत १८)

जिस दिन हम आसमान को इस तरह लपेटेंगे जैसे तुमान में कागज लपेटते हैं।

समीक्षा

शून्य आकाश को कागज की तरह लपेटने की बात कहने वाला खुदा और और कुरान बनाने वाले विद्या की योग्यता कितनी थी? यह सभी समझ सकते हैं तथा सूरज, चाँद आदि सब खुदा को सिज्दा करते हैं? इसमें कितनी सच्चाई है? यह सर्व विदित है।

प्रभु प्राप्ति के लिए विद्वान व संयमी से ज्ञान आवश्यक

ओ३म
प्रभु प्राप्ति के लिए विद्वान व संयमी से ज्ञान आवश्यक

डा अशोक आर्य
मानव सदा ही प्रभु की शरण में रहना चाहता है किन्तु वह उपाय नहीं करता जो , प्रभू शरण पाने के अभिलाषी के लिए आवश्यक होते हैं । यदि हम प्रभु की शरण में रहना चाहते हैं तो हमारी प्रत्यएक चेष्टा , प्रत्येक यत्न बुद्धि को पाने के उद्देश्य से होना चाहिये । दूसरे हम सदा ग्यानी ,विद्वान लोगों से प्रेरणा लेते रहें तथा हम सदा उन लोगों के समीप रहें , जो विद्वान हों , संयमी हों , ज्ञानी हों । एसे लोगों के समीप रहते हुये हम उनसे ज्ञान प्राप्त करते रहें । इस बात को ही यह मन्त्र अपने उपदेश में हमें बता रहा है । मन्त्र हमें इस प्रकार उपदेश कर रहा है : –
इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजूता: सुतावत: ।
उप ब्रह्माणि वाघत: ॥ रिग्वेद १.३.५ ॥
इस मन्त्र में चार बातों की ओर संकेत किया गया है : =-
१.
जीव ने विगत में जो परमपिता प्रमात्मा से जो प्रार्थना की थी , उस का उत्तर देते हुये पिता इस मन्त्र में हमें उपदेश कर रहे हैं कि हे इन्द्रियों के अधिष्टाता जीव ! हे इन्द्रियों को अपने वश में कर लेने वाले जीव । अर्थात प्रभु उस जीव को सम्बोधन कर रहे हैं , जिसने अपनी इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है । उस पिता का एक नियम है कि वह पिता उसे ही अपने समीप बैटने की अनुमति देता है , उसे ही अपने समीप स्थान देता है , जो अपनी इन्द्रियों के आधीन न हो कर अपनी इन्द्रियों को अपने आधीन कर लेता है , जो इन्द्रियों की इच्छा के वश में नहीं रहता अपितु इन्द्रियां जिसके वश में होती है । अत: इन्द्रियों पर आधिपत्य पा लेने में सफ़ल रहने वाला जीव जब उस प्रभु को पुकारता है तो एसे जीव की प्रार्थना को प्रभु अवश्य ही स्वीकार करता है तथा जीव को कहता है कि हे इन्द्रियों को अपने वश में रखने वाले जीव तु आ मेरे समीप आकर स्थान ले , मेरे समीप आ कर बैठ ।
२.
हे जीव ! तूं अपने सब प्रयास , सब यत्न , सब कर्म बुद्धि को पाने के लिए, बुद्धि को बढाने के लिए ही करता है । तूं सदा बुद्धि से ही प्रेरित रहता है । बुद्धि सदा तुझे कुछ न कुछ प्रेरणा करती रहती है । तूं जितने भी कार्य करता है , वह सब तूं या तो बुद्धि से करता है अथवा तूं जो भी करता है , वह सब बुद्धि को पाने के यत्न स्वरुप करता है । तेरी सब प्रेरणाएं बुद्धि को पाने के लिए प्रेरित होती हैं । इतना ही नहीं तूं जितनी भी चेष्टाएं करता है , जितने भी यत्न करता है, जितना भी परिश्रम करता है , जितना भी प्रयास करता है , वह सब भी तूं बुद्धि को पाने के लिए ही करता है । तूं अपने इस यत्न को निरन्तर बनाए रख । तेरे इस यत्न से ही तेरी बुद्धि सूक्शम हो सकेगी , जिस बुद्धि के द्वारा तूं इस ब्रह्माण्ड में मेरी महिमा , मेरी सृष्टि को देख पाने में सफ़ल होगा ।
३.
तेरे अन्दर जो यह तीव्र बुद्धि आई है, जो सूक्षम बुद्धि का स्रोत बह रहा है, वह तूंने अपने ब्रह्मचर्य काल में अपने ज्ञानी , विद्वान तथा सूक्षम बुद्धि से युक्त आचार्यों से , गुरुजनों से , प्रेरित हो कर एकत्र किया है । इतना ही नहीं तूं अब भी उत्तम बुद्धि को पाने के लिए अपनी अभिलाषा को बनाए हुए है । इस कारण तूं ने अब भी उत्तम विद्वान पुरूषों की शरण को नहीं छोडा है , सूक्शम बुद्धि से युक्त गुरुजनों के चरणों में ही रहने का यत्न कर रहा है अर्थात इतनी बुद्धि का स्वामी होने पर भी बुद्धि पाने का यत्न तूंने छोडा नहीं है अपितु अब भी तूं इसे पाने के लिये निरन्तर प्रयास में लगा है ।
४.
हे उत्तम बुद्धि के स्वामी जीव ! तूं सोम का सम्पादन करने वाला है । तूं प्रतिक्षण अपने जीवन में एसे यत्न , यथा प्राणायाम, द्ण्ड , बैठक आदि में व्यस्त रहता है, जिन से सोम की तेरे शरीर में उत्पति होती ही रहती है । तूं ने अपना जीवन इतना संयमित व नियमित कर लिया है कि सोम का कभी तेरे शरीर में नाश हो ही नहीं सकता अपितु सोम तेरे शरीर में सदा ही रक्षित है । इतना ही नहीं तूं सदा एसे लोगों का , एसे विद्वानों का, एसे गुरुजनों का साथ पाने व सहयोग लेने के लिए , मार्ग-दर्शन पाने के लिए यत्नशील रहता है , जो सोम को अपने यत्न से अपने शरीर में उत्पन्न कर , उसकी रक्षा करते हैं । सोम रक्षण से वह मेधावी होते हैं । एसे मेधावी व्यक्ति के , एसे ज्ञान के भण्डारी के , एसे संयमी व्यक्ति के समीप रह कर तूं उससे ज्ञान रुपि बुद्धि को ओर भी मेधावी बनाने के लिए यत्न शील है ।
डा. अशोक आर्य