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‘आर्य-द्रविड़ विवाद’ के जन्मदाता कौन ? ✍🏻 स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती

      भारत में फूट के लिए सबसे अधिक उत्तरदाता विदेशी शासन था, यद्यपि यह भी एक गोरखधन्धा है कि एकता के लिए भी सबसे अधिक उत्तरदाता विदेशी शासन था। 

      हमारी फूट के कारण विदेशी शासन हम पर आ धमका। देश के जागरूक नेताओं की बुद्धिमत्ता से एकता की आग प्रज्ज्वलित हुई। विदेशी शासक आग में ईधन, विदेशी अत्याचार घी का काम देते रहे। अन्त में विदेशी शासकों को भस्म होने से पूर्व ही भागना पड़ा। परन्तु अब विदेशी फूट डालने वालों का स्थान स्वदेशी स्वार्थियों ने ले लिया। 

      हिन्दी के परम समर्थक तथा कम्युनिस्टों के परम शत्रु राज गोपालाचारी, अंग्रेजी के गिरते हुए दासतामय भवन के सबसे बड़े स्तम्भ बन गये। 

      जो प्रोफेसर अंग्रेजी इतिहासकारों के आसनों पर आसीन हुये वही ‘आर्य’ तथा ‘द्रविड़’ शब्दों के अनर्गल अर्थों के प्रयोग को भारत की छोटी से छोटी पाठशाला तक पहुंचाने में सबसे बड़े सहायक बन गये। 

      मैं दोनों भुजा उठाकर इस अनर्थ के विरुद्ध शंखनाद करना चाहता हूँ। मेरा कहना है कि सारे संस्कृत साहित्य में एक पंक्ति भी ऐसी नहीं जिससे आर्य नाम की नस्ल (Race) का अर्थ निकलता हों। इस शब्द का सम्बन्ध ▪️(१) या तो चरित्र से है ▪️(२) या भाषा से ▪️(३) या उस भाषा को बोलने वाले लोगों से ▪️(४) या उस देश से जहाँ इस प्रकार के चरित्र और भाषा वाले मनुष्य बसते हैं इसलिए किसी गोरे रंग वाली अथवा लम्बी नाक वाली जाति से इस शब्द का कोई दूर का भी सम्बन्ध नहीं है इसी प्रकार द्रविड़ शब्द ब्राह्मणों के दश कुलों में से पांच कुलों में होता है जिनमें शंकराचार्य जैसे ब्राह्मण पैदा हुए।

      अथवा मनुस्मृति के उपलभ्यमान संस्करण के अनुसार द्रविड उन क्षत्रिय जातियों में से एक है जो 🔥‘आचारस्य वर्जनात् अथवा ब्राह्मणनामदर्शनात् वृषलत्स्वम् गताः।’  क्षत्रियोचित आचार छोड़ देने तथा ब्राह्मणों के साथ सम्पर्क नष्ट हो जाने के कारण शूद्र कहलाये। किन्तु काले रंग तथा चिपटी नाक का द्रविड़ शब्द से कोई दूर का भी सम्बन्ध नहीं । 

◼️आर्य और द्रविड़ शब्द पश्चिम की दृष्टि में –

      मैकडानल की वैदिक रीडर में जो कि आज भारत के सभी विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों में पढ़ाई जाती है लिखा है :- 

      “The historical data of the hymuns show that the Indo-Aryans were still engaged in war with the aborigines, many victories over these forces being mentioned. that they were still moving forward as conquerors is indicated by references to reverse as obstacles to advances to.”

      “They were conscious of religious and racial unity, contrasting the aborigines with themselves by calling them non-sacrificers, and unbelievers as well as black skin’s and the Das’s colour’ as opposed to the Aryan colours.

      ‘ऋग्वेद की ऋचाओं से प्राप्त ऐतिहासिक सामग्री यह दिखाती है कि इण्डो-आर्यन् लोग सिन्धु पार करके फिर भी भारत के आदिवासियों के साथ युद्ध में लगे हुये थे इन शत्रुओं पर उनकी कई विजयों का ऋग्वेद में वर्णन है अभी भी विजेता के दल आगे बढ़ रहे थे। यह इस बात से सूचित होता है कि वे कई स्थानों पर नदियों का अपने अभि प्रयाण के मार्ग में बाधा के रूप में वर्णन करते हैं।’

      “उन्हें यह अनुभव था कि उनमें जातिगत तथा धार्मिक एकता है। वे आदिवासियों को अपनी तुलना में यज्ञ हीन, विश्वास हीन, काली चमड़ी वाले, दास रंग वाले तथा अपने आपको आर्य रंग वाले कहते है” 

      यह सारा का सारा ही आद्योपान्त अनर्गल प्रलाप है। सारे ऋग्वेद में कोई मनुष्य एक शब्द भी ऐसा दिखा सकता है क्या जिससे यह सिद्ध होता है कि काली चमड़ी वाले आदिवासी थे और आर्य रङ्ग वाले किसी और देश के निवासी थे। 

      प्रथम तो वेद में काली चमड़ी वाले (कृष्णत्वचः) यह शब्द ही कहीं उपलब्ध नहीं और ना ही कहीं गौरवचः ऐसा शब्द है। 

      हाँ, ‘दास वर्णम्’ ‘आर्य वर्णम्’ यह दो शब्द हैं जिनकी दुगति करके काले-गोरे दो दल कल्पना किये गए है। हलाँकि चारों वेदों में विशेष कर ऋग्वेद में कोई एक पंक्ति भी ऐसी नहीं है जिससे यह सिद्ध होता हो कि ‘आर्य वर्णम्’ इस देश में बाहर से आए, और ‘दास वर्णम्’ यहां के मूल निवासी (Aborigines) थे। 

      यदि इनके युद्ध का वर्णन है, तो वह युद्ध क्या एक ही देश के रहने वाले दो दलों में नहीं हो सकता, इन दोनों में से एक दल बाहर से आया था और दूसरा आदिवासी दल था इस कल्पना का एक ही और केवल मात्र एक उद्देश्य था, भारत में पग-पग पर फूट फैलाने वाले तथा भारत के एकता के परम शत्रु अंग्रेजी शासकों की तथा वैदिक धर्म द्रोही पादरियों की दुष्टता है। 

      अब अंग्रेज चले गए। क्या अब भी हमारे देशवासियों की आंखें खुलेंगी। 

◼️आर्य और द्रविड़ का असली अर्थ –

      अब जरा आर्यवर्ण तथा दासवर्ण इन शब्दों की परीक्षा करलें। 

      वर्ण शब्द का अर्थ इस प्रसंग में है ही नहीं। धातु-पाठ में रंग-वांची वर्ण वाची शब्द के लिए वर्ण धातु पृथक ही दी गई है परन्तु निरुक्तकार ने इस वर्ण शब्द की व्यत्युत्ति वृ धातु से बताई है। वर्णो वृणोतेः (निरुक्त)। 

      ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य यह तीन आर्य वर्ण हैं, क्योंकि सत्यद्वारा असत्य नाश, बल द्वारा अन्याय का नाश धन द्वारा दारिद्रय का नाश यह तीन व्रत हैं।

      इनमें से जो एक व्रत का वरण अर्थात् चुनाव कर लेता है उसके ‘वर्णिक’ को जीवन अपने वर्ण की मर्यादानुसार अत्यन्त कठोर नाप तोल में बंध जाता है इसलिये वह व्रत आर्य वर्ण कहलाता है।

      जो अपने आप को सब प्रकार की शक्तियों से क्षीण पाता है। परन्तु स्वेच्छा पूर्वक ईर्षा-रहित होकर लोक कल्याणार्थ किसी व्रत वाले की सेवा का व्रत ले लेता है वह दास वर्ण का कहलाता है इसलिये शूद्रों के दासन्त नाम कहे हैं। जो व्रतहीन हैं वह दास नहीं, दस्यु हैं। 

      उन्हें अव्रताः कहकर व्रत वाले उनसे युद्ध करें यह बिलकुल उचित ही है। यह व्रतधारियों का व्रतहीनों से, हराम खोरों का श्रम शीलों से संग्राम सदा से चला आया है और सदा रहेगा। यह दोनों ही सदा से धरती पर रहे हैं इसलिए दोनों ही धरती के आदिवासी, मध्यवासी, तथा अन्तवासी हैं। 

      अस्तु Aborigines की यह कल्पना बिलकुल निराधार है। इसका वैदिक वाङ्मय तो क्या सारे संस्कृत साहित्य में वर्णन नहीं । 

◼️आर्य शब्द कैसे बना –

      अब देखना है कि आर्य शब्द यदि जाति विशेष का वाचक नहीं तो यह किसका वाचक है। 

इसके लिये इसकी व्युत्पत्ति को देखना चाहिए। 

      यह शब्द ‘ऋ गतौ’ (Ri to move) इस धातु से बना है, परन्तु ऋ धातु का अर्थ गति है इतना तो व्याकरण से ज्ञात हो गया अब निरुक्त प्रक्रिया से देखना चाहिये कि ऋ धातु का अर्थ किस प्रकार की गति है। इसके लिए दो शब्दों को ले लीजिए। एक ऋतु, दूसरा अनऋतु। ऋतु का अर्थ है नपा हुआ समय। ग्रीष्म ऋतु= गरमी के लिये नियत, नपा हुआ समय, वर्षा ऋतु = जिसमें वर्षा होती है वह नपा हुआ समय, शरद ऋतु=जिसमें सरदी पड़े वह नपा हुआ समय, बसन्त ऋतु=जिसमें सरदी से धुन्ध कोहरा आदि आकाश के आच्छादक वृत्तोका अन्त हो और समशीतोष्ण अवस्था हो वह नपा हुआ समय, इस प्रकार ‘ऋगतौ’ का अर्थ हुआ ऋ= मितगतौ अर्थात् न प के साथ चलना।

      इसीलिये जो पदार्थ जैसा है उसके सम्बन्ध में अन्यूना= नातिरिक्त, ठीक नपा तुला ज्ञान कहलाता है= ऋतु इसके विपरीत अन+ ऋतु। इसका बिलकुल संदेह नाशक प्रमाण कीजिये –

      🔥अर्वन्तोमित द्रवः (यजु १,) 

      वे घोड़े जो इतने सधे हों कि दौड़ते समय भी उनके पग नाप तौल के साथ उठे परिमित हों, ठीक नपे तुले हों वे अर्वन्तः कहलाते हैं। इसी ऋधातु से आर्य बना है। इस शब्द के सम्बन्ध में पाणिनि का सूत्र है 🔥अर्यः स्वामि वैश्योंः आर्य शब्द के दो अर्थ हैं एक स्वामी दूसरा वैश्य।

      इस पर योरोपियन विद्वानों की बाल लीला देखिए। 

      उनका कहना है यह शब्द ऋधातु से बना है जिसका अर्थ है। खेती करना यह ‘ऋ कृषौ’ धातु उन्होंने कहाँ से ढूढ़ निकाली, यह अकाण्ड ताण्डव भी देखिये। आर्य का अर्थ है स्वामी अथवा वैश्य। वैश्य के तीन कर्म हैं 

      (१) कृषि (२) गोपालन (३) वाणिज्य। सो क्योकि आर्य का अर्थ है वैश्य और वैश्य का कर्म है कृषि इसलिए ऋधातु का अर्थ है। खेती करना।

◼️बलिहारी है इस सीनाजोरी की,

      क्यों जी, वैश्य के तीन कर्मों में व्यापार और गोपालन को छोड़कर आपने खेती को ही क्यों चुना? इसका कारण उनसे ही सुनिये। 

      अंग्रेजी भाषा में एक शब्द है Arable Land अर्थात् कृषि योग्य भूमि। यह शब्द जिस भाषा से आया है उसका अर्थ खेती करना है इसलिए संस्कृत की ऋधातु का अर्थ खेती करना सिद्ध हुआ, यह तो ऐसी ही बात है कि हिन्दी में लुकना का अर्थ छिप जाना है। इसलिए Look at this room का अर्थ, इस घर में छिप जाओ, क्योंकि हिन्दी भाषा में धी का बेटी है इसलिए वेद में भी धी का अर्थ बेटी हुआ। 

सुनिये लाल बुझक्कड जी। (१) स्वामी (२) कृषि (३) गोपालन (४) व्यापार। इन चारों में समान है, वह है नाप तौल के साथ व्यवहार, स्वामी से भृत्य जो वेतन पाता है वह नाप तोल के बल पर पाता है। 

      ‘खेती के योग्य भूमि को नापना पड़ता है क्योंकि उस पर लगान लगता है, इसीलिए अंग्रेजी में भी कृषि योग्य भूमि Arable Land कहलाती है।

      गोपालन करने वाला दूध नापता है क्योंकि उस पर उसकी आजीविका निर्भर है व्यापारी के नाप-तौल का तो प्रश्न ही नहीं उठता वहां तो सारा काम ही नाप तौल का है। वैश्य हलवाई से कहिये लालाजी लड्डू खाने है तुरन्त आपका स्वागत करके आपको आसन पर बैठाएगा और अति मधुरता पूर्वक पूछेगा कितने तौलू यह कितने वैश्य कर्म का आधार है, इसलिए स्वामी और वैश्य दोनों आर्य कहलाते हैं। स्वामियों का स्वामी परमेश्वर हैं, आर्य का अर्थ है ईश्वर का पुत्र अर्थात् स्वामी का पुत्र अर्थात् परमेश्वर का पुत्र। परमेश्वर का गुण है न्यायपूर्वक नियमानुसार नाप-तौल कर कर्मों का फल देना।

      जो मनुष्य इसी प्रकार सबके साथ प्रीति पूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य व्यवहार करता है वही भगवान के गुणों को धारण करने के कारण उसका सच्चा सपूत है। परमात्मा का एकलौता बेटा कोई नहीं। सृष्टि के आदि से आज तक जिन्होंने नाप-तौल युक्त व्यवहार किया वे आर्य कहलाए और जो करेंगे वे कहलाएगे चाहे किसी देश जाति अथवा सम्प्रदाय में उत्पन्न हुये हैं। यह है आर्य शब्द का अर्थ। जिनका जीवन सत्य रक्षा, न्याय-रक्षा अथवा धनहीन रक्षा के व्रतों से नपा-तुला हो वे आर्य वर्ग के लोग कहलायेंगे और उनका चुनाव किया हुआ व्रत आर्य वर्ण कहलाएगा। 

      अब बताइए कि इसमें गोरा रंग लम्बी नाक अथवा भारत के बाहर के किसी देश से आना किस प्रकार आ घुसा, जिन धूर्त शिरोमणि लोगों ने इस राष्ट्र की एकता के विध्वंस के लिये इस पवित्र शब्द की यह दुर्दशा की है उनसे पग-पग पर प्रतिक्षण लड़ना और तब तक, दम न लेना जब तक यह अविद्यान्धकार धरती से विदा न हो हर सत्य-प्रेमी का परम कर्तव्य है और राष्ट्र हितैषियों के लिये तो यह जीवन-मरण का प्रश्न है। क्योंकि इसी पर राष्ट्र की एकता निर्भर है। (आर्य संसार १९६५ से संकलित) 

✍🏻 लेखक – स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

‘आर्य जाति नहीं गुण सूचक शब्द है।’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

सृष्टि के आदि काल व उसके बाद के समय में आर्य, दास तथा दस्यु आदि कोई मुनष्यों की जातियां नहीं थीं, और न ही इनके बीच हुए किसी युद्ध व युद्धों का वर्णन वेदों में है। वेद में आर्य आदि शब्द  गुणवाचक हैं, जातिवाचक नहीं। जाति तो संसार के सभी मनुष्यों की एक है और इस मनुष्य जाति की स्त्री व पुरूष दो उपजातियां कह सकते हैं। जो पाश्चात्य लेखक ऋग्वेद में आदिवासियों को चपटी नाक और काली त्वचा वाले बताते हैं, वह असत्य, निराधार व अप्रमाणिक है। वह यह भी कहते हैं कि आर्य लोग आदिवासियों की बस्तियों (पुरों) का विध्वंस करते थे, और कभी-कभी आर्यों का आर्यों के साथ भी युद्ध हो जाया करता था। उनकी ये सारी बातें वेद और सत्यान्वेषण के विरुद्ध होने से काल्पनिक एवं प्रमाणहीन हैं।

 

सृष्टि का सबसे प्राचीनतम ग्रन्थ वेद हैं। वेद वह ग्रन्थ हैं जिनमें आदि सृष्टि में ईश्वर से चार ऋषियों को प्राप्त ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद रूपी ज्ञान, जिनके विषय ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान हैं, को लिपिबद्ध किया गया है। यह पुस्तकें व ग्रन्थ मन्त्र संहिताएं कहलाती हैं। ईश्वर द्वारा प्रदत्त ऋग्वेद का 1/51/8 मन्त्र प्रस्तुत है जिसमें आर्य और दस्यु को जातिसूचक नहीं अपितु गुण-कर्म-स्वभाव का सूचक बताया गया है। इससे सभी विदेशी और देशी अल्पज्ञ विद्वानों की आर्यों विषयक भ्रान्तियों व मिथ्या मान्यताओं का खण्डन होता है।

 

मन्त्रः    वि जानीह्यार्यान् ये दस्यवो बर्हिष्मते रन्ध्या शासदव्रतान्।

शाकी भव यजमानस्य चोदिता विश्वेत्ता ते सधमादेषु चाकन।।

 

इस मन्त्र का अर्थ हैः इस संसार में आर्य=श्रेष्ठ और दस्यु=विनाशकारी इन दो प्रकार के स्वभाव वाले स्त्री पुरुष हैं। हे परमैश्वर्यवान् इन्द्र (परमात्मा) ! आप बर्हिष्मान् अर्थात् संसार के परोपकार रूप यज्ञ में रत आर्यों की सहायता के लिए (परहित विरोधी, स्वार्थ साधक व हिंसक) दस्युओं का नाश करें। हमें शक्ति दें कि हम अव्रती (व्रतहीन, सामाजिक नियम व वेदविहित ईश्वराज्ञा भंग करने वाले) अर्थात् अनार्य दुष्ट पुरुषों पर शासन करें। वह कदापि हम पर शासन न करें। हे इन्द्र (ऐश्वर्यो के स्वामी ईश्वर) ! हम सदा ही तुम्हारी स्तुतियों की कामना करते हैं। आप आर्य सद्विचारों के प्रेरक बनें, जिससे हम अनार्यत्व को त्याग कर आर्य बनें।

 

मन्त्र में ‘‘आर्य शब्द प्रयोग परोपकार में संलग्न आर्यों अर्थात् श्रेष्ठ मनुष्योचित आचरण वाले लोगों के लिए प्रयुक्त हुआ है। किसी भी समुदाय में अच्छे व बुरे तथा श्रेष्ठ और कदाचार करने वाले लोग हुआ ही करते हैं। मन्त्र में ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि हम आर्य विचारों के प्रेरक बनें और अनार्यत्व अर्थात् बुराईयों व दुगुर्णों को त्याग दें। अतः इस बात में कोई संशय नहीं है कि आर्य जातिसूचक शब्द नहीं अपितु मनुष्यों में श्रेष्ठ गुणों की प्रधानता का सूचक है।

 

इसी क्रम में हम भारत में अंग्रेजी शिक्षा के जन्मदाता मैकाले और एफ0 मैक्समूलर की भारतीय वैदिक धर्म और संस्कृति को दूषित करने की योजना को क्रियान्वित करने पर हुई बैठक का विवरण भी प्रस्तुत करना चाहते हैं। सन् 1839 में जब मैकाले भारत से इंग्लैण्ड आया तब वह एक संस्कृत के विद्वान की खोज में था। वह ऐसा विद्वान् चाहता था कि जो वेद के सम्बन्ध में योग्यता रखता हो। एच0एच0 विलसन और वारोन वुनसन के द्वारा मैकाले को पता चला कि जर्मन देशोत्पन्न संस्कृत के विद्वान एफ0 मैक्समूलर इस काम के लिए उपयुक्त हैं। दिसम्बर, 1954 में मैक्समूलर और मैकाले की इंग्लैण्ड में भेंट हुई। उस समय मैकाले 55 वर्ष का अनुभवी राजनीतिज्ञ बन चुका था और मैक्समूलर 32 वर्ष का नवयुवक था। मैक्समूलर आर्थिक दृष्टि से कृपण था और उसे किसी ऐसे काम की अपेक्षा थी जिससे वह अच्छा खासा धन कमा सके। मैकाले और मैक्सूमूलर के बीच कई घण्टों तक बातचीन हुई। इस बैठक में मैकाले ने मैक्सूलर को कहा कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी लाखों रुपये व्यय करने को तैयार है यदि आप हिन्दुओं के आदि धर्म ग्रन्थ ऋग्वेद का अंग्रेजी में अनुवाद करें और इस ढंग से व्याख्या करें कि जिससे वेदों की विचारधारा के विद्वानों अनुयायियों को धर्मभ्रष्ट किया जा सके। तुम इस काम में अंग्रेजी सरकार को सहयोग दो और हिन्दुओं के हृदयों में वेद के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न करो जिससे अंगेजी राज्य की भारत में नींव सुदृढ़ हो तथा हिन्दुओं को बिना किसी यत्न किये सरलता से ईसाई बनाया जा सके। यह कहना न होगा कि इस काम को करने के लिए मैक्समूलर को प्रभूत धन का प्रस्ताव व लालच दिया गया था। किसी भी धनहीन विद्वान की सबसे बड़ी कमजोरी धन ही होती है। मैक्समूलर ने इस प्रस्ताव को चाहे व अनचाहें दोनों ही रूपों में स्वीकार कर लिया। इसका प्रमाण उनका अपनी पत्नी को सन् 1866 में तथा 16 दिसम्बर 1868 को तत्कालीन भारत के मन्त्री श्री ड्यूक आफ आर्गायल को लिखे पत्र हैं।

 

अंग्रेजों    ने अपना राज्य स्थाई वा चिरकालीन करने के लिये जो षडयन्त्र किया था उसके शिकार भारत के अधिकांश बुद्धिजीवी हुए। यदि वह ऐसा न करते तो अंगे्रजों से मिलने वाली सुविधाओं से उन्हें हाथ धोना पड़ सकता था। वर्तमान में भी अज्ञानता, स्वार्थवश व आत्म गौरव की न्यूवता के कारण हम इसे ढो रहे हैं। आज भी देश के बच्चों को इस बारे में मिथ्या पाठ पढ़ाये जाते हैं। भारत की लोकसभा तक में कांगे्रस दल के नेता श्री मल्लिकार्जुन खड़से आर्यों को बाहर से आया हुआ कह देते हैं और किन्हीं कारणों से सब मौन साधे रहते हैं। बुद्धिमान जो भी बात कहते हैं वह उसे सप्रमाण कहते हैं। आज तक आर्यों का बाहर से भारत आना व आर्य का एक जाति होने का कोई प्रमाण नहीं मिला। फिर भी बुद्धिजीवी कहे जाने वाले कुछ लोग इसे ढोये जा रहे हैं। आर्यों को भारत से बाहर से आया हुआ कहना व मानना पूर्णतया असत्य कथन व विवके व ज्ञानशून्य मान्यता है। इस पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिये। लोकसभा में भी इसका उल्लेख करने वालों से प्रमाण मांगे जाने चाहिये अन्यथा वह अपना बयान वापिस लें, इस पर बल दिया जाना चाहिये।

 

हम पुनः बलपूर्वक कहना चाहते हैं कि ‘‘आर्य गुणों का सूचक शब्द है, जाति सूचक शब्द नहीं है। श्रेष्ठ गुणों से युक्त वेदों को मानने वाले लोगों को आर्य कहा गया है। यह लोग भारत के मूल निवासी थे। सृष्टि के आरम्भ में इन आर्यों ने ही इस जम्बू दीप स्थित आर्यावत्र्त को वैदिक ज्ञान-विज्ञान से युक्त श्रेष्ठ गुणों को धारण करने वाले आर्यों ने ही बसाया था। यह वह समय था जब संसार में तिब्बत के अतिरिक्त कहीं कोई मनुष्य निवास नहीं करता था, संसार की सारी भूमि मनुष्यों से रहित खाली पड़ी थी। इससे पूर्व भारत में वनवासी, आदिवासी वा द्राविड़ नाम की कोई जाति निवास नहीं करती थी, इसका प्रश्न ही नहीं था क्योंकि यह सृष्टि का आदि काल था। आदिवासी, वनवासी व द्राविड़ आदि शब्दों का रूढि़वादी प्रयोग अर्वाचीन है प्राचीन नहीं। ढूढने पर इनमें अनेक जन्मना जातिसूचक शब्द मिल जायेंगे। जाति सूचक इन शब्दों का प्रचलन सृष्टि की आदि में मनुष्यों की उत्पत्ति के करोड़ों वर्ष तथा महाभारत का युद्ध समाप्त हो जाने के भी कई सौ या हजारों वर्ष बाद आरम्भ हुआ। हम आशा करते हैं कि विवकेशील पाठक हमारे विचारों से सहमत होंगे। हमारा यह भी निवेदन है कि यदि किसी के पास आर्यों के बाहर से आने का कोई पुष्ट प्रमाण हो तो वह प्रस्तुत कर सकते हैं। विदेशियों ने जो कुछ लिखा व कहा, वह अपने स्वार्थ के कारण किया। भारत के किसी प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ वेद, मनुस्मृति, चार ब्राह्मण ग्रन्थों, रामायण, महाभारत, दर्शन ग्रन्थों व उपनिषदों में कहीं नहीं लिखा की आर्य बाहर से आये थे, उन्होंने यहां की किसी प्राचीन जाति पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की, उन्हें दास बनाया आदि। आर्य कोई जाति नहीं अपितु यह शब्द श्रेष्ठ गुणों का सूचक है। अतः विदेशियों का इस बारे में कोई भी प्रमाणहीन कथन स्वीकार नहीं किया जा सकता।

 

महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के अन्त में स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश नाम से अपनी मान्यताओं सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया है जो सभी वेदों पर आधारित होने से सार्वभौमिक, सार्वकालिक एवं सर्वमान्य आर्यश्रेष्ठसिद्धान्त हैं। वह लिखते हैं किजो मतमतान्तर के परस्परर विरुद्ध झगड़े हैं, उन को मैं प्रसन्न नहीं करता क्योंकि इन्हीं मत वालों ने अपने मतों का प्रचार कर मनुष्यों को फंसा के परस्पर शत्रु बना दिये हैं। इस बात को काट सर्व सत्य का प्रचार कर सब को ऐक्यमत में (स्थिर) करा द्वेष छुड़ा परस्पर में दृढ़ प्रीतियुक्त करा के सब से सब को सुख लाभ पहुंचाने के लिये मेरा प्रयत्न और अभिप्राय है। सर्वशक्तिमान् परमात्मा की कृपा सहाय और आप्तजनों की सहानुभूति से यह (ईश्वरप्रदत्त वेदा का ज्ञान) सिद्धान्त सर्वत्र भूगोल (संसार विश्व) में शीघ्र प्रवृत्त हो जावे जिस से सब लोग सहज से धर्म्मार्थ, काम, मोक्ष की सिद्धि करके सदा उन्नत और आनन्दित होते रहें। यही मेरा मुख्य प्रयोजन (उद्देश्य इच्छा) है।आर्यावर्त्त देश का उल्लेख कर महर्षि दयानन्द ने यह भी लिखा है कि इस भूमि का नाम आर्यावर्त्त इसलिये है कि इस में आदि सृष्टि से आर्य लोग निवास करते हैं परन्तु इस की अवधि उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रह्मपुत्रा नदी है। इन चारों के बीच में जितना प्रदेश है उस को आर्यावर्त्तकहते हैं और जो इस आर्यावर्त्त देश में सदा से रहते हैं उन को भी आर्य कहते हैं। महर्षि दयानन्द के विश्व के लिए कल्याणकारी इन विचारों पर विचार करना और इन्हें मानना सभी मनुष्यों का कर्तव्य है।            

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

हनुमान आदि बन्दर नहीं थे ? – स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

वानर –  वने भवं वानम , राति ( रा आदाने ) गृह्णाति ददाति वा. वानं वन सम्बन्धिनम फलादिकम् गृह्णाति ददाति वा –  जो वन   उत्पन्न होने वाले फलादि खाता है वह वानर कहलाता है. वर्तमान में जंगलों व पहाड़ों में  रहने और वहाँ पैदा होने वाले पदार्थों पर निर्वाह करने वाले “गिरिजन” कहाते हैं. इसी प्रकार  वनवासी और वानप्रस्थ वानर वर्ग में गिने जा सकते हैं. वानर शब्द से किसी योनि विशेष जाति  प्रजाति अथवा उपजाति का बोध नहीं होता।

hanuman

 

जिसके द्वारा जाति  एवं जाति  के चिन्हों को प्रगट किया जाता है वह आकृति है. प्राणिदेह के अवयवों की नियत रचना जाति  का चिन्ह होती है. सुग्रीव बाली  आदि के जो  चित्र देखने में आते हैं उनमें  उनके पूंछ  लगी दिखाई है  परन्तु उनकी स्त्रियों के पूंछ  नहीं होती। नर मादा में इस प्रकार का भेद अन्य किसी वर्ग में देखने में नहीं आता. इसलिए पूंछ  के कारण हनुमान आदि को बन्दर नहीं माना जा सकता। Continue reading हनुमान आदि बन्दर नहीं थे ? – स्वामी विद्यानन्द सरस्वती