भगवान मनु ओर दलित समाज

मित्रो ओम |
मै जो लेख लिख रहा हु उससे सम्बंधित अनेक लेख आर्य विद्वान अपने ब्लोगों पर डाल चुके है| कई तरह की पुस्तके भी लिखी जा सकती है | जिसमे सबसे महत्वपूर्ण योगदान सुरेन्द्र कुमार जी का है| जिन्होंने मह्रिषी मनु के कथन को स्पष्ट करने का ओर मनु स्म्रति को शुद्ध करने का प्रसंसिय कार्य किया है| इस सम्बन्ध में आपने जितने भी लेख जैसे मनु और शुद्र,मनु और महिलायें आदि विभिन्न blogger द्वारा लिखे पढ़े होंगे |वे सब इन्ही की किताबो ओर शोधो से लिए गये है |हमारा भी ये लेख इन्ही की किताब से प्रेरित है|
मह्रिषी मनु को कई प्राचीन विद्वान ओर ब्राह्मणकार कहते है की मनु के उपदेश औषधि के सामान है लेकिन आज का दलित समाज ही मनु का कट्टरता से विरोध करता है | ओर बुद्ध मत को श्रेष्ट बताते हुए मनु को गालिया देता है ओर उनकी मनुस्म्र्ती को भी जलाते है | इसके निम्न कारण है :-
(१) मनु द्वारा वर्णव्यवस्था को बताना ..
(२) मनु पर जाति व्यवस्था को बनाने का आरोप
(३) मनु द्वारा स्त्री के शोषण का आरोप .
उपरोक्त आरोपों पर विचार करने से पहले हम बतायेंगे की मनु को हिन्दू विद्वानों ने ही नही बल्कि बुद्ध विद्वानों ने भी माना है | बौद्ध महाकवि अश्वघोस जो की कनिष्क के काल में था अपने ग्रन्थ वज्रकोपनिषद में मनु के कथन ही उद्दृत करता है| इसी तरह बुद्ध ने भी धम्म पद में मनु के कथन ज्यो के त्यों लिखे है..इनमे बस भाषा का भेद है मनुस्म्र्ती संस्कृत में है ओर धम्मपद पाली में ..देखिये मनुस्म्रती के श्लोक्स धम्मपद में :

अभिवादन शीलस्य नित्यं वृध्दोपसेविन:|

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्||मनुस्मृति अध्याय२ श्लोक १२१||
अभिवादन सीलस्य निञ्च वुड्दा पचभिनम्|
खतारी धम्मावड््गत्ति आनुपवणपीसुलम्||धम्मपद अध्याय ८:१०९||
न तेन वृध्दो भवति,येनास्य पलितं शिर: |
यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवा स्थविंर विदु:||मनुस्मृति अध्याय२:१५६||
न तेन चेरो सीहोती चेत्तस्य पालितं सिरो|
परिपक्को वचो तस्यं पम्मिजितीति बुध्दवति||धम्मपद ९:१२०||

iइन निम्न श्लोको को आप देख सकते है ,और धम्मपद के भी निम्न वाक्य देख सकते है जो काफी समानता दर्शाते है ..इससे पता चलता है की बुद्ध ओर अन्य बौद्ध विद्वान मनुस्म्रती से प्रभावित थे|
मनु द्वारा धर्म के १० लक्षणों में से एक अंहिसा को जैन ओर बुद्धो ने अपने मत का आधार बनाया था ..
अब मनु पर लगाये आरोपों की  संछेप में यहाँ विवेचना करते है :-
(१) मनु द्वारा वर्णव्यवस्था चलाना :
मह्रिषी मनु वर्णव्यवस्था के समर्थक थे लेकिन वे जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था के नहीं बल्कि कर्म आधरित वर्ण व्यवस्था के समर्थक थे जो की मनुस्म्र्ती के निम्न श्लोक्स से पता चलता है :-
शूद्रो ब्राह्मणात् एति,ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्|

क्षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च||
(मनुस्मृति १०:६५)
गुण,कर्म योग्यता के आधार पर ब्राह्मण,शूद्र,बन जाता है| ओर शूद्र ब्राह्मण|
इसी प्रकार क्षत्रिए ओर वैश्यो मे भी वर्ण परिवरितन समझने चाहिअ|

ओर महात्मा बुद्ध भी कर्माधारित वर्ण व्यवस्था को समर्थन करते थे ..वर्ण व्यवस्था का विरोध उन्होंने भी नही किया था|इस बारे में अलग से ब्लॉग पर एक नया लेख आगे लिखा जायेगा |
(२) मनु पर जातिवाद लाने का आरोप :-
ये सत्य है की मनु ने जाति शब्द का प्रयोग किया लेकिन ये इन लोगो का गलत आरोप है की मनु ने जाति व्यवस्था की नीव डाली ..मनु ने जाति शब्द का अर्थ जन्म के लिए किया है न की ठाकुर ,ब्राह्मण ,भंगी आदि जाति के लिए ..देखिये मनुस्म्रती से :-
 जाति अन्धवधिरौ(१:२०१)=जन्म से अंधे बहरे|

जाति स्मरति पौर्विकीम्(४:१४८)=पूर्व जन्म को स्मरण करता है|
द्विजाति:(१०.४)=द्विज ,क्युकि उसका दूसरा जन्म होता है|
एक जाति:(१०.४) शुद्र क्युकि विद्याधरित दूसरा जन्म नही होता है|

अत स्पष्ट है मनु जातिवाद के जनक नही थे …
(३) मनु पर नारी विरोधी का आरोप :-
मनुस्मृति में निम्न श्लोक आता है :-
पुत्रेण दुहिता समा(मनु•९.१३०)
पुत्र पुत्री समान है|वह आत्मारूप है,अत: पैतृक संपति की अधिकारणी है|
इससे पता चलता है कि मह्रिषी मनु पुत्र ओर पुत्री को समान मानते है |
मनु के कथन को निरुक्त कार यास्क मुनि उदृत कर कहते है :-
अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मत:|
मिथुनानां विसर्गादौ मनु: स्वायम्भुवोsब्रवीत्(निरूक्त३:१.४)
सृष्टि के आरंभ मे स्वायम्भुव मनु का यह विधान है कि दायभाग = पैतृक भाग मे पुत्र पुत्री का समान अधिकार है|
अत स्पष्ट है कि मनु पुत्री को पेतर्क सम्पति में पुत्र के सामान अधिकार देने का समर्थन करते थे ..
मनु से भारत ही नही विदेश में भी कई प्रभावित थे चम्पा दीप (दक्षिण वियतनाम ) के एक शीला लेख में निम्न मनु स्मरति का श्लोक मिला है :-
वित्तं बन्धुर्वय: कर्म विद्या भवति पञ्चमी|
एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद्यत्तरम्||[२/१३६|
इसी तरह वर्मा,कम्बोडिया ,फिलिपीन दीप आदि जगह मनु और उनकी स्मृति की प्रतिष्टा देखी जा सकती है|
लेकिन भारत में ही एक वर्ग विशेष उनका विरोधी है जिसका कारण है मनुस्म्रती में प्रक्षेप अर्थात कुछ लोभी लोगो द्वारा अपने स्वार्थ वश जोड़े गये श्लोक जिनके आधार पर अपने वर्ग को लाभ पंहुचाया जा सके ओर दुसरे वर्ग का शोषण कर सके ..
मनुस्मर्ती में कैसे और कोन कोनसे प्रक्षेप है इसे जानने के लिए निम्न लिंक पर जा कर विशुद्ध मनुस्मर्ती डाउनलोड कर पढ़े :
वही इस चीज़ को अपने वोट बैंक के लिए कुछ दलित नेता भी बढ़ावा देते है ताकि ब्राह्मण विरोध को आधार बना कर अपना वोट पक्का कर सके इसके लिए वै आर्ष ग्रंथो को भी निशाना बनाते है | एक दलित साहित्यकार स्वप्निल कुमार जी अपनी एक पुस्तक में लिखते है की मनु शोषितों ओर किसानो का नेता था|(भारत के मूल निवाशी और आर्य आक्रमण पेज न ६१) इनके इस कथन पर हसी आती है कि कभी मनु को मुल्निवाशी नेता तो कभी विदेशी आर्य ये लोग अपनी सुविधा अनुसार बनाते रहते है |
मनुस्म्रति से सम्बंदित इसी तरह के आरोपों के निराकरण के लिए निम्न पुस्तक मनु का विरोध क्यूँ अवश्य पढ़े जो की इसी ब्लॉग के ऊपर होम के पास दिए गये लिंक में है …
अंत में यही कहना चाहूँगा की प्रक्षेपो के आधार पर मनु को गाली न देवे इसमें महाराज मनु का कोई दोष नही है ..सबसे अच्छा होगा की मनुस्मर्ती से प्रक्षेप को हटा मूल मनु स्मृति का अनुशरण किया जाये जैसे की सुरेन्द्र कुमार जी की विशुद्ध मनुस्मृति ….
संधर्भित पुस्तके एवम ग्रन्थ :-(१) मनु का विरोध क्यूँ ?- सुरेन्द्र कुमार 
(२) विशुद्ध मनुस्मृति -डा सुरेन्द्र कुमार 
(३) निरुक्त -यास्क मुनि 
(४) वृहत भारत का इतिहास भाग ३-आचार्य रामदेव 
                                              (५) बोलो किधर जाओगे -आचार्य अग्निव्रत नेष्ठिक जी  

Defiant bikers as horse riders of jihadi Islam

united muslim

Written by Ram Kumar Ohri, IPS, (Retd.)

Jihadi Islam is in fast forward mode. Not only in India, but across the globe. The soldiers of Islam are waging a jihad against the so-called ‘kaffirs’ (read the non-Muslim) from America to the Phillipines via Europe, Middle East and Indian sub-continent. The fast-forward epidemic of rowdy bike-riders have managed to hold the citizens of Delhi for ransom during the last two successive years. There is a method in their madness. They are conveying a warning to the Indian masses (read Hindus) of the coming clash of civilizations.

In June 2013 the denizens of Delhi, especially the motorists and pedestrians on Delhi roads had to wade through a harrowing experience of lawlessness throughout the night of the Muslim festival of Shab-e-Barat . Th unsuspecting motorists and commuters were caught in a frightful melee caused by thousands of skullcap wearing jihadi motorcyclists. Many of them were gesticulating at motorists, especially to frighten the lone women car drivers, while performing stunts on the roads of New Delhi. Their shameful antics and rowdy behaviour was roundly criticized by the media which faulted the police for the monumental breakdown of public order on the fateful night.

This year, too, on June 13, 2014, which was the night of Shab-e-Barat many teams of skullcap-wearing bikers tried to stage a repeat performance of lawlessness and disorder unleashed last year. In a desparate bid to dissuade the defiant jihadi bikers from creating mayhem across the city on the night of Shab-e-Barat, the Delhi Police went out of their way to seek help of several so-called ‘moderate’ Muslim leaders, including 21 Imams of various mosques. But their endeavour ended as an exercise in futility

Interestingly despite the assurances given by the Imams and leaders of the Muslim community this year, too, the jihadi bikers chose to defy the law and the police. Caring two hoots for the warnings given by the Delhi Police Commisioner and unprecedented extensive deployment of police force at nearly 180 strategic points several determined groups of biker warriors of Islam came out in large numbers in a bid to create chaos in the central and south-east Delhi. They tried to create an atmosphere of lawlessnes in certain Muslim-dominated areas of East Delhi like Seelampur and Usmanpur. They succeeded in disrupting the orderly movement of traffic on a number of roads during the late hours of night and early morning hours. The police measures failed to stem the onslaught of rowdy bikers and there were multiple traffic snarls due to erection of multiplebarricades on major roads

muslim-bikers-indianewsMercifully the police were able to prevent the jihadi bikers from going berserk. They challaned nearly 15 00 to 2,000 defiant bikers and impounded more than 300 motor cycles. Even then after idnight many bikers tried to confront the policemen by throwing stones at them. Many roguish bikers could not be caught and challaned on the spot despite best efforts of the police personnel detailed to arrest them.

There have been sporadic reports of skull-caps bearing bikers trying to create similar lawlessness in some other cities and towns of the country. Unfortunately the intelligence agencies and police officers have failed to read the tea leaves of the fast approaching ‘faultline conflicts’ forecast by Samuel Huntington in a seminal essay in 1993 which was subsequently elaborated in his famous tome on the clash of civilisations.

Our intelligence agencies have refused to learn any lessons from the havoc played by jihadi bikers in several parts of the world. Well known proactive members of Islamic outfits in several countries have been organizing Muslim bikers gangs. Some of them operating in Sydney and other twons of Australia call themselves as ‘MBM’ or Muslim Brotherhood Movement. Apparently the bikers claim to represent the ideals and goals of the notorious Muslim Brotherhood of Egypt. There is another gang of Muslim bikers, known as ‘Soldiers of Islam’, or “Sons of Islam” who have been operating with impunity in Australia’s Gold Coast, nearabout Mermaid Beach.

Similarly in the United Kingdom there is a bikers gang organized by Jamal Richards who had also founded an outfit called ‘Concerned Muslim Citizens’. Jamal is also the organizer and leading light of a devout Muslim bikers gang called ‘Deen Riders’ which was established 5 years ago in the year 2009. The Deen Riders ultimately plan to ride on motor bikes to Hajj in Saudi Arabia. According to Jamal Richards his group of the faithful proposes to call the bike journey to Hajj as “Enduring Hardship for Allah’s Pleasure”. He claims that people love to see the shining bikes of Muslims.

The Muslim bikers phenomenon has now surfaced in the USA. One such organization is known as United Muslim Bikers (or UMMA M.C.).They have branches and chapters of bikers in California, Oakland, Las Vegas,Atlanta and East Coast, etc. A number of hard-nosed Islamic preachers like Hasan of Oakland, Naim of Las Vegas and Dawud of Los Angeles are associated with the bikers movement across America The United Muslim Bikers also try to impress on their members that Prophet Muhammad was an excellent horse rider of his times. In Today’s world motorbike is a substitute for horse. The UMMA Club is meant for the Muslims who love to ride motor cycles.

The Muslim bikers of the USA had also tried to organize a ‘Million Muslim March’ on 12th anniversary of 9/11 jihadi attack. The American Muslims Political Action Committee was behind the proposed Million Muslim Rally and its avowed objective was to counter the unfair fear of Muslims caused by 9/11 terrorist attacks. But their attempt to cow down the Chritians was thwarted by a determined nationalist group who threatened to organise a two million bikers march against ‘Fear’ caused by Islamists. Though falling short of the 2 million mark, several thousand Christian bikers road into Washington D.C. on September 11. After thwarting the Million Muslim March, the national coordinator of the Christian bikers march Belinda Bee, announced that they plan to be present on 9/11 every year.

Interestingly the Muslim bikers also promised to return for a bigger show next year on anniversary 9/11. So a race for supremacy appears to have been joined by the bikers of the two communities, namely the Muslims and the Christians

It is time that the Indian police officers and intelligence agencies woke up to the reality of the bikers menace seen in Delhi for two successive years and tried to learn lessons from the growth of Muslim bikers gangs in several countries. Equally important it is for the Hindu leaders to awaken the masses of the danger posed by jihadi bikers. As explained by the United Muslim Umma of Motorcyclists, they are going to use motor-cycles as the 21st century horses of jihadi Islam.

In Delhi the gangs of Muslim bikers try to gather in the infamous ‘No Go’ areas where entry of police is invariably resisted by aggressive rowdies. During the UPA regime the number of ‘No Go’ areas in Delhi and several Indian cities has grown manifold, especially after the Intelligence Bureau, NIA and CBI shifted their focus from Indian Mujahideen and SIMI to the so-called threat of ‘saffron terrorism’ as exemplified by Rahul Gandhi in December, 2010, during a meeting with the US Ambassador,Timothy Roemer. More importantly this allegation was repetitively emphasized by Digvijay Singh, a heavy-weight political guru of Rahul Gandhi and the former Home Minister, Sushil Kumar Shinde.

The truth, however, is altogether different. India’s intelligence agencies like the Intelligence Bureau and the Research & Analysis Wing of the Cabinet Secretariat, including the top political echelons of the Indian government are fully aware that the Inter Services Intelligence of Pakistan has a long term plan to overrun India, i.e., Bharat, annihilate its Hindu population and establish a powerful caliphate in this part of the world.. Their ultimate goal is to convert the entire sub-continent into Dar-ul-Islam. For achieving their sinister objective the ISI has managed to plant thousands of fifth columnists and fellow-travellers of militant Islam across the country.

According to a news published in an obscure corner of Times of India, New Delhi on June 20, 2014, a Hindu activisit, S. Suresh Kumar who was President of Hindu Munnani’s Tiruvallur unit was killed by four assassins who came on motor-cycles on the noight of June 18. The police authorities suspect them be members of extremist outfits. The murder led to outbreak of violence next day during which 17 buses of State Transport and shops were damaged.1 [Source: Times of India, New Delhi, p.4, a news item titled ‘Munnani Neta’s murder sparks violence in TN’]

The notorious terrorist of Indian Mujahideen Yasin Bhatkal was arrested on Indo-Nepal border near Dharbhanga. His interrogation by the NIA revealed that Yasin had planned to carry out multiple jihadi attack across the country with help of his close associate, Waqas, who was an expert bomb maker and an active participant in the notorious Hyderabad blasts. Among other things it was admitted by Danish Mohammed Ansari, another member of the I.M., in a statement got recorded by the NIA under section 164 Cr. P.C. before a Magistrate that in 2010 Yasin Bhatkal had confided in him that the I.M. had already enlisted nearly 33,000 volunteers for carrying out subversive activities and terror attacks in India. The point to note is that a statement recorded under Section 164 Criminal Procedure Code is admissible as evidence during trial. Unfortunately thereafter the trail went cold.

Interestingly neither the NIA nor the Intelligence Bureau were able to make any break through for identifying and arresting thousands of fifth columnists and militant volunteers who had joined the Indian Mujahideen.

The threat posed by the skullcap-wearing rowdy bikers of Delhi and other cities and States needs urgent attention of the intelligence agencies and security experts. The gangs of bikers have become a major threat to the maintenance of law and order. It is time to remember that today India is under siege of thousands of fifth columnists. Could it be that the rowdy bikers operating in Delhi and many other cities and States part of the 33,000 members enlisted by Yasin Bhatkal and his associates for subverting the Indian nation?

In any case, the time for stringent action against the growing menace of skull-capped militant bikers has arrived.

link : http://www.indiatomorrow.co/index.php/nation/1225-defiant-bikers-as-horse-riders-of-jihadi-islam

वर्ण व्यवस्था

varn

 

वर्ण व्यवस्था क्या है ? किन पर्  लागू होती है ?  आज के  परिपेक्ष्य मैं  इस्का क्या लाभ है?

समाज मैं सब व्यक्ति सब कार्य समान कुशल्ता से नहीं कर सक्ते हैं .इस्लिये योग्यता के अनुसार व्यवस्था चलाने के लिये भिन्नभिन्न वर्ण के लोग
वर्ण व्यवस्था केवल ग्रहस्थ  पर  लागू होती है . ब्रह्म्चारि वंप्रस्थ और सन्यासि वर्ण से बाहर है.

ग्रहस्थी में एक वर्ण  की लड़्की को   अपने वर्ण में स्वयम्वर विवाह  का आदेश्  है .

सम्पत्ति ग्रहस्थ  के पास रहेगी. अन्य वर्ण ग्रहस्थ  पर आश्रित हैं .

हर वर्ण की एक  श्रेणी होती है. उस श्रेणी की व्यवस्था  वे लोग स्वयम  देख्ते  हैं .

राजा उस में हस्तक्षेप नहीं करता .

आज कल सरकार अंग्रेज़ोन कि तरह सभी श्रेणियोन का काम   सम्भाल  रहीहै इस्लिये अव्यवस्था होरही है.

कपड़ा कैसे बुना जाए ;ये फैस्ला IAS  [अंग्रेज़ सर्कार का कलक्टर ] लेगा तो अव्यवस्था तो होगी ही.

राष्ट्र को बुनकर समाज कप्ड़ा देगा. खद्दी से दे  या  मिल से दे .ये उनका कर्तव्य है . सरकार को उस्से क्या प्रयोजन? guild socialism

कित्ना कप्ड़ा आयात होगा ये  भी बुंकर समाज  तय करे .

ऐसा ही अन्य वर्णों में सम्झो .

सरकार को विदेश नीति , रक्षा ,  दंड   एवम  वित्त विभाग ही  देखने चहिये .

भगवान आर्यों को पहली लगन लगा दे | रचयिता पं.स्त्यपाल पथिक

 

 

 

 

Lekhram

भगवान आर्यों को पहली लगन लगा दे |

वैदिक धर्म की खातिर मिटना इन्हें सिखा दे ||

फिर राम कृष्ण निकलें घर-घर गली-गली से |

अर्जुन व कर्ण जैसे योद्धा रणस्थली से ||

भीष्म से ब्रह्मचारी और भीम महाबली से |

गौतम कणाद जैमिनी ऋषिवर पतंजलि से ||

फिर से कोई दयानंद जैसा ऋषि दिखा दे |

भगवान आर्यों को पहली लगन लगा दे ||

ऐसे हों लाल पैदा खेलें जो गोलियों से |

भूमि को तृप्त करदें श्रद्धा की झोलियों से ||

गूंजे यह देश मेरा शेरो की बोलियों से |

बिस्मिल गुरु भगत सिंह वीरों की टोलियों से ||

इन को वतन की खातिर फांसी पे भी हँसा दे |

भगवान आर्यों को पहली लगन लगा दे ||

कोई लेखराम जैसा गुरुदत्त सा आज होवे |

कोई श्रद्धानन्द होवे कोई हंसराज होवे ||

बढती बीमारियों का फिर से इलाज होवे |

नेतृत्व जिनका पाकर उन्नत समाज होवे ||

बेधड़क लाजपत सा फिर से पथिक बना दे |

भगवान आर्यों को पहली लगन लगा दे ||

वैदिक धर्म की खातिर मिटना इन्हें सिखा दे ||

भगवान आर्यों को पहली लगन लगा दे |

.2:0.0.0.0.0″>Namste Dr. Sa

विष ही महर्षि की मृत्यु का कारण डा. अशोक आर्य

rishi

 

 

महर्षि दयानंद सरस्वती जी के देहावसान का कारण जहाँ जोधपुर राज्य सहित अनेक कुचक्र गामी रहे, वहां दूध में विष भी उनके बलिदान का मुख्य कारण रहा | जब से महर्षि का देहावसान हुआ है , तब से ही जोधपुर के राज परिवार का यह प्रयत्न रहा है कि किसी प्रकार से जोधपुर राजघराने से एक ऋषि की हत्या का दोष हटाया जा सके | इस कड़ी में अनेक प्रयास हमारे सामने आते है जो उस राज परिवार के द्वारा हुए हैं तथा हो रहे हैं | इन पंक्तियों में मैं उन प्रयासों का तो वर्णन नहीं करने जा रहा किन्तु इस प्रयास के किसी न किसी रूप में जो आर्य ही सहभागी बनते हुए दिखाई देते हैं , समय समय पर ऐसे आर्यों की कलम से आर्यों के ही विरोध में किये जा रहे कुप्रयास को दूर करने का यतन आर्य समाज के महान लेखकों ने किया है , इन पंक्तियों में मैं भी कुछ एसा ही प्रयत्न करने का साहस कर रहा हूँ |
लगभग चालीस वर्ष पूर्व एसा ही एक प्रयास श्री लक्ष्मीदत दीक्षित जी ने किया था, जिसका मुंह तोड़ उत्तर अबोहर से प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने अनेक लेखों के माध्यम से देते हुए यह सप्रमाण सिद्ध किया था कि महर्षि के देहांत का कारण विष ही था | इस अवसर पर उन्हों ने एक पुस्तक भी तैयार की थी महर्षि का विषपान अमर बलिदान | यह पुस्तक आर्य युवक समाज अबोहर ने प्रकाशित की थी | इस का प्रकाशन उस समय हुआ था , जब मैं आर्य युवक समाज अबोहर के प्रकाशन विभाग का मंत्री होता था अर्थात इस पुस्तक का प्रकाशन मैंने ही किया था | इस पुस्तक में स्वामी जी के देहावसान का करण विषपान सटीक रूप से सिद्ध किया गया था तथा इससे पंडित लक्ष्मी दत दीक्षित जी की बोलती ही बंद हो गई थी | वह इस आधार पर जो पुस्तक लिखने जा रहे थे , उसे लिखने का विचार ही उनहोंने त्याग दिया | हमारे विचार में इतने सटीक प्रमाण आने के बाद आर्य समाज में यह विवाद खड़ा करने का प्रयास बंद हो जाना चाहिए था किन्तु आर्य जगत दिनांक २५ मई से ३१ मई २०१४ के पृष्ट ९ पर श्री कृष्ण चन्द्र गर्ग पंचकुला का लेख जगन्नाथ ने महर्षि को दूध में विष दिया – एक झूठी कहानी के अंतर्गत यह लिखने का यत्न किया है कि महर्षि को विष देने की कथा झूठी है , के माध्यम से एक बार फिर यह विवाद खड़ा करने का यत्न किया है | मैं नहीं जानता कि गर्ग जी ने किस पूर्वाग्रह के कारण यह लिखा है किन्तु मैं बता देना चाहता हूँ कि इस लेख के लेखक को संभवतया या तो महर्षि के देहावसान के समबन्ध में कुछ ज्ञान ही नहीं है , या फिर वह जान बूझ कर इस विवाद को बनाये रखना चाहते हैं ताकि कुछ उल्लू सीधा किया जा सके |
लेखक ने स्वामी जी के रसोइये के नाम का विवाद पैदा करने का यत्न किया | स्वामी जी को दूध देने वाला जगन्नाथ था , धुड मिश्र था या कोई अन्य | नाम के विवाद में पड़ने की आवश्यकता नहीं है | नाम चाहे कुछ भी हो , प्रश्न तो यह है कि क्या स्वामी जी को विष दिया गया या नहीं ? लेखक ने बाबू देवेन्द्र नाथ मुखोपाध्याय जी ,पंडित लेखराम जी , पं. गोपालराव हरि जी द्वारा लिखित स्वामी जी के जीवन चरितों का वर्णन करते हुए लिखा है कि इन सब ने स्वामी जी को दूध पी कर सोते हुए दिखाया है किन्तु इस दूध में विष था या नहीं , यह स्पष्ट किये बिना ही लिख दिया कि यह दूध था न कि विष अथवा कांच | लेखक को शायद यह पता ही नहीं कि राजस्थान में विष को कांच भी कहते हैं तथा दूध में भी विष हो सकता है |
जोधपुर के उस समय के राजा की कुटिलता को देखते हुए स्वामी जी को यह कहा भी गया था कि वह जोधपुर न जावें क्योंकि वहां का राजा कुटिल है , कहीं एसा न हो कि स्वामी जी को कोई हानि हो जावे | इससे भी स्पष्ट होता है कि जोधपुर जाने से पूर्व ही स्वामी जी की हानि होने की आशंका अनुभव की जा रही थी | अभी अभी प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने एक पुस्तक अनुवाद की है | पुस्तक का नाम है महर्षि दयानंद सरस्वती सम्पूर्ण जीवन चरित्र लेखक पंडित लक्षमण जी आर्योपदेशक | यह विशाल काय पुस्तक मूलरूप में उर्दू में लिखी गई थी तथा प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने इसका अनुवाद कर सन २०१३ में ही दो भागों में प्रकाशित की है | इस पुस्तक में जिज्ञासु जी ने वह सामग्री भी जोड़ दी है , जो अब तक अनुपलब्ध मानी जाती थी | इस के साथ ही इस पुस्तक के अंत में महर्षि का विषपान अमर बलिदान नामक पुस्तक भी जोड़ दी है | प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु इस काल के आर्य समाज के सब से प्रमुख शोध कर्ता हैं , इस पर कहीं कोई दो राय नहीं है | इसलिए जब वह लिख रहे हैं महर्षि का विषपान अमर बलीदान तो यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वामी जी के देहावसान का कारण , बलिदान का कारण विषपान ही था | जिज्ञासु जी की पुस्तक के इस शीर्षक मात्र को देख कर ही कहीं अन्य किसी प्रकार की संभावना नहीं रह जाती | तो भी मैं यहाँ कुछ् प्रमाण देकर स्पष्ट करना चाहूँगा कि स्वामी जी के बलिदान का कारण केवल और केवल विष ही तो था अन्य कुछ नहीं |
स्वामी जी को मृत्यु का भय न था
महर्षि का विषपान अमर बलीदान के आरम्भ के दूसरे पहरे में जिज्ञासु जी लिख रहे हें कि स्वामी जी मृत्यु से डरते न थे | वह मरना ओर जीना समान जानते थे | प्रसंग दिया है कि विष दिए जाने से थोडा समय पहले ही एक महाराजा की रानी का देहांत हो गया | कुछ व्यक्ति दूरदर्शिता दिखाते हुए प्रेमपूर्वक कहते हैं कि आप भी थोडा शौक प्रकट करने चले जाएँ | ऋषि कहते हैं कि मैं इस समय सांसारिक बंधन अपने पर कैसे लाद लूँ ? मेरे लिए जीवन व मृत्यु एक सामान है |
इतने वर्ष कैसे जी पाए ?
सत्य का प्रचार करते हुए ऋषि के अनेक विरोधी बन गए | अनेक बार उन्हें विष दिया गया , पत्थर फैंके गए, सांप फैंके गए और न जाने क्या क्या हुआ किन्तु फिर भी वह इतने वर्ष तक जीवित रहे , यह भी एक आश्चर्य है | स्वामी जी को म्रत्यु से लगभग दो वर्ष पूर्व ही अपनी मृत्यु का पूवानुमान हो गया था इस सम्बन्ध में उनहोंने एक पात्र के माध्यम से बारम्बार कर्नाला अल्काट को मेरठ में कहा था कि मैं सन १८८४ का वर्ष कदापि नहीं देख सकता |
जोधपुर का स्वागत
जोधपुर जाते समय २८ मई १८८३ को शाह्पुराधिश को पात्र में लिखा था किबिचके स्टेशनों पर पुकारने पर भी कोई गाड़ीवान अथवा सिपाही नहीं था | यदि ऐसे व्यक्ति हैं तो राजकाज की हनी होगी | स्वामी जी के साथ चारण अमरदास थे | पं. कमलनयन का कथन है कि जाते समय किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति ने स्वामी जी को सचेत करते हुए कहा भी था कि महाराज वहां कुछ नरमी से उपदेश करना क्योंकि वह क्रूर देश है |
गर्ग जी ध्यान से पढ़िए यहाँ लक्षमण जी की कृति का अनुवाद करते हुए जिज्ञासु जी भी लिख रहे हैं कि प्रतिश्याय हो गया था | २९ सितम्बर अर्थात चतुर्दशी की रात्री को धौड मिश्र रसोइये से ( जो शाहपुरा का रहने वाला था ) दूध पीकर सोये | उसी रात उदर शूल तथा जी मिचलाने लगा ……………३० सितम्बर को बहुत दिन निकले उठे | उठते ही पुन: वमन व जोर का शूल होने लगा , दस्त भी होने लगे | संदेह होने पर अजवायन का काढा पीया | वैद्यक वाले बताते हैं कि अजवायन विष का प्रभाव दूर करने के लिए होती है | …..सत्यरूपी अमृत की चर्चा करते करते महर्षि को सांसारिक मनुष्यों से विषपान करना पडा | आह ! वह २९ की रात्री वाला दूध क्या था , मृत्यु का सन्देश था | दूध में चीनी के साथ संखिया को बारीक पिस कर दिया गया था | इस रोग का जुयों ज्यों उपचार किया गया त्यों त्यों बढ़ता गया | गर्ग जी क्या आपने कभी एसा प्रतिश्याय देखा है जो वामन, दस्त व पेट शूल का कारण हो ? नहीं तो फिर एसा झूठ क्यों घड रहे हो ?
इस रोग की जानकारी मिलने पर अच्छे चिकित्सक होते हुए भी अली मरदान खान को चिकित्सा का कार्य सौंप दिया गया | कहते हैं कि वह भी शत्रुओं की टोली का ही भाग था | ……जो ओषध दी गई उसके लिए बताया गया था कि तीन चार दस्त आवेंगे किन्तु रात्री भर तीस से भी अधिक दस्त आ गए तथा दिन में भी आते रहे | दस्तों से स्वामी जी इतने क्षीण हो गए कि उन्हें मूर्च्छा आने लगी | पाच अक्तूबर तक अवस्था यहाँ तक पहुँच गई कि श्वास के साथ हिचकियाँ भी आने लगी | जब स्वामी जी ने छः अक्तूबर को कहा कि अब तो दस्त बंद होने चाहियें तो डाक्टर ने कहा कि दस्त बंद होने से रोग बढ़ने का भय है | बार बार कहने पर भी दस्त बंद न होने दिए गए | इस प्रकार अली मरदान खान की चिकित्सा १६ अक्तूबर तक चली | इस मध्य दस्तों के कारण स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया | मुख , कंठ, जिह्वा, तालू,शिर तथा माथे पर छाले पड़ गए | बोलने में भी कष्ट होने लगा | बिना सहायता के करवट लेना भी कठिन हो गया | चिकित्सा काल में उसका प्रतिपल प्रतिक्षण बढ़ते रहना किसी बिगाड़ उत्पन्न करने वाले पदार्थ का काम था तथा वह किस संयोग से श्री महाराज की काया में जो पूर्ण ब्रह्मचर्य ताप व सुधारणाओं सुघथित था , प्रविष्ट हुआ ?
देश हितैषी पत्र अजमेर
यह पत्र लिखता है कि ”भ्रात्रिवृन्द ! यह विचारने का स्थान है | ण जाने यह किस प्रकार का विरेचन तथा ओषधि थी | इस पर बहुधा मनुष्य कई प्रकार की शंका करते हैं और कहते हैं कि स्वामी जी ने भी कई पुरुषों और महाराजा प्रताप सिंह जी से इस विषय में स्पष्ट कह दिया था , परन्तु अब क्या हो सकता है ? लाख यत्न करो | स्वामी जी महाराज अब नहीं आ सकते | जो हुआ, सो हुआ परन्तु हम को इतनाही शोक है कि स्वामी जी महाराज ने किसी आर्य समाजको सूचित न किया | यदि यह वृत्तांत उस समय जाना जाता तो यह रोग इतनी प्रबलता को प्राप्त न होता |”
जब स्वामी जी का स्वास्थ्य गिरता ही चला गया तो पं. देवदत लेखक तथा लाला पन्नालाल अध्यापक जोधपुर ने स्वामी जी से कहा की यह स्थान छोड़ देना चाहिए | स्वामी जी ने इस संबंधमें महाराज को लिखा | महाराज ने कहा की इस दिशा में यहाँ से जाने से जोधपूर की अपकीर्ति होगी किन्तु स्वामी जी के न मानने पर वह चुप हो गया | स्वामी जी की चिकित्सा शुश्रुषा करने वाले लोग तो वाही जो उनकी मौत ही चाहते थे | यदि जेठमल न जाते तो स्वामी जी का देहांत तो जोधपुर में ही हो जाता और संस्कार की सूचना भी आर्यों को न होती | जेठमल जी ने अजमेर जा कर सभासदों को सूचित किया | पीर जी हकीम को सब बताया , उनहोंने कुछ औशध दि तथा बताया की स्वामी जी को संखिया दिया गया है | (देखें महर्षि का विषपान अमर बलिदान ) पीर जी की ओषध से कुछ लाभ मिला | मूर्छा और हिचकी कम हो गई | हस्ताक्षर करने लगे | आबू में डा. लक्षमण दास जी के उपचार स्वे भी लाभ हुआ | हिचकिया व दस्ता बंद हो गए किन्तु २३ अक्तूबर को त्यागा पत्र देने पर भी कड़ी बरतते हुए अजमेर भेज दिया | मार्ग में मिलाने वालों को आप सजल नेत्रों से स्वामी जी का हाल सुनाते थे | यहाँ से स्वामी जी को अजमेर लाया गया | स्वामी जीके पुरे शारीर पर छले पद गए थे तथा सर्दी में भी गर्मी अनुभव करते थे |
अजमेर आने पर पीर जी ने जांच करके स्पष्ट कहा कि विष दिया गया है | स्वामी जी ने जल पीया , कटोरे में मूत्र किया जो कोयले के सामान काला था | प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी इस जीवन चरित्र के इतिहा दर्पण के अंतगत पृष्ट ६५५ पर लिखते हैं कि
१. ऋषि जब जोधपुर जाने लगे तो सभी शुभचिंतकों ने वहां जाने से रोका | प्राणों के निर्मोही दयानंद ने किसी की एक न सुनी | शीश तली पर रखकर जोधपुर जानेकी ठान ली|
२. ऋषि के जोधपुर पहुँचाने के २६ दिन बाद जसवंतासिह महाराजा जोधपुर दर्शनार्थ पधारे | यह भी एक समझाने वाला तथ्य है |
३. शाहपुरा के श्री नाहर सिंह तथा अजमेर के कई भक्तों ने कहा कि आप वहां जा रहे हैं | वेश्यागमन ,व्यभिचार का खंडन मत करना | यह तथ्य भी सामना रखना होगा |
तथा ऋषि ने इन्हें जो उतर दिया वह भी ध्यान में लाना होगा |
४. महाराजा प्रताप सिंह के जीवन चरित्र में भी स्वामी जी का कहीं वर्णन तक न होना भी इस बात को बल देता है | यहाँ तक कि उनके किसी लेख मेंस्वामी जी का नाम तक नहीं मिलता |
५. सर प्रताप सिंह अंग्रेज का पिट्ठू था , ऋषि भक्त नहीं | अन्ग्रेजने अपने सब से बड़े चाटुकार निजाम हैदराबाद से भी कहीं अधिक उपाधियाँ सर प्रताप सिंह को दीं | ऋषि भक्त पर तो अंग्रेज मोहित नहीं हो सकता था |
६. राजा के सब चाकर आज्ञाकारी और विश्वस्त होते हैं | मह्रिषी तो शाहपुरा के दिए सब चाकरों को निकम्मा बताते हैं | (यह बात ऋषि दयानंद के पात्र और विज्ञापन के पृष्ट ४२२-४२३ पर अंकित है |
७. जिस डा. अलीमर्दान खान से जोधपुर में उपचार कराया गया था , वह चाटुकार तथा तृतीय श्रेणी का सहायक डाक्टर था | उसने जान बुझ कर एसा उपचार किया कि स्वामी जी बच न सकें |
८. ऋषि की रुग्णता का समाचार बाहर न निकालने देना भी उनके दोष का कारण रहा | महर्षि की साड़ी योजना बनाने वाला राजपरिवार मजे से महलों में सोता रहा | स्वामी जी को रोग शैय्या पर छोड़ महाराज प्रताप सिंह घुड दौड़ के लिए पूना चले गए |
९. स्वामी जी को अंतिम समय अजमेर लाने वाले जेठमल जी ने कविता में लिखा रोम रोम में विष व्याप्त हो गया | यह तो साक्षात सत्य है जिसने अपनी आँखों से देखा उसका ही लिखा है |
१०. जब पंडित लेखराम जी स्वामी जी के जीवन की खोजा में जोधपुर गए तो राजा के गुप्तचर छाया की तरह पंडित जी के पोइछे क्यों रहे ? खोज में बाधाक्यों डाली ?
११. सर प्रताप सिह स्वयं कहते थे …….. कोई नन्हीं को भगतन व वैष्णव बताकर सिद्ध्कराने में लगा है तो कोई जोधपुर में विष देने की घटना को सिरे से खारिज कर रहा है | राजपरिवार का एक ट्रस्ट है | उनहोंने मुठ्ठी में कई लेखक कर रखे है | एसा सुनाने में आया है | एक दैनिक में विषपान की घटनाक प्रचारित करने का दोष पंजाब के महात्मा दल पर लगाया गया | लिखा गया की पंडित लेखराम जी का ग्रन्थ छपने लाहौर मांस पार्टी के स्तम्भ प्रताप सिंह की निंदा के लिए यह प्रचार किया गया |
झूठ झूठ ही होता है
जब राजस्थान के एक दैनिक में यह लेख छापा तो राजस्थान के किसी व्यक्ति ने इस मिथ्या कथन का प्रतिवाद नहीं किया | तब प्र. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने लिखा की पं. ल्लेख्रम जी का ग्रन्थ छपने से पूर्व जोधपुर में अकाल पड़ा था | तब लाला लाजपत राय जी ने लाला दीवानचंद को जोधपुर सहायता कार्य के लिए भेजा | उस समय सर प्रताप सिंह ने स्वयं जोधपुर में ऋषि जी को विष देने की घटना पर बड़ा दू:ख प्रकट किया था | यह बात लाला दीवानचंद जी की आत्मकथा मानसिक चित्रावली में दी गयी है |इस दीवान चाँद ने दुनिया के नोऊ महापुरुष नामक उर्दू पुस्तक में ऋषि को जोधपुर में विष दिए आने की चर्चा की है नन्हीं को भी वैश्य लिखा है |
१२ राजस्थान के यशस्वी इतिहासकार गौरिश्नकर हिराचंद ओझा ने भी ऋषि के बलिदान का कारण विषपान ही माना है | यह सब दयानंद क्मेमोरेश्ना वाल्यूम के पृष्ट ३७० पर देखें | राधास्वामी मत दयालबाग के गुरु हुजुर जी महाराज भी लिखते हैं कि जसवंत सिंह की बद्खुला तवायफ नन्ही जान |…… नन्ही जान के प्रतिशोध का परिणाम था कि दयानंद के दूध में विष पिस कर शक्कर डाल कर दिया गया और वह घातक सिद्ध हुआ |
१२. अजमेर के हकीम पीर अमाम अली जी ने स्पष्ट कहा था की संखिया दिया गया है |
१३. राजस्थान के तत्कालीन इतिहासकार जगदीश सिंह गहलोत, मुंशी देवी प्रसाद , नैनुरम ब्रह्म्भात्त आदि सब एक स्वर से ऋषि के बलिदान का कारण विष मानते हैं } चाँद के प्रसिद्द मारवाड़ अंक से ऋषि के विषपान के प्रमाण जिज्ञासु जी ने दिए थे |
१४. ऋषि को मारने के षड्यंत्र में कई व्यक्ति सम्मिलित थे | इन में से एक व्यक्ति खुल्लामाखुक्का ऋषि की हलाकत ( हत्या ) का श्रेय लेते हुवे गर्व से लिखता है कि उसे तो अल्लाह से ऋषि के मारे जाने की पहले से जानकारी मिल चुकी थी | मिर्जई मत का पैगम्बर मिर्जा गुलाम अहमद कादियानी ऋषि की हकालत को अपनी नुब्बुवत का आसमानी निशाँ प्रमाण आ था | उसने अपनी आसमानी किताब “हकीकत उल वाही “ के ५१-५२ पृष्ठों की निर्देशिका के पृष्ट २४ पर दो बार मह्रिषी के मरवाने का श्रेय बड़ी शान से लेता है | इस पंथ का पालन पौषण अंग्रेज सर्कार ने किया |
१५. वारहट क्रिशन सिंह जी का जीवन और राजपुताना इतिहास अभी छपा है इस में इस प्रकार लिखा है : ब्राह्मणों ने इनके रसोइदर को मिला कर स्वामी दयानंद सरस्वती को जहर दिलाया |……
१६. डा.भवानी लाल भारतीय जी ने नन्ही को महाराज की उप पत्नि कहा है | यदि इसे सत्य मान लें तो भी जोधपुर महाराज की उपपत्नी के इसा अपराध में शामिल होना सिद्ध होता है क्योंकि सब ने माना है कि एक मुख्य पात्र सबने माना है तो राजपरिवार विष दिए जाने के षड्यंत्र से अलिप्त कैसे हो गया ? यदि वह उप पत्नी थी तो सर प्रताप सिंह ने उसे जसवंत सिंह के निधन पर राजभवनों से उसे क्यों निकलवाया |
१७. श्री राम शर्मा ने कुतर्क दिया की गोपालराव हरी ने ऋषि जीवन में विष देने की चर्चा नहीं की | क्या इससे एक सरकारी अधिकारी किविवाश्ता नहीं दिखाती , जबकि मौके के इतिहासकार जो उस समय जोधपुर व अजमेर में थे , की साक्षी असत्य हो जाती है क्या ?
१८. लाखों की सम्पदा रखने वाली नन्ही पर जब विष देने का आरोप लगाया गया , इस आरोप लगाने वालों में महात्मा मुंशी राम, मास्टर आत्माराम , लक्षमण जी, महाशय क्रिअष्ण जी अदि पर उसने मानहानि का अभियोग क्यों न किया ?
१९. भक्त अमिन्चंद को यह क्यों लिखना पडा :
अमिन्चंद एसा होना कठिन है , धर्म न हारा
कष्ट उठाए , ण घबराये , उय्दी वश खाई ||
महर्षि का विषपान अमर बलिदान में दि कविता की अंतिम पंक्ति इस प्रकार है :
दियो विष हा हा हा स्वामी हमारो चली बसों ||
२० बम्बई की एक मेडिकल संस्था ने भारत सरकार के अनुदान से डा. सी के पारिख का एक ग्रन्थ सिम्पलिफाईड टेक्स्ट बुक आफ मेडिकल ज्युरुपुदेंस एंड टेक्नोलॉजी प्रकाशित करवाया है उसके पृष्ट ६४३,६७३,६७४ पर बड़े विस्तार से विष दिए जाने पर शारीर में होने वाली प्रतिक्रियाओं का वर्णन किया गया है | कोई भी सत्यान्वेषी उन्हें पढ़ कर यही निर्णय देगा कि मह्रिषी जी महाराज के अंतिम दिनोंमें जीना शारीरिक व्याधियों का कष्ट भोगना पड़ा वे सब विष दिए जाने के करण उतपन्न हुईं |
विस्वबंधू शास्त्री तथा श्रीराम शर्मा ,दोनों ही मूलराज को अपना गुरु मानते हैं किन्तु मूलराज जैसे कुटिल ऋषि द्रोही ने मरते दम तक कभी यह नहीं कहा व लिखा कि ऋषि को विष नहीं दिया गया | यहाँ तक कि मह्रसी को विष देने के विरोधी श्रीराम शर्मा द्वारा शोलापुर से प्रकाशित प्री. बहादुर मॉल की एक पुस्तक से विष दिए जाने के प्रमाण प्रकाशित किया| इससे भी उनके दोहरे चरित्र का पता चलता है | होश्यारपुर के विश्वबंधु, सूर्यभान कुलपति की पुस्तकों में भी विषपान की घटना निकला आई | महात्मा हंसराज की एक पुस्तक से भी इस सम्बन्ध में प्रमाण मिला |
प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु आर्य जगत के एक सर्वोतम शोध करता हैं | उन्होंने पुस्तक लिखी महर्षि का विषपान अमर बलिदान | इस पुस्तक तथा इससे पूर्व लिखे लेखों के आधार पर श्रीराम शर्मा , लक्शामिदत दीक्षित आदि टिक न सके तो फिर अब गर्ग जी को यह विवादित कार्य फिर से आरम्भ करने की आवश्यकता क्यों हुई तथा इस झूठ को फिर से फैलाने का प्रयास क्यों किया गया तथा यह भी पुन: आर्य जगत में ही क्यों प्फकाषित किया गया ? , इस के पीछे अवश्य कोई साजिश है , इस साजिश का पर्दाफाश होना आवश्यक है ताकि भविष्य में कोई एसा अनर्गल प्रलाप पुन: लाने का साहस न कर सके | ऊपर मैंने जो कुछ लिखा है , वह्सब जिज्ञासु जी की पुस्तक के आधार पर ही लिखा है यदि विस्तार से जानाना चाहें तो इस पुस्तक तथा प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी द्वारा अनुवाद की गई लक्षमण जी वाली ऋषि जीवन का अनिम भाग अवश्य पढ़ें | यह भी जाने की विष किसने दिया , उसके नाम का निर्णय करना हमारा काम नहीं है , हमारा काम है की वास्तव में विष दिया गया या नहीं | मुद्दे से न भटकते हुए विषपान तक ही सिमित रहते हुए जाने तो पता चलता हैकि स्वामी जी की म्रत्यु का कारण वास्तव में विषपान ही था जो जोधपुर राजघराने में एक साजिश के तहत दिया गया और इस साजिश में बहुत से लोग यहाँ तक कि अंग्रेज भी शामिल था |

डा. अशोक आर्य
१०४ शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी, २०१०१० गाजियाबाद
दूरभाष 01202773400 , 09718528068

भावनाओं का स्वरूप : शिवदेव आर्य

feelings

भावनाएं बड़ी विशाल होती हैं। भावनाओं के आधार पर ही हम प्राणी परस्पर व्यवहार करते हैं। जो भावनाओं के महत्व को समझ गया वह समझो इस बन्धरूपी संसार से मुक्त हो गया। इसलिए हम समझने का प्रयास करेंगे कि भावनाओं में आखिर क्या शक्ति है, जो इस संसार में हमें किसी का प्रिय बना देती हैं, किसी का अप्रिय, किसी का मित्र, किसी का दुश्मन आदि-आदि। संसार में ऐसा भी देखा गया है कि कोई किसी की भावनाओं में इतना ज्यादा आकृष्ट हो जाता है कि वह अपने बारे में सोचता तक नहीं।

यह एक वैज्ञानिक सत्य है कि जैसा भाव हमारे मन में सामने वाले के प्रति होता है वैसा ही सामने वाले के मन में भी होता है। यदि हम किसी के प्रति दुष्टता का विचार अपने मन में लायेंगे तो वैसा ही विचार वह भी हमारे लिए अपने मन मे लायेगा। इसलिए दुसरों के प्रति हितकर भावों को जागृत करें। इस प्रसंग में एक आख्यान स्मरण हो उठता है-कहते है कि एकबार राजा भोज की सभा में एक व्यापारी ने प्रवेश किया। राजा ने उसे देखते ही उनके मन में आया  कि इसका सब कुछ छीन लिया जाना चाहिये।

व्यापारी के जाने के बाद राजा ने सोचा-मैं प्रजा को हमेशा न्याय देता हूॅं। आज मेरे मन में यह कालुष्य  क्यों आ गया कि व्यापारी की सम्पत्ति छीन ली जाय? उसने अपने मन्त्री को पास आहुत कर पूछा कि ये विचार मेरे मन में ये  कैसे आ गये? मन्त्री ने कहा कि- इसका सही उत्तर मैं कुछ समय के पश्चात् दूॅंगा।

मन्त्री विलक्षण बुध्दि का था। वह इधर-उधर के सोच-विचार में समय न खोकर सीधा व्यापारी से मैत्री गाॅंठने के लिए पहुॅंच गया । व्यापारी से मित्रता करके पूछा कि तुम इतने चिन्तित क्यों हो? तुम तो भारी मुनाफे वाले चन्दन के व्यापारी हो।

व्यापारी बोला-धारा नगरी सहित अनेक नगरों में चन्दन की गाडि़याॅं भरे फिर रहा हॅूॅं, पर चन्दन नहीं बिक रहा। बहुत सारा धन इसमें फॅंसा पड़ा है। अब नुकसान से बच पाने का कोई उपाय नहीं है। व्यापारी की बातें सुनकर मन्त्री ने पूछा-क्या कोई रास्ता नहीं बचा? व्यापारी हॅंसकर बोला-अगर राजा भोज की मृत्यु हो जाये तो उनके दाह-संस्कार के लिये सारा चन्दन बिक सकता है।

मन्त्री को राजा का उत्तर देने की सामग्री मिल चुकी थी। अगले ही दिन मन्त्री ने व्यापारी से कहा-तुम प्रतिदिन राजा का भोजन पकाने के लिए एक मन चन्दन दे दिया करो और नगद पैसे भी उसी समय ले लिया करो। व्यापारी मन्त्री के आदेश को सुन कर बड़ा प्रसन्न हुआ। वह मन-ही-मन राजा को शतायु ;लम्बी आयुद्ध होने की कामना करने लगा।

एक दिन राजा की सभा चल रही थी। व्यापारी दोबारा राजा को वहाॅं दिखायी  दे गया  तो राजा सोचने लगा कि कितना आकर्षक व्यक्ति है, बहुत परिश्रमी है।  इसे कुछ उपहार देना चाहिए।

राजा ने पुनः मन्त्री को बुलाकर कहा कि हे मन्त्रीवर! यह व्यापारी प्रथम बार आया था, उस दिन मैंने   सवाल किया था, उसका उत्तर तुमने अभी तक नहीं दिया। आज इसे देखकर मेरे मन की भावनाएॅं परिवर्तित हो गई हैं, जिससे मेरे मन में अनेको प्रश्न उत्पन्न हो रहे हैं। इसे दूसरी बार देखा तो मेरे मन में इतना परिवर्तन कैसे हो गया?

मन्त्री ने उत्तर देते हुए कहा – महाराज! दोनो ही प्रश्नों के उत्तर आज ही दे रहा हूॅं। यह पहले आया था तब आपकी मृत्यु के विषय में सोच रहा था। अब यह आपके जीवन की कामना करता है, इसीलिए आपके मनमें इसके प्रति दो प्रकार की भावनाओं को उदय हुआ है। इससे सिध्द होता है कि हम जैसी भावना किसी के प्रति रखेंगे वैसी ही भावना वह व्यक्ति हमारे प्रति रखेगा।

-गुरुकुल-पौन्धा, देहरादून

 

आखिर संस्कृत व हिन्दी भाषा का विरोध क्यों? : शिवदेव आर्य

sanskrit

 

वर्तमान में प्रचलित संस्कृत और हिन्दी के विवाद के शब्द निश्चित ही आपके कानों में कहीं से सुनायी  दिये होगें। कुछ ही दिन पहले केन्द्र सरकार ने हिन्दी को बढ़ावा देने की बात कही थी, जिसका विपक्ष के लोगों और दक्षिणी लोगों ने विरोध किया था। आज आजादी के छः दशकों के बाद भी हमारे देश के काम-काज की भाषा हिन्दी नहीं बन पायी है, क्योंकि देश के जो भी नीति-निर्माता रहे उन्होंने हिन्दी के साथ बहुत भेदभाव किया, जिसके कारण हिन्दी आगे नहीं बढ़ पायी है।

आज भारत में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली और समझी जाने वाली भाषा हिन्दी है। सम्पूर्ण विश्व में भी हिन्दी का वर्चस्व है। लेकिन उसके पाश्चात् भी भारत के नेताओं ने कभी हिन्दी को बढ़ावा नहीं दिया। हिन्दी राजभाषा है, इसके बाद जब उसका इतना बुरा हाल हो सकता है तो फिर और भाषाओं के विकास की चर्चा करना ही व्यर्थ है। हिन्दी सप्ताह सभी सरकारी कार्यालयों में मनाना होता है। आज कार्यालयों के बाहर हिन्दी सप्ताह में भी सरकारी कर्मचारी हिन्दी में काम करने के लिए तैयार नहीं होते हैं। इससे ज्यादा दुर्गति इस भाषा की क्या हो सकती है?

हिन्दी की दुगति का एक और सबसे बड़ा कारण आधुनिक शिक्षा नीति है। आज प्रत्येक अमीर व गरीब व्यक्ति हिन्दी माध्यम से अपने बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहता है। उनके मन में अंग्रेजी  इतने अन्दर तक बैठ चुकी है कि वे समझते है कि अंग्रेजी के बिना तो पढ़ना ही व्यर्थ है। इसके कारण आने वाली पीढ़ी अंग्रेजी के प्रति तेजी से बढ़ रही है। यह एक भयंकर समस्या है, क्योंकि अंग्रेजी से पला-बढ़ा बच्चा भारतीय संस्कृति और भारतीय परम्पराओं के लुप्त होने का खतरा बढ़ गया है। आज भारत के एक गाॅव किसान का बेटा भी हिन्दी भाषा में लिखे अंकों को न तो बोल पाता है और न ही समझ पाता है। इसके पीछे कारण हिन्दी का घटता वर्चस्व और अंग्रेजी का बढ़ता महत्त्व है।

आज भारतीय व्यक्ति हिन्दी बोलने में शर्म महसूस करता है और अंग्रेजी बोलने में वह गर्व महसूस करता है। इसके पीछे सरकार की नीतियाॅं, शिक्षा और पश्चिमी सभ्यता है। आज तक पीछे की सरकारों ने हिन्दी को दबाने का काम किया है। अगर मोदी सरकार हिन्दी को बढ़ाने का काम करती है तो इसमें इतने विरोध की क्या आवश्यकता ? अपने ही हिन्दी भाषी बहुल देश में अगर हिन्दी का विकास नहीं होगा तो फिर कहाॅं होगा? अंग्रेजी के उत्थान के लिए अनेक विकसित देश लगे हुए है पर क्या भारत की हिन्दी भाषा का विकास कोई और देश करेगा?

संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में 2011 से सी-सेट का प्रश्न पत्र लगाया गया। इस प्रश्न पत्र के आते ही हिन्दी भाषी प्रान्तों के छात्र, कृषक परिवार के छात्र अर्थात् जो भी कला वर्ग से पढ़ा  हुआ छात्र है, वह इस परीक्षा से इस प्रश्नपत्र ने बाहर कर दिया, क्योंकि इस प्रश्नपत्र का विषय ही ऐसा बनाया है कि इसमें हिन्दी पृष्ठभूमि के छात्र आगे जा ही न सकें। यह तथ्य लगातार तीन वर्षों से आयोजित हुई परीक्षा के परिणामों से स्पष्ट है। जहाॅं पहले हिन्दी पृष्ठभूमि के छात्र सर्वोच्च अंक प्राप्त करते थे। आज वे प्रारम्भिक सौ छात्रों में भी नहीं आ पा रहे है। इससे सैंकड़ों हिन्दी भाषी छात्र  आई.ए.एस., आई.पी.एस. और आई.एफ.एस. बनने से चूक रहे हैं। वर्ष 2011 में प्रारम्भिक परीक्षा में 9324 लोग अंग्रेजी माध्यम से उत्तीर्ण हुए, जबकि हिन्दी भाषी छात्रों का विरोध करना बिल्कुल उचित है। क्योंकि वे इस परीक्षा के पहले चरण में ही बाहर हो रहे है। यह संविधान में उल्लिखित सामाजिक न्याय की भावना के अतिरिक्त मूलभूत अधिकारों अनुच्छेद 14 यानी समानता का अधिकार को राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन था नियुक्ति से सम्बन्धित  विषयों अवसर की समानता की गारष्टी का भी उल्लंघन है।

2011 में अलघ समिति की अनुशंसा के आधार पर संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में व्यापक परिवर्तन किये गये थे पर इस समिति ने अंग्रेजी को शामिल करने की कोई बात नहीं कही थी फिर भी बिना किसी आधार के अंगे्रजी को शामिल कर दिया। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण अंग्रेजी का है। आजादी के बाद 1979 तक तो अंगे्रजी के माध्यम से ही यह परीक्षा होती थी। अनेक प्रयासों के बाद 1979 के बाद भारतीय भाषाओं के         माध्यम से उच्च पदों पर पहुॅंच सकें है। 2011 में कपिल सिब्बल की कृपा से यह सारी योजना बनी कि कैसे हिन्दी भाषियों के वर्चस्व को कम किया जाये। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ये सारे नीतिनिर्माता नेता एवं उच्चपदस्थ अधिकारी विदेशों में रहकर अंग्रेजी माध्यम से पढ़ते हैं, और फिर उसी विदेशी शिक्षानीति को भारत में लागू करते हैं। आज ऐसे लोगों के कारण ही हमारी भारतीय संस्कृति और भारतीय परम्परायें लुप्त हो रही हैं। सबसे बड़ा आन्तरिक खतरा आज हमें इन्हीं लोगों से है। आज अगर हिन्दी भाषी छात्र मोदी सरकार से न्याय की माॅंग करती है तो गलत क्या है? हिन्दी समर्थक सरकार है तो निश्चित हिन्दी भाषी छात्रों की विजय है और होनी भी चाहिए।

1 अगस्त से 8 अगस्त तक संस्कृत सप्ताह प्रतिवर्ष मनाया जाता है। इस वर्ष मोदी सरकार ने सभी सी.बी.एस.सी. विद्यालयों में पत्र भेजकर संस्कृत सप्ताह मनाने का अनुग्रह किया है। इस पर देश में कही पर भी       विरोध नहीं हुआ है, लेकिन तमिलनाडू में जयललिता और करुणानिधि ने इसे अन्य भारतीय भाषाओं के साथ भेद-भाव की राजनीति बताया है। इन नेताओं से मैं पूछना चाहता हूॅं कि जब विगत सरकार अंग्रेजी को हर जगह बसा रही थी, तब करुणानिधि कहाॅं गये थे? सुब्रह्मण्यम स्वामी ने इनको बहुत अच्छा उत्तर दिया कि बोलने से पहले अपने नाम बदल लो, क्योंकि जयललिता और करुणानिधि शुध्द संस्कृत के नाम है। जिस भाषा का ये नेता समर्थन कर रहे हैं। वह तमिल भाषा भी संस्कृत पर ही आश्रित है अगर तमिल भाषा को वे सुरक्षित रखना चाहते है तो उससे पहले संस्कृत की सुरक्षा करनी पडे़गी। यह प्रयास निश्चित ही संस्कृत भाषा के लिए संजीवनी का काम करेगा, क्योंकि गत दिवसों में स्वयं गृहमन्त्री ने सदन में यह बताया कि संस्कृत भाषा सब भाषाओं की जननी है। इसके उच्चारण को समस्त विश्व ने वैज्ञानिक  माना है। इसका विकास होना चाहिए। सरकार का यह प्रयास नितान्त स्तुत्य है।

प्रिय पाठकगण! हिन्दी और संस्कृत भाषा आज तक उपेक्षा का परिणाम यह हो रहा है कि लोग हिन्दी भाषी व संस्कृतभाषी को हीन समझ रहे हैं। अंग्रेजी भाषी लोग अपने को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समझ रहे हैं। चारों तरफ अंग्रेजी का ऐसा आतंक मच गया है कि लोग यह समझने लग गये है कि अंग्रेजी के विना तो जीवन व्यर्थ है। यह भावना हमें समाज से हटानी होगी। आज सरकार यदि संस्कृत और हिन्दी के संरक्षण का प्रयास करती है तो हमें इसका स्वागत करना चाहिए। मेरा मानना है कि जो भी वास्तविक देशभक्त हैं, जिसके अन्दर देशहित की भावना है, वह व्यक्ति कभी भी हिन्दी और संस्कृत का विरोध करेगा  ही नहीं । भारतीय संस्कृति और सभ्यता को अगर हम जीवित रखना चाहते हैं तो हमें निश्चित ही इन दोनों भाषाओं की रक्षा करनी चाहिए। इन्हीं भाषाओं के बाद अन्य भाषाओं की रक्षा सम्भव है। शुध्द हिन्दी पूर्णतः संस्कृत पर आधारित है। संस्कृत की सुरक्षा में सभी की सुरक्षा है। इसीलिए हम सबको अपने अपने प्रयासों से इन भाषाओं की रक्षा करनी चाहिए। हमारा एक अल्प प्रयास भी इन भाषाओं के लिए संजीवनी का काम करेगा। आप सबके विचारों की प्रतीक्षा में…….

गुरुकुल पौन्धा, देहरादून

संस्कृत एकमात्र वैज्ञानिक भाषा : सचिन शर्मा

sanskrit

ब्रह्मांड में सर्वत्र गति है। गति के होने से ध्वनि प्रकट होती है । ध्वनि से शब्द परिलक्षित होते है। और शब्दो से भाषा का निर्माण होता है। आज अनेकों भाषाये प्रचलित है। किन्तु इनका काल निश्चित है कोई सौ वर्ष, कोई पाँच सौ तो कोई हजार वर्ष पहले जन्मी। साथ ही इन भिन्न भिन्न भाषाओ का जब भी जन्म हुआ, उस समय अन्य भाषाओ का अस्तित्व था। अतः पूर्व से ही भाषा का ज्ञान होने के कारण एक नयी भाषा को जन्म देना अधिक कठिन कार्य नहीं है। किन्तु फिर भी साधारण मनुष्यो द्वारा साधारण रीति से बिना किसी वैज्ञानिक आधार के निर्माण की गयी सभी भाषाओ मे भाषागत दोष दिखते है। ये सभी भाषाए पूर्ण शुद्धता,स्पष्टता एवं वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरा नहीं उतरती। क्यो कि ये सिर्फ और सिर्फ एक दूसरे की बातौ को समझने के साधन मात्र के उद्देश्य से बिना किसी सूक्ष्म वैज्ञानिकीय चिंतन के बनाई गयी। किन्तु मनुष्य उत्पत्ति के आरंभिक काल मे, धरती पर किसी भी भाषा का अस्तित्व न था। तो सोचिए किस प्रकार भाषा का निर्माण संभव हुआ होगा? शब्दो का आधार ध्वनि है, तब ध्वनि थी तो स्वाभाविक है शब्द भी थे। किन्तु व्यक्त नहीं हुये थे, अर्थात उनका ज्ञान नहीं था । उदाहरणार्थ कुछ लोग कहते है कि अग्नि का आविष्कार फलाने समय मे हुआ। तो क्या उससे पहले अग्नि न थी महानुभावों? अग्नि तो धरती के जन्म से ही है किन्तु उसका ज्ञान निश्चित समय पर हुआ। इसी प्रकार शब्द व ध्वनि थे किन्तु उनका ज्ञान न था । तब उन प्राचीन ऋषियों ने मनुष्य जीवन की आत्मिक एवं लौकिक उन्नति व विकास में शब्दो के महत्व और शब्दो की अमरता का गंभीर आकलन किया । उन्होने एकाग्रचित्त हो ध्वानपूर्वक, बार बार मुख से अलग प्रकार की ध्वनिया उच्चारित की और ये जानने मे प्रयासरत रहे कि मुख-विवर के किस सूक्ष्म अंग से ,कैसे और कहा से ध्वनि जन्म ले रही है। तत्पश्चात निरंतर अथक प्रयासो के फलस्वरूप उन्होने परिपूर्ण, पूर्ण शुद्ध,स्पष्ट एवं अनुनाद क्षमता से युक्त ध्वनियों को ही भाषा के रूप में चुना । सूर्य के एक ओर से 9 रश्मिया निकलती है और सूर्य के चारो ओर से 9 भिन्न भिन्न रश्मियों के निकलने से कुल निकली 36 रश्मियों की ध्वनियों पर संस्कृत के 36 स्वर बने। और इन 36 रश्मियो के पृथ्वी के आठ वसुओ से टकराने से 72 प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती है। जिनसे संस्कृत के 72 व्यंजन बने। इस प्रकार ब्रह्माण्ड से निकलने वाली कुल 108 ध्वनियों पर संस्कृत की वर्णमाला आधारित है। ब्रह्मांड की इन ध्वनियों के रहस्य का ज्ञान वेदो से मिलता है। इन ध्वनियों को नासा ने भी स्वीकार किया है जिससे स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन ऋषि मुनियो को उन ध्वनियों का ज्ञान था और उन्ही ध्वनियों के आधार पर उन्होने पूर्णशुद्ध भाषा को अभिव्यक्त किया। अतः प्राचीनतम आर्य भाषा जो ब्रह्मांडीय संगीत थी उसका नाम “संस्कृत” पड़ा। संस्कृत – संस् + कृत् अर्थात श्वासों से निर्मित अथवा साँसो से बनी एवं स्वयं से कृत , जो कि ऋषियों के ध्यान लगाने व परस्पर-संप्रक से अभिव्यक्त हुयी। कालांतर में पाणिनी ने नियमित व्याकरण के द्वारा संस्कृत को परिष्कृत एवं सर्वम्य प्रयोग मे आने योग्य रूप प्रदान किया। पाणिनीय व्याकरण ही संस्कृत का प्राचीनतम व सर्वश्रेष्ठ व्याकरण है। दिव्य व दैवीय गुणो से युक्त, अतिपरिष्कृत, परमार्जित, सर्वाधिक व्यवस्थित, अलंकृत सौन्दर्य से युक्त , पूर्ण समृद्ध व सम्पन्न , पूर्णवैज्ञानिक देववाणी संस्कृत – मनुष्य की आत्मचेतना को जागृत करने वाली, सात्विकता मे वृद्धि , बुद्धि व आत्मबलप्रदान करने वाली सम्पूर्ण विश्व की सर्वश्रेष्ठ भाषा है। अन्य सभी भाषाओ मे त्रुटि होती है पर इस भाषा मे कोई त्रुटि नहीं है। इसके उच्चारण की शुद्धता को इतना सुरक्षित रखा गया कि सहस्त्रों वर्षो से लेकर आज तक वैदिक मंत्रो की ध्वनियों व मात्राओ में कोई पाठभेद नहीं हुआ। और ऐसा सिर्फ हम ही नहीं कह रहे बल्कि विश्व के आधुनिक विद्वानो और भाषाविदों ने भी एक स्वर मे संस्कृत को पूर्णवैज्ञानिक एवं सर्वश्रेष्ठ माना है। संस्कृत की सर्वोत्तम शब्द-विन्यास युक्ति के, गणित के, कंप्यूटर आदि के स्तर पर नासा व अन्य वैज्ञानिक व भाषाविद संस्थाओ ने भी इस भाषा को एकमात्र वैज्ञानिक भाषा मानते हुये इसका अध्ययन आरभ कराया है और भविष्य मे भाषा-क्रांति के माध्यम से आने वाला समय संस्कृत का बताया है। अतः अङ्ग्रेज़ी बोलने मे बड़ा गौरव अनुभव करने वाले, अङ्ग्रेज़ी मे गिटपिट करके गुब्बारे की तरह फूल जाने वाले कुछ महाशय जो संस्कृत मे दोष गिनाते है उन्हे कुए से निकलकर संस्कृत की वैज्ञानिकता का एवं संस्कृत के विषय मे विश्व के सभी विद्वानो का मत जानना चाहिए। नासा को हमने खड़ा नहीं किया है अपनी तारीफ करवाने के लिए…नासा की वेबसाईट पर जाकर संस्कृत का महत्व क्या है पढ़ लो । काफी शर्म की बात है कि भारत की भूमि पर ऐसे खरपतवार पैदा हो रहे है जिन्हे अमृतमयी वाणी संस्कृत मे दोष व विदेशी भाषाओ मे गुण ही गुण नजर आते है वो भी तब जब विदेशी भाषा वाले संस्कृत को सर्वश्रेष्ठ मान रहे है अतः जब हम अपने बच्चो को कई विषय पढ़ा सकते है तो संस्कृत पढ़ाने मे संकोच नहीं करना चाहिए। देश विदेश मे हुये कई शोधो के अनुसार संस्कृत मस्तिष्क को काफी तीव्र करती है जिससे अन्य भाषाओ व विषयो को समझने मे काफी सरलता होती है , साथ ही यह सत्वगुण मे वृद्धि करते हुये नैतिक बल व चरित्र को भी सात्विक बनाती है। अतः सभी को यथायोग्य संस्कृत का अध्ययन करना चाहिए।

सच्चे ईश्वर की खोज : सचिन शर्मा

god
ईश्वर के सानिध्य के बिना, ईश्वर की कृपा के बिना, ईश्वर के अनुभव -दर्शन के बिना मृत्यु-भय नहीं छूट सकता, भक्ति का वास्तविक आनंद प्राप्त नहीं हो सकता … इसलिए प्रभु को खोजो हमने खोजा , हमने संसार के पदार्थो को ईश्वर माना , उनके पास गए , किन्तु वहा आनंद न मिला , रस न मिला …. वेदो मे आया -रसेन तृप्त: वह ईश्वर तो रस से तृप्त है , किन्तु ये पदार्थ तो रस से खाली मिले । इनको ईश्वर समझना हमारा भ्रम था ….. फिर इन रस-रिक्त पदार्थो से साधक का मन विरक्त हो जाता है , ऊब जाता है परीक्ष्य लोकान् कर्म्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायात्रास्त्यकृत: कृतेन । (मुण्डकोप०) कर्म्म से संचित लोगो (भोगो) की परीक्षा करके ब्रह्मज्ञानी दुखी हो उठता है और कहता है – “विनाशी पदार्थो से वह अविनाशी नहीं मिल सकता” किन्तु अपने अध्ययन एवं अनुभव के परीक्षण एवं चिंतन के पश्चात उसे परमतत्व की ओर प्रस्थान करने के मार्ग की प्रेरणा मिलती है , आभास होता है तब वह यत्न करता है ,और पाता है – दिव्ये ब्रह्मपूरे हवोष व्योम्न्यात्मा प्रतिष्ठित: (मु०) अंतरात्मा इस हदयाकाश रूपी दिव्य ब्रह्मपुर मे विराजमान है । जिसकी खोज को बाहर भटक रहे थे वह तो अंदर ही बैठा है अतः आत्मनाssत्मानमभिसंविवेश – वह आत्मा के द्वारा परमात्मा मे प्रवेश करता है शरीर इंद्रियादिक को छोडकर आत्मा को उसमे लगाने का प्रयत्न करना चाहिए उपनिषद में आता है – वह अंतरात्मा अनेक प्रकार से प्रकट होता हुआ अंदर विचर रहा है, ओ३म् पद के द्वारा उसका ध्यान करो भगवान के अनंत गुण है , अतः उनके प्रत्येक गुण का प्रकाशक उनका एक नाम है इस कारण भगवान के अनंत नाम है । किन्तु उनका निज नाम ॐ है ….गूंगा भी इस ॐ पद का उच्चारण कर सकता है एक उपनिषद मे कहा भी गया है —– भगवान का ज्ञान न आँख से होता है , न वाणी से, न ही अन्य इंद्रियो द्वारा इसका ज्ञान होता है । कोरे तप , थोथे जप और कर्म से भी उसका बोध नहीं होता । ज्ञान द्वारा जो अपनी आत्मा को शुद्ध कर उस निर्विकार का ध्यान करता है , वह उसके दर्शन कर पाता है एक ऋषि ने भी कहा – न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मन: —-वहा आँख नहीं जा पाती, न वाणी की वहा गति है । वह तो मन की पाहुच से भी बाहर है … अतः आत्मनात्मानमभिसंविवेश – मे अपनी आत्मा द्वारा उस अंतरात्मा मे प्रवेश करता हू अज्ञान के कारण ही मनुष्य अपने भीतर विद्यमान आनंद सागर परम पवित्र रस-सरोवर मे डुबकी न लगाकर बाह्य गंदभरे तालो मे डुबकी लगा रहा है , किन्तु फिर भी समझता है कि वह सही मार्ग है , किन्तु फिर भी समझता है कि वह भक्ति मे तल्लीन है …. अज्ञान के कारण नहीं समझ पाता कि जिस फीके पानी को ही मधु मान वह नित पान किए जा रहे है ,वह उस ईश्वरीय अमृतमयी रस का एकांश भी नहीं है । अतः सभी शास्त्रो मे कहा गया है कि बिना ज्ञान के मनुष्य जिसकी आराधना करनी चाहिए उसके स्वरूप का यथार्थ ज्ञान तथा उसके सच्चे आराधना का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता । वह नहीं समझ पाएगा कि किसकी आराधना कल्याण का मार्ग प्रशस्त करेगी। यथार्थ ज्ञान ही हमे विषय-विष से बचाकर ब्रह्मामृत की ओर प्रेरित करता है …. और यह यथार्थ ज्ञान बाह्य कारणो पर निर्भर नहीं है …. वेदो का वैदिक ग्रंथो का अध्ययन करना होगा, चिंतन करना होगा मनन करना होगा…तत्पश्चात साधना एवं आराधना करनी होगी….ईश्वर स्वयं तुम्हें सत्यज्ञान से अवगत कराएंगे….और तुम जानोगे कि ब्रह्मामृत का सरोवर अपनी आत्मा मे ही बह रहा है… अतः डुबकी लगाने को अंदर जाना होगा…बाहर ये सरोवर है ही नहीं …… और जिस दिन उधर जाने की भावना अन्तःकरण में बलवती होगी….तब तुम्हारे विकार स्वतः नष्ट होने लगेंगे….विकार नष्ट होने पर शुद्ध हो तुम शीघ्र ही उस अविनाशी परमात्मा के हो जाओगे…..ज्योतिष्मत: पथो रक्ष, अभयं ते अर्वाक्………।ओ३म्। ।