पुस्तक – समीक्षा पुस्तक का नाम – साहित्यिक जीवन की यात्रा

पुस्तक – समीक्षा

पुस्तक का नाम साहित्यिक जीवन की यात्रा

लेखक राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

प्रकाशक वेद प्रचारिणी सभा, चामधेड़ा, डा. वेरी, महेन्द्रगढ़, हरियाणा।

पृष्ठ 240    मूल्य – 200/- रु. मात्र

जीवन-यात्रा तो सभी प्राणी कर रहे हैं, किन्तु यह जीवन की यात्रा मनुष्य अपने ढंग से करता है। मनुष्य से इतर प्राणियों की जीवन-यात्रा को परमेश्वर ने निर्धारित कर रखा है। वे प्राणी अपनी यात्रा में कुछ विशेष नवीनता या परिवर्तन नहीं ला सकते, किन्तु मनुष्य के साथ ऐसा नहीं है। मनुष्य अपनी यात्रा को विशेष भी बना सकता है, उसमें नवीनता, तीव्रता भी ला सकता है।

संसार में मनुष्य की जीवन यात्रा के अनेक रूप देखने को मिलते हैं कोई अपनी यात्रा को परोपकार करते हुए करता है तो कोई अपने स्थार्थ को सिद्ध करने में और परहानि में ही अपनी यात्रा करते हुए जीवन व्यर्थ कर देता है। कोई अपने में ही सन्तुष्ट रहकर अपने जीवन को काट रहा होता है, ऐसा व्यक्ति न तो अपनी उन्नति करता है और न ही समाज की उन्नति करता है। ऐसे व्यक्ति की यात्रा भी व्यर्थ ही हो जाती है।

जीवन-यात्रा तो उसकी सफल व संतोषजनक होती है जो अपने जीवन को ठीक रखते हुए समाज को बहुत कुछ देता रहता है। जीवन की यात्रा करते हुए कोई देश की रक्षा में सहयोग करता है, कोई वैज्ञानिक बनकर मनुष्यों के लिए विशेष साधनों को उपलध करवा देता है, कोई चिकित्सक बनकर सेवा करता है, इसी प्रकार अन्य-अन्य कार्य करके व्यक्ति समाज की सेवा करता हुआ अपनी यात्रा को सफल बना रहा होता है। संसार के विभिन्न लोकोपकारक कार्य में एक कार्य ‘‘साहित्य सृजन’’ का भी है। जो व्यक्ति संसार को जितना उपयोगी साहित्य देता है, वह व्यक्ति उतना ही अपनी जीवन-यात्रा को परिष्कृत कर लेता है।

आर्य जगत् में साहित्य सृजन करने वाले, वह भी मौलिक साहित्य का सृजन करने वाले पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जैसे योग्य विद्वान् अनेक हुए हैं। आज आर्य समाज को सबसे अधिक साहित्य को देने वाले साहित्य रचनाकार पं. गंगाप्रसाद उपाध्यायजी के मानस पुत्र आर्य समाज के इतिहास के रक्षक, ऋषि व आर्य समाज के प्रति जीवन समर्पित व्यक्ति, लेखनी व विचारों के धनी, आर्य समाज के पूर्वजों के प्रति कृतज्ञ भाव रखने वाले, जिनकी लेखनी आज भी ऋषि दयानन्द और आर्य समाज के लिए समर्पित है, जिनकी तड़प-झड़प आर्यों को नई जानकारी व उत्साह देने वाली है-ऐसे साहित्यकार प्रा. राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’ हैं। मान्यवर जिज्ञासु जी ने पूरा जीवन साहित्य रचने में लगाया है। अपने इस साहित्यिक जीवन की जानकारी सभी पाठक पा सकें-इसके लिए एक नई पुस्तक लिख डाली, जिसका नाम ही ‘‘साहित्यिक जीवन की यात्रा’’ है। इस पुस्तक में मुखय रूप से लेखक ने अपने साहित्यिक जीवन को दर्शाया है। पुस्तक को पढ़ने पर पाठक अनुभव करेंगे कि लेखक ने अपना जीवन कैसे लेखनी कोसमर्पित किया। बाल्यकाल से लिखना आरमभ कर आज पर्यन्त लिख रहे हैं। पाठक पुस्तक पढ़कर लेखक पर गर्व करेंगे कि लेखक की लेखनी किसी प्रलोभन वा किसी के दबाव में आकर बिकी नहीं। लेखनी सत्य ही लिखती चली गई, विशुद्ध इतिहास की सुरक्षा करती चली गई।

आज वर्तमान में बिकाऊ लेखक बहुत मिल जाते हैं। ऐसे बिकाऊ लेखक साहित्य में सत्य का गला घोटने वाले होते हैं, और ऐसे बिकाऊ लेखकों ने गला घोंटा भी है, किन्तु मान्यवर राजेन्द्र जिज्ञासु जी प्रलोभन से परे होकर सत्य की रक्षा करते रहे हैं। पुस्तक से पाठक जिज्ञासु जी के इस जीवन का दर्शन करेंगे। इतिहास का प्रदूषण हुआ, योजना बद्ध रीति से किया गया उस प्रदूषण का कैसे भण्डाफोड़ लेखक ने किया और यथार्थ में क्या था, यह जानकारी इस जीवन-यात्रा पुस्तक में मिलेगी।

जब ऋषि दयानन्द को विष देने वाली बात को षड्यन्त्र पूर्वक झूठलाने की योजना बनी, तब लेखक ने अनेक प्रमाण पूर्वक लेख लिखे, विद्वानों के प्रमाण उन्हीं के लेखों से खोज-खोजकर सत्य को प्रतिपादित किया, जिससे इतिहास प्रदूषकों की बोलती बंद हुई, यह विस्तार पूर्वक पाठक इस पुस्तक से प्राप्त करेंगे। लेखक ने इस साहित्यिक यात्रा में कितना अपना धन, बल व अमूल्य समय लगाया है, साहित्य सृजन के लिए कहाँ-कहाँ गये, कितने कष्ट उठाते हुए भी ऋषि की धुन में उनको कष्ट माना ही नहीं-यह जानकारी पुस्तक देगी। मुझे लगता है कि मैं पुस्तक परिचय कराते हुए अधिक विस्तार की ओर चला गया। अब यहाँ पुस्तक को क्यों पढ़ें-वे कुछ बिन्दु यहाँ दे रहा हूँ कि वे बिन्दु स्वयं लेखक ने लिखे हैं-

  1. आर्य सामाजिक साहित्य के इतिहास में यह अपने विषय की पहली पुस्तक है। एक बार आरमभ करने पर इसे समाप्त करके ही पाठक इसे छोड़ेगा। इसकी रोचकता की साक्षी पाठक का हृदय देगा।
  2. सार्वजनिक जीवन के सत्तर वर्षों को लेखक ने अपने गुणी विद्वानों से बहुत कुछ सीखा है। ऐसे सब संन्यासी, महात्माओं, विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, लेखकों, गवेषकों तथा अपने पाठकों को भी लेखक अपना निर्माता मानकर उनसे सीखने के छोटे-छोटे प्रेरक प्रसंगों की माला पिरोकर पाठकों को विनम्रता से भेंट कर रहा है। नई पीढ़ी इसके पारायण से बहुत कुछ सीख सकती है।
  3. सभवतः किसी साहित्यकार ने प्रथम बार अपने इतने निर्माताओं के प्रति कृतज्ञता का प्रकाशन किया है।
  4. इस समय आर्य जगत् में ऐसा दूसरा व्यक्ति कोई नहीं मिलेगा, जिसको बहुत छोटी आयु में बड़े-बड़े महापुरुषों, बलिदानियों, ज्ञानियों के चरणों में बैठकर कुछ सीखने व आशीर्वाद पाने का सौभाग्य प्राप्त रहा हो। पूर्व पश्चिम, उत्तर और दक्षिण के इतने विद्वानों के सपर्क में और कौन आया? इतने नाम और कौन गिना सकता है? उनके छोटे बड़े रोचक प्रसंग इस पुस्तक की विशेषता हैं।
  5. नई-नई खोज करने, अलय स्रोतों की खोज में मन में मौज आयी, झोला उठाकर यात्रा को लेखक चल पड़ा। किसी को चिट्ठी-पत्री का, मार्ग-व्यय का कभी कोई बिल नहीं दिया।
  6. स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज ने अपने देहत्याग से पूर्व जो पाँच-दस मिनट का उपदेश-आदेश दिया, लेखक उसे महाराज का अन्तिम दीक्षान्त भाषण घोषित करता है। स्वामी जी के इस संक्षिप्त दीक्षान्त भाषण का हृदयस्पर्शी वर्णन इस पुस्तक का अनूठा संदेश है।
  7. कुछ करने व बनने की जिनमें चाह है, उत्साह है, वे उसे अवश्य पढ़े।

दस परिच्छेदों में विभक्त यह पुस्तक लेखक के साहित्यिक जीवन यात्रा का वर्णन करने में अपने अन्दर एक खजाना लिए हुए है। दसवें परिच्छेद में पाठक कुछ विशेष पत्रों को पढ़ेंगे, जिन पत्रों से पाठकों को नये रहस्यों का पता चलेगा। दृढ़ बन्धन, सुन्दर आवरण, कागज व छपाई से युक्त यह पुस्तक पाठकों का ज्ञान वर्धन करेगी। आर्य समाजें, गुरुकुल व आर्य भद्रपुरुष इस पुस्तक विशेष को प्राप्त कर लेखक के साहित्यिक जीवन का अवश्य परिचय प्राप्त करेंगे-इसी आशा के साथ-

– आचार्य सोमदेव, ऋषि उद्यान, अजमेर।

 

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