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श्राद्ध में पूज्य देव और पितर कौन हैं ? श्राद्ध नित्य कर्म है वा नैमित्तिक ? : पण्डित भीमसेन शर्मा

श्राद्ध में पूज्य देव और पितर कौन हैं ? श्राद्ध नित्य कर्म है वा नैमित्तिक ?

अब पितर वा पितृ किसको कहते हैं ? इस बात का विचार किया जाता है। नीति में लिखा है कि- ‘उत्पादक, यज्ञोपवीत कराने वाला, विद्यादाता, अन्नदाता और भय से बचाने वाला, ये पांच पिता माने गये हैं।’१ इस प्रकार पितृ शब्द योगरूढ़ है और अपने उत्पादक पिता में रूढ़ि भी है। लौकिक लोग पिता शब्द कहने से उत्पादक से भिन्न को नहीं जानते। अन्य लौकिक व्यवहार में पिता शब्द से प्रकरणानुसार जनक, यज्ञोपवीत कराने, अन्न देने वा भय से बचाने वाले का ग्रहण होता है। परन्तु श्राद्ध कर्म में विशेष कर पितृ शब्द से विद्यादाता का ग्रहण होता है, और अपने-अपने उत्पादक पिता की सेवा-शुश्रूषा तो सबको सदैव करनी ही चाहिये। क्योंकि जो ऐसा नहीं करता, वह कृतघ्न अवश्य है। और ज्ञान वा विद्या देने वाले ज्ञानी पिता का भी भोजनादि से प्रतिदिन सत्कार करना चाहिये, वही श्राद्ध है। अपने जनक और अन्य यज्ञोपवीत कराने वाले आदि की जो सेवा है, उसको सामान्य प्रकार से तर्पण कहते हैं। श्राद्ध कर्म में पूजने योग्य दो ही हैं- पितृ और देव। जो पुरुष वाणी के कर्म में प्रवीण हैं, पढ़ाने और उपदेश करने में सदा प्रवृत्त अर्थात् पढ़ाने और उपदेशादि वाणी के कर्म द्वारा विद्या का प्रचार करके जगत् का उपकार करने के लिये प्रतिक्षण प्रवृत्त हों, वे देवता कहाते हैं। इसी प्रसग् पर यह भी कहना अनुचित नहीं कि वाक्, वाणी, सरस्वती, विद्या ये शब्द एकार्थक हैं, तो प्रशस्त विद्यावान् लोगों को देव मानना ठीक सिद्धान्त है। और जो मानसकर्म ज्ञान में सदा रमण करते, अपने मन ही मन में शुद्ध आनन्द की लहरियों का अनुभव करते हैं। सदा अच्छे-बुरे का विवेक करते हैं। बहुत कम नियम से बोलते वा वाणी को वश में करके मौन रहते हैं। जिस-जिस विषय पर सम्यक् अनुभव कर लेते हैं कि जिसके प्रचार से जगत् का ठीक-ठीक उपकार हो सकता है। उसी विषय को पुस्तकादि द्वारा सरल कर प्रचलित करते हैं, वे पितर हैं ‘वेदविद्या का दान देने से आचार्य- गुरु को पिता कहते हैं। अज्ञानी को बालक और ज्ञानी को पिता कहते हैं।’२ इत्यादि मनु जी के प्रमाणों से पूर्व का कथन सिद्ध होता है। शतपथ ब्राह्मण में भी स्पष्ट लिखा है३ कि- ‘जिनमें वाणी के कठोर, मिथ्याभाषण, चुगली और असम्बद्ध बोलनारूप चार दोष न हों, किन्तु सत्यबोलना, हितकारी वाक्य बोलने, प्रियवाणी बोलना और वेदादिशास्त्र पढ़ना इन्हीं चार प्रसगें में वाणी का व्यय करना, किन्तु क्रोधादि पूर्वक नहीं बोलना ये गुण जिनमें हो वे देव हैं। और मानस विचार में तत्पर रहें अर्थात् मन के तीन [अन्य के वस्तु को लेने की तृष्णा, दूसरों का अनिष्ट विचार, और व्यर्थ असम्भव विचार ये] दोष जिनमें न हों तथा मानस तीन गुण- सब प्राणियों पर दया, निरपेक्षा वा सन्तोष और शुभकर्मों वा परमात्मा की उपासनादि में श्रद्धाभक्ति जिनमें विशेष कर हों वे पितर कहाते हैं।’ सारांश यह है कि वाचिक पापों से रहित और वाचिक पुण्य करने में विशेष कर प्रवृत्त देव, और मानस पापों से रहित, मानस पुण्य करने में अधिक कर प्रवृत्त पितृ कहाते हैं। जिनकी वाणी सब प्रकार शुद्ध है, वे देव और जिनका मन सब प्रकार शुद्ध है, वे पितृ लोग कहाते हैं। मानस विचार की रक्षा वाणी से होती है, इसी अभिप्राय से पितृ कार्य का रक्षक देवकार्य को माना है। तथा देव को ऋषि और पितृ को मुनि भी उक्त विचारानुसार कह सकते हैं। जहां देव, ऋषि, पितृ, सब आते हैं, वहां ऋषि पद वाच्य ब्रह्मचर्याश्रमस्थ वेदाध्येता तपस्वी अन्तेवासी शिष्य लिये जावेंगे इत्यादि। इसी विचार को पुष्ट करने के लिये तृतीयाध्याय के श्राद्धप्रकरण में मनु जी ने स्वयमेव कहा है कि- ‘जिनमें सत्त्वगुण की प्रधानता होने से बुद्धिवर्द्धक तथा खाने योग्य हों, वे कव्यपदार्थ प्रयत्न के साथ ज्ञानियों को खवाने चाहियें। और होमने योग्य वस्तु चारों प्रकार के विद्वानों को खवाने चाहियें।’१ इसी कारण उपनिषदों में भी ‘आत्मज्ञानी की पूजा करें’२ ऐसा लिखा है। इससे भी ज्ञानी लोगों का ही सत्कार आता है। सत्य-असत्य का विवेक करने वाले ज्ञानी जनों की जो लोग सम्यक् श्रद्धा, भक्ति से सेवा करते हैं, वे उन सेवकों पर प्रसन्न होकर कल्याण करने के लिये मन लगाते हैं। और श्रेष्ठमार्ग का उपदेश करते वा संकेतमात्र से जता देते हैं कि यह काम ऐसे करना चाहिये और यह न करना चाहिये। इसी कारण ज्ञाननिष्ठ पितृजनों के सेवक भी कल्याणभागी होते हैं। इसी से ज्ञानयुक्त पितृजनों की अन्नादि दान से श्रद्धापूर्वक सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिये। सब सत्कारों में भोजनार्थ अन्न से सत्कार करना ही सबमें मुख्य है। क्योंकि वेद का सिद्धान्त है कि ‘प्राणियों का प्राण अन्न के ही आश्रय है।’३ और भोजन से ही इस शरीर की उत्पत्ति, स्थिति और नाश हो सकता है। सात्त्विक- सत्त्वगुण का बढ़ाने वाला आहार मिलने पर शरीर नीरोग और सत्त्वगुण वाली प्रबल बुद्धि होती है, इसी से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि है। वस्त्र और भूषण आदि सुख के साधनों के न मिलने पर भी केवल अन्न और जल के आश्रय से शरीर ठहर सकता है, परन्तु अन्न-जल न मिलने पर लाखों रुपये वा सब पृथिवी का राज्य मिल जाने पर भी शरीर की स्थिति नहीं रह सकती। इससे तर्पण और श्राद्ध में अन्न-जलों से सत्कार करना मुख्य है। पूर्वकाल से श्रेष्ठ लोगों की भी यही परिपाटी चली आती है [अब थोड़े दिनों से कुछ परम्परा बिगड़ी है कि मरे हुओं के नाम से पिण्ड देने लगे और इस अंश को प्रायः आर्षपुस्तकों में भी मिला दिया] इसलिये भोजन से मुख्य कर सबको ज्ञानी पितृ लोगों का श्राद्ध करना अत्यन्त उचित है।

अब यह विचार किया जाता है कि श्राद्ध भी नित्यकर्म है वा नैमित्तिक ? इसका उत्तर यह है कि दोनों प्रकार का हो सकता है। जैसे मनुष्य को नित्य श्राद्ध करना चाहिये, यह विधि- आज्ञा है। सो मनुस्मृति में ही लिखा है कि- ‘नित्य अन्न, जल, दूध वा खीर, फल और कन्द मूलों से पितृ- नाम ज्ञानी पुरुषों का प्रीतिपूर्वक श्रद्धा से सत्कार करे।’१ (यहां नित्यकर्म श्राद्ध के विधान में भोजन के पदार्थ गिनाये हैं। इनमें मांस अभक्ष्य होने से नहीं रखा गया। इसी से अन्यत्र जहां-जहां मांस का प्रयोग श्राद्ध में लिखा है, वहां-वहां सर्वत्र प्रक्षिप्त जानो) तथा पञ्च महायज्ञ सामान्य कर नित्यकर्म हैं, उनके अन्तर्गत होने से भी श्राद्ध नित्यकर्म सिद्ध होता है, यह सब कथन उत्सर्गरूप से है।

और अपवादरूप से श्राद्ध नैमित्तिक भी है। अर्थात् जो कोई प्रतिदिन भोजनादि सत्कार के साधनों के न मिल सकने से श्राद्ध नहीं कर सकता। अथवा जिसको सत्कार के योग्य पितृजन नित्य-नित्य नहीं प्राप्त होते, उसको साधनों के मिलने और पूज्य पितृजनों की प्राप्ति होने पर श्राद्ध करना चाहिये [पूजा के योग्य पितृ कहने से किन्हीं अवस्था में बड़ों का ग्रहण नहीं समझना क्योंकि- “अज्ञो भवति वै बालः पिता भवति मन्त्रदः” इस कथन से सिद्ध है कि ज्ञानवृद्ध का नाम पिता है, किन्तु अवस्थावृद्ध का नाम नहीं]। नैमित्तिक श्राद्ध के लिये कोई समय भी नियत करना चाहिये। इसीलिये हमारे पूर्वजों ने नैमित्तिक श्राद्ध के लिये समय नियत किया था, ऐसा अनुमान होता है। इसी कारण “श्राद्धे शरदः इस पाणिनीय सूत्र की व्यवस्था ठीक लग जाती है। इस सूत्र का आशय यह है कि ऋतुवाचक शरद् शब्द से श्राद्ध अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है। यद्यपि शरद् ऋतु में अनेक सामान्य वा विशेष कार्य होते हैं, तथापि शरद् ऋतु में हुए वा होने वाले श्राद्ध का ही नाम शारदिक पड़ेगा, शरद् ऋतु के अन्य कामों को शारद कहेंगे। परन्तु इस कथन से यह तात्पर्य नहीं है कि शरद् ऋतु में ही श्राद्ध किया जाये अन्य में न किया जाय वा अन्य ऋतु में श्राद्ध नहीं होता। किन्तु अभिप्राय केवल यह है कि अन्य ऋतु वाचक शब्दों से ठञ् न हो, किन्तु अण् ही हो तिससे “शैशिरं श्राद्धम्” ऐसा भी कह सकते हैं। और किसी अपवाद सूत्र से किसी प्रयोजन से विशेष कर प्रत्यय का विधान करना उस वस्तु, कर्म वा भाव का किसी विशेष समय में अधिक प्रचार होना सूचित करता है। जैसे शरद् ऋतु में रोग और सूर्य के तेज की विशेषता होती है। इसी कारण शरद् शब्द से “विभाषा रोगातपयोः” इस पाणिनीय सूत्र द्वारा विशेष प्रत्यय का विधान किया जाता है। वैसे ही यहां भी शरद् ऋतु में नैमित्तिक श्राद्ध की विशेषता अनुमान से जाननी चाहिये। साधनों के ठीक-ठीक न मिलने आदि पर श्राद्ध का नैमित्तिक करना कहा गया है। वे भोजन करने योग्य वस्तु सर्वोपरि उत्तम पदार्थ दूध से बनते अर्थात् खोया के पेड़ा, बरफी और रबड़ी, खीर आदि अनेक प्रकार के मीठे वा दही, मठा, शिखरन आदि वस्तु सब दूध से बनते हैं। और वर्षा ऋतु के होने से गौ आदि पशुओं के भोजन घासादि मुख्य कर उसी समय वा उससे कुछ पहले अवश्य उत्पन्न होते और पशुओं के भक्ष्य घासादि की अधिकता से दूध अधिकतर उत्पन्न होता है इस कारण खीर आदि वस्तु सुगमता से प्राप्त हो सकते हैं और श्राद्ध में खीर आदि पुष्ट वस्तुओं का प्रायः विधान किया है। और अन्नों के बीच उत्तम चावल मुख्य माने गये हैं, वे भी वर्षा की अधिकता से शरद् ऋतु में ही उत्पन्न होते हैं। इसी कारण क्वार के महीने में पूर्वकाल से नैमित्तिक श्राद्ध की परिपाटी चलाई गई थी। और वह सत्य परम्परा अब नष्ट हो गयी अर्थात् वह श्राद्ध जिस उद्देश से पहले चलाया गया था, वैसा उद्देश अब नहीं रहा। अब कोई वैसे ज्ञानी लोगों को श्राद्ध के लिये न खोजता और न परीक्षा करता और न उसके मुख्य प्रयोजन को समझ कर श्राद्ध करता, किन्तु अब विपरीत अधिक कर होता है। परन्तु सत्पुरुष आर्य अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों को उचित है कि पूर्वोक्त प्रकार से फिर सत्य परम्परा का प्रचार करें। जो लोग उक्त कारण से नित्य श्राद्ध नहीं कर सकते, उनके लिये नैमित्तिक श्राद्ध का समय विशेष नियत करना चाहिये, यह कह चुके हैं। सो इसकी अत्यन्त आवश्यकता इसलिये भी है कि अन्य भी जिन-जिन कार्यों का समय नियत किया जाता है, वे ही काम यथार्थरूप से वा जिस किसी प्रकार अवश्य होते हैं। अर्थात् मनुष्य में प्रायः कुछ गुण ऐसे लगे हैं कि वह अधर्म की ओर तो शीघ्र झुक जाता वा ऐसे कामों में शीघ्र लग जाता है, जिनसे उसको प्रत्यक्ष कुछ स्वार्थसिद्धि दीखती है। ऐसे काम     अधिकांश में मुख्य धर्मसम्बन्धी नहीं हैं। तात्पर्य यह है कि ऐसे कामों का समय नियत न किया जाय, तब भी वह प्रायः कर सकता है। परन्तु जो मुख्य धर्म- सम्बन्धी काम हैं वा जिनका स्वार्थ प्रत्यक्ष नहीं दीखता वा जिन कार्यों के सिद्ध होने में अत्यन्त परिश्रम की अपेक्षा है, उन कार्यों के करने से प्रायः बचता रहता है। और बहुत से कार्यों की मरण पर्यन्त इच्छा ही करता रहता है, पर कुछ भी नहीं कर पाता, इसलिये मुख्य वा सर्वोत्तम धर्मसम्बन्धी कार्यों के करने का यदि समय नियत हो तो लोकलज्जादि से तो भी कुछ करने पड़ता है। और नियत समय पर प्रायः आलस्य स्वयं दूर हो जाता है। यह बात लोक में दीख भी पड़ती है कि अनेक मनुष्य लोकलज्जादि के कारण अनेक दुष्कर्मों से बच जाते और जिन शुभ कामों का समय नियत है, ऐसे अनेक काम लोकलज्जा वा देखा-देखी अवश्य करने पड़ते हैं। परन्तु जिन कर्त्तव्य शुभकामों का कोई समय ही नियत नहीं है, उनको प्रायः लोग आलस्यादि के वश होने से नहीं कर पाते। आजकल में अमुक कार्य करेंगे, इस प्रकार कहते-कहते ही काल आकर घेर लेता है। उस समय शोकरूप समुद्र में गोता लगाते हैं। इसलिये यदि पूर्वज लोगों के नियत किये नैमित्तिक श्राद्ध के शरद्ऋतु वा अमावास्यादि समय किसी प्रकार दोषयुक्त ठहरें [अर्थात् जिस कार्य की परिपाटी मुख्य उद्देश्य को छोड़कर अन्यथा हो जाती है, वे कार्य वा उनके समय शिष्ट लोगों में प्रायः दूषित समझे जाते हैं, क्योंकि उन समयों में प्रायः उसी परिपाटी वालों में समझे जाने सम्भव हैं। जैसे विष्णु के भक्त वैष्णव वा ब्रह्म के उपासक ब्राह्म इत्यादि शब्द अच्छे हैं, पर वे एक-एक मत विशेष के साथ प्रचरित हो जाने से दूषित हो गये, इसी कारण आर्य लोग अपने को ब्राह्म, वैष्णव वा शैवादि नामों से न लिख सकते और न कहकर प्रसिद्ध कर सकते हैं, इसी प्रकार यदि अशिष्ट वा अन्धपरम्परा ग्रस्त लोगों से परिगृहीत होने से समय दूषित समझा जावे] तो आर्य लोगों को अन्य कोई समय नियत करना चाहिये कि अमुक-अमुक समय में हम लोगों को नैमित्तिक श्राद्ध कर्त्तव्य है। उस नियत समय पर पूर्व से ही पूज्य पितृजनों का बुलाना और भोजन की सामग्री का जोड़ना उचित है और इसी प्रकार अनेक लोग करते भी हैं, तो भी आर्य लोगों को विशेष कर शुभकर्म का प्रचार करने के लिये [कि जो कर्म अज्ञान से विपरीत भाव को प्राप्त हो गये हैं, उनसे हानि ही होती है उन] श्राद्धादि कर्मों को नियत-नियत समय पर सत्य उद्देश्य के साथ विशेष कर प्रवृत्त करना चाहिये, यही सर्वसाधारण के सुधार का उदाहरण हो जायेगा। ऐसा करने से ही विपरीत कर्मों की निवृत्ति हो सकती है। किन्तु विरुद्ध चाल के खण्डन मात्र से निवृत्ति होना दुस्तर है। इसलिये साधन और समय के अनुसार अन्नादि सामग्री से श्रद्धा भक्ति पूर्वक विवेकी लोगों का सेवनरूप श्राद्ध आस्तिक सज्जन लोगों को अवश्य करना चाहिये, यही मुख्य सिद्धान्त है।

पञ्च महायज्ञ और श्राद्ध-तर्पण का विशेष विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

पञ्च महायज्ञ और श्राद्ध-तर्पण का विशेष विचार

अब पञ्च महायज्ञों में से तर्पण वा श्राद्ध पर विशेष विचार किया जाता है। “विशेष कर गृहस्थ पुरुष को पांच काम प्रतिदिन ऐसे करने पड़ते हैं कि जिनसे दोष लगते रहते हैं। जैसे एक प्रतिदिन चूल्हा जलने से ईंधन वा पृथिवी के अनेक जन्तु जलते, द्वितीय चक्की पीसने वा पिसवाने से अनेक जन्तु अन्न के साथ पिस जाते, तीसरे मार्जनी (झाडू) द्वारा अनेक कोमल छोटे जन्तु मरते, चौथे ऊखली-मूसल से कूटने द्वारा अनेक मरते और पांचवें जलपात्र- घड़े आदि जहां रखे रहते हैं, उनके नीचे शीतलप्रदेश चाहने वाले प्रायः जन्तु आ ठहरते और घड़ादि के ढुरने से मारे जाते हैं। ये कार्य प्रायः गृहस्थों को करने पड़ते हैं। इनके करने बिना नहीं बच सकते और जब करने पड़ते हैं, तो जीव-जन्तुओं के प्रत्येक पदार्थ में रहने से हानि वा हिंसा भी होती है। इसी कारण गृहस्थों को दोष भी अवश्य लगते हैं। इसलिये उस दोष के बदले गृहस्थों को कुछ पुण्य भी नियमपूर्वक अवश्य करने चाहियें, उसी पुण्यरूप कर्म को प्रायश्चित्त भी कह सकते हैं, क्योंकि ईश्वर की सृष्टि में कुछ किसी का अपकार हो जावे, तो उसको उसके बदले में प्रत्युपकार भी करना चाहिये। इस कारण ऋषि लोगों ने वेद का आशय लेकर पञ्च महायज्ञों की व्याख्या कर स्पष्ट किया है कि इनको इस कारण और इस-इस प्रकार सब गृहस्थ लोग प्रतिदिन किया करें।’१ इत्यादि प्रकार से तृतीयाध्यायादि में पञ्च महायज्ञों का प्रयोजन सहित व्याख्यान मनु जी ने स्वयमेव किया है।

अध्यापन अर्थात् पढ़ाने का नाम ब्रह्मयज्ञ है। ऐसे प्रसग् में पढ़ाने के अन्तर्गत पढ़ना भी आ जाता है, क्योंकि पढ़ना होने पर ही पढ़ाना बन सकता है। और पढ़ने के अन्तर्गत सन्ध्याकर्म भी आ जाता है, क्योंकि सन्ध्या में गायत्री का पढ़ना ही मुख्य कर्म है। इसीलिये सन्ध्या के प्रसग् में मनुस्मृति में लिखा है कि- ‘एकान्त वन आदि में जाकर सावित्री को पढ़’२े। इस सब कथन से स्वाध्याय का नाम ब्रह्मयज्ञ ठहरता है कि नित्य नियम से जिस-जिस वेद भाग का पढ़ना-पढ़ाना वा जप-पाठ आदि करना हो, वह सब स्वाध्याय तथा ब्रह्मयज्ञ कहाता है।

द्वितीय तर्पण नामक पितृयज्ञ है। उसी का अवान्तर भेद श्राद्ध है। अग्निहोत्र- देवयज्ञ कहाता है, वैश्वदेव- भूतयज्ञ और अतिथिपूजन- नृयज्ञ कहाता है। और यज्ञ शब्द के अनेक अर्थ हैं। ब्रह्म- अर्थात् वेद सम्बन्धिनी विद्या वा परमेश्वर की प्राप्ति जिस द्वारा की जाती है, वह ब्रह्मयज्ञ, पितृ- नाम सदसद्विवेकी, ज्ञानी पुरुषों की पूजा, सत्कार जिस द्वारा किया जाय, वह पितृयज्ञ, देव- नाम सर्वोत्तम गुण सबके लिये जिस द्वारा पहुंचाये जावें, वह देवयज्ञ अथवा परमेश्वर की आज्ञा पालन द्वारा देव- नाम परमात्मा का पूजन जिससे किया जाय वह अग्निहोत्र देवयज्ञ। भूत- नाम पशु, पक्षी, कीट, पतगदि जन्तुओं का सत्कार जिस द्वारा किया जाय, वह भूतयज्ञ, बलिवैश्वदेव कहाता है। और नर- नाम उपदेशादि द्वारा सबको ठीक मार्ग पर चलाने वाले अकस्मात् उपस्थित हुए अर्थात् भोजन के समय आये मनुष्यों का सत्कार जिससे किया जाता है, वह नृयज्ञ कहाता है। ये पञ्च महायज्ञों के नामार्थ वा शब्दसम्बन्धी अर्थ हैं।

जिस किसी प्रकार अन्य प्राणियों को सुख पहुँचाना धर्म कहाता है। इसी अर्थ से पञ्च महायज्ञ भी धर्म का संचय कराने वाले होने से धर्म शब्द के अर्थ हो सकते हैं। और जब ये धर्म हैं तो अधर्म की निवृत्ति भी किसी प्रकार हो सकती है। यद्यपि पञ्च महायज्ञ ओषधि से रोग की निवृत्ति होने के समान चूल्हादि से होने वाले हिंसारूप दोषों के निवर्त्तक होने सम्भव नहीं। तो भी हिंसा रूप दोष से होने वाले अपराध का प्रतिपक्षी- विरोधी पञ्च महायज्ञ से होने वाला पुण्य फल हो सकता है। अर्थात् जीवहिंसा का दुःख फल है और पञ्च महायज्ञों के अनुष्ठान का सुख फल होगा। सुख से दुःख की निवृत्ति होती ही है। तथा जैसे बुरे कर्म का फल दुःख मिलता है, वैसे अच्छे कर्म का सुख फल हो। वा जैसे भूख-प्यास से होने वाले दुःख की निवृत्ति अन्न-जलादि से होती है, तब सुख उत्पन्न हो जाता है। यह भी एक प्रकार का प्रायश्चित्त है, अर्थात् वैसे ही पञ्च महायज्ञ के सेवन से पुण्य फल का उदय होकर दुःख का नाश होता है। जैसे दुःख भोगने से शरीर, इन्द्रिय, आत्मा और अन्तःकरण व्याकुल वा निर्बल हो जाते हैं, वैसे ही सुख मिलने पर हृष्ट-पुष्ट हो जाते हैं, यह भी एक प्रकार से दुःख-निवृत्ति का उपाय है। इस प्रकार पञ्च महायज्ञ वा सब सुकृत- पुण्य कर्म दुःख को हटाने वाले हो सकते हैं। तथा अनेक अन्न-जलादि सुख के साधनों के उपार्जनरूप प्रयत्न वा उपाय दुःख हटाने के लिये ही प्रतिदिन मनुष्य करता है। वैसे ही पञ्च महायज्ञ भी प्रतिदिन सेवन करने योग्य हैं। जैसे- ब्रह्मचर्य के सेवन से मानस, वाचिक दुष्कर्म से होने वाले दुःख की वासनारूप जड़ पहले ही कट जाती है। पीछे उन (जिनका फल होना निश्चित नहीं जो ओषधि करने से रोग के समान साध्य हैं ऐसे) संचित कर्मों का नाश हो जाने से दुःख भी उत्पन्न नहीं होता। तथा पितृनामक ज्ञानियों के सेवन करने से ज्ञानी लोग अनियतविपाक संचित दुष्ट कर्मों की निवृत्ति का उपाय दिखाते हैं। आगे होने वाले आचरणों को उपदेश से सुधार देते हैं, उससे दुष्ट कर्म नहीं करता, जिनका फल दुःख हो। इस प्रकार अन्य भी महायज्ञ दुःख के हटाने में हेतु हैं। गृहस्थ पुरुष को उचित है कि आलस्य, निद्रा और प्रमादादि को छोड़कर उनका सेवन करे। यह संक्षेप से सामान्य पञ्चयज्ञों का विचार है।

अब पितृयज्ञ के दो भेद हैं- तर्पण और श्राद्ध। उनमें तर्पण सामान्य कर भूख-प्यास आदि से होने वाले दुःख की निवृत्तिरूप तृप्ति वा प्रसन्नता, मन में पूरा सन्तोष वा आनन्दरूप माना जाता है। और श्राद्ध नाम कर्मविशेष का है कि जिस कर्म के द्वारा अन्न से तृप्त हुए जन क्षुधा से होने वाले दुःख से निवृत्त होते हैं। श्रद्धा से जिस कारण दिया जाता है, इसलिये इस पितृसम्बन्धी दानकर्म को श्राद्ध कहते हैं। अथवा श्रद्धा पूर्वक दिये जाने वाले अन्न का नाम भी श्राद्ध हो सकता है। इसी अर्थ से श्राद्धभोजी शब्द सार्थक बन जाता है कि श्राद्ध-नाम श्रद्धापूर्वक बनाये अन्न का खाने वाला। तथा इसी विचार के अनुसार पाणिनीय सूत्र ‘श्राद्धमनेन भुक्तमिनिठनौ’ घट जाता है कि जिसने श्राद्ध का भोजन किया हो, वह श्राद्धी वा श्राद्धिक कहावेगा। यहां भक्ति श्रद्धा से पकाये हुए अन्न का नाम श्राद्ध है। इसी प्रमाण से श्राद्ध शब्द भोजन से होने वाले सत्काररूप कर्म का नाम है, यह निश्चित होता है। अन्यत्र भी जहां-जहां श्रेष्ठ लोगों के बनाये वा माननीय पुस्तकों में श्राद्ध शब्द की व्याख्या दीख पड़ती है, वहां भी भोजन का ही प्रकरण है। लौकिक परिपाटी से भी भोजन सम्बन्धी सत्कार कर्म में श्राद्ध शब्द प्राप्त होता है। अनेक मनुष्य किसी नियत दिन जब किन्हीं ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं, तब कहते हैं कि आज हमारे घर में श्राद्ध है। किन्तु वे लोग पिण्ड आदि नहीं करते, केवल भोजन कराने का नाम भी श्राद्ध बोलते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि भोजन से होने वाले सत्कार कर्म और उस सत्कार के लिये श्रद्धा से बनाये अन्न का नाम श्राद्ध है, यही सत्य सिद्धान्त है।

विवाह, नियोग और पुनर्विवाहों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

विवाह, नियोग और पुनर्विवाहों का विचार

अब गृहाश्रम के प्रसग् में विवाह, नियोग और पुनर्विवाहों का विचार किया जाता है कि इस विषय में मानवधर्मशास्त्र का क्या सिद्धान्त है ? ब्रह्मचर्य आश्रम सेवन के पश्चात् मनुष्य को गृहाश्रम का प्रारम्भ करना चाहिये। उसमें विवाह करना ही गृहाश्रम का मुख्य स्वरूप है। इसी कारण गृह नाम स्त्री के समीप रहने वाला गृहस्थ कहाता है। यदि गृहस्थ शब्द का यह अर्थ माना जावे कि जो गृह नाम घर में रहे वह गृहस्थ है, तो ब्रह्मचारी और वानप्रस्थ भी किसी प्रकार के घर में ही ठहरते हैं, तो उनकी भी गृहस्थ संज्ञा होनी चाहिये। अथवा यदि संन्यासी भी किसी के घर में ठहरा हो तो उसका भी गृहस्थ नाम पड़ना चाहिये। अथवा जिन-जिन के स्त्री नहीं और वे किसी घर में रहते हैं, तो गृहस्थ कहाने चाहियें। पर ऐसी परिपाटी लोक में नहीं है। इस कारण गृह शब्द स्त्री का पर्यायवाचक रखना चाहिये कि जो गृह नाम स्त्री के समीप ठहरे वह गृहस्थ वही गृहाश्रमी भी है। और स्त्री के साथ सम्बन्ध वा मेल होना ही विवाह है। अर्थात् स्त्री उसको अपना पति चित्त से मान ले और पुरुष उस स्त्री को अपनी पत्नी चित्त से मान ले इस प्रकार उन दोनों का परस्पर मन, वाणी और शरीर से सम्बन्ध होना, विवाह पद का अर्थ है। यदि मण्डप रचना पूर्वक कन्या के घर में जो वेदोक्त क्रिया होती अर्थात् मन्त्र पढ़ते वा होमादि करते हैं, उसका नाम विवाह मान लें, तो गान्धर्व, राक्षस और पैशाच विवाहों का नाम विवाह नहीं पड़ेगा क्योंकि उनमें वैदिक मग्लाचरण वा शिष्ट लोगों का स्वीकृत व्यवहार प्रायः नहीं होता। इसीलिये वे निन्दित विवाह माने गये हैं। परन्तु क्षत्रियों में पहले से ही गान्धर्व विवाह की कुछ-कुछ प्रवृत्ति चली आती है। और गान्धर्व विवाह में प्रायः स्त्री-पुरुषों का संयोग पहले ही हो जाता है, और पीछे विवाह का कृत्य अर्थात् कुछ शिष्ट व्यवहार भी होता है। इसमें विवाह की प्रसिद्धि करने से पूर्व प्रायः स्त्री-पुरुषों का संयोग हो जाता है, इसी कारण श्रेष्ठ लोगों में इसकी निन्दा है। यही चाल आजकल इग्लेण्डदेशवासियों में है, कि कन्या और वर की इच्छा से पहले संयोग भी हो जाता है। विवाह में वैदिकप्रक्रिया मन्त्रपाठ वा होमादि करने और अनेक सज्जन पुरुषों के सामने प्रतिज्ञा पढ़े जाने का यही प्रयोजन है, कि एक तो सर्वसाधारण को प्रकट हो जावे, कि अमुक का पुत्र और अमुक की कन्या का विवाह हो गया और द्वितीय उन कन्या वरों की प्रतिज्ञा के अनेक सज्जन लोग साक्षी हो जावें, कि प्रतिज्ञा से विरुद्ध चलने में उन दोनों को भय रहे कि हमको वे लोग धिक्कार देंगे। और तृतीय ऐसे बड़े आजन्म सम्बन्ध होने के प्रारम्भ में सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना करना, कि वह सबका स्वामी सदा हमको धर्म पर चलने की प्रेरणा करे इत्यादि प्रयोजनों के लिये मग्लाचरणरूप वेदी पर कृत्य अवश्य करना चाहिये, पर उस कृत्य का नाम विवाह नहीं है। इसी कारण यदि वेदीमात्र का कृत्य होकर कन्या वर पृथक्-पृथक् हो जावें और फिर उनका मैथुन संयोग होने से पूर्व ही पुरुष का शरीर छूट जावे तो वह कन्या धर्मशास्त्रानुकूल विधवा नहीं मानी जा सकती और ऐसी दशा में उस पुरुष के मर जाने पर उस कन्या का फिर से वेदोक्तरीति का विवाह हो सकता है पर लोक में इससे विरुद्ध चाल पड़ गयी है कि वेदी पर के कृत्य को ही पूरा विवाह समझ लेते हैं, और उस कृत्य के पश्चात् पुरुष के मर जाने से कन्या को विधवा मानकर बैठाल रखते हैं। इसका बड़ा कारण अविद्या है। इस विषय का जिनको विशेष व्याख्यान देखना हो वे “विवाहव्यवस्था” नामक पुस्तक में देखें। इस प्रकरण में तात्पर्य यही है कि वेदी पर जो वेदोक्त मग्लाचरण होता है वह स्वयं विवाह नहीं किन्तु विवाह की प्रसिद्धि प्रार्थना और प्रतिज्ञा होने के लिये है और विवाह का पूर्वरूप है जैसे ज्वर के पूर्वरूप को कोई ज्वर माने वा कहे तो सर्वथा विरुद्ध वा हानिकारक नहीं, वैसे यहां नहीं घटता क्योंकि विवाह शब्द का अर्थ पतिपत्नीभाव से स्त्री-पुरुष का संयोगमात्र न माना जावे तो गान्धर्वादि को विवाह नहीं कह सकते। इसलिये विवाहशब्द का उक्तार्थ ही ठीक है। इसी अर्थ से द्वीपान्तर निवासियों के सम्बन्ध को भी विवाह कह सकते हैं। इस लेख से मेरा यह प्रयोजन नहीं है कि ब्राह्मादि श्रेष्ठ विवाहों में वैदिक मग्लाचरण करना विशेष प्रयोजनीय नहीं, किन्तु आशय यह है कि ब्राह्म आदि शिष्ट विवाह हैं, और जिनमें वेदोक्तक्रिया नहीं होती, वे नीच लोगों के विवाह हैं। इससे ब्राह्मादि उत्तम हैं। और ब्राह्मणादि वर्णों को वैसे ही करना चाहिये। पर वेदी की क्रिया मात्र को विवाह समझ लेने से ही अनेक कन्या निरपराध विधवा मानकर बैठा रखी हैं, यही बड़ी हानि है, यदि विवाह का ठीक अर्थ समझ लें तो जिनका पुरुष से संयोग नहीं हुआ वे कन्या वास्तव में विधवा नहीं। उनका विवाह भी नहीं हुआ तो अब उनका ठीक विवाह निःसन्देह कर देना चाहिये यही मेरा प्रयोजन है।

विवाह के आठ भेद हैं, अर्थात् मनुष्य जाति भर में आठ प्रकार के ही विवाह माने जा सकते हैं। उनके नाम ब्राह्म, दैव आदि हैं। इनका विशेष व्याख्यान वहीं तृतीयाध्याय के भाष्य में होगा। परन्तु इस प्रसग् में इतनी शटा हो सकती है कि स्वयंवर विवाह कौन है ? इसका उत्तर यह है कि स्वयंवर इन आठ से भिन्न कोई विवाह नहीं, किन्तु मुख्यकर प्राजापत्य के अन्तर्गत आ सकता है, क्योंकि उसमें कन्या-वर दोनों परस्पर पहले प्रतिज्ञा कर लें, कि हम दोनों परस्पर प्रसन्न हैं, गृहाश्रम में धर्म करेंगे, ऐसा वाणी से कहकर वेदोक्त विधि से विवाह किया जाय, वह प्राजापत्य है। पद्मावती आदि के स्वयंवर में यही हुआ भी है कि पहले वर-कन्या की परस्पर प्रसन्नता होकर विवाह हुए हैं। इसीलिये इसको चार प्रशस्त विवाहों में रखा है कि जो आर्यों को करना चाहिये।

विवाह प्रसग् में एक पुरुष को एक ही स्त्री के साथ विवाह करना चाहिये। यह वार्त्ता ‘पुत्र-पौत्रों के साथ आनन्द करते हुए दोनों स्त्री-पुरुष गृहाश्रम में धर्म का सेवन करें’।१ इस अथर्वमन्त्र में द्विवचन का ग्रहण होने से ही निश्चय होती है कि यही वेद का सिद्धान्त है। और यही सनातन धर्म है कि एक पुरुष एक ही सवर्ण स्त्री के साथ विवाह करे। ऐसा होने पर जो कोई कामी पुरुष अपने वर्ण की वा अन्य वर्णों की अनेक स्त्रियों के साथ विवाह करते हैं, वे वेदविरुद्ध हैं। और पूर्वकाल में किन्हीं प्रतिष्ठित पुरुषों ने भी ऐसा किया तो जानो वेदविरुद्ध किया। अर्थात् कई विवाह कर लेने से किसी की प्रतिष्ठा नहीं होती किन्तु प्रतिष्ठा के हेतु उन लोगों के अन्य श्रेष्ठ काम थे [यद्यपि असवर्ण वा अनेक स्त्रियों के साथ विवाह करना धर्मानुकूल वा प्रशंसा योग्य सुख का हेतु काम नहीं है, तथापि उससे भी अधिक निकृष्ट कर्म की अपेक्षा वह अच्छा है। अर्थात् अपने से उच्च वर्ण की कन्या से विवाह करना अत्यन्त बुरा है। इसलिये यदि असवर्णों के साथ विवाह किसी कारण करना ही पड़ता हो, वा अपने वर्ण की योग्य अनुकूल कन्या नहीं मिलती हो, तो अपने से नीचे वर्ण की कन्या से विवाह कर लेना चाहिये। इसका प्रयोजन यह है कि पुरुष का अंश उत्तम और स्त्री का कुछ निकृष्ट रहने से सन्तान ठीक धर्मात्मा वा विचारशील उत्पन्न होते हैं। जैसे अन्य पदार्थों के मेल से वस्तु बनते हैं, वहां भी यह नियम रहता है कि अमुक-अमुक इस-इस प्रकार का इतना-इतना पदार्थ मिलने से अमुक वस्तु ठीक बनेगा। इसी कारण वैसा ठीक मेल न मिलने से अनेक वस्तु बिगड़ जाते हैं। इस पर कुछ अधिक समाधान की आवश्यकता नहीं, जो कोई निश्चय करना चाहे वह प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है, अर्थात् एक ब्राह्मण से शूद्र की कन्या में उत्पन्न हुए और एक शूद्र से ब्राह्मणी में उत्पन्न हुए सन्तानों के गुण-कर्म-स्वभाव का कितना भेद पड़ता है ?] तो भी जो कामी लोग सामान्य प्रकार से अर्थात् निषिद्ध माता, भगिनी पक्ष की स्त्रियों के साथ भी व्यभिचार करते हैं, अथवा वेष्याओं का सेवन करते हैं, उनकी अपेक्षा अनेक विवाह करने वाले कामी लोग सुखी वा धर्मात्मा होते हैं। इस प्रकार कामी पुरुषों को भ्रूणहत्यादि महापातकों से रोकने के लिये यह उपाय वा किन्हीं का मत अच्छा है, कि जो अनेक स्त्रियों के साथ विवाह कर लेना चाहिये अर्थात् निषिद्ध स्त्रियों और वेष्याओं के साथ विवाह करने की अपेक्षा कामासक्त पुरुषों को अनेक विवाह करके निर्वाह करना अच्छा है। किन्तु एकस्त्रीव्रत वाले सनातन धर्मी की अपेक्षा से वे कामी उत्तम नहीं हैं। इसीलिये इस मनुस्मृति के तृतीयाध्याय में लिखा गया है कि जो कामासक्ति के साथ प्रवृत्त हैं, उनके लिये आगे कही गई अन्य वर्णों की स्त्रियों के साथ भी विवाह हो सकता है। इसमें दो पक्ष हैं कि अनेक स्त्रियों के साथ विवाह करने वाले को अपने वर्ण की अनेक स्त्रियां न हों वा किसी कारण न प्राप्त हो सकें तो अपने से नीचे वर्ण की अन्य स्त्रियों के साथ विवाह करना चाहिये। उनमें ब्राह्मण को क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की कन्याओं के साथ विवाह कर लेना चाहिये, यह किन्हीं का मत है, और अन्य मनु आदि के मत में तो ब्राह्मण, क्षत्रियों को शूद्र की कन्या के साथ कदापि विवाह न करना चाहिये। यह अनेक धर्मात्माओं और मानवधर्मशास्त्र का मत है। यद्यपि नीति वालों के कहने वा मानने के अनुसार स्त्री सम्बन्धरूप विवाह के दो फल हैं। जैसे नीति में लिखा है कि ‘रति और पुत्र ये दो फल स्त्री के हैं।’१ परन्तु धर्मशास्त्रों के सिद्धान्त से सन्तानों की उत्पत्ति ही मुख्य फल है, किन्तु रतिमात्र चाहने वाले पुरुष धर्मात्मा नहीं हो सकते। जैसे कहा है कि ‘जो अर्थ- धनादि और काम भोग में आसक्त नहीं हैं, उनके लिये धर्म का उपदेश किया गया है’२ अर्थात् जो धनादि की प्राप्ति और कामभोग में आसक्त हैं, अर्थात् तृष्णारूप नदी में गोता खा रहे हैं, उनको धर्म का ज्ञान नहीं होता। इससे स्त्री का सम्बन्ध होने पर यदि पुत्रादि उत्पन्न हों, तो गृहाश्रम की सफलता है, अन्यथा निष्फल है। इसी कारण नीति में लिखा है कि- ‘सन्तति न हो तो मैथुन करना शोचनीय है।’३ इसी कारण विवाह करने से पूर्व ही मन में फल का अनुसन्धान करने के लिये और उत्तम सन्तान होने के लिये उपाय दिखाये गये हैं, कि यह कार्य इस प्रकार किया हुआ सफल और अच्छा फलदायक होता है वा होगा। और विरुद्ध अनिष्ट फल को हटाने के लिये कहा है, कि इस-इस प्रकार की कन्या के साथ विवाह न करना चाहिये।

सम्यक् विचार पूर्वक भी यदि विवाह किया जाय और किसी कारण फल-सिद्धि न हो, और दो में से एक मर जावे। उनमें यदि अक्षतयोनि स्त्री     विधवा हो जावे, अर्थात् पति मर जावे, अथवा विरक्त साधु, पतित, नपुंसक और असाध्यरोगी और सन्तानों के उत्पन्न कर सकने में अशक्त किसी प्रकार हो जावे, तो उस स्त्री को दूसरे पति से विवाह कर लेना चाहिये। और उसके पिता वा भाई को उचित है कि अन्य पुरुष के साथ सम्बन्ध कर दें। ‘वह कन्या यदि अक्षतयोनि हो तो पौनर्भव नामक पुरुष के साथ उसका पुनर्विवाह करना चाहिये।’१ इत्यादि वचनों से मनु जी ने भी अक्षतयोनि कन्या का पुनर्विवाह कहा है। तथा कात्यायन स्मृति में लिखा है कि ‘मन-वाणी से स्त्री को स्वीकार करके जो कोई पुरुष मर जावे और उस कन्या से संयोग न हुआ हो तो कन्या अन्य वर को तीन मास पीछे स्वीकार कर लेवे। तथा वेदी सम्बन्धी विवाह क्रिया हुए पश्चात् वर अन्य वर्ण का अर्थात् अपने से नीच वर्ण का निकले, वा पतित, नपुंसक, दुष्कर्मी, सगोत्र, शूद्र अथवा दीर्घरोगी निकले तो विवाह हो जाने पर भी उस कन्या का विवाह अन्य अच्छे निर्दोष वर के साथ कर देना चाहिये।’२ इत्यादि प्रमाणों से सिद्ध है कि अक्षतयोनि कन्या का पुनर्विवाह वैदिकरीति से ही कर देना चाहिये। युक्ति से भी यही सिद्ध होता है कि जैसे जगत् में जो कार्य जिस प्रयोजन वा फल के लिये आरम्भ किया जाता है, वह यदि किसी प्रकार निष्फल हो जावे, तो उसको फिर भी करते हैं। अर्थात् दो बार, तीन बार आदि भी करते हैं कि जब तक सफल न हो, तब तक बार-बार करते हैं। जैसे क्षुधा की निवृत्ति के लिये अन्न पकाते हैं। यदि वह पाक किसी प्रकार सफल न हो, तो फिर पाक किया जाता है। वैसे ही यहां भी एक वा दो विवाहों से फल सिद्ध न हो, तो बार-बार कई विवाह करने चाहियें। उन्हीं की नियोग संज्ञा पड़ती है, इसी प्रकार अनेक नियोग निकलते हैं। और विवाह का अवान्तर भेद पुनर्विवाह वा नियोग है। उनमें अक्षतयोनि कन्या का पति मर जाने वा किसी प्रकार सन्तानोत्पत्तिरूप फल सिद्ध करने में असमर्थ होने पर पुनर्विवाह करना चाहिये, और उसमें मरणपर्यन्त स्त्री-पुरुषों का सम्बन्ध बना रहता है, इस कारण उसको पुनर्विवाह कहते हैं। क्षतयोनि स्त्री का पुत्रादि के अभाव में सन्तानोत्पत्ति के लिये ही नियोग करना चाहिये। नियोग में उन-उन स्त्री-पुरुषों का सम्बन्ध दो पुत्रों की उत्पत्ति पर्यन्त ही रखा जाता है। ये पुनर्विवाह और नियोग दोनों आपद्धर्म हैं। इसी कारण सबको नियोग वा पुनर्विवाह करने नहीं पड़ते। यदि कोई स्त्री वा पुरुष सनातनधर्मरूप ब्रह्मचर्य के साथ नहीं रह सकता हो, और व्यभिचार के साथ गर्भपातादि पाप करावे वा अनेक विपत्तियां भोगे, उसकी अपेक्षा पुनर्विवाह वा नियोग द्वारा निर्वाह करना उत्तम है। जब विवाह का भी किन्हीं के मत में नियम वा बन्धन नहीं है। यदि कोई पुरुष वा स्त्री विवाह करना ना चाहे, वह विवाह न करके जन्म भर ब्रह्मचर्य आश्रम के साथ रहे, तो जिसकी स्त्री वा जिस स्त्री का पति मर जावे, उस पर शास्त्र का बन्धन क्यों कर हो सकता है ? कि जो उसको विवाह करना ही चाहिये। किन्तु इस अंश में दोनों स्त्री-पुरुष स्वतन्त्र हैं, चाहें विवाह करें वा न करें। जो लोग नियोग और पुनर्विवाह करते हैं, उनकी अपेक्षा से ब्रह्मचर्य में स्थित स्त्री-पुरुष अतिश्रेष्ठ हैं। परन्तु जन्मभर ब्रह्मचर्याश्रम के साथ रहना भी अति कठिन है। साधारण लोग ऐसा नहीं कर सकते, किन्तु कोई विचारशील ब्रह्मचर्य के तेज को सह सकता है। नियोग का विधान नवमाध्याय में किया है, उसका विशेष व्याख्यान भी वहीं देखना चाहिये। वहां नियोग विधान किये पश्चात् चार श्लोकों से नियोग का खण्डन भी किया है, उसकी समीक्षा नवमाध्याय के प्रक्षिप्त प्रसग् में होगी। सन्तान चाहने वाली क्षतयोनि स्त्री को नियोग करना चाहिये, यह मानवधर्मशास्त्र का सिद्धान्त है। नियोग का आपद्धर्म होना, मनु जी ने नवमाध्याय में स्वयमेव स्वीकार किया है, कि- ‘अब आगे स्त्रियों के आपत्काल का धर्म कहेंगे।’१ अनेक लोग इस विषय में विरुद्ध निश्चय किये हुये हैं कि कलियुग में नियोग नहीं करना चाहिये। और उन लोगों ने ऋषियों के नाम से बनाये धर्मशास्त्राभासों में लिखा भी है कि- ‘घोड़े का मारना-          अश्वमेध, गौ का मारना- गोमेध, संन्यास धारण करना, मांस के पिण्ड देना और नियोग करना, ये पांच कर्म कलियुग में न करे।’२ इत्यादि। यह वेद से विरुद्ध और प्रमादी लोगों का कहा वचन है, क्योंकि वेद जैसे पवित्र पुस्तक में घोड़े का मारना आदि घृणित काम कैसे हो सकता है ? अर्थात् वेद धर्म का मूल है और अहिंसा को सब लोग परम धर्म मानते हैं। यदि वेद में घोड़े आदि की हिंसा हो तो वह धर्म का मूल नहीं हो सकता। इस अंश के विशेष व्याख्यान करने का यहां अवसर नहीं। संन्यास और नियोग अवसर, योग्यता वा अधिकार के अनुसार करने चाहियें। इसीलिये वेद के नियोग प्रकरण में लिखा है कि- ‘वैसे संवत्सर वा समय आगे आवेंगे कि जब कुलस्त्री लोग अनुचित व्यभिचारादि कर्म करेंगी, उन समयों में नियोग करना चाहिये।’१ इससे नियोग वेदानुकूल सिद्ध होता है। तिससे गर्भहत्या न होने के लिये और आपत्काल में विधवाओं का निर्वाह करने के लिये योग्यतानुसार नियोग वा पुनर्विवाह अवश्य करने चाहियें। और जब भूख लगती है, तब उसकी निवृत्ति के लिये बुद्धिमान् को अवश्य यत्न करना चाहिये। जिन पुस्तकों में भूख न लगने पर भी भोजन देने का विधान है, वे धर्मशास्त्र नहीं। जब जैसे कर्म से मनुष्यों के दुःख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति होती है, उस काल में वैसे कर्मों के सेवन के लिये जिन पुस्तकों में आज्ञा लिखी है, वे ही वेदादि श्रेष्ठ पुस्तक धर्मशास्त्र कहाने योग्य हैं। और धर्मशास्त्र बनाने का यही प्रयोजन है कि जो उनमें कहे मार्ग से चलते हुए मनुष्य दुःखों को न प्राप्त हों और यथासमय सुखों को अवश्य प्राप्त हों। जिन पुस्तकों में समयानुसार दुःख से बचने का उपाय नहीं दिखाया गया, वे धर्मशास्त्र नहीं हैं। इस कारण नियोग के निषेध करने वालों का धर्मशास्त्र न होना ही प्रामाणिक न होने में हेतु है। इससे सामयिक दुःखों की निवृत्ति के लिये विचारशील धर्मात्मा लोगों को आपत्काल में नियोग से धर्म की रक्षा करनी चाहिये, यह मानवधर्मशास्त्र का सिद्धान्त वा आशय है।

द्वितीय अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब द्वितीयाध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा करते हैं। इस अध्याय पर व्यूलरसाहब ने कहा है कि “यद्यपि द्वितीयाध्याय से लेकर षष्ठाध्यायपर्यन्त सब कथन मनुस्मृति में धर्मसूत्रों के अनुकूल है, तो भी बीच-बीच में कहीं-कहीं पीछे से श्लोक मिलाये जान पड़ते हैं। जैसे- इस द्वितीयाध्याय में प्रारम्भ से ११ ग्यारह श्लोक पीछे किन्हीं ने मिलाये हैं। अर्थात् १-५ तक श्लोक किसी भी धर्मशास्त्र के आशय से नहीं पाये जाते। छठा श्लोक पुनरुक्त है, क्योंकि बारहवें में यही बात कही गयी है, जो छठे में है। सातवें पद्य में आत्मश्लाघा दोष है, अर्थात् अपने आप ही प्रशंसा की है। आठवें और नववें श्लोक में फल दिखाया गया है तथा दशवें, ग्यारहवें श्लोकों में तर्क का निषेधरूप दोष आता है, क्योंकि धर्म विषय की तर्क से अवश्य परीक्षा करनी चाहिये। इस प्रकार आदि के ११ श्लोक प्रक्षिप्त हैं” इत्यादि।

इसका उत्तर यह है कि- यह नियम नहीं कर सकते कि जो एक किसी     धर्मशास्त्र में हो और सबमें न हो वह प्रक्षिप्त माना जावे। क्योंकि सब लोग बराबर नहीं कह सकते, अर्थात् आप ही पहले कही बात का प्रत्यक्षर अनुवाद कोई नहीं कर सकता। इस समय भी पुस्तक बनाने वाले विद्वान् लोग एक ही विषय में अपने-अपने अनुभव को लेकर न्यूनाधिक लिखते वा कहते हैं, उनमें किसी का कथन प्रक्षिप्त वा प्रामादिक नहीं समझा जा सकता। किन्तु जो प्रकरण-विरुद्ध,    धर्म-विरुद्ध वा पक्षपात-युक्त हो वही प्रक्षिप्त है। किन्तु किसी अन्य की अपेक्षा से अधिक कथन प्रक्षिप्त नहीं है।

और जो छठे, बारहवें श्लोकों में पुनरुक्त दोष दिया, सो भी ठीक नहीं, क्योंकि उन दोनों के अभिप्राय में भेद है। और कदाचित् पुनः वही बात कही भी गयी हो, तो अनुवादार्थ मानने में दोष नहीं। छठे श्लोक में धर्म का मूल दिखाया, और बारहवें में साक्षात् धर्म का स्वरूप कहा है। छठे में मनु जी का मत दिखाया गया है, और बारहवें में अपने मत का अनुवाद करके अपना मत पुष्ट करने के लिये अन्य लोगों की सम्मति “आहुः” क्रिया से दिखायी है। इस प्रकार मानने से पुनरुक्ति दोष नहीं आता। सातवां श्लोक किसी प्रकार आत्मश्लाघा दोष से युक्त हो, तो वहां भी भृगु ने मनु जी की प्रशंसा की है, इससे आत्मश्लाघा नहीं है। मनु जी की प्रशंसा करने से भृगु का अभिप्राय यह है कि- इस मानवधर्मशास्त्र के पढ़ने वाले लोग मन में गौरव रखके इस शास्त्र को पढ़ें, विचारें, किन्तु सहसा वेदविरुद्ध न मान लेवें। आठवें, नववें श्लोकों में जो फलश्रुति है, वह रुचि बढ़ाने के लिये अर्थवाद है। जिस वस्तु की गुण-कीर्त्तन रूप स्तुति की जाती है, उसमें मनुष्य श्रद्धा करते हैं, इसलिये अर्थवाद सफल ही है। दशवें, ग्यारहवें श्लोक तर्क के निषेध करने वाले नहीं हैं, किन्तु आशय यह है कि- वैसा तर्क न करना चाहिये, जिससे वेद और वेदानुकूल स्मृति का भी खण्डन हो जावे, अथवा बौद्ध वा सौगत आदि नाम वाले नास्तिक लोग जैसे तर्क का आश्रय लेते हैं, वैसा तर्क नहीं करना चाहिये। “जो तर्क के साथ अनुसन्धान करता है, वह ठीक धर्म को जान लेता है, अन्य नहीं” इस प्रकार कहे बारहवें अध्याय के वचन से सूचित होता है कि धर्म की रक्षा और धर्म को सिद्ध करने के लिये तर्क करना चाहिये, किन्तु धर्म वा धर्म को कहने वाले शास्त्र के खण्डन के लिये तर्क नहीं करना चाहिये, यह बात इस द्वितीयाध्याय के दसवें, ग्यारहवें श्लोकों से जतायी गयी है। जैसे दुष्ट को मारने के लिये शस्त्र चलाना चाहिये, किन्तु अपना शरीर काटने के लिये नहीं। जैसे शस्त्र से सब उचित-अनुचित का छेदन हो सकता है, वा जैसे गम्या-अगम्या दोनों में मैथुन हो सकता है, पर तो भी उचित का छेदन और गम्या में मैथुन करना चाहिये, यह शास्त्रों में विधान किया गया है। वैसे ही तर्क से उचित का ही खण्डन करना चाहिये तथा रक्षा करने के योग्य धर्म वा धर्मशास्त्र की रक्षा करनी चाहिए, यह तात्पर्य है।

और जो व्यूलरसाहब ने यह कहा कि तेरह आदि अनेक श्लोक द्वितीय अध्याय में अन्य धर्मशास्त्र से अधिक कहे हैं। इसका उत्तर भी मैंने दे दिया है। परन्तु किसी से यह अधिक है, इसलिये दूषित है यह नहीं हो सकता। तथा इस द्वितीयाध्याय में व्यूलरसाहब के कथनानुसार अठासीवें श्लोक से लेकर सौवें श्लोक पर्यन्त प्रकरण विरुद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं, ऐसा प्रतीत होता है। इन (८८- १००) पद्यों के पूर्व और पर सन्ध्या का प्रकरण है। बीच में जितेन्द्रियता का प्रसग्, इन्द्रियों का परिगणन, अवान्तर भेद और उनको विषयों से रोकने का उपाय इत्यादि कथन विरुद्ध है, उस विषय का मानवधर्मसूत्रों में वर्णन नहीं था और था तो अति संक्षेप से था। उसी को भृगु ने पद्य बनाते समय विस्तार पूर्वक वर्णन किया, ऐसा अनुमान होता है। और सन्ध्या कर्म में जितेन्द्रियता का भी बड़ा उपयोग है, क्योंकि जिसके वश में अपने इन्द्रिय नहीं, वह सन्ध्या के फल का भागी कदापि नहीं हो सकता। इस कारण यद्यपि उक्त तेरह श्लोकों का आशय मनु जी का कहा नहीं था, तथापि उनमें धर्म से वा वेद से विरोध वा पक्षपात नहीं प्रतीत होता, जिससे वे श्लोक किसी प्रकार दूषित कहे जावें। इस प्रकार व्यूलरसाहब ने द्वितीयाध्याय पर जो कुछ कहा है उसका उत्तर जानो।

इस अध्याय में बावनवां श्लोक भी विचारणीय है, अर्थात् इस श्लोक में जो बात कही है कि “अवस्था चाहने वाला पूर्व को मुख कर, यश चाहने वाला दक्षिण को, लक्ष्मी चाहने वाला पश्चिम को और सत्य चाहने वाला उत्तर को मुख कर भोजन करे” यह असम्भव है। क्योंकि जब चार ही दिशाएं हैं, तो कभी किसी और कभी किसी दिशा में मुख कर के भोजन करना ही पड़ेगा। तो प्रत्येक मनुष्य सब दिशाओं में मुख कर के भोजन कर सकते हैं, यदि वैसा फल होना सम्भव हो तो, सभी मनुष्य चारों फल के भागी होवें, पर यह बात प्रत्यक्ष से भी विरुद्ध है, अर्थात् प्रत्यक्ष में सब मनुष्यों में वैसे फल नहीं दीखते अर्थात् प्रायः पश्चिम को मुख कर भोजन करने वाले सैकड़ों दरिद्री दीख पड़ते हैं। यदि कहो कि यज्ञोपवीत होते समय प्रथम मांगी हुई भिक्षा के भोजन में ब्रह्मचारी को यह फल होता है, ऐसा मानने पर भी वही दोष है। अर्थात् ब्रह्मचारी भी किसी दिशा को मुख कर स्वयमेव भोजन करेगा, तो किसी न किसी प्रकार फल सबको होना चाहिये, सो भी ठीक सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि ब्रह्मचारी वा अन्य मनुष्य वैसे फलभागी नहीं मिलते, किन्तु अल्पायु और दरिद्रादि विपरीत तो दीख पड़ते हैं। इससे अनुमान होता है कि यह श्लोक प्रक्षिप्त है।

इस द्वितीयाध्याय का छासठवां श्लोक भी विचारणीय है। उसमें लिखा है कि कन्याओं के जातकर्मादि संस्कार बिना मन्त्र पढ़े करने चाहियें। इस पर शटा होती है कि ऐसा क्यों करें ? यदि शरीर के संस्कार में मन्त्रपाठ भी हेतु है, तो शरीर का संस्कार वा शुद्धि होने के लिये सब क्रिया ज्यों की त्यों करें, यह कथन विरुद्ध पड़ता है। क्योंकि शुद्धि के लिये उपाय करना कहा जावे और शुद्धि के हेतु मन्त्र पढ़ने का निषेध किया जाय, यह परस्पर विरुद्ध है। यदि कदाचित् मानते हों कि शूद्र के तुल्य स्त्रियां नीच हैं, इससे उनको वेद के सुनने का अधिकार नहीं, तो विवाह में भी उनका मन्त्रों से संस्कार नहीं करना चाहिये। क्योंकि वहां भी वे मन्त्र सुन लेंगी। विवाह में जब स्वयमेव स्त्रियों को मन्त्र बोलने की आज्ञा देते हैं। तो सुनने की क्या कथा है। इससे अनुमान होता है कि मन्त्र सुनने वा बोलने में स्त्रियों को दोष नहीं है। यह बात अनेक आर्ष पुस्तकों में अर्थात् कहीं-कहीं कर्मकाण्ड सम्बन्धी गृह्यसूत्रादि में भी मिलती है कि स्त्रियों के जातकर्मादि संस्कार मन्त्र बिना पढ़े करने चाहियें। इससे अनुमान होता है कि पूर्वकाल में भी किन्हीं-किन्हीं ऋषि लोगों की ऐसी सम्मति होगी। परन्तु उस सम्मति के एकदेशी होने से सब को ग्राह्य नहीं। अर्थात् सब ऋषियों का ऐसा मत नहीं है। और वेद सम्बन्धी सिद्धान्त भी यह नहीं हो सकता। यदि वेद पढ़ने वा सुनने का स्त्रियों को अधिकार न हो तो वेद में भी निषेध मिलना चाहिये, सो नहीं दीखता। यदि कोई कहे कि वेद में ‘स्त्रियों को वेद पढ़ाना चाहिये’ ऐसा विधान भी नहीं मिलता, तो उत्तर यह है कि जैसा विधान पुरुषों को मिलता है, वैसा ही स्त्रियों के लिये है। अर्थात् जैसा कहा गया कि वेद पढ़ना चाहिये तो जिन-जिन पुरुषों को पढ़ना आवेगा उन-उन की स्त्रियों को भी पढ़ाना अवश्य उपयोगी है। इस प्रसग् में प्रमाणों का संग्रह इसलिये नहीं किया कि यह लेख अधिक न बढ़ जावे। पीछे किसी अवसर पर कुछ प्रमाण भी लिख देंगे। जो-जो कर्म वेदादिशास्त्रों में ब्राह्मणादि वर्णों को कर्त्तव्य मानकर कहे गये हैं, वे उन-उन की स्त्रियों को भी वैसे ही कर्त्तव्य हैं। क्योंकि स्त्री पुरुष की अर्द्धाग्ी है। स्त्री-पुरुष दोनों मिल कर पूरे हैं, अकेले-अकेले    अधूरे हैं, तो जो काम पुरुष के लिये कहा गया, उसके अच्छे-बुरे फल में स्त्री स्वयमेव अधिकारिणी हो सकती है। इसलिये जहां पुरुष को अधिकार है, वहां उसकी स्त्री को भी अवश्य होना चाहिये। जब स्त्री के शरीर से बने हुए बालकों को अधिकार है, तो उन बालकों की उपादानकारण स्वरूप स्त्रियों को अधिकार न माना जावे, यह पक्षपात मात्र है। अथवा क्या यह बड़ा प्रमाद नहीं ? कदाचित् कहो कि जो स्त्रियां वेदादिशास्त्र पढ़ने में असमर्थ हैं, उनको अधिकार नहीं है, तो वैसे असमर्थ निर्बुद्धि पुरुषों को भी अधिकार नहीं है। स्त्रियों को अधिकार न देने से पुरुष भी विद्या-बुद्धि रहित बिगड़े संस्कारों वाले स्त्रियों के तुल्य नीच प्रकृति वाले उत्पन्न होते हैं। यही इस देश की दुर्दशा का बड़ा हेतु है। पहले जब विद्या और धर्मनीति की शिक्षादि को प्राप्त करा के स्त्रियों का शारीरिक वा आत्मिक संस्कार किया जाता है, तो उन शुद्ध संस्कार को प्राप्त हुई स्त्रियों में बालक भी शुद्ध, संस्कारी, शुभगुण सम्पन्न उत्पन्न होते हैं। यही बात सुश्रुत के शारीर स्थान में कही भी है कि ‘स्त्री-पुरुष जैसे भोजन, छादन, आचरण और चेष्टा के साथ गर्भाधान समय में संयोग करते हैं, उनका पुत्र भी वैसे आचरण वा चेष्टा वाला होता है।’१ मनुष्य के आहार, आचरण और चेष्टा विद्या, शिक्षा के अनुसार होते हैं। अर्थात् विद्वान् और मूर्ख दोनों एक से आचार-विचार नहीं रख सकते, किन्तु स्वयमेव चेष्टादि बदल जाते हैं। इसलिये स्त्रियों को वेदादि शास्त्र पढ़ाने और सुनाने चाहियें, जिससे मूल के संस्कार युक्त होने से वृक्षरूप पुत्रादि संस्कारी हों। ‘यह स्त्री प्राणियों के उत्पन्न होने के लिये खेत के तुल्य पृथिवी है।’१ अर्थात् जैसे पृथिवी में सब अन्नादि उत्पन्न होते हैं, वैसे स्त्रीरूप खेत में मनुष्यादि प्राणी उत्पन्न होते हैं, प्राणियों की उत्पत्ति का खेत स्त्री है, यह आशय ऊपर कहे मनु जी के वाक्य से निकलता है। पुरुष के शरीर में जितना रस, रुधिर आदि धातुओं का समूह है, वह सब बाल्यावस्था में प्रथम माता के शरीर से आया है, वह मातारूप स्त्री यदि किसी प्रकार नीच ठहराई जावे, तो बालक के उत्तम होने में क्या हेतु है ? इस प्रकार पुरुष के तुल्य स्त्रियों का भी पठन-पाठन में अधिकार सिद्ध होने पर छासठवां श्लोक प्रक्षिप्त प्रतीत होता है। तथा आगे कहे सरसठवें श्लोक के साथ विरोध भी है। अर्थात् सरसठवें श्लोक में मनु जी ने स्त्रियों के सब कर्म वैदिक कहे हैं। इसमें विशेष होगा सो वहां यथावसर कहेंगे। इस प्रकार इस द्वितीयाध्याय में दो ही श्लोक प्रक्षिप्त ठहरते हैं, तो शेष २४७ श्लोक ठीक समझने चाहियें। अब यहां लिखना समाप्त करते हैं।

गर्भाधानादि संस्कारों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

गर्भाधानादि संस्कारों का विचार

अब द्वितीयाध्याय की समीक्षा की जाती है। द्वितीयाध्याय के प्रारम्भ से लेकर षष्ठाध्याय पर्यन्त गर्भाधानादि वेदोक्त तथा वेदमूलक षोडश संस्कारों का वर्णन है। संस्कार सोलह ही हैं न्यूनाधिक नहीं, इस पर व्यासस्मृति में लिखा है कि-

“गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुण्डन, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्त्तन, विवाह, विवाहाग्नि का ग्रहण-[चतुर्थी कर्म वा इसी को गृहाश्रम-संस्कार भी कह सकते हैं।] और त्रेताग्निसंग्रह [इसी का नाम वानप्रस्थ संस्कार भी कह सकते हैं।]” ये सोलह संस्कार शास्त्रकारों ने माने हैं।

इनमें से केशान्त संस्कार अनुमान से एकदेशी प्रतीत होता है, और दशकर्मपद्धति बनाने वाले ने भी केशान्त संस्कार नहीं माना। तथा श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने भी अपनी संस्कारविधि में केशान्त संस्कार नहीं लिया। दाढ़ी मूंछ वा बगलों के बनाने का आरम्भ जिस पहले दिन हो उसको केशान्त संस्कार कहते हैं। यदि व्यासस्मृति के “केशान्तः स्नानम्” पदों में विसर्ग को अशुद्ध मानें और यह अर्थ मानें कि जिसमें सब केश मुड़ा दिये जावें, ऐसा स्नान- समावर्त्तन, तो संस्कार सोलह नहीं हो सकते, किन्तु १५ ही रहते हैं, जो कि इष्ट नहीं हैं। तथा मनुस्मृति में केशान्त संस्कार माना है कि- “ब्राह्मण का सोलह वर्ष पर केशान्त हो।” तथा व्याससंहिता की अपेक्षा स्वामी जी ने संन्यास और अन्त्येष्टि दो संस्कार अधिक लिये हैं, इस कारण उनकी संस्कारविधि में सत्रह संस्कार हो जाते हैं। उनमें किसी को किसी के अन्तर्गत करके वा अन्य किसी प्रकार समाधान करना होगा। अर्थात् संस्कार सोलह ही हैं, यह तो सर्वतन्त्र सिद्धान्त से सिद्ध है, इसमें किसी का परस्पर विरोध नहीं है। यद्यपि दशकर्मपद्धति पुस्तक बनाने वाले पण्डितों ने दश ही कर्म कहे हैं, तो भी उन्होंने संस्कारों की सोलह संख्या का खण्डन नहीं किया, किन्तु उपनयन, वेदारम्भ और समावर्त्तनरूप तीन संस्कारों को लौकिक चाल के अनुसार एक ही कर्म माना है, इस कारण दस कहने से बारह तो आ जाते हैं। समय के बिगड़ जाने से वानप्रस्थ और संन्यासधारण तथा अन्त्येष्टिकर्म की प्रवृत्ति नहीं रही, ऐसा मानकर दशकर्मपद्धति में उक्त तीनों संस्कार नहीं रखे। इसलिये उसमें यही न्यूनता है। क्योंकि जिस शुभकर्म की प्रवृत्ति न रही हो वा न्यून हो गयी हो, उसकी विशेष प्रवृत्ति करनी चाहिये। इस प्रकार संस्कार सोलह ही मानने चाहियें, यह सिद्धान्त है।

व्याससंहिता में पढ़े त्रेताग्नि संग्रह शब्द से वानप्रस्थ संस्कार का ग्रहण हो जायेगा। और उसमें संन्यास आश्रम भी आ सकता है, क्योंकि घर से निकल कर विरक्त होना दोनों में तुल्य है। इस प्रकार अन्त्येष्टि नामक एक संस्कार व्याससंहिता से अधिक बचता है, जिसको श्री स्वामी दयानन्दसरस्वती जी ने माना है। उसको संस्कार बुद्धि से मानने में “गर्भाधान से श्मशान पर्यन्त जिसके संस्कार वेद से कहे गये हैं” यह मनुस्मृति का वचन ही प्रमाण है। इस कारण अन्त्येष्टि को संस्कार मानना निर्मूल नहीं है।

इन सोलह संस्कारों में कुछ प्रधान और कुछ गौण हैं। मुख्य संस्कारों का विशेष कर वर्णन है। और गौणों का संक्षेप में। इस प्रकार इस मनुस्मृति के द्वितीयाध्याय के दस श्लोकों में गर्भाधानादि मुण्डन पर्यन्त संस्कारों का वर्णन है। और द्वितीयाध्याय के दो सौ चौदह श्लोकों में केवल यज्ञोपवीत और वेदारम्भ संस्कारों का वर्णन है। अतः इन दो सौ चौदह श्लोकों में से एक पैंसठवें श्लोक में केशान्त और ६६-६७ में स्त्री के संस्कार विषय में सामान्य कथन है। इस कारण संस्कारों में ये ही दोनों सबसे मुख्य हैं। क्योंकि इन्हीं दोनों संस्कारों के होने से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य द्विज बनते और कहाते हैं। प्राणिमात्र के जगत् में जितने इष्टसिद्धि के प्रयोजन हैं, उन सबमें सुख की प्राप्ति और दुःख के त्याग की इच्छा ही मुख्य प्रयोजन है। इन दोनों की सिद्धि में सर्वोपरि प्रधान साधन विद्या के अभ्यास से अन्तःकरण की शुद्धि करना है। और वह विद्या का अभ्यास ब्रह्मचर्य आश्रम के नियमों का यथावत् सेवन करने पूर्वक और गुरु की सेवा-शुश्रूषा पूर्वक आश्रम की समाप्ति पर्यन्त निरन्तर किया हुआ सफल होता है। और वह पुरुष (जिसने पूर्ण विद्याभ्यास कर लिया है) संसार और परमार्थ के सुख भोगने का पात्र बनता है। इस प्रकार सुख का मूल होने से सब आश्रमों में ब्रह्मचर्य आश्रम प्रधान है। और ब्रह्मचर्य आश्रम के आरम्भसूचक होने से दोनों संस्कारों (यज्ञोपवीत-वेदारम्भ) की प्रधानता है। संस्कार दो प्रकार के हैं- एक- शरीर सम्बन्धी, और द्वितीय- आत्मसम्बन्धी वा अन्तःकरण सम्बन्धी। उनमें यद्यपि अपनी-अपनी अपेक्षा से कहीं-कहीं दोनों प्रधान हैं, तो भी सर्वोत्तम सुख का हेतु होने से आत्मसम्बन्धी संस्कार सर्वोपरि उत्तम है। कारण यह है कि सुख-दुःख का आधार अन्तःकरण है, और दुःख का मूल कारण अज्ञान है, और अन्तःकरण में विद्यारूप छोंक लग जाने से अज्ञान निवृत्त हो जाता है, तभी दुःखों से भी मनुष्य बच सकता है। इस प्रकार आत्मिक संस्कार की सर्वोपरि उत्तमता मानकर द्वितीयाध्याय में साधनों सहित यज्ञोपवीत और वेदारम्भ संस्कारों का मुख्यकर वर्णन है। इस मानवधर्मशास्त्र के द्वितीयाध्याय में ब्रह्मचर्याश्रम का यथार्थ वर्णन है, सो आगे आवेगा, इस कारण इस विषय में यहां कुछ भी विशेष कथनीय नहीं।

मनु स्मृति के प्रथम अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा :पण्डित भीमसेन शर्मा

अब प्रथमाध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा वा विचार किया जाता है। मैं इस अध्याय वा दूसरे आदि अध्यायों में जिन-जिन श्लोकों को प्रक्षिप्त कहूं वा जताऊंगा वहां सर्वत्र अपनी अनुमति का प्रकाश करना ही प्रयोजन है। किन्तु वहां कुछ आग्रहपूर्वक कहना उचित नहीं। यदि उसमें किसी विद्वान् वा समुदाय को विरोध जान पड़े तो उसको मित्रता पूर्वक कहना चाहिये कि इसको इस प्रकार करना योग्य है। यदि सत्य से विपरीत हो गया दीख वा जान पड़ेगा, तो शीघ्र वैसा अविरुद्ध सुधार दिया जायेगा।

जहां-जहां यह पीछे मिलाया गया वा यह प्रक्षिप्त है ऐसा कहेंगे वहां-वहां मुख्य कर निम्नलिखित कारण जानने चाहियें। जो वाक्य किसी प्रकार वेद के आशय वा वेद के सिद्धान्त से तथा अन्य ब्राह्मण, उपनिषद्, न्याय और मीमांसादि अनेक ग्रन्थों से विरुद्ध हो वह प्रक्षिप्त है अर्थात् किसी विद्वान्, ऋषि, महर्षि का बनाया नहीं है। क्योंकि वेदानुयायी, शुद्ध, आप्त, तपस्वी, बहुदृष्ट, बहुश्रुत, जिन्होंने जानने योग्य को जान लिया और यथार्थ सत्य को प्राप्त कर लिया, ऐसे ऋषियों का कथन कदापि वेद से विरुद्ध नहीं हो सकता। तथा जो असम्बद्ध प्रलाप के तुल्य अयोग्य स्थान में प्रयुक्त, प्रकरण से विरुद्ध दूर से दीखता है। क्योंकि विद्वान् लोग प्रकरणविरुद्ध कथन कहीं नहीं करते। इससे प्रकरणविरुद्ध प्रक्षिप्त है। तीसरे पुनरुक्त श्लोक भी प्रक्षिप्त हैं, जैसे प्रथमाध्याय में जो कहा वही तीसरे अथवा चौथे में वैसे ही वा उसके पर्यायवाचक वा उस प्रकार के आशय वाले पदों से फिर-फिर कहा जावे, वह पुनरुक्त होने से प्रक्षिप्त समझा जाता है। तथा जो परस्पर विरुद्ध हो कि पूर्व जो कहा उससे विरुद्ध आगे कहा जावे। उन दोनों में एक ही ठीक वा सत्य ठहर सकता है। परन्तु सम्मतिभेद को छोड़कर, अर्थात् जहां कहीं सम्मतिभेद दिखाया गया वहां तो दूसरे की विरुद्ध सम्मति जताने के लिये ही ग्रन्थकर्त्ता ने दो प्रकार के वचन कहे हैं, किन्तु वहां विरोध नहीं है, जिस कारण प्रक्षिप्त हो। इत्यादि कारण प्रक्षिप्त जताने के लिये होते हैं, जिनका यहां उदाहरण मात्र दिखाया है।

प्रथमाध्याय में सृष्टि प्रक्रिया का सामान्य कर वर्णन है। उसके पश्चात् सब ग्रन्थ भर के विषयों का सूचीपत्र श्लोकों से ही कहा है। वहां जगत् की उत्पत्ति विषय के पश्चात् गर्भाधानादि संस्कार द्वितीयाध्याय में कहे हैं। इन उक्त दोनों विषयों के बीच ही सत् युगादि की व्यवस्था, पाप-पुण्य का न्यूनाधिक उपयोग, ब्राह्मणादि वर्णों के कर्म और ब्राह्मण वर्ण की विशेष प्रशंसा इत्यादि कथन प्रकरण विरुद्ध हैं। और सूचीपत्र में लिखे विषयों से बाह्य वा पृथक् हैं, इससे प्रक्षिप्त हैं ऐसा अनुमान होता है। इस समय वर्तमान पुस्तकों में ११९ (एक सौ उन्नीस) श्लोक छपे हुए मिलते हैं। और पाठान्तर रूप श्लोक इनसे भिन्न हैं। और वे किन्हीं-किन्हीं पुस्तकों में मिलते हैं, इससे ही उनका नाम पाठान्तर रखा गया। तिससे अनुमान होता है कि वे पाठान्तर रूप श्लोक वा वाक्य शीघ्र थोड़े काल से मिलाये गये हैं। और जो बहुत काल से मिलाये गये वे सब पुस्तकों में मिल जाने से सर्वत्र प्राप्त होते हैं अर्थात् जो वस्तु किसी में मिलाया जाता है, वह काल पाकर उसके सर्वांश से सम्बद्ध हो जाता है।

इस प्रथमाध्याय के प्रारम्भ में १३ श्लोक तो निर्विघ्न हैं। अर्थात् बत्तीसवें श्लोक को तेरहवें के आगे चौदहवां रखना चाहिये, ऐसा विचार ठीक जान पड़ता है। इस श्लोक पर मेधातिथि आदि सब भाष्यकारों ने जो अर्थ किया है वह वेदादि शास्त्रविपरीत और तुच्छ है। यह स्पष्ट जान पड़ता है [यह बात मेरे कहने मात्र से नहीं किन्तु जो कोई उस अर्थ को सुनेगा वही ऊटपटांग कहेगा कि ब्रह्मा ने अपने शरीर को बीच से चीर के दो टुकड़े किये उनमें एक से पुरुष और दूसरे से स्त्री हुई। भला किसी पुरुष के शरीर को बीच से चीर देने से स्त्री-पुरुष दो हो जावें यह सम्भव है ? यदि ऐसा हो सकता हो तो जो पुरुष स्त्रियों के बिना दुःखी हैं, जिनको स्त्री नहीं मिलती, वे अपने शरीर को चीर डालें तो उसी शरीर से स्त्री भी निकल आवे। विचार कर देखिये तो चीरने से वह पुरुष भी मर जावेगा। दो होना तो पृथक् रहा वहां एक भी रहना असम्भव है] वेदादि शास्त्रों में सर्वत्र ही एक परमेश्वर से सब सृष्टि उत्पन्न हुई, ऐसा लिखा है। जिससे पुरुष हुए उसी से सब स्त्रियां भी उत्पन्न हुईं, किन्तु स्त्री-पुरुष रूप दो भेद बनाने के लिये किसी देह- धारी मनुष्य के दो खण्ड करना उचित नहीं। कदाचित् पुरुष के दो खण्ड होने से स्त्री-पुरुष का भेद सिद्ध हो जावे। (यद्यपि यह असम्भव है तो भी अभ्युपगम सिद्धान्त से मान लो कि यह ऐसा हो) तो भी पशु-पक्षी आदि में स्त्री भेद कैसे होगा ? क्या वहां भी किसी पशु आदि के दो खण्ड कर स्त्री-पुरुष भेद मानना चाहिये ? देखो ! अथर्ववेद में१ लिखा है कि “देव- विद्वान् पुरुष कर्म- प्रधान, पितर- दीर्घदर्शी, बहुश्रुत, साधारण मनुष्य तथा गानविद्या में प्रवीण पुरुष और स्त्री ये सब उसी नित्य निराकार परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं।” यहां स्पष्ट अप्सरस् शब्दवाच्य स्त्रियों की उत्पत्ति परमेश्वर से हुई लिखी है। किन्तु यहां किसी पुरुषविशेष के दो टुकड़ों से उत्पत्ति नहीं है। इस प्रकार वेदों में सैकड़ों प्रमाण प्राप्त होंगे, जिनके द्वारा साक्षात् परमात्मा से ही भोग्य-भोक्तारूप स्त्री-पुरुष दोनों की निरन्तर उत्पत्ति सिद्ध हो जायेगी। अर्थात् पुरुष के टुकड़ों से वेदों में कहीं भी स्त्री-पुरुष के भेद की उत्पत्ति नहीं है। तथा यह अर्थ असम्भव भी है कि जो एक पुरुषशरीर के दो खण्ड करने से स्त्री-पुरुष हो जावें। क्या सिर की ओर से लम्बाई में दो खण्ड किये वा चौड़ाई में ? यदि लम्बा-लम्बा बीच से शरीर चीर दिया तो एक आंख, एक कान, एक बांह और एक गोड़े वाला पुरुष वा स्त्री होने चाहिये! यदि बीच नाभि वा कटिभाग से दो टुकड़े किये गये हों तो नीचे वा ऊपर के ही अवयवों वाला एक होता सो तो दीखता नहीं, इत्यादि कारणों से उपहासयोग्य होने से यह अर्थ अग्राह्य है। और सत्य अर्थ यह है- किसी प्रकार विकारी हुए तन्मात्र और विषयरूप से वृद्धि को प्राप्त, सब स्थूल वस्तुओं का पूर्वरूप कार्यकारण के मध्य में अवस्थित प्रकृति के कार्यरूप अपने देह को परमेश्वर ने दो भाग करके आधे से पुरुष और आधे से स्त्री को बनाया और स्त्री में इस सब ब्रह्माण्ड को उत्पन्न किया अर्थात् जड़ चेतन प्रत्येक पदार्थ में स्त्री-पुरुषरूप दो प्रकार का भेद किया। पुरुष में वीर्य छोड़ने की शक्ति तथा कठिनता दृढ़ और प्रबल शक्ति रखी गयी तथा स्त्री में गर्भधारणशक्ति, कोमलता और निर्बलता रखी गयी। इसीलिये स्त्री को अबला भी कहते हैं। यह अर्थ सम्भव वेदानुकूल और गम्भीरता युक्त भी है। ऐसा अर्थ होने पर वह श्लोक स्थान भ्रष्ट अर्थात् जहां रखना चाहिये वहां नहीं है। क्योंकि सब वस्तु की विशेष रचना से पूर्व ही ऐसा श्लोक होना चाहिये, पीछे ब्राह्मणादि चेतन वा जड़ की सृष्टि कहने में ब्राह्मणी आदि उस-उसकी         सम्बन्धिनी स्त्री की रचना भी आ जायेगी। यह बात प्रश्नोपनिषद् में रयि-प्राण और चन्द्र-सूर्य शब्दों से स्पष्ट दिखायी है। यहां भी ऐसा मानने पर ही उसके अनुकूल होगा। और ठीक भी ऐसा ही है, जो विशेष रचना से पूर्व ही स्त्री-पुरुषरूप भोग्यभोक्तृशक्तियों की वस्तुमात्र के सब कारण में ही भेद कल्पना करनी चाहिये ऐसा ही प्रश्नोपनिषद् में भी कहा है।

इस प्रकार यहां सब भाष्यकारों का भ्रम ही प्रतीत होता है। इस गूढ़ और गम्भीर शास्त्र के अर्थ में राघवानन्द भाष्यकार की पूर्णतः नहीं किन्तु कुछ थोड़ी बुद्धि चली है। इस सब कथन से सिद्ध हुआ कि सृष्टिप्रक्रिया में १३ (तेरहवें) श्लोक के आगे इस बत्तीसवें (द्विधा कृत्वा०) श्लोक को रखा जावे तो अनुचित नहीं जान पड़ेगा किन्तु ठीक सग्त जान पड़ेगा यह मेरी सम्मति है।

(द्विधा कृत्वा०) इस बत्तीसवें श्लोक के पश्चात् अर्थात् “तपस्तप्त्वा०” यहां से लेकर “जग्मम्॰” यहां तक पढ़े गए नौ श्लोक (३३-४१) प्रक्षिप्त प्रतीत होते हैं। जैसे एक देश में बहुत राजा नहीं हो सकते वैसे सृष्टिकर्त्ता भी अनेक नहीं हो सकते। अर्थात् इन नव श्लोकों में कई सृष्टिकर्त्ता दिखाये हैं सो ठीक नहीं। वेदों में देवादि रचना भी साक्षात् परमात्मा से ही दिखायी गयी है, किन्तु अनेक मनुओं से नहीं, इसमें विशेष विचार वहां ही लिखा जायेगा, जहां वे पद्य पढ़े हैं।

आगे इक्यासीवें श्लोक से लेकर “दानमेकं कलौ युगे०” इस श्लोक पर्यन्त छह श्लोक प्रक्षिप्त हैं। क्योंकि सृष्टि प्रकरण में सत् युगादि में होने वाले धर्म की न्यूनाधिक व्यवस्था करना प्रकरणानुकूल नहीं हो सकती। इससे एक तो प्रकरण विरुद्ध है। द्वितीय किसी समयविशेष में सर्वथा धर्म वा अधर्म ही नहीं ठहर सकता, क्योंकि वे दोनों प्रकाश और अन्धकार के तुल्य सापेक्ष हैं। यदि प्रकाश कोई वस्तु न हो तो किसको अन्धकार कहें। जैसे शीत के अभाव में उष्ण का और उष्ण के अभाव में शीत का कोई वस्तु ठहरना असम्भव है। इसी प्रकार कृतयुग में भी   अधर्म की स्थिति अवश्य माननी चाहिये। तथा तीसरे वेदों में भी “सौ वर्ष देखें। सौ वर्ष आयु वाला पुरुष होता है” इत्यादि प्रमाण हैं। वे सब कलियुग के लिये ही हों यह नहीं हो सकता। ऐसा हो तो अन्य युगों के आयु की भी वेद में व्यवस्था होनी चाहिये। और यह कलियुग के लिये आयु है ऐसा नहीं लिखा, इससे सामान्य कर यह सब युगों के लिये है, यही सत्य जानो। इस कारण वेद से विरुद्ध होने से भी उक्त श्लोक प्रक्षिप्त हैं, यह मेरा विचार है।

आगे सत्तासीवें श्लोक से लेकर एकानवें (८७-९१) श्लोक पर्यन्त पांच श्लोकों में दशमाध्याय के “ब्राह्मणा ब्रह्मयोनिस्था०” इत्यादि श्लोकों के साथ किसी प्रकार पुनरुक्ति प्रतीत होती है, परन्तु वह समाधान करने योग्य है। क्योंकि यहां प्रथमाध्याय में ब्राह्मणादि के कर्मों का विभाग है अर्थात् सृष्टि के आरम्भ में अपने-अपने कर्म में सब वर्णों को युक्त करना ही प्रयोजन है। इस ब्राह्मणादि के कर्मविभाग का सृष्टिप्रक्रिया के साथ सम्बन्ध है, ऐसा मानकर प्रथमाध्याय में वर्णन है। तथा ब्राह्मणादि वर्णों को आपत्काल में कैसे जीविका करनी चाहिये, यह आशय दिखाने के लिये कर्मों का अनुवाद करके दसवें अध्याय में वर्णन है। इस प्रकार पुनरुक्ति दोष नहीं जान पड़ता।

आगे चौरानवें-पिच्यानवें (९४-९५) दोनों श्लोक प्रक्षिप्त हैं, क्योंकि इन दोनों की इकत्तीसवें और तिरानवें श्लोक के साथ पुनरुक्ति भी आती है, और चौरानवें का यह “सर्वस्यास्य च गुप्तये” अंश भी सत्तासीवें (८७) श्लोक के साथ पुनरुक्त होने से प्रक्षिप्त है। तथा ब्राह्मण के मुख से देवता और पितृलोग हव्य-कव्य खाते हैं यह भी ठीक नहीं, क्योंकि अन्य के मुख से अन्य नहीं खा सकता। होमने योग्य पदार्थ जो सूर्यादि देवों को प्राप्त होते हैं, वे ब्राह्मण के मुख द्वारा नहीं, किन्तु अग्नि मुख से प्राप्त होते हैं। अर्थात् अग्नि में होमा गया द्रव्य प्रकारान्तर से प्रदेशान्तर को प्राप्त होता है, यह न्याय से सिद्ध है। क्योंकि ब्राह्मण के द्वारा किया गया भोजन किसी प्रकार से मेघमण्डल में जाता हो, यह नहीं कह सकते। इसलिये अनुमान से जान पड़ता है कि अन्य के भोजन की प्रतिक्षण तृष्णा रखने वाले भोजनभट्ट उदरम्भर नाममात्र के ब्राह्मणों ने ही ऐसे श्लोक बनाकर मिलाये हैं। केवल तिरानवें (९३) श्लोक में यथोचित प्रशंसा ब्राह्मण की की गई है।

तथा अठानवें से लेकर एक सौ एक (९८-१०१) पर्यन्त प्रक्षिप्त हैं। उन श्लोकों का एकदेशी होना तो प्रसिद्ध ही है। इन श्लोकों में अनुचित, पुनरुक्त, असम्बद्ध, पक्षपात वा स्वार्थपरक ब्राह्मण वर्ण की प्रशंसा है, जिससे ये भी चारों श्लोक प्रक्षिप्त प्रतीत होते हैं। इन पर विशेष विचार वहीं भाष्य में होगा। तथा एक सौ दो श्लोक से लेकर एक सौ सात (१०२-१०७) श्लोक पर्यन्त निष्प्रयोजन वा अल्पप्रयोजन परक श्लोक हैं। तथा किसी प्रकार असम्बद्ध, पक्षपातयुक्त और वेद से विरुद्ध तथा आत्मश्लाघा दोष वा अत्यन्त प्रशंसारूप दोष से युक्त हैं, इस कारण तुच्छ होने से पीछे किन्हीं स्वार्थियों ने मिलाये हैं, ऐसा अनुमान होता है।

आगे एक सौ सात से लेकर एक सौ दश (१०७-११०) पर्यन्त चार श्लोक चतुर्थाध्याय के १५५,१५६ श्लोकों के साथ पुनरुक्त जान पड़ते हैं। तो भी चतुर्थाध्याय के उक्त दो श्लोकों पर सबसे पहले भाष्यकर्त्ता मेधातिथि का भाष्य नहीं मिलता, तिससे अनुमान होता है कि मेधातिथि के भाष्य करने के समय में वे दोनों श्लोक चतुर्थाध्याय में नहीं थे। यदि भाष्य किया होता तो क्यों नहीं मिलता। इससे प्रथमाध्याय के आचारप्रतिपादक चारों श्लोक प्रक्षिप्त नहीं, ऐसा जान पड़ता है। आगे एक सौ ग्यारह श्लोक से लेकर सब ग्रन्थ का सूचीपत्र कहा गया है, उसमें कुछ विरोध नहीं है। इस प्रकार इन दोनों प्रकार के मिलाकर एक सौ उन्नीस श्लोक इस प्रथमाध्याय में मिलते हैं। उनमें उक्त प्रकार से मेरी सम्मति से प्रक्षिप्त समझे गये यदि छब्बीस (२६) श्लोक प्रक्षिप्त ठहरें तो शेष तिरानवें श्लोक शुद्ध ऋषिकृत मानने चाहियें।

रचना के क्रम का विचार: पण्डित भीमसेन शर्मा

अब संक्षेप से उत्पत्ति का क्रम लिखा जाता है। इसमें संदेह यह है कि पहले जड़ की उत्पत्ति होती वा चेतन की और चेतनों में पशु, पक्षी, कीट, पतगदि वा मनुष्य इनमें कौन पहले उत्पन्न होते हैं ? तथा पांच तत्त्वों में आकाश की उत्पत्ति कैसे संभव होती है इत्यादि सैकड़ों विरोध सृष्टि-प्रक्रिया में हैं, उनको हटाने के लिए यहां संक्षेप में लिखते हैं।

पहले जड़ वस्तु उत्पन्न होते हैं किन्तु चेतन नहीं। जड़ों में पृथिव्यादि भूतों की रचना के पश्चात् मनुष्यादि के भक्ष्य ओषधि आदि पदार्थ और उसके पश्चात् मनुष्यादि चर प्राणियों की उत्पत्ति होती है। परन्तु शरीरधारियों में छोटे कीट पतगदि, तिस पीछे पशु-पक्षी आदि प्राणी उत्पन्न होते हैं और सबसे पीछे मनुष्य उत्पन्न होते हैं, क्योंकि मनुष्य से नीचे योनि के सब प्राणी मनुष्य के उपकारार्थ हैं, इसलिये सुख के वा दुःख के साधन पहले बनाये जाते हैं। तथा कीट-पतग् आदि सूक्ष्म जन्तु हैं, स्थूल से पहले प्रायः सूक्ष्म की उत्पत्ति न्यायानुकूल माननी चाहिये। क्योंकि कारण सदा सूक्ष्म और कार्य सदा स्थूल होता है। यही क्रम प्रायः सभी शिष्ट लोगों के सम्मत है। ऐसा मान करके ही तैत्तिरीय उपनिषद् में लिखा है कि- “उस परमेश्वर से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथिवी, पृथिवी से ओषधियाँ, ओषधियों से अन्न, अन्न से वीर्य और वीर्य से मनुष्यादि के शरीर उत्पन्न होते हैं।”१ तथा सांख्य में लिखा है कि- “सत्त्व, रजस् और तमोगुण की साम्यावस्था प्रकृति कहाती है, उससे द्वितीय कक्षा में महत्तत्त्व उत्पन्न होता है, जिसको कोई लोग हिरण्यगर्भ कहते हैं, उसी को कोई विधि-विधाता वा ब्रह्मा कहते हैं कि कार्यरूप संसार की वृद्धि होने का वह पहला परिणाम है और ब्रह्मा शब्द का अर्थ भी यही है कि जिससे वृद्धि हो। तृतीय कक्षा में अहटार उत्पन्न होता है, अहटार से पांच सूक्ष्म भूत और उनसे इन्द्रिय इत्यादि।”२ इन प्रमाणों से स्पष्ट निश्चय होता है कि- आकाशादि क्रम से जड़ तत्त्व पहले उत्पन्न होते हैं। यदि आधारस्वरूप, आकाशादि तत्त्व पहले न हों तो उत्पन्न हुए प्राणी किसके आश्रय से ठहरें और क्या खाकर के जीवित रहें ? और चेतन शरीरों के कारण भी पृथिव्यादि तत्त्व हैं, उन कारणरूप तत्त्वों की उत्पत्ति हुए बिना प्राणियों के शरीर उत्पन्न नहीं हो सकते, क्योंकि कारण के बिना कार्य नहीं होता। इसलिये सब वस्तुओं के कारणभूत द्रव्य पहले उत्पन्न होते हैं और पीछे कार्यवस्तु होते हैं। सूक्ष्म प्रकृतिरूप अन्तिम कारण की अपेक्षा यद्यपि तन्मात्रादि सूक्ष्मभूत भी कार्य ही हैं, तो भी स्थूल भूतों की अपेक्षा से वे कारण ही समझे जाते हैं। यद्यपि कार्यरूप अग्नि, वायु का कार्य है, तो भी जल की उत्पत्ति की अपेक्षा से अग्नि कारण भी है। इस प्रकार कार्य-कारण व्यवस्था सापेक्ष है। अर्थात् जो कारण है वह किसी की अपेक्षा से कार्य और ऐसे ही कार्य कारण हो जाता है।

सृष्टि के आरम्भ में सबसे पहले प्रकाश उत्पन्न होता है, तब सृष्टि करने को उद्यतरूप से परमात्मा जागता है।१ इस प्रकार उस परमेश्वर का सृष्टि करने को उद्यत होना ही प्रकाश की उत्पत्ति है। उसको कोई अन्य जगाता नहीं किन्तु वह स्वयमेव उद्यत होता है। इसीलिये वह स्वयम्भू कहाता है। यही बात मनुस्मृति के छठे श्लोक में (प्रादुरासीत्तमोनुद०) इत्यादि प्रकार कही है। उस परमेश्वर से द्वितीयावस्था में आकाश उत्पन्न होता है, जो सब वस्तुओं का आधार, जिसमें सूर्यादि ज्योति नियम पूर्वक तपते, घूमते और प्रकाशित होते हैं। और उसके अवकाश देने स्वरूप होने से नित्य होना कह सकते हैं, फिर उसकी उत्पत्ति क्यों दिखायी जाती है ? इसका उत्तर संक्षेप में यह है कि- घड़ा आदि के तुल्य आकाश उत्पन्न नहीं होता। यदि कभी किसी प्रकार तैजस वस्तुओं का सर्वथा अभाव होने से अन्धकार हो जावे। कोई कहीं जा भी न सके तो अवकाश के रहने पर भी कार्यसिद्धि का हेतु न होने से उसका अभाव जैसे कह सकते हैं। और प्रकाश रहने पर कार्यसिद्धि का हेतु होने से आकाश उत्पन्न होता ऐसा व्यवहार किया जाता है। इसी प्रकार आकाश शब्द दीप्ति अर्थ वाले काश धातु से यौगिक पक्ष में परमात्मा का नाम है। और योगरूढ़ दशा में शब्दगुण वाले आकाश तत्त्व का नाम है। अच्छे प्रकार प्रकाशित होता है इसलिये सर्वविध प्रकाश के आधार का नाम आकाश है। इसी से सूर्यादि ज्योंतियों के प्रकाश से रहित प्रलय दशा में   अन्धकार रूप शून्य की आकाश संज्ञा नहीं कह सकते, इसी से आकाश नहीं है ऐसा व्यवहार कर सकते हैं। और सृष्टि के आरम्भ में फिर व्यवहार होता है कि आकाश हो गया। यह भी उस आकाश की उत्पत्ति है। तथा अवकाश अनन्त है। जहां सृष्टि नहीं है, वहां भी शून्यरूप पोल है, उसमें से जितने अवकाश में ब्रह्माण्ड रचा गया, सृष्टि के आरम्भ में उसकी आकाश संज्ञा धरी गयी, क्योंकि सूर्यादि ज्योतियों के वहां रहने से ब्रह्माण्डस्थ ही शून्य प्रकाश युक्त होता उसी में वायु आदि साधनों के विद्यमान रहने से शब्द की भी उत्पत्ति हो सकती है इसलिये वही आकाश है अन्य शून्य आकाश नहीं, यह भी आकाश की उत्पत्ति दिखाने का आशय है। इस प्रकार आकाश की उत्पत्ति होती है, पर घटादि के तुल्य नहीं। आकाश का शब्द गुण है, उस शब्द की उत्पत्ति में वायु भी सहयोगी कारण है। वायु के बिना केवल आकाश से शब्द का श्रवण नहीं हो सकता। पर तो भी शब्द का मूल कारण आकाश है। तथा संयोग-विभाग से शब्द की उत्पत्ति होती (अर्थात् ताल्वादि स्थानों के संयोग से वा भेरी-दण्डादि के संयोग से शब्द की उत्पत्ति होती है वे संयोग-विभाग बिना अवकाश के नहीं हो सकते) इससे भी शब्द का मूल कारण आकाश होता है। तथा उस आकाश का शब्द गुण सहित होना प्रलयदशा में नहीं घटता ऐसा मानकर सृष्टि के आरम्भ में शब्द का आश्रय बनने से आकाश की उत्पत्ति अर्थात् प्रादुर्भाव मानना पड़ता है।

पीछे आकाश से वायु उत्पन्न होता है और वह वायु गतिवाला होता है। सब वस्तु की गति अवकाश होने पर ही हो सकती है। वायु इधर-उधर चलने से शरीर में लगता और तृणादि को इधर-उधर चलाता है, इससे अनुमान होता है कि वायु है। यदि आकाश न हो तो वायु का भी चलना न हो सके। वह शून्यरूप पोल तो सदा ही है किन्तु तैजस प्रकाश से युक्त आकाश प्रलयावस्था में नहीं रहता, इसी कारण उस समय वायु का भी अभाव है। तैजस कारणरूप प्रकाश के फैलने रूप आकाश से वायु की उत्पत्ति होती है। और वह शब्दगुणवाले आकाश से उत्पन्न हुआ वायु स्वयं स्पर्श गुण वाला होता है। और उसमें कारण का गुण भी आता है इसीलिये शब्द और स्पर्श दो गुणों वाला वायु अपने कारणरूप सूक्ष्म आकाश से स्थूल उत्पन्न होता है। आकाश के होने पर वायु का होना और उसके न होने पर वायु का न होना, इस प्रकार वायु और आकाश का कार्यकारण सम्बन्ध है। कार्य-कारणों की एकता कई प्रकार से मानी जाती है। उनमें यहां अस्तित्व सामान्य वा कारण की सत्ता में कार्य का होना अर्थात् जिसकी विद्यमानता में जो रहे और जिसके न रहने पर जो न रहे, वह उसका कारण कहाता है। इस प्रकार यहां दोनों कार्य-कारण की एकरूपता है। इसी प्रकार वायु का भी शब्द गुण है यह वायु के कारण आकाश के सम्बन्ध से कह सकते हैं। इसीलिये वर्णोच्चारणशिक्षा में शब्द की उत्पत्ति में कहा है कि- “आकाश और वायु दोनों से शब्द उत्पन्न होता है”।१

तथा वायु से अग्नि उत्पन्न होता है। यहां सब स्थलों में प्रभव अपादान के तुल्य कारकपन मान वा विचार के आकाश वायु आदि शब्दों में पञ्चमी विभक्ति की गयी है। जैसे कहा जाता है कि “हिमालय से गग निकलती वा प्रकट होती है”२ इसी प्रकार यहां भी निकलना वा प्रकट होना अर्थ है। और (सम्भूतः) यह पद उत्पत्ति के कारण को जताता है। इससे वायु का आकाश अथवा अग्नि का वायु, घड़ा का मिट्टी के समान उपादान कारण नहीं अर्थात् जैसे मिट्टी स्वयं घड़ारूप बन जाती है वैसे आकाश वायुरूप और वायु अग्निरूप नहीं बन जाता। घड़े का उपादान कारण मिट्टी है पर वायु का उपादान आकाश और अग्नि का उपादान वायु नहीं है। और जहां घड़े के उपादान मिट्टी के तुल्य साक्षात् कार्य का उपादान कारण होता है वहां विशेष कर कार्यकारण की एकरूपता अपेक्षित होती है। इसी प्रकार यहां साक्षात् उपादान कारण न होने से वायु के साथ अग्नि का सारूप्य अपेक्षित नहीं होता, किन्तु वायु की विद्यमानता में अग्नि की उत्पत्ति होती है, इसलिये अग्नि का कारण वायु माना जाता है। जैसे वायु के होने पर अग्नि और दीपक जलते हैं, न होने पर नहीं। इसी से जहां वायु का आना-जाना घड़ा आदि से रोक दिया जाता है, वहां दीपादि नहीं जल सकता। जैसे जलते हुए दीपक को एक घड़े में धरके घड़े का मुख बन्द कर दिया जावे जिससे उसमें किञ्चित् भी वायु न पहुंचे तो उसी क्षण भर में दीपक बुझ जायेगा। ऐसा होने पर स्थूल वायु के आने-जाने से अग्नि जलता है अन्यथा नहीं। इससे अग्नि का कारण वायु है, यह कथन सम्भव है। तथा कहीं अग्नि भी वायु का कारण होता है। उसमें भेद यह है कि सूक्ष्म बिजली आदि कारणरूप अग्नि वायु का कारण है। और यही कारण अग्नि सबसे पहले उत्पन्न होता है, इसी के सम्बन्ध से शून्य का आकाश नाम पड़ता है, इसी की व्याप्ति से वायु चलता है, इसलिये इसी को वायु का कारण मानते हैं, पर स्थूल अग्नि का स्थूल वायु ही कारण है, यह पूर्व से सिद्ध हो चुका।

अग्नि के पश्चात् जल उत्पन्न होता है, इसी कारण ग्रीष्म ऋतु के तपने के पश्चात् वर्षा ऋतु होता है, अर्थात् ग्रीष्म ऋतु का अच्छे प्रकार तपना ही वर्षा का कारण है। तथा अन्य समय में भी जब-जब वर्षा होती है, तब-तब उष्णता की उत्तेजना पूर्वक ही होती है, इससे भी जलों की उत्पत्ति का कारण अग्नि आता है। यदि जगत् में अग्नि न हो तो जल में बहनारूप द्रवगुण रहना भी असम्भव है। तथा किसी यन्त्र से जल में व्याप्त अग्नि निकाल लिया जावे तो जलाकार की कठिनता हो जाने से जल का अपने रूप में ठहरना ही सम्भव नहीं (जल में से अग्नि का भाग निकाल लेने पर ही बरफ बन जाता है, वही अग्नि वायु के सम्बन्ध से फिर जलरूप होकर बहने लगता है) और जिसके अभाव में जिसका अभाव होता है, वह उसका कारण हो यह भी न्याय से सिद्ध ही है, जैसे तैल के न रहने पर दीपक नहीं जलता। तथा जल से पृथिवी उत्पन्न होती है। इसी कारण जब वर्षादि द्वारा पृथिवी को जल प्राप्त होता है, तभी पृथिवी सम्बन्धी सब वस्तुएं ठहरती हैं। जल न रहे तो संयोग से बने पृथिवी सम्बन्धी सब वस्तुओं के अवयवों का वियोग होकर विनाश हो जावे। इससे पृथिवी का कारण जल सिद्ध होता है। जहां-जहां जल की प्रवृत्ति है, वहां-वहां पृथिवी की ठीक दशा है। पृथिवी के सम्बन्ध से फल पकते समय स्वरूप से सूखने वा नष्ट होने वाली ओषधियां, उन ओषधियों से उनका फलरूप अन्न तथा खाये हुए अन्न से साररूप रसादि धातु उत्पन्न होते, और उन धातुओं का परस्पर विपरिणाम होते-होते वीर्य धातु उत्पन्न होता है, वह वीर्य प्राणियों के शरीरों का उपादान कारण है। इस प्रकार ओषधियों से अन्न उत्पन्न होने पर प्राणियों के शरीरों की उत्पत्ति होती है। अन्नादि भोग्य वस्तुओं के होने पर भी भोक्ताओं के बिना रसादि धातु न होने से प्राणियों के शरीर नहीं उत्पन्न होते। इसलिये अन्न और ओषधि की रचना के अनन्तर सर्वशक्तिमान् परमात्मा ने वैसे ही सूक्ष्म कारण से प्राणियों के शरीर उत्पन्न किये। उनके द्वारा खाये अन्न से फिर वीर्यादि धातु होकर मैथुनी सृष्टि हुई। स्थूल स्त्री-पुरुषों के संयोग के बिना अद्भुत शिल्पयुक्त प्राणियों के शरीरों की उत्पत्ति की है, इससे उस परमेश्वर का सर्वज्ञ होना सिद्ध है। फिर भी सृष्टि के आरम्भ में प्रथम बुद्धि में दो भेद कल्पित किये। उनका नाम स्त्री-पुरुष रखा गया, पीछे स्त्री-पुरुषरूप दो शक्तियों से युक्त परमाणुओं के संयोग से सबको उत्पन्न किया। इस प्रकार स्त्री-पुरुषों के संयोग से सब उत्पन्न होता है, यह आशय निकलता है। अथवा पुरुष नाम परमात्मा सृष्टि का निमित्त है और प्रकृति उपादानरूप स्त्री उन दोनों के सम्बन्ध से उत्पन्न हुई सृष्टि भी मैथुनी कहाती है। इस प्रकार यहां सृष्टिप्रक्रिया में उत्पत्ति का क्रम तथा अन्य भी यथासम्भव कहा। अब इस विषय में अधिक लिखना समाप्त करते हैं। आगे प्रथमाध्याय की समीक्षा लिखी जायेगी।

मानसी और मैथुनी सृष्टि का भेद : पण्डित भीमसेन शर्मा

तथा सृष्टि में विचारशील पुरुषों को दो ही भेद निश्चित जानने चाहियें। एक मानवी या मानसी सृष्टि अथवा ऐश्वरी सृष्टि और दूसरी मैथुनी अथवा मानुषी सृष्टि कहाती है। इनमें पहली मानवी सृष्टि कल्प के आरम्भ में ही होती है तथा दूसरे प्रकार की सृष्टि उत्पत्ति होने के पश्चात् जगत् की स्थिति दशा रहने पर्यन्त सदा प्रतिदिन व प्रतिक्षण होती है। उनमें स्थूल कारण की अपेक्षा को छोड़कर प्रलय के पश्चात् सृष्टि के आरम्भ में विचार व मनन शक्ति का आश्रय लेकर मनु नामक परमेश्वर ने उत्पन्न की, इससे मानवी सृष्टि कहाती है। मन नाम विचार के आश्रय से ही सूक्ष्म कारण से की गयी किन्तु स्थूल शरीरादि का आश्रय रखने वाले कर्म से नहीं, इसीलिये प्रारम्भ की सृष्टि मानसी भी कही जाती है। सर्वशक्तिमान् ईश्वर ही उस सृष्टि को कर सकता है किन्तु कोई साधारण पुरुष नहीं, इसलिये उसको ऐश्वरी सृष्टि भी कहते हैं, और वह सृष्टि स्थूल स्त्री-पुरुष के संयोग के बिना ही उत्पन्न होती है, उस समय उन प्राणियों का माता-पिता वही एक परमेश्वर है। परम सूक्ष्म कारण से पृथिव्यादि स्थूल भूतों की और स्थूल बीज के बिना वृक्ष, ओषधि और वनस्पति आदि की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार की जिसको कोई देहधारी मनुष्य नहीं बना सकता, वही ऐश्वरी सृष्टि है। और जब उसने स्त्री-पुरुष, बीज, वृक्ष आदि एक बार प्रारम्भ में उत्पन्न कर पीछे इस प्रकार सबको सृष्टि की परम्परा चलानी चाहिये ऐसा वेद द्वारा उपदेश किया, तब से लेकर मनुष्य लोग वैसे ही अपने-अपने योग्य सृष्टि बनाते आते हैं। पुत्रादि का उत्पन्न करना, वृक्षादि का लगाना और घड़ा, वस्त्र या मकान आदि का बनाना इत्यादि सृष्टि मनुष्यों की ओर से प्रतिदिन होती है, यही सब मानुषी अथवा मैथुनी सृष्टि है। उन सब स्थावर वृक्षादि और जग्म मनुष्यादि चेतन प्राणियों की उत्पत्ति में चार ही मुख्य कारण हैं, जैसे- सुश्रुत में लिखा है कि- ऋतुसमय, क्षेत्र- खेत, जल और बीज इन चार प्रकार की सामग्रियों के संयोग से जैसे वृक्ष आदि का अङ्कुर उत्पन्न होता है, वैसे यही चार प्रकार की सामग्री संयुक्त होकर मनुष्यादि प्राणियों की उत्पत्ति होती है। इनमें स्थावर की उत्पत्ति मनुष्य की इच्छानुसार तथा स्वतन्त्र अकस्मात् भी होती है, पर जहां स्वतन्त्र होती है वहां भी मैथुन रूप कारण अवश्य मानना पड़ता है, और मनुष्यादि की उत्पत्ति बिना इच्छापूर्वक मैथुन संयोग के नहीं होती, यह विषय सुश्रुत के शारीरस्थान में लिखा है। पूर्वोक्त समय आदि का एकत्र संयुक्त होना ही मैथुन कर्म है, उससे उत्पन्न हुई सृष्टि मैथुनी कहाती है। केवल स्त्री-पुरुषों के संयोगमात्र का नाम मैथुन नहीं है, किन्तु किसी प्रकार स्त्रीशक्ति और पुरुषशक्ति का संयोग होना मैथुन कहाता है। सो इस प्रकार का मैथुन सब वस्तुओं की उत्पत्ति में होता ही है, इसी से पीछे उत्पन्न होने वाली सब सृष्टि मैथुनी होती है। इससे जूँ, मक्खी, खटमल आदि और वृक्ष, ओषधि, वनस्पति आदि की भी मैथुन पूर्वक ही सृष्टि होती है, यह सिद्धान्त ठहरता है। बीज पुरुष और पृथिवी स्त्री उन दोनों का संयोग होना मैथुन कर्म और इस मैथुन से उत्पन्न होने वाले वृक्षादि मैथुनी सृष्टि में कहाते हैं। जूँ, मक्खी, खटमल आदि की सूक्ष्म शरीरधारी सूक्ष्म जीवों से उत्पत्ति होती है। अर्थात् देहधारियों के मुख्यकर दो भेद हैं- एक- स्थूल और द्वितीय- सूक्ष्म। जो इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष होते हैं वे स्थूल मशक- मच्छर पर्यन्त हैं। इनसे भिन्न अतीन्द्रिय- इन्द्रियों से न दीख पड़ने वाले सूक्ष्म कहाते हैं। यद्यपि मच्छर आदि को किन्हीं की अपेक्षा से सूक्ष्म कह सकते हैं तो भी सूक्ष्मता वा स्थूलता की अवधि करनी चाहिये, ऐसा मानकर इन्द्रियों से न दीख पड़ने वालों को ही मुख्यकर सूक्ष्म मानना चाहिये। सूक्ष्म कारण और स्थूल कार्य होता या माना जाता है, यह भी न्याय से सिद्ध और सर्वत्र प्रसिद्ध है। इसी प्रकार जिन गोबर आदि में उत्पन्न हुए वृश्चिक आदि स्थूल प्राणियों को संयोग से उत्पन्न करने वाले स्थूल शरीरधारी कारणरूप नहीं दीखते वहां गोबर आदि में रहने वाले विषरूप सूक्ष्म अतीन्द्रिय शरीरधारी कारणस्वरूप जन्तु अर्थात् चेतनायुक्त जड़ कारण से उन वृश्चिक आदि की उत्पत्ति होती है यह अनुमान से ही निश्चित होता है। जड़ कारणमात्र से चेतन की उत्पत्ति हो सकती हो यह नहीं मान सकते। इसी प्रकार ‘कारण का गुण कार्य में आता है अर्थात् जो गुण कार्य में दीख पड़े उस का होना कारण में अवश्य मानना पड़ता है’१ यह वैशेषिकशास्त्र का सिद्धान्त है सो भी ठीक घट जाता है। तथा ‘कार्य-कारण की एकरूपता होती वा माननी चाहिये’ यह न्यायशास्त्र का सिद्धान्त भी पूर्वोक्त प्रकार मानने से ठीक बन सकता है।

यद्यपि मनुष्यादि प्राणियों के शरीर पृथिवी के वा किन्हीं के मतानुसार पञ्चभूतों से बनते हैं, इसलिये उन शरीरों का पृथिव्यादि जड़ ही उपादान कारण हैं। तो भी चेतनता-विशिष्ट शरीरों से ही प्राणियों के शरीरों की उत्पत्ति होती है, इससे कार्य-कारण के साधर्म्य में कोई दोष नहीं आ सकता। इस गोबर आदि जड़ कारण मात्र से यदि वृश्चिक (बिच्छू) आदि जन्तुओं की उत्पत्ति मानी जावे तो बिच्छू आदि भी जड़ होने चाहियें। क्योंकि जड़ दूध के विकृत होने पर पदार्थान्तर दही चेतन नहीं बनता, अथवा प्रशस्त मिट्टी से चेतन घड़ा आदि नहीं उत्पन्न होते, किन्तु दूध से दही तथा मिट्टी से घट आदि जड़ से जड़ ही उत्पन्न होते हैं। वैसे यहां भी विचारना चाहिये कि जहाँ प्रत्यक्षता से कारण में वैसा गुण नहीं दीखता और कार्य में दीखे तो वहां कारण में उस गुण का सूक्ष्म वा अतीन्द्रिय होना अनुमान से जानना चाहिये। इससे चेतन सूक्ष्म शरीरधारी वैसे ही जन्तुओं से डांश, मच्छर और बिच्छू आदि की उत्पत्ति होती है, यह सिद्ध हो गया।

ये डांश, मच्छर आदि स्वेदज या उष्णज अर्थात् गर्मी से उत्पन्न होने वाले हैं ऐसा जो शास्त्रज्ञ लोग कहते हैं सो वह स्वेदज होना रूप गुण व धर्म उन जीवों में अण्डज वा जरायुज होने आदि के तुल्य है ऐसा जानना चाहिये। जैसे अण्डज और जरायुज कोई प्राणी चेतनता युक्त स्त्री-पुरुष के संयोग हुए बिना केवल अण्डा वा जरायुमात्र से उत्पन्न नहीं होता, किन्तु जिसके भीतर वीर्य और स्त्री के आर्त्तव रुधिर के संयोग से गर्भ शरीराकार बनता है, वह सूक्ष्म पतले चर्म के तुल्य जरायु कहाता है, उस जरायु अर्थात् जरायु के फट जाने से प्रसिद्ध अवयवों वाला सन्तान दृष्टि के सामने आता है तथा अण्डाकार के बीच उन्हीं रज-वीर्य के संयोग से गर्भ होकर पूर्ण अगें वाला हुआ, अण्डे के फूट जाने से उत्पन्न हुआ जन्तु अण्डज कहाता है (प्रायः जरायुज मनुष्यादि का जरायु बाहर निकलने से पहले फट जाता है तब बाहर निकले बच्चे के हाथ, पग आदि अग् स्पष्ट दीख पड़ते हैं। कभी-कभी कोई बालक जरायु में लिपटे हुए उत्पन्न हो जाते हैं उनके हाथ, पग आदि अग् बाहर निकल आने पर भी स्पष्ट पृथक्-पृथक् नहीं दीखते, वैसे ही गोलाकार जान पड़ते हैं और जब तक चाकू आदि से (उझय्या) नहीं फाड़ी जाती तब तक वे बच्चे रोते भी नहीं ऐसी दशा में रात्रि के समय कभी-कभी स्त्रियों को भ्रम हो जाता है कि यह क्या उत्पन्न हुआ ? जब अण्डज प्राणियों का मैथुन संयोग होता है तब गर्भाशय में रज-वीर्य के संयोग से अण्डा बनता है, वह कुछ दिन गर्भाशय में रहकर बच्चों के समान बाहर निकलता है। अण्डा वाले प्राणी पक्षिणी आदि उनकी बाहर भी रक्षा रखते हैं, पीछे जब अण्डा पक जाता है तब उसमें से सर्वाग् पूर्ण बच्चा निकलता है) किन्तु स्त्री-पुरुष के संयोग हुए बिना उत्पन्न हुए प्राणी अण्डज वा जरायुज नहीं कहाते। इसी प्रकार यहां भी स्वेदज प्राणी उष्णविशेष के कारण से शीघ्र प्रकट हो जाते हैं। उष्ण- गरमी की अधिकता ही स्त्री-पुरुषरूप दो शक्तियों के संयुक्त होने में भी कारण है। दोनों प्रकार की शक्तियों वाले सूक्ष्म देहधारी जन्तुओं का संयोग हुए पीछे गर्मी की अधिकता से अतिशीघ्र वृद्धि को प्राप्त हुए प्राणी दीखते हैं, इसलिए वे स्वेदज वा उष्णज कहाते हैं (उष्णता की अधिकता से प्राणियों के शरीरों की बहुत शीघ्र वृद्धि होती है, सो यह पदार्थ-विद्या से भी प्रसिद्ध है। जब आम के बीज में अधिक गर्मी किसी प्रकार पहुँचाते हैं तभी थोड़ी गीली मिट्टी और जल में गोठली धरके तत्काल वृक्ष की उत्पत्ति और पत्ते भी लग जाते और वृक्ष सूख जाता है। तथा उष्णता जिन प्रान्तों में अधिक है वहाँ स्त्रियों में कामासक्ति के चिह्न स्तन आदि शीघ्र निकलते उनकी युवावस्था भी शीघ्र आ जाती है, और शीत प्रदेशों में इसकी अपेक्षा पीछे आती है इसी प्रकार उष्ण की अधिकता से क्षुद्र जन्तुओं के शरीर शीघ्र दृष्टिगोचर होते हैं इसलिए उनको स्वेदज वा उष्णज कहते हैं)। तथा सूक्ष्म शरीरधारी स्थूल नहीं हो जाते किन्तु स्थूलों से सूक्ष्म उत्पन्न होते हैं। यदि कोई कहे कि जैसे प्राणियों के शरीर से कोई उत्पन्न होता है वह वैसा ही सूक्ष्म वा स्थूल होता वा बड़ा-छोटा होता है। किन्तु मच्छर के शरीर से उससे बड़े-बड़े प्राणी नहीं उत्पन्न होते, न शृगाल से हाथी ही। इसका उत्तर यह है कि जैसे स्थूल प्राणियों के मैथुन संयोग से शुक्र और शोणित एक होकर गर्भ में प्राणी उत्पन्न होते हैं, वैसे सूक्ष्म प्राणियों के मैथुन संयोग से वीर्यादिक कहीं नहीं निकलता। किन्तु जो स्वेदज प्राणियों के शरीरों का सूक्ष्म उपादान कारण है, उसमें स्त्री और पुरुष की दोनों शक्ति रहती है और वह शक्ति चेतनता से युक्त होती है, उसी शक्ति के संयोग से और उष्णता के बढ़ने से उन स्वेदज प्राणियों की उत्पत्ति होती है। परन्तु वह उपादान कारण रूप दो प्रकार की शक्ति चेतनता युक्त होने से चेतन कहाती है, इसी कारण केवल जड़ से चेतन की उत्पत्ति नहीं मानी जाती और उस चेतन शक्ति को सूक्ष्म जीव भी कह सकते हैं। इसी से कार्य-कारण की अनुकूलता वा एकरूपता बनती है। अब इस कथन से सिद्ध हो गया कि स्वेदज और उद्भिज्ज जीव भी मैथुनी सृष्टि के अन्तर्गत हैं।

सृष्टि-प्रसंग में विरोध कहने वालों का समाधान: पण्डित भीमसेन शर्मा

सृष्टिप्रक्रिया में कोई वेदादि ग्रन्थों का परस्पर विरोध कहते हैं उसकी निवृत्ति के लिये सब वचनों का यहां संग्रह तो हो नहीं सकता। और वैसा करने से लेख भी अत्यन्त बढ़ जाना सम्भव है, ऐसा विचार के संक्षेप से लिखते हैं- वेदादिग्रन्थों में कहीं-कहीं सृष्टि आदि विषयों का वर्णन शब्दों के भेद से किया गया है अर्थात् जिस विषय के लिये एक पुस्तक में जैसे शब्द हैं उससे भिन्न द्वितीय पुस्तक में लिखे गये, तब किन्हीं को भ्रम हो जाता है कि इसमें विरोध है। और सब पुस्तकों का लेख एक प्रकार के शब्दों में हो नहीं सकता क्योंकि देश, काल, वस्तु भेद से भेद हो जाता है और अनेक कर्त्ताओं के होने से भी उन-उन की शैली अलग-अलग होती है परन्तु विचारशील लोग जब उसके मुख्य सिद्धान्त पर ध्यान देते हैं तो उस मूल सिद्धान्त में कुछ भेद नहीं जान पड़ता किन्तु अज्ञानियों की बुद्धि में परस्पर विरोध बना रहता है, उसका कारण अज्ञान है। इसमें वेदादि शास्त्रों का कुछ दोष नहीं और इस अज्ञानियों के भेद से संसार की कुछ हानि भी नहीं हो सकती।

तथा अन्य वेदादिग्रन्थों में जहां-जहां सृष्टि का प्रकरण है, वहां-वहां रचना के वर्णन से पूर्व और प्रलयदशा के अन्त में कहा है कि-‘उस ने विचार किया कि मैं अनेकरूप सृष्टि करूँ’१ तथा प्रश्नोपनिषद् में लिखा है कि- ‘संसार की रचना से पहले उसने तप किया’२ यहां तपशब्द से भी सृष्टि-रचना के        अनुसन्धान करने से तात्पर्य है, क्योंकि परमेश्वर के सम्बन्ध में तपशब्द का अर्थ ज्ञान ही लिया गया है। सो ब्राह्मणग्रन्थों में लिखा है कि- ‘जिसका तप ज्ञान है।’३ यही अंश यहां मनुस्मृति में भी लिखा है कि- ‘उसने अपने सामर्थ्य से अनेक प्रकार की प्रजा रचने की इच्छा से विचार करके प्रथम प्राण अर्थात् सूत्रात्मा वायु को रचा’४ सृष्टि विषयक इत्यादि सभी वचनों का एक ही आशय है।

तथा प्रश्नोपनिषद् में लिखा है कि५- ‘उसने तप अर्थात् सत्-असत् अच्छे बुरे की प्रमाण वा कारण के अनुसार समीक्षा करके दो वस्तुओं को अर्थात् प्रथम दो प्रकार की शक्ति को उत्पन्न किया। जिनमें एक का नाम रयि और दूसरे का प्राण नाम रक्खा।’ इन्हीं दोनों का स्त्रीशक्ति और पुरुषशक्ति शब्दों से भी व्यवहार करते हैं। कहीं इन्हीं को सूर्य-चन्द्रमा नामों से कहा है, क्योंकि चन्द्रमा में स्त्रीशक्ति की और सूर्य में पुरुषशक्ति की प्रधानता वा उत्तेजकता है। इन्हीं दोनों को भोग्य-भोक्ता वा प्रकृति-पुरुष नामों से भी कोई लोग कहते हैं। इस प्रकार इन दो शक्तियों का अनेक नामों से व्यवहार किया गया है। यही अंश मनुस्मृति में स्पष्ट लिखा है कि- ‘उस परमेश्वर ने प्रारम्भ में अपने सत्त्वादि गुणों की साम्यावस्थारूप प्रकृति नामक एक (जिसमें अनिर्वाच्य होने से द्वित्वादि नहीं कहा जा सकता) सामर्थ्य के दो खण्ड किये, जिसके अर्द्धभाग में पुरुष और आधे भाग में स्त्री हुई। उस स्त्री में विराट् नाम ब्रह्माण्ड के प्रत्येक वस्तु को उत्पन्न किया।’१ अर्थात् प्रलय के पश्चात् स्त्री-पुरुष के संयोग के बिना भी जितना जगत्- प्राणी उत्पन्न हुए वा जो कुछ जड़ वस्तु उत्पन्न होकर दृष्टिगोचर हुए उन सबकी उत्पत्ति स्त्रीपुरुषरूप दो शक्ति के मेल से हुई है। क्योंकि सब प्राणी और भूतों की उत्पत्ति से पहले दो शक्तियों की उत्पत्ति दिखाने का यही तात्पर्य है। अनुमान होता है कि इसी आशय को लेकर किन्हीं लोगों ने प्रारम्भ में एक स्त्री वा एक पुरुष को उत्पन्न किया माना है। उसी आदि पुरुष शक्ति को ब्रह्मा, स्त्रीशक्ति को सरस्वती वा महादेव-पार्वती (आदम-हव्वा) आदि नाम रखे गये। सम्भव है कि शक्ति की सौकर्यातिशय विवक्षा में स्वतन्त्र कर्त्ता की अविवक्षा कर देने से शक्ति का प्रयोग शक्तिमान् के स्थान पर मान लिया गया जिससे अनेक असम्भव पौराणिक कथा बन गईं। यहां प्रश्रोपनिषद् और मनुस्मृति का एक ही आशय है। केवल दोनों के कथन में किसी प्रकार कुछ भेदमात्र प्रतीत होता है। लोक में भी एक आशय वाले अविरुद्ध एक विषय को व्याख्यान कर्त्ताओं के भेद से भिन्न जैसा मान लेते हैं। वैसे ही सृष्टि में शास्त्रों का वास्तविक विरोध नहीं है।

सृष्टि प्रक्रिया में वेदों का जो सिद्धान्त है, वही इस मानवधर्मशास्त्र में भी समझना चाहिये। वेदों में जहां-जहां सृष्टि का वर्णन है वहां-वहां सर्वत्र वा प्रायः प्रथम प्रलय दशा का स्वरूप दिखाया गया है। जैसे- ऋग्वेद में लिखा है कि ‘उत्पत्ति से पहले अन्धकार से आच्छादित जगत् का कारण था।’२ इत्यादि प्रकार के मूल वेदमन्त्रस्थ आशय को लेकर के ही वाक्यभेद से मनु जी ने भी लिखा है कि३- ‘यह सब जगत् अन्धकाररूप अज्ञात- किसी प्रकार के चिह्न से रहित सब ओर से सोया जैसा था।’ तथा उक्त मन्त्र के “महिना जायतैकम्…” वाक्य का आशय भी मनुस्मृति के इसी प्रथमाध्याय में “महाभूतादिवृत्तौजाः प्रादुरासीत्तमोनुदः…”2 वर्णन किया गया है। इत्यादि प्रकार वेदानुकूल ही यहां सृष्टि का वर्णन है।

न्याय-मीमांसा और सांख्यादि शास्त्रों में कहीं-कहीं सृष्टि का वर्णन परस्पर विरुद्ध जैसा प्रतीत होता है। वहां भी वास्तविक विरोध नहीं। उस एक-एक में अपने-अपने अभीष्ट व्याख्येय कारण की प्रधानता दिखायी है। वे सब शास्त्रों में माने हुए सब कारण सृष्टि प्रक्रिया में उपयोगी होते हैं। काल, कर्म, उपादान और निमित्त शब्द वाच्यों की ही मुख्यकर शास्त्रों में कारणबुद्धि से प्रधानता दिखायी है। इन्हीं कालादि सृष्टि के कारणों की वेद में भी मुख्यता दीखती है। सो अथर्ववेद में भी “कालः प्रजा असृजत कालो अग्रे प्रजापतिम्। स्वयम्भूः कश्यपः कालात्तपः कालादजायत।। कालादापः समभवन्कालाद् ब्रह्म तपो दिशः। कालेनोदेति सूर्यः काले निविशते पुनः।।3 इत्यादि अनेक मन्त्र काल को ही सृष्टि का कारण कहते हैं कि काल से ही सृष्टि हुई। इसी प्रकार के मन्त्रों का आश्रय लेकर शास्त्रकारों ने अनेक प्रकार से काल की महिमा का वर्णन किया है। और ठीक-ठीक तो यह है कि उत्पत्ति-स्थिति-प्रलयों में काल ही प्रथम कारण है क्योंकि कभी आधी रात में सूर्य का उदय नहीं हो सकता अथवा न मध्याह्न में अस्त हो सकता है। इसी प्रकार अनियत समय में सृष्टि भी उत्पन्न नहीं हो सकती, किन्तु अपने-अपने समय में सब उत्पन्न होते, समय आने पर नष्ट होते और अपने समय में सब वस्तु स्थिर रहते हैं। समय पर वृक्ष फूलते-ह्ल लते, समय पर मेघ वर्षता है। इसी प्रकार सब पदार्थ अपने-अपने समय पर उत्पन्न होते हैं। इसीलिये कहा गया कि काल प्रजाओं को उत्पन्न करता है। अर्थात् प्रलय के पश्चात् जब उत्पत्ति का समय आता है तभी परमेश्वर भी जगत् को रचता है किन्तु समय के नियम को परमेश्वर भी नहीं तोड़ता वा तोड़ सकता। तात्पर्य यह है कि प्रलय दशा के भीतर परमेश्वर भी सृष्टि रचने में असमर्थ है। इसीलिये कहा है कि काल ने ही प्रथम सृष्टि होने से पूर्व परमेश्वर को सृष्टि रचने के लिये प्रेरित किया। जैसे प्रातःकाल में सूर्य का उदय होना मनुष्यों को प्रेरणा कर निद्रा से उठाता वा उद्योग कराता है। तथा कश्यप नाम सबको दिखाने वाला, सर्वज्ञ, सर्वाधार, सबकी स्थिति का हेतु, सर्वरक्षक, सर्वसाक्षी परमेश्वर किसी मनुष्य की सहायता के बिना रचना का उद्योग करता है। इसीलिये उसको स्वयम्भू कहते हैं। वह परमेश्वर ऐसा होने पर भी काल की प्रेरणा से ही स्वाभाविक शक्ति के साथ सब करता है। तप नाम सृष्टि रचना का ज्ञान भी काल से ही होता है कि काम मुझको इस प्रकार करना चाहिये। मनुष्य भी अपने शरीर से हो सकने वाली प्रत्येक रचना को काल से ही जानता है कि अमुक काम का समय आ गया, वह अब करना चाहिये। काल से ही जल वा प्राण उत्पन्न हुए। वेदज्ञान और दिशा भी काल से ही उत्पन्न होती हैं, काल से सूर्य का उदय और अस्त होता है। यह सब अथर्ववेद के मन्त्रों का आशय है। इसी प्रकार काल की प्रधानता वैशेषिकशास्त्र में भी विशेषकर कही है।

तथा वेद में कर्मादि को भी सृष्टि के कारण ठहराने वाले बहुत मन्त्र हैं, उनका संग्रह खोजने से हो सकता है। कर्म की प्रधानता मीमांसा और न्याय में कही है। सांख्यशास्त्र में जगत् के उपादान कारण का और वेदान्त ब्रह्मसूत्रों में जगत् के निमित्त कारण का विशेषकर व्याख्यान किया है। वे अपने-अपने अवसर पर सब प्रधान हैं। इसलिये सृष्टि में परस्पर किसी प्रकार का विरोध नहीं है।

विद्वानों ने परमेश्वर के जो काम स्वीकार किये हैं, उनको वह मनुष्य के तुल्य नहीं करता, किन्तु जैसे सूर्य के उदय होने के पश्चात् बहुत कार्य सूर्य के निमितमात्र वर्तमान रहने से होते हैं। सूर्य के होने पर उन कार्यों का वैसा होना और न होने पर वैसा न होना ही सूर्य का निमित्त कारण होना जताता है। वैसे ही परमेश्वर के प्रकट होने पर सृष्टि उत्पन्न होती है (जैसे कि स्वामी के उपस्थित सम्मुख रहने पर सेवक लोग अपना-अपना काम यथावत् करते हैं, स्वामी को कुछ कहने तक की आवश्यकता नहीं होती। पर वह चाहता है कि ये सेवक जन ऐसा करें और सेवक भी चाहते हैं कि हम स्वामी की इच्छानुसार करें) किन्तु वह कुम्हार के तुल्य हाथ से काम नहीं करता। इसी आशय को लेकर कोई लोग सृष्टि करने में परमेश्वर की अपेक्षा नहीं समझते उनको यह भ्रान्ति ही है। क्योंकि निमित्त कारण के बिना वे लोग सृष्टि-प्रक्रिया का प्रतिपादन नहीं कर सकते। अर्थात् जड़ वस्तुओं के संयोगमात्र से ईक्षण पूर्वक सृष्टि नहीं हो सकती। इसलिये श्रौतस्मार्त्त सिद्धान्त के अनुसार सर्वज्ञ चेतन कोई इस जगत् का कर्त्ता है, ऐसा सब शिष्ट विद्वानों का सम्मत हमको भी मान्य है।

उन अवान्तर प्रलयों में जिस प्रकार वा जो सृष्टि उत्पन्न होती है, उसका यहां वर्णन नहीं है किन्तु ब्राह्म कल्प में होने वाली सृष्टि का वर्णन है। और अवान्तर प्रलय ब्रह्म के एक ही दिन में (प्रत्येक मन्वन्तर के आदि-अन्त में जैसा कि सूर्यसिद्धान्त में विशेषकर वर्णन किया गया है) कई बार होते हैं उनमें भूतसृष्टि का सर्वथा प्रलय नहीं होता, किन्तु प्रायः प्राणियों का प्रलय होता है। किन्हीं-किन्हीं ग्रन्थों में अवान्तर प्रलय के पश्चात् सृष्टि का वर्णन है, उसके साथ इस ब्राह्मदिन की सृष्टि का कुछ विरोध हो तो वह विरोध नहीं जानना चाहिये, क्योंकि उन दोनों सृष्टियों में देशकालादि के भेद से विषय में भेद हो गया और विषय भेद में विरोध होता नहीं, किन्तु एक ही विषय में विरोध होता है। उन प्रलय और सृष्टि के भेदों के व्याख्यान का यहां अवसर नहीं, किन्तु यहां तो इस वर्त्तमान ब्राह्मदिन के प्रारम्भ में कैसे सृष्टि हुई ऐसा विचार किया जाता है।

उसमें अन्य भाष्यकारों का यह सिद्धान्त है कि प्रलय दो प्रकार का है एक महाप्रलय और द्वितीय अवान्तर प्रलय। महाप्रलय में ब्रह्मा भी नहीं रहता क्योंकि महाप्रलय का समय आने तक ब्रह्मा की आयु भी पूर्ण हो जाती है और अवान्तर प्रलयों में वही एक ब्रह्मा स्थित रहता वा सोता है। महाप्रलय के पश्चात् सृष्टि का वर्णन करने में ब्रह्मा की भी उत्पत्ति कहनी पड़ती है। सो यहां मनुस्मृति के सृष्टि-प्रकरण में ब्रह्मा की उत्पत्ति मानते हैं इससे महाप्रलय के पश्चात् सृष्टि का वर्णन मनुस्मृति में बतलाना बनता है। ऐसा माना जावे तो इन लोगों के कथनानुसार ब्राह्म महाकल्प का यह प्रथम दिन हुआ और इस हिसाब से ब्रह्मा अभी एक दिन का नहीं हुआ। परन्तु प्रचरित पञ्चाग् और सटल्प की प्रक्रिया से यह कथन विरुद्ध प्रतीत होता है। क्योंकि पञ्चागें के लेखानुसार सटल्प में भी यह पढ़ा जाता है- “समस्तजगदुत्पत्तिस्थितिलयकारणस्य कमलासनस्य स्वमानेन परमायुर्वर्षशतं तस्यार्द्धं पञ्चाशद् गतमथ ब्रह्मणो द्वितीये परार्द्धे प्रथमवर्षे प्रथममासे प्रथमपक्षे प्रथमदिवसे द्वितीययामे- इत्यादि पञ्चाग्ेषु दृश्यते।” इसका तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय करने वाले ब्रह्मा की अपने दिन आदि के परिमाण से सौ वर्ष की अवस्था है उसका आधा ५० वर्ष बीत गया अब ब्रह्मा के द्वितीय उत्तरार्द्ध के प्रथम वर्ष के प्रथम मास के प्रथम पक्ष के प्रथम दिन में यह द्वितीय प्रहर है इत्यादि। पाठकों को इससे स्पष्ट विरोध प्रतीत हो जायगा। और परस्पर विरुद्ध पक्ष कदापि ठीक नहीं होते, यह विद्वानों का सिद्धान्त है। और वह ब्रह्मा अपने वर्षों से नियत सौ वर्ष जीवता है। यही महाप्रलय के अन्त में ह्लि र उत्पन्न होकर और अवान्तर प्रलयों में जाग-जाग कर सृष्टि रचता है। इत्यादि प्रकार शरीरधारी की असम्भव आयु स्वीकार करते हैं।

इसका उत्तर यह है कि किसी शरीरधारी की इतनी अवस्था हो नहीं सकती क्योंकि अन्य प्राणियों के तुल्य उसका शरीर भी मिट्टी आदि के परमाणुओं से मिलकर बना है। वे संयोगी पदार्थ कोई ऐसे नहीं जो अर्बों वर्ष चल जावें। सौ वर्ष की अवस्था वाला पुरुष है वा ‘मैं सौ वर्ष तक देखूं’ इत्यादि प्रकार वेद में भी कहा है जिससे सिद्ध है कि मनुष्य का आयु सौ वर्ष का है। और सौ शब्द से दैव वा ब्राह्म कोई सौ वर्ष लिये जावें सो नहीं, किन्तु मानुष ही लिये जावेंगे, क्योंकि वेदसम्बन्धी सब ही नियम वा आज्ञा मनुष्य पर ही घटती हैं। कोई कहे कि वेद में तो “भूयश्च शरदः शतात्” इस प्रमाण के अनुसार अधिक भी आयु हो सकती है। तो भी कोटिगुण अधिक नहीं हो सकती। संयेाग से उत्पन्न होने वाले वस्तु की ऐसी अवधि हो यह कौन बुद्धिमान् मान लेगा ?

तथा संयोग से उत्पन्न हुआ परिच्छिन्न- जिसकी लम्बाई-चौड़ाई आदि की अवधि है, ऐसा मनुष्य अचिन्त्य शक्ति से युक्त और अनन्तशक्ति नहीं हो सकता। सर्वशक्तिमान् परमेश्वर यदि अपने तुल्य अन्य ब्रह्मा को उत्पन्न करे तो जानो यह स्वयं जगत् को नहीं बना सकता। और जब जगत् को नहीं रच सकता तो उसका सर्वशक्तिमान् होना भी सिद्ध होना दुस्तर है। और ऐसा मानने से अनेक ईश्वर माननेरूप दोष भी उनके मत में आता है। और हमको ऐसा कोई प्रयोजन भी नहीं जान पड़ता कि जो प्राणियों की रचना के लिये किसी देहधारी पुरुषविशेष ब्रह्मादि को परमेश्वर बनाये। तिससे यह पक्ष श्रेष्ठ नहीं है।

कोई मेधातिथि आदि भाष्यकार इस प्रसग् में प्रचरित सांख्य के मतानुसार सृष्टि का वर्णन करते हैं तथा इस मनुस्मृति के सृष्टि-प्रकरण में कोई कुल्लूक भट्ट आदि परमेश्वर ही जगत् का उपदानकारण है ऐसे आधुनिक वेदान्त मत को स्वीकार करके सृष्टिप्रक्रिया का वर्णन करते हैं। और वेदान्त तथा सांख्य के सिद्धान्त में परस्पर विरोध मानते हैं, वह उन लोगों का केवल भ्रममात्र है, किन्तु सांख्य-वेदान्त में सृष्टिप्रक्रिया में मतभेद नहीं है। इस कार्य जगत् का उपादानकारण जड़ कारण ही हो सकता है। कार्य-कारण की विरूपता वा विरुद्धता किसी प्रकार सिद्ध करना ठीक नहीं हो सकता। अर्थात् वेदान्त का यह सिद्धान्त नहीं है कि जगत् का उपादानकारण चेतन आत्मा है। और सांख्य में भी किसी परमात्मा के बिना स्वतन्त्र जड़ स्वरूप प्रकृति विचार पूर्वक होने वाली सृष्टि को नहीं बना सकती। इसलिये दोनों का विरोध न होना ही ठीक है। वेदान्त में निमित्त कारण का तथा सांख्य में उपादान का प्रधानता के साथ वर्णन होने से लोगों को भ्रान्ति हो गई होगी कि सांख्यवादी तो केवल प्रकृति को ही जगत् का कारण मानते हैं, और वेदान्त में भी ब्रह्म को ही कारण माना है, ऐसा अनुमान से भ्रम होना सम्भव जान पड़ता है। सृष्टि के आरम्भ में परमेश्वर सृष्टि बनाने के पूर्वकल्प सम्बन्धी प्रकार को सोचता है, इसी का नाम ईक्षण, इसी का नाम तप और यही उसका प्रादुर्भाव है, यही उसकी प्रकटता है और इसी से वह स्वयम्भू कहाता है। इन वाक्यों से अन्य किसी देहधारी की उत्पत्ति होती हो ऐसा विचार न करना चाहिये। इस सब कथन से एक ही परमेश्वर इस सृष्टि का निमित्त कारणरूप है, यह कथन सिद्ध होता है। वाद-विवाद तो बने ही रहते हैं।

सृष्टि-प्रकरण का सामान्य विचार :पण्डित भीमसेन शर्मा

अब क्रमप्राप्त छठे सृष्टि प्रकरण की आलोचना करनी चाहिये। इस प्रकरण में कई अंश विचारने योग्य हैं, जिनमें पहला अंश यह है कि इस मानवधर्मशास्त्र में सृष्टि का वर्णन क्यों होना चाहिये ? क्योंकि इसका नाम धर्मशास्त्र है, सृष्टि का वर्णन करना कोई धर्म नहीं है। और यही बात अन्य महर्षियों ने मनु जी से पूछी सो इस मनुस्मृति के आरम्भ में द्वितीय श्लोक में ही लिखा है कि- ‘हे मनु जी! आप सब ब्राह्मणादि वर्णों और वर्णसटरों के धर्म कहने योग्य वा समर्थ हैं।’१ केवल इसी एक प्रश्न के ऊपर यह सब धर्मशास्त्र बना है अर्थात् यह मनुस्मृति इसी प्रश्न का उत्तररूप है, तो इसमें सृष्टि की उत्पत्ति कहने का काई प्रश्न भी नहीं, ह्लि र इस प्रथमाध्याय में सृष्टि का वर्णन क्यों किया गया ? और किया गया तो ‘आम पूछने पर कचनार के उत्तर देने’ के तुल्य प्रमत्तदशा का कथन हो गया। इस प्रसग् में इग्लेण्ड निवासी व्यूलर साहब ने कहा है कि- ‘गौतम और वसिष्ठ आदि के धर्मशास्त्रों में तथा मानव धर्मसूत्रों में सृष्टि का वर्णन नहीं प्राप्त होता और न यह सृष्टि की प्रक्रिया का वर्णन धर्मशास्त्र के साथ सम्बन्ध रखता है तथा सृष्टि का व्याख्यान धर्म भी नहीं हो सकता और धर्मशास्त्रों की परिपाटी से भी यह विपरीत है। इससे सृष्टि का प्रकरणरूप प्रथमाध्याय इस पुस्तक में पीछे किन्हीं लोगों ने मिलाया है।’ यह उक्त गौराग् महाशय का आशय है। इसी शटा को लेकर दो श्लोक२, पीछे बनाकर किन्हीं लोगों ने द्वितीय श्लोक के आगे धरे हैं। कि- ‘मनुष्य पश्वादि, पक्षी सर्पादि, मक्खी मच्छरादि और वृक्षादि तथा पृथिवी आदि सब भूतों की उत्पत्ति और प्रलय को सबके आचरण और विवादों का निर्णय- राज्यव्यवस्था राजनीति आदि सम्पूर्ण कहो।’ ये दोनों श्लोक मुम्बई के छपे छह टीका से युक्त पुस्तक में पाठान्तर बुद्धि से छपे हैं। और इन दोनों का व्याख्यान आधुनिक अति नवीन टीकाकार नन्दन और रामचन्द्र ने किया है। इससे इन दोनों श्लोकों का प्रक्षिप्त होना स्पष्ट प्रतीत होता है। यदि पूर्व से ये श्लोक होते तो पहले भाष्यकार मेधातिथि आदि भी इनका भाष्य करते वा ऐसी शटा न करते कि “क्वास्ताः क्व निपतिताः”। सो ये श्लोक वास्तव में इस पुस्तक के नहीं, इससे पीछे किसी ने मिलाये, यही निश्चय है। इस पर अधिक विचार करने की आवश्यकता नहीं है।

इस प्रसग् में जो प्रश्न और उत्तर में विरोध आता है, उसको हटाने के लिये भाष्यकारों ने समाधान दिये हैं। उनमें पहले मेधातिथि भाष्यकार ने लिखा है कि- ‘इस सृष्टिप्रक्रिया के वर्णन से इस धर्मशास्त्र का महान् प्रयोजन जताया गया है क्योंकि ब्रह्मा से लेकर वृक्षादि पर्यन्त धर्म-अधर्म ही जिनके निमित्त, ऐसी संसार की दशा इस प्रकरण में कही गयी है। ‘वैसे कर्म होने में बहुत प्रकार के तमोगुण से ढपे हुए स्थावर योनि में जीव रहते हैं।’१ तथा आगे बारहवें अध्याय में भी कहा है कि- ‘अपने कर्मों के अनुसार जीवात्मा की इन पूर्वोक्त दशाओं को विचारपूर्वक देखकर धर्म-अधर्म से हटाकर केवल धर्म में मन लगावे।’२ इस प्रकार धर्म में मन के ठहराने से असीम ऐश्वर्य प्राप्ति का हेतु धर्म और इससे विपरीत असीम दरिद्रता का हेतु अधर्म है। उन दोनों का स्वरूप जानने के अर्थ महान् फल वाले इस     धर्मशास्त्र को पढ़ना चाहिये, यह इस प्रथमाध्याय का तात्पर्य है। इसके पीछे गोविन्द राज भाष्यकार ने लिखा है कि- ‘जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय धर्म-अधर्म के अधीन हैं। उसके प्रतिपादनार्थ होने से यह शास्त्र महान् प्रयोजन वा ह्ल ल वाला है, इस कारण यत्न के साथ पढ़ना चाहिये। इसलिये जगत् की उत्पत्ति का प्रकरण प्रथम आरम्भ किया है।’ इसके पीछे सर्वज्ञ नारायण ने लिखा है कि- ‘इस धर्मशास्त्र में ब्राह्मणादि वर्णों के क्रम से धर्म का कहना अभीष्ट होने से सम्पूर्ण देवताओं की उत्पत्ति रूप तत्त्वकथन का ज्ञान होता है, उससे ब्राह्मणादि वर्णों में पूर्व-पूर्व की श्रेष्ठता का प्रतिपादन इष्ट होने तथा मुखादि विशेष स्थानों से उत्पत्ति होने से वे ब्राह्मणादि श्रेष्ठ हैं, उस धर्म को कहने के लिये धर्मशास्त्रकर्त्ता ब्रह्मा की उत्पत्ति दिखाने को अपनी उत्पत्ति द्वारा जगत् की पूर्व प्रलयावस्था को प्रथम कहते हैं।’ इन सबके आशयों का खण्डन करते हुए कुल्लूक भट्ट कहते हैं कि- ‘ऋषियों के धर्मविषयक प्रश्न में जगत् के कारण होने से ब्रह्म का प्रतिपादन करना भी धर्म का ही कथन है, किन्तु प्रकरण-विरुद्ध कुछ नहीं है, क्योंकि आत्मज्ञान भी धर्म ही है। सो मनु ने ही धैर्य, क्षमा आदि दस प्रकार के धर्म कहने में विद्या शब्द वाच्य आत्मज्ञान को धर्म कहा है।’ इत्यादि प्रकार से कुल्लूक भट्ट ने बहुत कुछ लिखा है। राघवानन्द भाष्यकार समाधान कहते हैं कि- ‘धर्म के उपयोगी चार वर्णों की उत्पत्ति के क्रम से प्रधानता वा अप्रधानता मुखादि अवयवों से कहने के लिये ब्रह्मज्ञान होने के अर्थ सृष्टि के जानने की आवश्यकता प्रकट करते हुए श्रोतव्य कहते हैं।’ नन्दन और रामचन्द्र ने इस विषय में कुछ विशेष नहीं कहा, क्योंकि उनको उक्त दो श्लोक पुस्तक में मिलने से वैसी शटा ही न हुई। मेधातिथि और गोविन्दराज का समाधान विषय में एक ही आशय है। इन समाधानों से व्यूलर साहब का किया आक्षेप किसी प्रकार कट जाता है, सो बुद्धिमानों को विचारणीय है। और गौतमीयादि धर्मशास्त्रों में यदि सृष्टि का वर्णन नहीं, इससे अन्य धर्मशास्त्रों में भी न हो, यह अयुक्त है। क्योंकि जो विषय एक पुस्तक में न हो, वह अन्य किसी में क्यों न रखा जाये ? क्या एक-दो अज्ञानी वा अपूर्ण विचारशक्ति वाले हों तो सभी वैसे होने चाहियें ? वे गोतमादि के धर्मशास्त्र प्रधान नहीं, किन्तु गौण हैं। और यह मानवधर्मशास्त्र सर्वोपरि प्रधान है। इसलिये गम्भीर और प्रबल काम प्रधानों में ही हो सकते हैं, वैसा महत्त्व सबमें नहीं हो सकता। और यह नियम कहीं नहीं मिलता कि जो बात एक स्थल में न हो तो अन्यत्र होने से उसकी निन्दा हो जावे। इसलिये जिन धर्मशास्त्रों में सृष्टि का वर्णन नहीं है, उनमें यह भी एक प्रकार की न्यूनता है। और समस्त वेद धर्म का मूल है, यह सब आर्यों के सम्मत है। यदि सृष्टि के वर्णन का धर्म के साथ सम्बन्ध न हो तो वेद में भी सृष्टि का कथन स्पष्ट है, उसका भी धर्म के साथ सम्बन्ध न हो सकने से सब वेद का धर्ममूलक कहना न बने। और जब यह मानवधर्मशास्त्र मुख्य है तो इसकी जो परिपाटी है वही धर्म शास्त्रों की जाननी चाहिये। इससे विरुद्ध चलने वाले ही दूषित ठहर सकते हैं। अन्य धर्मशास्त्र इसी के आश्रयभूत हैं। इससे धर्मशास्त्र के प्रारम्भ में सृष्टि का वर्णन करना ठीक ही है।

मेधातिथि आदि भाष्यकारों ने अपनी-अपनी बुद्धि, विद्या के अनुसार         समाधान दिये हैं, वे किसी अंश में किसी प्रकार सम्भव हैं। इसलिये उनका खण्डन करने में प्रयत्न न करके यथाबुद्धि हम भी अपने विचार को प्रकाशित करते हैं- जिन किन्हीं शास्त्रों में जो कुछ जिस किसी कथनीय विषय का प्रस्ताव किया जाता है, वहां सभी स्थलों में उस विषय के चार भाग करके कथन करना चाहिये। वैसा करने से वह सुलभ होता है। सो योगभाष्य में व्यासदेव ने कहा भी है कि- (१.) रोग, (२.) रोग का कारण, (३.) रोगरहित होना, (४.) ओषधि करना। ये चार भेद त्याज्य पक्ष में हैं। इसी प्रकार सभी स्थलों में प्रथम उसके स्वरूप का निरूपण करना, द्वितीय उसके हेतु मूलकारण वा निदान को बताना कि जिससे वह उत्पन्न हुआ हो। तृतीय उसके प्रतिपक्षी शत्रु को जताना कि जिससे उसकी निवृत्ति वा हानि हो सकती है। चतुर्थ उसको प्राप्त होने वा छोड़ देने के परिणाम वा ह्ल ल को जान लेना। प्रथम जिसको त्यागना वा ग्रहण करना चाहते हैं, उसके वास्तविक स्वरूप को जान लेना चाहिये। स्वरूप का ज्ञान हुए बिना त्याग वा ग्रहण करना कदापि नहीं बन सकता। द्वितीय उसके हेतु मूल उपादान कारण का जानना इस कारण आवश्यक है कि जैसे धातुओं की विषमता से रोग होता है तो उस विषमता के मिटाने का उपाय करना, जब तक विषमता न मिटेगी तब तक रोग नहीं जा सकता। वा जैसे दीपक जलने का कारण स्नेह वा चिकनाई जान लिया जाय तो उस कारण से दीपक जला सकते और कारण का अभाव करके दीपक की निवृत्ति भी कर सकते हैं। तृतीय प्रतियोगी शत्रु का ज्ञान इस कारण आवश्यक है कि जैसे रोग का प्रतियोगी औषध वा पथ्य है। वहां अनेक प्रतियोगियों में कौन किसका प्रतियोगी है, ऐसा जान लेने से औषधादि प्रतियोगी के प्रयोग से रोगादि की निवृत्ति कर सकता है। चतुर्थ ह्ल ल जाने बिना निष्प्रयोजन वा निष्ह्ल ल कार्य के करने में रुचि वा प्रीति नहीं हो सकती इस कारण ह्ल ल का जानना आवश्यक है। यह सब प्रतिकूल वा त्याज्य वस्तु रोगादि में क्रम है। और अनुकूल में कारण मुख से (अर्थात् प्रथम कक्षा में धर्मादि के कारण को दिखाकर द्वितीय कक्षा में उसके स्वरूप को कहना जैसे प्रथम सृष्टि प्रक्रिया में धर्म का हेतु कहकर आगे स्वरूप कहा है) भी व्याख्यान होता है।

वैसे यहां मुख्य प्रसग् में देखो- कि मुख्य वस्तु जिसका स्वरूप जानना चाहिये वह धर्म ग्राह्य और अधर्म त्याज्य है। और उसका मूलकारण द्वितीय है कि जिससे धर्म उत्पन्न होता है, उस वेद और परमेश्वर को जानना वही धर्म का भण्डार है और परमेश्वर का वा कार्य जगत् के साथ रहने वाले धर्म का सम्बन्ध दिखाना यही उत्पत्ति प्रक्रिया है। तृतीय धर्म का अधर्म और अधर्म का धर्म प्रतियोगी है।   धर्म के ह्ल ल सुखविशेष वा अधर्म के ह्ल ल दुःखविशेष का जानना। निर्मूल वस्तु शशविषाण के तुल्य मिथ्या न हो इसलिये उसका समूल होना साध्य है और धर्म के समूल सिद्ध करने में सृष्टि का वर्णन धर्मानुकूल ही है, प्रतिकूल नहीं। प्रतिकूल की हानि हुए बिना अनुकूल की सम्यक् प्रवृत्ति नहीं हो सकती, ऐसा मान के शत्रुरूप अधर्म की व्याख्यान पूर्र्वक निवृत्ति करनी अवश्य चाहिये। जो कुछ मनुष्य करता है वह समूल ही करना चाहिये अर्थात् निर्मूल वस्तु वा विषय के जानने का कभी उद्योग न करे। धर्म का मूल वेद है और वेद की नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभाव परमेश्वर से प्रवृत्ति होती है। धर्र्म के आधार ब्राह्मणादि वर्ण हैं और उन सब वर्णों को परमेश्वर ने धर्म के साथ ही धर्म की प्रवृत्ति के लिये उत्पन्न किया है। ऐसे अनेक प्रकार होने से धर्म के साथ सृष्टि का मुख्य सम्बन्ध है। और सृष्टि के आरम्भ से ही जिस धर्म की प्रवृत्ति है यही सनातन धर्म है यह जताने को भी सृष्टि के साथ धर्म का सम्बन्ध दिखाना चाहिए। इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय रूप तीन ही अवस्था हैं। उन तीनों दशाओं में सर्वोपरि विचारशील बुद्धिमान् उत्तरदाता मनु जी को धर्म की स्थिति कहनी चाहिये। क्योंकि प्रश्नकर्त्ता महर्षियों ने स्थिति दशा में ही धर्म नहीं पूछा, यदि प्रश्न में ऐसा कोई शब्द पड़ा होता कि संसार की वर्त्तमान दशा में धर्म कहो तो उत्पत्ति, प्रलय में धर्म का सम्बन्ध दिखाना ‘आम के पूछने में कचनार के उत्तर देने’ के समान विरुद्ध होता सो तो है नहीं, इस कारण सामान्य से किये प्रश्न का तीनों अवस्था में उत्तर देना ही ठीक है, इससे कुछ विरोध नहीं है। और धर्मशब्द भी द्रव्य वा जाति वाचकों का गुण वा स्वभाव है, तिससे किस दशा, देश, काल वा वस्तु में कैसा गुण वा स्वभाव है उसका यथार्थरूप से जान लेना ही धर्मज्ञान है, और ज्ञान के अनुकूल आचरण करना     धर्म का आचरण कहाता है। ऐसा धर्म किसी एक ही दशा में नहीं हो सकता, किन्तु सब दशाओं में स्वरूप भेद से रहता है। इसी प्रकार विपरीत ज्ञान अधर्म दुःख का हेतु है यह कह सकते हैं। इसी पूर्वोक्त आशय को लेकर के ही ‘हम इस कारण अब धर्म की व्याख्या करेंगे’१ यह वैशेषिककार की प्रतिज्ञा बन सकती है। क्योंकि मनुस्मृति आदि ग्रन्थकारों के समान उस वैशेषिक ग्रन्थ में धर्म का व्याख्यान नहीं दीख पड़ता है। इसलिये जिस गुण वा स्वभाव का नाम धर्म है, वह कार्यरूप वा कारणरूप वस्तु में उत्पत्ति, स्थिति वा प्रलय तीनों दशा में अवस्थित अवश्य रहता है। इस कारण प्रश्न के सामान्य दशापरक होने से तीनों दशा के साथ उसका व्याख्यान उचित है और जो प्रलय वा उत्पत्ति दशा में धर्म न रहे उसका सनातन होना नहीं कह सकते। इसलिये सब दशाओं के साथ धर्म मानना चाहिए।

प्रलय दशा में धर्मी के साथ धर्म भी दबा हुआ रहता है, उत्पत्ति दशा में वही धर्म धर्मी के साथ प्रकट हो जाता है। जो कारणदशा में नहीं है उसका यदि कार्यदशा में भाव माना जावे तो सूखे चिकनाहट रहित तिलों में से भी तेल निकलना चाहिये सो नहीं होता। तो धर्म को भी सब दशाओं के साथ अवस्थित मानना चाहिये, इस कारण तीनों दशाओं के साथ दशा के तुल्यरूप से ही धर्म का व्याख्यान होना भी ठीक है। कैसे गुण वाले सामर्थ्य वा कारण से किस वस्तु की उत्पत्ति हुई ? ऐसा ज्ञान हुए बिना कार्य में भी गुणरूप धर्म का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो सकता। और वैसा ज्ञान उत्पत्ति दशा का क्रमपूर्वक वर्णन हुए बिना नहीं हो सकता। इस कारण धर्म का मर्म ज्ञान होने के लिये सृष्टि का वर्णन पहले किया गया। तथा सनातन धर्म कारण से ही कार्य में आते हैं, उनका उत्पत्ति प्रकरण के साथ सुगमता से ज्ञान हो सकता है। जैसे मुख से ब्राह्मण रचा गया, इसलिये वर्णों में ब्राह्मण मुख्य है। यहां कारण से ही मुख्यता आयी है। इस कारण धर्म की व्याख्या के साथ सृष्टि की प्रक्रिया कहनी चाहिये। तथा एक उत्तर यह भी है कि जब कोई किसी वस्तु को पूछकर जानना चाहे तो उत्तरदाता को उचित होगा कि प्रश्नकर्त्ता की ठीक तृप्ति होने के लिये उस विषय वा वस्तु को मूल वा उत्पत्ति सहित समझा दे, जिससे किसी प्रकार का सन्देह शेष न रह जावे। इस कारण     धर्म प्रकरण में सृष्टि का भी वर्णन होना उचित है। इस कथन से व्यूलरसाहब का भी उत्तर आ गया।

और धर्म शब्द का अर्थ भी जो धारण, आत्मा वा अन्तःकरण से मिलित वा अनुकूल मान के आकर्षण किया जावे वह धर्म कहा गया है, वह सब उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयदशा में वर्णों से किस प्रकार धारण किया जाता है, ऐसा प्रश्न का आशय माना जावे तो प्रश्न उत्तर में कुछ भी विरोध नहीं, किन्तु मेल है। व्यूलरसाहब के कहने से राज्य की व्यवस्था करना भी धर्मशास्त्र के अनुकूल नहीं। तब ऐसी दशा में यदि कोई पूछे कि क्षत्रिय का क्या धर्म है ? तो क्या कहना चाहिए ? इससे राज्य की व्यवस्था करना क्षत्रिय का धर्म है, उसकी व्याख्या     धर्मशास्त्र में क्यों न हो ? व्यूलरसाहब का आशय कोई विद्वान् सुने तो यही निकलेगा कि जो मनुष्यजाति की उन्नति के कारण हैं अथवा जिसके सेवन से वेदमत के अनुगामीमात्र आर्य लोगों की उन्नति हो सकती है वे ही विषय इस मनुस्मृति पुस्तक में आधुनिक लोगों ने मिलाये हैं। जैसे राजधर्म को प्र्रक्षिप्त कहा इत्यादि। इस पर विचारशीलों को ध्यान देना चाहिए कि इससे क्या तत्त्व निकलता है ? सो भी बुद्धिमान् लोग विचार ही लेंगे। अर्थात् भारतवासियों की पुरानी दशा को निकृष्ट कहना। वर्त्तमान में तो प्रत्यक्ष हीन दशा में हैं। अर्थात् उनको आर्यों की उच्च दशा कदापि अभीष्ट नहीं। इससे अनेक राजनैतिक लोग गूढ़ प्रयोजनसिद्धियां मानते हैं।