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सूतकशुद्धि और द्रव्यशुद्धि का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब द्रव्य और सूतक की शुद्धि का कुछ विचार किया जाता है। इस आशौचप्रकरण में पहली प्रेतशुद्धि अर्थात् किसी के मरने पर जो अशुद्धि मानी जाती है, वह आशौच शोक से होता है। जहां अपने किसी प्रिय वा इष्टमित्रादि का मरणरूप वियोग होता है, वहां प्रीति और मित्रतादि के न्यूनाधिक होने से सबको शोक भी न्यूनाधिक होता है। जब किसी कारण से मन और शरीर की आकृति को ग्लानि प्राप्त होती है, उसको अशुद्धि का सामान्य लक्षण जानो। किसी पिता आदि अपने सम्बन्धी के मरने पर मनुष्य के चित्त में स्वयमेव ग्लानि और शोक उत्पन्न हो जाता है, और मन, वाणी तथा शरीर के मलिन, शोकातुर होने पर शुद्ध, पवित्र वा प्रसन्न मन, वाणी और शरीरों से सेवने योग्य शुभ कर्म ठीक सिद्ध नहीं हो सकते। उनका अनध्याय रखने के लिये और सर्वसाधारण को अपनी शोकदशा जताने के लिये कि हम ऐसी दशा में हैं। हमसे सब कोई ऐसा व्यवहार न करें जैसा प्रसन्न दशा में करना योग्य है, इत्यादि विचार से शोक के दिनों की अवधि और उन दिनों में अपनी विशेष दशा [कुशादि के आसन पर, पृथिवी पर बैठे रहना, खटिया पर न सोना, न लेटना, स्त्री के पास न जाना, सुगन्धि आदि न लगाना आदि] रखनी चाहिये। पहले हुए विचारशील ऋषि-महर्षि लोगों ने विचारपूर्वक अनुमान किया कि इतने काल में शोक की निवृत्ति हो सकेगी, उतना काल अशुद्धि का बताया गया। यदि यह अवधि अर्थात् शोक रखने की सीमा न की जाती तो साधारण लौकिक मनुष्य निश्चय न कर पाते कि कितने काल में शोक-निवृत्ति करनी चाहिये। अथवा शोक के बने रहते ही स्वस्थबुद्धि से होने योग्य कामों का आरम्भ करते हुए कार्यसिद्धि को प्राप्त हों यह सम्भव नहीं है। इस कारण शोकरूप अशुद्धि के समय का निर्णय करने के लिये सामान्य कर ब्राह्मणादि वर्णों के पृथक्-पृथक् बांधे। सो मानवधर्मशास्त्र के इसी प्रकरण में कहा है कि- ‘ब्राह्मण दश दिन, क्षत्रिय बारह दिन, वैश्य पन्द्रह दिन और शूद्र एक मास में शुद्ध होता है।’१ ज्ञान के न्यूनाधिक होने से ब्राह्मणादि में न्यूनाधिक दिनों तक शुद्धि की अवधि रखी है। ब्राह्मण वर्ण के सबसे अधिक ज्ञानवान् होने से उसका शोक शीघ्र निवृत्त हो सकता है, इसी कारण उसके लिये सबसे कम दश दिन अशुद्धि रखी। और अन्य तीनों वर्णों की अपेक्षा शूद्र अधिक अज्ञानी होता, इस कारण उसको एक महीने भर अशुद्धि मानने को कहा गया [आजकल प्रायः प्रान्तों में चारों वर्णों में दश ही दिन की अशुद्धि मानी जाती है, यह प्रचार वर्णव्यवस्था के ठीक न रहने से बिगड़ा है अर्थात् शास्त्र से विपरीत चल गया है, सो ठीक नहीं है।] शोकनिवृत्ति के अन्तिम दिन में घर, शरीर और वस्त्रादि की विशेष शुद्धि करनी चाहिये। उससे भी मन की प्रसन्नता होने से शोक की निवृत्ति होना सम्भव है। उसी समय कुटुम्बी लोग एकत्र होकर भोजनादि करें तथा अन्य सुपात्र ब्राह्मणों को भी उस समय यथाशक्ति दान-दक्षिणा देवें। इससे द्वितीय अच्छे धर्मसम्बन्धी कार्य में लगने से शोक की निवृत्ति होना सम्भव है। और दानादिक भी धर्मयुक्त शुभकर्म है। भविष्यत् में उससे अच्छा फल होगा, इस कारण अवश्य सेवने योग्य है। यह दश आदि दिनों में सामान्य कर उत्सर्ग रूप शुद्धि दिखायी है। अन्य वचन इसी के अपवाद वा बाधक माने जावेंगे। जैसे कहा कि- ‘सात पीढ़ी वालों को मरणान्तर दश दिन अशुद्धि माननी चाहिये तथा कहीं कभी चार, तीन और एक दिन में भी शुद्ध हो सकते हैं।’१ यहां ये सब विकल्प इसलिये दिखाये गये हैं कि विशेष दशाओं में शीघ्र शुद्धि कर लेने के लिये हैं अर्थात् जहां जैसी आवश्यकता पड़े, वहां वैसी शुद्धि कर लेनी चाहिये। कहीं ज्ञान के अतिप्रबल होने से शीघ्र ही शोकनिवृत्ति हो सकती है, उसको शोक नहीं करना चाहिये। कहीं मरा हुआ प्राणी ही विशेष शोक करने योग्य नहीं, वहां भी शीघ्र ही शोक की निवृत्ति हो सकती है। कहीं शीघ्र शुद्धि न करने में विशेष हानि देखकर शीघ्र शुद्धि और शोक की निवृत्ति करनी चाहिये जैसे किसी के विवाह का समय आ गया और सब अन्नपानादि पदार्थ भी जोड़ लिये गये कि जिनका व्यय होगा, ऐसे समय में किसी का मरण हो जावे और पूरी अशुद्धि मानने में विवाह का नियत समय निकल जावे तो सब भोज्य वस्तु बिगड़ जाना सम्भव है अथवा समय टल जाने से वह विवाहादि कार्य ही किसी कारण पीछे न हो सके तो ऐसी दशा में शीघ्र ही शुद्धि करके वह विवाहादि कार्य भी करना चाहिये। कहीं तत्काल के उत्पन्न हुए बालक के मर जाने पर उसमें विशेष प्रीति के न हो पाने से शोक भी न्यून होगा ऐसे समयों में शीघ्र शुद्धि करनी चाहिये। तथा इसी ग्रन्थ मनुस्मृति में न्यायाधीश राजा के लिये आज्ञा है कि वह उसी समय शुद्ध हो जावे, न्याय कभी बन्द न हो। युद्ध में अशुद्धि नहीं लगती इस प्रकार से लोक के व्यवहार की सिद्धि के लिये मृतक अशुद्धि का निर्णय किया गया है किन्तु मृतक को जन्मान्तर में फल पहुंचाने के उद्देश्य से कुछ भी कर्त्तव्य नहीं है। इसका विशेष विचार श्राद्धसम्बन्धी विचार के प्रकरण में दिखा चुके हैं। समीप रहने वाले भाई-बन्धुओं को मृतक का जितना शोक होता है, उतना विदेशस्थों को नहीं होता। विदेश में रहने वाले बन्धु मरने वाले के प्राणत्याग को और उसके जलाने आदि को अपनी आंखों से नहीं देखते। इसी कारण उन विदेशस्थों को मृतक का संसर्ग न होने और शोक के कम होने से अशुद्धि भी उसके लिये कम कही गयी है। समीपी सगे और सात पीढ़ी वालों की अपेक्षा अन्य कुटुम्बियों को भी शोक कम होता है, इसलिये उनको भी कम शौच बताया गया है। और जो अशुद्धि के दिन रखे गये हैं, उन दिनों में जैसे-जैसे नियम सेवने वा जो-जो बर्त्ताव करना चाहिये, वे ‘खार-लवणादि न खावें’१ इत्यादि प्रकार इसी प्रकरण में कहे हैं। विशेष विचार भाष्य में देखना चाहिये।

यह मरण के पश्चात् हुई अशुद्धि कही गयी। आगे सूतकविषय में कुछ कहते हैं। सूतकशब्द उत्पत्ति में होने वाली अशुद्धि का वाचक है क्योंकि सूतक शब्द उत्पत्ति अर्थ वाले सूधातु२ से बना है, इसी प्रकरण में लिखा है कि- ‘मरणसम्बन्ध की अशुद्धि सब कुटुम्बियों को लगती है परन्तु जनने की अशुद्धि केवल माता- पिता को ही लगती है। उसमें भी माता विशेषकर अशुद्ध रहती है, पिता तो जातकर्म किये पश्चात् स्नान करके शुद्ध हो जाता है।’३ नव महीनों का जुड़ा हुआ मैल योनि द्वारा निकलता है, इस कारण विशेष कर दश दिन माता की ही अशुद्धि कही गयी है, तो भी सूतिका और उसके पास के वस्त्रादि को जो-जो स्त्री-पुत्रादि छूते हैं, वे ही सग् के दोष से किसी प्रकार अशुद्ध होते हैं। इसी से सामान्य से उन सब को शुद्धि करनी चाहिये। मृतक अशुद्धि और सूतक में बहुत भेद है। मृतक दशा में विशेष कर अशुद्धि का कारण शोक है, परन्तु यहां सूतक में मलिनता और आनन्द दोनों अशुद्धि के कारण हैं। अर्थात् सन्तान की उत्पत्ति का एक बड़ा आनन्द होता है और अधिक आनन्द की प्राप्ति में मनुष्य का चित्त ठीक स्वस्थ और व्यवस्थित नहीं रहता, इससे विशेष कार्य ठीक-ठीक नहीं हो सकते। इस कारण अनेक कार्यों का अनध्यायरूप अशुद्धि मानी है। परन्तु जनने की अशुद्धि छोटी है।

इस ग्रन्थ में द्रव्यशुद्धि से पहले शरीर की शुद्धि पर कुछ कहा गया है। द्रव्यों में अनेक प्रकार के सामान्य-विशेष वस्तुओं की शुद्धि कही गयी है। परन्तु इस प्रकरण में किसी जाति वा समुदाय विशेष के स्पर्शमात्र से अशुद्धि नहीं दिखायी गयी और किसी को छू लेने से चौका आदि की अशुद्धि भी नहीं कही। इससे लोक में प्रचरित ऐसी अशुद्धि धर्मशास्त्र के अनुकूल नहीं है। परन्तु घृणित मनुष्य वा वस्तु के छूने से अशुद्धि अवश्य होती है, इसी से चाण्डाल का स्पर्श करना लोक में निषिद्ध है। जिससे मन में ग्लानि और बुद्धि की अप्रसन्नता हो, वह अशुद्ध है। घर, वस्त्र और शरीरादि की सबको सब समय शुद्धि रखनी चाहिये, परन्तु इस शुद्धि से मनुष्य का कल्याण नहीं हो सकता। लिखा है कि- ‘जो भीतर मन से शुद्ध है वही शुद्ध है किन्तु मिट्टी-जल से शुद्ध हुआ शुद्ध नहीं।’१ यहां मन-शुद्धि की मुख्यता दिखायी है, किन्तु मिट्टी-जल से शुद्धि करने के निषेध में अभिप्राय नहीं। लेन-देन आदि सब व्यवहार जिसका छलकपटादि रहित है वा जो किसी का विश्वासघात नहीं करता वा अर्थ नाम धनादि के व्यवहार में शुद्ध कहा जाता है। जल आदि बाहरी शुद्धि के हेतुओं से मन और जीवात्मा की शुद्धि नहीं हो सकती, इस कारण उनकी शुद्धि के लिये अन्य ही यत्न दिखाया गया है। ज्ञान, तप, अग्नि और आहार आदि बारह शुद्धि के कारण दिखाये हैं। विशेष विचार भाष्य में देखना चाहिये।

मांस के खाने न खाने का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब मांसभक्षण के विषय में विधि वा निषेध का विचार किया जाता है- हिंसा को उत्पन्न करने वाला होने से सभी मांस अभक्ष्य है। हिंसा एक अधर्म है कि जिस हिंसारूप अधर्म और बड़े दुःखफल का वर्णन बहुत वेदादि शास्त्रों में प्रायः किया है। उसका इसमें संग्रह करना पिष्टपेषण के तुल्य जान पड़ता है। इस मनुस्मृति में भी मांस के निषेधरूप सिद्धान्त में हिंसारूप अधर्म को लेकर ही मांस का निषेध दिखाया है। और अहिंसा को परमधर्म मानना भी शास्त्रों में लिखा ही है। सो इसी धर्मशास्त्र में कहा है कि- ‘प्राणियों को मारे बिना कहीं कभी मांस उत्पन्न नहीं हो सकता। तथा प्राणियों का वध करना कल्याणकारी नहीं इससे मांसभक्षण छोड़ देना चाहिये। मांस की उत्पत्ति और प्राणियों के वध-बन्धन को विचारकर सब प्रकार के मांसभक्षण से रहित हो जाना चाहिये।’१ इस प्रकार मांस खाना बुरा काम होने से सब को त्याज्य है, यह सामान्य कर सिद्धान्तयुक्त विचार है कि मांसभक्षण अच्छा काम नहीं।

अब विशेष विचार यह है कि यदि कोई कहे कि चिकित्साशास्त्र में मांसभक्षण के बहुत गुण दिखाये हैं, इस कारण मांसभक्षण कर्त्तव्य ही है। इसका उत्तर यह है कि वैद्यकशास्त्र वालों ने हिंसा का निषेध भी नहीं किया कि मांस खाने में हिंसारूप अधर्म नहीं है। और वे चिकित्सासम्बन्धी ग्रन्थ धर्मशास्त्र नहीं हैं। जैसे कि व्याकरणशास्त्र से चोरी-व्यभिचारादि शब्द भी सिद्ध किये जाते हैं। परन्तु वहां धर्मशास्त्र के तुल्य आज्ञा नहीं दी जाती कि चोरी करना धर्म वा अधर्म है। इसी प्रकार यहां वैद्यकशास्त्र में भी धर्म-अधर्म का विवेचन नहीं है। जैसे चोरी करके प्राप्त हुआ अन्न भी क्षुधा की निवृत्ति करेगा। वैसे ही हिंसारूप अधर्म से उत्पन्न हुआ मांस भी खाने पर किसी की अपेक्षा न्यूनाधिक गुण-अवगुण करे, इससे मांस का अधर्म दोष नाम हिंसारूप दोष से ग्रस्त होना नहीं छूटता अर्थात् दोष अवश्य बना रहता है। अभिप्राय यह है कि जो लोग धर्म-अधर्म का विचार छोड़कर स्वभाव से ही क्षुधा के निवारणार्थ वा अपने शरीर को पुष्ट करने की बुद्धि से सामान्य कर सब जन्तुओं का मांस खाने के लिये प्रवृत्त होते हैं, उनके लिये वैद्यकशास्त्र में एक प्रकार का संकोच दिखाया गया है कि वे लोग भी वैसे जीवों के मांस को न खावें जिससे खाते ही समय अवगुण होकर दुःख होवे। क्योंकि सर्वथा मांसभक्षण से बचना सम्भव नहीं तो उस गिरती हुई दशा में भी ऐसा उपाय बताना चाहिये जिससे कुछ कम ही दुःख भोगने पड़ें। अथवा कभी आपत्काल में जब प्राणरक्षा के लिये अन्य कुछ भी भक्ष्य न मिल सके, तब भी वैद्यकशास्त्र में लिखे अनुसार विचार के साथ गुणकारी और जिससे संसार का कम अनुपकार हो ऐसा मांस खाना चाहिये। प्रयोजन यह है कि पशु आदि की अपेक्षा मनुष्य के प्राण की रक्षा रहना अधिक उपयोगी है। इस कारण मांस से ही प्राण बचते हों तो आपत्काल में ऐसा करे। अथवा पराधीनता से ओषधि के लिये कहीं मांस खाना ही पड़े, अन्यथा उस रोग की निवृत्ति होना यदि दुर्लभ हो तो चिकित्साशास्त्र में कहे विवेकपूर्वक मांसरूप औषध के सेवन से रोग की निवृत्ति करनी चाहिये। रहा हिंसारूप दोष सो तो दोनों पक्ष में होगा, चाहे गुण-अवगुण का विचार किया जाय वा नहीं। तो ऐसी दशा में भी जितना विचार हो सके वही अच्छा है।

‘कच्चा मांस खाने वाले वा ग्राम के निवासी पक्षियों को छोड़ देना चाहिये’१ इत्यादि श्लोकों में जिन-जिन पशु-पक्षी आदि के मांसभक्षण का निषेध किया है, उनसे भिन्न पशु आदि के मांसभक्षण का विधान अर्थापत्ति से प्राप्त होता है। इस विषय में ऐसा जानना चाहिये कि मनुष्यादि के विशेष उपकारी दुग्ध-घृतादि से अनेक प्रकार से मनुष्यों के रक्षक गौ आदि पशुओं का तो कदापि किसी को मांस नहीं खाना चाहिये क्योंकि उनके खाने से बड़ी कृतघ्नता और हानि होती है। इसी कारण इस प्रकरण में गौ आदि उपकारी पशुओं के विषय में विशेष विधि-निषेध कुछ नहीं किया गया किन्तु उनके आश्रित होने से सर्वथा रक्षा ही कर्त्तव्य है। और जो निषिद्ध पशुपक्षियों के सदृश अन्य पशुपक्षी भक्षण के विधान में आते हैं, वहां भी ये विधिवाक्य नहीं, किन्तु संकोच हैं। जो वह सामान्य कर मांसभक्षण के लिये प्रवृत्त है, उसका सर्वथा निषेध करना किसी प्रकार मांसभक्षण की प्रवृत्ति को कुछ भी नहीं हटाता अर्थात् जो पुरुष सब प्रकार का मांस प्रत्येक समय विशेष कर खाने में प्रवृत्त है, उसको कहा जाय कि तुम मांस खाना सर्वथा छोड़ दो तो एक साथ छूटना असम्भव होगा। किन्तु इस युक्ति से कहा जाय कि अमुक-अमुक देश, काल वा परिस्थिति में तथा अमुक-अमुक गौ आदि जाति का मांस न खाना चाहिये। रहे शेष उनका खाना भी विहित नहीं कि खाना ही चाहिये। क्योंकि विधिवाक्य वहां रहते हैं कि जहां उस काम वा वस्तु का अभाव हो। वह मनुष्य जो स्वयमेव मांस खाने में प्रवृत्त है। उसके लिये किसी जाति आदि का निषेध करना वा किसी जाति आदि का नियम करना कि इन्हीं का खाना उचित है अर्थात् इनसे भिन्न का मांस न खाओ, ये दोनों प्रकार उसको मांस खाने की प्रवृत्ति कम करने के लिये हैं। और कम होने पर धीरे-धीरे उसका छूटना भी सम्भव है। जैसे कोई जितना पाप करता है उससे आधा वा चतुर्थांश किसी युक्ति से करने लगे तो   अधिक पापी की अपेक्षा वह प्रशंसित माना जावेगा। जैसे लोक में यह कहावत प्रसिद्ध है कि- ‘न करने से थोड़ा करना भी अच्छा है’१। वैसे ही अधिक पाप करने की अपेक्षा थोड़ा पाप करना अच्छा है। यह प्रवृत्ति को कम करने का प्रचार यहीं हो, सो नहीं किन्तु अनेक श्रेष्ठ पुस्तकों में दीखता है। जैसे- ‘पांच नख वालों में से पांच जीव भक्ष्य हैं’२ इस महाभाष्य के उद्धरण पर कैयट ने प्रथमाह्निक में ही लिखा है कि- ‘मांसाहारी लोग लोभी होकर मांस खाते हैं [जैसे कि चोर लोगों को चोरी करने में स्वभाव पड़ जाता है और वे दूसरों के पदार्थों को प्रतिसमय ताका करते हैं] इससे उनमें मांस खाना स्वयमेव प्राप्त है कि वे सभी जीवों का मांस खाने के लिये अपने स्वभाव से प्रवृत्त होते हैं। पांच नख वाले पांच जीवों में नियम कर देने से अन्य के मांस खाने से बच जाता है, किन्तु यह विधि- आज्ञावाक्य नहीं है कि पांच जीवों का मांस खाना चाहिये। क्योंकि विधिवाक्य वहां कहने पड़ता है जहां उस काम का अभाव हो। जब मांसाहारी स्वयमेव सामान्य कर सब जीवों का मांस खाने में प्रवृत्त हैं, तो उसकी आज्ञा देना व्यर्थ है।’३ जैसे कोई नित्य-नित्य विशेष मद्यपान करता है, और उसने मद्य के पीने को एक स्वाभाविक आहार बना लिया हो तो वह अन्न के तुल्य उसका त्याग नहीं कर सकता। जो छोड़े तो मरण ही हो जावे। ऐसे ही स्वभाव पड़े हुए मांस का भी त्याग जहां कष्टसाध्य वा असाध्य है। वहां मांस खाने की प्रवृत्ति को कम करने के लिये जाति आदि के नियम से कहना, संकोचपरक होने से सुखकारी ही है यह आशय है।

इस विषय में कोई लोग कहते हैं कि मनुस्मृति में लिखा है- ‘यज्ञ के लिये परमेश्वर ने स्वयमेव पशु बनाये हैं। यज्ञ में मारने से सबका कल्याण होता है इससे यज्ञ में किया वध- मारना नहीं अर्थात् निर्दोष है।’५ इस कारण यज्ञ में पशुओं को होम करने के लिये मारना चाहिये और होम से शेष बचा खाना भी उचित ही है। मनुस्मृति तथा अन्य पुस्तकों में ऐसा भी विधान दीखता है। इस कारण यज्ञ में हिंसा नहीं और वहां मांसभक्षण भी निर्दोष है। इसी कारण- ‘वेदोक्तहिंसा हिंसा नहीं होती।’१ यह किन्हीं का कथन वेदानुकूल और चरितार्थ होता है। मांसभक्षण के प्रतिपादक लोगों का यह पूर्वदर्शित एक बड़ा वा प्रबल पूर्वपक्ष है।

इस का उत्तर- यह पूर्वोक्त कथन अयोग्य है। यज्ञ में मांसभक्षण का प्रतिपादन मांसभक्षी लोगों ने ही किया है। उन लोगों का यज्ञ करना छलमात्र है। अर्थात् मांसभक्षण से जो पाप वा दोष लगते हैं, उनको दबाने के लिये आड़ मात्र यज्ञ का आश्रय लेना है। यह मार्ग कदापि अच्छा नहीं है कि यज्ञ में पशु मारे जावें और उनका होम से बचा मांस खाया जावे। महाभारत के शान्तिपर्वान्तर्गत मोक्षधर्म पर्व में लिखा है२ कि- ‘मर्यादा को बिगाड़ने वाले मूर्ख संशयात्मा स्वार्थी दबी- दबी बातें करने वाले नास्तिक लोगों ने यज्ञ में हिंसा कर मांस खाने का विधान किया है।।१।। यज्ञादि सब उत्तम कर्मों में धर्मज्ञ मनु जी ने अहिंसा को ही धर्म कहा है। स्वार्थी लोग मांस खाने के लोभ से यज्ञ में वा उससे पृथक् पशुओं को मारते हैं।।२।। इस कारण विचारशील मनुष्यों को अत्यन्त उचित है कि वेदप्रमाण का ठीक-ठीक निश्चय करके [कि वेद में हिंसा है वा नहीं ?] सूक्ष्मधर्म का सेवन करना चाहिये। क्योंकि सब प्राणियों के लिये धर्म के सब लक्षणों से अति उत्तम अहिंसा धर्म माना गया है।।३।। यज्ञादि शुभकर्मों में मांसमद्यादि घृणित वस्तुओं का उपयोग धूर्त्त लोगों ने लगाया है किन्तु वेद में उसका विधान नहीं किया गया।।४।। मान, अज्ञान और लोभ से दुराचारी लोगों ने यज्ञ में मांसमद्यादि खाने, चढ़ाने की कल्पना की है। और श्रेष्ठ ब्राह्मण लोग सब यज्ञों में एक परमेश्वर की ही उपासना मानते हैं।।५।। किसी ब्राह्मण ने कई लोगों से सुने जाने के अनुसार यज्ञ में हरिण मारने की इच्छा की थी, उसके बड़े भारी संचित तप में विघ्न पड़ गया अर्थात् तप खण्डित हो गया। इससे हिंसाकर्म यज्ञ के योग्य नहीं अर्थात् यज्ञ में हिंसा न होनी चाहिये।।६।। अहिंसा समस्त धर्म और हिंसा करना केवल अधर्म वा अहितकारी है। इस कारण मैं प्रतिज्ञा के साथ कहता हूं कि सत्यवादियों का बड़ा धर्म अहिंसा ही है।।७।।

इस पूर्वोक्त कथन से सिद्ध हो गया कि पहले महाभारत बनते समय इस मनुस्मृति में यज्ञ के लिये पशुओं का मारना वा मांस खाने की विधि भी नहीं थी किन्तु पीछे किन्हीं लोगों ने प्रक्षिप्त किया है कि यज्ञ में पशुओं को मारना चाहिये। यह मनु का सिद्धान्त नहीं है किन्तु किसी को कदापि हिंसा नहीं करनी चाहिये। हिंसा करना सर्वथा और सब काल में अधर्म ही है। इसी कारण ‘सब कर्मों में    धर्मात्मा मनु जी ने अहिंसा को ही श्रेष्ठ कहा है।’१ महाभारत का यह पूर्वोक्त कथन संघटित होता है। योगभाष्य में व्यास जी ने भी कहा है कि- ‘सब प्रकार सब काल में सब प्राणियों से द्रोह न करनारूप अहिंसा ही परम धर्म है।’२ और अहिंसा का परमधर्म होना सर्वसम्मत है। और जो यह कहा था कि- ‘वेदोक्त हिंसा हिंसा नहीं’३ उसका आशय यह है कि राजा वा अन्य धर्मरक्षक लोगों को उचित है कि दुष्ट, चोर, डाकू वा जो अपने मारने को शस्त्र लेकर सामने आता हो उसको तथा सांप, बीछू और सिंहादि हिंसक प्राणियों को मार डालें। यही वेदोक्त हिंसा है। क्योंकि इनको मारने के लिये वेदादि शास्त्रों में आज्ञा की गयी है। इससे यह वेदोक्त हिंसा है, यद्यपि इन चोर-दुष्टादि के मारने में भी पाप है क्योंकि उनके प्राण का वियोग होने से उनको क्लेश पहुंचता है, तो भी उनके बने रहने में जितना जगत् का अनुपकार होता है और उसके मारने से अन्यों को सुख होकर जितना पुण्य होता है, उसकी अपेक्षा पुण्य अधिक हो जाता है इस कारण वेदोक्त हिंसा को हिंसा नहीं माना, किन्तु अहिंसा माना है।

और जो मनु के भाष्यकर्त्ता सर्वज्ञनारायण ने कहा है कि- ‘यज्ञ करने से वृष्टि, वर्षा से ओषधि, अन्न और वीर्य की परम्परा से उत्पत्ति होने पर मनुष्यादि प्राणियों के शरीर बनते हैं। इस कारण एक पशु को मारकर यज्ञ करने से अनेक प्राणियों की उत्पत्तिरूप निस्तार होकर पाप की अपेक्षा पुण्य बढ़ जाता है। इस कारण यज्ञ की हिंसा को अहिंसा माना है’४ सो यह युक्ति इस कारण ठीक नहीं है कि जिससे मांस को होम करना वृष्टि का कारण नहीं बनता किन्तु किसी प्रकार वृष्टि का हानिकारक है। जैसे आकाश में ताप के अधिक बढ़ने से वर्षा होती है [इसी कारण ग्रीष्म ऋतु में अधिक ताप बढ़ने से वर्षा अच्छी होती] और घृतादि के अधिक पड़ने से अग्नि में तेज बढ़ता है किन्तु मांस से नहीं। जलते हुए अग्नि में मांस छोड़ने से जलना भी ठीक-ठीक नहीं हो सकता किन्तु बुझ जाना सम्भव है। कदाचित् घी आदि की सहायता से वा इन्धन के ठीक शुष्क होने से मांस जल भी जावे तो उसमें से दुर्गन्ध उठेगा और वैसे दुर्गन्धगुणयुक्त वृष्टि के होने पर वैसे ही गुणों वाले उत्पन्न हुए ओषधि आदि पदार्थ प्राणियों के लिये अनुपकारी होंगे। यदि घी आदि के बिना ही केवल मांस के होम से वर्षारूप कार्य सिद्ध हो जावे तो सर्वज्ञनारायण का कहना बन सकता है सो तो इच्छामात्र के लड्डू खाना है अर्थात् असम्भव है। जब घृतादि की सहायता बिना मांस का होम कुछ भी उपकारी नहीं हो सकता तो वह उपकार घृतादि से हो सकना सिद्ध हो गया। इस कारण वेदोक्त हिंसा का पूर्वोक्त ही प्रयोजन जानना चाहिये। मांस खाना घृणित काम भी है। जैसे रुधिर आदि से घृणा होती वैसे बहुत विचारशीलों को मांस से भी घृणा रहती है, क्योंकि दूध से दही के समान रुधिर से ही मांस बनता है। इसी कारण इस मनुस्मृति के प्रायश्चित्तप्रकरण ग्यारहवें अध्याय में कहा है कि- ‘मद्यमांसादि घृणित वस्तु यक्ष, राक्षस और पिशाचादि नाम वाले मनुष्यों का अन्न है।’१ अर्थात् मद्यमांसादि के खाने वालों का ही राक्षसादि नाम है। इसी से मांसभक्षण कर्म रजोगुण, तमोगुण का बढ़ाने वाला और सत्त्वगुण का नाशक है। जो मांस खाता है वह मद्य पीने को भी उद्यत होता और मद्यमांस के सेवन से मैथुन के लिये भी अधिक चेष्टा होती है। ऐसा होने पर धर्म, अर्थ और मोक्ष से विमुख हो जाता है। और क्षीणतादि से होने वाले बड़े-बड़े दुःखों को प्राप्त होता है। इससे भी मांस खाना बुरा फल देता है। धर्म का आचरण करने वाले मनुष्य को अपने आत्मा के तुल्य सबको सुख देना चाहिये। जब कोई मनुष्य सिंहादि मांसाहारियों को अपना मांस देने को उद्यत नहीं होता। तो उस मनुष्य को भी अन्य जीवों का मांस कदापि न खाना चाहिये। जैसे सब कोई चाहता है कि मेरा मांस कोई सिंहादि न खावे, वैसे ही आप भी किसी के मांस खाने को चित्त न करे ऐसा ही आचरण धर्मानुकूल है, इससे विपरीत को अधर्म जानो। इस कारण मांसभक्षण करना धर्म नहीं है। इस उक्त प्रकार से सब गुण-दोष विचारकर किसी को मांसभक्षण न करना चाहिये। यही धर्म और इससे विरुद्ध अधर्म है। आपत्काल में जब मांसभक्षण किये बिना किसी प्रकार निर्वाह नहीं हो सकता हो तब पूर्वोक्त विचारपूर्वक मांस खाना चाहिये। यह भी मांस की आज्ञा नहीं किन्तु पूर्वोक्त प्रकार संकोचपरक वाक्य है। अर्थात् मांस त्यागने की अपेक्षा यह संकोच भी श्रेष्ठ नहीं, किन्तु सामान्य प्रवृत्ति की अपेक्षा जाति आदि के भेद से प्रवृत्त होना थोड़े पाप और बुराई का हेतु है, यह वेदादि शास्त्रों का सिद्धान्त है। यद्यपि इस विषय पर पहले भी उपोद्घात में कई अवसरों पर लिख चुके हैं कि विधि, निषेध, सिद्धानुवाद और अर्थवाद को उन्हीं- उन्हीं के विचारानुसार लोग समझा करें, किन्तु अर्थवाद वा सिद्धानुवाद को विधिवाक्य कोई न समझ लेवे। तथा अपवाद वा विशेष वचन सामान्य वा उत्सर्ग का हानिकारक नहीं होता। ऐसा उलटा समझ लेने वाला मनुष्य अपनी और अन्य मनुष्यों की हानि कर लेता है। जैसे कहा गया कि ऋतु समय में केवल अपने वर्ण की स्त्री के साथ गमन करना चाहिये, यह सामान्य कर विधिवाक्य है। इसका अपवाद वा विशेष वचन यह होगा कि अमुक-अमुक अवसर में ऋतु समय में भी गमन न करे वा अमुक-अमुक अवसर में ऋतु से भिन्न समय में भी गमन करें। इससे वह सामान्य विधान खण्डित नहीं होता। तथा ऋतु समय में स्त्री से समागम करने की आज्ञा को जब प्रायः लोग तोड़ डालते हैं और नित्य समागम करने में तत्पर होते हैं, उनको ऋतु समय का उपदेश कुछ भी कार्यसाधक नहीं होता किन्तु वे कदापि ऐसा नहीं कर सकते कि नित्य के भोजन को छोड़कर महीने भर में एक बार खावें तो ऐसी दशा में तीसरे चौथे वा आठवें दिन मैथुन का उपदेश किया जाय तथा किन्हीं-किन्हीं पर्वादि तिथियों में निषेध किया जाय तो सम्भव है कि वह निबाह ले। यह मैथुन का उपदेश नित्य की अपेक्षा विशेष सुख और कम हानिकारक होगा। परन्तु इस कथन से सामान्य वचन जो ऋतु समय में भार्यागमन का विधान है सो कटता नहीं है, अर्थात् ऋतु समय में गमन करने की अपेक्षा तीन चार आदि दिन के अन्तर से करना भी बुरा है। परन्तु नित्य की अपेक्षा अच्छा है। इसी प्रकार मांसप्रकरण में भी समझना चाहिये कि मांस का सर्वथा त्याग करना यही मुख्य आज्ञा है। और जो स्वयमेव उसमें अधिक प्रवृत्त है, उसको कम वा कभी खाने का उपदेश इसलिये नहीं कि मांस खाने की आज्ञा दी जावे वा मांस के निषेध का खण्डन किया जावे। इस प्रसग् में इतना लौट-लौट इसीलिये लिखा है कि कोई विरुद्ध ऐसा न समझ लेवे कि इन्होंने मांस खाने की आज्ञा दी वा उसको अच्छा माना हो। किन्तु सिद्धान्त पर ध्यान देना चाहिये।

जातिनिर्मूलन और वर्ण-व्यवस्था विषयक दृष्टिकोण: कुशलदेव शास्त्री

डॉ0 अम्बेडकरजी की एक सुप्रसिद्ध पुस्तक है-’जातिनिर्मूलन‘, जिसके प्रारम्भ में लिखा गया है-”डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर द्वारा जात-पाँत-तोड़क मण्डल लाहौर के सन् 1936 के वार्षिक अधिवेशन के लिए तैयार किया गया भाषण, लेकिन जो दिया नहीं गया, क्योंकि स्वागत समिति ने इस आधार पर कि भाषण में व्यक्त विचार अधिवेशन को स्वीकार नहीं होंगे, अधिवेशन समाप्त कर दिया।” चर्चित अध्यक्षीय भाषण में डॉ0 अम्बेडकरजी ने जन्मना नहीं किन्तु कर्मणा वर्ण-व्यवस्था की वकालत करने वाले आर्यसमाजियों से असहमति प्रकट की है और उसे अव्यावहारिक, काल्पनिक और त्याज्य माना है। डॉ0 अम्बेडकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन लेवलों को छो़ड़ देने का आग्रह करते हैं। इस प्रकार का लेबल लगाने का आग्रह उन्हें निरर्थक और अनावश्यक प्रतीत होता है, उनका कहना है कि बिना इन लेबलों के भी व्यक्ति की योग्यता का अहसास हो जाता है, फिर इन लेबलों की क्या आवश्यकता है ?

    डॉ0 अम्बेडकरजी के इस अध्यक्षीय भाषण के साथ जो परिशिष्ट जोड़ा गया है, उसमें महात्मा गाँधी की तुलना में उन्होंने ”स्वामी दयानन्द द्वारा अनुमोदित वर्ण-व्यवस्था की बुद्धिगम्य और निरुपद्रवी” कहा है। डॉ0 अम्बेडकरजी के शब्दों में –

”महात्मा गान्धी जिस वर्ण-व्यवस्था का समर्थन करते हैं, क्या वह वैदिक वर्ण-व्यवस्था है या स्वामी दयानन्द जिस वर्ण-व्यवस्था का अनुमोदन करते हैं वह वैदिक वर्ण-व्यवस्था है ? स्वामी दयानन्द और उनके अनुयायी आर्यसमाजियों के अनुसार वर्ण की वैदिक मान्यताओं का सार है-ऐसे व्यवसायों को अपनाना जो व्यक्ति के स्वाभाविक योग्यता के अनुरूप हों। महात्मा गान्धी के वर्ण का सार है-अपने पूर्वजों के व्यवसाय को अपनाना, चाहे स्वाभाविक योग्यता न भी हो। महात्मा गान्धी की वर्ण-व्यवस्था और जाति-व्यवस्था में मुझे कोई फर्क नहीं दिखाई देता। वहाँ तो वर्ण जाति का समानार्थी है। सार रूप में गान्धीजी का वर्ण और जाति इन दोनों का तात्पर्य पूर्वजों के व्यवसाय को अपनाना है। कुछ लोग सोच सकते हैं कि महात्मा ने बहुत प्रगति की है, पर मेरी दृष्टि में महात्मा गान्धी प्रगति से दूर हैं और परस्पर विरोधी धारणाओं से पीड़ित हैैं। वर्ण की वैदिक मान्यताओं को इस प्रकार की व्याख्या देकर उन्होंने जो विशिष्ट था उसको हास्य बना दिया है। जब मैं वैदिक वर्ण-व्यवस्था को भाषणों में दिये कारणों से अस्वीकार करता हूँ, तो मुझे स्वीकार करना होगा कि वर्ण का वैदिक दर्शन जो स्वामी दयानन्द और कुछ अन्यों ने दिया है, वह समझदारीपूर्ण और बगैर हानिकारक है, क्योंकि वह व्यक्ति विशेष का समाज में स्थान निर्धारित करने के लिए जन्म को निर्णायक तथ्य नहीं मानता। वह केवल गुण को स्वीकार करता है। जबकि महात्मा गान्धी का वर्ण-व्यवस्था के प्रति दृष्टिकोण न केवल वैदिक वर्ण-व्यवस्था को फालतू की वस्तु बना देता है, अपितु घृणित भी बना देता है। वर्ण और जाति परस्पर भिन्न मान्यताएँ हैं। वर्ण गुणाश्रित सिद्धान्त है, तो जाति जन्माश्रित सिद्धान्त है। वस्तुतः वर्ण और जाति ये समानार्थी नहीं, अपितु विलोमार्थी शब्द हैं।“ इससे पूर्व सितम्बर सन् 1927 में तमिलनाडु के दलितोद्धारक श्री ई0 वी0 रामस्वामी नायकर जी भी (1879- ) श्री महात्मा गान्धीजी से मिलकर उनकी जन्मना वर्ण-व्यवस्था विषयक दृष्टिकोण से अपनी तीव्र असहमति और चिन्ता व्यक्त कर चुके थे।

 

     इस प्रकार स्पष्ट है कि महात्मा गान्धी की तुलना में स्वामी दयानन्द प्रतिपादित वर्ण-व्यवस्था से डॉ0 अम्बेडकर सहमत हैं और इसीलिए उन्होंने उसे ’बुद्धिगम्य और निरुपद्रवी‘ कहा है। पुनरपि डॉ0 अम्बेडकर ने अपने मूल भाषण में वर्ण-व्यवस्था को अस्वीकारणीय और अव्यावहारिक माना है।

 

हम जब आर्यसमाज के 133 वर्ष के इतिहास पर दृष्टि डालते हैं, तो इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि गुण-कर्म-स्वभावानुसार वर्ण-व्यवस्था को व्यावहारिक रूप देने में वह 75 प्रतिशत असमर्थ रहा है और जब तक वह इसे क्रियात्मक रूप देने में पूर्णतया समर्थ नहीं होता, तब तक जमाना डॉ0 अम्बेडकर के स्वर में स्वर मिलाकर कहेगा कि वर्ण-व्यवस्था, अव्यावहारिक, काल्पनिक और त्याज्य है। लेकिन इसके साथ ही जातिनिर्मूलन के सन्दर्भ में डॉ0 अम्बेडकर और उनके अनुयायियों से जमाने का भी एक सवाल रहेगा, वह यह कि क्या एक धर्म का परित्याग कर दूसरे धर्म को अंगीकार करने से जातिगत भेद-भाव का उन्मूलन हो जाता है ? क्योंकि डॉ0 अम्बेडकरजी ने अपने चर्चित अध्यक्षीय भाषण में कहा है कि-”धार्मिक भावनाओं का उन्मूलन किये बिना जाति-व्यवस्था को तोड़ना सम्भव नहीं है।“ निःसन्देह जातिगत भेद-भाव को नष्ट करने का डॉ0 अम्बेडकर ने यथामति-यथाशक्ति पूर्ण प्रयास किया और सम्भवतः एतदर्थ उन्होंने हिन्दू मत का परित्याग कर बौद्ध सम्प्रदाय को स्वीकार किया, दीक्षा ली, उनके अनेक अनुयायी भी बौद्ध बने, पर बड़े दुःख के साथ कहना पड़ता है कि न तो आर्यसमाज की कर्मणा वर्ण-व्यवस्था के रहते जातिगत भेदभाव पूर्णतया समाप्त हुआ और न ही डॉ0 अम्बेडकर द्वारा प्रदत्त धर्मान्तरण के प्रयोग से जाति-पाँति का विष समाप्त हुआ। (जाति-पाँति को लेकर जिस दलित वर्ग के सन्दर्भ में मनुस्मृति का विरोध किया गया, किया जाता है। क्या उस दलित वर्ग में आपस में जाति-पाँति टूटी ? क्या उनका आपसी छुआछूत पूरी तरह नष्ट हुआ ? यदि नहीं तो आपसी विवाह सम्बन्ध होना तो बहुत दूर की बात है।-सम्पादक) बुद्ध, मूर्तिपूजा के विरोधी थे। आज बौद्ध ही महात्मा बुद्ध और डॉ0 अम्बेडकर की मूर्तियों की पूजा कर रहे हैं। हिन्दुओं की तरह बौद्ध सम्प्रदाय से भी मूर्ति नहीं हट पाई। फर्क इतना ही है कि हिन्दू अनेक मूर्तियों की पूजा करते हैं, तो बौद्ध एक-दो प्रतिमाओं की। हिन्दू दीप जलाते हैं, तो बौद्ध मोमबत्ती। हिन्दुओं को केसरी रंग प्यारा है, तो बौद्धों को नीला। एक ने केसरी टोपी पहनी है तो दूसरे ने नीली। यहाँ बाह्म क्रियाओं में तो परिवर्तन हुआ है, पर मूल प्रवृत्ति अब भी ज्यों की त्यों है। रंग बदले हैं, पर अन्तर्मन नहीं बदला। आत्मा का कायाकल्प नहीं हुआ। दयानन्द और अम्बेडकर के अपने-अपने प्रयत्नों के बावजूद जातिगत भेद-भाव आज भी यथावत् विद्यमान है। क्या यह ठीक है कि जाति वही होती है, जो जाते-जाते भी नहीं जाती ? पता नहीं समूल जाति-पाँति का उन्मूलन कब हो पाएगा ? शायद ज्ञान भिन्न और क्रिया भिन्न होने से समाज इस विडम्बनात्मक स्थिति में पहुँच गया है, जातियाँ क्या टूटेंगी ? जबकि समाज अभी अपनी उपजातियाँ तोड़ पाने का भी साहस नहीं बटोर पा रहा है। जातिनिर्मूलन का एक मात्र अचूक उपाय अन्तर्जातीय विवाह है, जिसका समर्थन डॉ0 अम्बेडकर ने भी किया है। इस ˗प्रकार के अन्तर्जातीय विवाह एक पीढ़ी तक ही नहीं, अपितु सात-सात पीढ़ियों तक होंगे, तभी जातिगत भेद-भाव का समूल सर्वनाश होगा। इसके सिवाय अन्य कोई उपाय कारगर प्रतीत नहीं होता।

 

डॉ0 अम्बेडकर ने जात-पाँत तोड़क मण्डल के वार्षिक अधिवेशन (1936) की अध्यक्षता के सन्दर्भ में लिखा है कि-”यह मेरे जीवन का निश्चित ही पहला अवसर है, जबकि मुझे सवर्ण हिन्दुओं के अधिवेशन की अध्यक्षता करने के लिए आमंत्रित किया गया हो (और मेरे लिखित अध्यक्षीय भाषण के वैचारिक मतभेदों के कारण अधिवेश नही स्थगित कर दिया गया हो।) मुझे खेद है कि इसका अन्त दुःखान्त हुआ।“

जातिगत भेदभाव के कारण किराये का घर पाना भी दुर्लभ: कुशलदेव शास्त्री

भारत की नस-नाड़ियों में जातीयता का विष इतना अधिक भरा हुआ है कि तथाकथित निम्न जाति के व्यक्तियों को मकान-मालिक किराये से भी अपने घर नहीं देते। प्रगतिशील महाराज श्री सयाजीराव गायकवाड़ की सेवा में रहते हुए भी मकान मालिकों की इस संकीर्ण प्रवृत्ति के कारण डॉ0 अम्बेडकरजी को असाधारण मानसिक यातनाएँ सहन करनी पड़ी थीं, पर जो बात बड़ोदा में हुई वह मुम्बई में नहीं हुई। मुम्बई के भाटिया लोगों पर आर्यसमाज का विशेष प्रभाव होने के कारण डॉ0 अम्बेडकरजी को मुम्बई में आवासीय यातनाओं के दौर से नहीं गुजरना पड़ा।

 

    8-12-1923 से 2-9-1930 तक लिखे अनेक पत्रों से यह पता चलता है कि लगभग सात वर्ष तक डॉ0 अम्बेडकरजी के पत्र व्यवहार का पता परल मुम्बई स्थित ’दामोदर ठाकरसी हॉल‘ ही रहा। यह ठाकरसी घराना प्रगतिशील आर्यसमाजी और सुसंस्कृत था। दामोदर ठाकरसी के पिता श्री मूलजी ठाकरसी स्वामी दयानन्द जी की उपस्थिति में स्थापित विश्व की सर्वप्रथम ’आर्यसमाज मुम्बई‘ की कार्यकारिणी के सभासद थे। प्रारम्भ में आर्यसमाज और थियोसॉफिकल सोसाइटी में जो ऐक्य स्थापित हुआ, उसका अधिकांश श्रेय मूलजी ठाकरसी को है, क्योंकि थियोसॉफिकल सोसाइटी के संस्थापक कर्नल अल्कासॉट और मैडम ब्लैवेट्स्की को स्वामी दयानन्दजी का परिचय सर्वप्रथम मूलजी ठाकरसी ने ही दिया था। मूलजी ठाकरसी के सुपुत्र नारायण ठाकरसी को तो विश्व की सर्वप्रथम आर्यसमाज का सर्वप्रथम उपाध्यक्ष होने का श्रेय प्राप्त है। मूलजी ठाकरसी के पौत्र श्री विट्ठलदास ने तो अपनी माताजी नाथीबाई दामोदर के स्मरणार्थ कर्वे विद्यालय को तत्कालीन 15 लाख रुपये प्रदान किये थे। आज इस विद्यालय ने विश्वविद्यालय का रूप धारण कर लिया है, जिसे हम सब लोग ’एस0 एन0 डी0 टी0 यूनिवर्सिटी‘ के रूप में जानते हैं। सम्भवतः अन्य अनेक ज्ञात अज्ञात कारणों के अतिरिक्त ठाकरसी परिवार के आर्यसमाजी संस्कारों में दीक्षित होने के कारण बड़ौदा में डॉ0 अम्बेडकर को जिस प्रकार आवास विषयक यातनाएँ भोगनी पड़ीं, वैसी मुम्बई में नहीं। ’भारतीय बहिष्कृत समाज सेवक संघ‘ की ओर से महार बंधुओं को ’महार वतन बिल‘ के संबंध में सावधान करते हुए निवेदन निकाला था, उसके अन्त में डॉ0 अम्बेडकरजी ने अपना स्पष्ट पता देते हुए लिखा है-’दामोदर मूलजी ठाकरसी हॉल-परल-मुम्बई‘ इस प्रकार लगभग सात वर्ष तक डॉ0 अम्बेडकरजी के पत्र व्यवहार का पता ’परल-मुम्बई स्थित दामोदर ठाकरसी हॉल‘ ही रहा।

डॉ अम्बेडकर का वैदिक संस्कारों की ओर झुकाव : कुशलदेव शास्त्री

स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज की वेदनिष्ठा तो जाहिर है। आर्यसमाज का तीसरा नियम है-’वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परमधर्म है।‘ आर्यसमाजों में समस्त संस्कार वैदिक पद्धति से ही सम्पन्न होते हैं। कुछ अन्य भी ’सनातन‘ संगठन हैं, जो वैदिक संस्कारों के प्रति अनन्य आस्था अभिव्यक्त करते हैं।

माननीय डॉ0 अम्बेडकर के ’बहिष्कृत भारत‘ नामक साप्ताहिक मराठी समाचार पत्र के 12, अप्रैल-1929 के अंक में पृष्ठ सात पर यह संक्षिप्त समाचार प्रकाशित हुआ था -’समाज-समता-संघ का नया उपक्रम।‘ महार समाज में वैदिक विवाह पद्धति सुदृढ़ की जाएगी-स्मरण रहे इसी महार कुल में डॉ0 अम्बेडकर का जन्म हुआ था।

उपरोक्त चर्चित अंक के ही पृष्ठ 8 पर, एक सम्पन्न वैदिक विवाह संस्कार की चर्चा करते हुए यह स्पष्ट किया गया था कि-

”यह विवाह हिन्दू मिशनरी सोसाइटी के संस्थापक श्री गजानन भास्कर वैद्य (1856-1921) की संकलित वैदिक पद्धति से सम्पन्न किया गया। उक्त समाचार के अन्त में यह शुभकामना की गई है कि अस्पृश्य समाज वैदिक पद्धति का प्रचलन कर उन पर लगाये गये अस्पृश्यता के कलंक को नष्ट करने में समर्थ हो।“

   यह जानकर आश्चर्य होता है कि 29 जून, 1929 को वैदिक पद्धति से सम्पन्न श्री केशव गोविन्दराव आड़रेकर के विवाह में डॉ0 अम्बेडकरजी अपनी सहधर्मिणी के साथ उपस्थित थे। यह विवाह ’समाज-समता-संघ‘ के तत्त्वाधान में तथा आचार्य-पुरोहित श्री सुन्दररावजी वैद्य की देख-रेख में सम्पन्न हुआ था। वर-वधू के माता-पिता रूढ़िवादी होते हुए भी माननीय डॉ0 अम्बेडकर के सुधार सम्बन्धी दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर ही वैदिक पद्धति से विवाह करवाने के लिए तैयार हुए थे। यह विवाह परल (मुम्बई) स्थित दामोदर मूलजी ठाकरसी हॉल में सम्पन्न हुआ था। श्री सुरवाडे के अनुसार ‘दलित समाज में वैदिक पद्धति से सम्पन्न यह पहला विवाह था।‘ अम्बेडकर-दम्पत्ति के अतिरिक्त इस विवाह में श्री रा0 ब0 बोले, डॉ0 सोलंकी, श्री कमलाकर चित्रे आदि गणमान्य सज्जन समुपस्थित थे।

  डॉ0 अम्बेडकरजी के 6, सितम्बर-1929 के ’बहिष्कृत भारत‘ में यह समाचार भी प्रकाशित हुआ था कि ’मनमाड़ के महारों (दलितों) ने श्रावणी मनायी।‘ 26 व्यक्तियों ने यज्ञोपवीत धारण किये। यह समारोह मनमाड़ रेल्वे स्टेशन के पास डॉ0 अम्बेडकरजी के मित्र श्री रामचन्द्र राणोजी पवार नांदगांवकर के घर में सम्पन्न हुआ था।

इन समाचारों से स्पष्ट है कि माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी का अपने जीवन के पूर्वार्द्ध में उपनयन-विवाह आदि वैदिक संस्कारों की ओर भी यत्किंचित् झुकाव अवश्य ही रहा और अपने पत्रों में भी वे वैदिक संस्कार विषयक समाचारों को प्रकाशनार्थ स्थान अवश्य देते थे।

भक्ष्याभक्ष्य का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब भक्ष्याभक्ष्य विषय में संक्षेप से विचार किया जाता है। जिस प्रकार के आहार से मनुष्य की स्वस्थदशा रक्षित रहती है। ‘मन, बुद्धि और शरीर के अवयवरूप रसादि धातुओं में किसी प्रकार की विषमता न रहना स्वस्थदशा कहाती है।’१ ऐसी स्वस्थदशा के विद्यमान रहने से ही मनुष्य सुखी होता है और सुख     धर्म का फल है इस कारण धर्म करने की इच्छा रखने वाले पुरुष को अति उचित है कि पहले वैसे आहार का ही सेवन करे। ऐसे आहार को सामान्य कर भक्ष्य कहते हैं। और जिससे मन, बुद्धि तथा शरीरस्थ धातुओं की विषमता होती है, वह आहार अभक्ष्य वा त्याज्य माना जाता है। वैसे आहार का सेवन करने वाला मनुष्य रोगादि से ग्रस्त हो जाता है, और वह रोगादि सम्बन्धी दुःख अधर्म का फल है, इस कारण वैसा आहार धर्म चाहने वाले को भी त्याज्य है। ये दो प्रकार सर्वसम्मत निर्विवाद माननीय हैं। इस मन्तव्य में किसी को कुछ विवाद नहीं है। इसी अंश पर सुश्रुतकार ने सूत्रस्थान के हिताहितीय अध्याय में लिखा है कि- ‘जो वातप्रकृति वाले को हितकारी है वही वस्तु पित्तप्रकृति वाले को कुपथ्य वा अहित है। इस हेतु से कोई वस्तु किसी के लिये सर्वथा हित वा अहित नहीं है, ऐसा कोई आचार्य कहते हैं, सो ठीक नहीं है। क्योंकि इस जगत् में अनेक वस्तु स्वभाव वा संयोग से सबके लिये हितकारी, अनेक सबके लिये अहितकारी तथा अनेक सामान्य कर हित-अहित दोनों करने वाले हैं। जैसे जन्म से ही अनुकूल होने से जल, घृत, दूध, भात आदि सर्वथा हितकारी हैं। अग्नि वा अत्युष्ण जलादि में जल जाना, गल जाना और विष खा लेना आदि सबके लिये सदा अहितकारी हैं। तथा हित-अहित मिश्रित वे ही हैं, जो वातप्रकृति के लिये पथ्य है, वह पित्त वाले के लिये कुपथ्य है।’२ इस प्रकार यहां तीन प्रकार कहे हैं। तथा भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय में भी प्रकारान्तर से आहार के तीन प्रकार दिखाये गये हैं कि-  ‘सरस चिकनायी सहित स्थिर और हृदय को प्रिय रुचिकर शुद्ध पवित्र दूध, घृत आदि आहार आयु, सत्त्वगुण, बल, नीरोगता सुख और प्रीति के बढ़ाने वाले होने से सत्त्वगुणी लोगों को प्रिय वा अनुकूल होते हैं। ऐसे आहार सर्वोत्तम वा सत्त्वगुणी माने जाते हैं। तथा दुःख, शोक (खुश्की) और रोगकारी, कटु, खट्टे, अतिलवण, अतिउष्ण, तीखे, रूखे, दाह वा जलन करने वाले आहार रजोगुणी लोगों को प्रिय होते हैं। यही मध्यम प्रकार का आहार माना जाता है। तथा बहुत देर का धरा हुआ, नीरस, बहुत काल धरे रहने से जिसमें दुर्गन्ध आने लगा हो, उच्छिष्ट- जूठा वा अशुद्ध भोजन तमोगुणी को प्रिय होता है।’१ अर्थात् इसी बात को अन्य प्रकारों से भी कह सकते हैं कि ऐसे-ऐसे भोजन करने वाले सात्त्विक, रजोगुणी वा तमोगुणी होते हैं वा सत्त्वगुणादि बढ़ाने की इच्छा वालों को वैसे-वैसे भोजन करने चाहियें। ये भी आहार के तीन भेद हैं। इनमें से उत्तम, निकृष्ट में विवाद कम है किन्तु विशेष विवाद नहीं, केवल मध्यस्थदशा में विवाद है, जहां हित और अहित वा बुराई-भलाई दोनों मिले रहते हैं। उसमें से देश, काल वा वस्तु के भेद से जिसमें विशेष वा प्रबल हित हो उस पक्ष का आश्रय लेना चाहिये और लेने पड़ता ही है। इससे विरुद्ध थोड़े हित का पदार्थ वा पक्ष छोड़ देना चाहिये। इसीलिये लोक के व्यवहार को ठीक-ठीक मर्यादा के साथ चलाने की अपेक्षा से विद्वान् लोग समय-समय में धर्मशास्त्र बनाते हैं। उनके कहने से जो शेष रह जाता है उस-उस को उस-उस समय के विद्वान् लोग निर्णीत करते वा उसकी व्यवस्था निकालते हैं। इसके लिये धर्मशास्त्रों में आज्ञा भी मिलती है कि- ‘दश विद्वानों की सभा मिलकर जिस धर्मसम्बन्धी विषय का निर्णय कर देवे उसको अचलधर्म मानना चाहिये।’२ इसका तात्पर्य यह है कि हित-अहित से मिले हुए विषय में सदा विवाद बना रहता है और सामयिक न्यायालय वा धर्माचार्य विद्वानों की सभाओं में समय-समय पर ऐसी बातों पर सदा निर्णय (फैसला) होता रहता है। यही दशा मध्यस्थ भक्ष्याभक्ष्य में जानो। यह सामान्य विचार रहा।

अब विशेष विचार यह है कि इस भक्ष्याभक्ष्य प्रकरण में मुख्य कर जड़ चेतन दो भेद हैं। चेतन प्राणी जड़ वा चेतन दोनों को खाया करते हैं। यह सिद्धानुवाद अर्थात् संसार में जो हो रहा है उसी का कथन है कि ऐसा होता है किन्तु विधिवाक्य नहीं है कि चेतनों को जड़ वा चेतन प्राणी खाने चाहियें। सो मनुस्मृति के भक्ष्याभक्ष्यप्रकरण में सिद्धानुवादरूप से लिखा है कि- ‘चेतन का अन्न जड़ वा जग्म का भोज्य स्थावर, दांत वालों का बिना दांत वाले, हाथ वालों का बिना हाथ वाले और शूरवीरों का अन्न डरपोक प्राणी हैं।’१ अर्थात् जग्म स्थावरों को खाते, दांत वाले बिना दांत वालों को खाते, हाथ वाले बिना हाथ वालों को खा जाते और शूरवीर हिंसादि भीरु मृगादि को खा जाते हैं। यह सिद्धानुवाद उत्सर्गरूप से दिखाया है। अन्य विधि-निषेध परक सब वाक्य इसी के बाधक होंगे। इसी प्रसग् में लहसुन, गाजर, प्याज, कवक-छत्राक (कुकुरमुत्ता वा कठफूल) तथा अशुद्ध पृथिवी में उत्पन्न हुए सामान्य कर पदार्थ अभक्ष्य कहे हैं, उसका विचार ऐसा है कि लहसुन आदि विष के तुल्य अनिष्ट वा त्याज्य नहीं हैं, क्योंकि उनके खाने वाले पीड़ादि से दुःखित वा मरण को प्राप्त नहीं हो जाते। तथा जो भोजन करने योग्य पदार्थ सामान्य कर सब प्राणियों के लिये अतिहितकारी सुश्रुत के हिताहितीयाध्याय में कहे गये हैं, उनमें भी लशुनादि की गणना नहीं की गयी। अर्थात् जो लशुनादि पदार्थ अत्यन्त हितकारी सबको गुण देने वाले दूध आदि के तुल्य होते तो सर्वथा सर्वहितकारी पदार्थों की गणना के साथ इनका भी नाम आता, सो ऐसा न होने से सिद्ध होता है कि लशुनादि सबके हितकारी वा विशेष गुणकारी नहीं किन्तु मध्यस्थ कोटि में अर्थात््््््््््् हित-अहित से मिले हुए आहार के समुदाय में मानने चाहियें। और हिताहित का लक्षण यही कहा गया है कि जो वातप्रकृति वाले को पथ्य है वही पित्त वाले को कुपथ्य होगा। इत्यादि प्रकार से जो वस्तु किसी देश वा काल में किसी का भक्ष्य है, वही वस्तु देशान्तर, कालान्तर वा अवस्थान्तर में उसी को वा अन्य को किसी कारण से अभक्ष्य हो जाता है। इसी प्रकार अभक्ष्य वस्तु भक्ष्य भी हो जाता है। इसी कारण लहसुन आदि वस्तु भी किसी को किसी देश वा कालादि में भक्ष्य वा अभक्ष्य होते रहते हैं। परन्तु सामान्य कर स्वस्थ वा नीरोग दशा में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों को लहसुन आदि का भक्षण नहीं करना चाहिये, यह धर्मशास्त्र में निषेध करने का अभिप्राय है। उन लशुनादि में जो अच्छे गुण भी हैं वे प्रायः सत्त्वगुण के बढ़ाने वाले नहीं दीखते किन्तु उनमें रजोगुण, तमोगुण के बढ़ाने और सत्त्व के विनाशक गुण अधिक हैं ऐसा मन में विचार करके धर्मशास्त्र में उन लशुनादि का खाना निषिद्ध किया है। और द्विजाति नाम ब्राह्मणादि तीन वर्णों को धर्मयुक्त वेदोक्त सत्त्वगुणसम्बन्धी कर्म का विशेष कर सेवन करना चाहिये। और मुख्यकर सत्त्वगुणयुक्त बुद्धि होने के लिये वैसे ही सत्त्वगुणवर्द्धक पदार्थों का भोजन करना चाहिये। अब आयुर्वेदनामक सुश्रुत के सूत्रस्थान के अन्नपानविधिनामक छियालीसवें अध्याय में लहसुन और प्याज के विषय में ऐसा कहा है कि- ‘लहसुन- चिकना, गर्म और तीखा अर्थात् चरपरा, कटुरसयुक्त, भारी, छेदक वा रेचक, स्वादुरस, बलकारी, कामोद्दीपक, बुद्धि, स्वर, वर्ण और नेत्रों के लिये हितकारी, टूटी हड्डी के जोड़ने में हितकारी, हृदय के रोग पीड़ादि, जीर्णज्वर, कोख की पीड़ा, बद्धकोष्ठ गुल्म रोग जो पेट में गोलाकार होता है, अरुचि, खांसी, और सूजन तथा दाद, पित्त की पीड़ा, कृमि, वायु, श्वास तथा कफसम्बन्धी रोगों को नष्ट करने वाला लशुन है अर्थात् ये गुण लहसुन में हैं। और प्याज के खाने से वीर्य में कुछ गर्मी, वायु का नाश, कटुरसकारी, तीखा, भारी, कुछ कफ का उत्पादक, बलकारी, पित्तवर्द्धक, क्षुधा को बढ़ाने वाला। ये गुण सामान्य कर प्याज में हैं। चिकना, रुचिकारी, धातुओं को स्थिर करना, बलकारी, बुद्धि, कफ और पुष्टि को बढ़ाने वाला, स्वादिष्ट, भारी, लोहू और पित्त को    सुधारने वाला और रसयुक्त लाल प्याज होता है।’१ ये उक्त गुण लाल प्याज में होते हैं। जैसे कोई वस्तु कोमल वा गर्म हो तो विशेष गुणकारी होता वैसा गुणकारी गर्म होने पर तीक्ष्ण हो तो नहीं हो सकता किन्तु उससे रजोगुण की वृद्धि होती है। और रसयुक्त होने पर कटु होना भी वैसा ही रजोगुणकारी है। तथा भारी वा भेदक होना भी लहसुन के गुण सर्वहितकारी नहीं हैं, किन्तु वातरोग वाले को हितकारी हैं, पित्त वाले के लिये नहीं, उष्ण और तीक्ष्णतादि गुण भी पित्त को कुपित करने वा बढ़ाने वाले हैं। मैथुन की इच्छा को बढ़ानारूप गुण भी सर्वहितकारी नहीं है किन्तु कामी लोगों के लिये उपयोगी है, परन्तु जितेन्द्रिय वा ब्रह्मचारी रहने वालों के लिये यह गुण अनिष्ट वा अनुपकारी- उनके नियम वा व्रत को बिगाड़ने वाला है। इत्यादि कई गुण इसमें ऐसे हैं जो विशेष दशाओं में किसी-किसी को कुछ उपयोगी हो सकते हैं, परन्तु जिन तपस्वी जितेन्द्रिय नीरोग स्वस्थ ब्राह्मणादि के लिये विशेष हितकारी लशुनादि नहीं किन्तु हानिकारक तो किसी प्रकार अवश्य हैं। बुद्धि आदि के वर्द्धक, स्वादुरस वा बलकारी होना आदि कई गुण इन लशुनादि में अच्छे हैं, उनके रहने पर भी सत्त्वगुण का विघात करना उसमें बना ही रहता है तो जो पुरुष उन गुणों को लेने के लिये लशुनादिकों का सेवन स्वीकार करेगा उसको उनके अवगुण के दोषों से दुःख वा हानि भी उठानी पड़ेगी। अर्थात् जिस अन्न में विष मिला हो उसको कोई पुरुष क्षुधा की निवृत्ति के लिये नहीं खाता। जिस धर्म के साथ कई अधर्म भी आ जावें उसका बिना किसी विशेष दशा के ग्रहण वा सेवन नहीं करना चाहिये। इसी के अनुसार लशुनादि में गुण होने पर भी दोषों को साथ में आते देखकर निषेध किया। रहे गुण बुद्धिवर्द्धक आदि उसके लिये घृत, दुग्ध वा मधु आदि अनेक स्वच्छ सत्त्वगुणी पदार्थ विद्यमान हैं जिनमें वैसी बुराई नहीं है। और लशुनादि में रोगनाशक कई गुण अवश्य अच्छे हैं इसलिये वातादि से होने वाले रोगों में उनका सेवन करना चाहिये। प्याज के गुण पूर्व लिख चुके हैं वह भी प्रायः लहसुन के तुल्य अच्छे बुरे गुणों वाला है। इस विषय में भावप्रकाशनामक चिकित्साग्रन्थ में भी लिखा है कि- ‘एक अम्ल रस को छोड़कर पांच रस वाला होने से द्रव्यों के गुण जानने वालों ने लहसुन का नाम रसोन रखा है। जड़ में कडुआ, पत्तों में तीखा, नाल में कषैला, नाल के अग्रभाग में लवण और लशुन के बीज में मीठा रस रहता है। लहसुन- बढ़ाने वाला, मैथुनेच्छाकारी, चिकना, गर्म, पाचक और भेदक है।’१ इत्यादि प्रकार से पूर्व के तुल्य गुण-अवगुणकारी दिखाया है।

तथा प्याज के विषय में भी भावप्रकाश में विशेष यह लिखा है कि- ‘प्याज यवनों का इष्टभोजन, बुरे गन्ध से युक्त, मुख को दूषित करने वाला तथा लशुन के तुल्य गुणों वाला भी है। पचने पर अच्छा चित्त करने वाला, गर्मी रहित कफकारी, कुछ पित्त करने वाला, केवल वातरोग का नाशक, भारी और बल-वीर्य को बढ़ाने वाला है।२ गाजर के विषय में भी लिखा है कि- ‘गाजर पित्त को बढ़ाने, हृदय को पकड़ने और तीक्ष्ण नाम छेदक वा रेचक तथा रोगनाशक है।’३ इत्यादि प्रकार से गाजर भी लहसुन आदि के तुल्य रजोगुणवर्द्धक, क्रोधादिकारक और कामदेव का उत्तेजक है, ऐसा समझकर अभक्ष्य कोटि में रखा गया है। चौथा कवक वा छत्राक जिसको लोकभाषा में कुकुरमुत्ता वा कठफूल कहते हैं। यह भी शीतल और भेदक है। इसके विशेष खाने से विसूचिका होनी संभव है। कठफूल गाजर और प्याज आदि पकाने पर मांस के तुल्य कुछ-कुछ भी प्रतीत होते हैं तथा लहसुन वा प्याज का गन्ध भी सबके अनुकूल ग्राह्य नहीं है। उन दोनों वस्तुओं के खाने वालों के मुख से जो गन्ध निकलता है, उसको सब कोई सुगन्ध के तुल्य ग्रहण करने को उद्यत नहीं होते, किन्तु अनेक लोग दुर्गन्ध के तुल्य असह्य मानते हैं। इत्यादि कारणों से भी इन लशुनादि को अभक्ष्य कोटि में गिना है। पहले       धर्मशास्त्र बनाते समय पूर्व कहे अनेक कारणों से लहसुनादि के खाने का प्रचार भी नहीं था, उसी के अनुसार उस समय के धर्मशास्त्रों में निषेध लिखा गया। इसी प्रकार उस समय प्रदेशभेद से अर्थात् पूर्व में लहसुन, दक्षिण वा पंजाब आदि में प्याज और मध्य प्रान्त में गाजर के खाने का प्रचार देखकर कोई खाने का      विधान भी कर सकता है। परन्तु प्रचार-अप्रचार मात्र को देखकर विधि वा निषेध करना ठीक नहीं है, किन्तु हानि-लाभ आदि को देखकर विधान वा निषेध होना चाहिये। अनेक लोग यह भी कह सकते हैं कि जब लशुनादि में अनेक अच्छे गुण हैं तो उनको भक्ष्य क्यों नहीं ठहराया जाता और थोड़े अवगुणों से अभक्ष्य क्यों माने जाते हैं ? इसका उत्तर यह है कि लशुनादि में जो गुण हैं, उनको हम अवगुण नहीं ठहराते किन्तु वे गुण प्रायः रोगी पुरुषों के रोगनाश करने के लिये उपयोगी हैं। और दोषों के होने से स्वस्थ दशा में कि जब कोई रोग नहीं, तब निषेध किया जाता है। तथा एक बात यह भी है कि लशुनादि को स्वस्थसंरक्षण में नहीं गिनाया गया, इत्यादि कारण से हमने भी इसके निषेध का कारण दिखाया है। ऐसे लालमिर्च भी भेदक वा रजोगुणवर्द्धक, वातघ्न और क्षीणता करने वाली होने से उसके भक्षण का निषेध कर सकते हैं अर्थात् स्वस्थ दशा की रक्षा के लिये घृतादि के तुल्य लालमिर्च का भी कुछ उपयोग नहीं इससे वह भी अभक्ष्य है। परन्तु अभक्ष्य शब्द का वैसा अर्थ नहीं समझना चाहिये जैसा कि इस समय अनेक लोग समझते हैं कि जिसके खाने से मनुष्य पतित हो जाता है किन्तु जिसके खाने से किसी प्रकार का दुःख हो वा कुछ हानि हो वा किसी अन्य को दुःख पहुंचे, वह पदार्थ अभक्ष्य है। लालमिर्च वातघ्न है इस कारण वातप्रकृति वाले को विशेष उपकारी जानो। और पित्त वाले वा स्वस्थ के लिये भेदक वा वीर्यादि को क्षीण करने वाली है। इसलिये उसको अभक्ष्य ठहरा सकते हैं। परन्तु उसके भक्षण से मद्यादि के तुल्य कोई पतित नहीं हो सकता। इसी प्रकार लहसुन आदि के खाने वाले भी पतित नहीं होते। किन्तु उन लहसुन आदि के प्रायः खाने से रजोगुण बढ़ता है। इस कारण उन लहसुन आदि के प्रायः खाने का ही निषेध है, किन्तु नैमित्तिक रोगादि में नहीं। रोग में तो ओषधि के समान सेवन करना ही उचित है। इस अभक्ष्यप्रकरण में लहसुन आदि उदाहरण मात्र उपलक्षण हैं कि इस प्रकार के गुण वाले पदार्थ स्वस्थ दशा में मनुष्यों को नहीं खाने चाहियें, किन्तु परिगणन नहीं है कि इतने ही पदार्थ अभक्ष्य हैं। इससे यह आया कि वेदादि शास्त्र पढ़ने वा वेदोक्तधर्मयुक्त कर्मों का सेवन करने वाले ब्राह्मणादि द्विजों के स्वरदूषक, सत्त्वगुणनाशक वा रजोगुण-तमोगुणवर्द्धक जो कोई गिनाये हुए लहसुन आदि से भिन्न भी शाक, मूल, कन्द, फल वा पुष्पादि वस्तु हों, उनको अभक्ष्य कोटि में रखना चाहिये। यहां उदाहरण (नमूना) मात्र दिखा दिया है। क्योंकि सत्त्वगुण के ठीक होने पर ही सुख उत्पन्न होता और मुख्यकर धर्म का फल सुख ही है, इससे भक्ष्याऽभक्ष्य का धर्म के साथ सम्बन्ध युक्त ही है।

इस अध्याय के छठे श्लोक में गव्यपेयूष (गाय की गिजरी) के खाने का निषेध किया है और आठवें श्लोक में दस दिन से पहले गौ के दूध का निषेध है। इनमें से पहले में अग्नि के संयोग के कठिन हो जाने वाली गिजरी का निषेध है और प्रायः सात दिन तक दूध फटता वा गिजरी होती है उन दिनों में तो अवश्य ही वह त्याज्य है क्योंकि उसमें बहुत दिन की गर्मी वा मलिनता का विकार जुड़ा रहता है। इस कारण उसका विशेष निषेध है। और आठवें पद्य में गौ उपलक्षण मात्र है। इससे दस दिन के भीतर भैंस, बकरी आदि का दूध न फटने पर भी त्याज्य है। इस प्रकार इस प्रकरण में भोज्य वा पेय- पीने योग्यादि पदार्थों में से उदाहरण मात्र कई को अभक्ष्य कहा है। विशेष व्याख्यान वहीं होगा। अब इससे आगे प्राणियों के शरीर से होने वाले मांस के विषय में भक्ष्याभक्ष्य का विचार किया जायेगा।

अम्बेडकरजी द्वारा नमस्ते अभिवादन का प्रयोग: कुशलदेव शास्त्री

महर्षि दयानन्द और उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज ने अपने प्रारम्भिक काल से ही अभिवादन के रूप में प्राचीन, शास्त्रीय, सार्वजनीन नमस्ते का उद्धार और प्रचार किया है। अमर शहीद पं0 रामप्रसाद बिस्मिल के अनुसार ”जब आर्यसमाज का यह प्रयत्न कुछ लोगों को ऊँच-नीच का भेदभाव नष्ट करने वाला प्रतीत हुआ, तो उन्हें यह सहन नहीं हुआ कि निम्न वर्ण के लोग उच्चवर्णियों की तरह नमस्ते करें। इसलिए इन संकीर्ण रूढ़िवादियों ने ’गरीब निवाज‘, ’पालागन‘, ’जुहार‘ आदि को बलपूर्वक प्रचलित रखना चाहा।“ डॉ0 अम्बेडकरजी ने भी इस बात पर खेद प्रकट किया है कि ’ईस्ट इण्डिया कम्पनी‘ के काल में ’महाराष्ट्र की निम्न जातियों द्वारा‘ ऊँची जाति के बराबर आने के प्रयत्न उन्नत जातियों द्वारा नष्ट कर दिये गये। सुनारों ने जब उच्च कुलोत्पन्न व्यक्तियों की तरह नमस्कार करना चाहा, तो उन्होंने कम्पनी की ओर से उनके नमस्कार पर पाबंदी के आदेश निकलवा दिये थे। आर्यनरेशों और पं0 आत्मारामजी अमृतसरी जैसे आर्यसमाजियों के सम्पर्क में आकर श्री भीमरावजी अम्बेडकर ने ’जोहार‘ के स्थान पर ’नमस्ते‘ अभिवादन को स्वीकार तो कर लिया था, पर न जाने बाद में ऐसी कौन-सी परिस्थितियाँ पैदा हुईं, जिस कारण उन्होंने फिर से ’नमस्ते‘ के स्थान पर ’जोहार‘ अभिवादन को स्वीकार किया। डॉ0 अम्बेडकरजी के व्यक्तित्व और कृतित्त्व के विद्वान् समीक्षक डॉ0 गंगाधर पानतावणेजी के कथनानुसार तो डॉ0 अम्बेडकरजी ने अपने जीवन के अन्त में आधुनिक बौद्धों में प्रचलित ’जय भीम‘ अभिवादन भी अपना लिया था। जबकि इस अभिवादन का ’भीम‘ शब्द डॉ0 भीमराव अम्बेडकरजी के नाम का ही मूल अंश है। प्रत्येक बौद्ध ’जय भीम‘ कहते वक्त एक प्रकार से डॉ0 अम्बेडकर के विचारों के विजयी होने की मनोभावना को ही व्यक्त करता है।

 

  माननीय अम्बेडकर जी द्वारा ’नमस्ते‘ अभिवादन अपना लेने की पुष्टि उनके ही द्वारा लन्दन से भेजे गये तीन पत्रों से होती है। पहले दो पत्र उन्होंने अपने घनिष्ठ सहयोगी और सचिव श्री सीताराम नामदेव शिवतरकर को भेजे हैं, और तीसरा पत्र श्री अम्बेडकरजी ने अपनी सहधर्मिणी रमाबाई को लिखा है। डॉ0 अम्बेडकरजी की अभिवादन शैली के कुछ नमूने काल क्रमानुसार इस प्रकार हैं –   

 

 

 

 

  1. अक्टूबर, 1920, प्रिय शिवतरकर, नमस्ते, 10 जून 1921-राजमान्य राज्यश्री शिवतरक यांस नमस्ते/25, नवम्बर-1921 प्रिय रामू (श्रीमतीरमाबाई भीमराव अम्बेडकर) नमस्ते/12, जून 1927, रा0 रा0 मुकुंदराव पाटिल यांस अनेक जोहार।

डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकरजी के सहयोगी श्री सीताराम नामदेव शिवतरकर सन् 1933 से 1936 की कालावधि में आर्यसमाज लोअर परल, मुम्बई के प्रधान थे और डॉ0 अम्बेडकरजी भी इस आर्यसमाज में पधारे थे। प्राप्त जानकारी के अनुसार मुम्बई के लोअर परल आर्यसमाज और उनके पदाधिकारियों के साथ माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी के स्नेहिल सम्बन्ध थे। (आर्यसमाज लोअर परल सुवर्ण महोत्सव स्मरणिका ख्मराठी, सन् 1977)।

 

आर्यसमाज की प्रगतिशील दृष्टि: कुशलदेव शास्त्री

बड़ौदा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ (1863-1939) और कोल्हापुर नरेश राजर्षि शाहू (1874-1922) का स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज की ओर आकृष्ट होने का महत्त्वपूर्ण कारण है-आर्यसमाज की वेद विषयक प्रगतिशील दृष्टि। इन क्षत्रिय राजाओं को तत्कालीन रूढ़िवादी पण्डित शूद्र समझते थे और इसी कारण इन्हें वेदोक्त संस्कार का अधिकार प्रदान करने के लिए तैयार न थे, जबकि स्वामी दयानन्द की दृष्टि में वेद पढ़ने का अधिकार मानवमात्र को था। महाराष्ट्र केसरी छत्रपति शिवाजी का यज्ञोपवीत संस्कार करने में हिचककिचाहट करने वाले रूढ़िवादी पण्डितों की परम्परागत संकीर्णता 20वीं सदी में भी ज्यों की त्यों बनी हुई थी, जबकि स्वामी दयानन्द ने वेद के आधार पर ही यह सिद्ध किया था कि मानवमात्र के साथ समस्त स्त्री-शूद्रों को भी वेदाध्ययन करने का अधिकार है। रूढ़िवादी पण्डितों की इस संकीर्णता से बेचैन होकर श्री सयाजीराव गायकवाड़ और शाहू महाराज आर्यसमाज की ओर आकृष्ट हुए। इन आर्यनरेशों ने केवलमात्र डॉ0 भीमराव अम्बेडकर को ही नहीं, अपितु अन्य प्रतिभावान् दलितों को भी छात्रवृत्तियाँ प्रदान की थीं।

आर्य नरेश कोल्हापुर का सक्रिय सहयोग

 

आर्यरनेश राजर्षि शाहू महाराज ने पत्रकार डॉ0 अम्बेडकर के प्रथम पत्र ’मूकनायक‘ के संचालन में भी आर्थिक सहायता प्रदान की थी और इतना ही नहीं सन् 1920 में माणगाँव में सम्पन्न प्रथम अस्पृश्यता परिषद में कोल्हापुर के आर्य नरेश शाहू महाराज ने यह भविष्यवाणी भी की थी कि ’डॉ0 अम्बेडकर भारतवर्ष के अखिल भारतीय नेता होंगे।‘ तत्कालीन मुम्बई राज्य के इन दोनों राजाओं के पास जो यह उदारमन और उदारदृष्टि थी, उसकी पृष्ठभूमि में मुझे स्वामी दयानन्द खड़े हुए नजर आते हैं। इन दोनों ही आर्यनरेशों के अन्तःकरण पर निर्विवाद रूप से आर्यसमाजी आन्दोलन की विशिष्ट छाप रही है।

मूकनायक अंक

परल-मुम्बई

16/6/20

 

श्रीमन् महाराज शाहू छत्रपति, करवीर

महोदय की सेवा में

माणगांव और नागपुर की सभा में पारित प्रस्ताव के अनुसार दि0 26 जून के दिन सर्वत्र आपका जन्म दिवस समारोह आयोजित किया गया है। उसी दिन आपके आश्रय से निकल रहे ’मूकनायक‘ का विशेषांक (भी) निकालने का निश्चय हुआ है। उसमें श्रीमन् महाराज की सचित्र क्रियाशील जीवन की उज्जवल समग्र रूपरेखा दी जाएगी। इसलिए आपके कार्यकाल की आज तक की विस्तृत जानकारी प्राप्त करने के लिए मैंने एक बार आपसे विनति की थी, पर खेद महसूस होता है कि आज तक भी वह जानकारी प्राप्त (नहीं) हुई है। दिन बहुत ही कम बाकी हैं, अतः मैंने स्वयं आकर आवश्यक जानकारी एकत्रित करने का निश्चय किया है। इसी उद्देश्य से मैं आज सांध्यवेला में पहुँचूंगा। (आशा ही नहीं, अपितु पूर्ण विश्वास है कि) श्रीमन् महोदय के दर्शन का लाभ होगा ही।

आपका कृपाभिलाषी

भीमराव आंबेडकर

माननीय अम्बेडकर जी द्वारा हस्तलिखित मराठी भाषा में लिखे ऐतिहासिक पत्र का हिन्दी अनुवाद। यह पत्र कोल्हापुर के छत्रपति शाहू महाराज को लिखा गया है।

 

सन्दर्भः- ’पत्रोच्या अंतरंगातून डॉ0 बाबासाहेब आंबेडकर‘ नामक मराठी ग्रन्थ के मुखपृष्ठ से यह हस्तलिखित मराठी पत्र उद्धत किया गया है। लेखिका सौ0 चंद्रकला रघुनाथ उकरंडे, प्रकाशक-श्री समर्थ प्रकाशन, 473 दत्तवाड़ी, पुलिस चैकी के पीछे, पुणे-411030। मूल्य-100.00। पृष्ठ संख्या-144।

 

बड़ौदा आर्य नरेश द्वारा मेधावी डॉ0 अम्बेडकर की शिक्षा: कुशलदेव शास्त्री

श्री डॉ0 भीमराव अम्बेडकर को इण्टर पास करने के बाद बी0 ए0, एम0 ए0, पी0 एच0 डी0, डी0 एस0 सी0 (लन्दन), एल0 एल0 डी0, बार-एट-लासॉ, जैसी उपाधियों से विभूषित और प्रकाण्ड पण्डित बनाने में आर्यसमाजी आन्दोलन का, प्रत्यक्ष नहीं तो अप्रत्यक्ष रूप में क्यों न हो, अविस्मरणीय योगदान रहा है। इस बात को और कोई जाने या न जाने स्वयं डॉ0 अम्बेडकर जरूर जानते थे। इसलिए भी उनके ग्रन्थों में आर्यसमाजी आन्दोलन के प्रति विशेष सहानुभूति नजर आती है।

जहाँ आर्यनरेश  श्री सयाजीराव गायकवाड़ ने सन् 1912 से 1915 तक डॉ0 भीमरावजी अम्बेडकर को उच्च विद्याविभूषित करने के लिए शिष्यवृत्तियाँ प्रदान कीं और उन्हें अमेरिका भेजा, वहाँ अपने आपको हृदय से आर्यसमाजी कहलानेवाले राजर्षि शाहू महाराज ने भी सन् 1919 से 1922 तक अम्बेडकर की विदेश जाकर अध्ययन करने के लिए आर्थिक दृष्टि से सम्पूर्ण सहयोग दिया था।