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आत्म-चिन्तन और मनन – रमेश मुनि

 

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।

सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।

क्रोधाद् भवति समोहः समोहात्स्मृतिविभ्रमः।

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।

– (गीता 2-62,63)

शराबी आदमी शराब पी कर गिरता है। वह खड़ा होना, ठीक ढंग से चलना चाहता है, किन्तु नहीं हो पाता, ठीक ढंग से नहीं चल पाता। इस अवस्था में वह आदमी नहीं रह जाता- यह उसकी करुणाजनक स्थिति होती है। वह शरीर से उत्तम है, सुन्दर कपड़े पहने हुए है, किन्तु मदिरा के मस्तिष्क में पहुँच जाने के कारण बुद्धि बिगड़ जाती है, बुद्धि में अन्तर आ जाता है। इसी से सन्तुलन बिगड़ जाता है, जिसके कारण वह चलने के लिए उठता है, किन्तु गिर पड़ता है, फिर उठता है फिर गिर पड़ता है, इसी प्रकार की स्थिति बनी रहती है। संसार में हम सब की भी ऐसी स्थिति प्रायः बनी रहती है। सांसारिक विषयों की इच्छाओं के  प्रभाव के कारण सभी का सन्तुलन बिगड़ा रहता है, उठना-गिरना, उठना-गिरना सभी में होता रहता है, सभी में ऐसी स्थिति चलती रहती है। ऐसी स्थिति के कारण ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या आदि दोष प्रबल हो जाते हैं, जिस कारण व्यक्ति छल, कपट, ऊँच, नीच करता रहता है। सदा एक बुद्धि को बनाए नहीं रख सकता, जिससे शराबी की तरह पगलाया रहता है। ईश्वर और आत्माएँ नित्य हैं, जबकि संसार अनित्य है, सदा रहने वाला नहीं है। इस तत्त्व को वह या तो जानता ही नहीं, यदि जानता भी है तो इसे मानता नहीं है और विषयों के प्रभाव के कारण सांसारिक पदार्थों को नित्य मान कर अपना व्यवहार करता है।

ईश्वर ने मानव के लिए अत्युत्तम पदार्थ बुद्धि बनाई है, किन्तु अपने कर्मों या व्यवहार के कारण इससे वञ्चित हो जाता है। मानवपन तब सार्थक होता है, जब वास्तविकता को समझ कर आचरण ठीक कर समाधिनिष्ठ होगा, जिससे बुद्धि सात्विक होगी और शराबी के तरह का भाव समाप्त हो जाएगा। शराबी यदि अपने व्यवहार को ठीक नहीं करता तो उसका जीवन दुःखमय रहता है, इसी प्रकार सामान्य मानव भी विषयों के नशे में रहेगा तो जीवन दुःखमय बना रहेगा। जिस प्रकार शराबी की उस अवस्था को देख हम उसे दया का पात्र मानते हैं, इसी प्रकार अपने को भी दया का पात्र मानना चाहिए। मानव जीवन का लक्ष्य यह है कि विशेष उपलधि से अपने को वञ्चित देखकर हमें ग्लानि अनुभव करनी चाहिए और दोष को दूर करना चाहिए। शराबी के मन में खड़े होने, ठीक प्रकार से चलने का प्रयास करके अपने आपको अच्छा दिखाने की भावना होती है। वह प्र्रयास से अपने समान को सुरक्षित करना चाहता है, किन्तु बुद्धि बिगड़ने से नहीं कर पाता। यही स्थिति हमारी भी है। हम दिखाना चाहते हैं कि मैं जो कर रहे हैं, ठीक कर रहे हैं, लेकिन वह काम गलत होता है।

योगी विवेकी जानता है कि आम आदमी को ऐेसी हालत में देख कर ईश्वर हमें उस शराबी की तरह का समझता है। इस अवस्था को उत्पन्न करने का मूल कारण हमारी इच्छाएँ हैं (योगदर्शन के अनुसार वृत्तियाँ)। इन्हें हटाने का प्रयास करें। यदि हम अपनी इच्छा को रोक लेते हैं तो वृत्तियाँ स्वयं रुक जाएँगी, इच्छा बढ़ने से चञ्चलता के कारण वृत्तियाँ, प्रवृत्तियाँ बढ़ जाएँगी, जीवन दुःखमय हो जाएगा।

न्याय दर्शन सूत्र (4-2-2)- ‘‘दोष निमित्तं रूपादयो विषयाः संकल्पकृताः’’ अर्थात् मिथ्या इच्छाओं से उत्पन्न रूप, रस आदि पाँच विषय राग, द्वेष आदि दोषों को उत्पन्न करते हैं। मिथ्या इच्छाओं को समाप्त करके रूपादि विषयों के प्रति आसक्ति को दूर करके शराबी के व्यवहार से बच सकते हैं।

आनन्दमयोऽयासात् (वेदान्त 1-1-12)

परमात्मा आनन्द स्वरूप है। अर्न्तदृष्टि से परमात्मा का अयास करने से, यम-नियमों का अनुष्ठान, पालन करने से ईश्वर की अनुभूति होती है।

जब इच्छा के साथ भिन्न-भिन्न विषय जुड़ते जाते हैं तो कामनाएँ जोर मारने लगती हैं। जब इच्छा शरीर को प्राप्त करने की हो तो यह काम कहलाती है। इसमें यदि दूसरा व्यक्ति प्रतियोगी है और समान स्तर का है तो उससे ईर्ष्या। यदि वह बाधा करता है तो द्वेष और यदि प्रतियोगी निर्बल हो तो उसे मारने या नष्ट करने की प्रवृत्ति बन जाया करती है।

इच्छा यदि अनुकूल विषय से जुड़ गई तो राग बन जाती है, वही अनुभूति बढ़ने से प्रीति या प्रेम कहलाती है। इच्छाएँ लगातार बढ़ती जाएँगी। यदि मिल गया तो फिर मिले। यदि इच्छा की पूर्ति में समय अधिक लगेगा तो व्याकुलता होगी या निराशा, यदि उपलधि समीप आ रही हैं तो आशा। इस प्रकार अलग-अलग अवस्थाएँ भावों को बदलती रहती हैं- कभी आशा, कभी निराशा, कभी क्र ोध, काी क्षमा आदि।

इसका निदान है इच्छा को पकड़ लें, रोक दें, चाहे बलपूर्वक या बुद्धिपूर्वक। यदि मन में धारणा बना ली कि मुझे कुछ नहीं चाहिए तो संकल्प करते ही मन में स्थिरता आएगी, शान्ति मिलेगी। यदि इच्छा बढ़ाते हैं तो क्लेश होगा। जब इच्छा हमारे ऊपर है तो क्लेश और जब हम क्लेश के ऊपर हैं तो शान्ति मिलेगी, आत्मा शक्तिशाली अनुभव करेगा। इस प्रकार कोई भी इच्छा करते समय बुद्धिपूर्वक विचार करेंगे, चिन्तन करेंगे तो क्लेश-दुःख से बच कर सुख शान्ति पाएँगे।

गीता ठीक कहती है- विषयों का निरन्तर सेवन करते रहने से व्यक्ति का क्रमशः पतन होता चला जाता है और निरन्तर साधना से व्यक्ति ऊर्ध्वमुखी होता चला जाता है। यही अध्यात्म है।           – ऋषि उद्यान, अजमेर।

सत्यार्थ प्रकाश के 14 वें समुल्लास पर आपत्तियाँ और  उनका उत्तर – राजेन्द्र जिज्ञासु

 

सत्यार्थ प्रकाश प्रकरण पर अदुल गनी व खलील खान ने जो आक्षेप किया है, उसका विवरण निम्न प्रकार है। पहली बात तो यह आक्षेप ही गलत है, क्योंकि ऋषि दयानन्द कुरान पढ़ना या अरबी भाषा जानते ही नहीं थे।

शाह रफी अहमद देहलवी के उर्दू अनुवाद का जो अन्य मौलवियों ने देवनागरी या हिन्दी में अनुवाद किया है, स्वामी जी ने उसी को ही ज्यों का त्यों लिया है। अनुभूमिका में साफ लिखा है, यदि कोई कहे कि यह अर्थ ठीक नहीं है, तो उसको उचित है कि मौलवी साहिबों के तर्जुमों का पहले खण्डन करे, पश्चात् इस विषय पर लिखे, क्योंकि यह लेख केवल मनुष्यों की उन्नति और सत्यासत्य के निर्णय के लिए है। दो लोगों ने सत्यार्थ प्रकाश के चौदह समुल्लास का सुरा तहरीम 66 आयत 1 से 5 पर ऋषि ने दो किस्सा या कहानी है लिखा।

आक्षेपकर्ता ने यह कहानी कुरान में नहीं है, ऐसा लिखा तथा कहा- जब यह कहानी नहीं है कुरान में फिर दयानन्द ने क्यों लिखा? अतः दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश पर प्रतिबन्ध लगना चाहिये। विरोध यही है।

इसका उत्तर है कि कुरान की आयतों के उतरने का कारण है जिसे शानेनुजूल कहा जाता है, अर्थात् किस बिना पर यह आयत उतरी? या किस आधार पर यह आयत उतरी ? वजह क्या थी? इसे शानेनुजूल कहा जाता है।

तो सुरा तहरीम का शाने नुजूल के सभी अनुवाद कर्त्ताओं ने कुरान के फुटनोट में लिखा है, वह अनुवाद उर्दू, हिन्दी व अंग्रेजी सब में है, और विस्तार में बुखारी शरीफ हदीस, व शाही मुस्लिम हदीस में प्रत्येक सुरा का शानेनुजूल लिखा है।

अतः इन आयतों में स्वामी जी ने दो कहानी है लिखा है, परन्तु कहानी को स्वामी जी ने उद्धृत नहीं किया, मैं उन दोनों क हानी को लिखता हूँ उमूल मोमेनीन (मुसलमानों की मातायें) अर्थात् हजरत मुहमद सःआःवःसः की सभी बीबीयाँ, सभी मुसलमानों की मातायें हैं, विधवा होने पर भी वह किसी से निकाह नहीं कर सकतीं, और न कोई मुसलमान उनसे निकाह कर सकता, क्योंकि माँ जो ठहरीं। हजरत जैनब नामी बीवी के पास हजरत साहब शहद पीने को जाया करते थे। हुजूर की सबसे कमसिन पत्नी हजरत आयशा ने एक और पत्नी हजरत हफसा दोनों ने परामर्श कर पति हजरत मुहमद साहब से कहा कि दहन मुबारक से मगाफीर की बू आती है, चुनान्चे आपने क्या खाया?

जवाब में हुजूर ने कहा- अगर शहद पीने से बू आती है, तो आइन्दा मैं शहद का इस्तेमाल नहीं करुँगा। पहली कहानी यह है, और आयत का शानेनुजूल यह है। (मैंने कसम खाली है, तुम किसी से मत कहना)

दूसरी कहानी है कि हजरत साहब ने एक काम को न करने की कसम खा लिया तो अल्लाह ने यह आयत उतारी- ऐ नबी क्यों हराम करते हो उस चीज को? जिसे अल्लाह ने हलाल किया है तुहारे लिए, अपनी बीविओं के खुशनुदियों के लिए (प्रसन्न के लिए)। हजरत हफसा के घर गए, वह मईके गई भी तो हुजूर ने मारिया, कनीज, के साथ एखतलात किया, हफसा ने दोनों को कमरे में देख लिया- हुजूर ने कसम खाली थी न करने को। तफसीर हक्कानी – पृ.125

एक बार हजरत साहब ने एक पत्नी हफसा से कहा, दूसरों से कहने को मना किया पर हजरत हफसा ने हजरत आयशा नामी पत्नी से कह दी । जिस पर अल्लाह ने पत्नियों को डाँट लगाते हुए कहा कि नबी अगर तुम लोगों को तलाक दें, तो उनकी पत्नियों की कमी नहीं, जिसे कुरान में अल्लाह ने कहा।

असा रबुहू इन तल्लाका ‘कुन्ना अई’ युब दिलाहू अजवाजन खैरम मिन कुन्ना मुसलिमातिम मुमिनातिन, कानेतातिन, तायेनातिन, सायेहातिन, सईये बातिय वा अबकरा। तहरीम – आ. 5

इन दो कहानी का ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में उल्लेख किया है, जो कुरान तथा हदीस में आयत का शानेनुजूल ही इस प्रकार है।

कुरान का अंग्रेजी अनुवादक पिक्यल व एन.जे. दाऊद, हिन्दी अनुवाद नवल किशोर ने भी लिखा है तथा उर्दू अनुवादकों ने भी लिखा है। अवश्य यह लिखना मैं युक्ति-युक्त समझता हूँ उर्दू अनुवादक ने लिखा यह किस्सा पादरियों ने अपने मन से मिला दिया है।

विचारणीय बात है कि ऋषि दयानन्द ने इसी आयत की समीक्षा में लिखा है, अल्लाह क्या ठहरा मुहमद साहब के घर व बाहर का इन्तेजाम करने वाले मुलाजिम ठहरा?

जरा सोचे तो सही कि कुरान का अल्लाह समग्र मानव मात्र का होने हेतु मानव मात्र के लिए उपदेश होना था कुरान का उपदेश।

किन्तु मानव मात्र का उपदेश तो क्या है, नबी के पति-पत्नी का घरेलू वार्तालाप ही अल्लाह का उपदेश है। समग्र कुरान में इस प्रकार अनेक घटनाएँ हैं। यहाँ तक कि नबी पत्नी बदचलन है या नहीं हैं, कुरान में अल्लाह गवाही दे रहे हैं। सुरा नूर-24 आयत 6 पर देखें।

बल्लजीना यरमूना अजवाजहुम व लम या कुल्लाहुम शुहदाऊ इल्ला अन फुसुहुम फ शहादतो अहादेहिम अरबयो शहादतिम बिल्ला हे इन्नाहू लन्स्सिादेकीन।

अब समीक्षा में ऋषि दयानन्द जी ने अपना विचार ही तो अभिव्यक्त किया है, न कि कुरान में यह क्यों लिखा है, यह पूछा?

अपने विचार अभिव्यक्त करने की छूट भारतीय संविधान में सबको है, और मानव बुद्धि परख होने हेतु किसी चीज को मानने के लिए बुद्धि का प्रयोग तो करना ही चाहिये। दयानन्द तो दोषी तब होते, जब अपनी मनमानी बातों को कुरान की आयतों के साथ मिलाते? उन्होंने तो मात्र कुरान की बातों को सामने रखा।

आक्षेप कर्ता ने सुरा कदर जो संया 97 है आयत 1 से 4 को लिखा है, तथा सत्यार्थ प्रकाश पर आक्षेप किया है, कुरान में क्या कहा वह प्रथम प्रस्तुत करता हूँ।

तहकीक नाजिल किया हमने कुरान को बीच रात कदर के, और क्या जाने तू के क्या है रात कदर की, रात कदर की बेहतर है, हजार महिने से, उतरते हैं फरिश्ते और रूह पाक अपने परवार दिगार के  हुक्म से, हजार चीजों को लेकर अपने वास्ते, सलामती है वह तुलुय हो फजर। आक्षेप कर्ता को चाहिये था, दयानन्द को गभीरता से पढ़कर कुरान में सभी प्रश्नों को जानने का प्रयत्न करना, क्योंकि दयानन्द ने जो प्रश्न किया है, कुरान से उसका जवाब कुरानविदों के पास नहीं है।

कुरान में कई जगह कहा गया कि कुरान को बरकत वाली रात में उतारा, यहाँ तक कि उल्लहा ने कसम खाकर कहा। एक रात में कुरान को उतारा, किन्तु पूरी कुरान की आयतों को दो भागों में बाँटा गया, मक्की व मदनी में, अर्थात् प्रत्येक सुरा के प्रथम में लिखा है कि यह सुरा मक्का में और यह मदीना में उतारी गई आदि। दयानन्द का कहना सही है कि समग्र कुरान एक ही बार में उतरी? या कालान्तर में? क्योंकि इसका विरोध कुरान से ही होता है।

जो पवित्र आत्मा हजरत जिब्राइल को उतरना इस आयत में माना गया जो ऋषि ने वह पवित्र आत्मा कौन है लिखा, अल्लाह तक पहुँचने में जिब्राइल को पचास हजार साल लगते हैं, तो कुरान को उतरने में कितने वर्ष लगे?

सत्यार्थ प्रकाश पर आक्षेप कर्ताओं ने सुरा बकर-संया 2 आयत 25 से 37 तक का उल्लेख किया है।

सुरा बकर आयत 25 में लिखा- बशारत हैं उनके लिए जो नेक अमल करेंगे, अल्लाह उनको जन्नत में दाखिल करायेंगे, जिसके नीचे नहरे हैं, तरह-तरह के मेवे खाने को मिलेंगे, मेवे (फल) देखने में एक जैसा होगा पर स्वाद अलग-अलग है। खिलाने वाला कहेगा- अरे इसे खाकर देखें इसका स्वाद ही अलग है और वहाँ हुर गिलमों, पवित्र शराब तथा परिन्दों का गोश्त का कबाब भी खाने को मिलेगा, यह प्रमाण पूरी कुरान में अनेक बार आया है। यहाँ तक कि हम उमर औरतें, दिल बहलाने वाली औरतें, बड़ी-बड़ी आँख वाली जैसे मोती का अण्डा, रेशम का कपड़ा पहनकर जिससे तन दिखाई दे सोने के कंगन पहन कर सामान परिवेशन करेंगी- बहुत जगह कुरान में लिखा है।

ऋषि दयानन्द जी ने मात्र जानकारी लेनी चाही कि दुनिया में स्त्री, पुरुष जन्म लेते व मरते हैं, पर जन्नत में रहने वाली सुन्दर स्त्रियाँ अगर सदाकाल वहाँ रहती हैं? तो क्या वह एक जगह रहते -रहते ऊब नहीं जाती होंगी? जब तक कयामत की रात नहीं आवेगी, तब तक उन बिचारियों के दिन कैसे कटते होंगे?

मेरे विचारों से सत्यार्थ प्रकाश में दर्शाये गए इन्हीं प्रश्नों को तीस हजारी कोर्ट से न पूछ कर उस्मानगनी व खलील खान को चाहिये था- डॉ. मुति मुकररम से ही पूछते। अब मुति साहब ने इन लोगों को जवाब देने के बजाय सुझाव दे डाला- कोर्ट में जा कर पूछो कि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में यह क्यों लिखा?

किन्तु दयानन्द ने जो कुछाी लिखा है, वह कुरान में पहले से ही मौजूद है। अगर कुरान में यह बात न होती तो ऋषि दयानन्द यह न पूछते कि उन सुन्दरी स्त्रियों का एक जगह रहने में मन में घबराहट होती या नहीं? जवाब तो कुरान विचारकों को देना चाहिये। सुरा बकर-आयत 31 से 37 में सत्यार्थ प्रकाश पर जो आरोप है, वह भी निराधार है। अल्लाह ने आदम को सभी चीजों का नाम बता दिया, और फरिश्तों से पूछा कि अगर तुम सच बोलने वाले हो, तो उन चीजों का नाम बताओ। पर वह तो सच बोलने वाले ही थे, तो कहा हम तो उतना ही जानते हैं जितना तू ने हमें सिखाया।

इतने में अल्लाह ने आदम से पूछा, तो वह सभी नाम बता दिया। फिर अल्लाह ने कहा- हम बता नहीं रहे थे तुहें? जाव इन्हें सिजदा करो।

सत्यार्थ प्रकाश में लिखा- ऐसे फरिश्तों को धोखा दे कर अपनी बड़ाई करनााुदा का काम हो सकता है?

इसमें दयानन्द की क्या गलती? अल्लाह ने कुरान में कहा, व अल्ला मा आदमल असमा आ कुल्लाहा सुमा अराजा हुम अललमल इकते।

दयानन्द का कहना है कि जिस फरिश्ते ने आसमानों, और जमीनों में अल्लाह की इतनी इबादत की, अल्लाह ने जिसे आबिद, जाबिद, शाकिर, सालेह, खाशेय आदि नामों की उपाधि दी, और चीजों का नाम नहीं बताया, अब उसी की लाई गई मिट्टी से आदम को बनाकर सभी नाम बताना? क्या यह अल्लाह का धोखा नहीं?

क्या यह अल्लाह का पक्षपात नहीं? मात्र दयानन्द ही क्यों, कोईाी बुद्धि परख मानव इसे दगा ही मानेगा। क्या यह अल्लाह का काम हो सकता है?

अवश्य कुरान में इसकी चर्चा और भी कई जगहों पर हैं, जैसा संया 7 अयराफ में 12 से 19 तक लिखा है, और यहाँ तो उस फरिश्ते ने अल्लाह के सामने अंगुली नचा कर कहा, काला फबिमा अगवई तनी ला अकयूदन्नालहुम सिरातकल मुस्ताकीम-गुमराह किया तू ने मुझको, मैं भी उसे गुमराह करूँगा जो तेरे सीधे रास्ते पर होगा उसे आगे से पीछे से, दाँई और बाँई से उसे गुमराह करूँगा।

अब देखें अल्लाह ने उस शैतान को रोक नहीं पाया, और कहा- जो मेरे रास्ते पर होगा उसे तू गुमराह नहीं कर पायगा। शैतान ने कहा- मैं उसे ही गुमराह करूँगा जो तेरे रास्ते पर होगा, और आदम को गुमराह कर दिखाया।

यह सभी बातें कुरान में ही मौजूद है कि अल्लाह अगर शैतान के पास निरुत्तर हो और कोई मानव अपनी अकल पर ताला डाल कर सत्य बचन महाराज कहे तो इसमें ऋषि दयानन्द की क्या गलती है?

सुरा-2 आयत 37 पर जो आक्षेप है वह देखें, अल्लाह ने कहा- आदम तुम अपने जोरू के साथ वाहिश्त में रहो जहाँ मर्जी, जो मर्जी खाब पर नाजिदीक न जाव उस दरत के गुनहगार हो जावगे, और निकाल दिये जावगे यहाँ से- व कुलना या आदमुस्कुन अनता व जाब जुकल जन्नाता आदि

अब ऋषि दयानन्द ने जो लिखा- देखिये, खुदा की अल्पज्ञता! अभी तो स्वर्ग में रहने को दिया और फिर उसे कहा निकलो, क्या खुदा नहीं जानता था कि आदम मेरा आदेश का उल्लंघन कर उसी फल को खायेगा, जिसे मैंने मना किया? स्वामी जी ने आगे लिखा कि जिस वृक्ष के फल को आदम को खाने से मना किया, आखिर अल्लाह ने उसे बनाया किसके लिए था? यह सभी प्रश्न तो दयानन्द का है, पर उल्टा दयानन्द के अनुयाइयों से पूछा जा रहा है कि दयानन्द ने अपने सत्यार्थ प्रकाश में क्यों लिखा? यहाँ तो उल्टी गंगा बह रही है।

जहाँ तक अल्लाह की अल्पज्ञता की बात है, वह तो कुरान से ही सिद्ध हो रही है, अल्लाह को पता नहीं था कि शैतान आदम को बहका देगा तथा शैतान हमारे हुकम का ताबेदार नहीं रहेगा आदि। दूसरी बात है कि अल्लाह ने आदम को बताया कि शैतान तुहारा खुला दुश्मन है, उसके बहकावे में मत आना।

और इधर शैतान को वर दे दिया कयामत के दिन तक जिन्दा रहने का, हर मानव के नस, नाड़ी तक पहुँचने का, व सीधे रास्ते पर चलने वालों को गुमराह (पथभ्रष्ट) करने का, अल्लाह ने ही मुहल्लत दी। ऋषि दयानन्द को इसीलिए लिखना पड़ा- यह काम अल्लाह का नहीं, और न ही यह उसकी ग्रन्थ की हो सकती है।

यहाँ अल्लाह ने चोर को चोरी करने व गृहस्थ को सतर्क रहने वाली बात की है। इसका प्रमाण भी कुरान के दो स्थानों पर मौजूद है, जैसा-सुरा इमरान आयत 54 तथा अनफाल-आ030- व मकारू व मकाराल्लाहू बल्लाहू खैरुल मारेकीन।

अर्थ- मकर करते हैं वह, और मकर करता हूँ मैं, और मैं अच्छा मकर करने वाला हूँ। ध्यान देने योग्य बात है कि मकर का अर्थ है धोखा और अल्लाह से अच्छा धोखा करने वाला कोई नहीं, जो अल्लाह खुद कर रहे हैं अपनी कलाम में, अब अल्लाह व अल्लाह की कलाम की दशा क्या होगी? ऋषि दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश में यही तो जानकारी इस्लाम के शिक्षाविदों से लेना चाह रहे हैं। अब प्रश्नों का जवाब देने के बजाय कोई कहे कि सत्यार्थ प्रकाश में क्यों लिखा,उसका तो ईश्वर ही मालिक है। एक बात और भी जानने की है, ऊपर लिख आया हूँ शानेनुजूल को, कि आयत उतारने का कारण क्या है। इसका मतलब भी यह निकला- अल्लाह सर्वज्ञ नहीं है, जो ऋषि ने अनभिज्ञ लिखा है। अगर कारण नहीं होता, तो अल्लाह आयत नहीं उतरते। कारण हो सकता है, यह ज्ञान कारण से पहले अल्लाह को नहीं था।

कुरान में ही अल्लाह ने कहा- ला तकर बुस्सलाता व अनतुम सुकाराआ। अर्थ- न पढ़ो नमाज जब कि तुम शराब की नशे में हो।

अर्थात् शराब पीकर नमाज नही पढ़नी चाहिये।

अब इसका शाने नुजूल देखें, एक सहाबी (मुहमद साहब का साथी) शराब पीकर नमाज पढ़ा रहे थे, नशे की दशा में कुरान की आयतों को पढ़ने का क्रम भंग किया, तो दूसरे ने हजरत से शिकायत की, तो अल्लाह ने यह आयात जिब्राइल के माध्यम से उतारी।

यह आयत उतरते ही सभी अरबवासी जो घर-घर शराब बनाते थे, सब ने शराब बहादी नालाओं में शराब बहने लगा, आदि।

इससे यह पता चला कि शराब पीने से नशा होता है, यह ज्ञान अल्लाह को नहीं था वरना शराब तो प्रथम से ही हराम होना था? अगर वह सहाबी कुरान पढ़ने का क्रम नशा में भंग न करते, तो अल्लाह को यह आयत उतारना ही नहीं पड़ता।

ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में यही तर्क पूर्ण बातें की हैं, अगर कोई अक्ल में दखल न दे, या अक्ल में ताला डालना चाहे तो ऋषि दयानन्द की क्या गलती है? दयानन्द ने साफ कहा है कि हठ और दुराग्रह को छोड़ मानव मात्र का भलाई जिससे हो, सत्य के खातिर काम करना चाहिये, मानव बुद्धि परख होने हेतु प्रत्येक कार्य को बुद्धि से करना चाहिये, क्योंकि इसी का ही नाम मानवता है। सुरा 2 आयत 87 को अगर ध्यान से पढ़ते तो शायद आक्षेप न कर पाते, क्योंकि सत्यार्थ प्रकाश में ऋषि दयानन्द ने कुरान में कही गई बातों को ज्ञान विरुद्ध तथा सृष्टि नियम विरुद्ध सिद्ध किया है। हजरत मूसा को अल्लाह ने अगर किताब दी, उसमें क्या कमी थी जो पुनः ईसा को अलग किताब देनी पड़ी? उससे पहले दाऊद को भी किताब दी थी, उसमें कौन-सी बातों को अल्लाह कहना भूल गये थे, जो अन्तिम में कुरान के रूप में हजरत मुहमद को अल्लाह ने दिया?

अल्लाह का ज्ञान पूर्ण है अथवा अधूरा? क्योंकि परमात्मा का ज्ञान पूर्ण होना आवश्यक है और सार्वकालिक, सार्वदेशिक, सार्वभौमिक होना चाहिये। कुरान इसमें खरा नहीं उतरता। हजरत मूसा ने मौजिजा दिखाया और नबिओं ने भी मौजिजा दिखाया, मौजिजा का अर्थ है चमत्कार। अगर चमत्कार तब होते थे, तो अब क्यों नहीं?

अगर चमत्कार से हजरत मरियम कुँवारी अवस्था में हजरत ईसा को जन्म देना मान लिया जाय, तो क्या सृष्टि नियम विरुद्ध नहीं होगा? कोई मेडिकल साइंस का जानने वाला इसे सही ठहरा सकता है? इसे अल्लाह ने सुरा अबिया-आयत-88 में क्या कहा, देखें- वल्लाति अहसनत फरजहा फनाफखना फीहा मिर रूहिना वज अलनाहा वबनहा

– कि अल्लाह ने मरियम के शर्मगाह (गुप्तइन्द्रियों) में फूँक मार दिया और मरियम गर्भवती हो गई।

कोई भी बुद्धिमान इस बात को ईश्वरीय ज्ञान तथा ईश्वरीय कार्य कैसे मान सकते हैं? ऋषि दयानन्द ने लिखा है, भोले-भाले लोगों को बहकाया गया है।

अगर ऋषि दयानन्द अपने कार्यकाल में इस पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश को न लिखते, तो आर्य जाति को बचने का रास्ता बन्द था। सारा भारत कुरान का मानने वाला बन जाता, या बलात् बना दिया जाता। दयानन्द का बहुत बड़ा उपकार है इस पुस्तक को लिखने का।

गुरुदत्त विद्यार्थी ने कहा- अगर सारी सपत्ति बेचकर भी सत्यार्थ प्रकाश खरीदना पढ़े तो भी इसका मूल्य कम है। मैं इसे अवश्य खरीदता।

– वेद सदन, अबोहर, पंजाब-152116

‘‘आर्य भारत में बाहर से आये’’ : यह मान्यता देशद्रोह है : डॉ धर्मवीर

 

लोकसभा में संविधान दिवस के प्रसंग में बहस करते हुए मल्लिकार्जुन खडगे ने कहा- आर्यों ने भारत पर आक्रमण करके हम लोगों को दलित और शोषित बनाया। हम आपके अत्याचारों को पिछले पाँच हजार वर्षों से सह रहे हैं। हम आपका मुकाबला करते रहेंगे। खडगे ने भाजपा को बाहर से आकर इस देश पर राज्य करने वाली पार्टी बताया। इस बात की गभीरता को आर्यसमाज के अतिरिक्त कोई नहीं समझ सकता। संसद सदस्य स्वामी सुमेधानन्द बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने खडगे के वक्तव्य का लिखित में विरोध किया और कार्यवाही से निकलवा दिया। हमें खडगे को भी धन्यवाद देना चाहिए, जिन्होंने इस देशद्रोही विचार की गभीरता को संसद में अपने वक्तव्य के माध्यम से प्रकाशित किया।

बहुत वर्ष पूर्व भी एंग्लो इण्डियन राज्यसभा सदस्य ने इस प्रकार का प्रश्न उठाया था, परन्तु उस समय किसी ने इस विचार की घातकता को समझा नहीं था। उस समय मान्य सदस्य ने सदन में कहा था- भारतीयों को अंग्रेजी भाषा से द्वेष नहीं करना चाहिए, क्योंकि संस्कृत भी भारतीयों के लिये विदेशी भाषा है। यह भारत में बाहर से आये आर्यों की भाषा है। जब इस देश के लोग संस्कृत से प्रेम करते हैं, तो फिर विदेशी भाषा के नाम पर अंग्रेजी से द्वेष क्यों करते हैं? आर्यों का भारत में बाहर से आकर बसने का विचार अंग्रेजों के मस्तिष्क की उपज है। भारत पर आक्रमण मुसलमानों ने भी किया और देश को पराधीनाी किया था। उन्होंने यहाँ की सयता, संस्कृति को बलपूर्वक नष्ट करने का प्रयत्न किया। अंग्रेजों ने इस देश को दास बनाया और यहाँ की सयता, संस्कृति को बुद्धिपूर्वक नष्ट करने की योजना बनाकर कार्य किया। मल्लिकार्जुन खडगे इस षड्यन्त्र के शिकार बने हैं।

अंग्रेज आज भी इस देश को खण्डित करने के प्रयासों में लगे हैं। प्रमुख रूप से इस्लाम और ईसाइयों के माध्यम से धर्म परिवर्तन द्वारा तथा दूसरे रूप से माओवादी हिंसा फैलाकर देश में अराजकता उत्पन्न करने के प्रयासों द्वारा व्यापार व आधुनिकता के नाम पर समाज में नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों के नाश करने के उपायों द्वारा तथा भारत में आर्य- द्रविड़ संघर्ष के काल्पनिक सिद्धान्त का उपयोग कर पाश्चात्य योरोप अमेरिका की शक्तियाँ चर्च एवं व्यापार द्वारा हिंसा, असन्तोष फैलाकर फिर से ईसाइस्तान, इस्लामिस्तान, द्रविड़स्तान तथा माओवाद के नाम से नक्सलियों के राज्य के रूप में इस देश के विभाजन का प्रयास अपनी पूरी शक्ति से करने में लगे हुए हैं। अन्य प्रयासों की चर्चा का प्रसंग यहाँ नहीं है। जहाँ तक खडगे का प्रश्न है, इसे तो स्वतन्त्रता के साथ ही समाप्त किया जाना चाहिए था, परन्तु गत साठ वर्ष के शासन ने खडगे की पार्टी का ही समर्थन किया, जो भारतीय परपराओं का, संस्कृति का और भाषा का नाश करने को ही देश की प्रगति का मूल मन्त्र समझती थी। इनकी दृष्टि में अंग्रेज और अंग्रेजी ही प्रगति के पर्याय हैं। परिणामस्वरूप हमारे शासन में आदिवासी जैसे शदों का प्रयोग किया जाता है। आदिवासी शद का प्रयोग करना अपने आपको बाहर से आया स्वीकार करना। इन शदों के अर्थों को हमने आज तक समझा नहीं, इसी कारण अपनी रक्षा में इस मिथ्या मान्यता को स्थान दिया हुआ है। हमारे बच्चे आज भी यही पढ़ते हैं कि इस देश में आर्य बाहर से आये और यहाँ के मूल निवासी द्रविड़ लोगों को पराजित कर दक्षिण में भगा दिया और अपना शासन स्थापित किया। इस मिथ्या मान्यता को इतना प्रचारित किया गया कि भारतीय संसद में कांग्रेस के नेता खडगे इस मान्यता के प्रवक्ता बन खड़े होने में अपना गौरव समझने लगे, अपने आपको द्रविड़ मूल और आर्य से भिन्न अनार्य मनाने लगे।

आज हमारे लिये एक अवसर आया है, जिसका लाभ उठाकर हमें अपनी शिक्षा से इस मान्यता को बहिष्कृत कर देना चाहिए तथा प्रशासन शदावली से आदिवासी जैसे शदों का प्रयोग निषिद्ध कर देना चाहिए। खडगे यदि आर्यों से भिन्न होते तो उनका नाम मल्लिकार्जुन नहीं होता। यदि खडगे भाजपा को विदेशी मानते हैं, तो वे श्रीमती सोनिया गाँधी को क्या कहेंगे, जिसके वे सेनापति बने हुए हैं? खडगे जी इस देश के नागरिक हैं, अपने देश से निश्चय ही प्रेम होगा, तो उन्हें इस आर्य-अनार्य सिद्धान्त और षड्यन्त्र को समझना चाहिए।

प्रथम बात किसी के लिये भी जानने की यह है कि आर्य-अनार्य शद जातिवाचक नहीं, गुणवाचक हैं, क्योंकि कृण्वन्तो विश्वमार्यम् कहते हुए वेद कहता है- सपूर्ण रूप से आर्य बनो और सब को आर्य बनाओ। जब सबको आर्य बनाया जायेगा, तब खडगे जी अनार्य कैसे रह पायेंगे? आर्य-अनार्य शद अच्छे और बुरे के अर्थ में हैं। मनु कहते हैं- इस देश में आर्य और दस्यु अर्थात् अनार्य रहते हैं, क्या खडगे जी अपने को चोर, डाकू कहलाना पसन्द करेंगे? क्या चोर, डाकू, लूटेरों की कोई जाति होती है? क्या इनके लिये संविधान, कानून, पुलिस, होती है? फिर ऐसी निरर्थक विचारधारा के लिये खडगे जी अपने को उनका प्रतिनिधि कैसे कह सकते हैं? भारतीय संस्कृति, साहित्य, परपरा से आर्य वे हैं, जो लोग श्रेष्ठ परपरा के धनी हैं। वेद और वैदिक धर्म स्वीकार करते हैं, वे सभी आर्य है। कोई भी आर्य बन सकता है, किसी को आर्य कह सकते हैं। हमारी आर्य परपरा में एक पत्नी अपने पति को आर्य-पुत्र कहकर पुकारती है। पाश्चात्य लोगों ने आर्य-अनार्य सिद्धान्त की कपोल कल्पना की, जिसका उद्देश्य भारतीय समाज में विभाजन उत्पन्न करना था। आर्य-अनार्य का विचार, आर्य भारत में बाहर से आये हैं- यह सिद्धान्त विद्वानों, वैज्ञानिकों की दृष्टि में खण्डित हो चुका है, परन्तु योरोप-अमेरिकी पक्ष इसका पूरा उपयोग इस देश को बांट ने में करने में लगा हुआ है। इस षड्यन्त्र को सबसे पहले ऋषि दयानन्द ने समझा था और उन्होंने अपने ग्रन्थों में इस सिद्धान्त का स्पष्ट रूप से खण्डन किया था। ऋषि दयानन्द ने लिखा- आर्यों का बाहर से भारत में आने का, भारतीय साहित्य के किसी भी ग्रन्थ में उल्लेख नहीं मिलता। यदि आर्य बाहर से आकर भारत में बसे होते तो इतने बड़े ऐतिहासिक सन्दर्भ का उल्लेख उनके साहित्य में न हो, यह असभव है। किसी देश से आकर बसने की घटना उस समाज में निरन्तर स्मरण की जाती है। आज कोई पाकिस्तान से उजड़कर आया, कोई आक्रमणकारी के रूप में आया, दोनों का इतिहास मिलता है। समाज में कथायें मिलती हैं, परपरायें मिलती हैं, पुराने रीति-रिवाज, जीवन शैली के अंश मिलते हैं, क्या आर्यों की कोई परपरा किसी तथाकथित मध्य एशिया या किसी अन्य देश में मिलती है? क्या आर्यों की भाषा मौलिक रूप से किसी दूसरे देश में बोली जाती है या इतिहास में पाई जाती है? इतना ही नहीं, इतनी बड़ी जाति का संक्रमण एक दिन में तो नहीं हो सकता, उसके उस स्थान से चलकर यहाँ तक पहुँचने के मार्ग में उनके चिह्न, अवशेष तो मिलने चाहिए। यदि बाहर से चलकर भारत को आर्यों ने जीता था, तो क्या बीच के देश उन्होंने बिना जीते ही छोड़ दिये थे? यदि जीते थे तो आज वहाँ उनका अस्तित्व क्यों नहीं है, वहाँ उनका राज्य क्यों नहीं है? आर्यों के इतिहास, संस्कृति के अवशेष वहाँ क्यों नहीं पाये जाते?

ऋषि दयानन्द कहते हैं- भारतवर्ष में सबसे पहले आकर निवास करने वाले आर्य ही हैं। शास्त्रों की, ऋषि दयानन्द की मान्यता है कि जब इस पृथ्वी का निर्माण हुआ, सपूर्ण जलमय संसार में से पृथ्वी का जो भाग सबसे पहले जल से बाहर निकला, वह तिबत था तथा सबसे ऊँचा होने के कारण उसी भाग पर मनुष्यों की सृष्टि सबसे पहले हुई। जो मनुष्य वहाँ से उतरकर सबसे पहले भारत आये और जिन्होंने इस देश को बसाया, वे ही लोग आर्य कहलाये। शेष संसार में यहीं से लोगों का जाना हुआ है। बाहर से इस देश में आने की बात मनगढ़न्त, मिथ्या और षड्यन्त्रपूर्ण है। विश्व साहित्य में आर्यों का बाहर भारत में आना लिखा नहीं मिलता, हाँ विश्व के अनेक ग्रन्थों में जिनका पुराना इतिहास मिलता है, उनमें उनके पूर्वजों का भारत से आकर वहाँ निवास करना लिखा मिलता है। ईरान के इतिहास और धर्म ग्रन्थ जिन्द अवेस्ता में उनके पूर्वजों का भारत से जाकर ईरान में वास करने का उल्लेख मिलता है। जब कोई देश जाति किसी पर विजय प्राप्त करती है तो वह अपने उल्लास और हर्ष को प्रकाशित करने के लिये अनेक प्रकार के आयोजन करती है, उसे स्थायी बनाने के लिये इतिहास लिखती है। शिलालेख, ताम्र लेख, स्तूप, स्तभ, भवन, स्मारक बनाये जाते हैं, परन्तु पूरे भारत में इस प्रकार का कोई उल्लेख नहीं मिलता, कोई चिह्न भी नहीं मिलता। इससे पता लगता है कि यह एक कपोल-कल्पना है, जो एक षड्यन्त्र के माध्यम से की गई है। इसके विपरीत ब्राह्मण ग्रन्थ, मनुस्मृति आदि प्राचीन ग्रन्थों में आर्यों के तिबत से भारत में आने, अनेक युद्ध जीतने आदि का विवरण मिलता है, परन्तु मध्य एशिया या किसी अन्य देश से भारत में आकर बसने का, यहाँ के मूल निवासियों को निकाल कर  उनका राज्य छीनने का कोई उल्लेख प्राचीन भारतीय शास्त्रों, साहित्य या इतिहास के ग्रन्थों में नहीं मिलता, अतः आर्यों द्वारा द्रविड़ों पर आक्रमण की कल्पना मिथ्या षड्यन्त्र मात्र है।

जिन्हें हम द्रविड़, दलित, शूद्र मान रहे हैं, वे किस अर्थ में आर्यों से भिन्न हैं? भारतीय हिन्दू समाज के सवर्ण-असवर्ण दोनों ही अंग हैं। दोनों के गोत्र एक से हैं, परपरायें, खान-पान, वस्त्र, आभूषण, पहनावा- सभी कुछ एक जैसा है। सभी के देवी-देवता, धर्मग्रन्थ, उपास्य, उपासना पद्धति- सब एक जैसे हैं। सभी राम, हनुमान, शिव, गणेश आदि की पूजा-उपासना करते हैं। व्रत, उपवास, संस्कार साी कुछ पूरे समाज का एक दूसरे से मिलता है। सपन्नता-निर्धनता के आधार पर सभी में परस्पर स्वामी-सेवक सबन्ध पाया जाता है, अतः समग्र रूप में समाज एक है। यदि कोई अन्तर है तो विद्या या अविद्या का, सपन्नता या निर्धनता का, अन्याय या न्याय का अन्तर और परिणाम देखने में आता है। यह सभी समाजों में स्वाभाविक रूप से देखा जा सकता है। इसका मूल कारण भारतीय समाज का जन्मना जाति स्वीकार करने का दुष्परिणाम है। यह अज्ञान, अविद्या, पाखण्ड, शोषण, सवर्ण-असवर्ण, जन्मना जाति, ऊँच-नीच, छुआछूत के परिणामस्वरूप, जिसका पाश्चात्य लोग लाभ उठाकर समाज में विरोध और द्वेष उत्पन्न करने का प्रयास कर रहे हैं। अंग्रेजों ने पं. भगवद्दत्त के पास भी अपना सन्देश वाहक भेजा था- वे अपनी पुस्तकों में लिख दें कि जाट लोग इस देश में बाहर से आर्य के रूप में आये हैं, परन्तु पण्डित जी ने दृढ़ता से इसका निषेध कर दिया। जहाँ आर्य विद्वानों ने निषेध किया, वहीं पर धन व प्रतिष्ठा के लोभी लोगों ने अंग्रेजों की इच्छानुसार लेखन भी किया।

इस षड्यन्त्र को ऋषि दयानन्द ने समझा था और इसका सप्रमाण प्रतिकार भी किया था। सामान्य रूप से आर्यावर्त्त की सीमा मनु के श्लोक ‘आसमुद्रात्’ से निष्पादित करते हैं, विन्ध्याचल से सतपुडा की ओर हिमालय के मध्य आर्यावर्त की सीमा पढ़ते हैं, परन्तु इसी श्लोक के अर्थ ऋषि दयानन्द पूर्व-पश्चिम पर्वत शृंखला के मध्य रामेश्वरम् पर्यन्त स्वामी जी आर्यावर्त की सीमा का उल्लेख करते हैं। यहाँ एक घटना का उल्लेख प्रमाण रूप में ठीक होगा। स्वामी श्रद्धानन्द ने पं. लेखराम की जीवनी लिखते हुए एक घटना लिखी है कि सरस्वती हषद्वती नदियाँ आर्यावर्त की सीमा बनाती है और पं. लेखराम का ग्राम सरस्वती के दूसरी ओर पड़ता था, तो पण्डित लेखराम कहा करते थे- मेरे गाँव की इस ओर की नदी सरस्वती नहीं है, मेरे गाँव के बाद बहने वाली नदी सरस्वती है, जिससे उनका गाँव भी आर्यावर्त में आ जाता था। सचमुच में भारत में रहने वाले आर्य का गाँव आर्यावर्त से बाहर हो तो अच्छा तो नहीं लगेगा। इसी तर्क को लेकर मैंने एक बार अपने पिता जी से कह दिया- आपका गाँव आर्यावर्त में नहीं आता, एक क्षण वे स्तध हुए और अगले ही क्षण बोले- तू नहीं जानता, मेरा गाँव आर्यावर्त में है क्योंकि जो संकल्प पाठ उत्तर भारत के गाँव-नगर में किया जाता है, वही मेरे गाँव मेंाी आदि काली से हो रहा है- आर्यावर्ते जबू द्वीपे भरत खण्डे- सचमुच में उनका प्रमाण अकाट्य था।

ऋषि दयानन्द ने वे दोत्पत्ति प्रकरण, वे दोत्पत्ति काल के निर्धारण में भारतीय समाज में श्रेष्ठकर्म करने के समय पढ़े जाने वाले संकल्प का उल्लेख किया है, उसमें जब –आर्यावर्ते जबू द्वीपे भरत खण्डे- शदों का पाठ करते हैं, तो सिद्ध है इस देश में आने वाले पहले लोग आर्य ही हैं और उन्होंने ही इस देश का नाम आर्यावर्त रखा। इस देश के बदले गये बाद के नामों की चर्चा तो मिलती है, परन्तु आर्यावर्त या ब्रह्मवर्त से पहले के किसी भी नाम की चर्चा विश्व इतिहास में नहीं मिलती, अतः यह कहना कि भारत में आर्य बाहर से आये- यह पाखण्डपूर्ण कथन है। भारत में आर्य बाहर से आये- यह कहना वदतो व्याघात अर्थात् परस्पर विरोधी है, क्योंकि इस देश का भारत नामकरण भी आर्यों का है, फिर भारत में आर्यों का बाहर से आना कैसे बनेगा।

खडगे ने लोकसभा में आर्यों के बाहर से आने की जो बात कही, उसका कारण है, आजकल किया जाने वाला दुष्प्रचार। भारत जातिगत आधार पर जो आरक्षण किया गया है, इसको आधार बनाकर इस आन्दोलन को इस देश में चलाया जा रहा है। इसके लिये अमेरिका, योरोप का ईसाई समुदाय बड़ी मात्रा में धन उपलध कराता है। इस कार्य को करने वाले संगठन भारत में बामसेफ और मूल निवासी परिषद् है। पाश्चात्य लोगों ने ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, योरोप के अनेक विश्वविद्यालयों में इस मूलनिवासी लोगों के इतिहास के अनुसन्धान के लिए अनेक शोधपीठ भी स्थापित किये हैं, जिनमें डी.एन.ए तक मूल निवासियों का आर्यों से पृथक् होने की बात कही गई है। ये संगठन ज्योतिबा फूले और डॉ. अबेड़कर के नाम से लोगों को हिन्दू समाज से अलग करने का प्रयास करते हैं। दलित प्रकाशन के नाम से प्रकाशित दो सौ से भी अधिक पुस्तकों में यही समझाने का प्रयास किया है कि स्वतन्त्रता संग्राम का दलितों से कुछ लेना-देना नहीं है, दलितों का उद्धार अंग्रेजों ने किया है। डॉ. अबेडकर ने ही उनके लिये कार्य किया है, समाज में सवर्ण कहलाने वाले लोगों ने उनका शोषण किया है। अंग्रेज शासन उनके लिये अच्छा था, स्वतन्त्रता संग्राम तो सवर्णों की अपने अधिकारों की लड़ाई थी, चाहे रानी झाँसी की लड़ाई हो या महाराणा प्रताप व शिवाजी की। इनके साहित्य में ऋषि दयानन्द या स्वामी श्रद्धानन्द और आर्यसमाज या किसी अन्य संस्था द्वारा किये समाज सुधार की चर्चा नहीं मिलती। इनके साहित्य में ऋषि दयानन्द को ब्राह्मण और सवर्णों का पक्षधर कहकर निन्दा की गई।

वर्तमान में इस कार्य को करने वाले दो संगठन हैं- एक बामसेफ और दूसरा है- मूल निवासी परिषद्। ये निरन्तर दलित जातियों में भारत विरोधी, सवर्ण और असवर्ण के मध्य पृथकतावादी प्रवृत्ति बढ़ाने का कार्य करते हैं। इसके लिये इनका सैंकड़ों की संया में साहित्य प्रकाशित कर वितरित किया जाता है। इसी प्रकार की फिल्में बनाकर दिखाई जाती हैं। प्रतिवर्ष देश के विभिन्न भागों में इनके अधिवेशन होते हैं, जिनमें दलित समाज के लोगों को भाग लेने के लिये प्रेरित किया जाता है। सवर्ण या भिन्न विचार के लोगों को ये लोग अपने कार्यक्रम में भाग लेने की अनुमति नहीं देते। पुस्तक मेलों में दलित प्रकाशनों की दुकानों पर बिकने वाले साहित्य से इस बात को समझा जा सकता है।

इस कार्य को करने वाली संस्था बामसेफ, जिसका पूरा नाम ऑल इण्डियन बैकवर्ड एंड माइनॉरिटीज एप्लाइज फैडरेशन है, जिसका निर्माण बहुजन समाजवादी पार्टी के संस्थापक कांशीराम और डी.के. खापडे ने अमरीकी सहायता से 1973 में किया था। इसका उद्देश्य आरक्षण का लाभ उठाकर भारतीय समाज में सवर्ण-असवर्ण की खाई को गहरी करना और समाज में विघटन के बीज बोना था। सामाजिक लोगों को अभी तक इसका विशेष परिचय नहीं है। जो परिचित भी हैं, वे इनके कार्य को विशेष महत्त्व नहीं देते, परन्तु खडगे ने संसद में बता दिया, यह विचार समाज में तेजी से घर कर रहा है। समाज और सरकार को इसका निराकरण करने के लिये सक्रिय होना होगा।

क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि एक आर्य के अतिरिक्त अपने देश के लिये इतने सुन्दर शदों का प्रयोग कोई कर सकता है, जैसा राम ने किया था। राम ने कहा- जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। इतना ही नहीं, आर्यों ने अपने भारतवर्ष को देवताओं के लिये भी ईर्ष्या का कारण बताया-

गायन्ति देवाः किल गितकानि

धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे

स्वर्गापवर्गास्पद मार्गभूते

भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात्।

– धर्मवीर

गृहस्थ-सन्त – पं. भगवान सहाय : डॉ. धर्मवीर

गृहस्थ-सन्त – पं. भगवान सहाय

पं. भगवान सहाय, जिनको देश-विदेश में कोई नहीं जानता, समाचार पत्रों में जिनका नाम नहीं मिलता, स्थानीय स्तर पर भी किसी संगठन, संस्था के प्रधान या मन्त्री के रूप में जिनकी कोई पहचान नहीं, फिर भी उनके बड़प्पन में कोई कमी नहीं थी। जो कोई उनके सपर्क में आया, उनकी दयानन्द, वेद, ईश्वर के प्रति अनन्य निष्ठा, स्वभाव की सरलता, व्यवहार की सहजता, हृदय की उदारता से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था।

पं. भगवान सहाय आर्यसमाज, अजमेर के मन्त्री ताराचन्द के सपर्क से आर्यसमाजी बने। स्वाध्याय से उन्होंने अपने विचारों को दृढ़ बनाया, उसे जीवन में उतार कर एक आदर्श जीवन के धनी बने। दुकान पर ग्राहक उनकी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा से प्रभावित होकर आता था। सामान लेने से पहले उसे वेद, ईश्वर का स्वरूप, आर्यसमाज के सिद्धान्तों का परिचय लेना पड़ता था, तब उसे उसका सामान मिलता था।

यज्ञ के प्रति उनकी आस्था से वे लोग परिचित हैं, जिन्होंने कभी उनकी दुकान से हवन सामग्री खरीदी है। ऋषि उद्यान के सभी समारोहों के लिये उनका सामग्री दान उदारता से होता था। दैनिक यज्ञ भी उनकी सामग्री के बिना सभव नहीं थे। ऋषि उद्यान उनके लिये प्रिय और आदर्श स्थान था, जिसको वे मृत्युक्षण तक भी नहीं भूले। वे स्वयं ऋषि मेले के ऋग्वेद पारायण यज्ञ में उपस्थित नहीं हो सकते थे, अपने दोहित्र विवेक को भेजकर अपनी अन्तिम आहुति यज्ञ में डलवाई।

गुरुकुल के ब्रह्मचारियों और आर्य विद्वानों तथा साधु-सन्तों को भोजन कराने, स्वागत-सत्कार करने में उन्हें अपार सुख मिलता था। मृत्यु के समय भी आश्रमवासियों और समारोह के अतिथियों के लिए भोजन कराने का कार्य नहीं भूले। अन्तिम इच्छा के रूप में उन्होंने अपनी अन्त्येष्टि वैदिक रीति से करने और अपनी शरीर कीास्म को ऋषि उद्यान की मिट्टी में डालने का निर्देश अपने परिवार के लोगों को दे दिया था, साथ ही आदेश देनााी नहीं भूले कि अन्तिम संस्कार के बाद कोई पाखण्ड मेरे नाम पर मत करना। शान्ति यज्ञ के साथ सब क्रियायें समाप्त समझना।

पं. भगवान सहाय विद्वानों की श्रेणी में नहीं आते थे, परन्तु उनका सैद्धान्तिक ज्ञान इतना दृढ़ और स्पष्ट था कि अच्छे विद्वानों की बुद्धि भी काम नहीं करती। लगभग चालीस वर्ष पूर्व जूलाई का मास था, मैं अध्यापन के लिये अपने महाविद्यालय के लिये जा रहा था, मेरा मार्ग उनकी दुकान के सामने से होकर जाता था, जैसे ही में उनकी दुकान के सामने से निकला, उन्होंने मेरा नाम लेकर पुकारा, मैं रुका, वे दुकान से नीचे उतरकर आये, कहने लगे- पण्डित जी! वर्षा का समय है, वर्षा नहीं हो रही है, किसान व्याकुल हैं, वृष्टि-यज्ञ कराओ, जिससे वर्षा हो। मैंने उत्तर दिया- पण्डित जी! वृष्टि-यज्ञ वैज्ञानिक प्रक्रिया है, मैंने यज्ञ कराया भी और वर्षा नहीं हुई तो आप कहेंगे कि पण्डित ने झूठ बोला- यज्ञ से वर्षा होती है। इस पर भगवान सहाय जी का उत्तर में कभी नहीं भूला। उस उत्तर ने मेरे पूरे जीवन की समस्या का समाधान कर दिया, वे कहने लगे- पण्डित जी! कभी प्रार्थना करने वाला स्वयं प्रार्थना स्वीकार करता है क्या? अर्जी लगाना हमारा काम है, मंजूर करना, न करना ईश्वर का काम है। यज्ञ तो हमारी प्रार्थना है। पण्डित जी का उत्तर इतना सटीक था कि मैं उन्हें जीवन में कभी मना ही नहीं कर सका।

यज्ञ से उनका इतना प्रेम था कि जब कोई उनसे यज्ञ के विषय में पूछता तो वे कहते थे कि यज्ञ जड़-चेतन दोनों का भोजन है। हम मनुष्यों को भोजन कराते हैं तो केवल मनुष्यों की तृप्ति होती है, परन्तु यज्ञ से जड़-चेतन दोनों की तृप्ति होती है, इससे दोनों में पवित्रता आती है। आज उनसे सामग्री लेकर यज्ञ करने वालों की यही चिन्ता सता रही है- क्या यज्ञ की शुद्ध सामग्री हमको मिलती रहेगी? जिसकी आशा हम उनके उत्तराधिकारियों से कर रहे हैं।

पं. भगवान सहाय जी की सहनशीलता अद्भुत थी। उनके साथी, परिवारजन, ग्राहक, सेवक कोई भी किसी कारण से कष्ट हो जाय, क्रोध करे, कठोर शद कहे, वे कभी किसी से प्रभावित नहीं होते थे। उसे बड़े शान्त और सहज भाव से सुन लेते थे, मुस्करा देते थे। ऐसे समाज सेवक का अपने मध्य से जाना, किसको दुःखद नहीं लगेगा। परन्तु परमेश्वर की व्यवस्था और प्रकृति के नियम तथा मनुष्य की नियति कौन बदल सका है। हम दिवंगत आत्मा की शान्ति, सद्गति की प्रार्थना और परिवारजनों को इस दुःखद परिस्थिति को सहन करने की, सामर्थ्य की कामना परमेश्वर से करते हैं। वेद कहता है-

भस्मान्तं शरीरम्।

– डॉ. धर्मवीर

परमेश्वर ही सच्चा गणेश है – इन्द्रजित् देव

परमेश्वर ही सच्चा गणेश है

– इन्द्रजित् देव

‘‘आर्य वन्दना’’ के जनवरी अंक में गणेश की महिमा विषयक एक लेख प्रकाशित हुआ है जो पूरी तरह से पौराणिकता से भरपूर है। लेखक महोदय के अनुसार गणेश की पूजा के पीछे यह धारणा कार्य करती है कि इससे सभी सुख, सौभाग्य तथा समृद्धि की प्राप्ति होती है तथा जीवन में सभी बाधाओं एवं विघ्नों से मुक्ति मिलती है। लेखक ने यह भी लिखा है कि पार्वती ने अपने शरीर पर इतना उबटन लगा राा था कि जिससे एक मनुष्य का पुतला बन सके। पार्वती ने फिर उसमें प्राण फूँके और उसे अपना पुत्र बनाया। यह भी लेख में लिखा है कि शिव ने कहा जो संसार का चक्कर लगाकर प्रथम आएगा, वही प्रथम पूजनीय होगा तथा सभी देवता तेजी से दौड़े परन्तु गणेश नामक शिव का पुत्र न दौड़ सका क्योंकि उसका शरीर भारी था। गणेश ने अपने माता-पिता का ही चक्कर लगाया एवं उन्हें प्रणाम करके बैठ गये, अतः गणेश प्रथम पूज्य बन गया इत्यादि।

पूरा लेख अवैज्ञानिक, तर्कहीन व प्रमाणहीन है। लेखक महोदय इसे ‘‘कल्याण’’ या किसी अन्य पौराणिका पत्रिका में छपा लेते तो उनकी उपरोक्त बातों का कोई विरोध न करता, परन्तु एक वैदिक पत्रिका में यह प्रकाशित हुआ है, अतः इसे पढ़कर हमें आश्चर्य व दुःख हुआ है। इसके उत्तर में कुछ बातों को तर्क व विज्ञान के आधार पर लिखना वाञ्छनीय है, ताकि आर्य समाजियों को तो सत्य का ज्ञान हो सके तथा वे भ्रम में न रहें।

हमारे कुछ प्रश्न लेखक से हैंः यदि स्त्री के शरीर पर उबटन लगा लेने से पुत्र का शरीर बन सकता है तो ईश्वर ने पुरुष को क्यों उत्पन्न किया? पार्वती हो या कोई अन्य स्त्री, उसके शरीर में गर्भाशय की स्थापना ही क्यों की? वेदानुसार विवाह का मुय उद्देश्य उत्तम सन्तान उत्पन्न करना है। यदि पार्वती बिना पति के पुत्र को उत्पन्न करने की कला जानती थी तो उसने शिव से विवाह ही क्यों किया? क्या शिव में कोई कमी थी। उबटन से पुत्र-प्राप्ति की विद्या का उल्लेख किस वेद या किस आयुवैदिक अथवा एलोपैथिक ग्रन्थ में है? उबटन लगाकर सोने से व्यक्ति के शरीर से वह झड़ या उतर जाना चाहिये परन्तु पार्वती ने उतरने नहीं दिया, तभी तो उबटन से पुत्र बना लिया व फूँक मारकर उसे चेतन गणेश बना दिया। लेखक को चाहिए कि इस ईलाज का बांझ स्त्रियों में प्रचार करें ताकि वे भी अपने शरीर पर उबटन लगा लिया करें व जब चाहें, वे अपने उबटन से पुत्र का पुतला बनाकर व उस पुतले में प्राण फूँक कर सन्तानवती बन जाया करें। वे पति तथा वैद्य-डॉक्टर की सहायता लेने की आवश्यकता से मुक्त हो जाया करेंगी। प्राण फूँकने से पुत्र में आत्मा आती है तो मृत पुत्र की किसी भी माता को आज तक पुत्र-वियोग का दुःख क्यों भोगना पड़ता रहा है? पुत्र की मृत्यु होने पर पुत्र का शरीर तो घर में पड़ा होता है। पार्वती की तरह पुत्र की माता उस मृ्रत देह में फूँ क मार कर पुत्र को जीवित कर लिया करें। यह फार्मूला बताने के लिए हम लेखक के बहुत धन्यवादी रहेंगे।

पार्वती ने अपने उबटन से उत्पन्न किए गणेश को घर के बाहर बैठा दिया, ताकि वे निश्चित होकर स्नान कर सकें व कोई भी व्यक्ति भीतर प्रवेश न कर सके, परन्तु शिवजी स्वयं को न रोक सके व पुत्र गणेश व पिता शिव के मध्य युद्ध छिड़ गया। परिणामतः पुत्र का सिर काटकर शिव जी भीतर प्रवेश कर गए। पार्वती ने हाहाकार मचाया तो शिव ने एक हथिनी का सिर जोड़कर पुत्र को पुनः जीवित कर दिया। हमारी इच्छा विद्वान लेखक से यह जानने की है जिस शिवजी को पौराणिक व लेखक स्वयं ईश्वर मानते हैं, उसके घर में इतनी अधिक गरीबी क्यों थी कि वह अपने घर में दरवाजा बन्द करके स्नान करने योग्य एक बाथरूम भी नहीं बनवा सका? जब इतनी निर्धनता थी ही तो वह ईश्वर कैसे कहला सकता है, क्योंकि ईश्वर का अर्थ ऐश्वर्यशाली होता है। लेखक को यह भी बताना होगा कि जब शिवजी की पत्नी घर के भीतर स्नान कर रही थी तथा उनके पुत्र गणेश ने उन्हें भीतर जाने से रोका तो वे रुके क्यों नहीं? भीतर जाने का उनका उतावलापन उनके संयम की पोल खोलता है। इतना उतावलापन उनमें था कि भीतर जाने से रोकने वाले अपने पुत्र का सिर भी काटना उन्हें अधर्म प्रतीत नहीं हुआ। किसी का सिर जब कटेगा तो उसके शरीर से उसके प्राण व उसकी आत्मा निकल जाएगी, यह एक दृढ़ वैज्ञानिक नियम है। तत्पश्चात् कोई भी पिता, माता, राजा, वैज्ञानिक या गुरु तो क्या, स्वयं ईश्वर भी पुनः प्राण तथा आत्मा को उसी शरीर में प्रवेश नहीं करा सकता।

लेखक के अनुसार जब पार्वती ने अपने पति के समक्ष पुत्र वियोग का दुखड़ा रोया, शिव ने एक हथिनी का सिर सिरहीन पुत्र के सिर पर फिट करके जीवित कर दिया। हमारा प्रश्न उपरोक्त लेख के लेखक से यह है किस कपनी के फैवीकोल या कीलों से गणेश का सिर पुनः फिट किया? आज परस्पर लड़ाई के अनेक मामलों में एक दूसरे के सिर काटे जा रहे हैं। लेखक की मान्यता वाले जिसाी किसी ग्रन्थ में सिरहीन धड़ से किसी अन्य प्राणी का सिर जोड़ने की सफल विधि का उल्लेख है, उस ग्रन्थ की पृष्ठ संया सहित नाम व लेखक का नाम बताने की कृपा करें ताकि आज जहाँ कहीं परस्पर लड़ाई में सिर कटते हैं, मैं वहाँ सिर जोड़ने में कुछ सहायता कर सकूँ।

हमारा अगला प्रश्न यह है कि शिव जी में हथिनी का सिर अपने मृत पुत्र के धड़ से जोड़कर पुनर्जीवित करने की योग्यता व क्षमता थी तो उन्होंने अपने पुत्र का पहला सिर ही क्यों नहीं जोड़ दिया? हथिनी की मृत्यु कर के अपने पुत्र को पुनर्जीवित करना कथित ईश्वर शिव की शोभा बढ़ाने वाला कार्य है क्या? कोई भी मनुष्य जिसका धड़ तो मनुष्य का हो परन्तु सिर हथिनी का हो, क्या सूखपूर्वक सो सकेगा?

उपरोक्त लेख के अनुसार एक बार देवों में यह विवाद हो गया कि उन सबमें किस देवता की पूजा सर्वप्रथम होनी चाहिए? शिव ने उन्हें संसार का चक्कर लगाकर आने को कहा। जो दौड़ में सबसे पहले लौटेगा, वही देवता प्रथम पूज्य होगा। गणेश का शरीर भारी था। वह न दौड़ सका। उसने माता-पिता का चक्कर लगाया और प्रणाम करके बैठ गया। अतः प्रथम पूज्य माने गए। हमारा निवेदन यह है कि प्रथम पूज्य देव का निर्णय करने का लाईसैंस (=अधिकार) शिवजी को किसने दिया? उसका निर्णय मान्य क्यों होना चाहिए? वे देव क्यों कर माने जा सकते हैं, जब परस्पर उनमें होड़ मची हुई थी कि मेरा पूजन सर्वप्रथम होना चाहिए? लोकैषणा रहित व्यक्ति देवता होता है जबकि लोकैषणायुक्त (=प्रशंसा प्राप्त करने की इच्छा करने वाला) व्यक्ति मनुष्य कहलाता है, देवता तो कदापि मान्य हो ही नहीं सकता। यहाँ हम आचार्य यास्क द्वारा निरुक्त 7/11 में वर्णित देवों का वर्णन करना उचित समझते हैं- देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनाद्वा द्युस्थाने भवतीति वा। इसके अनुसार निम्नलिखित कुछ मूर्तिमान व कुछ अमूर्तिमान देव ये होते हैंः-

  1. दान देने वाले= मनुष्य, विद्वान् व परमेश्वर।
  2. दीपन, प्रकाश करने वाले= सूर्योदि लोक, सब मूर्तिमान द्रव्यों का प्रकाश करने वाले।
  3. द्योतन करने वाले= सत्योपदेश करने से भी देव अर्थात् माता, पिता , आचार्य व अतिथि तथा पालन, विद्या व सत्योपदेशादि करने वाले।
  4. द्युस्थान वाले देव= सूर्य की किरण, प्राण तथा सूर्यादि लोको का भी जो प्रकाश करने हारा है, वह परमेश्वर देवों का भी देव है।
  5. अन्य देव= इन्द्रियाँ, मन। ये शदादि विषयों तथा सत्यासत्य का प्रकाश करते हैं। वेद मन्त्र भी देव हैं।

महर्षि दयानन्द सरस्वती ‘‘सत्यार्थप्रकाश’’ के सप्तम समुल्लास में इस विषय में लिखते हैं- ‘‘देवता दिव्य गुणों से युक्त होने के कारण कहते हैं, जैसी कि पृथिवी।……….जो त्रयस्त्रिशनिशता’’ इत्यादि वेदों में प्रमाण हैं, इसकी व्याया ‘शतपथ’ में की है कि-तैंतीस देव अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु,आकाश, चन्द्रमा,सूर्य और नक्षत्र सब सृष्टि के निवास स्थान होने से ये आठ वसु हैं। प्राण, अपान, व्यान, उदान, सामान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय और जीवात्मा, ये ग्यारह रुद्र इसलिए कहाते हैं कि जब शरीर को छोड़ते हैं, तब रोदन कराने वाले होते हैं। संवत्सर के बारह महीने बारह आदित्य इसलिए कहाते हैं कि ये सब की आयु को लेते जाते हैं। बिजली का नाम इन्द्र इस हेतु है कि वह परम ऐश्वर्य का हेतु है। यज्ञ को प्रजापति कहने का कारण यह है कि जिससे वायु, वृष्टि, जल, औषधी की शुद्धि, विद्वानों का सत्कार और नाना प्रकार की शिल्पविद्या से प्रजा का पालन होता है। ये तैंतीस पदार्थ पूर्वोक्त गुणों के योग से देव कहाते हैं।

लेखक सत्यपाल भटनागर जी से अनुरोध है कि उपरोक्त विवरण व व्याया को ध्यान से पढ़ने का कष्ट करें व पाठकों को स्पष्ट करें कि कौन-से वे देव थे जिनमें अपनी पूजा प्रथमतः कराने की थी? वास्तविकता यह है कि उपरोक्त देवों से अतिरिक्त काल्पनिक देवों की धारणा लेखक के मस्तिष्क में है। उसे त्याग दें व केवल उपरोक्त वास्तविक देवों की मान्यता स्थापित करें।

लेखक जी! पुत्र को अपने माता-पिता का आदर व यथोचित सेवा करनी ही चाहिए, यह निर्विवाद है, परन्तु गणेश की तरह माता-पिता की परिक्रमा कर लेना न तो किसी प्रकार की सेवा है तथा न ही इस कार्य में तनिक भी आदर करने का भाव है। गणेश के मन मेंाी अपनी पूजा सर्वप्रथम कराने की ही इच्छा थी जिसे शास्त्रीय भाषा में लोकैषणा कहते हैं। हम लेखक महोदय को स्मरण दिलाना चाहते हैं कि इतिहास में माता-पिता का आदर व उचित सेवा करने वाले कई सुपुत्रों के प्रमाण उपलध हैं। श्रवण कुमार तथा मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र इत्यादि के कार्यों को ध्यान में रखकर सोचिए व पाठकों को बताइए कि माता-पिता के शरीरों की परिक्रमा करने वाले गणेश में सुपुत्र के गुण थे अथवा श्रवण कुमार में? रामचन्द्र जी ने तो राजभवन के सुख-सुविधाओं का परित्याग करके 14 वर्षों तक वनों में रहकर अपने पिता की प्रतिष्ठा तथा सौतेली माँ की इच्छा की रक्षा की थी। गणेश के जीवन में सेवा की एकाी घटना जब उपलध नहीं होती तो उसका पूजन सर्वप्रथम करने-कराने में औचित्य क्या है? सर्वप्रथम पूजन करने-कराने की किसी व्यक्ति की यदि इच्छा है तो श्रवण कुमार अथवा रामचन्द्र जी की। वैसे आज न गणेश संसार में है,न ही श्रवण कुमार कहीं दिखते हैं तथा न ही रामचन्द्र जी कहीं मिलते हैं। उनकी पूजा कैसे करोगे- कराओगे? केवल चित्रों, मूर्तियों या थाली में जल रही धूप अगरबत्ती को मत्था टेकने का नाम पूजा करना नहीं है। पूजा का अर्थ महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने ‘‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’’ में इस प्रकार लिखा है- ‘‘जो ज्ञानादि गुण वाले को यथायोग्य सत्कार करना है, उसको ‘पूजा’ कहते हैं।’’ आज जो कुछ हो रहा है, वह पूजा न होकर अपूजा है, क्योंकि महर्षि दयानन्द सरस्वती ने ‘‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’’ में यह भी लिखा है- ‘‘जो ज्ञानादि रहित जड़ पदार्थ और जो सत्कार के योग्य नहीं है। उसका जो सत्कार करना है, वह ‘‘अपूजा’’ है।’’ थोड़ी देर के लिए हम बहस के लिए मानते हैं कि गणेश ने अपने माता-पिता की परिक्रमा की थी, इसलिए सर्वप्रथम उसी की पूजा करनी चाहिए तो प्रश्न उत्पन्न होगा कि जिस गणेश ने वह कार्य किया था, वह ही आज कहाँ नहीं है। पत्थर की बनी मूर्ति या कागज में दिख रहा गणेश वास्तविक गणेश नहीं है। आप पत्थर या कागज की पूजा कराते हैं जो जड़ पदार्थ हैं, ज्ञानरहित, क्रिया रहित हैं। इनका सत्कार हो नहीं सकता, अतः इस कथित गणेश से जो कुछ करते हो, वह अपूजा है व इससे कुछ लाभ नहीं होता, हानि अवश्य होती है।

गणेश का पूजन करना है तो पहले गणेश शद का अर्थ समझना चाहिए। ‘गण संयाने’ इस धातु से गण शद सिद्ध होता है। उसके आगे ईश शद लगाने से गणेश शद सिद्ध होता है। ‘गणानां समूहानां जगतामीशः स गणेशः’ अर्थ= सब गणों नाम संघातों का अर्थात् सब जगतों का ईश स्वामी होने से परमेश्वर का नाम गणेश है।

-सत्यार्थप्रकाश, प्रथम समुल्लास

परमेश्वर के अनेक गुणवाचक, कर्मवाचक, सबन्धवाचक नाम हैं। इनमें शिव, गणेश, ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र तथा सरस्वती आदि नाम भी हैं। वेद क्योंकि सृष्टि के प्रथम दिन ईश्वर ने दिए थे, उस दिन इन नामों के शरीरधारी मनुष्य कोई न थे। सामाजिक व्यवहार के लिए मनुष्यों के नाम रखना आवश्यक होता है, अतः वेदों में प्रयुक्त शदों को अपने व अपनी सन्तान के नाम करण हेतु प्रयोग करना पड़ा था। आज भी ऐसा ही होता है। वेद में यदि गणेश व शिवादि की पूजा का आदेश है तो वह सदैव रहने वाले अशरीरी गणेश से ही अभिप्रेत है, न कि बाद में शरीरधारी हुए किसी गणेश नामक व्यक्ति से। परमेश्वर से बड़ा विघ्नहारी कौन होगा? विस्तार से इस विषय को समझने हेतु ‘‘सत्यार्थप्रकाश’’ का प्रथम समुल्लास पढ़ना चाहिए। ‘शिवपुराण’ व अन्य सभी पुराणों को महर्षि दयानन्द जी ने ‘सत्यार्थप्रकाश’ के तृतीय समुल्लास ‘‘संस्कार विधिः’’ के वेदारभ संस्कार तथा ‘‘ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका’’ के ग्रंथ प्रामान्याप्रमाण्य विषय के अन्तर्गत पठन-पाठन हेतु त्याज्य ग्रंथों में रखा है। फिर लेखक ने आर्य समाजी होते हुए ग्रहण क्यों किया?

-चूना भट्ठियाँ, सिटी सेंटर के निकट, यमुनानगर, हरि.

‘शहीद ऊधम सिंह जी की जयंती पर उनकी देशभक्ति के जज्बे को प्रणाम’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

आज देश की आजादी के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले देशभक्त अमर शहीद श्री ऊधम सिंह जी की 116 वीं जयन्ती है। शहीद ऊधम सिंह जी ने मानवता के इतिहास की एक निकृष्टतम नरसंहार की घटना जलियावाला बाग नरसंहार काण्ड के मुख्य दोषी पजांब के तत्कालीन गर्वनर माइकेल ओडायर को लन्दन में जाकर 13 मार्च, सन् 1940 को गोली मार कर अपनी प्रतिज्ञा को पूरा किया था। देश की आजादी के दीवाने और भारत माता के वीर देशभक्त महान पुत्र शहीद ऊधम सिंह पर देश को गर्व है। आज का दिन देश के प्रति उनके जज्बे और कुर्बानी को याद करने व उससे प्रेरणा लेने का दिन है।

 

शहीद ऊधम सिंह, पूर्वनाम शेर सिंह, का जन्म जिला संगरूर पंजाब के सुनाम स्थान पर 26 दिसम्बर, सन् 1899 को हुआ था। श्री चुहड़ सिंह उनके पिता थे जो रेलवे में नौकरी करते थे। आपकी माताजी का देहान्त सन1 1901 में आपकी 2 वर्ष की अवस्था में हो गया था। सन् 1907 में आपके पिता भी दिवगंत हो गये थे। आठ वर्षीय ऊधम सिंह जी व उनके भाई मुक्तासिंह का पालन अमृतसर के केन्द्रीय खालसा अनाथालय, पुतलीघर में हुआ जहां आप सन् 1919 तक रहे। 14 अप्रैल सन् 1919 को बैसाखी थी। इस दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में रालेट एक्ट के विरोध में सभा हुई जिसमें बड़ी संख्या में स्त्री-पुरुष और बच्चे सम्मिलित थे। इस सभा में बिना किसी चेतावनी दिये अंहिसक व शान्त देशवासियों पर ब्रिगेडियर जनरल डायर के आदेशों से उनके सैनिकों ने अन्धाधुन्ध गोलिया चलाई जिससे वहां 379 लोग मरे तथा लगभग 1200 लोग घायल हो गये। सरदार ऊधम सिंह वहां अपने एक साथी के साथ लोगों को जल पिलाने का काम कर रहे थे। इस नरसंहार को आपने अपनी आंखों से देखा। इस घटना से 20 वर्षीय युवक ऊधम सिंह का खून खौल उठा। उन्होंने घायलों की सेवा की। वहां से बाहर निकाल कर उन्हें सेवा व राहत शिविरों में पहुंचाया। बाद में इस अमानवीय घटना से सन्तप्त उन्होंने प्रतीज्ञा की कि इस घटना के दोषी व्यक्ति को उसकी जान लेकर सबक सिखायेंगे। इसके बाद यही संकल्प इनके जीवन का लक्ष्य बन गया।

 

अपनी शपथ वा प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए ऊधम सिंह जी लन्दन पहुंचे। वहां सौभाग्य से उन्हें अपना उद्देश्य पूरा करने का अवसर मिल गया। 13 मार्च, 1940 को लन्दन के कैक्सन हाल में ईस्ट इंडिया एसोसियेशन तथा केन्द्रीय एशियन सोसायटी की एक बैठक थी जिसमें माइकेल ओडायर को भाषण देना था। ऊधम सिंह जी ने अपनी रिवालवर को अपने कोट की जेब में छुपाया जो उन्हें मालिसियान पंजाब के श्री पूरन सिंह बोघन से मिली थी। इसके बाद वह कैक्सन हाल में प्रविष्ट हुए और वहां एक सीट पर बैठ गये। जैसे ही मीटिंग समाप्त हुई, सरदार ऊधम सिंह ने अपनी पिस्तौल से माइकेल ओडायर पर दो फायर किये जिससे वह वहीं पर ढ़ेर हो गये। इस घटना में माइकेल ओडायर के समीप विद्यमान तीन अन्य व्यक्ति भी घायल हुए। घटना के बाद ऊधम सिंह जी ने घटना स्थल से भागने का प्रयास नहीं किया, वह वहीं पर खड़े रहे और स्वयं को गिरफ्तार करा दिया। इस प्रकार उन्होंने 14 अप्रैल, 1919 को जालियावालां बाग नरसंहार की अमानवीय घटना का 21 वर्ष बाद बदला लेकर अमानवीय कार्य करने वाले शासक व शोषक लोगों को देशभक्तों की भावनाओं से परिचित कराया। हमें लगता है कि इस घटना का देश की आजादी में महत्वपूर्ण योगदान है। इस घटना ने लन्दन में रह रहे अंग्रेजों को कुछ सोचने पर अवश्य मजबूर किया होगा।

 

ऊधम सिंह जी की गिरफ्तारी के बाद उन पर मुकदमा चला। 1 अप्रैल, 1940 को औपचारिक रूप से उन पर माइकेल ओडायर की हत्या का आरोप स्थापित किया गया। जेल में रहते हुए उन्होंने 42 दिनों की लम्बी भूख हड़ताल भी की थी जिसे बलात् तोड़ा गया था। 4 जून से उन पर मुकदमा चला और उन्हें मौत की सजा सुनाई गई। ऊधम सिंह जी ने कोर्ट में अपने बयान में कहा था कि ‘‘मैंने माइकेल ओडायर को मारा है क्योंकि मैं उनसे नफरत करता था। वह मेरे द्वारा की गई इस हत्या के पात्र थे। वह जलियावालां बाग नरसंहार के असली दोषी थे। उन्होंने मेरे देशवासियों की भावनाओं को कुचला, इसलिये मैंने उन्हें कुचल दिया। 21 वर्षों तक मैं उनसे जलियावालां बाग नरसंहार का बदला लेने का प्रयत्न करता रहा। मुझे प्रसन्नता है कि मैंने अपना काम पूरा किया। मुझे मौत का डर नहीं है। मैं अपने देश के लिए शहीद हो रहा हूं। ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत मैंने अपने देशवासियों को भूखे मरते देखा है। मैंने इसके विरुद्ध यह आपत्ति की है, यह मेरा कर्तव्य था। अपनी मातृभूमि के लिए मृत्यु का आलिंगन करने से बड़ा दूसरा और क्या सौभाग्य मेरे लिए हो सकता है?’

 

ऊधम सिंह जी को 31 जुलाई, 1940 को पेण्टोविली जेल में फांसी दी गई और जेल में ही उन्हें दफना दिया गया। इस प्रकार भारतमाता का वीर सपूत देश की आजादी और भारतीयों के सम्मान के लिए शहीद हो गया। आज उनकी जयन्ती पर हम उन्हें अपनी श्रद्धाजंलि अर्पित करते हैं। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि इस देश के सभी नागरिक शहीद ऊधम सिंह जी व अन्य क्रान्तिकारियों जैसे हों जायें व भविष्य में भी ऐसे ही हों जिन्हें देश से उनके जैसा ही प्यार हो और उन्हीं की तरह से वह अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

दूसरों को कुछ देने का नाम यज्ञ है – कन्हैयालाल आर्य

 

अपने धन और पदार्थों में से दूसरों को कुछ बाँटना सीखो, देना सीखो, यही यज्ञ का संदेश है। क्या आपने कभी इस बात पर ध्यान दिया है कि हमारा हाथ है न, कितना भारी अयास है इसका, मुड़कर के सदैव मुख की ओर ही आता है। तात्पर्य यह है कि किसी कक्ष में आप बैठे हुए हैं और अचानक विद्युत् चली जाये तो जो आप खा रहे हैं, क्या आपका हाथ नाक या आँख की ओर जायेगा? बिलकुल नहीं। कितना भी अन्धेरा क्यों न हो, आपका हाथ सीधा मुख की ओर जाता है, कुछ ऊपर-नीचे नहीं गिरता। इतना भारी अयास है कि हाथ मुख की ओर ही जाता है, परन्तु इस हाथ को सीधा रखना सीखो, पहले दूसरों को खिलाओ, फिर अपनी ओर लेकर के आओ, तो उसका स्वाद बढ़ जायेगा और वह भोजन पुण्य बनकर आपका, आपके परिवार का और आपके राष्ट्र का कल्याण करेगा। इसे एक दृष्टान्त से समझते हैं-

एक बार प्रजापति के पास असुर गये और जाकर शिकायत करने लगे- महाराज, आप सदैव देवताओं को उपदेश देते हो, हमें कोई भी उपदेश नहीं देते। आप पक्षपात करते हैं। इस शिकायत को सुनकर प्रजापति ने कहा – ठीक है। इस मास की पूर्णिमा के दिन आपको हम उपदेश देंगे और भोजन भी करायेंगे। यह सुनकर असुर बड़े प्रसन्न हुए, परन्तु प्रजापति ने कहा-हम उस दिन देवताओं को भी बुलायेंगे, उन्हें भी उपदेश करेंगे और आपके साथ-साथ उनको भी भोजन करायेंगे। असुरों ने उत्तर दिया – हमें कोई आपत्ति नहीं है। यह कह कर असुर चले गये।

निश्चित तिथि एवं समय की सूचना प्रजापति ने देवताओं को भी दे दी। पूर्णिमा का दिन आया। असुर और देवता प्रजापति के पास पहुँच गये। असुरों को लगा कि प्रजापति पक्षपात करते हुए पहले देवताओं को भोजन करायेंगे। बचा-खुचा हमें खिलाया जायेगा। असुरों के गुरु ने प्रजापति से कहा- महाराज! आपने हमें पहले निमन्त्रण दिया था या देवताओं को? प्रजापति ने कहा-आपको। असुरों ने कहा – फिर भोजन आप पहले हमें कराओगे या देवताओं को? प्रजापति ने कहा- आपको पहले भोजन कराया जायेगा। यह कहकर प्रजापति ने असुरों को भोजन के लिए पंक्तियों में आमने-सामने बैठने का आदेश कर दिया। असुर लोग बैठ गये। भोजन परोस दिया गया।

ज्यों ही असुरों ने भोजन की ओर हाथ बढ़ाया, प्रजापति ने कहा- रुकिये! भोजन करने से पूर्व मेरी एक शर्त है। तुहारी कोहनियों पर लकड़ी की एक-एक खपच्ची बाँधी जायेगी, तभी आप भोजन कर सकेंगे। ऐसा कहकर प्रजापति ने सभी असुरों की कोहनियों पर वैसा करा दिया और तब भोजन करने का आदेश दे दिया। असुरों ने भोजन का ग्रास उठाया, परन्तु कोहनी पर लकड़ी बँधे रहने के कारण भोजन मुख तक जाने के स्थान पर इधर-उधर अपने मुख, आँख, दाँत, सिर पर गिरने लगा। निश्चित समय हो जाने पर प्रजापति ने असुरों को कहा – अब भोजन खाना बन्द कर दीजिए। भोजन का जितना समय निश्चित था, समाप्त हो गया। बेचारे असुर रुँआसे होकर भूखे ही वहाँ से उठ गये।

अब देवताओं के भोजन करने की बारी थी। देवताओं को भी पंक्तियों में आमने-सामने बिठा दिया गया। भोजन परोस दिया। इसी बीच असुरों के गुरु ने कहा – महाराज, यह तो न्याय नहीं है। आप देवताओं की कोहनियों में लकड़ी की खपच्चियाँ क्यों नहीं बँधवा रहे हैं? प्रजापति ने कहा- देवताओं को भी खपच्चियाँ बाँधी जायेंगी। यह कहकर प्रजापति ने देवताओं की कोहनियों पर भी लकड़ी की खपच्चियाँ बँधवा दीं। देवताओं ने भोजन का ग्रास उठाया, सामने वाले के मुख में दे दिया और सामने वाले ने भी उठाया तथा अपने सामने वाले के मुख में भोजन दे दिया । निश्चित समय से पूर्व ही सभी देवताओं ने तृप्त होकर भोजन कर लिया। यह सब दृश्य असुरों ने देाा तो बहुत लज्जित हुए। असुरों के गुरु ने कहा-महाराज! अब भूखे तो रह गये, कम से कम उपदेश तो कर दो। प्रजापति ने कहा – उपदेश तो मैं कर चुका हूँ । तुहारी समझ में नहीं आया तो मैं क्या कर सकता हूँ? असुर प्रजापति का आशय न समझते हुए पुनः बोले – महाराज, आप ने तो केवल भोजन करने का आदेश दिया है। उपदेश तो बिल्कुल नहीं किया है।

प्रजापति बोले-देखो! भोजन तुहें भी परोसा गया, देवताओं को भी परोसा गया। तुम लोग इसलिए भूखे रह गये कि तुमने स्वार्थवश स्वयं खाने का प्रयास किया, दूसरों को नहीं खिलाया। तुम अकेले खाने का प्रयास करते रहे और सभी भूखे रह गये। देवताओं ने दूसरों को खिलाने में रुचि ली, इसलिए वे तृप्त हो गये। आज का उपदेश यह है कि दूसरों को खिलाना सीखें, तभी आपकी तृप्ति होगी। इसीलिए वेद ने उपदेश दिया है- ‘जो लोग केवल अपने लिए पकाकर खा रहे होते हैं, वे लोग पाप खा रहे होते हैं, अकेले खाने वाला पाप खाता है।’

योगेश्वर कृष्ण ने तो गीता के तीसरे अध्याय के श्लोक संया 12 में अकेले खाने वाले को चोर तक कह डाला है-

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।

तैर्दत्तानप्रदायेयो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।।

यज्ञ से प्रसन्न होकर वायु, जल आदि देवता तुहें वे सब सुख प्रदान करेंगे, जिन्हें तुम चाहते हो। जो व्यक्ति उनके द्वारा दिए गए इन उपहारों का उपयोग देवताओं को बिना दिए करता है, वह तो चोर है। यहाँ ‘स्तेन’ शद का उपयोग योगेश्वर कृष्ण जी ने चोर के लिए किया है। जो अपने लिए भोजन पका रहा है, बाँटना नहीं चाहता, वह चोर है। भगवान् कृष्ण ने चोर शद का प्रयोग किया है, यह हमारी आत्मा को झिंझोड़ने वाला, हिलाने वाला शद है।

ऋग्वेद के 10वें मण्डल के 117 वें सूक्त के मन्त्र संया 6 में अकेला खाने वाला किस प्रकार पापी है, उसका वर्णन इस प्रकार मिलता है-

मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य।

नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी।।

(अप्रचेताः) धनों की अस्थिरता का विचार न करने वाला (अन्नं मोघं विन्दते) अन्न को व्यर्थ ही प्राप्त करता है। प्रभु कहते हैं (सत्यं ब्रवीमि)मैं यह सत्य ही कहता हूँ (सः) वह अन्न व धन (तस्य) उसका (इत्) निश्चय से (वधः) वध का कारण होता है। यह अदत्त अन्न व धन उसकी विलास वृद्धि का हेतु होकर उसका विनाश कर देता है। यह (अप्रचेताः) नासमझ व्यक्ति (न) न तो (अर्यमणम्) राष्ट्र के शत्रुओं का नियमन करने वाले राजा को (पुष्यति) पुष्ट करता है (नो) और न ही (सखायम्) मित्र को। वह कृपण व्यक्ति राष्ट्र रक्षा के लिए राजा को भी धन नहीं देता और न ही इस धन से मित्रों की सहायता करता है। वह दान न देकर (केवलादी) अकेला खाने वाला व्यक्ति (केवलाघः भवति) शुद्ध पाप ही पाप खाने वाला हो जाता है, दूसरों को न बाँटने वाला व्यक्ति ‘चोर’ ही कहलायेगा। जो केवल अपने लिए भोजन पकाते हैं, वे पाप की हंडिया पकाते हैं। यज्ञपूर्वक बाँटकर खाना पुण्य प्राप्ति का मार्ग है।

ब्राह्मण लोक कल्याण के लिए अपना समय ज्ञानोपार्जन तथा ज्ञान दान में लगाता है तथा अपने भोजन में से थेाड़ा-सा भाग बलिवैश्वदेव यज्ञ के लिए निकालता है। यह बलिवैश्वदेव इस बात का प्रतीक है कि ब्राह्मण सदैव इस बात को स्मरण रखें कि यह जो मैं निश्चिन्त होकर ज्ञानोपार्जन कर रहा हूँ, इस निश्चिन्तता के लिए मैं राजा, प्रजा, यहाँ तक कि प्राणीमात्र का ऋ णी हूँ। मुझे लोक कल्याण के लिए जीना है और जीने के  लिए खाना है। इसी प्रकार क्षत्रिय अन्याय निवारण के व्रत के लिए जीता है और जीने के लिए खाता है। वैश्य प्रजा का दारिद्र्य निवारण करने के लिए जीता है और जीने के लिए खाता है। शूद्र किसी न किसी व्रतधारी की सेवा के लिए जीता है और जीने के लिए खाता है। सो लोकसेवा के लिए जीना और जीने के लिए खाना यज्ञशेष खाना है। इसी बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए गीता के तीसरे अध्याय 3 श्लोक 13 में इस प्रकार वर्णन है-

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः।

भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।

वे व्यक्ति ही सन्त हैं जो यज्ञ के बाद बची हुई, वस्तु (यज्ञशेष)का उपभोग करते हैं, वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं, किन्तु जो दुष्ट लोग केवल अपने लिए भोजन पकाते हैं, वे तो समझो पाप ही खाते हैं।

यह जो बात ऋग्वेद में कही है, गीता में भी कही है वह इस बात को समझा रही है कि वस्तुओं को अधिक-से- अधिक संग्रह करके अपने पास रख लेना अच्छी बात नहीं है। बाँटने का नाम यज्ञ है, सेवा का नाम यज्ञ है, परोपकार का नाम यज्ञ है, हम इसे करना सीखें।

आपके घर में जो भी पदार्थ आये उसका प्रयोग करने से पहले भगवान् को भोग लगाओ, अर्थात् अग्नि में आहुति दो, फिर जिसे बलिवैश्वदेव यज्ञ कहते हैं, उसका अनुष्ठान करके प्राणी मात्र के लिए भाग निकालिये। जिसे हम भाग रखने के मन्त्र द्वारा बताते हैं कि गौ ग्रास निकालिए, आस-पास कोई व्यक्ति भूखा, पीड़ित, दुःखी याचक है, उसके लिए भाग निकालिए। पितृयज्ञ और अतिथियज्ञ द्वारा माता-पिता, गुरु, अतिथि, राष्ट्र सबके लिए भाग निकालिए।

कहते हैं, जो पाप खा रहे होते हैं फिर वह रोग बनकर, वही कलह बनकर, वही विवाद बनकर, वही तनाव बनकर, वही सन्ताप बनकर व्यक्ति के परिवार में उसके जीवन में उभरता है, अतः बाँटना सीखो, देना सीखो।

हमारा कर्म यज्ञ बन जाये, हम याज्ञिक बन जायें। कैसे! जब कोई व्यक्ति यज्ञ करता है तो उसकी सुगन्ध को समेटकर कभी कैद करके रख नहीं सकता। तभी तो कहा जाता है- ‘‘इदन्न मम’’- यह आहुति अग्नि, सोम, प्रजापति और इन्द्र के लिए है, मेरे लिए नहीं। परोपकार के लिए किया गया जो भी कर्म है, वह सब यज्ञ है। सेवा यज्ञ है, जनकल्याण के लिए निस्वार्थ भाव से किया गया है कार्य यज्ञ है। तभी तो वेद में कहा है – ‘तुम देवताओं को प्रसन्न करो, देवता तुहें प्रसन्न करेंगे। तुम देवताओं के लिए यज्ञ करो, देवता तुहारे लिए यज्ञ करेंगे, तुहारा कल्याण करेंगे। सुख को जितना अधिक बाटेंगे उतना ही अधिक आनन्द आयेगा। इस तरह से यज्ञ शेष को ग्रहण करना सीखो – प्राप्त करो और बाँटो। बाँटने का परिणाम यह होगा उस वस्तु का स्वाद बढ़ जायेगा।’

कहते हैं कि प्रसन्नता को बाँटो, इसलिए कि प्रसन्नता बढ़ जाये और दुःख को बँटाओ, इसीलिए कि दुःख हल्का पड़ जाये। जब भी किसी के जीवन में प्रसन्नता आती है तो लोग निमन्त्रण देने पहुँच जाते हैं, सब मित्रों सबन्धियों को कहते हैं- आइये, हमारी प्रसन्नता में समिलित होइये, क्योंकि हमारी प्रसन्नता में वृद्धि हो जायेगी। दुःख आता है तो लोग बिना निमन्त्रण के सूचना मात्र से दुःख को बाँटने आ जाते हैं, सब लोग साथ खड़े  हो जाते हैं, यह कहने के लिए कि तुहारे साथ संवदेना और सहानुभूति लेकर हम आये हैं, अपने को अकेला मत समझना और यह नहीं सोचना कि तुम अकेले हो। दुःख आया है, दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति पर दुःख आता है, दुःख के बिना कोई अछूता नहीं रहता। प्रत्येक व्यक्ति को दुःख का सामना स्वयं करना पड़ता है, परन्तु दुःख बाँटने वाले उसका मनोबल बढ़ाते हैं और द़ुःख बँट जाता है, घट जाता है।

आपने एक बात देखी होगी- आपके कमरे में दो खिड़कियाँ हैं, आप निमन्त्रण देते हैं शुद्ध वायु को, पवनदेव को और कहते हैं-पवन देव! घुटन है अन्दर, आप आओ, हमें शुद्ध वायु प्रदान करो। आपने निमन्त्रण दिया, परन्तु वे आने के लिए तैयार नहीं हैं। पवन देव बोले-एक मार्ग से बुलाया और मुझे बन्दी बनाकर रखना चाहता है, दूसरी खिड़की खोल, तभी मैं अन्दर आऊँगा। मैं एक ओर से आऊँगा, तुहें ताजगी देने के पश्चात् दूसरीािड़की से बाहर चला जाऊँगा।

इधर से वायु आए, उधर से जाए। तात्पर्य यह है कि जब तुहारे जीवन में आनन्द आए तो बाँटना प्रारभ कर दो। बाँटना प्रारभ कर दोगे तो क्या होगा? वह कई गुणा तुहारे पास आएगा और तुहें आनन्दित करना प्रारभ कर देगा।

कुएँ से पानी निकालो तो वह दूसरों का कल्याण करेगा, दूसरा पानी यहाँ आयेगा, ताजा बना रहेगा, जीवन जीवन्त रहेगा। जो जल भरकर जाये बादल, इधर से भरकर लाये और उधर से बरसाये, तभी उन बादलों की शोभा है। और यदि गरजते हुए चले जायें तो उनकी कोई शोभा नहीं। उनका होना न होना व्यर्थ है। वहाँ बादल भी बाँटना सीख रहा है। इसी का नाम जीवन है। यह जीवन क ी सत्यता है, यह जीवन का एक उद्देश्य है। योगीराज कृष्ण कहते हैं- ‘इसी का नाम यज्ञ है।’ इसीलिए यह एक चक्र है जो घूम रहा है। यदि पाना चाहते हैं तो देना सीखो और दोगे तो लौट पर भी पर्याप्त मात्रा में आयेगा।

वेद के ऋषि स्पष्ट रूप से निर्देश करते हैं कि यदि खाना चाहते हो तो ध्यान रखना-यज्ञ करने के बाद घर में भोजन को खायें। उस पर तुहारा अधिकार है, बाँटकर खाओ, इसमें आपको आनन्द आयेगा। इसी में हम सभी का हित है। प्रभु हम सब पर कृपा करें कि स्वार्थी न बनें, परोपकार भी सकाम भावना से न करें, दूसरों को बाँटना सीखें, तभी हमारा यज्ञ सफल होगा।

– 4/44, शिवाजी नगर, गुड़गाँव, हरियाणा।

आर्य समाज व आर्यवीर दल -कर्मवीर

 

किसी भी परिवार, संस्था, समाज या राष्ट्र को उन्नत बनाने में युवाओं का विशेष योगदान रहता है। इसका कारण यह होता है कि युवाओं के अन्दर उत्साह-सामर्थ्य-शक्ति अधिक होती है, जिसका अभाव बहुत छोटे बच्चों व वृद्धों में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। युवाओं के अन्दर किसी भी कार्य की दिशा व दशा बदलने की सामर्थ्य होती है, यदि युवा सचरित्र, समर्थ तथा निष्ठावान् हों।

यही कारण है कि आज हमारे देश के माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी यह दावा करते हैं कि हम भारत को दुनिया के शिखर पर ले जा सकते हैं, क्योंकि पूरे संसार में अन्य देशों की तुलना में भारत के पास सबसे अधिक युवाशक्ति है। यदि इस युवाशक्ति को ठीक मार्ग-दर्शन दिया जावे तो अवश्य ही भारत विश्व के श्रेष्ठतम देशों में होगा।

जिसके पास युवा शक्ति कम होती है, उसका भविष्य अन्धकार में जाने की सभावना रहती है, क्योंकि युवा कार्यकर्त्ताओंके अभाव में विशेषतः सैन्य व तकनीकी के क्षेत्र में तो उनकी सुरक्षा पर प्रश्न-चिह्न लगने लगते हैं। परिवार-समाज-राष्ट्र के पास सपत्ति हो, पर सुरक्षा की सामर्थ्य न हो तो उनकी सपदा पर विरोधियों की नीयत खराब होने लगती है।

कुछ ऐसी ही स्थिति वर्तमान में आर्य समाज की है। आर्य समाज ने भी अपने को सशक्त-समर्थ-सुरक्षित रखने के लिए युवा इकाई के रूप में आर्यवीर दल संगठन को बनाया। आर्यवीर दल की पहचान आर्य समाज के सैनिक संगठन के रूप में हुई।

आर्यवीर दल ने आर्य समाज के नेतृत्व में आर्य समाज की ही नहीं, अपितु आवश्यकता पड़ने पर अपनी सामर्थ्य/शक्ति के अनुसार सपूर्ण समाज, राष्ट्र एवं हिन्दू जाति की सेवा-सुरक्षा की। देश विभाजन के समय जो हिन्दू शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान (बंगलादेश) से आये, मुस्लिम अंसार गुण्डे उन पर आक्रमण करते, मारने व लूटने का यत्न करते। इस विपत्ति के समय आर्यवीर दल ने हिन्दू शरणार्थियों की सुरक्षा की उनकी सपत्ति को बचाया।

हिन्दुओं के गङ्गा-यमुना इत्यादि तीर्थ स्थलों पर मेले लगते। उनमें मुस्लिम युवक हिन्दू महिलाओं के साथ छेड़खानी करते, तो उनकी सुरक्षा के लिए आर्यवीरों को दायित्व दिया जाता था। हैदराबाद मुक्तिसंग्राम में आर्यवीरों का विशेष सहयोग – बलिदान रहा, क्योंकि आर्यवीरों को आर्य समाज के द्वारा धर्म-राष्ट्र की रक्षा के लिए सज्जित किया जाता था।

वर्तमान में भी आर्य समाज के बड़े समेलनों में व्यवस्था व सुरक्षा की जिमेदारी आर्यवीर दल को ही दी जाती है।

जिन आर्य समाजों में आर्यवीर दल सक्रिय है, उन आर्य समाजों की गतिविधि व शोभा अलग ही दिखाई देती है। वहाँ के कार्यक्रमों की व्यवस्था-सुरक्षा व व्यायाम प्रदर्शन आदि का लोगों के मस्तिष्क पर विशेष प्रभाव पड़ता है। भारत के अनेक प्रान्तों में आर्य समाज के साथ-साथ आर्यवीर दल का कार्य रहा है, इन्हीं प्रान्तों में वीरभूमि राजस्थान भी अग्रणी है। राजस्थान की आर्य समाजों में आर्यवीर दल की विशेष भूमिका है। आर्यवीर दल गंगापुर सिटी नेाी आर्य समाज के प्रचार-प्रसार में बड़ी भूमिका निभाई है। यहाँ का आर्यवीर दल संगठन बड़ा जागरूक है। वर्तमान में भी इस नगर में आर्यवीर दल की दो शाखाएँ सतत कार्य कर रही हैं, यहाँ के शिक्षक व आर्यवीर बड़े योग्य व उत्साही हैं। शाखाओं में आने वाले आर्यवीरों को शारीरिक रूप से सुदृढ़ किया जाता है, वहीं पर उनको योग्य आर्य भद्र पुरुषों द्वारा जीवन की उन्नति के लिए प्रेरित किया जाता है। जिसका परिणाम यह रहा कि शाखाओं में आने वाले दो-तीन आर्यवीरों ने राजस्थान की बोर्ड परीक्षाओं में भी  उच्च स्थान प्राप्त किया।

आर्य वीर दल गंगापुर सिटी के मुय प्रेरणा स्रोत माननीय मदनमोहन जी व उनके समस्त सहयोगी हैं। मदन मोहन जी ने अपना पूरा जीवन आर्य समाज व आर्यवीर दल की सेवा में लगाया है। आप एक निर्भीक व दृढ़ आस्थावान आर्य पुरुष है। आपकी छत्रछाया में आर्यवीर दल गंगापुर शहर कार्य करता है। प्रत्येक वर्ष दशहरा पर्व पर आर्यवीर दल द्वारा भव्य कार्यक्रम किया जाता है । जिसमें आर्यवीरों द्वारा व्यायाम प्रदर्शन होता है। शहर के अनेक स्त्री-पुरुष इस कार्यक्रम को देखने आते हैं। कार्यक्रम में एक विशेष कार्य यह किया जाता है कि दर्शक तथा कार्यकर्त्ता संगठन के लिए वीरनिधि एकत्र करते हैं। अपनी स्वेच्छा से लोग इसमें सहयोग करते हैं। यह इस नगर की वर्षों पुरानी परपरा है। इस दशहरे पर कार्यक्रम में समिलित होने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ।

आर्य वीर दल गंगापुर सिटी के 15 वर्ष के घोर संघर्ष के उपरान्त उच्च न्यायालय राजस्थान के आदेशानुसार नगर के बीच में पड़ने वाली 26 दुकानें पिछले वर्ष बन्द करा दी गई। इसका सारा श्रेय आर्यवीर दल व उसके नेता मदनमोहन जी को जाता है। आपने धैर्य नहीं छोड़ा और 15 वर्ष तक केस लड़ते रहे, अन्ततः सफलता प्राप्त हुई। ये हम सब आर्य जनों के गौरव पूर्ण कार्य है। शहर में मुस्लिमों की संया भी पर्याप्त है। यहाँ कई घटनाएँ ऐसी हुईं, जो हिन्दू युवतियाँ मुस्लिम युवकों के साथ चली गई, परन्तु उनका वैदिक रीति से विवाह संस्कार आर्य समाज ने कराया। इसी कारण से नगर के सभी पौराणिक लोग भी मदनमोहन जी का बहुत समान करते हैं तथा आर्य समाज व आर्य वीर दल को मुक्त हस्त से दान देते हैं। आपकी आयु लगभग 70 वर्ष है, परन्तु आपका उत्साह अभी भी युवकों जैसा है, इसीलिए आप सैंकड़ों योग्य आर्य वीरों के प्रेरणा स्रोत रहे। इसी गंगापुर शहर ने दिवंगत सीताराम जी जैसे कर्मठ आर्यवीर को तैयार किया।

इतना कुछ लिखने का उद्देश्य/प्रयोजन यह है कि आर्य समाज व आर्यवीर दल का माता-पिता व संतान जैसा संबंध है। संतान योग्य व समर्थ तथा संस्कारवान होती है तो माता-पिता की उन्नति-प्रगति, यश-प्रशंसा व सुरक्षा होती है। दुर्भाग्य से कुछ आर्य समाज के कथित पदाधिकारी गण आर्य समाज को अलग व आर्यवीर दल को अलग मानने लगे तथा आर्य वीर दल का विरोध करने लगे। आर्यवीरों के आर्य समाज में प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगाने लगे। इसका कारण रहा सपत्ति। जो अधिकारी आर्यसमाज के धन सपत्ति का मनमाने ढंग से उपभोग करते, आर्यवीर दल द्वारा विरोध किये जाने के भय से ऐसे आर्यवीर दल का बहिष्कार किया विरोध किया, ताकि वे निरंकुश होकर स्वार्थ सिद्धि कर सके।

कुछ दोष आर्यवीर दल का भी हो सकता है, परन्तु यदि सन्तान पथ से विचलित हो जाए तो उसको सही मार्ग दिखाने का दायित्व माता-पिता का होता। ऐसा ही दायित्व आर्य समाज का आर्यवीर दल के प्रति है।

जिस घर में संतान नहीं होती, उस गृहस्थ की सपत्ति पड़ोसियों की नजर टेढ़ी होने लगती है तथा जिसकी संतान योग्य हो बलवान हो, ऐसे गृहस्थ सुख चैन से जीवन व्यतीत करते हैं।

आर्य समाजों में युवकों को जोड़ने अपनी संया को बढ़ाने और न्यून खर्च में अच्छी सफलता प्राप्त करने का आर्यवीर दल एक उत्तम प्रक्रम है। हम सब आर्यभद्र पुरुषों का कर्त्तव्य है कि आर्य समाज की प्रत्येक संस्था में आर्य वीर दल की शाखाएँ चले, सब आर्य परिवारों के बच्चे शाखाओं में अनिवार्य रूप से भाग लें तथा आर्य जन उनको उत्तम चरित्र की शिक्षा दें, तो आर्य परिवारों के बच्चों को यह नहीं कहना पड़ेगा कि मेरे दादा-नाना आर्य समाजी थे।

अजमेर के अन्दर सरकारी परीक्षाएँ होती रहती है। ऋषि भूमि परोपकारिणी सभा में अनेक युवक परीक्षा के निमित्त आकर ठहरते हैं। कोई भी युवक एक बार यह कह दे कि मैं आर्य समाज से आया हूँ, आर्य समाज से पत्र लाये न लाये, परन्तु सभी के अधिकारियों की उदारता है कि सभा द्वारा सबके भोजन-आवास की समुचित व्यवस्था की जाती है। आये हुए युवकों से कई बार पूछ लेते हैं कि क्या आप आर्य समाजी हैं तो उत्तर मिलता है- मेरे दादा या नाना आर्य समाजी थे। मैं तो आर्य समाज में नहीं जाता हॅूँ। इसके कारण होते दादा-नाना यदि वे अपने पोते-नाती को आर्य समाज में लेकर जायेंगे, आर्यवीर दल द्वारा उन्हें खेल-खेल में आर्य सिद्धान्तों का ज्ञान होगा तो आर्य परिवारों के बच्चों को यह नहीं कहना पड़ेगा कि मेरे दादा-नाना आर्य समाजी थे, मैं नहीं।      -ऋषि उद्यान, अजमेर।

आज 23 दिसम्बर को 90 वें बलिदान दिवस पर ‘स्वामी श्रद्धानन्द का महान व्यक्ति और कार्य भावी पीढि़यों के लिए प्रेरणा’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

वैदिक धर्म व संस्कृति के प्रेमी, समाज सुधारक, विश्व-प्रसिद्ध संस्था गुरुकुल कांगड़ी के संस्थापक और शिक्षा शास्त्री, स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणीय नेता, हिन्दुओं के रक्षक, शुद्धि आन्दोलन के प्रणेता और शीर्ष नेता, धर्मोपदेशक, साहित्यकार स्वामी श्रद्धानन्द जी का आज नब्बेवां बलिदान दिवस है। 26 दिसम्बर, 1926 को 71 वर्ष की आयु में आज के ही दिन एक षड़यन्त्र के अन्तर्गत एक विधर्मी ने उन्हें रुणावस्था में धोखे से गोली मार कर शहीद कर दिया था। स्वामीजी का जीवन प्राचीन शास्त्रीय गुरुकुल शिक्षा पद्धति के पुनरुद्वार सहित ईश्वर प्रदत्त वेद द्वारा प्रचलित ज्ञान व विज्ञान पूर्ण मान्यताओं एवं सिद्धान्तों से युक्त सत्य वैदिक धर्म के प्रचार व प्रसार एवं हिन्दु जाति के संगठन व सुधार के कार्यों के लिए समर्पित था। आज उनके बलिदान दिवस पर उनको श्रद्धाजंलि प्रस्तुत करते हुए हम उनके समय की देश की प्रख्यात हस्तियों द्वारा उनको दी गई श्रद्धाजंलियों के माध्यम से उनके व्यक्तित्व व कृतित्व को जानने व जनाने का प्रयास कर रहे हैं।

 

संयुक्त प्रान्त (वर्तमान का उत्तर प्रदेश) के छोटे लाट सर जेम्स मेस्टन ने गुरुकुल वृन्दावन में संवत् 1923 में दिये अपने भाषण में उनके विषय में कहा था कि ‘मैंने शीघ्र ही आपकी मुख्य और पुरानी गुरुकुल कांगड़ी और उसी समय आपके नेताओं और मित्रों में से बहुतों से परिचय लाभ किया। इसी समय महात्मा मुंशीराम जी से मेरा परिचय हुआ। मुझे विश्वास है कि उनका विनय मेरे लिये प्रबल हेतु है कि उक्त नामी सज्जन के विषय में जो सम्मति मैंने स्थिर की है, उसे मैं प्रकट करूं। पर उनके भावों का सत्कार करते हुए निःसंकोच इतना अवश्य कहूंगा कि एक मिनिट भी उनके साथ रहते हुए उनके भावों की सत्यता और उनके उद्देश्यों कि उच्चता को अनुभव करना असम्भव है। दुर्भाग्यवश हम सब मुंशी नहीं हो सकते।

 

मौलाना मुहम्मद अली ने उनके विषय में लिखा है कि उनका (स्वामीजी का) मुख्य कार्य उनके धर्म-संगठन के सम्बन्ध में था और उस बारे में शंका नहीं की जा सकती। फिर भी इतना तो सही है ही कि वे जिसे अपना धर्म मानते थे, उसके लिये काम करने में उन्होंने उल्लेखनीय लगन दिखायी थी। उनकी हिम्मत के बारे में शंका ही नहीं थी। साहस और शौर्य के वे मिश्रण थे। गोरखों की संगीनों के सामने अपनी छाती खोल देने वाले उस बहादुर देश प्रेमी का चित्र अपनी नजर के सामने रखना मुझे बहुत अच्छा लगता है। ऐसी उम्दा मौत के मिलन से उन्हें तो कुछ नहीं लगता, मगर हमारे लिये यह महान् दुःखदायक घटना है।

 

पं. मदन मोहन मालवीय हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध नेता थे। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना सहित देश की आजादी में उनका उल्लेखनीय योगदान था। उन्होंने स्वामी श्रद्धानन्द जी के प्रति अपने भावों को प्रकट करते हुए लिखा है कि ‘हमारे परम देशभक्त और हिन्दू जाति के परम सेवक श्रद्धानन्द जी का देहान्त एक पतित पुरुष के हाथ से हुआ है। स्वामी जी इस देश के एक चमकते तारे थे। इनका देश-प्रेम 40 वर्ष से सरकार को विदित है। पहले तो वे वकालत करते थे। 20 वर्ष पहले इन्होंने गुरुकुल कांगड़ी स्थापित किया और उस संस्था को अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया। इनकी देश-भक्ति कैसी थी, इसका स्मरण कराने की जरूरत नहीं। आपको पता ही होगा कि दिल्ली में छाती खोलकर के बन्दूकों के सामने खड़े रहे थे। हिन्दू महासभा के काम में वे बड़ा भाग लेने वाले थे। शुद्धि के तो वे आचार्य ही थे। हजारों मलकानों को उन्होंने हिन्दू बनाया था। स्वामी जी को शुद्धि और संगठन की चिन्ता थी। 71 वर्ष की उम्र के ऐसे स्वामी को कोई मार डाले, यह लज्जा और शोक की बात है।

 

स्वामीजी के लिए तो यह बड़ी बात थी, क्योंकि उनकी ऐसी मृत्यु हिन्दू धर्म के मृत शरीर में नया प्राण-मन्त्र फूंकने जैसा है। ….इस प्रकार दिल्ली में हमारे एक प्रधान नेता ने धर्म की खातिर अपने प्राण दिये हैं। स्वामी श्रद्धानन्द भी ऐसे ही दूसरे शहीद हुए हैं। ये किसी धर्म के साथ वैर नहीं रखते थे। हिन्दुओं की सेवा करते थे। इससे हमें क्या सीखना है? जैसे तेगबहादुर की मृत्यु से हिन्दूजाति में जागृति आयी थी और औरंगजेब का जोर टूटा था, वैसे ही हमें यह चीज सीखनी है कि हिन्दूजाति का प्रत्येक मनुष्य शुद्धि और संगठन के काम में लग जाये।

 

स्वामी जी का दूसरा उपदेश यह है कि ऐसे काम में किसी भी प्रकार का डर न रखा जाये। उन्होंने शुद्धि के काम में डर नहीं रखा। इतना ही नहीं, परन्तु जरा भी अन्याय नहीं किया। वे कहते थे कि मुसलमान को हिन्दू बनाने का प्रत्येक हिन्दू को अधिकार है। मैं तो कहता हूं कि यह तबलीग (धर्म परिवर्तन या भ्रष्ट करने का आन्दोलन) सर्वथा बन्द हो जाये। ईसाई भी यह काम बन्द कर दें। मगर जब हजारों मुसलमान और ईसाई हिन्दुओं को धर्मभ्रष्ट करने को बैठे हैं, तब कोई हमें यह नहीं कह सकता कि हिन्दुओं की शुद्धि नहीं करनी चाहिये। अलबत्ता ऐसा करने में हम किसी के प्रति अन्याय करें, यह बात स्वामी जी हमेशा करते थे और यह भी कहते थे कि यह आन्दोलन राष्ट्रीय एकता का विरोधी नहीं होना चाहिये। घोर पाप होता हो तो भी हिन्दू अपने धर्म में दृढ़ रहे और बदला लेने का पाप न करें। भविष्य में किसी दिन हिन्दू-संतान की निन्दा हो, ऐसा नहीं होना चाहिये। स्वामी जी के शोकयुक्त अवसान का स्मारक किस ढंग से बनाये? एक दिन नियत किया जाये, जब सभी मिलें और उनके नाम से एक कोष बनाया जाये। उनके जाने से उनके साथ का हमारा सम्बन्ध टूट नहीं गया। वे अभी जिन्दा हैं।

 

सुप्रसिद्ध राष्ट्रीय कवि श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर ने स्वामी श्रद्धानन्द जी का स्मरण करते हुए कहा है कि हमारे देश में जो सत्य-व्रत को ग्रहण करने के अधिकारी हैं एवं इस व्रत के लिये प्राण देकर जो पालन करने की शक्ति रखते हैं, उनकी संख्या बहुत ही कम होने के कारण हमारे देश की इतनी दुर्गति है। ऐसी अवस्था जहां है, वहां स्वामी श्रद्धानन्द जैसे इतने बड़े वीर की इस प्रकार मृत्यु से कितनी हानि हुई होगी, इसका वर्णन करने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु इनके मध्य एक बात अवश्य है कि उनकी मृत्यु कितनी ही शोचनीय हुई हो, किन्तु इस मृत्यु ने उनके प्राण एवं चरित्र को उतना ही महान बना दिया है।

 

देश के सर्वोतम एवं महान नेता, भारत के प्रथम गृहमन्त्री और उपप्रधानमंत्री सरदार बल्लभभाई पटेल ने स्वामी श्रद्धानन्द जी का स्मरण करते हुए लिखा है कि स्वामी श्रद्धानन्द जी की याद आते ही 1919 का दृश्य मेरी आंखों के सामने खड़ा हो जाता है। सरकारी सिपाही फायर करने की तैयारी में है। स्वामी जी छाती खोल कर सामने जाते हैं और कहते हैं, लो, चलाओ गोलियां। उनकी उस वीरता पर कौन मुग्ध नहीं हो जाता? मैं चाहता हूं कि उस वीर संन्यासी का स्मरण हमारे अन्दर सदैव वीरता और बलिदान के भावों को भरता रहे।

 

उपन्यास सम्राट मुन्शी प्रेमचन्द ने उनको स्मरण कर लिखा है कि यों तो स्वामी जी प्राचीन आर्य आदर्शों के पूर्ण रूप में प्रवर्तक थे, पर मेरे विचार में राष्ट्रीय शिक्षा के पुनरुत्थान में उन्होंने जो काम किया है उसकी कोई नजीर नहीं मिलती। ऐसे युग में जब अन्य बाजारी चीजों की तरह विद्या बिकती है, यह स्वामी श्रद्धानन्द जी का ही दिमाग था जिसने प्राचीन गुरुकुल प्रथा में भारत के उद्धार का तत्व समझा। ….समय उनके अनुकूल न था, विरोधियों का पूछना ही क्या, चारों तरफ बाधायें ही बाधायें। पर वे जितने आदर्शवादी थे, उतने ही हिम्मत के धनी थे। किसी बात की परवाह न करते हुये गुरुकुलों की स्थापना कर दी।

 

पादरी सी.ए्फ. एण्ड्रूज व स्वामीजी में गहरे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। उनकी दृष्टि में इस जीवन में बहुत कम ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें मैं उतना प्रेम करता हूं जितना स्वामी श्रद्धानन्द जी को करता था। हमारी स्वच्छ, निर्मल तथा प्रगाढ़़ मैत्री में कदाचित् ही धुन्धलापन आया हो। उनके उच्च चरित्र की ही महत्ता थी जिसने उनके प्रति मेरे प्रेम को सच्चा और गहरा बनाया था। यह जानकर मैं बहुत प्रसन्न होता था कि स्वामी जी मुझ से प्रेम करते हैं। ….स्वामी श्रद्धानन्द एक अत्यन्त स्निग्ध और उदार हृदय रखते थे। जब कभी गरीबों, दुःखियों और दलितों के नाम पर उनके हृदय को अपील की जाती थी तो वह अपील उनके लिए अपरिहार्य हुआ करती थी। इसलिये जबजब बलिदान जयन्ती आये तबतब उनके सच्चे प्रेमियों का ध्यान गरीबों की ओर, जिन्हें वह प्यार करते थे, जाना चाहिये और उन गरीबों को भी परमात्मा के बच्चे समझना चाहिये।स्वतन्त्रता आन्दोलन की प्रसिद्ध नेत्री श्रीमती सरोजिनी नायडू ने स्वामी के विषय में लिखा है कि मेरी स्मृति और मेरे अनुराग के आराध्य देवता स्वामी श्रद्धानन्द वर्तमान संतति के सम्मुख एक ऐतिहासकि मूर्ति के रूप में विराजमान हैं। मैं सदैव अनुभव करती हूं कि स्वामी श्रद्धानन्द भारत के वीरकाल की एक दिव्य विभूति थे। अपनी भव्य-मूर्ति और ऊंचे व्यक्तित्व के द्वारा वह अपने साथियों में देवता की नाई रहा करते थे। वह अपने जीवन की शहादत की अन्तिम घडि़यों तक साहस और कर्मयोग की अनुपम मूर्ति रहे और भारतीय जीवन के धार्मिक व आध्यात्मिक क्षेत्र में और राष्ट्र सुधार के कार्यों में इन गुणों का सुन्दर परिचय देते रहे। गानव-समाज की सेवा के सम्बन्ध में उनके उच्च भावों का मैं बहुत आदर करती हूं।’

 

भारत की आजादी के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित करने वाले जीवित शहीद, अंग्रेजों द्वारा दो जन्मों के कारावास की सजा से दण्डित वा पुरस्कृत तथा काला पानी में रहकर जिन्होंने अनेक इतिहास नया इतिहास रचा, उस भारत माता के वीरसपूत वीर विनायक दामोदर सावरकर ने स्वामी श्रद्धानन्द को अपनी श्रद्धाजंलि में कहा है कि इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि हमारे श्रद्धेय स्वामी श्रद्धानन्द ने हिन्दू-जाति पर तथा हिन्दुस्तान की बलि-वेदी पर अपने जीवन की आहुति दे दी। उनका सम्पूर्ण जीवन विशेषकर उनकी शानदार मौत हिन्दू-जाति के लिये एक स्पष्ट सन्देश देतती है। ……हिन्दू-राष्ट्र के प्रति हिन्दुओं का क्या कर्तव्य है-इसे मैं स्वामी जी के अपने शब्दों में ही रखना चाहता हूं। सन् 1926 के 29 अप्रैल के ‘‘लिबरेटन” पत्र में वे लिखते हैं–‘‘स्वराज्य तभी सम्भव हो सकता है जब हिन्दु इतने अधिक संगठित और शक्तिशाली हों जाएं कि नौकरशाही तथा मुस्लिम धर्मोन्माद का मुकाबला कर सकें।” उपर्युक्त उद्धरण से हिन्दू जाति की तीव्र मांग का पता चल सकता है और विशेषकर ऐसे नाजुक समय में जबकि इस पर चारों ओर से आघात और आक्रमण हो रहे हों।

 

लेख को और अधिक विस्तार न देते हुए निवेदन है कि हमें स्वामी श्रद्धानन्द जी के व्यक्तित्व व कृतित्व को समझने के लिए उनकी आत्मकथा तथा उनके ग्रन्थों के संग्रह ‘‘श्रद्धानन्द ग्रन्थावली का अध्ययन करना चाहिये। यह अध्ययन हमारे जीवन का कर्तव्य निर्धारित करने में निश्चय ही सहायक हो सकता है। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपने जीवन में जो महान कार्य किए उनके कारण उनका यश सदैव विद्यमान रहेगा और भावी पीढ़ी उनसे प्रेरणा ग्रहण कर उनके विचारों के अनुरुप देश का निर्माण करने में अपने कर्तव्य का पालन करेंगे, इन्हीं शब्दों के साथ लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

महात्मा हंसराज के तीन कथनः : राजेन्द्र जिज्ञासु

महात्मा हंसराज के तीन कथनःमहात्मा हंसराज के व्यायानों व लेखों में मुझे तीन अनमोल मोती मिले। आपने कहा कि एक बार ला. सांईदास ऋषि का ऐश्वरवाद, उसकी ही उपासना पर व्यायान सुनकर भीड़ के साथ जब बाहर निकले तो एक ब्रह्म समाजी नेता ने भाषण सुनकर कहा कि मेरा तो अब तक सारा ही जीवन निरर्थक गया। मैंने जड़पूजा-मूर्तिपूजा का ऐसा खण्डन कभी नहीं किया, जैसा आज निर्भीक स्वामी दयानन्द ने किया है। वहाँ महात्मा जी ने इस ब्रह्म समाजी नेता का नाम नहीं दिया। मेरा मत है कि यह ला. काशीराम जी प्रधान पंजाब ब्रह्मसमाज  हो सकते हैं। वह महर्षि की निडरता, विद्वत्ता व अटल ईश्वर विश्वास की बहुत प्रशंसा किया करते थे।

दूसरा कथन जो मुझे प्रेरणाप्रद लगता है, वह यह है कि महात्मा जी हजरत मुहमद की एक हदीस सुनाकर आर्यों के  खरेपन की पहचान बताया करते थे। किसी ने मुहमद जी से पूछा कि आपकी सबसे प्यारी बीवी कौन है? प्रश्नकर्त्ता समझता था कि पैगबर को हजरत आयशा (जो सबसे छोटी थी) से अत्यधिक प्रेम है सो यह उसी का नाम लेंगे, परन्तु रसूल अल्लाह ने हजरत खदीजा का नाम लिया और कहा कि वह उस समय मुझ पर ईमान लाई, जब मुझे कोई नहीं जानता मानता था।

यह हदीस सुनाकर महात्मा जी कहा करते थे- धर्मप्रचार- ऋषि के मिशन के लिए कौन कष्ट झेलता व समय देता है? जो ऋषि मिशन का दीवाना है, वही महात्मा जी की दृष्टि में बड़ा व आदरणीय है।

महात्मा जी का तीसरा प्रिय कथन मेरे लिये यह है कि हम यह चाहते हैं कि मेरा तो पाँवाी गीला न हो, परन्तु देश जाति का बेड़ा पार हो जाये।

आओ! हम सब सोचें कि हम भी क्या इसी श्रेणी में तो नहीं आते। वैदिक धर्म पर जब वार हो तो उत्तर दूसरे दें। वेद पर, ऋषि पर प्रहार हो या अंधविश्वासों से लड़ना हो- मर्तिपूजकों से, ईसाइयों से, मुसलमानों से, रजनीश आदि नास्तिकों,ाोगवादियों व गुरुडम वाले तिलक कण्ठीधारी बाबाओं से, जातिवादी तत्त्वों पर लिखने बोलने के लिए कोई और आगे आये, परन्तु मैं अपने पद से चिपका रहूँ। कितने वर्षों तक आप प्रधान व मन्त्री रहे- यह कोई इतिहास नहीं। इतिहास दुःख कष्ट झेलने को कहते हैं। कभी किसी से टक्कर ली? कभी कोई अभियोग चला? भारत सरकार ने निजाम की जीवनी दिल्ली से छापी। उसको महिमा मण्डित किया, फिर श्रद्धाराम की आड़ में ऋषि की निन्दा की। आपके मुख पर टेप लगी है। आप कुछ बोलने का साहस ही न कर पाये। उत्तर में दो पक्तियाँ तो लिख देते। भारत सरकार को एक रोष भरा पत्र तो लिख सकते थे। संघर्ष करना जिनके बस की बात नहीं, जो घर में ही कलह जगाने के लिए बेचैन रहते हैं, उनकी करनी व कथनी से इतिहास नहीं बन सकता। ऐसे लोग रिपोर्ट का पेट तो भर सकते हैं, परन्तु इतिहास ऐसे लोगों को कूड़ेदान में फेंक देता है। इतिहास पं. लेखराम, श्याम भाई, भक्त फूलसिंह, स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा नारायण सिंह व पं. रुचिराम ही रच सकते हैं। इतिहास निर्माता तो स्वामी चिदानन्द अनुभवानन्द जी थे, जिन्हें पद प्रेमियों ने बिसार दिया है।