जातिनिर्मूलन और वर्ण-व्यवस्था विषयक दृष्टिकोण: कुशलदेव शास्त्री

डॉ0 अम्बेडकरजी की एक सुप्रसिद्ध पुस्तक है-’जातिनिर्मूलन‘, जिसके प्रारम्भ में लिखा गया है-”डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर द्वारा जात-पाँत-तोड़क मण्डल लाहौर के सन् 1936 के वार्षिक अधिवेशन के लिए तैयार किया गया भाषण, लेकिन जो दिया नहीं गया, क्योंकि स्वागत समिति ने इस आधार पर कि भाषण में व्यक्त विचार अधिवेशन को स्वीकार नहीं होंगे, अधिवेशन समाप्त कर दिया।” चर्चित अध्यक्षीय भाषण में डॉ0 अम्बेडकरजी ने जन्मना नहीं किन्तु कर्मणा वर्ण-व्यवस्था की वकालत करने वाले आर्यसमाजियों से असहमति प्रकट की है और उसे अव्यावहारिक, काल्पनिक और त्याज्य माना है। डॉ0 अम्बेडकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन लेवलों को छो़ड़ देने का आग्रह करते हैं। इस प्रकार का लेबल लगाने का आग्रह उन्हें निरर्थक और अनावश्यक प्रतीत होता है, उनका कहना है कि बिना इन लेबलों के भी व्यक्ति की योग्यता का अहसास हो जाता है, फिर इन लेबलों की क्या आवश्यकता है ?

    डॉ0 अम्बेडकरजी के इस अध्यक्षीय भाषण के साथ जो परिशिष्ट जोड़ा गया है, उसमें महात्मा गाँधी की तुलना में उन्होंने ”स्वामी दयानन्द द्वारा अनुमोदित वर्ण-व्यवस्था की बुद्धिगम्य और निरुपद्रवी” कहा है। डॉ0 अम्बेडकरजी के शब्दों में –

”महात्मा गान्धी जिस वर्ण-व्यवस्था का समर्थन करते हैं, क्या वह वैदिक वर्ण-व्यवस्था है या स्वामी दयानन्द जिस वर्ण-व्यवस्था का अनुमोदन करते हैं वह वैदिक वर्ण-व्यवस्था है ? स्वामी दयानन्द और उनके अनुयायी आर्यसमाजियों के अनुसार वर्ण की वैदिक मान्यताओं का सार है-ऐसे व्यवसायों को अपनाना जो व्यक्ति के स्वाभाविक योग्यता के अनुरूप हों। महात्मा गान्धी के वर्ण का सार है-अपने पूर्वजों के व्यवसाय को अपनाना, चाहे स्वाभाविक योग्यता न भी हो। महात्मा गान्धी की वर्ण-व्यवस्था और जाति-व्यवस्था में मुझे कोई फर्क नहीं दिखाई देता। वहाँ तो वर्ण जाति का समानार्थी है। सार रूप में गान्धीजी का वर्ण और जाति इन दोनों का तात्पर्य पूर्वजों के व्यवसाय को अपनाना है। कुछ लोग सोच सकते हैं कि महात्मा ने बहुत प्रगति की है, पर मेरी दृष्टि में महात्मा गान्धी प्रगति से दूर हैं और परस्पर विरोधी धारणाओं से पीड़ित हैैं। वर्ण की वैदिक मान्यताओं को इस प्रकार की व्याख्या देकर उन्होंने जो विशिष्ट था उसको हास्य बना दिया है। जब मैं वैदिक वर्ण-व्यवस्था को भाषणों में दिये कारणों से अस्वीकार करता हूँ, तो मुझे स्वीकार करना होगा कि वर्ण का वैदिक दर्शन जो स्वामी दयानन्द और कुछ अन्यों ने दिया है, वह समझदारीपूर्ण और बगैर हानिकारक है, क्योंकि वह व्यक्ति विशेष का समाज में स्थान निर्धारित करने के लिए जन्म को निर्णायक तथ्य नहीं मानता। वह केवल गुण को स्वीकार करता है। जबकि महात्मा गान्धी का वर्ण-व्यवस्था के प्रति दृष्टिकोण न केवल वैदिक वर्ण-व्यवस्था को फालतू की वस्तु बना देता है, अपितु घृणित भी बना देता है। वर्ण और जाति परस्पर भिन्न मान्यताएँ हैं। वर्ण गुणाश्रित सिद्धान्त है, तो जाति जन्माश्रित सिद्धान्त है। वस्तुतः वर्ण और जाति ये समानार्थी नहीं, अपितु विलोमार्थी शब्द हैं।“ इससे पूर्व सितम्बर सन् 1927 में तमिलनाडु के दलितोद्धारक श्री ई0 वी0 रामस्वामी नायकर जी भी (1879- ) श्री महात्मा गान्धीजी से मिलकर उनकी जन्मना वर्ण-व्यवस्था विषयक दृष्टिकोण से अपनी तीव्र असहमति और चिन्ता व्यक्त कर चुके थे।

 

     इस प्रकार स्पष्ट है कि महात्मा गान्धी की तुलना में स्वामी दयानन्द प्रतिपादित वर्ण-व्यवस्था से डॉ0 अम्बेडकर सहमत हैं और इसीलिए उन्होंने उसे ’बुद्धिगम्य और निरुपद्रवी‘ कहा है। पुनरपि डॉ0 अम्बेडकर ने अपने मूल भाषण में वर्ण-व्यवस्था को अस्वीकारणीय और अव्यावहारिक माना है।

 

हम जब आर्यसमाज के 133 वर्ष के इतिहास पर दृष्टि डालते हैं, तो इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि गुण-कर्म-स्वभावानुसार वर्ण-व्यवस्था को व्यावहारिक रूप देने में वह 75 प्रतिशत असमर्थ रहा है और जब तक वह इसे क्रियात्मक रूप देने में पूर्णतया समर्थ नहीं होता, तब तक जमाना डॉ0 अम्बेडकर के स्वर में स्वर मिलाकर कहेगा कि वर्ण-व्यवस्था, अव्यावहारिक, काल्पनिक और त्याज्य है। लेकिन इसके साथ ही जातिनिर्मूलन के सन्दर्भ में डॉ0 अम्बेडकर और उनके अनुयायियों से जमाने का भी एक सवाल रहेगा, वह यह कि क्या एक धर्म का परित्याग कर दूसरे धर्म को अंगीकार करने से जातिगत भेद-भाव का उन्मूलन हो जाता है ? क्योंकि डॉ0 अम्बेडकरजी ने अपने चर्चित अध्यक्षीय भाषण में कहा है कि-”धार्मिक भावनाओं का उन्मूलन किये बिना जाति-व्यवस्था को तोड़ना सम्भव नहीं है।“ निःसन्देह जातिगत भेद-भाव को नष्ट करने का डॉ0 अम्बेडकर ने यथामति-यथाशक्ति पूर्ण प्रयास किया और सम्भवतः एतदर्थ उन्होंने हिन्दू मत का परित्याग कर बौद्ध सम्प्रदाय को स्वीकार किया, दीक्षा ली, उनके अनेक अनुयायी भी बौद्ध बने, पर बड़े दुःख के साथ कहना पड़ता है कि न तो आर्यसमाज की कर्मणा वर्ण-व्यवस्था के रहते जातिगत भेदभाव पूर्णतया समाप्त हुआ और न ही डॉ0 अम्बेडकर द्वारा प्रदत्त धर्मान्तरण के प्रयोग से जाति-पाँति का विष समाप्त हुआ। (जाति-पाँति को लेकर जिस दलित वर्ग के सन्दर्भ में मनुस्मृति का विरोध किया गया, किया जाता है। क्या उस दलित वर्ग में आपस में जाति-पाँति टूटी ? क्या उनका आपसी छुआछूत पूरी तरह नष्ट हुआ ? यदि नहीं तो आपसी विवाह सम्बन्ध होना तो बहुत दूर की बात है।-सम्पादक) बुद्ध, मूर्तिपूजा के विरोधी थे। आज बौद्ध ही महात्मा बुद्ध और डॉ0 अम्बेडकर की मूर्तियों की पूजा कर रहे हैं। हिन्दुओं की तरह बौद्ध सम्प्रदाय से भी मूर्ति नहीं हट पाई। फर्क इतना ही है कि हिन्दू अनेक मूर्तियों की पूजा करते हैं, तो बौद्ध एक-दो प्रतिमाओं की। हिन्दू दीप जलाते हैं, तो बौद्ध मोमबत्ती। हिन्दुओं को केसरी रंग प्यारा है, तो बौद्धों को नीला। एक ने केसरी टोपी पहनी है तो दूसरे ने नीली। यहाँ बाह्म क्रियाओं में तो परिवर्तन हुआ है, पर मूल प्रवृत्ति अब भी ज्यों की त्यों है। रंग बदले हैं, पर अन्तर्मन नहीं बदला। आत्मा का कायाकल्प नहीं हुआ। दयानन्द और अम्बेडकर के अपने-अपने प्रयत्नों के बावजूद जातिगत भेद-भाव आज भी यथावत् विद्यमान है। क्या यह ठीक है कि जाति वही होती है, जो जाते-जाते भी नहीं जाती ? पता नहीं समूल जाति-पाँति का उन्मूलन कब हो पाएगा ? शायद ज्ञान भिन्न और क्रिया भिन्न होने से समाज इस विडम्बनात्मक स्थिति में पहुँच गया है, जातियाँ क्या टूटेंगी ? जबकि समाज अभी अपनी उपजातियाँ तोड़ पाने का भी साहस नहीं बटोर पा रहा है। जातिनिर्मूलन का एक मात्र अचूक उपाय अन्तर्जातीय विवाह है, जिसका समर्थन डॉ0 अम्बेडकर ने भी किया है। इस ˗प्रकार के अन्तर्जातीय विवाह एक पीढ़ी तक ही नहीं, अपितु सात-सात पीढ़ियों तक होंगे, तभी जातिगत भेद-भाव का समूल सर्वनाश होगा। इसके सिवाय अन्य कोई उपाय कारगर प्रतीत नहीं होता।

 

डॉ0 अम्बेडकर ने जात-पाँत तोड़क मण्डल के वार्षिक अधिवेशन (1936) की अध्यक्षता के सन्दर्भ में लिखा है कि-”यह मेरे जीवन का निश्चित ही पहला अवसर है, जबकि मुझे सवर्ण हिन्दुओं के अधिवेशन की अध्यक्षता करने के लिए आमंत्रित किया गया हो (और मेरे लिखित अध्यक्षीय भाषण के वैचारिक मतभेदों के कारण अधिवेश नही स्थगित कर दिया गया हो।) मुझे खेद है कि इसका अन्त दुःखान्त हुआ।“

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