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जिज्ञासा समाधान: आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा 2- मैं महर्षि दयानन्द जी का एक बहुत छोटा सिपाही हूँ, दैनिक यज्ञ एवं दोनों समय सन्ध्या करता हूँ, किन्तु सन्ध्या करते वक्त जब मैं मनसा परिक्रमा मन्त्र का अर्थ भाव के साथ उच्चारण करता हूँ तो निनलिखित शंका घेर लेती है-

(क) मनसा परिक्रमा मन्त्रों में हम दिशाओं, अग्नि, सूर्य, लता आदि जड़ पदार्थों को नमन करते हैं। कृपया, भाव स्पष्ट करें।

(ख) हर जीव अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर आयु, देश, स्थिति आदि प्राप्त करता है, लेकिन बहुत से लोग बेईमानी, छल-कपट के द्वारा भाग्य से अधिक धन अर्जित कर लेते हैं, जो कि उसके प्रारध से ज्यादा होता है। कृपया, थोड़ा प्रकाश डाल कर अज्ञान दूर करें।

– सुरेन्द्र कुमार, डल्यू-2-349-बी, नांगल राया, नई दिल्ली-110046

समाधान– 2 (क) महर्षि ने सन्ध्या करने का विधान मनुष्यों के लिए किया है। सन्ध्या में जिन मन्त्रों का विनियोग जिस क्रम से किया है, वह अपने आप में सन्ध्योपासना करने की वैज्ञानिक शैली है। सन्ध्या के प्रारभ से अन्त तक जिस क्रम को महर्षि ने रखा है, उस क्रम से साधक स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाता चला जाता है।

आर्य जगत् मूर्धन्य दार्शनिक योग्य विद्वान् पण्डित गंगाप्रसाद उपाध्याय जी ने इस विषय पर चिन्तन कर सन्ध्या विषय को लेकर ‘सन्ध्या क्या, क्यों, कैसे’ पुस्तक लिखी है। उसके आधार पर यहाँ हम कुछ लिखते हैं।

सन्ध्या को चार भागों में विभक्त करके देखें- 1. आचमन मन्त्र से लेकर प्राणायाम मन्त्र पर्यन्त, 2. अघमर्षण मन्त्र, 3. मनसा परिक्रमा मन्त्र और 4. उपस्थान मन्त्र। प्रथम भाग में अपने शरीर=पिण्ड में ईश्वर के गुणों का विचार करना। इन्द्रिय स्पर्श, मार्जन एवं प्राणायाम मन्त्र में इसी पर बल दिया गया है, अर्थात् शरीर, प्राण व इन्द्रियों की बलवत्ता पर बल दिया गया है। दूसरापिण्ड से आगे ब्रह्माण्ड को देखते हुए, ईश्वर का विचार करना, जो अघमर्षण मन्त्रों में हैं। पिण्ड केवल मेरा अपना है, किन्तु ब्रह्माण्ड मेरा अपना भी है और सभी प्राणियों का भी। ब्रह्माण्ड सबके साझे का पिण्ड है। तीसरा स्थूल से सूक्ष्मता की ओर लेकर जाने का है। पिण्ड और ब्रह्माण्ड ये स्थूल हैं, इन स्थूल से सूक्ष्म मन है, उस मन को सर्वत्र दौड़ाकर सर्वत्र परमेश्वर का चिन्तन करना, अर्थात् सब दिशाओं-उपदिशाओं में परमेश्वर का भान करना। चौथा मन से भी परे आत्मा को परमात्मा के निकट ले जाना, जो कि हम उपस्थान मन्त्रों के द्वारा परमेश्वर के निकट होते हैं। यह स्थिति सन्ध्या में सर्वोत्कृष्ट है। हमें इस स्थिति तक पहुँचना है, अर्थात् परमेश्वर के निकट अपनी आत्मा को ले जाना है।

अब आपकी जिज्ञासा पर विचार करते हैं। मनसा परिक्रमा मन्त्रों में जो कहा गया है कि सब दिशाओं में परमात्मा अपनी विभिन्न शक्ति स्वरूप से स्वामी है। सबके लिए नमस्कार व अपने अन्दर व अन्य के अन्दर स्थित द्वेष को दूर करने की प्रार्थना। आपका कथन है कि ‘‘इन दिशाओं, अग्नि, सूर्य, लता आदि को नमन करने का क्या भाव है?’’ इन मन्त्रों में जड़ और चेतन दोनों का ही कथन है और दोनों के लिए नमस्कार करने को कहा है। इन छः मन्त्रों में अग्नि, इन्द्र, वरुण, सोम, विष्णु और बृहस्पति, ये नाम सब दिशाओं में स्थित परमात्मा के हैं और इसी प्रकार असितः स्वजः और श्वित्र, ये नाम भी परमेश्वर के हैं। इन सभी स्वरूप वाले परमेश्वर को नमस्कार करना, अर्थात् उस परमेश्वर का समान करना, उससे यथायोग्य व्यवहार करना, अर्थात् उसकी आज्ञा का पालन करना। मन्त्रों में एक चेतन परमात्मा का वर्णन है, दूसरे चेतन पितर लोग, कीट-पतंग, विषधर प्राणी, वृक्ष-लता-बेल आदि हैं, इनको भी नमस्कार किया गया है। नमस्कार का अर्थ है- झुकना, नमन करना, यथायोग्य व्यवहार करना। इस यथायोग्य व्यवहार को लेकर जब नमस्कार को देखेंगे तो पितर, जो चेतन हैं, उनके लिए क्या व्यवहार होगा, वह हमारे सामने आ जायेगा। कीट, पतंग, विषधर प्राणी, लता, बेल, वृक्ष आदि ये हमारे लिए कितने उपयोगी हैं, इस प्रकृति के लिए कितने उपयोगी हैं, ऐसा विचार करना और इनके उपयोग को देखकर वैसा ही इसका उपयोग करना, व्यवहार में लाना, इनके लिए नमस्कार होगा और जो जड़ पदार्थ- आदित्य, अन्न, अशनि, वर्षा है, इनको भी नमस्कार अर्थात् इनका यथायोग्य उपयोग लेना, इनसे उपकार लेना, यह इनके लिए नमस्कार होगा।

कीट, पतंग, विषधर प्राणी, वृक्ष, लता, वेल, आदित्य, अन्न, अशनि, वर्षा, इषु आदि को नमस्कार करने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि इनकी जैसे पौराणिक वर्ग पूजा करता है, वैसे नमस्कारादि करना। यह व्यवहार चेतन मनुष्यों व परमेश्वर के लिए हो सकता है, अन्य के लिए नहीं।

(ख) जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है, वह पाप-पुण्य रूप कर्म दोनों ही कर सकता है। इन्हीं पाप-पुण्य रूप कर्म के आधार पर परमेश्वर जीवों को फल देता है। वर्तमान जीवन में पिछले कर्मों के आधार पर व इस जीवन में किये पुरुषार्थ से जीव भोग भोगता है। पिछले कर्म श्रेष्ठ  थे, उसके आधार पर बहुत अच्छा शरीर, परिवार, समाज आदि मिला। ये मिलने के बाद भी जीवात्मा इस जीवन में विपरीत कर्म करता हुआ दुःखी हो सकता है। भले ही पिछले कर्म अच्छे थे, किन्तु इस जीवन में उसने जघन्य पाप किये, तो वह इस जीवन व अगले जीवन में दुःख भोगेगा।

एक बात और यहाँ कह दें कि जो कुछ हम जीवन में सुख-दुःख भोगते हैं, वह सब हमारे कर्मों का फल नहीं होता। हाँ, यह अवश्य है कि सुख-दुःख फल हमारे कर्मों का होता है, किन्तु सभी सुख-दुःख हमारे कर्मों का नहीं होता। किसी अन्य व्यक्ति के कारण या प्राकृतिक आपदा के कारण भी सुख-दुःख हो सकता है।

अब आपकी बात- जिस व्यक्ति का कर्माशय सामान्य था और इस आधार पर उसको फल भी सामान्य मिलना था, किन्तु वह व्यक्ति छल, कपट, अधर्म कर-करके बहुत धनादि अर्जित कर लेता है। उस अधर्म अर्जित धन वाले व्यक्ति को दूसरे लोग देखकर यह सोचने लग जाते हैं कि धर्म करने वाला दुःखी और यह अधर्म करने वाला सुखी है। ऐसा सोचना नासमझी है, क्योंकि धर्म का फल सदा ही श्रेष्ठ और अधर्म का फल सदा विपरीत ही होता है।

जिस व्यक्ति ने अधर्म से साधन अर्जित किये हैं, निश्चित रूप से उसको आगे जो फल मिलने वाला है, वह घोर दुःख ही होगा। महर्षि दयानन्द ने इस विषय में मनु का श्लोक देते हुए लिखा है-

अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति।

ततः सपत्नाञ्जयति समूलस्तु विनश्यति।।

‘‘जब अधर्मात्मा मनुष्य धर्म की मर्यादा छोड़ (जैसे तालाब के बाँध तोड़, जल चारों ओर फैल जाता है वैसे) मिथ्याभाषण, कपट, पाखण्ड, अर्थात् रक्षा करने वाले वेदों का खण्डन और विश्वासधातादि कर्मों से पराये पदार्थों को लेकर प्रथम बढ़ता है, पश्चात् धनादि ऐश्वर्य से खान-पान, वस्त्र, आभूषण, यान, स्थान, मान, प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है। अन्याय से शत्रुओं को भी जीतता है, पश्चात् शीघ्र नष्ट हो जाता है। जैसे जड़ से काटा हुआ वृक्ष नष्ट हो जाता है, वैसे अधर्मी नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है।’’ सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 5, इसलिए अधर्मी को बढ़ते देख यह कभी न सोचें कि इसका जीवन अच्छा है, अपितु यह विचारें कि यह नादान परमेश्वर के न्याय को नहीं देख रहा, यह परमेश्वर के न्याय से कभी नहीं बच सकता। जो इसने छल-कपट से अर्जन किया है, उससे वह विशेष सुख तो नहीं ले पायेगा, अपितु परमात्मा के न्याय से उसने जो छल-कपट के कर्म किये हैं, उनका विशेष दुःख अवश्य भोगेगा। अस्तु।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

जिज्ञासा समाधान: आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा 1- योग के आठ अंगों में जिनका ‘साधन पाद’ में उल्लेख है, छठा अंग ‘धारणा’ है। उसमें मन को शरीर के किसी एक अंग- जैसे नासिका, मस्तक आदि पर स्थिर करने की बात कही है। इसी स्थान पर आगे ध्यान, समाधि लगती है, परन्तु ‘समाधि पाद’ में सप्रज्ञात समाधि के अन्तर्गत जब वितर्क रूपी स्थिति, जिसमें पृथिवी आदि स्थूल भूतों का साक्षात्कार होता है, उसमें मन को नासिका, जिह्वा आदि अलग-अलग स्थानों पर लगाने का उल्लेख है। मेरी शंका यही है कि धारणा के समय जब एक स्थान चुन लिया है तो फिर वितर्क समाधि में अलग-अलग स्थान क्यों?

आशा है, मैं अपनी जिज्ञासा को ठीक प्रकार प्रकट कर पाया हूँ। आपसे निवेदन है कि इसका समाधान देने की कृपा करें।

– ज्ञानप्रकाश कुकरेजा, 786/8, अर्बन स्टेट, करनाल, हरियाणा-132001

समाधानयोग के आठ अंगों में धारणा छठा अंग है। धारणा की परिभाषा करते हुए महर्षि पतञ्जलि ने लिखा- ‘‘देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।’’ इस सूत्र की व्याया करते हुए महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के उपासना प्रकरण में लिखा- ‘‘जब उपासना योग के पूर्वोक्त पाँचों अंग सिद्ध हो जाते हैं, तब उसका छठा अंग धारणा भी यथावत् प्राप्त होती है। धारणा उसको कहते हैं कि मन को चञ्चलता से छुड़ाके नाभि, हृदय, मस्तक, नासिका और जीभ के अग्रभाग आदि देशों में स्थिर करके ओंकार का जप और उसका अर्थ जो परमेश्वर है, उसका विचार करना।’’ धारणा के लिए मुय बात अपने मन को एक स्थान पर टिका लेना, स्थिर कर लेना है। टिके हुए स्थान पर ही ध्यान करना और वहीं पर समाधि का लगना होता है। इसके लिए महर्षि पतञ्जलि ने लिखा- ‘‘त्रयमेकत्र संयमः’’ अर्थात् धारणा, ध्यान, समाधि तीनों का एक विषय हो जाना संयम कहलाता है। इस सूत्र पर महर्षि दयानन्द ने लिखा- ‘‘जिस देश में धारणा की जाये, उसी में ध्यान और उसी में समाधि, अर्थात् ध्यान करने योग्य परमेश्वर में मग्न हो जाने को संयम कहते हैं, जो एक ही काल में तीनों का मेल होना, अर्थात् धारणा से संयुक्त ध्यान और ध्यान से संयुक्त समाधि होती है। उसमें बहुत सूक्ष्म काल का भेद रहता है, परन्तु जब समाधि होती है, तब आनन्द के बीच में तीनों का फल एक ही हो जाता है।’’ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका

धारणा+ध्यान+समाधि= संयम।

अब आपकी बात पर आते हैं, आपने जो कहा कि ‘‘……सप्रज्ञात समाधि के अन्तर्गत जब वितर्क रूपी स्थिति जिसमें पृथिवी आदि स्थूल भूतों का साक्षात्कार होता है, उसमें मन को नासिका, जिह्वा आदि अलग-अलग स्थानों पर लगाने का उल्लेख है।’’ आपकी यह बात ‘‘वितर्कविचारानन्दास्मिता…..।’’ योगदर्शन 1.17 इस सूत्र में नहीं कही गई, हाँ ‘‘विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धनी।’’ योगदर्शन 1.35 इसमें कही है। इसमें वितर्क समाधि की बात नहीं, यहाँ तो मन की स्थिरता का कारण बताया है। यहाँ कहा है- नासिकाग्र आदि स्थानों पर चित्त को स्थिर करने से उत्पन्न दिव्यगन्धादि विषयों वाली प्रवृत्ति मन की स्थिति का कारण होती है।

इस सूत्र से पहले प्राणायाम का वर्णन किया हुआ है। ऋषि ने प्राणायाम को चित्त की स्थिरता का प्रमुख उपाय कहा है, अर्थात् प्राणायाम मन स्थिर करने का प्रमुख उपाय है। अब इसके आगे मन को स्थिर करने के अन्य गौण उपाय कहे हैं, उनमें यह उपाय भी है। जब योगायासी जिह्वाग्र, नासिकाग्र आदि स्थानों पर मन को स्थिर करता है, तब दिव्यरसादि की अनुभूति होती है। यह अनुभूति रूप व्यापार सामान्य न होकर उत्कृष्ट होता है। यह प्रवृत्ति मन को एकाग्र करने में सहायक होती है और साधक का अतीन्द्रिय पदार्थों को जानने में विश्वास पैदा होता है और श्रद्धा पैदा होती है। तात्पर्य यह हुआ कि स्थान विशेष पर धारणा कर मन को स्थिर (एकाग्र) करना है।

वितर्क आदि समाधि सालब हैं। वहाँ स्थूल का आलबन करते हैं, अर्थात् नासिकाग्रादि का आलबन करना वितर्क कहलाता है। वितर्क समाधि एक-एक स्थान का आलबन करने से होती है। आपने जो पूछा- ‘धारणा के समय जब एक स्थान चुन लिया है तो फिर वितर्क समाधि में अलग-अलग स्थान क्यों?’ आप इस वितर्क समाधि के स्वरूप को समझेंगे तो आपको यह शंका नहीं होगी। वितर्क समाधि सालब समाधि है और वे आलबन स्थूल हैं, अलग-अलग हैं। अलग-अलग होने पर अलग-अलग स्थान धारणा के लिए चुने हैं।

धारणा के लिए भी ऋषि ने केवल एक ही स्थान निश्चित नहीं किया, वहाँ भी अनेक स्थान कहें हैं। अनेक में से कोई एक तो है, पर केवल एक नहीं है। जब दिव्य गन्ध की अनुभूति करनी है तो धारणा स्थल एक नासिकाग्र ही होता है, वहाँ स्थान बदले नहीं जाते। ऐसे ही अन्य विषयों में भी है। इसलिए जो अलग-अलग स्थान आप देख रहे हैं, वे अनेक विषयों को लेकर देख रहे हैं, जब एक ही विषय को लेकर देखेंगे तो अलग-अलग धारणा स्थल न देखकर एक ही स्थान देख पायेंगे।

ईश-भजन

ग़ज़ल

पाप माफ नहीं करता ईश्वर वेद में कहता है,

तो बतलाओ ईश-भजन से क्या-कुछ मिलता है?

ईश भजन करने से ऐसा साहस आ जाता,

हो पहाड़ जैसा दुःख वह भी राई लगता है।

जितनी देर भी जाकर बैठे कभी जो सत्संग में,

उतनी देर ये मन पापी चिन्तन से बचता है।

जब भी कोई सुधरा है सत्संग से सुधरा है,

मुंशीराम, अमीचन्द, मुगला साधक बनता है।

हमने रूप किया है अनुभव आज बताते हैं,

आत्मिक बल ही ईश-ाजन से दिन-दिन बढ़ता है।

– आर्य संजीव ‘रूप’, गुधनी (बदायूँ)

‘वेदों और आर्यसमाज का प्रचार और प्रभाव’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

स्वाध्याय करते समय आज मन में विचार आया कि महर्षि दयानन्द ने गुरु विरजानन्द जी की आज्ञा से अज्ञान व अन्धविश्वासों का खण्डन-मण्डन और वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रचार किया था। क्या कारण है कि इसका वह प्रभाव नहीं हुआ जो वह चाहते थे व होना चाहिये था? क्या महर्षि दयानन्द की वेदों पर आधारित मान्यतायें व सिद्धान्त दोषयुक्त वा अपूर्ण थे अथवा इसका कारण कुछ और था? इसी क्रम में यह भी बता दें कि उनके समय (1825-1883) व आज संसार में जितने भी मत-मतान्तर प्रचलित हैं, उन सबकी परीक्षा करने पर वह सभी मान्यतायें तर्क, युक्ति व वैदिक सिद्धान्तों पर सत्य सिद्ध नहीं होती। महर्षि दयानन्द द्वारा प्रोक्त वैदिक मत को सभी मत-पन्थों को साथ बैठा कर भी सत्य सिद्ध किया जा सकता है और ऐसा महर्षि दयानन्द जी ने अपने समय में बैठक, गोष्ठी, विचार-विमर्श व शास्त्रार्थ सहित अपने ग्रन्थों के लेखन आदि द्वारा किया भी है। ऐसे मत जिनमें अज्ञान, अन्धविश्वास व मानव हित के विपरीत कथन आदि हैं, इनके आचार्य और अनुयायी अपने-अपने मतों के सत्यासत्य की युक्ति व तर्क के द्वारा कभी परीक्षा ही नहीं करते जिससे उनकी सत्यता स्वतः संदिग्ध है। महर्षि दयानन्द की मान्यतायें उनके ब्रह्मचर्यादियुक्त अपूर्व पुरुषार्थ व तप सहित वेदादि ग्रन्थों के अध्ययन व सहस्रों विद्वानों व योगियों की संगति से जानकर विवेकपूर्वक निश्चित की गईं हैं, असत्य व अपूर्ण होने की सम्भावना नहीं है। वर्तमान के हम सभी आर्यों से पूर्व महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के अनेक असाधारण विद्वान हुए हैं जिन्होंने महर्षि दयानन्द की मान्यताओं का अध्ययन व परीक्षा की और उन्हें पूर्ण सत्य पाया। उन्होंने उनमें किसी संशोधन व परिमार्जन की आवश्यकता का अनुभव नहीं किया। अब भविष्य में इस कोटि के विद्वानों के होने में भी आशंका प्रतीत होती है। अतः धर्म संबंधी विषयों में उनकी मान्यतायें व सिद्धान्त ही सत्य मानने होंगे। महर्षि दयानन्द के बाद हुए वरिष्ठ विद्वानों में पं. गुरुदत्त विद्याथी, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. आयुमुनि, पं. तुलसीराम, पं. शिवशंकरशर्मा काव्यतीर्थ, पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, स्वामी सत्यानन्द, स्वामी अमर स्वामी, पं. रामचन्द्र देहलवी, पं. शान्तिप्रकाश, पं. देव प्रकाश, स्वामी सर्वदानन्द, स्वामी वेदानन्द तीर्थ, पं. भगवद्दत्त, पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, पं. युधिष्ठिर मीमांसक, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, पं. विश्वनाथ विद्यालंकार, डा. रामनाथ वेदालंकार आदि के नाम ले सकते हैं। अतः महर्षि दयानन्द व आर्यसमाज की वैदिक धर्म की विचारधारा का प्रचार और संसार के वेदेतर मतों के लोगों द्वारा उसको स्वीकार न करने के पीछे वेदों की विचारधारा व उसके सिद्धान्तों की असत्यता, न्यूवतायें व अज्ञानयुक्तता नहीं है अपितु जिन लोगों में प्रचार किया जाता है उन लोगों का अज्ञान वा मिथ्याज्ञान, अपने-अपने हित, अपात्रता, रूढि़वादिता, मत-मतान्तरों के आचार्यों वा धर्मगुरुओं का अपने अनुयायियों को आंखें बन्द कर व बिना विचार किए उनकी धर्मपुस्तकों, विचारों व मान्यताओं का पालन करने की धारणा का प्रचार है। यह तो हम सभी जानते हैं कि यदि हमारे मत पर कोई आक्षेप करता है तो हमारा सीमित ज्ञान व अध्ययन होने के कारण हम अपने विद्वानों को उनका प्रतिवाद करने के लिए कहते हैं। ऐसा ही अन्य मतों में भी होता है। वहां इतना हमसे पृथक होता है कि उन मतों के आचार्य अपनी अयोग्यता वा अपने मत की मान्यताओं की असत्यता को जानकर मौन रहते हैं और कह देते हैं कि आक्षेपकत्र्ता अनावश्यक व अन्य कारणों से आक्षेप कर रहा है व ऐसे अन्य बहाने बनाते हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने जब सत्य ज्ञान का अर्जन कर सन् 1863 से वेद प्रचार व असत्य मतों का खण्डन मण्डन आरम्भ किया तो अन्य मतों के आचार्यों व लोगों में उनके विचारों व तर्कों को सुनकर खलबली मच गई। उनके आचार्यों के पास उनके तर्क व युक्तियों का सन्तोषप्रद उत्तर नहीं था। वह प्रायः उनसे वार्तालाप व शास्त्रार्थ करने में दूर रहते थे। यदि आलोचित मत के आचार्य को कभी किसी कारणवश उनसे वार्तालाप व शास्त्रार्थ आदि करना भी पड़ा तो वह अपने मिथ्या मतों की मान्यताओं को तर्क व युक्तिपूर्वक सिद्ध नहीं कर पाते थे और अपने स्वार्थों के कारण उन्हें छोड़ भी नहीं पाते थे। वही स्थिति आज तक बनी हुई है। वर्तमान में मत-मतान्तरों के आचार्यों व उनके अनुयायियों ने अपने मत के सत्य व असत्य सिद्धान्तों की परीक्षा छोड़ ही दिया है और प्रायः सभी धन, सम्पत्ति, सुख-सुविधा रूपी भोग व अधिकारों आदि के चक्र में फंसे हुए दीखते हैं। संसार में ज्ञान-विज्ञान की उन्नति व प्रगति तभी हुई है जब यूरोप के देशों के लोगों ने वहां के धार्मिक संगठनों की मान्यताओं व सिद्धान्तों से स्वयं को पृथक कर सत्य का अनुसंधान, अध्ययन व उसके अनुसार क्रियात्मक प्रयोग किये। यदि वह अपने आप को वहां के मतों से जोड़े हुए रखते तो पश्चिम के देशों में ज्ञान विज्ञान की जो प्रगति हुई है, वह कदापि न होती। जिन देशों में यह प्रगति नहीं हुई या कम हुई है, उसका कारण भी वहां के लोगों का अपने आप को अपने-अपने मतों व धर्म की अविद्या वा अज्ञानजन्य मान्यताओं से जोड़े रखना है तथा इन मतों की अज्ञानयुक्त रूढि़यों व परम्पराओं का उन पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव होना है। अतः हमें लगता है कि सत्य वैदिक धर्म का जितना प्रचार किया जाये, अच्छा है, परन्तु उसका अपेक्षा के अनुकूल प्रभाव न होकर सीमित प्रभाव ही होगा। हमारे विगत डेढ़ शताब्दी में प्रचार से सभी धार्मिक संगठनों व मनुष्यों द्वारा वैदिक धर्म को सार्वजनिक पूर्णरूपेण स्वीकृति न तो मिली है और न निकट भविष्य में सभव प्रतीत होती है। ‘‘सत्यमेव जयते वाक्य के अनुसार सत्य में अपनी एक नैसर्गिक शक्ति होती है। यदि असत्य समाज व मनुष्यों में अपना अस्थाई रूप से स्थान बना सकता है तो सत्य भी अवश्य बना सकता है परन्तु असत्य के स्थापित व रूढ़ हो जाने पर उसको हठाने के लिए प्रयत्न व पुरुथार्थ कुछ अधिक करना पड़ता है। यह सत्य मत के प्रचारकों की योग्यता व पुरुषार्थ पर निर्भर करता है। महर्षि दयानन्द ने इस कार्य को पूर्ण योग्यता व अपने ब्रह्मचर्य के अपूर्व बल व सामर्थ्य से किया, अपने प्राण भी इस कार्य के लिए दे दिये, जिसका देश व विदेश के लोगों पर, सीमित ही सही, वरन् आशातीत प्रभाव पड़ा। इस प्रक्रिया को प्रभावशाली रूप से जारी रखना आवश्यक है।

 

अतीत में अनेक मतों के लोगों ने वेदों का अध्ययन किया है और वह इससे आकर्षित हुए हैं। कुछ ने वैदिक मत को इसकी श्रेष्ठता के कारण अपनाया भी है। वेदों व वैदिक साहित्य जिसमें महर्षि दयानन्द जी के ग्रन्थ भी सम्मिलित हैं, का जो भी मनुष्य शुद्ध हृदय से अध्ययन करता है वह इस परिणाम पर पहुंचता है कि संसार में धार्मिक जगत में आर्यसमाज द्वारा स्वीकार्य व प्रचारित वैदिक सिद्धान्त ही पूर्णतया सत्य हैं। वेद के विपरीत प्रचलित मान्यतायें लोगों को भ्रमित करती हैं और उन्हें जीवन के लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष से दूर करती हैं। हमने इस लेख में महर्षि दयानन्द द्वारा प्रचारित सत्य वेद मत के संसार में प्रसारित होने में आईं बाधाओं का संकेत कर यह बताने का प्रयास किया है कि सामान्य मनुष्यों का ज्ञान इस स्तर का नहीं होता कि वह धर्म के सभी सिद्धान्तों को पूर्णरूपेण जान व समझ सके वा जानने-समझने पर स्वीकार कर ले। इसके लिए श्रोता का स्तर वक्ता के समान व उससे कुछ कम तथा अध्येता का स्तर ग्रन्थकार के स्तर के कुछ-कुछ अनुरूप होना चाहिये। स्कूल के अध्यापक का उदाहरण भी यहां लिया जा सकता है। हम जानते हैं कि स्कूल के अध्यापक के ज्ञान का स्तर विद्यार्थियों से अधिक ही होता है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह होती है कि शिक्षक अविद्यायुक्त, स्वार्थी, हठी व प्रमादी नहीं होता। शिक्षक व पुस्तकों की बातें सत्य ही हुआ करती हैं जिसको विद्यार्थी पक्षपात रहित होकर समर्पित भाव से पढ़ता है और ऐसा करने से उसकी बौद्धिक उन्नति होती है। यदि प्राचीन काल से हमारे सभी धर्म प्रचारक व धर्मों के आचार्य शिक्षकां की तरह से ज्ञानी, निष्पक्ष, सत्य के आग्रही व विवेकशील होते तो आज संसार में इतने मत, मतान्तर वा धर्म आदि न होते जितने की आज हो गये हैं। प्राचीनकाल से अच्छे शिक्षकों व प्रचारकों की कमी का परिणाम ही वर्तमान के अविद्यायुक्त मत-मतान्तर हैं।

 

महर्षि दयानन्द व आर्यसमाज के विद्वान और अनुयायी यह जानते हैं कि उनका मत ईश्वरीय ज्ञान वेदों पर आधारित है और पूर्ण सत्य है। हमें अपने जीवनों को भी वैदिक मान्यताओं के अनुसार बनाना चाहिये। हमें भी आत्म चिन्तन कर अपने जीवन की कमियों को दूर करना चाहिये और अपने आचरण व व्यवहार पर ध्यान देना चाहिये। यदि हमारे गुण-कर्म-स्वभाव, आचरण व व्यवहार वेद और आर्यसमाज के सिद्धान्तों पर आधारित होंगे तो उनका हमारे परिवार व समाज पर भी अच्छा प्रभाव होगा। इस लेख में हमने यह विचार किया कि सत्य व ज्ञान से पूर्ण होने पर भी महर्षि दयानन्द द्वारा प्रचारित वेदमत का देश व विश्व पर अपेक्षानुरुप प्रभाव क्यों नहीं हुआ? आर्यसमाज के अन्य विद्वान भी इस विषय पर विचार कर लेखों के द्वारा आर्यजनता का मार्गदर्शन कर सकते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘ईश्वर के प्रति मनुष्य का मुख्य कर्तव्य’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 देहरादून।

 

हमें हमारे माता-पिता इस संसार में लाये। जब हम जन्में तब हमें अपना, परिवार, समाज व संसार का किंचित ज्ञान नहीं था। माता की निकटता और प्रेरणाओं से हम शनैः शनैः ज्ञान से युक्त होने लगे। माता-पिता के हमारे प्रति किए गये प्रयासों से हमें उनको व परिवार के सदस्यों को कुछ-कुछ जानने का ज्ञान व अभ्यास हुआ। आयु वृद्धि के साथ हमारा ज्ञान बढ़ता गया और हम भोजन, वस्त्र, निवास, पारिवारिक व सामाजिक लोगों के ज्ञान तक सीमित हो गये। हमने घर में किए जाने वाले पूजा आदि धार्मिक क्रियाओं को भी देख कर उनको करना आरम्भ कर दिया। हमने अपनी आंखों से पृथिवी, सूर्य, चन्द्र एवं पृथिवीस्थ अग्नि, जल, वायु, आकाश, नदी, पहाड़, वन, खेत आदि को देखा परन्तु इन सबसे हमें ईश्वर के वास्तविक स्वरुप का बोध नहीं हुआ। सभी प्राणियों की उत्पत्ति सहित संसार की रचना की ओर हमारा ध्यान ही नहीं गया। ईश्वर की कृपा से हमें एक मित्र के द्वारा आर्यसमाज का परिचय मिला, उन्होंने समाज के नियम, मान्यताओं और सिद्धान्तों के बारे में बताया और हम खाली समय में उनके साथ समाज मन्दिर जाने लगे। पता ही नहीं कब हमें ईश्वर, जीवात्मा सृष्टि विषयक अनेक सत्ताओं का तर्क युक्ति से पूर्ण सन्तोषप्रद निर्भरान्त ज्ञान हो गया। यह ज्ञान हमें विद्वानों के उपदेश व सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से प्राप्त हुआ। आज भी हम सत्यार्थप्रकाश पढ़ते हैं तो हमें हर बार कुछ नया ज्ञान प्राप्त होता है व अनुभव से हमें महर्षि दयानन्द के ज्ञान की उत्कृष्टता, पराकाष्ठा व उनकी सदाशयता का पता चलता है।

 

संसार में सभी लोगों को यह तो ज्ञान है कि हमें अच्छा भोजन करना है, स्वस्थ रहना है, धनसम्पत्ति एकत्र कर सुख भोगने हैं परन्तु ईश्वर, जीवात्मा सृष्टि विषयक यथार्थ ज्ञान इनके प्रति हमारे कर्तव्यों का ज्ञान अधिकांश को नहीं है। ईश्वर आदि के प्रति यथार्थ ज्ञान न होने के कारण प्रायः सभी मतों की रूढि़वादी सोच है। वह जितना जानते हैं व जो कुछ उनके मत की पुस्तक में लिखा है, उससे अधिक न सोचते हैं न जानना चाहते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि उनका ज्ञान अति अल्प है जिसमें मिथ्याज्ञान भी सम्मिलित है। महर्षि दयानन्द (1825-1883) इतिहास में एक अनूठे मनुष्य हुए जिन्होंने हर प्रश्न का उत्तर खोजा और अत्यन्त तप व पुरुषार्थ से प्राप्त उस दुर्लभ ज्ञान को संसार के सब मनुष्यों के कल्याणार्थ उपदेशों, लेखों वा पुस्तकों द्वारा प्रस्तुत किया। आज संसार के विरोधी मत वाले भी उनके द्वारा प्रचारित व प्रसारित मान्यताओं व सिद्धान्तों को न मानने पर भी उनमें कोई न्यूनता व त्रुटि दिखाने की स्थिति में नहीं है। वैदिक व आर्य सिद्धान्तों को न मानना उनका मिथ्याचार है। एक प्रकार से सभी मतों ने महर्षि दयानन्द अर्थात् वेदों की सभी मान्यताओं को स्वीकार कर लिया है परन्तु अज्ञान, स्वार्थ, हठ आदि के कारण वह अपने रूढि़गत विचारों से ही जुड़े हुए हैं।

 

ईश्वर है या नहीं, यदि है तो कहां है, कैसा है, आंखों से दिखता क्यों नहीं, उसको जानने व मानने से हमें क्या लाभ होगा या हो सकता है, आदि अनेक प्रश्न हैं जो पूछे जा सकते हैं। ईश्वर है या नहीं का उत्तर है कि ईश्वर अवश्य है। यह जड़-चेतन संसार व इसके नियम ईश्वर के होने का प्रमाण हैं। यदि ईश्वर न होता तो यह संसार भी न होता और हमारी आत्मा का अस्तित्व होने पर भी हमारा मनुष्यादि योनि में जन्म न हुआ होता। जीवात्माओं को प्राणी योनियों में जन्म देना ईश्वर का ही काम है, और इससे ईश्वर सिद्ध होता है। इसे कारण-कार्य सिद्धान्त कह सकते हैं। संसार का कारण ईश्वर व प्रकृति है। ईश्वर निमित्त कारण है और प्रकृति उपादान कारण है। ईश्वर के होने में अन्य अनेक प्रमाण भी है जिसे सत्यार्थ प्रकाश का स्वाध्याय कर जाना जा सकता है। ईश्वर कहां है? इसका उत्तर है कि सर्वत्र, सब जगह है अर्थात् वह आकाशवत् सर्वव्यापक है। यदि ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वत्र न होता तो भी संसार की रचना, जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार भिन्न-भिन्न प्राणियोनियों में जन्म व उनका पालन सम्भव नहीं था। अतः ईश्वर का निराकार, सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी होना तर्क व युक्ति संगत है। ईश्वर कैसा है, प्रश्न भी उत्तर का समाधान चाहता है। इसका उत्तर है कि ईश्वर आकार रहित है, उसका मनुष्य की तरह न शरीर है, न आकृति है, न रंग व रूप है। वह स्वयंभू है और उसकी सत्ता स्वयंसिद्ध है तथा वह सच्चिदानन्द (सत्य+चित्त+आनन्द) स्वरूप है। अत्यन्त सूक्ष्म अर्थात् सूक्ष्मतम् होने के कारण वह आंखों से भी दिखाई नहीं देता। इसको इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि आंखे जितने सूक्ष्म आकार को देख सकती हैं, ईश्वर उससे भी कहीं अधिक सूक्ष्म है, इसलिये वह दिखाई नहीं देता। हमारी आत्मा ईश्वर की तुलना में कम सूक्ष्म है अर्थात् ईश्वर जीवात्मा से भी अधिक सूक्ष्म है। जब हम अपनी व दूसरे प्राणियों की जीवात्माओं को ही नहीं देख सकते, तो ईश्वर का सर्वातिसूक्ष्म होने के कारण हमारी भौतिक आंखों से दिखाई देना सम्भव नहीं है। हां, उसे बुद्धि व ज्ञान से देखा, समझा व अनुभव किया जा सकता है। महर्षि दयानन्द कृत सत्यार्थप्रकाश पढ़ने से भी सभी प्रश्नों व शंकाओं का समाधान हो जाता है। ईश्वर को जानने से हमें उसके स्वरुप, गुण, कर्म व स्वभाव का ज्ञान होता है। जिस प्रकार वैज्ञानिकों ने पृथिवीस्थ पदार्थों के गुण-कर्म-स्वभाव को जानकर आज कम्प्यूटर, मोबाइल, जहाज, रेल आदि सभी वस्तुयें तथा चिकित्सा पद्धति सहित शल्य क्रिया आदि का ज्ञान उन्नत किया है, इसी प्रकार से ईश्वर को जानकर सभी दुःखों से निवृत्ति, सुखों व आनन्द की प्राप्ति और  जन्म-मरण से अवकाश अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है। अतः वैदिक धर्म व स्वामी दयानन्द प्रदत्त वैदिक साहित्य में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति विषयक मनुष्यों के लिए जानने योग्य सभी प्रश्नों का समाधान हो जाता है।

 

अब हमें मनुष्यों के ईश्वर के प्रति कर्तव्य को जानना है। ईश्वर ने जीवात्माओं को उनके पूर्व कर्मानुसार सुख व दुःख रूपी भोग प्रदान करने के लिए इस सृष्टि की उत्पत्ति की है व विगत 1.96 अरब वर्षों से वह इसका सफलतापूर्वक संचालन करने के साथ सृष्टि में जन्म लेने वाले सभी प्राणियों का पालन करता चला आ रहा है। हमें जन्म भी ईश्वर ने हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर ही दिया है। हमारा पहला कर्तव्य तो ईश्वर सहित जीवात्मा और प्रकृति के सत्यस्वरुप को जानने के लिए प्रयत्न करना है। इन्हें जानकर ईश्वर के प्रति हमारा क्या कर्तव्य है यह जानना है। इसके लिए हमारे वेद और वैदिक साहित्य से सहायता ली जा सकती है। महर्षि दयानन्द ने यह कर्तव्य बताया है और कहा कि मनुष्य को ईश्वर की प्रतिदिन प्रातः सायं सन्ध्या अर्थात् योग पद्धति से सम्यक् ध्यान उपासना करनी चाहिये। सन्ध्या में ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना की जाती है। देवयज्ञ व अग्निहोत्र में भी इसे किया जाता है। सभी शुभ-अशुभ अवसरों पर भी स्तुति-प्रार्थना-उपासना सहित यज्ञ करने का विधान किया गया है। इससे दुःखों की निवृति व सुखों की उपलब्धि होती है। सन्ध्या वा स्तुतिप्रार्थनाउपासना इसलिये की जाती है कि हम ईश्वर के जन्मजन्मान्तरों के असंख्य अगणित उपकारों के लिए कृतज्ञता व्यक्त कर उसका धन्यवाद कर सकें। इसके साथ स्तुति करने से ईश्वर से प्रीति, प्रार्थना से निरभिमानता तथा उपासना से दुर्गुण, दुव्र्यस्नों व दुखों की निवृति सहित कल्याणकारक गुण-कर्म-स्वभाव व पदार्थों की उपलब्धि वा प्राप्ति होती है। प्राचीन काल से हमारे सभी पूर्वज, ऋषि, मुनि, विद्वान, ज्ञानी, विज्ञ, विप्र ईश्वर की उपासना करते आये हैं और उनमें से महर्षि दयानन्द सहित अनेकों ने समाधि को सिद्धकर धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति की थी। हम भी यदि सन्ध्या-उपासना व यज्ञ आदि कर्मों को करेंगे तो हमें भी यह फल प्राप्त होंगे और यदि नहीं करेंगे तो हम इनसे वंचित रहेंगे। सन्ध्या व यज्ञ की विधि के लिए महर्षि दयानन्द जी की पुस्तक मंचमहायज्ञविधि तथा संस्कारविधि का अध्ययन किया जाना चाहिये।

 

आज नये आंग्ल वर्ष 2016 का प्रथम दिवस है। यदि हम इसे मनाते हैं तो आज हमें स्वयं को व ईश्वर को जानने तथा इनके प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करने का संकल्प वा व्रत लेना चाहिये। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हमें बाद में पछताना होगा। आईये, वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय तथा ईश्वर के प्रति मनुष्य के मुख्य कर्तव्य सन्ध्या व यज्ञ सहित ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना की प्रतिज्ञा करें, संकल्प व व्रत लें।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘वैदिक धर्म और आंग्ल नववर्ष २०१६’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

वर्तमान समय में हमने व हमारे देश ने आंग्ल संवत्सर व वर्ष को अपनाया हुआ है। इस आंग्ल वर्ष का आरम्भ 2015 वर्ष पूर्व ईसा मसीह के जन्म वर्ष व उसके एक वर्ष बाद हुआ था। अनेक लोगों को कई बार इस विषय में भ्रान्ति हो जाती है कि यह आंग्ल संवत्सर ही सृष्टि में मनुष्यों की उत्पत्ति व उनके आरम्भ का काल है। अतः इस लेख द्वारा हम निराकरण करना चाहते हैं कि अंग्रेजी काल गणना दिन, महीने व वर्ष की गणना के आरम्भ होने से पूर्व भी यह संसार चला आ रहा था और उन दिनों भारत में धर्म, संस्कृति व सभ्यता सारे संसार में सर्वाधिक उन्नत थी और इसी देश से ऋषि व विद्वान विदेशों में जाकर वेद और वैदिक संस्कृति का प्रचार करते थे। अब से 5,200 वर्ष हुए महाभारत युद्ध के कारण संसार के अन्य देशों में वेदों के प्रचार व प्रसार का कार्य बन्द हो जाने और साथ ही भारत में भी अध्ययन व अध्यापन का संगठित समुचित प्रबन्ध न होने के कारण भारत व अन्य देशों में विद्या व ज्ञान की दृष्टि से अन्धकार छा गया। इस अविद्यान्धकार के कारण ही भारत में बौद्ध व जैन मतों के आविर्भाव सहित विश्व के अन्य देशों में पारसी, ईसाई व मुस्लिम मतों का आविर्भाव हुआ।

 

1 जनवरी सन् 0001 का आरम्भ वर्ष ईसा मसीह के अनुयायियों द्वारा प्रचलित ईसा संवत है। इससे पूर्व वहां कोई संवत् प्रचलित था या नही, ज्ञात नही है। हमें लगता है कि इससे पहले वहां संवत् काल गणना किसी अन्य प्रकार से की जाती रही होगी। उसी से उन्होंने सप्ताह के 7 दिनों के नाम, महीनों के नाम आदि लिये और उन्हें प्रचलित किया। अंग्रेजी संवत् अस्तित्व में आने से पूर्व भारत में संवत्सर की गणना लगभग 1.960853 अरब वर्षों से होती आ रही थी। भारत में सप्ताह के 7 दिन, बारह महीने, कृष्ण व शुक्ल पक्ष, अमावस्या व पूर्णिमा आदि प्रचलित थे। नये वर्ष का आरम्भ यहां चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से होता था अब भी यह परम्परा अबाध रूप से जारी है जिसे भारत के ब्राह्मण कुलों में जन्में विद्वान आर्य लोग मानते चले रहे हैं। ऐसा लगता भी है और यह प्रायः निश्चित है कि भारत से से ही 7 दिनों का सप्ताह, इनके नाम, लगभग 30 दिन का महीना, वर्ष में बारह व उनके नाम आदि कुछ उच्चारण भेद सहित देश देशान्तर में प्रचलित थे। उन्हीं को अपना कर वर्तमान में प्रचलित आंग्ल वर्ष व काल गणना को अपनाया गया है। हमारे सोमवार को उन्होंने मूनडे (चन्द्र-सोम वार) व रविवार को सनडे (सूर्य वार) बना दिया। यह हिन्दी शब्दों का एक प्रकार से अंग्रेजी रूपान्तर ही है।

 

अंग्रेजी संवत्सर की यह कमी है कि इससे सृष्टि काल का ज्ञान नहीं होता जबकि भारत का सृष्टि संवत् सृष्टि के आरम्भ से आज तक सुरक्षित चला आ रहा है। विज्ञान के आधार पर भी सृष्टि की आयु 1.96 अरब लगभग सही सिद्ध होती है। क्या हमारे यूरोप के विदेशी बन्धुओं को आर्यों व वैदिकों के इस पुष्ट सृष्टि सम्वत् को नहीं अपनाना चाहिये था? इसे उन्होंने पक्षपात व कुण्ठा के कारण नहीं अपनाया। उनमें यह भी भावना थी कि उन्हें अपने मत ईसाई मत का प्रचार व लोगों का धर्मान्तरण करना था, इसलिए उन्होंने भारतीय ज्ञान व विज्ञान की जानबूझकर उपेक्षा की और इसके साथ ही अपने मिथ्या विश्वासों को दूसरों पर थोपने का प्रयास भी किया। यदि महर्षि दयानन्द जी का प्रादुर्भाव हुआ होता तो उनके द्वारा फैलाये गये सभी भ्रम विश्व में प्रचलित हो जाते परन्तु महर्षि दयानन्द ने अपने अपूर्व पुरुषार्थ से वैदिक काल के अनेक सत्य रहस्यों को खोज लिया और उनका डिण्डिम घोष कर भारत यूरोप के विद्वानों को हतप्रभ कर दिया।

 

भारतीय नव वर्ष चैत्र महीने की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ होता है। यही दिवस नव वर्ष के लिए सर्वथा उपयुक्त व सर्वस्वीकार्य है।  यह ऐसा समय होता है जब शीत का प्रभाव समाप्त हो गया होता है। ग्रीष्म और वर्षा ऋतुओं का आरम्भ इसके कुछ समय बाद होता है। इस नव वर्ष के अवसर पर पतझड़ व शीत ऋतु समाप्त होकर ऋतु अत्यन्त सुहावनी होती है। वृक्ष नये पत्तों को धारण किये हरे-भरे होते हैं तथा प्रायः सभी प्रकार के फूल व फल वृक्षों में लगे होते हैं, सर्वत्र फूलों की सुगन्ध से वातावरण सुगन्धित व लुभावना होता है जिसे प्रकृति का श्रृंगार कहा जा सकता है। ऐसी अनेक विशेषताओं से युक्त यह समय ही नव वर्ष के उपयुक्त होता है। हमें लगता है कि विदेशी विद्वानों के पक्षपात के कारण हम अनेक सत्य मान्यतओं को विश्वस्तर पर मनवा व अपना नहीं सकें। आज तो सर्वत्र पूर्वाग्रह व पक्षपात दृष्टिगोचर हो रहे हैं।  सर्वत्र सभी क्षेत्रों में प्रायः रूढि़वादित छाई हुई है। अब किसी पुरानी कम महत्व की परम्परा को छोड़ कर उसमें सुधार व परिवर्तन कर उसे विश्व स्तर पर आरम्भ करना कठिन व असम्भव ही है।

 

वैदिक सन्ध्या व यज्ञ दो ऐसे महत्ता से युक्त मनुष्यों के दैनिक आवश्यक कर्तव्य हैं जिनका आचरण व व्यवहार करने से मनुष्यों को अनेकानेक लाभ होते हैं। महर्षि दयानन्द जी ने बताया है कि सन्ध्या में ईश्वर का ध्यान सहित उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना की जाती है। शुद्ध शाकाहारी भोजन और विचारों की शुद्धता-पवित्रता पर ध्यान दिया जाता है। सुखासन में लगभग 1 घंटा बैठकर ईश्वर की ध्यान पद्धति द्वारा स्तुति की जाती है। स्तुति का अर्थ है ईश्वर के गुणों का ध्यान व उल्लेख करना। इससे ईश्वर से प्रेम व प्रीति होती है। प्रेम व प्रीति से मित्रता होती है और इससे वरिष्ठ मित्र से कनिष्ठ मित्र को स्तुति के अनुसार लाभ प्राप्त होता है। स्तुति से अहंकार का नाश भी होता है। स्तुति करने से मनुष्य के गुण, कर्म व स्वभाव सुधरते हैं और वह ईश्वर के कुछ-कुछ व अधिंकाश समान हो जाते हैं। हमारे सभी ऋषि व मुनि ईश्वर के गुण-कर्म व स्वभाव के अनुरूप गुणों वाले ही होते थे। स्तुति को जानने समझने व करने के लिए वेदों व वैदिक साहित्य का ज्ञान व अध्ययन भी आवश्यक है। बिना इसके ईश्वर की भलीप्रकार सारगर्भित व पूर्णता से युक्त स्तुति नहीं हो सकती। इसी प्रकार से ईश्वर से प्रार्थना का भी महत्व है। इससे भी स्तुति के समान सभी लाभ प्राप्त होते हैं और इच्छित वस्तु की ईश्वर से प्राप्ति होती है। प्रार्थना अहंकार नाश में सर्वाधिक लाभप्रद होती है। अहंकारशून्य मनुष्य ही समाज, देश व विश्व का कल्याण कर सकता है। अहंकारयुक्त मनुष्य तो अपनी ही हानि करता है, उससे दूसरों को किसी प्रकार के लाभ का तो प्रश्न ही नहीं होता। उपासना भी स्तुति व प्रार्थना को सफल करने में सहायक व अनिवार्य है। महर्षि दयानन्द इसका यह फल बताते हैं कि ईश्वर की स्तुति करने से उससे प्रीति, उस के गुण, कर्म, स्वभाव से अपने गुण, कर्म, स्वभाव का सुधारना, प्रार्थना से निरभिमानता, उत्साह और सहाय का मिलना, उपासना से परब्रह्म से मेल और उसका साक्षात्कार होना उद्देश्य पूरे होते हैं। स्तुति, प्रार्थना, उपासना वा समाधियोग से अविद्यादि मल नष्ट होते हैं। जिस मनुष्य ने आत्मस्थ होकर परमात्मा में चित्त को लगाया है उसको जो परमात्मा के योग अर्थात् सान्निध्य वा समीपता का सुख होता है, वह वाणी से कहा नहीं जा सकता क्योंकि उस आनन्द को जीवात्मा अपने अन्तःकरण से ग्रहण करता है। उपासना शब्द का अर्थ समीपस्थ होना है। अष्टांग योग से परमात्मा के समीपस्थ होने अर्थात् उपासना करने से सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामीरूप से प्रत्यक्ष करने के लिये जो-जो काम करना होता है वह वह सब को करना चाहिये। महर्षि दयानन्द एक सिद्ध सफल योगी थे। इनके ये शब्द स्वानुभूत हैं। इसके शंका संदेह का कोई कारण नहीं। यदि मनुष्य जन्म में ईश्वर व जीवात्मा के सत्य स्वरूप को जानकर उसकी योग विधि से उपासना नहीं की और ईश्वर का साक्षात्कर करने का प्रयत्न नहीं किया, तो मनुष्य कितनी ही भौतिक उन्नति कर लें, उपासना व समाधि सुख की तुलना में वह अपार भौतिक सुख हेय व निम्नतर हैं। अतः हमें विदेशी मान्यताओं को गुण-दोष के आधार पर मानने के साथ अपने पूर्वजों, ऋषि-महर्षियों की विरासत को भी, सम्भालना है वह उसे भावी पीढि़यों को सौंपना है। इस कार्य के लिए हमारे आदर्श राम, कृष्ण, दयानन्द, चाणक्य आदि हैं। उनका अध्ययन व अनुकरण कर हमें अपने जीवन को सफल करना चाहिये। यही महापुरूष विश्व-वरणीय भी हैं। यज्ञ के बारे में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि इससे वायुमण्डल व पर्यावरण शुद्ध बनता है। जीवन में सुख व आरोग्य की वृद्धि व प्राप्ति होती है। यज्ञ से हम ही नहीं अपितु यज्ञ स्थान से दूर-दूर तक के सभी प्राणी लाभान्वित व सुखी होते हैं। यज्ञ-अग्निहोत्र-हवन एक शुभ कर्म है और इसे ऋषियों द्वारा श्रेष्ठतम कर्म कहा गया है। यज्ञ न केवल हमारे वर्तमान जीवन में अपितु भावी जन्मों में भी जीवात्माओं को लाभ पहुंचाता है और इसके कर्त्ता को अगले जन्म में उन्नत मनुष्य योनि मिलने की गारण्टी देता है।

 

महात्मा ईसा मसीह बीसी 1 में पैदा हुए। उन्हीं के नाम से ईसा सम्वत् आरम्भ हुआ। 27 से 33 वर्ष का उनका जीवन होने का अनुमान है। उन्होंने जो धार्मिक विचार दिये उससे उनके देश व निकटवर्ती स्थानों पर सामाजिक परिवर्तन एवं सुधार हुए। इन सुधारों से ही उन्नति करते हुए वह आज की स्थिति में पहुंचे हैं। उनके अनुयायियों ने धर्म के अतिरिक्त अन्य जिन मान्यताओं को तर्क व युक्ति के आधार पर स्वीकार किया, वही उनकी प्रगति का आधार बना। उनकी उन्नति के प्रभाव ने ही उनके काल सम्वत् को विश्व स्तर पर स्वीकार कराने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत में भी सम्प्रति यही संवत् प्रचलित हो गया है। यत्र-तत्र कुछ प्राचीन वैदिक व सनातन धर्म के विचारों के लोग सृष्टि संवत् व विक्रमी संवत् का प्रयोग भी करते हैं जो जारी रहना चाहिये जिससे आने वाली पीढि़यां उसे जानकर उससे लाभ ले सकें। नये आंग्ल वर्ष के दिन सभी मनुष्य एक दूसरे को नये वर्ष की शुभकामनायें देते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है। शुभकामनायें तो हमें सभी को पूरे वर्ष देनी चाहिये। हमारे यहां संस्कृत का एक श्लोक खूब गाया व बोला जाता है। यह श्लोक सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।। हमें लगता है कि सबके प्रति शुभकामना करने का यह श्लोक सर्वाधिक भाव व अर्थ प्रधान वाक्य, कथन व पद्य है। पाठकों के लिए इसका पद्यानुवाद भी प्रस्तुत है। पहला पद्यानुवाद हैः सबका भला करो भगवान्, सब पर दया करो भगवान्। सब पर कृपा करो भगवान्, सबका सब विधि हो कल्याण।। दूसरा पद्यानुवादः हे ईश ! सब सुखी हों, कोई हो दुखारी, सब हों नीरोग भगवन् ! धनधान्य के भण्डारी। सब भद्रभाव देखें, सन्मार्ग के पथिक हों, दुखिया कोई होवे सृष्टि में प्राणधारी।। एक अन्य तीसरा पद्यानुवाद है सुखी बसे संसार सब, दुखिया रहे कोय, यह अभिलाषा हम सबकी भगवन् पूरी होय।। इस श्लोक के प्रतिदिन उच्चारण सहित गायत्री मन्त्र ईश्वर की स्तुतिप्रार्थनाउपासना के 8 मन्त्रों का अर्थ सहित पाठ करने से भी अनेक लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं।

 

निष्कर्ष में हम यह कहना चाहते हैं कि हमें समाज में रहना है अतः जो हमारे निकट हो रहा है हम उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते। हमें जो भी नये वर्ष की शुभकामना देता है, उसे स्वीकार करें और उसे भी अपनी शुभकामनायें दें। उनसे यह अनुरोध करें  कि वह चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के भारतीय नव वर्ष को भी इसी प्रकार से सोत्साह मनायें और अपने सभी मित्रों को इसी प्रकार से शुभकामनायें दें। आज आंग्ल वर्ष 2015 के अंतिम दिन ३१ दिसम्बर को हमने कुछ समय चिन्तन किया, उसे लेखबद्ध कर प्रस्तुत कर रहे हैं। इस अवसर पर हम सभी बन्धुओं को नये आंग्ल वर्ष 2016 की शुभकामनायें देते हैं।

 

            –मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

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‘व्रत, तप, तीर्थ व दान का वैदिक सत्य स्वरूप’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

भारत में सबसे अधिक पुरानी, आज भी प्रासंगिक, सर्वाधिक लाभप्रद व सत्य मूल्यों पर आधारित धर्म व संस्कृति ‘‘वैदिक धर्म संस्कृति ही है। महाभारत काल के बाद अज्ञान व अंधविश्वास उत्पन्न हुए और इसका नाम वैदिक धर्म से बदल कर हिन्दू धर्म हो गया। हम सभी हिन्दू परिवारों में उत्पन्न हुए और हमने महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज द्वारा प्रदर्शित वेदोक्त मार्ग का अनुसरण कर वेदाध्ययन किया और वेदों से पुष्ट मान्यताओं को ही अपनाया है। व्रत-उपवास, तप, तीर्थ व दान आदि का वैदिक स्वरुप आज भी काफी विकृत है। इनका सत्यस्वरुप बताना ही इस लेख की विषय वस्तु है जिसका उल्लेख कर रहे हैं। पहले व्रत व उपवास क्या हैं, इसको जानने का प्रयत्न करते हैं। व्रत के विषय में यजुर्वेद में एक मन्त्र आता है-ओ३म् अग्ने व्रतपते चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्। इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि। मन्त्र का अर्थ है कि हे सत्य धर्म के उपदेशक, व्रतो के पालक प्रभु मैं असत्य को छोड़कर सत्य को ग्रहण करने का व्रत लेता हूं। आप मुझे ऐसा सामर्थ्य दो कि मेरा यह असत्य को छोड़ने और सत्य को ग्रहण जीवन में धारण करने का व्रत सिद्ध सफल हो अर्थात् मैं अपने इस व्रत को पूरा कर सकूं सत्य के पालन में खरा उतरूं। यही व्रत करने वा रखने का वैदिक स्वरूप है। किसी सांसारिक मनोकामना की पूर्ति के लिए किसी विशेष दिन अन्न, जल आदि के त्याग का नाम व्रत नहीं है। पति या पत्नी की प्रसन्नता के लिए उससे सद्व्यवहार करने का संकल्प लेना तथा उसे निभाना भी व्रत है। रोगग्रस्त का उचित उपचार करवाना भी व्रत है। इसी प्रकार काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि के त्याग का संकल्प लेकर उनका पालन करना ही व्रत कहलाता है। व्रत एक प्रकार का संकल्प होता है। इसे सत्य गुणों की धारणा करना भी कह सकते हैं। यदि व्रत, संकल्प या धारणा कर ली है तो फिर उसे मन, वचन व कर्म से पूरा करने का यथाशक्ति प्रयास करना ही व्रत है।

 

तप का स्वरूप भी आजकल काफी बिगड़ा हुआ है। महर्षि दयानन्द जी ने लिखा है कि धर्म के आचरण करने में जो कठिनाईयां आती हैं उसे सहन करना, पीडि़त न होना और सत्य पालन में स्थिर रहना ही तप है। तप विद्या का पढ़ना व पढ़ाना, सज्जनों का संग करना, ईश्वर की उपासना, ब्रह्मचर्य का पालन तथा दीन दुःखियों की सेवा आदि परोपकार कर्म करते हुए जो-जो कष्ट आएं उन्हें सहते जाना परन्तु सत्कर्म से पीछे न हटना ही तप है। कुछ लोग तप के नाम पर अकारण ही अपने शरीर को अनेक कष्ट देते हैं। गर्म चिमटे से अपने शरीर को दागते हैं, महीनों खड़े रहते हैं जिससे टांगों में खून उतर आता है और वे सूजकर बहुत कष्ट देती हैं, शीतकाल में सिर पर सैकड़ों घड़े ठण्डे पानी के डलवाते हैं, सिर के बालों को कैंची से काटने की बजाए हाथ से नोचते हैं, इत्यादि। ये सब क्रियाएं न तप हैं, न धर्म।  अपितु यह पाप और हिंसा हैं। बहकावा और धोखाधड़ी हैं।

 

तीर्थ के बारे में भी हमारे लोगों में भ्रम हैं। सच्चा तीर्थ क्या होता है इसका सामान्य लोगों को तो क्या हमारे धर्म पुरोहितों तक को ज्ञान नहीं है। जो उपाय व कार्य मनुष्यों को दुःखसागर से पार उतारते हैं उन्हें तीर्थ करते हैं। विद्या-ग्रहण, सत्संग, सत्य भाषण, पुरुषार्थ, विद्यादान, जितेन्द्रियता, परोपकार, योगाभ्यास, शालीनता आदि शुभ गुण तीर्थ हैं क्योंकि इनको करके जीव दुःख के सागर से पार हो सकता है। ऐसा करके मनुष्य दुःखों से बचता भी है और इन गुणों के धारण करने से जीवन यशस्वी व सुखी बनता है। हर की पैड़ी आदि किसी जल या किसी प्रसिद्ध मन्दिर व स्थल आदि का नाम तीर्थ नहीं है। किसी समय हरिद्वार, काशी, प्रयाग, मथुरा, द्वारका आदि स्थानों पर अथवा गंगा के किनारे ऋषियों, मुनियों, योगियों और तपस्तियों के आश्रम रहे होंगे। गृहस्थी लोग उनके पास सत्संग के लिए जाया करते होंगे तथा उनके सद् उपदेशों व मार्गदर्शन के अनुसार आचरण करके अपने जीवनों को सुधारते व संवारते होगें। मांस, शराब, व्यभिचार, बेईमानी आदि बुराइयों का त्याग करते होंगे। इस कारण से इन स्थानों का नाम तीर्थ स्थान पड़ गया होगा। आजकल ऐसे स्थानों पर जाकर कोई लाभ नहीं होता अपितु समय व धन की बर्बादी के साथ कई प्रकार की हानियां ही होती है। अतः विवेकपूर्वक जल व स्थल को तीर्थ न मानकर वेदों के स्वाध्याय, सत्पुरूषों को दान, उनकी संगति, विद्या अध्ययन व प्रचार, असत्य का खण्डन व सत्य का मण्डन करना चाहिये। ऐसे कार्यों को करके ही मनुष्य जीवन उन्नत होता है। इसके विपरीत कर्म व कार्य करने से कोई लाभ नहीं होता। अतः मिथ्या कार्यों से बचना चाहिये।

 

दान का स्वरूप भी आजकल काफी बिगड़ गया है। दान अपने स्वामित्व की वस्तु व धन को दूसरे सुपात्रों को बिना अपनी किसी स्वार्थ भावना के दूसरों के हित के लिए देने को कहते हैं। कुपात्रों को धन व अन्य सामग्री का देना दान नहीं कहलाता। वेदों के अनुसार विद्या दान को सभी दानों में श्रेष्ठ माना गया है। गरीब, रोगी, अंगहीन (अपाहिज), अनाथ, कोढ़ी, विधवा या कोई भी जरूरतमन्द, विद्या और कला कौशल की वृद्धि, गोशाला, अनाथालय, हस्पताल आदि दान के लिए सुपात्र हैं। अथर्ववेद में कहा है पापत्वाय रासीय अर्थात् मैं पाप कर्म के लिए कभी दान दूं। महाभारत में युधिष्ठिर जी कहते हैं कि धनिने धनं मा प्रयच्छ। दरिद्रान्भर कौन्तेय अर्थात् हे युधिष्ठिर धनवानों को धन मत दो, दरिद्रों की पालना करो। वैदिक विद्वान श्री कृष्णचन्द्र गर्ग जी ने लिखा है कि भरे पेट को रोटी देना उतना ही गलत है जितना स्वस्थ को औषधि रोटी भूखे के लिए है और औषधि रोगी के लिए। समुद्र में हुई वर्षा व्यर्थ है। सृष्टि में ईश्वर का ऐसा नियम है कि जो कोई किसी को जितना सुख पहुंचाता है ईश्वर के न्याय से उतना ही सुख उसे भी मिलता है। इसलिए दान का उद्देश्य प्राणियों को अधिक से अधिक सुख पहुंचाना होता है। कठोपनिषद् में लिखा है कि ऐसा दान जिसके लेने से लेने वाले को सुख मिले, उस दान के देने से देने वाले को भी आनन्द नहीं मिलता। तैत्तिरीय उपनिषद में एक उपदेश में कहा गया है कि श्रद्धया देयम्। अश्रद्धया देयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भिया देयम्। सविदा देयम्। अर्थात् यदि दान देने में श्रद्धा है तो दान देना, यदि श्रद्धा नहीं भी है तो भी दान देते रहना। संसार में यश पाने के ख्याल से दान देना। दूसरे लोग दान दे रहे हैं उन्हें देखकर लज्जावश भी दान देना। इस भय से भी दान देना कि यदि नहीं दूंगा तो परलोक सुधरेगा, कमाया हुआ धन भी सार्थक होगा। इस विचार से भी दान देते रहना कि गुरु के सामने प्रतिज्ञा की थी कि दान दूंगा। दान विषयक मनुस्मृति का प्रसिद्ध श्लोक है – सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते। वार्यन्नगोमहीवासस्तिलकांचनसर्पिणाम्। यह श्लोक बताता है कि संसार में जितने दान हैं अर्थात् जल, अन्न, गौ, पृथिवी, वस्त्र, तिल, सुवर्ण, धृत आदि, इन सब दानों से वेद विद्या का दान अति श्रेष्ठ है। महर्षि दयानन्द के अनुसार बिना कुछ किए अपने निर्वाह अर्थ दूसरों से धन या पदार्थ लेना दान नहीं कहलाता, यह नीच कर्म है।

 

हमने इस लेख में श्री कृष्णचन्द्र गर्ग जी की आर्यमान्यतायें पुस्तक से सहायता ली है। इसके लिए उनका धन्यवाद करते हैं। हम आशा करते हैं कि पाठक व्रत, तप, तीर्थ व दान के सत्यस्वरूप को जानकर लाभान्वित होंगे और इससे लाभ उठायेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘सत्य के ग्रहण व असत्य के त्याग की भावना से सर्व मत-पन्थों का समन्वय ही मनुष्यों के सुखी जीवन एवं विश्व-शान्ति का आधार’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

मनुष्य के व्यवहार पर ध्यान दिया जाये तो यह सत्य व असत्य का मिश्रण हुआ करता है। जो मनुष्य सत्य व असत्य को जानता भी नहीं, वह भी सत्य व असत्य दोनों का मिला जुला व्यवहार ही करता है। शिक्षित मनुष्य कुछ-कुछ सत्य से परिचित होता है अतः जहां उसे सत्य से लाभ होता है वह सत्य का प्रयोग करता है और जहां उसे असत्य से लाभ होता है तो वह, अपनी कमजोरी के कारण, असत्य का व्यवहार भी कर लेता है। मनुष्य सत्य का ही व्यवहार करे, असत्य का व्यवहार जीवन में किंचित न हो, इसके लिए मनुष्य का ज्ञानी होना आवश्यक है। ज्ञान मनुष्य को कहां से प्राप्त होता है। इसके कई साधन व उपाय हैं जिनसे इसे प्राप्त किया जा सकता है। पहला उपाय तो सत्पुरुषों व अनुभवी विद्वानों की संगति कर सत्य ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता। संगति करने पर ज्ञानी, सत्पुरुष व अनुभवी मनुष्य अपने स्वभावानुसार अज्ञानी मनुष्यों को शिक्षा व उपदेश करते हैं जिसको स्मरण कर अभ्यास करने से मनुष्य को सत्य का ज्ञान हो जाता है। इसके साथ ही सत्य ग्रन्थों का पढ़ना भी इसमें सहायक होता है। वर्तमान आधुनिक युग की सबसे बड़ी समस्या यह है कि देश व दुनियां के लोग यह निर्धारित नहीं कर पाये हैं कि सत्य विद्याओं का ग्रहण जिसमें मनुष्यों के आचरण को भी सम्मिलित किया गया है, वह कौन कौन से ग्रन्थ हैं जो पूर्णतया सत्य हैं और कौन-कौन से ग्रन्थ हैं जिन को मनुष्य मानते हैं परन्तु उनमें सत्य व असत्य दोनों ही प्रकार के विचार, मान्यतायें, सिद्धान्त व कथन आदि विद्यमान हैं। यदि मनुष्य सत्य व असत्य का स्वरुप निर्धारण कर लेने में सफल होते और सत्य को अपने लिए पूर्ण सुरक्षित तथा असत्य को वर्तमान व भविष्य के लिए हानिकारक जान लेते और सत्य का ही आचरण करते, तो आज विश्व में सर्वत्र शान्ति व सुख का वातावरण होता। परस्पर पे्रम और सौहार्द होता, सभी दुःखियों व पीडि़तों की सेवा में अग्रसर होते और कहीं कोई विपदाग्रस्त होने के बाद शेष जीवन अज्ञान, अभाव, अन्याय व अत्याचारों से पीडि़त न होता।

 

आज के युग की सबसे बड़ी आवश्यकता यही है कि संसार के सभी मत-पन्थों-सम्प्रदायों आदि के विद्वान सभी मनुष्यों के लिए एक समान आचरण करने योग्य सत्य कर्मों व कर्तव्यों का निर्धारण करें। मत-मतान्तरों की जो शिक्षायें वर्तमान में एक दूसरे के विपरीत वा विरुद्ध हैं, उन पर गहन विचार होना चाहिये और ऐसे विचारों व मान्यताओं को त्याग देना चाहिये जिससे मनुष्यों वा स्त्री-पुरुषों में किसी प्रकार की असमानता, ऊंच-नीच, भेद-भाव, रंग-वर्ण-भेद आदि उत्पन्न होता हो। मनुष्य जीवन को स्वस्थ, सुखी तथा दीर्घायु बनाने में तथा धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति कराने में ब्रह्मचर्य का पालन किया जाना आवश्यक है। पांच ज्ञान व पांच कर्म इन्द्रियों पर सभी मनुष्यों का पूर्ण संयम वा नियन्त्रण होना चाहिये, इसे ही ब्रह्मचर्य कहा जाता है। ब्रह्मचर्य में ईश्वर को जानना और उसकी प्रेरणा को ग्रहण कर उसके अनुसार ही सत्य का आचरण करना भी ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला मनुष्य रोगी नहीं होता, स्वस्थ व सुखी होता है व उसकी आयु लम्बी होती है। अतः मत-मतान्तरों के विचारों व मान्यताओं से उपर ऊठकर सभी मत व पन्थों के मनुष्यों को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। विद्यार्थियों को ब्रह्मचर्य की अनिवार्य शिक्षा सहित हनुमान, भीष्म पितामह, भीम, महर्षि दयानन्द आदि के जीवन व आदर्शों की अनिवार्य शिक्षा भी दी जानी चाहिये और साथ हि साथ ब्रह्मचर्य का अभ्यास भी कराया जाना चाहिये। इस कारण से कि इसका पालन मनुष्य जीवन के लिए श्वांस लेने व छोड़ने के समान ही महत्वपूर्ण व उपयोगी है।

 

संसार को उत्पन्न हुए लम्बा समय हो चुका है। वेद और वैदिक धर्म संसार में सबसे अधिक प्राचीन हैं। उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में ही परमात्मा ने संसार के सभी मनुष्यों के पूर्वजों, आदि मनुष्यों वा ऋषियों को वेदों का ज्ञान देकर वैदिक धर्म को प्रवृत्त किया था। वेदों की उत्पत्ति और वैदिक धर्म की अवधि सम्प्रति 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हाजर 115 वर्ष हो चुकी है।  इस लम्बी अवधि में भारत में सहस्रों उच्च कोटि के ग्रन्थ लिखे गये जिनमें से अधिकांश ग्रन्थ नालन्दा व तक्षशिला आदि वृहद् पुस्तकालयों में सत्य व धर्म के विद्वेषी विधर्मी लोगों द्वारा अग्नि से जला दिये जाने के कारण नष्ट हो गये। इसके बावजूद आज भी देश-विदेश के अनेक पुस्तकालयों में सह्राधिक पाण्डुलियां हैं जिनका अध्ययन, अनुवाद व प्रकाशन किया जाना चाहिये। इससे अनेक नये तथ्य समाज के सम्मुख आ सकते हैं जिससे समाज व देश-विदेश के लोगों को लाभ हो सकता है। सौभाग्य से कुछ प्राचीन प्रमुख संस्कृत ग्रन्थ उनके हिन्दी-अंग्रेजी अनुवाद सहित सम्प्रति उपलब्ध हैं। इन ग्रन्थों में वेदों व उनके भाष्यों के अतिरिक्त 4 ब्राह्मण ग्रन्थ, 11 प्रमुख उपनिषदें, 6 दर्शन ग्रन्थ, मनुस्मृति, आयुर्वेद के ग्रन्थ, ज्योतिष के ग्रन्थ सूर्य सिद्धान्त आदि, श्रौत सूत्र, गृह्य सूत्र, वाल्मीकि रामायण, महर्षि वेदव्यास कृत महाभारत, महर्षि दयानन्द के सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों व अन्य सभी धार्मिक व मत-मतान्तरों के ग्रन्थों का अध्ययन कर सत्य का निर्धारण किया जा सकता है जिससे संसार के सभी मनुष्यों को सही दिशा मिल सकती है और असत्य मान्यताओं पर आधारित परस्पर के विरोध व झगड़े दूर होकर संसार के सभी लोग सुखी हो सकते हैं। ऐसा ही एक प्रयास महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में किया था और उनका ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश ऐसे ही प्रयत्नों का परिणाम है। यदि संसार के लोग सभी मतों के ग्रन्थों व वैदिक साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करेंगे तो उनको मनुष्य जीवन एवं व्यवहार-कर्तव्य-कर्म विषयक सत्य-ज्ञान अवश्य विदित हो जायेगा और ऐसा करके ही संसार के सभी मनुष्यों के जीवनों को उसके यथार्थ उद्देश्य व लक्ष्य की प्राप्ति में समर्थ बनाकर उसे क्रियात्मक रूप देने में समर्थ बनाया जा सकता है। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो संसार में समस्यायें बढ़ती रहेंगीं, परस्पर वैमनस्य रहेगा, युद्ध आदि होते रहेंगे, निर्दोष लोग काल के गाल में समाते रहेंगे और इसके साथ वह मनुष्य जीवन के मुख्य उद्देश्य व लक्ष्य मोक्ष से दूर ही रहेंगे।

 

वेद, वैदिक साहित्य और संसार के सभी मत-मतान्तरों का निष्पक्ष अध्ययन करने के बाद यही निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य सच्ची शिक्षा को ग्रहण कर ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति व मनुष्य जीवन आदि को ठीक ठीक जानना व समझना है तथा ब्रह्मचर्य से संबंधित नियमों को जानकर उनका पालन करते हुए गृहस्थ आदि आश्रमों में रहकर सद्कर्मों को करके ईश्वर के साक्षात्कार के द्वारा मोक्ष को प्राप्त करना है। हम नहीं समझते कि संसार में कोई भी मनुष्य सत्य के आचरण का विरोधी है तथापि सत्य को यथार्थ रूप से न जानने के कारण उनका व्यवहार व आचरण प्रायः सत्य के विपरीत हो जाता है। अतः विश्वस्तर पर सभी मत-मतान्तरों के ग्रन्थों के अध्ययन के साथ वेद और वैदिक साहित्य का निष्पक्ष और विवेकपूर्णक अध्ययन होना चाहिये। इस अध्ययन के परिणामस्वरुप जो उपयोगी ज्ञान व निष्कर्ष प्राप्त होते हैं, उनका प्रचार, प्रसार होने के साथ मनुष्य जीवन में उनका आचरण भी होना चाहिये। यह भी हमें जानना है कि जीवन में हमारी जितनी भी उन्नति होती है वह सत्य व्यवहार व आचरण के कारण से ही होती है। असत्य व्यवहार से भी कुछ लोग कुछ भौतिक उन्नति कर सकते हैं परन्तु वह उन्नति अस्थाई व परिणाम में अत्यन्त दुःखदायी होती है। यदि कोई व्यक्ति असत्य का आचरण कर सरकारी कानूनों से बच भी जायेगा तो जन्म-जन्मान्तर में ईश्वर के न्याय से तो उन्हें अपने कर्मों का फल भोगना ही होगा। ईश्वर के न्याय, शुभाशुभ कर्मों के सुख-दुःख रूपी फलों से बचना किसी के लिए भी सम्भव नहीं है। कर्म फल का यह आदर्श सिद्धान्त है ‘‘अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं।

 

महर्षि दयानन्द ने सत्य के महत्व पर सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में कुछ महत्वपूर्ण और उपयोगी बातें लिखी हैं। सबके लाभार्थ उन्हें प्रस्तुत कर लेख को विराम देते हैं। वह लिखते हैं कि मेरा इस (सत्यार्थप्रकाश) ग्रन्थ के बनाने का मुख्य प्रयोजन सत्यसत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है, उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाये। किन्तु जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिये वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए विद्वान आप्तों (पूर्ण ज्ञानी प्राणीमात्र के हितैषी) का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्यासत्य का स्वरूप समर्पित कर दें, पश्चात् वे स्वयं अपना हिताहित समझ कर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहें। हमें लगता है कि संसार में सभी मनुष्यों को इस पर विचार ही नहीं करना चाहिये अपितु इसमें जो निर्विवाद बातें हैं उनको उसकी भावना के अनुरूप अपनाना भी चाहिये। महर्षि दयानन्द ने आगे भी लिखा है कि मनुष्य का आत्मा सत्य असत्य का जानने वाला है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। परन्तु इस (सत्यार्थप्रकाश) ग्रन्थ में ऐसी बात नहीं रक्खी है और किसी का मन दुखाना वा किसी की हानि पर तात्पर्य (इच्छा वा भावना) है, किन्तु जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्य असत्य को मनुष्य लोग जान कर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें (इसी से संसार के लोगों की समग्र उन्नति सम्भव है), क्योंकि सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है। आशा है कि पाठक इस लेख में व्यक्त विचारों से लाभान्वित होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

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‘गोमाता, गोदुग्ध एवं गोरक्षा का महत्त्व’ -मनमोहन कुमार आर्य,

ओ३म्

ज्ञान व विज्ञान की चरम उन्नति होने पर भी मनुष्य आज भी आधा व अधूरा है। आज भी उसे बहुत सी बातों का ज्ञान नहीं है और आधुनिक विज्ञान की उन्नति ने उसे इतना अधिक अभिमानी बना दिया है कि वह किसी सत्य बात को भी मानना तो दूर, उसे सुनना भी नहीं चाहता है। यह स्थिति अनेक विषयों में है परन्तु इस लेख में हम गाय और उसके दूध की महत्ता व उपयोगिता पर कुछ चर्चा कर रहे हैं। आज भी यूरोप व मुस्लिम देशों में गोहत्या होती है और इन देशों में गाय के मांस का भक्षण भी बड़ी मात्रा में होता है। दुर्भाग्य से ऋषियों व देवों की भारत भूमि में गोहत्या का होना और यहां यूरोप व अरब आदि अनेक देशों को गोमांस का निर्यात होना दुःखद व आर्य हिन्दुओं के लिए घोर अपमानजनक कृत्य है। देश में बेरोजगारी की समस्या का एक एक मुख्य कारण गोहत्या होने के साथ गोसंरक्षण व गोसवंर्धन का न होना भी है। गोहत्या एवं गोमांस भक्षण का एक कारण, विज्ञान की उन्नति से हमारे व विदेशी बन्धुओं में अभिमान का उत्पन्न होना है जिसने उन लोगों में मानवीय संवेदनाओं, प्रेम, दया, करूणा व अंहिसा आदि को दबा वा ढक दिया है। वेदों में गाय के लिए ‘‘अघ्न्या शब्द संज्ञा व विशेषण के रूप में प्रयोग में आया है। इसका अर्थ है कि गाय अवध्य है, इसकी हत्या नहीं की जा सकती तथा गोहत्या महापाप व बुरा एवं निषिद्ध कर्म है, जैसी भावनाओं के द्योतक मन्त्र व शब्दों का प्रयोग हुआ है। ऐसी स्थिति में यदि गो की हत्या की अनुमति देने वाले व गोहत्या करने वाले व गोमांस के भक्षक देश व मानवता के विरोधी इस कार्य को नहीं छोड़ते तो गाय को माता मानने वाले और गोहत्या को देश के लिए अहितकर मानने वाले भी अपनी तर्कसंगत बात को क्यों न बुद्धिजीवियों के समाने रखें, अर्थात् अवश्य रखना चाहिये। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह लेख प्रस्तुत हैं।

 

गोमाता के महत्व के कारण ही ईश्वर ने अपने ज्ञान वेद में गो को अघ्न्या अर्थात् अवध्य, हनन न करने योग्य कह कर सभी मनुष्यों को चेतावनी व सावधान किया था। हमारे सभी ऋषि, मुनि एवं वैदिक विद्वान सृष्टि के आरम्भ से ही गोरक्षा करते आये हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जी के पूर्वज गोरक्षक थे ऐसा प्राचीन ऐतिहासिक ग्रन्थों से विदित होता है। योगेश्वर श्री कृष्ण का तो गोरक्षा व गोपालक होने के कारण एक नाम ही गोपाल पड़ गया है। उनके प्रायः सभी चित्रों में उन्हें गोमाता सहित ही दिखाया जाता है। महाभारत काल के बाद मुस्लिम व उसके बाद अंग्रेजों की गुलामी का काल रहा है। ईसा की उन्न्नीसवीं शताब्दी में महर्षि दयानन्द का आविर्भाव हुआ। उन्होंने भी गोरक्षा, गोपालन व गोसंवर्धन के महत्व को जानकर गोहत्या बन्द करने के लिए विशेष प्रयत्न व आन्दोलन किया था। गोहत्या रोकने और गोरक्षा के महत्व पर एक बहुत ही महत्वूपर्ण पुस्तक आर्यजगत के भूमण्डल प्रचारक प्रसिद्ध वैदिक विद्वान मेहता जैमिनी जी ने उर्दू में अनेक वर्षों पूर्व लिखी थी। पुस्तक महत्वपूर्ण थी परन्तु इसका हिन्दी में अनुवाद नहीं हुआ था। हमें इसके महत्व के विषय में ज्ञात हुआ तो हमने इसके लिए प्रयत्न किये। अब इस पुस्तक का हिन्दी संस्करण प्रसिद्ध विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी द्वारा अनुदित होकर आर्यसमाज के यशस्वी प्रकाशक श्री अजय कुमार द्वारा विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली उपलब्ध करा दिया गया है। यह पुस्तक गोमाता की रक्षा के महत्व पर गागर में सागर के समान है। प्रत्येक भारतीय, गोरक्षा के समर्थक व विरोधी, सभी को ज्ञानवृद्धि की दृष्टि से इसे पढ़ना चाहिये। इसी पुस्तक के दूसरे अध्याय गऊ की महिमा पर विदेशी तथा मुस्लिम विद्वानों की पूर्वाग्रह मुक्त सम्मतियां से हम कुछ प्रमुख यूरोपीय विद्वानों की सम्मितियां प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे गो की महत्ता के अनेक पक्षों पर प्रकाश पड़ता है।

 

गऊ माता विश्व की प्राणदाता पुस्तक में पहली सम्मति इसके लेखक मेहता जैमिनी ने जर्मनी के संस्कृत के एक विद्वान प्रोफेसर गेटी की दी है। प्रोफेसर गेटी ने अपनी पुस्तक प्राचीन काल के ब्राह्मणों की बुद्धिमत्ता में लिखा है कि क्या कारण है कि हम लोग तीनतीन वर्ष तक सस्कृत का अध्ययन करके प्राचीन काल के ब्राह्मणों जैसे ग्रन्थ लिखना तो दूर की बात रही उनके ग्रन्थों को समझने की भी हममें योग्यता नहीं होती? वेदान्त, योग तथा सांख्य दर्शन के समझने के लिए हमें काशी, नदिया तथा नवद्वीप के पण्डितों की शरण में जाना पड़ता है। प्रो. गेटी स्वयं ही इस प्रश्न का उत्तर देते हैं कि इन विद्वानों ने वनों, गुफाओं तथा कंदराओं में एकान्त सेवन करके गऊ के दुग्ध तथा शाक फल पर निर्वाह करके ऐसे सूक्ष्म दार्शनिक आध्यात्मिक विषयों पर चिन्तनमनन किया। इससे ज्ञात होता है कि उनके मस्तिष्क स्वच्छ पवित्र थे। परन्तु हम मांस भक्षी होकर तामसिक वृत्ति वाले बन गये हैं। अतः वे अध्यात्म में, चिन्तन तथा कल्पना शक्ति में शिखर पर थे। हम तामसिक भोजन मदिरा का सेवन करने वाले आध्यात्मिकता में उनके सामने नहीं टिक सकते। श्री गेटी आगे लिखते हैं कि जब मैंने यह पढ़ा तो विचार आया कि यही कारण है कि हिन्दू लोग आज भी मृतक भोज और मृतक श्राद्धों में बाह्मणों को खीर खिलाते हैं तथा सुख में, शोक में भी ब्राह्मणों को गोदान करते हैं। अतः भारत ने गऊ को इस कारण महत्व दिया कि इस की देन दूध तथा उससे प्राप्त होने वाले मक्खन, घृत, मलाई, दही, छाछ, पनीर, खोया, रबड़ी मानव के जीवन, मस्तिष्क, स्वास्थ्य, अध्यात्म, आचार तथा सम्पन्नता के लिए अत्यधिक आवश्यक एवं उपयोगी हैं। इसलिए आज भी बोलचाल की भाषा में भारत में धनवानों को मालदार कहा जाता है। माल का एक मुख्य अर्थ गाय, बैल, घोड़ा, भैंस, बकरी, भेड़ के हैं अर्थात् ये पशु धन प्राचीन काल में मनुष्य की सम्पन्नता की कसौटी थे।

 

भारत सरकार के कृषि विभाग के परामर्शदाता यूरोपीय विद्वान डा. हैरिसन ने शिकागो अमरीका के कृषि विज्ञान विशेषज्ञ हीन महोदय का उल्लेख कर उन्हें उद्धृत कर लिखा है कि गाय मनुष्य के लिए एक बहुमूल्य ईश्वरीय देन है। कोई भी जाति गऊ के बिना सभ्य नहीं बन सकती। गाय धरती पर सर्वोत्तम तथा लाभप्रद भोजन उपलब्ध कराती है। वह घास तथा सूखे खुरदरे पत्तों से अत्यन्त बलवर्द्धक स्वास्थ्यवर्द्धक भोजन (दूध) तैयार करती है। वह (गाय) दूध केवल अपने बच्चों तथा पालकों के लिए प्रत्युत अवशिष्ट दूध बिक्री के लिए प्रदान करती है। जहां गऊ की रक्षा तथा पालन भली प्रकार किया जाता है वहां संस्कृति विकसित होती है, भूमि उपजाऊ होती है। घरों में समृद्धि होती है तथा सिर पर ऋण नहीं चढ़ता।

 

अमरीका के सुविख्यात डाक्टर वेकफील्ड ने लिखा है कि सच पूछो तो गऊ समृद्धि और सम्पन्नता की जननी वा माता है। प्राचीन काल के हिन्दू दूध मक्खन का प्रचुर प्रयोग किया करते थे। इसलिए वे शारीरिक दृष्टि से बलिष्ठ थे। उनके मस्तिष्क बहुत उर्वरा थे। सहनशक्ति आश्चर्यजनक थी। उन्होंने संस्कृत सरीखी पूर्ण, उत्कृष्ट तथा व्यापक समृद्ध भाषा को जन्म दिया। पीढ़ी दर पीढ़ी (गुरु शिष्य परम्परा से) वेदों को कण्ठाग्र करना तथा इतने विस्तृत ज्ञान, साहित्य तथा अध्यात्मवाद का प्रसार केवल गऊदुग्ध के भोजन से ही सम्भव हो पाया। वे ज्ञान के प्रत्येक विभाग (शाखा) के मर्मज्ञ अधिकारी विद्वान् थे। विद्या ज्ञान, दर्शन, तथा अध्यात्म में, सैन्य कला तथा व्यापार में सुदक्ष थे। इन सब गुणों विशेषताओं का कारण गाय का दूध तथा फलों का प्रयोग था।

 

श्री डब्ल्यू स्मिथ सहायक निर्देशक, कृषि विभाग का कथन है कि पुराणों में जो वर्णन आलंकारिक रूप में आता है कि भूमि बैल के सींग पर खड़ी है, उसका अभिप्राय यही है कि क्योंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है, यह गाय बैल पर ही निर्भर है। यदि बैल न हों तो भारत की लहलहाती खेतियां उजड़ जायें क्योंकि हल जोतने के लिए बैल का होना आवश्यक है। इसके बिना भूमि वा खेतों की जोताई होना कठिन है। अतः गऊ को महत्व दिया गया है तथा इसके प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति के लिए एक दिन नियत किया गया है जिसे गोपाष्टमी कहते हैं। उस दिन इसके गले में पुष्प माला पहनाई जाती है। इसके सींग सजाये जाते हैं। चावल व आटे के पेड़़ो से इसकी सेवा की जाती है। अतः परमात्मा ने भारत को गाय के रूप में सर्वोत्तम देन दी है इसलिए यहां के राजे-महाराजे, ऋषि-मुनि, जनसाधारण सब गऊ का सम्मान व पालन करते चले आये हैं तथा घर में गाय का रखना अपना धर्म समझते थे। इसके साथ वह अपने घरों को समृद्ध, स्वस्थ तथा सम्पदा से भरपूर रखते थे।

 

गऊ माता विश्व की प्राणदाता पुस्तक के लेखक ने इसके दूसरे अध्याय में 5 यूरोपीय विद्वानों, इनसाईक्लोपीडिया ब्रिटेनिका से एक उद्धृण तथा 6 मुस्लिम विद्वानों के गोरक्षा के समर्थन में सबल युक्तियों से प्रस्तुत कथनों को उद्धृत किया है। लेख को अधिक विस्तार न देकर अब हम इनसाईक्लोपीडिया ब्रिटेनिका का उद्धृण प्रस्तुत करते हैं। इस ग्रन्थ में लिखा है कि यदि संसार की सभ्य जातियां पशुओं की पूजा की ओर प्रवृत हो जायें तो गऊ सर्वाधिक पूजा के योग्य होगी। ओहो ! गऊ कैसा सौभाग्य का, कल्याण का स्रोत है। वह मक्खन, पनीर, दूध, दही ही नहीं देती प्रत्युत सींग, चमड़ा, मूत्र इत्यादि जैसे उत्तम, गुणकारी और उपयोगी पदार्थ देती है। हम उसके बच्चे को लूट लेते हैं जबकि उसके लिए बहुत स्वल्प दूध छोड़ते हैं। शोक ! महाशोक !! मनुष्य कितना स्वार्थी है। इसी का परिणाम है कि बैल निर्बल शरीर वाले उत्पन्न होते हैं तथा इनका वंश बलशाली नहीं होता।

 

मेहता जैमिनी जी लिखित गऊ माता पुस्तक सभी भारतीयों मुख्यतः सभी गोभक्त, गो प्रेमियों व ऐसे सभी लोगों को जो गाय का दूध पीते हैं व प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में गाय के किसी भी उत्पाद व उत्पादों से लाभान्वित होते हैं, उन्हें इस पुस्तक को कर्तव्य रूप जानकर पढ़ना चाहिये। कृतघ्नता महापाप है। कृतघ्न मनुष्य, मनुष्यता का सबसे बड़ा शत्रु, दूषण और कलंक होता है। गाय अघ्न्या व अवध्य है और गोमांस अभक्ष्य पदार्थ है। हमारी जन्मदात्री माता और गो माता दोनों ही हमारा पालन व पोषण करती हैं। दोनों ही हमारे लिए पूज्य व सत्करणीय देवता हैं। हमें कर्तव्य को जानकर गोमाता का भी अपनी जननी माता के समान पालन व रक्षण करना चाहिये।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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उपासना क्या, क्यों व किसकी करें तथा इसकी विधि?’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

उपासना का उल्लेख आने पर पहले उपासना को जानना आवश्यक है। उपासना का शब्दार्थ है समीप बैठना। हिन्दी में हम अपने परिवार, मित्रों व विद्वानों आदि के पास बैठते हैं परन्तु इसे कोई उपासना करना नहीं कहता, यद्यपि यह उपासना ही है। उपासना शब्द सम्प्रति रूढ़ हो गया है और इसका अर्थ जन साधारण द्वारा ईश्वर की पूजा वा उपासना के अर्थ में लिया जाता है। ईश्वर की पूजा व उपासना भी वस्तुतः उपसना है परन्तु अपने परिवार, मित्रों व विद्वानों आदि के समीप उपस्थित होना व उनसे संगति करना भी उपासना ही है। अब यदि सब प्रकार की उपासनाओं पर विचार कर यह जानें कि सर्वश्रेष्ठ उपासना कौन सी होती है तो इसका उत्तर इस सृष्टि को बनाने व चलाने वाले सर्वगुण, ऐश्वर्य व शक्ति सम्पन्न ईश्वर की उपासना करना ही ज्ञात होता है। यदि मनुष्य ईश्वर की यथार्थ उपासना करना सीख जाये व करने लगे तो मनुष्य का अज्ञान, दुर्बलता व दरिद्रता दूर होकर वह भी ईश्वर की ही तरह गुणवान, बलवान व ऐश्वर्य से सम्पन्न हो सकता है। यह भी जान लें कि उपासना एक साधना है जिसके लिए तप वा पुरुषार्थ करना होता है जिसका विस्तृत निर्देश योगदर्शन व महर्षि दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों में मिलता है।

 

पहला प्रश्न है कि उपासना क्या है, दूसरा श्रेष्ठ उपासना किसकी की जानी चाहिये और तीसरा प्रश्न होता है कि उस श्रेष्ठ उपासना की विधि क्या है? पहले प्रश्न का उत्तर जानने के लिए, यह जानकर कि उपासना समीप बैठने व उपस्थित होने को कहते हैं, हमें यह जानना है कि पास बैठने का तात्पर्य क्या है? हम किसी के पास जाते हैं तो हमारा इसका अवश्य कोई प्रयोजन होता है। उस प्रयोजन की पूर्ति ही उपासना के द्वारा अभिप्रेत होती है। हम अपने परिवार के सदस्यों के पास बैठते हैं तो वहां भी प्रयोजन है और वह है संगतिकरण का। संगतिकरण में हम एक दूसरे के बारे में वा उनके सुख-दुःख वा उनकी शैक्षिक, सामाजिक स्थिति आदि की जानकारी प्राप्त करते हैं और वह भी हमारी जानकारी प्राप्त करने के साथ अपने बड़ों से उपदेश व अपनी समस्याओं का समाधान प्राप्त करते हैं। पुत्र ने पुस्तक खरीदनी है, वह अपनी माता व पिता के पास जाता है और उनसे पुस्तक खरीदने की बात बताकर धन प्राप्त करता है। यह एक सीमित उद्देश्य से की गई उपासना, प्रार्थना व उसकी सफलता का उदाहरण है। इसी प्रकार विद्यार्थी अपने विद्यालय में अपनी कक्षा में अपने गुरुओं व अन्य विद्यार्थियों की उपासना व संगति कर इच्छित विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है। वेद, ऋषियों व विद्वानों के ग्रन्थों के अध्ययन से हमने जाना कि ईश्वर ज्ञानस्वरुप, प्रकाशस्वरुप, आनन्दस्वरुप, सर्व-ऐश्वर्य-सम्पन्न, सर्वशक्तिमान तथा आदि-व्याधियों से रहित है। हमें भी अपना सम्पूर्ण अज्ञान, दरिद्रता, निर्बलता, रोग, आदि-व्याधियों, भीरुता व दुःखों का निवारण करना है और इसको करके हमें ज्ञान, ऐश्वर्य, आरोग्य वा स्वास्थ्य तथा वीरता, दया, करुणा, प्रेम, सत्य, अंहिसा, स्वाभिमान, निर्बलों की रक्षा आदि गुणों को धारण करना है। इन सब अवगुणों को हटाकर गुणों को धारण करानेवाला सर्वाधिक सरलतम व मुख्य आधार सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, निराकार, सर्वऐश्वर्यसम्पन्न व स्वयंभू गुणों से युक्त परमेश्वर है। अतः इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए हमें ईश्वर के पास जाकर अर्थात् उसकी उपासना को प्राप्त होकर इन गुणों वा शक्तियों के लिए उसकी स्तुति व प्रार्थना करनी है। इस प्रक्रिया को सम्पन्न करने का नाम ही ईश्वर की उपासना है और यही संसार विश्व में सर्वश्रेष्ठ उपासना है। ईश्वर की उपासना से पूर्व एक महत्वपूर्ण कार्य यह करना आवश्यक है कि हमें ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति के यथार्थ स्वरुप का ज्ञान प्राप्त करना है। यह ज्ञान वेदाध्ययन, ऋषि-मुनियों के ग्रन्थों 4 ब्राह्मण-ग्रन्थ, 6 दर्शन, 11 उपनिषद्, मनुस्मृति, चरक व सुश्रुत आदि आयुर्वेद के प्राचीन ग्रन्थ, वाल्मीकि रामायण व व्यासकृत महाभारत सहित महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, संस्कारविधि, व्यवहारभानु आदि ग्रन्थों का अध्ययन करने से प्राप्त होता है। इन ग्रन्थों के अध्ययन के बाद ईश्वर की उपासना करना सरल हो जाता है और इच्छित परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं। माता-पिता, अन्य विद्वानों व महिमाशाली व्यक्तियों की उपासना करना सरल है जिसे हम अपने माता-पिता व बड़ों से जान सकते हैं व सभी जानते ही हैं।

 

मनुष्य को सभी उपासनाओं में श्रेष्ठ ईश्वर की उपासना करनी है जिससे वह मनुष्य जीवन के लक्ष्य को जानकर व उसके अनुरुप साधन व उपाय कर ईश्वर को प्राप्त होकर ज्ञान, बल व ऐश्वर्य आदि धनों को प्राप्त कर अपने जीवन के उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कर सके। ईश्वर की उपासना के लिए ईश्वर के सत्य व यथार्थ स्वरुप का ज्ञान होना अनिवार्य है अन्यथा हम मत-मतान्तरों व कृत्रिम अज्ञानी गुरुओं के चक्र में फंस कर अपने इस दुर्लभ मानव जीवन को नष्ट कर सकते हैं व अधिकांश कर रहे हैं। अतः हमें मत-मतान्तरों में न फंस कर उनसे दूरी बनाकर ईश्वर प्रदत्त वेद और उस पर आधारित सत्य वैदिक साहित्य को पढ़कर ही जानने योग्य सभी प्रश्नों के उत्तर जानने चाहिये और उनको स्वयं ही तर्क व वितर्क की कसौटी पर कस कर जो अकाट्य मान्यता, युक्ति व सिद्धान्त हों, उसी को स्वीकार कर उसका आचरण, उपदेश व लेखन आदि के द्वारा प्रचार करना चाहिये।

 

हमें यह तो ज्ञात हो गया कि हमें मनुष्य जीवन के श्रेष्ठ धन वा रत्न ज्ञान व कर्मों की प्राप्ति के लिए ईश्वर की उपासना करनी है, परन्तु ईश्वर उपासना की सत्य व प्रभावकारी तथा लक्ष्य को प्राप्त कराने वाली विधि क्या है, इस पर भी विचार करना है। यद्यपि यह विधि हमारे पास उपलब्ध है फिर भी हम उस तक पहुंचने के लिए भूमिका रुप में कुछ विचार करना चाहते हैं। ईश्वर की उपासना करने के लिए हमें ईश्वर के पास बैठना है। ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी होने से सदा-सर्वदा सबको प्राप्त है और इस कारण से हर क्षण ईश्वर व सभी जीवात्माओं की ईश्वर के साथ उपासना सम्पन्न हो रही है। यह उपासना तो है परन्तु यह ज्ञान व विवेक रहित उपासना है अतः इसका परिणाम कुछ नहीं निकलता। हमारे शरीर ने ईश्वर ने हमें बुद्धि व मन दिया है। मन एक समय में एक ही विषय का चिन्तन कर सकता है, दो व अधिक का नहीं। हम प्रायः दिन के 24 घंटे ससार वा सांसारिक कार्यों से जुड़े रहते है, अतः संसार, समाज व परिवार की उपासना ही कर रहे होते हैं। ईश्वर की उपासना के लिए हमें इन उपासनाओं से स्वयं को पृथक कर अपने मन को सभी विषयों से हटा कर केवल और केवल ईश्वर पर ही केन्द्रित करना होता है। मन चंचल है अतः मन को साधने अर्थात् उसे ईश्वर के गुणों व कर्मों में लगाने अर्थात् उनका ध्यान करने के लिए निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता है। नियत समय पर प्रातः सायं अभ्यास करने से मन धीरे-धीरे ईश्वर के गुणों व स्वरुप में स्थिर होने लगता है। इसके लिए शरीर का स्वस्थ होना और मनुष्य का अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, वेद व सत्य वैदिक ग्रन्थों का स्वाध्याय तथा ईश्वर-प्रणिधान से युक्त जीवन व्यतीत करना भी आवश्यक है। इसकी अनुपस्थिति में हमारा मन ईश्वर में निरन्तर स्थिर नहीं होता व रहता। अतः योगदर्शन का अध्ययन कर इस विषय में विस्तृत ज्ञान प्राप्त कर उसके अनुरुप जीवन व्यतीत करना चाहिये। ऐसा करने पर जब हम ईश्वर की उपासना के लिए आसन में स्थित होकर ईश्वर के गुणों व कर्मों के ध्यान द्वारा उपसना करेंगे और ऐसा करते हुए उससे जीवन को श्रेष्ठ मार्ग में चलाने और गलत मार्ग से हटाने की प्रार्थना सहित सभी दुर्गुण, दुव्यस्न और दुःखों को दूर करने और जो कुछ भी हमारे लिए श्रेष्ठ और श्रेयस्कर गुण-कर्म और स्वभाव हैं, उनको प्रदान करने की प्रार्थना करेंगे तो हमारी प्रार्थना व उपासना निश्चय ही सफल होगी। ईश्वर की इसी स्तुति-प्रार्थना-उपासना को यथार्थ रुप में सम्पादित करने के लिए महर्षि दयानन्द ने ‘‘सन्ध्योपासना विधि लघु ग्रन्थ की रचना की है जो आकार में लघु होने पर भी मनुष्य के जीवन के लक्ष्य को पूरा करने में कृतकार्य है। इसका अध्ययन कर व इसके अनुसार ही सन्ध्योपासना अर्थात् ईश्वर का भली-भांति ध्यान व उपासना सभी मनुष्यों को करनी चाहिये और अपने जीवन को सफल करना चाहिये। यह सन्ध्याविधि वेद व ऋषि-मुनियों के प्राचीन ग्रन्थों पर आधारित है। महर्षि दयानन्द जी के बाद इस संध्योपासनाविधि में विद्वानों द्वारा कहीं कोई न्यूनता व त्रुटि नहीं पाई गई और न भविष्य में इसकी सम्भावना ही है। अनेक पौराणिक विद्वानों ने भी इस विधि को अपनाया है। अतः स्तुति, प्रार्थना व उपासना के ज्ञान व विज्ञान को जानकर सभी मनुष्यों को एक समान विधि, वैदिक विधि से ही ईश्वर की उपासना करने में प्रवृत्त होना चाहिये जिससे लक्ष्य व आशानुरुप परिणाम प्राप्त हो सके। अशिक्षित, अज्ञानी साधारण बुद्धि के लोग, जो उपासना को ज्ञान, चिन्तनमननध्यान पूर्वक सश्रम नहीं कर सकते, वह गायत्री मन्त्र के अर्थ की धारणा सहित एक मिनट में 15 बार मन में बोल कर उपासना कर किंचित लाभान्वित हो सकते हैं। यह कार्य दिन में अनेक अवसरों पर सम्पन्न किया जा सकता है। यह भी सरलतम अल्पकालिक उत्तम उपासना ही है जो भविष्य में दीर्घावधि की उपासना की नींव का काम कर सकती है। मनुष्य जीवन में ईश्वर को प्राप्त करने का उपासना ही एक वैदिक व सत्य मार्ग हैं जिससे सभी को लाभ उठाना चाहिये। ओ३म् शम्।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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