विद्यार्थी का चरित्र उत्तम होना आवश्यक

ओ३म्
विद्यार्थी का चरित्र उत्तम होना आवश्यक
डा.अशोक आर्य
शिक्षा सम्बन्धी समस्याओं पर विचार करते हुए वेद कहता है कि प्रत्येक शिक्षार्थी , जिसे आज हम विद्यार्थी के नाम से जानते हैं , उसका चरित्र उच्च होना आवश्यक है | चरित्रवान होने से गुणों को ग्रहण करने की शक्ति बढ़ जाती है | कम समय में अधिक काम किया जा सकता है | एकाग्र बुद्धि होने से पढ़ा हुआ पाठ शीघ्र ही स्मरण हो जाता है | इस लिए वेद प्रत्येक ब्रह्मचारी के लिए उच्च चरित्र को उसका आवश्यक गुण मानता है | अथर्ववेद के अध्याय नो के सूक्त पांच के मन्त्र संख्या तीन में इस विषय पर ही चर्चा करते हुए बताया गया है कि :
प्र पदोउव नेनीग्धी दुश्चरितं यच्चचार शुद्ध: शफेरा क्रमता प्रजानन |
तीर्त्वा तमांसी बहुधा विपश्यन्न्जो नाकमा क्रमता त्रतियम || अथर्व.९.५.३||
इस मन्त्र के द्वारा परम पिता परमेश्वर मानव मात्र को उपदेश करते हुए कह रहा है कि हे मानव ! जिव होने के कारण गल्तियाँ करना तेरा स्वभाव है | इस सवभाव के कारण तु अपनेजीवन में अनेक ईएसआई गलतियां क र लेता है , जीना के कारन तेरे जीवन की उन्नति रुक जाती है | तेरा आगे बढ़ने का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है , बंद हो जाता है | इसलिए तेरे लिए यह आवश्यक हो जाता है की तुन जो भी कार्य करे , बड़ी सावधानी से क र | अपनी किसी भी गतिविधि में किसी प्रकार की गलती न कर , कोई दोष , कोई न्यूनता न आने दे | कोटी सी गलती भी तेरी उन्नति में बाधक हो सकती है | इसलिए तुन जो भी कार्य हाथ में ले उसमें किसी प्रकार की कमिं न रहने दे , किसी प्रकार की गलती न आने दे |
हे मानव ! तूने अपने जीवन में अनेक प्रकार के दुराचार किये होंगे , अनेक प्रकार के भ्रिष्ट आचरण किये होंगे , अनेक प्रकार की गल्तियां की होंगी किन्तु तेरे पास अवसर है | तु अपने उत्तम कर्मों से , उत्तम व्यवहारों से , सद्विचार से इन सब प्रकार के दुराचार , सब प्रकार के भृष्ट आचरण को धो कर साफ़ कर दे | इन सब को धो कर उज्ज्वल कर दे | इस प्रकार सब दुराचारों , भ्रिष्ट आचरणों को उज्ज्वल , शुद्ध व निर्मला करने के पश्चात अपने आप को सब प्रकार के उत्तम ज्ञान से सम्पन्न कर | इन उत्तम ज्ञानों का स्वामी बनकर उन्नति के मार्ग पर आगे को बढ़ , उन्नति को प्राप्त कर | सब जानते हैं कि सब दुराचारों से रहित व्यक्ति ही सुशिक्षा का उत्तम अधिकारी होता है |
जब किसी व्यक्ति में दुराचार होते हैं . किसी प्रकार का कपट व्यवहार करता है , किसी को अकारण ही कष्ट देता है तो दूसरे के ह्रदय को तो पीड़ा होती ही है , इसके साथ ही साथ जो अकारण कष्ट देता है , उसकी अपनी स्वयं की आत्मा भी उसे दुत्कारती है, उसे उपदेश करती है कि यह कार्य अच्छा नहीं है , इसे तु न कर किन्तु दुष्ट व्यक्ति अपनी आत्मा की आवाज जो इश्वर के आदेश पर आत्मा उसे देती है , को न सुनकर अपनी दुष्टता पर अटल रहता है तथा बुरा कार्य कर ही देता है तो उसकी अपनी शांति ही भंगा हो जाती है | यह तो वही बात हुयी कि कोई व्यक्ति अपने पडौसी को कष्ट देने के लिए स्वयम दो गुणा कष्ट भी सहने को तयार मिलता है | पडौसी की दो आँखें फुटवाने के लिए अपनी एक आँख का बलिदान करने को भी तैयार रहता है | ऐसे व्यक्ति को सदा यह चिंता सताती रहती है कि कहीं किसी को मेरी इस दुष्टता का पता न चल जावे | इस सोच में डूबा वह अपने भले के लिए भी कुछ नहीं कर पाता | इस चिंता में रहने वाला विद्यार्थी अपना पाठ याद करने के लिए भी समय नहीं निकाल पाता | यदि किसी प्रकार वह कुछ समय निकाल भी लेता है तो उसका शैतान मन पाठ में न लग कर जो बुरा आचरण किया है , उसमें ही उलझा रहता है | जब ध्यान अपनी पढाई में न होकर अपने गलत आचरण पर है तो पाठ कैसे याद हो सकता है ? अर्थात नहीं होता और वह ज्ञान प्राप्त करने में अन्यों सो पिछड़ जाता है | इसलिए ही मन्त्र ने उपदेश किया है कि हे मानव ! अपनी उन्नति के लिए अपने अन्दर के सब भृष्ट आचरण को धो कर साफ सुथरा बना ले | साफ़ मन ही कुछ ग्रहण करेगा | यदि वह मलिनता से भरा है तो जोक उछ भी अन्दर जावेगा ,वह मलिन के साथ मिलाकर मलिन ही होता जावेगा | कूड़े की कडाही में जितना चाहे घी डालो , वह कूड़ा ही बनता जाता है | इस लिए मन को मलिनता रहित करना आवश्यक है |
मानव जीवन अज्ञान के अंधकर से भरा रहता है | अपने जीवन के अन्दर विद्यमान सब प्रकार के अज्ञान के अँधेरे को दूर करने के लिए ज्ञान का दीपक अपने अंदर जलाना आवश्यक है | इसके लिए निरंतर ध्यान लगाना होगा | इस को शुद्ध करने के लिए एक लम्बे समय तक समाधि लगानि होगी, एकाग्रता पैदा करनी होगी | जब इस प्रकार तू अपने दुरितों को धोने का यत्न करेगा तो तुझे मोक्ष का मार्ग मिलेगा | मोक्ष का मार्ग उस जीव को ही मिलता है , जो अपने जीवन के कलुष धोकर सब प्रकार की उन्नतियों को पाने का यत्न करता है | बिना यतन के , बिना पुरुषार्थ के , बिना मेहनत के किसी को कभी कुछ नहीं मिला करता | इस लिए मन्त्र कहता है की हे जीव ! उठ , साहस कर , पुरुषार्थ कर , भरपूर मेहनत से अपने अंदर के सब दोषों को धो डाला | जब सब मलिनताएँ नष्ट हो जाने से तेरा अंदर खाली हो जावेगा तो इस खाली स्थान को भरने के लिए शुभ कर्म , उत्तम कर्म तेरे अन्दर प्रवेश करेंगे | जब तेरे अंदर सब शुभ ही शुभ होगा तो मोक्ष मार्ग की और तेरे कदम स्वयमेव ही चलेंगे |
इस सुंदर तथ्य पर प्रकाश डालते हुए पंडित धर्मदेव विद्यामार्तंड जी अपनी पुस्तक वेदों द्वारा समस्त समस्याओं का समाधान के पृष्ट १६ पर इस प्रकार लिखते हैं पुन: अनेक बार अज्ञानान्धकार को ज्ञान ,दयां, समाधि के द्वारा पार करता हुआ तेरा अजन्मा अमर आत्मा सुख दू:ख की सामान्य अवस्था से परे तथा दू:ख रहित मोक्ष को प्राप्त करे |
वैदिक शिक्षा का उद्देश्य चरित्र निर्माण :
ऊपर वर्णित तथ्यों से यह बात स्पष्ट होती है की वेदों के अनुसार यदि हम शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं , यदि हम वेदानुसार शिक्षा पाना चाहते हैं तो हमारे लिए आवश्यक है कि हम उच्च चरित्र के स्वामी बनें | हमारी शिक्षा जो वेद आधारित होती है , उसका सबसे मुख्य उद्देश्य चरित्र का निर्माण ही है | चरित्र ही है जो एक व्यक्ति को बहुतु ऊँचा उठा सकता है तो इस का नाश होने पर यह उसे मिटटी में भी मिलाने की शक्ति रखता है | इसलिए चरित्र के उच्च अथवा स्वच्छ होने पर ही हम उन्नति के पथ पर बढ़ सकते हैं, मुक्ति के मार्ग पर चल सकते हैं |
सदाचार का पाठ पढ़ाने वाला ही आचार्य :
आज हम अपने स्कूलों में पढ़ने वालों को अध्यापक कहते हैं | यह अध्यापक लोग हमें पढ़ाते तो हैं किन्तु सिखाते नहीं | जो आचरण हमारे जीवन में होने आवश्यक हैं , जो आचरण हमारे जीवन में आवश्यक होते हैं , उन्हें पाने के लिए एक उत्तम, एक अच्छे आचार्य की शरण में जाना आवश्यक है | जिस प्रकार हम जानते हैं की धन सब सुखों का साधन है किन्तु वह धन ही सुख दे सकता है , जो पुरुषार्थ से कमाया जावे | जिस धन को लुट पाट कर प्राप्त किया गया हो , वह चिंता का कारण होता है ,सुख नहीं दे सकता | इस लिए किसी कवि ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में कहा है की :
जागो रे , जागो रे , हे दौलत के दीवानों
धन से बिस्तर मिल सकता
पर नींद कहाँ से लाओगे |
दौलत स्त्री दे सकती
पर पत्नी नहीं दिला सकती |
इसलिए केवल धन के पीछे भागना भी उत्तम नहीं है | जीवन के वास्तविक सार को पाने के लिए आवश्यक है कि हम अपने जीवन को भय रहित बनावें| जीवन भय रहित तब ही बनेगा जब हम अपने जीवन के सब क्लुशों को , सब पापों को धोकर शुद्ध, साफ कर लेंगे | इन कलुशों को धोने के लिए ज्ञान पाने को लिए ही आचार्य की आवश्यकता होती है | हम इन सन्मार्ग पर ले जाने वालों को इस लिए ही तो आचार्य कहते हैं क्योंकि वह हम सदाचार का पाठ पढ़ाते हुए हमें सदाचार की और ले जाते हैं , सदाचारी बनाते हैं | उनका हमारे लिए किया गया यह कार्य ही उन्हें आचार्य बनाता है | आचरण शब्द से ही आचार्य शब्द सामने आता है | अत; हम कह सकते हैं जो हमें सदाचार के मार्ग पर लेकर जावे , वह आचार्य है |
चरित्र निर्माण ही शिक्षा :
जिस साधन से हमारे चरित्र का निर्माण हो , हम उसे शिक्षा के नाम से जानते हैं | इस से स्पष्ट है कि हम ने चाहे स्कूलों अथवा कालेजों में जा कर कितनी भी शिक्षा पा ली , कितने ही बड़े बड़े प्रमाण पत्र प्राप्त कर लिए किन्तु हमारे अंदर सदाचार नहीं आया तो हमारी यह सब शिक्षा बेकार है | वास्तव में शिक्षा सदा चरित्र निर्माण का कार्य करती है तथा चरित्र निर्माण की और ही ध्यान देती है | ध्यान ही नहीं देती अपितु विशेष ध्यान देती है | इसलिए ही इसे शिक्षा की कोटि में रखा जाता है | इस कारण ही जब हम विश्व के मानचित्र पर अनेक प्रकार के शिक्षा शास्त्रियों का अवलोकन करते हैं तो हम पाते हैं कि समग्र विश्व का शिक्षाविद इस वैदिक धारणा के सामने नत है तथा एक मत से कह रहा है कि वह इस वेदोक्त शिक्षा के इस चरित्र निर्माण के उद्देश्य से पूर्णतया सहमत होने के साथ ही साथ इस के उद्देश्य का बड़ी प्रबलता से समर्थान करता हैं |
महर्षि दयानंद के अनुसार शिक्षा का लक्षण :
महर्षि दयानंद सरस्वती ने स्वमंत्व्यमंतव्य प्रकाश के अंतर्गत सत्यार्थ प्रकासा में शिक्षा के लिए बड़े सुंदर लक्षण दिए हैं जो इस प्रकार हैं :
जिससे विद्या ,सभ्यता ,धर्मात्मा ,जितेन्द्रियतादि की बढती होवे और अविद्यादी दोष छूटें , उसको शिक्षा कहते हैं |
इससे स्पष्ट होता है की स्वामी जी ने उसे ही शिक्षा सविक र किया है ,जिस से हमें उत्तम विद्या की प्राप्ति हो , जिस से हम सबी समाज के अंग होने के योग्य स्वयं मो बना सकें , जिसके ज्ञान से हम धर्म का पालन क रने वाले बनें , जिस से हम जितेन्द्रिय अर्थात अपने अंदर के सोम के रक्षण करने वाले बनें , वह सब ही विद्या अथवा शिक्षा क हलाने के योग्य है अन्य कुछ नहीं | कुछ इस प्रकार के उदगार ही देश विदेश के अन्य महापुरुषों ने भी दिए हैं |
इंग्लैंड के सुप्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री हर्बर्ट स्पेंसर ने तो पूर्णतया स्वामी जी की बात को ही शिक्षा के रूप में स्वीकार करते हुए इस प्रकार लिखा है एजुकेशन हस इट्स ऑब्जेक्ट्स ऑफ़ करैक्टर | जिस का भाव यह है की शिक्षा का उद्देश्य चरित्र निर्माण है |

डा. अशोक आर्य

कुरान समीक्षा : खुदा की ‘‘कुन’’ अर्थात् हो जा क्या बला है?

खुदा की ‘‘कुन’’ अर्थात् हो जा क्या बला है?

यदि ‘‘हो जा’’ कहने से ही सब कुछ बन जाता था तो बिचारे खुदा को छः दिन रात दुनियां बनाने की कड़ी मेहनत क्यों करनी पड़ी? क्या इस ‘‘कुन’’ अर्थात् हो जा वाले छूमन्त्र को खुदा उस वक्त भूल गया था।

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

कालत् रब्बिअन्ना यकूनु ली…………।।

(कुरान मजीद पारा ३ सूरा आले इम्रान रूकू ५ आयत ४७)

जब वह किसी काम का ठान लेता है तो बस! उसे फर्मा देता है कि ‘‘कुन’’अर्थात् हो जाता है।

समीक्षा

खुदा के ‘‘कुन’’अर्थात् हो जा के आदेश कौन- सुनता है? किससे खुदा ‘‘हो जा’’कहता है? यह भी खोला जाना था। खुदा को ‘‘हो जा’’कहने की क्या जरूरत थी? केवल मन से ही विचार करके काम क्यों नहीं कर लेता था। क्या खुदा भी ‘‘कुन’’का ही मुहताज है ?

হিরণ্যকশিপু মিথ্যাচার (ভাগবতপুরাণ)

ভাগবতঃ বাকি থাকল হিরণ্যকশ্যপ। তার পুত্র প্রহ্লাদ।সে এক ভগবদ ভক্ত বালক। তাকে তার বাবা বলল-যদি তোর ইষ্টদেব রাম সত্য হয় তা হলে এই উত্তপ্ত স্তম্ভ ধরিলেও জ্বলিবে না। তখন সে তা ধরতে উদ্যত হল। এসময় তার মনে সংশয় দেখা দিল, দগ্ধ না হয়ে সে রক্ষা পাবে কিনা। তখন নারায়ন সে স্তম্ভের উপর ক্ষুদ্র ক্ষুদ্র পিপীলিকার শ্রেণী চালিত করল। প্রহ্লাদ নিশ্চিত হয়ে স্তম্ভ ধরিল। স্তম্ভ বিদীর্ণ হল।স্তম্ভের ভিতর থেকে নৃসিংহ আবির্ভূত হয়ে তার বাবার উদর বিদীর্ণ করিতে লাগলেন। পরে পহ্লদকে ২১ পুরুষ সদগতি লাভ করার বর দিলেন ।
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প্রশ্ন- প্রজ্বলিত স্তম্ভে পিপীলিকা কি করে বিচরণ করেছিল? প্রহ্লাদও দগ্ধ হলো না কেন? যে সকল লোক এ কথা বিশ্বাস করে ও মানে তাকে উত্তপ্ত স্তম্ভ স্পর্শ করানো উচিত। যদি সে দগ্ধ না হয় তবে মানতে হবে যে প্রহ্লাদ দগ্ধ হয় নাই। পূর্বে সনকাদিকে বর দেওয়া হয়েছিল যে, ৩য় জম্মের পর সে বৈকুন্ঠে আসিবে। নারায়ন কি তা ভুলে গেল ?
ভাগবতের মতে ব্রহ্ম প্রজাপতি কশ্যপ হিরণ্যক্ষ ও হিরণ্যকশ্যপপুরুষের অন্তরগত। প্রহ্লাদের ২১ পুরুষ হয় নাই অথচ ২১ পুরুষের সদগতি করার কথা বলা কত বড় ভুল ! আবার সেই হিরণ্যক্ষ ও হিরণ্যকশ্যপ, রাবণ ও কুম্ভকর্ণ এবং পরে শিশুপাল ও দন্তবক্র রূপে জম্মগ্রহণ করল। তাহলে নৃসিংহের বর কোথায় উড়ে গেল ? প্রমাদগ্রস্ত লোকেরাই প্রমাদপূর্ণ কথা বলে শোনে এবং বিশ্বাস করে। যারা বিদ্বান তারা কখনো সেরূপ করে না

हम रोजाना यह सुनते हैं लोगों से कि हर कार्य परमात्मा की इच्छा से होता है। उसकी मर्जी के बगैर पत्ता तक नहीं हिलता और हर एक प्राणी की आयु निश्चित है। क्या यह तथ्य सही है?

हम रोजाना यह सुनते हैं लोगों से कि हर कार्य परमात्मा की इच्छा से होता है। उसकी मर्जी के बगैर पत्ता तक नहीं हिलता और हर एक प्राणी की आयु निश्चित है। क्या यह तथ्य सही है?

समाधान:- 

कुछ बातें अन्धश्रद्धा एवं अतिरेक में ऐसे बोल दी जाती हैं, जिन बातों को साधारण लोग सुनते हैं तो उनको अच्छा और ठीक लगता है। ये अच्छी और ठीक लगने वाली बातें सिद्धान्ततः गलत होती हैं। ऐसी ही यह बात है कि ‘‘परमात्मा की इच्छा के बिना पत्ता तक नहीं हिलता।’’ यह कहना नितान्त वेद विरुद्ध है। यदि ऐसा ही मानने लग जायें तो कर्मफल सिद्धान्त खण्डित होगा, क्योंकि जो कुछ संसार में कर्म होगा, वह परमात्मा की इच्छा से होगा और जिसकी इच्छा से कर्म हो रहा है तो फल भी उसी को मिलना चाहिए, अर्थात् जीव को अच्छे-बुरे का फल न मिलकर परमात्मा को मिलना चाहिए, किन्तु ऐसा होता नहीं है।

इसलिए जो कर्म जीवात्मा करता है, वह अपनी इच्छा से करता है, न कि सर्वथा परमात्मा की इच्छा से, इसलिए कर्मों का फल भी कर्म करने वाला जीवात्मा ही भोगता है। यदि ऐसा सिद्धान्त मान कर चलने लग जायें तो संसार में जो एक दूसरे के प्रति अन्याय करते हैं, जैसे किसी ने चोरी की, हत्या की, अपमान किया आदि करने पर ऐसा करने वाले को दण्ड भी नहीं मिलना चाहिए, क्योंकि यह कर्म उसने अपनी इच्छा से न करके ईश्वर की इच्छा से किया है, इसलिए यह व्यक्ति दण्ड का भागी नहीं होना चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं होता अर्थात् अपराधी को दण्ड दिया जाता है, इसलिए यह कहना कि ‘‘सब काम परमात्मा की इच्छा से होते हैं’’ गलत है।

चिंत, मनन ही मन का कार्य

ओउम
चिंत, मनन ही मन का कार्य
डा. अशोक आर्य
मानव का मन ही उसके सब क्रिया कलापों का आधार है | शुद्ध व पवित्र मन से सब कार्य उतम होते हैं तथा जिसका मन अशुद्ध होता है , जिसका मन अपवित्र होता है उसके कार्य भी अशुद्ध व अपवित्र ही होते हैं | मानव का मुख्य उद्देश्य भगवद प्राप्ति है , जो शुद्ध मन से ही संभव है | सब प्रकार के ज्ञान प्राप्ति का स्रोत भी शुद्ध मन ही होता है | मानव में विवेक की जाग्रति का आधार भी मन की शुद्धता ही होती है | यह शुद्ध मन ही होता है, जिससे शुद्ध कार्य होता है तथा उसके द्वारा किये जा रहे शुद्ध कार्यों के कारण उसकी मित्र मंडली में उतामोतम लोग जुड़ते चले जाते हैं | यह सब मित्र ही उसकी ख्याति , उसकी कीर्ति, उसके यश को सर्वत्र पहुँचाने का कारण होते हैं | अथर्ववेद के प्रस्तुत मन्त्र में इस विषय पर ही चर्चा की गयी है : –
मनसा सं कल्पयति , तद देवां अपि गच्छति |
अथो ह ब्राह्माणों वशाम, उप्प्रयान्ति याचितुम ||
मन से ही मनुष्य संकल्प करता है | वह माह देवों अर्ह्थात ज्ञानेन्द्रियों तक जाता है | इसलिए विद्वान लोग बुद्धि को माँगने के लिए देवों अर्थात गुरु के पास जाते हैं |
इस मन्त्र में बताया गया है कि मन का मुख्य कार्य मनन है , चिंतन है , सोच – विचार है | जब मानव अपना कार्य पूर्ण चिंतन से ,पूर्ण मनन से , पूर्ण रूपेण सोच. विचार कर करता है तो उसे सब प्रकार की सफलताएं, सब प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है | इन सुखों को पा कर मनुष्य की प्रसन्नता में वृद्धि होती है तथा उसकी आयु भी लम्बी होती है | यह मनन व चिंतन मन का केवल कार्य ही नहीं है अपितु मन का धर्म भी है | जब हम कहते हैं कि यह तो हमारा कार्य था जो हम ने किया किन्तु कार्य में मानव कई बार उदासीन होकर उसे छोड़ भी बैठता है | इसलिए मन्त्र कहता है कि यह मन का केवल कार्य ही नहीं धर्म भी है तो यह निश्चित हो जाता है कि धर्म होने के कारण मन के लिए अपनी प्रत्येक गति विधि को आरम्भ करने से पूर्व उस पर मनन चिंतन आवश्यक भी होता है |
मनन चिंतन पूर्वक जो भी कार्य किया जाता है , उसकी सफलता में कुछ भी संदेह नहीं रह जाता | मनन चिंतन से उस कार्य में जो भी नयुन्तायें दिखाई देती हैं , उन सब का निवारण कर, उन्हें दूर कर लिया जाता है | इस प्रकार सब गतिविधियों व व्यवस्थाओं को परिमार्जित कर उन्हें शीशे की भाँती साफ़ बना कर उससे जो भी कार्य लिया जाता है , उसकी सफलता में कुछ भी संदेह शेष नहीं रह पाता | परिणाम स्वरूप प्रत्येक कार्य में सफलता निश्चित हो जाती है | अत: मन के प्रत्येक कार्य को करने से पूर्व उसके मनन व चिंतन रूपी धर्म का पालन आवश्य ही करना चाहिए अन्यथा इस की सफलता में , इस के सुचारू रूपेण पूर्ति में संदेह ही होता है |
मन के कार्यों को संचालन के लिए जब धर्म को स्वीकार कर लिया गया है तो यह भी निश्चित है कि इस के संचालन का भी तो कोई साधन होगा ही | इस विषय पर विचार करने से पता चलता है कि इसके संचालन के लिए ज्ञानेन्द्रियाँ ही प्रमुख भूमिका निभाती है | ज्ञानेन्द्रियों को मन का भोजन भी कहा जा सकता है | जब तक किसी कार्य को करने सम्बन्धी ज्ञान ही नहीं होगा तब तक उस कार्य की सम्पन्नता में, सफलता पूर्वक पूर्ति में संदेह ही बना रहेगा | जब तक मानव की क्षुधा ही शांत न होगी तब तक वह कोई भी कार्य करने को तैयार नहीं होता | अत: मन का भोजन ज्ञान है , जिसे पा कर ही वह उस कार्य को करने को अग्रसर होता है | इस लिए ज्ञानेन्द्रियों को मन का भोजन कहा है | इन ज्ञानेन्द्रियों से मन दो प्रकार का सहयोग प्राप्त करता है | प्रथम तो ज्ञानेन्द्रियों के सहयोग से मन वह सब सामग्री एकत्रित करता है , जो उस कार्य की सम्पन्नता में सहायक होती है दूसरा इस सामग्री को एकत्र करने के पश्चात प्रस्तुत सामग्री को किस प्रकार संगठित करना है , किस प्रकार जोड़ना है तथा किस प्रकार उस कार्य की सपन्नता के लिए उस सामग्री का प्रयोग करना है , यह सब कुछ भी उसे मन ही बताता है | अत: बिना सोच विचार , चिन्तन ,मन व मार्ग दर्शन के मन कुछ भी नहीं कर पाता, चाहे इस निमित उपयुक्त सामग्री उसने प्राप्त कर ली हो | अत: किसी भी कार्य को संपन्न करने के लिए साधन स्वरूप सामग्री का एकत्र करना तथा उस सामग्री को संगठित कर उस कार्य को पूर्ण करना ज्ञानेन्द्रियों का कार्य है | इस लिए ही मनको प्रत्येक कार्य का धर्म व ज्ञानेन्द्रियों को प्रत्येक कार्य को करने का साधन अथवा भोजन कहा गया है कहा गया है |
इस जगत में परमपिता परमात्मा ने अनेक प्रकार के फल ,फूल, नदियाँ नाले, जीव जंतु ,स्त्री पुरुष को बनाया है, पैदा किया है , उत्पन्न किया है | इन सब के सम्बन्ध में मन जो कुछ भी देखता व सुनता है, वह सब देखने व सुनने के पश्चात ज्ञानेन्द्रियों के पास जाता है | मन द्वारा कुछ भी निर्णय लेने के लिए जब यह सब सामग्री, सब द्रश्य बुद्धि को दे दिये जाते हैं तो बुद्धि सब को जांच , परख कर जो भी निर्णय लेती है, वह उस निर्णय से मन को अवगत करा देती है तथा आदेश भी देती है कि अब यह कार्य करणीय है | अब मन पुन: ज्ञानेन्द्रियों को अपने निर्णय से अवगत कराते हुए आदेश देता है कि प्रस्तुत कार्य की परख हो चुकी है | यह कार्य उतम है , करने योग्य है , इस को तत्काल सम्पन्नं किया जावे | इस आदेश के साथ मन ज्ञानेन्द्रियों को यह भी बताता है कि इस कार्य को किस रूप में संपन्न करना है ? इस प्रकार मन अपने प्रत्येक कार्य को संपन्न करने के लिए ज्ञानेन्द्रियों का सहयोग प्राप्त करता है तथा उनके सहयोग से ही सब कार्य संपन्न करता है | मन के संकल्प क्या हैं तथा उस कार्य के विकल्प क्या हैं यह सब ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा ही निर्धारित किये जाते हैं , प्रस्तुत किये जाते है | अत: ज्ञानेन्द्रियों के साह्योग से ही मन के सब कार्यों को व्यवस्थित कर उनकी दिशा निर्धारित की जाती है तथा इन के द्वारा ही उन्हें सम्पन्नं किया जाता है |
इस सब से जो बात स्पष्ट होती है वह यह है कि प्रत्येक कार्य को करने के लिए मन चुन कर उस पर ज्ञानेन्द्रियाँ मनन व चिन्तन कर अपने सुझावों के साथ मन को लौटा देती हैं | मन उस पर निर्णय लेकर उसे करने के अनुमोदन के साथ पुन: करने का आदेश देते हुए पुन: ज्ञानेन्द्रियों को लौटा देता है तथा ज्ञानेन्द्रियाँ उस आदेश का पालन करते हुए उस कार्य को संपन्न ती है | अत: कोई भी कार्य करने से पूर्व उस पर मनन चिन्तन सुचारू रूप से होता है तब ही वह उतम प्रकार से सफल हो पाता है |
डा. अशोक आर्य

कुरान समीक्षा : खुदा हर काफिर को ७० हाथ की जंजीर से बांधेगा

खुदा हर काफिर को ७० हाथ

की जंजीर से बांधेगा

मुल्जिम को पकड़ कर बेबस कर देने के बाद उस पर दया की जाती है पर अरबी खुदा का दोजख की भट्ठी में भूनते समय भी काफिरों को ७० हाथ लम्बी जंजीर से बांधना क्या उसकी बेहमी का सबूत नहीं है। क्या ऐसा खुदा रहीम अर्थात् रहम करने वाला कहा जा सकता है ?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

खुजूहु फगुल्लूहु………….।।

(कुरान मजीद पारा २९ सूरा हाक्का रूकू १ आयत ३०)

(खुदा कहेगा) इसकों पकड़ो और इसके गले में तोक अर्थात् हार डालो

सुम्मल्-जही-म सल्लूहु…………।।

(कुरान मजीद पारा २९ सूरा हाक्का रूकू २८ आयत ३१)

फिर इसको नरक में ढकेल दो।

सुम-म फी सिलसि लतिनर्जअुहा…………..।।

(कुरान मजीद पारा २९ सूरा हाक्का रूकू २८ आयत ३२)

और इसे सत्तर हाथ लम्बी जंजीर से जकड़ अर्थात् बाँध दो।

समीक्षा

दोजख की ऊंची लपटों वाली तेज आग में झोंक देने के बाद हर काफिर को इसनी लम्बी जंजीर से बांधना क्यों जरूरी होगा? क्या छोटी तीन गज की जंजीर एक आदमी को काफी नहीं होगी? इतनी बड़ी ढेर सारी जंजीरें खुदा किस लोहे की फैक्ट्री या कम्पनी से खरीदेगा? वह हिन्दुस्तानी होंगी या अमरीकन? उन्हें कहां से आयात किया जायेगा और क्या खुदा के पास उन्हें मंगाने के लिए एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट का कोई लाइसैन्स भी मौजूद है?

महाभारत के अतिरिक्त और ग्रन्थों में वर्णित, यह मणि क्या वस्तु है और इसकी क्या चमत्कार थे

महाभारत के अतिरिक्त और ग्रन्थों में वर्णित, यह मणि क्या वस्तु है और इसकी क्या चमत्कार थे विस्तार से बताने का कष्ट करें।

समाधान- (ख) महाभारत के अतिरिक्त मणि की चर्चा पढ़ने में नहीं आयी। हाँ, स्फटिक मणि की चर्चा दर्शन शास्त्र में आयी है, किन्तु यह कोई चमत्कारी मणि नहीं है और न ही कोई इस प्रकार की मणि होती है। मणि का अर्थ बहुमूल्य कांतियुक्त पत्थर, रत्न, जवाहिर आदि ही है। जैसे पारस पत्थर की कथा गढ़ रखी है कि पारस पत्थर लोहे को सोना बना देता है जो कि यह बात सर्वथा झूठ है। महर्षि दयानन्द इस विषय में कहते हैं- ‘‘पारसमणि पत्थर सुना जाता है यह बात तो झूठी है…..।’’ सं. प्र. 11 इसी प्रकार यह मणि वाली कथाएँ गढ़ी हुई हैं।

‘‘योगेश्वर कृष्ण पुस्तक’’ में जो एक अरब सेना वाली बात वह असमभव ही है, क्योंकि यहाँ की जनसंखया भी कुल इतनी नहीं थी। यह बात कहीं के पुराण से ली गई लगती है। पं. चमूपति जी का इस पुस्तक को लिखने का मुखय प्रयोजन अवतारवाद का खण्डन करना था। श्री कृष्ण ईश्वर के अवतार नहीं थे, अपितु वे एक योगी पुरुष, नीतिज्ञ, अत्यन्त प्रतिभा समपन्न महापुरुष थे यह सिद्ध करना पं. चमूपति का उद्देश्य था।

देवता पुरुषार्थी के सहायक

ओउम
देवता पुरुषार्थी के सहायक .. अथर्वेद २०.१८.३
डा.अशोक आर्य

विशव का प्रत्येक प्राणी आनंदमय रहना चाहता है , सुखी रहना चाहता है | प्रत्येक व्यक्ति विशव में ख्याति चाहता है | यह सब पाने के लिए अत्यधिक मेहनत कि आवश्यकता होती है , पुरुषार्थ कि आवश्यकता होती है,जिससे बच्जाने का वह प्रयास करता है |इलाता उसे ही है जो मेहनत करता है | बिना प्रयास किये कुछ किस्से मिल सकता है | इस तथ्य को अथर्ववेद में इस प्रकार बताया गया है : –

इच्छन्ति देवा: सुन्वनतम न स्वप्राया न स्प्रिहंती |
यन्ति प्रमादामातान्द्रा: || अथर्ववेद २०.१८.३ ||
देवता यज्ञकर्ता या कर्मठ को चाहते हैं , आलसी को नहीं चाहते हैं | पुरुषार्थी व्यक्ति ही श्रेष्ठ आनंद को प्राप्त करते हैं | :-
पुरुषार्थ मानव जीवन का एक आवश्यक अंग है | जो पुरुषार्थी है , उसकी सहायता परमात्मा करता है | देवता भी पुरुशारथी को ही चाहते हैं | संसार भी पुरुषार्थी को ही चाहता है | जिस पुरुषार्थी को सब चाहते हैं, वह पुरुषार्थ वास्तव में है क्या ? जब तक हम पुरुषार्थ शब्द को नहीं जान लेते तब तक इस सम्बन्ध में और कुछ नहीं कह सकते | अत: आओ पहले हम जानें की वास्तव में पुरुषार्थ से क्या अभीप्राय है :=
पुरुषार्थ से अभिप्राय से :-
पुरुषार्थ से अभिप्राय है मेहनत | जो व्यक्ति चिंतन करता है , मनन करता है, एक निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए यत्न करता है , प्रयास करता है , वह व्यक्ति पुरुषार्थी होता है | इससे स्पष्ट होता है कि मेहनत करने वाला पुरुषार्थी है | जो किसी विषय पर मनन, चिंतन कर उसे भली प्रकार समझ कर उसे पाने का यत्न करता है वह पुरुषार्थी है | अत: हम कह सकते हैं की पुरुषार्थ से भाव मेहनत करने से है, यत्न करने से है , एक निर्शारित उद्देश्य को पाने के लिए जो भी यत्न किया जाता है , उसे पुरुषार्थ कहते हैं |
पुरुषार्थ के इस इतने उच्चकोटि के भाव से पुरुषार्थ का महत्व भी स्पष्ट हो जाता है | मेहनती व्यक्ति को पुरुषार्थी कहा गया है | जो अपाने लक्ष्य को पान्ने के लिए न्हारपुर यत्न करता है , उसे पुरुषार्थी कहा गया है | उसका उद्देश्य चाहे धन प्राप्ति का हो ,छह शारीर के गठन का, शिक्षा प्राप्ति का हो चाहे प्रभु प्राप्ति का | किसी भी क्षेत्र में वह उपलब्धियां पाना चाहता हो तथा इन उपलब्धियों को पाने के लिए जब वह सच्चे मन से यत्न करता है तो उसे पुरुषार्थी कहते हैं , मेहनती कहते हैं, लहं शील कहते हैं |
इस प्रकार का मेहनती व्यक्ति जब अपनी मेहनत के फलसवरूप कुछ उ[अलाब्धियाँ पा लेता है तो उसका अपना मन तो प्रफुल्लित होता ही है साथ में उसक्द परिजनों को भी अपार ख़ुशी प्राप्त होती है | ऐसे क्यक्ति को देवता ही नहीं प्रभु भी पसंद करते हैं | जिस व्यक्ति को परमात्मा का आशीर्वाद मिला जाता है, उस कि ख्याति समग्र संसार में फ़ैल जाती है | सब और उसकी चर्चा होने लगाती है, जिस से उसका ही नहीं उसके परिवार कि यश व कीर्ति भी दूर दूर तक चली जाती है | इस प्रकार वह अपने परिवार का नाम उंचा करने का कारण बनाता है |
जो पुरुषार्थ नहीं करता. उसे निष्क्रिय कहते हैं , उसे कर्महीन कहते हैं ,उसे आलसी कहते हैं, उसे अकर्मण्य कहते हैं | जो कुछ काम ही नहीं करता, उसे उपलब्धियां कहाँ से मिलेंगी ? , उसे ख्याति कहाँ से मिलेंगी , उसे यश कहाँ से मिलेगा ? उसकी कीर्ति कैसे फ़ैल सकती है ? उसकी कहीं भी पहचान कैसे बन सकती है ? अर्थात निष्क्रिय व्यक्ति को कोई पसंद नहीं करता | न तो इस संसार में तथा न ही देवताओं में और न ही ईश्वरीय शक्तियों में उसे कोई पसंद करता है | वह पशुओं कि भाँती इस संसार में आता है , खाता है तथा कीड़े मकोड़ों कि भाँती इस संसार से चला जाता है | न तो जीवन काल में ही उसे कोई चाहने वाला होता है तथा न ही जीवन के पश्चात भी |
अत: आलसी व कर्म हिन् व्यक्ति को कहीं भी भी सन्मान नहीं मिलता | वह अपने लिए भी भार है और परिवार के लिए भी | जिसे परिजन ही पसंद नहीं करेंगे , उसे अन्य क्या चाहेंगे | इस लिए मन्त्र में कहा गया है कि देवता पुरुशरथी को ही चाहते हैं | संस्कृत के एक सुभाषित में भी इस तथ्य का ही अनुमोदन करते हुए इस प्रकार कहा है :-
” उद्यम: साहसं धैर्यं बुद्धि: शक्ति: पराक्रम: |
षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र देवा : सहायकृत ||
अर्थात उद्यम ,साहस, धैर्य , बुद्धि, शक्ति और पुरुषार्थ से गुण जहाँ रहते हैं , वहां परमात्मा भी सहायता करता है | पुरुषार्थी ही समाज और राष्ट्र का निर्माण करते हैं | वे संसार का कल्याण करते हैं और संसार उनका गुणगान करता है | पुरुषार्थ , आलस्य का त्याग तथा निरंतर अपने कर्तव्य में तत्पर रहना समृद्धि का मूल है , सफलता का रहस्य है | पुरुषार्थ और स्वावलंबन का महत्त्व बताते हुए अंग्रेजी में कहा गया है :-
” GOD HELPS THOSE WHO HELP THEMSELVES. ”
परमात्मा उनकी सहायता करता है , जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं | जो अपने सामने पड़ी थाली में परोसे भोजन को स्वयं अपने हाथ से उठा कर अपने ही मुंह में नहीं डालते तो उन्हें भोजन कारने कौन आवेगा ? उनकी तृप्ति कैसे हो सकती है ? अत: प्रभु का आशीर्वाद पाने के लिए हमें अपनी सहायता स्वयं करनी होगी | स्पष्ट है कि यहाँ भी पुरुषार्थ करने कि ही प्रेरणा कि गयी है |
मन्त्र के आरम्भ में ही इस सत्य को कहा गया है कि देवता पुरुषार्थी को ही चाहते हैं, मेहनत करने वालों को ही चाहते हैं, जिनका जीवन यज्ञमय होता है, उसे ही चाहते हैं अकर्मण्य अथवा आलसी को नहीं | अत: हे मानव ! यदि तुन देवताओं को प्रसन्न रखते हुए प्रभु का आशीर्वाद लेना चाहता हे , धनधान्य का स्वामी बन यश व कीर्ति को पाना चाहता है तो पुरुशारती बन |

डा.अशोक आर्य

कुरान समीक्षा: खुदा ने अरबी जाहिलों को पैदा करके अपनी अकलमन्दी का सबूत दिया है या जहालत का?

खुदा ने अरबी जाहिलों को पैदा करके अपनी अकलमन्दी का सबूत दिया है या जहालत का? जब स्वयं जाहिल पैदा किये तो उन्हें गाली क्यों दी?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

फ इन हाज्जू-क फ-कुल् अस्लम्तु………।।

(कुरान मजीद पारा ३ सूरा आले इम्रान स्कू २ आयत २०)

(ऐ पैगम्बर) किताब वाले और (अरब) के जाहिलों से कहों कि तुम भी इस्लाम को मानते हो या नहीं?

समीक्षा

इसमें अरबी खुदा ने अरब वालों को डंके की चोट पर ‘‘जाहिल’’घोषित कर दिया है। जाहिलों को जैसे उपदेश दिये जाते हैं, वैसे ही कुरान में उनको दिये गये हैं। हूरें, गिलमें-शराबें आदि के लालच से ही जाहिल लोग इस्लाम में फाँसे जा सकते थे और वही हथकण्डे कुरान में उपनाये गये हैं। पर एक बात विचारणीय यह भी है कि खुदा ने बिना वजह लोगों को जाहिल पैदा करके अपनी भलमनसाहत का सबूत दिया है या जहालत का? यह सोचने की बात है क्या गालियां देने से खुदा की शराफत जाहिर होती है?

द्रौपदी किस पाण्डव की पत्नी थी और उसके पाँच पुत्र किसी एक के थे या उसके अतिरिक्त?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा मान्यवर,

कृपया महाभारत में वर्णित नीचे लिखी शंकाओं का समाधान परोपकारी द्वारा प्रदान करवायें-

द्रौपदी किस पाण्डव की पत्नी थी और उसके पाँच पुत्र किसी एक के थे या उसके अतिरिक्त?

समाधान– (क) भारतीय इतिहास को विदेशी वा अपने ही स्वार्थी देशी लोगों ने बहुत कुछ बिगाड़ा है। वर्तमान की संतति अपने इतिहास से प्रेरणा लिया करती है, अपने इतिहास पुरुषों को अपना आदर्श माना करती है। उनके आदर्शों को अपने जीवन में धारण कर उन इतिहास पुरुषों की भाँति अपने जीवन को सफल बना लेती है। किसी भी देश का इतिहास उस देश की अमूल्य धरोहर के रूप में उस देश की संस्कृति होती है। हमारे देश का इतिहास समपूर्ण विश्व में सर्वाधिक गौरवशाली रहा है। हमारे इस गौरव को सहन न करने के कारण विदेशी लोगों ने विशेषकर अंग्रेजों ने हम भारतीयों को नीचा दिखाने के लिए और अपनी प्रभुसत्ता बनाए रखने के लिए हमारे इतिहास को विकृत कर दिया। इसी विकृत इतिहास का पोषण अंग्रेजों से प्रभावित जवाहरलाल नेहरू जैसे लोगों ने किया, जो कि हमारी वर्तमान पीढ़ी के लिए घृणा व हास्य का विषय बन गया।

इतिहास प्रदूषण का कार्य केवल अंग्रेज वा अंग्रेज भक्तों ने ही नहीं किया, अपितु स्वार्थी विषय लोलुप, धनलोलुप तथा-कथित विप्रवर्ग ने भी किया। आज हम किसी भी प्राचीन शास्त्र को उठाकर देखते हैं तो कहीं न कहीं उन शास्त्रों में वेदविरुद्ध बातों का प्रक्षेप मिल ही जाता है। आज ‘मनुस्मृति’ जैसे मानव संविधान के ऊपर एक वर्ग विशेष अपना रोष प्रकट क्यों कर रहा है, क्योंकि इस ग्रन्थ में स्वार्थी पोपों ने मिलावट कर रखी है। उस मिलावट के कारण वह वर्ग विशेष मनु को अपना विरोधी मानता है। यथार्थता तो यह है कि यदि यह वर्ग विशेष पक्षपात रहित होकर इस ग्रन्थ को पढ़े तो उनको यह ग्रन्थ व्यक्तिगत व सामाजिक व्यवस्था और उन्नति का सर्वोत्तम ग्रन्थ दिखेगा।

सबसे अधिक प्रदूषण (मिलावट) महाभारत में हुआ लगता है। उस विषय में महर्षि दयानन्द ने लिखा-‘‘यह बात राजा भोज के बनाये संजीवनी नामक इतिहास में लिखी है………. उसमें स्पष्ट लिखा है कि व्यासजी ने चार सहस्र चार सौ, और उनके शिष्यों ने पाँच सहस्र छः सौ श्लोकयुक्त अर्थात् मात्र दस सहस्र श्लोकों के प्रमाण का ‘भारत’ बनाया था। वह महाराजा विक्रमादित्य के समय में बीस सहस्र, महाराजा भोज कहते हैं कि मेरे पिताजी के समय में पच्चीस और अब मेरी आधी उमर में तीस सहस्र श्लोकयुक्त ‘महाभारत’ की पुस्तक मिलती है। जो ऐसे ही बढ़ता चला गया तो ‘महाभारत’ की पुस्तक एक ऊँट का बोझा हो जायेगा।’’ सं. प्र. 11

वर्तमान में महाभारत लगभग एक लाख श्लोक युक्त मिलता है अर्थात् लगभग नव्वे हजार श्लोकों की मिलावट। इतनी मिलावट होने पर वास्तविक तथ्यों को निकालना कठिन हो जाता है। आपने जो द्रौपदी के विषय में पूछा है हम यहाँ महाभारत के ही साक्ष्य देते हुए लिख रहे हैं कि द्रौपदी पाँच पतियों वाली नहीं थी, द्रौपदी एक पति की पत्नी थी। महाभारत के आदि पर्व के 32 वें अध्याय में लिखा है-

तमब्रवीत् ततो राजा धर्मात्मा च युधिष्ठिर।

ममापि दारसबन्धः कार्यस्तावद् विशापते।।

– 1.32.49

तब धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर ने उनसे कहा- राजन्! विवाह तो मेरा भी करना होगा।

भवान् वा विधिवत् पाणिं गृह्णातु दुहितुर्मम।

यस्य वा मन्यसे वार तस्य कृष्णामुपादिश।।

– 1.32.50

अर्थात् द्रुपद बोले- हे वीर! तब आप ही विधि पूर्वक मेरी पुत्री का पाणिग्रहण करें अथवा आप अपने भाइयों में से जिसके साथ चाहे, उसी के साथ कृष्णा को विवाह की आज्ञा दे दें।

ततः समाधाय स वेदपारगो जुहाव मन्त्रैर्ज्वलितं हुताशनम्।

युधिष्ठिरं चाप्युषनीय मन्त्रविद्नियोजयामास सहैव कृष्णया।।

– 1.32.51

वैशपायनजी कहते हैं- द्रुपद के ऐसा कहने पर वेद के पारंगत विद्वान् मन्त्रज्ञ पुरोहित धौय ने वेदी पर प्रज्वलित अग्नि की स्थापना करके उसमें मन्त्रों द्वारा आहुति दी और युधिष्ठिर को बुलाकर कृष्णा के साथ उनका गठबन्धन कर दिया।

प्रदक्षिणं तौ प्रगृहीतपाणिकौ समातयामास स वेदपारगः।

ततोऽयनुज्ञाय तमाजिशोभिनं पुरोहितो राजगृहाद् विनिर्ययौ।।

– 1.32.52

वेदों के पारंगत विद्वान् पुरोहित ने उन दोनों का पाणिग्रहण कराकर उनसे अग्नि की प्रदक्षिणा करवाई, फिर (अन्य शास्त्रोक्त विधियों का अनुष्ठान कराके) उनका विवाह कार्य सपन्न कर दिया। तत्पश्चात् संग्राम में शोभा पाने वाले युधिष्ठिर को अवकाश देकर पुरोहित जी भी उस राजभवन से बाहर चले गये।

महाभारत के इस पूरे प्रकरण से ज्ञात हो रहा है कि द्रौपदी का पाणिग्रहण अर्थात् विवाह संस्कार केवल युधिष्ठिर के साथ हुआ था। अर्थात् द्रौपदी का पति युधिष्ठिर ही थे न कि पाँचों पाँडव।

स्वामी जगदीश्वरानन्द जी ने आदि पर्व के इक्कतीसवें अध्याय के श्लोक 34-35 के अर्थ करने पर टिप्पणी की है- ‘‘जो लोग द्रौपदी के पाँच पति मानते हैं वे इस स्थल को ध्यानपूर्वक पढ़ें। यहाँ माता चिन्तित हो रही है कि मेरे पुत्र अभी तक क्यों नहीं लौटे? उन्हें पहचान तो नहीं लिया गया है?’’

इसके अतिरिक्त एकचक्रा नगरी में ब्राह्मण से द्रौपदी के स्वयंवर की बात सुनकर जब पाँचों पाण्डव उद्विग्न से हो गये थे, तब माता ने स्वयं ही वहाँ जाने का प्रस्ताव रखा था। मार्ग में व्यास जी ने भी पांचाल नगर में जाने की सममति दी थी। स्वयं माता को यह पता है कि मेरे पुत्र स्वयंवर में गये हैं। स्वयंवर की शर्त पूर्ण होते ही युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव माता को सूचना देने के लिए तुरन्त घर आ गये हैं। (यह बात महा. 1.30.36 में स्पष्ट कही गई है) भीम और अर्जुन द्रौपदी को लेकर अनेक ब्राह्मणों के साथ घर पर आये हैं। इन सब प्रसङ्गों के ध्यानपूर्वक अवलोकन से यह स्पष्ट है कि न तो पाण्डवों ने यह कहा था कि हम भिक्षा लाये हैं और न कु न्ती ने यहा कहा कि पाँचों बाँट लो। द्रौपदी को पाँचों की पत्नी बनाने वाला सारा प्रकरण महाभारत में पीछे से मिलाया गया है । द्रौपदी पाँचों पाण्डवों की पत्नी नहीं थी। यद्यपि स्वयंवर की शर्त अर्जुन ने पूर्ण की थी, परन्तु द्रौपदी का विवाह युधिष्ठिर के साथ हुआ था। वह युधिष्ठिर और केवल युधिष्ठिर की पत्नी थी।’’

इस सब मिलावट से प्रतीत हो रहा है कि जो कौम अपने महापुरुषों को लांछित करने में लगी हो, वह कैसे बच पायेगी? श्री कृष्ण, महादेव, विष्णु आदि के चरित्र को कितना गिरा हुआ पुराण आदि ग्रन्थों में दिखाया गया है। ये सब महापुरुष उत्तम चरित्र वाले थे, किन्तु इन उत्तम चरित्र वाले महान् पुरुषों को भी बदनाम करने में कल्पित कथाकारों ने कमी नहीं छोड़ी। ऐसे माता द्रौपदी को भी पाँच पतियों वाली कहकर बदनाम ही किया है।

यह इतना सारा लिखने का प्रयोजन यही है कि हम अपने शास्त्रों, इतिहास ग्रन्थों से मिलावट को दूर कर दें और अपने महापुरुषों पर लगाये हुए लांछनों को हटा दें तो कोई भी विधर्मी अपनी धर्म पर गर्वोक्ति नहीं कर सकता है और न ही इस हिन्दू कौम को नीचा दिखा सकता।

आपने जो द्रौपदी के पाँच पुत्रों के विषय में पूछा है कि वे किसके थे? इसका स्पष्ट वर्णन तो हमें महाभारत में प्राप्त नहीं हुआ मिलावट युक्त में तो अवश्य पाँचों पुत्रों को एक-एक पाण्डव का कहा है, किन्तु युक्ति से तो यही स्पष्ट हो रहा है वे पुत्र युधिष्ठिर के ही होंगे, क्योंकि द्रौपदी युधिष्ठिर की ही पत्नी थी।