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आज 23 दिसम्बर को 90 वें बलिदान दिवस पर ‘स्वामी श्रद्धानन्द का महान व्यक्ति और कार्य भावी पीढि़यों के लिए प्रेरणा’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

वैदिक धर्म व संस्कृति के प्रेमी, समाज सुधारक, विश्व-प्रसिद्ध संस्था गुरुकुल कांगड़ी के संस्थापक और शिक्षा शास्त्री, स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणीय नेता, हिन्दुओं के रक्षक, शुद्धि आन्दोलन के प्रणेता और शीर्ष नेता, धर्मोपदेशक, साहित्यकार स्वामी श्रद्धानन्द जी का आज नब्बेवां बलिदान दिवस है। 26 दिसम्बर, 1926 को 71 वर्ष की आयु में आज के ही दिन एक षड़यन्त्र के अन्तर्गत एक विधर्मी ने उन्हें रुणावस्था में धोखे से गोली मार कर शहीद कर दिया था। स्वामीजी का जीवन प्राचीन शास्त्रीय गुरुकुल शिक्षा पद्धति के पुनरुद्वार सहित ईश्वर प्रदत्त वेद द्वारा प्रचलित ज्ञान व विज्ञान पूर्ण मान्यताओं एवं सिद्धान्तों से युक्त सत्य वैदिक धर्म के प्रचार व प्रसार एवं हिन्दु जाति के संगठन व सुधार के कार्यों के लिए समर्पित था। आज उनके बलिदान दिवस पर उनको श्रद्धाजंलि प्रस्तुत करते हुए हम उनके समय की देश की प्रख्यात हस्तियों द्वारा उनको दी गई श्रद्धाजंलियों के माध्यम से उनके व्यक्तित्व व कृतित्व को जानने व जनाने का प्रयास कर रहे हैं।

 

संयुक्त प्रान्त (वर्तमान का उत्तर प्रदेश) के छोटे लाट सर जेम्स मेस्टन ने गुरुकुल वृन्दावन में संवत् 1923 में दिये अपने भाषण में उनके विषय में कहा था कि ‘मैंने शीघ्र ही आपकी मुख्य और पुरानी गुरुकुल कांगड़ी और उसी समय आपके नेताओं और मित्रों में से बहुतों से परिचय लाभ किया। इसी समय महात्मा मुंशीराम जी से मेरा परिचय हुआ। मुझे विश्वास है कि उनका विनय मेरे लिये प्रबल हेतु है कि उक्त नामी सज्जन के विषय में जो सम्मति मैंने स्थिर की है, उसे मैं प्रकट करूं। पर उनके भावों का सत्कार करते हुए निःसंकोच इतना अवश्य कहूंगा कि एक मिनिट भी उनके साथ रहते हुए उनके भावों की सत्यता और उनके उद्देश्यों कि उच्चता को अनुभव करना असम्भव है। दुर्भाग्यवश हम सब मुंशी नहीं हो सकते।

 

मौलाना मुहम्मद अली ने उनके विषय में लिखा है कि उनका (स्वामीजी का) मुख्य कार्य उनके धर्म-संगठन के सम्बन्ध में था और उस बारे में शंका नहीं की जा सकती। फिर भी इतना तो सही है ही कि वे जिसे अपना धर्म मानते थे, उसके लिये काम करने में उन्होंने उल्लेखनीय लगन दिखायी थी। उनकी हिम्मत के बारे में शंका ही नहीं थी। साहस और शौर्य के वे मिश्रण थे। गोरखों की संगीनों के सामने अपनी छाती खोल देने वाले उस बहादुर देश प्रेमी का चित्र अपनी नजर के सामने रखना मुझे बहुत अच्छा लगता है। ऐसी उम्दा मौत के मिलन से उन्हें तो कुछ नहीं लगता, मगर हमारे लिये यह महान् दुःखदायक घटना है।

 

पं. मदन मोहन मालवीय हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध नेता थे। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना सहित देश की आजादी में उनका उल्लेखनीय योगदान था। उन्होंने स्वामी श्रद्धानन्द जी के प्रति अपने भावों को प्रकट करते हुए लिखा है कि ‘हमारे परम देशभक्त और हिन्दू जाति के परम सेवक श्रद्धानन्द जी का देहान्त एक पतित पुरुष के हाथ से हुआ है। स्वामी जी इस देश के एक चमकते तारे थे। इनका देश-प्रेम 40 वर्ष से सरकार को विदित है। पहले तो वे वकालत करते थे। 20 वर्ष पहले इन्होंने गुरुकुल कांगड़ी स्थापित किया और उस संस्था को अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया। इनकी देश-भक्ति कैसी थी, इसका स्मरण कराने की जरूरत नहीं। आपको पता ही होगा कि दिल्ली में छाती खोलकर के बन्दूकों के सामने खड़े रहे थे। हिन्दू महासभा के काम में वे बड़ा भाग लेने वाले थे। शुद्धि के तो वे आचार्य ही थे। हजारों मलकानों को उन्होंने हिन्दू बनाया था। स्वामी जी को शुद्धि और संगठन की चिन्ता थी। 71 वर्ष की उम्र के ऐसे स्वामी को कोई मार डाले, यह लज्जा और शोक की बात है।

 

स्वामीजी के लिए तो यह बड़ी बात थी, क्योंकि उनकी ऐसी मृत्यु हिन्दू धर्म के मृत शरीर में नया प्राण-मन्त्र फूंकने जैसा है। ….इस प्रकार दिल्ली में हमारे एक प्रधान नेता ने धर्म की खातिर अपने प्राण दिये हैं। स्वामी श्रद्धानन्द भी ऐसे ही दूसरे शहीद हुए हैं। ये किसी धर्म के साथ वैर नहीं रखते थे। हिन्दुओं की सेवा करते थे। इससे हमें क्या सीखना है? जैसे तेगबहादुर की मृत्यु से हिन्दूजाति में जागृति आयी थी और औरंगजेब का जोर टूटा था, वैसे ही हमें यह चीज सीखनी है कि हिन्दूजाति का प्रत्येक मनुष्य शुद्धि और संगठन के काम में लग जाये।

 

स्वामी जी का दूसरा उपदेश यह है कि ऐसे काम में किसी भी प्रकार का डर न रखा जाये। उन्होंने शुद्धि के काम में डर नहीं रखा। इतना ही नहीं, परन्तु जरा भी अन्याय नहीं किया। वे कहते थे कि मुसलमान को हिन्दू बनाने का प्रत्येक हिन्दू को अधिकार है। मैं तो कहता हूं कि यह तबलीग (धर्म परिवर्तन या भ्रष्ट करने का आन्दोलन) सर्वथा बन्द हो जाये। ईसाई भी यह काम बन्द कर दें। मगर जब हजारों मुसलमान और ईसाई हिन्दुओं को धर्मभ्रष्ट करने को बैठे हैं, तब कोई हमें यह नहीं कह सकता कि हिन्दुओं की शुद्धि नहीं करनी चाहिये। अलबत्ता ऐसा करने में हम किसी के प्रति अन्याय करें, यह बात स्वामी जी हमेशा करते थे और यह भी कहते थे कि यह आन्दोलन राष्ट्रीय एकता का विरोधी नहीं होना चाहिये। घोर पाप होता हो तो भी हिन्दू अपने धर्म में दृढ़ रहे और बदला लेने का पाप न करें। भविष्य में किसी दिन हिन्दू-संतान की निन्दा हो, ऐसा नहीं होना चाहिये। स्वामी जी के शोकयुक्त अवसान का स्मारक किस ढंग से बनाये? एक दिन नियत किया जाये, जब सभी मिलें और उनके नाम से एक कोष बनाया जाये। उनके जाने से उनके साथ का हमारा सम्बन्ध टूट नहीं गया। वे अभी जिन्दा हैं।

 

सुप्रसिद्ध राष्ट्रीय कवि श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर ने स्वामी श्रद्धानन्द जी का स्मरण करते हुए कहा है कि हमारे देश में जो सत्य-व्रत को ग्रहण करने के अधिकारी हैं एवं इस व्रत के लिये प्राण देकर जो पालन करने की शक्ति रखते हैं, उनकी संख्या बहुत ही कम होने के कारण हमारे देश की इतनी दुर्गति है। ऐसी अवस्था जहां है, वहां स्वामी श्रद्धानन्द जैसे इतने बड़े वीर की इस प्रकार मृत्यु से कितनी हानि हुई होगी, इसका वर्णन करने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु इनके मध्य एक बात अवश्य है कि उनकी मृत्यु कितनी ही शोचनीय हुई हो, किन्तु इस मृत्यु ने उनके प्राण एवं चरित्र को उतना ही महान बना दिया है।

 

देश के सर्वोतम एवं महान नेता, भारत के प्रथम गृहमन्त्री और उपप्रधानमंत्री सरदार बल्लभभाई पटेल ने स्वामी श्रद्धानन्द जी का स्मरण करते हुए लिखा है कि स्वामी श्रद्धानन्द जी की याद आते ही 1919 का दृश्य मेरी आंखों के सामने खड़ा हो जाता है। सरकारी सिपाही फायर करने की तैयारी में है। स्वामी जी छाती खोल कर सामने जाते हैं और कहते हैं, लो, चलाओ गोलियां। उनकी उस वीरता पर कौन मुग्ध नहीं हो जाता? मैं चाहता हूं कि उस वीर संन्यासी का स्मरण हमारे अन्दर सदैव वीरता और बलिदान के भावों को भरता रहे।

 

उपन्यास सम्राट मुन्शी प्रेमचन्द ने उनको स्मरण कर लिखा है कि यों तो स्वामी जी प्राचीन आर्य आदर्शों के पूर्ण रूप में प्रवर्तक थे, पर मेरे विचार में राष्ट्रीय शिक्षा के पुनरुत्थान में उन्होंने जो काम किया है उसकी कोई नजीर नहीं मिलती। ऐसे युग में जब अन्य बाजारी चीजों की तरह विद्या बिकती है, यह स्वामी श्रद्धानन्द जी का ही दिमाग था जिसने प्राचीन गुरुकुल प्रथा में भारत के उद्धार का तत्व समझा। ….समय उनके अनुकूल न था, विरोधियों का पूछना ही क्या, चारों तरफ बाधायें ही बाधायें। पर वे जितने आदर्शवादी थे, उतने ही हिम्मत के धनी थे। किसी बात की परवाह न करते हुये गुरुकुलों की स्थापना कर दी।

 

पादरी सी.ए्फ. एण्ड्रूज व स्वामीजी में गहरे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। उनकी दृष्टि में इस जीवन में बहुत कम ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें मैं उतना प्रेम करता हूं जितना स्वामी श्रद्धानन्द जी को करता था। हमारी स्वच्छ, निर्मल तथा प्रगाढ़़ मैत्री में कदाचित् ही धुन्धलापन आया हो। उनके उच्च चरित्र की ही महत्ता थी जिसने उनके प्रति मेरे प्रेम को सच्चा और गहरा बनाया था। यह जानकर मैं बहुत प्रसन्न होता था कि स्वामी जी मुझ से प्रेम करते हैं। ….स्वामी श्रद्धानन्द एक अत्यन्त स्निग्ध और उदार हृदय रखते थे। जब कभी गरीबों, दुःखियों और दलितों के नाम पर उनके हृदय को अपील की जाती थी तो वह अपील उनके लिए अपरिहार्य हुआ करती थी। इसलिये जबजब बलिदान जयन्ती आये तबतब उनके सच्चे प्रेमियों का ध्यान गरीबों की ओर, जिन्हें वह प्यार करते थे, जाना चाहिये और उन गरीबों को भी परमात्मा के बच्चे समझना चाहिये।स्वतन्त्रता आन्दोलन की प्रसिद्ध नेत्री श्रीमती सरोजिनी नायडू ने स्वामी के विषय में लिखा है कि मेरी स्मृति और मेरे अनुराग के आराध्य देवता स्वामी श्रद्धानन्द वर्तमान संतति के सम्मुख एक ऐतिहासकि मूर्ति के रूप में विराजमान हैं। मैं सदैव अनुभव करती हूं कि स्वामी श्रद्धानन्द भारत के वीरकाल की एक दिव्य विभूति थे। अपनी भव्य-मूर्ति और ऊंचे व्यक्तित्व के द्वारा वह अपने साथियों में देवता की नाई रहा करते थे। वह अपने जीवन की शहादत की अन्तिम घडि़यों तक साहस और कर्मयोग की अनुपम मूर्ति रहे और भारतीय जीवन के धार्मिक व आध्यात्मिक क्षेत्र में और राष्ट्र सुधार के कार्यों में इन गुणों का सुन्दर परिचय देते रहे। गानव-समाज की सेवा के सम्बन्ध में उनके उच्च भावों का मैं बहुत आदर करती हूं।’

 

भारत की आजादी के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित करने वाले जीवित शहीद, अंग्रेजों द्वारा दो जन्मों के कारावास की सजा से दण्डित वा पुरस्कृत तथा काला पानी में रहकर जिन्होंने अनेक इतिहास नया इतिहास रचा, उस भारत माता के वीरसपूत वीर विनायक दामोदर सावरकर ने स्वामी श्रद्धानन्द को अपनी श्रद्धाजंलि में कहा है कि इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि हमारे श्रद्धेय स्वामी श्रद्धानन्द ने हिन्दू-जाति पर तथा हिन्दुस्तान की बलि-वेदी पर अपने जीवन की आहुति दे दी। उनका सम्पूर्ण जीवन विशेषकर उनकी शानदार मौत हिन्दू-जाति के लिये एक स्पष्ट सन्देश देतती है। ……हिन्दू-राष्ट्र के प्रति हिन्दुओं का क्या कर्तव्य है-इसे मैं स्वामी जी के अपने शब्दों में ही रखना चाहता हूं। सन् 1926 के 29 अप्रैल के ‘‘लिबरेटन” पत्र में वे लिखते हैं–‘‘स्वराज्य तभी सम्भव हो सकता है जब हिन्दु इतने अधिक संगठित और शक्तिशाली हों जाएं कि नौकरशाही तथा मुस्लिम धर्मोन्माद का मुकाबला कर सकें।” उपर्युक्त उद्धरण से हिन्दू जाति की तीव्र मांग का पता चल सकता है और विशेषकर ऐसे नाजुक समय में जबकि इस पर चारों ओर से आघात और आक्रमण हो रहे हों।

 

लेख को और अधिक विस्तार न देते हुए निवेदन है कि हमें स्वामी श्रद्धानन्द जी के व्यक्तित्व व कृतित्व को समझने के लिए उनकी आत्मकथा तथा उनके ग्रन्थों के संग्रह ‘‘श्रद्धानन्द ग्रन्थावली का अध्ययन करना चाहिये। यह अध्ययन हमारे जीवन का कर्तव्य निर्धारित करने में निश्चय ही सहायक हो सकता है। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपने जीवन में जो महान कार्य किए उनके कारण उनका यश सदैव विद्यमान रहेगा और भावी पीढ़ी उनसे प्रेरणा ग्रहण कर उनके विचारों के अनुरुप देश का निर्माण करने में अपने कर्तव्य का पालन करेंगे, इन्हीं शब्दों के साथ लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘महान आर्य संन्यासी स्वामी श्रद्धानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

वैदिक धर्म एवं संस्कृति के उन्नयन में स्वामी श्रद्धानन्द जी का महान योगदान है। उन्होंने अपना सारा जीवन इस कार्य के लिए समर्पित किया। वैदिक धर्म के सभी सिद्धान्तों को उन्होंने अपने जीवन में धारण किया था। देश भक्ति से सराबोर वह विश्व की प्रथम धर्म-संस्कृति के मूल आधार ईश्वरीय ज्ञान ‘‘वेद के अद्वितीय प्रचारकों में से एक थे। शिक्षा जगत, राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन, समाज व जाति सुधार, बिछुड़े हुए धर्म बन्धुओं की शुद्धि, दलितों के प्रति दया से भरा हृदय रखने वाले तथा उनकी रक्षा में तत्पर, आर्यसमाज के महान नेताओं में से एक, आदर्श सद्गृहस्थी, कर्तव्य पालन में अपना सर्वस्व व प्राण समर्पित वाले अद्वितीय महापुरुष थे। उनका व्यक्तित्व ऐसा है कि जिसे जानकर प्रत्येक सात्विक हृदय वाला व्यक्ति उनका अनुयायी बन जाता है। महर्षि दयानन्द के बाद आर्यसमाज और देश में उनके समान गुणों वाला व्यक्ति उत्पन्न नहीं हुआ। प्रसिद्ध आर्य वैदिक संन्यासी स्वामी डा. सत्य प्रकाश सरस्वती ने उनसे सम्बन्धित अपने कुछ संस्मरणों को प्रस्तुत करने के साथ उनके कार्यों पर अपनी राय भी दी है। इसी पर आधारित हमारा यह लेख है।

 

सन् 1916 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अवसर पर लखनऊ में स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती ने महात्मा मुंशीराम  के दर्शन किए थे। 1914-15 में महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत आये थे और जनता में गांधी जी की लोकप्रियता बढ़ रही थी। नरम दल के नेता कांग्रेस से अलग हो गए थे और उन्होंने अपनी आल इण्डिया लिबरल फैडरेशन संघटित करना आरम्भ कर दिया था। गरम दल के व्यक्तियों के हृदय सम्राट् लोकमान्य तिलक जी थे। 8 अप्रैल, 1915 को गुरुकुल कांगड़ी में महात्मा मुंशीराम के आश्रम में मिस्टर गांधी आये और ‘‘महात्मा गांधी बन करके वहां से निकले। महात्मा मुंशीराम जी ने ही गांधी जी को गुरुकुल में पधारने पर पहली बार उनको महात्मा शब्द से सम्बोधित किया था, यह महात्मा शब्द इसके बाद आजीवन उनके नाम के साथ जुड़ा रहा। यही गांधी जी के महात्मा गांधी बनने का इतिहास है। सन् 1916 की कांग्रेस में स्वामी सत्यप्रकाश जी ने गांधी जी और मंुशीराम जी दोनों को राष्ट्रभाषा हिन्दी सम्बन्धी एक समारोह में देखा था। दोनों की वेशभूषा की रूपरेखा बराबर उनकी आंखों के समाने बनी रही, ऐसा उन्होंने अपने लेख में वर्णित किया है। तब वहां महात्मा मुंशीराम जी भव्य दाढ़ी, सुदृढ़ शरीर और गले के नीचे पीत वस्त्र तथा गांधी जी अपनी काठियावाड़ी पगड़ी, अंगरखा और नंगे पैर उपस्थित थे। इसके बाद स्वामी सत्यप्रकाश जी प्रयाग आ गये। वहां आर्यकुमार सभा के उत्सव पर स्वामी श्रद्धानन्द जी आये थे और तब स्वामी सत्यप्रकाश जी ने उन्हें निकट से देखा। स्वामी श्रद्धानन्द जी को प्रयाग में नयी सड़क के एक दुमंजिले मकान में ठहराया गया था।

 

स्वामी सत्यप्रकाश जी ने यह भी वर्णन किया है कि 26 दिसम्बर 1919 को अमृतसर कांग्रेस में स्वामी श्रद्धानन्द स्वागताध्यक्ष थे और पं. मोतीलाल नेहरू अध्यक्ष। किम्वदन्ती है कि दोनों ने एक-दूसरे को पहचाना–दोनों सहपाठी थे बनारस, इलाहाबाद, आगरा या बरेली में से किसी स्थान पर। महात्मा मुंशीराम जी की प्रारम्भिक शिक्षा बरेली में हुई, 1873 में उच्च शिक्षा क्वीन्स कालेज बनारस में, 1880 और पुनः 1888 में कानूनी शिक्षा लाहौर में। महात्मा मुंशीराम जी का नाम श्रद्धानन्द संन्यास के बाद पड़ा। संन्यास उन्होंने 12 अप्रैल 1917 को मायापुर (कनखल) में लिया था। स्वामी सत्यप्रकाश जी सन् 1915-16 में इन्द्र विद्वद्यावाचस्पति और पौराणिकों की बातें सुना करते थे, क्योंकि 1912-16 तक सनातन धर्म सभाओं की बड़ी धूम थी–ये सनातन धर्म सभाएं धीरे-धीरे निष्क्रिय हो गयीं।

 

स्वामी सत्यप्रकाश जी ने अपने संस्मरणों में बताया है कि सन् 1925 ई. में मथुरा में जो महर्षि दयानन्द जन्म शताब्दी मनायी गयी थी उसके अध्यक्ष स्वामी श्रद्धानन्द थे–तब तक उनका स्वास्थ्य गिर चुका था और महात्मा नारायण स्वामी जी वस्तुतः उस समारोह के कार्यकर्त्ता अध्यक्ष थे। आनन्द भवन में होने वाली कांगे्रस की बैठकों में 1922 ई. के बाद भी स्वामी जी इलाहाबाद कतिपय बार आये। 1921 ई. के अप्रैल मास में पं. मोतीलाल जी की पुत्री विजयलक्ष्मी के विवाह में भी स्वामी श्रद्धानन्द जी सम्मिलित हुए थे पर मोपला काण्ड (मालाबार, केरल) के बाद श्रद्धानन्द जी कांग्रेस से धीरे-धीरे अलग हो गये। स्वामी दयानन्द ने मृत्यु के समय आर्यसमाज का नेतृत्व किसी व्यक्ति के हाथ में नहीं छोड़ा था। ईश्वर के भरोसे मानों वे चल दिये। 1883 ई. के बाद स्वयं ही आर्यसमाज में व्यक्तियों का प्रादुर्भाव हुआ। इन व्यक्तियों में श्रद्धानन्द का इतिहास ही आर्यसमाज का इतिहास है। इस युग के अन्य लोगों में महात्मा हंसराज, पं. गुरुदत्त, पं. लेखराम, लाला लाजपतराय, स्वामी दर्शनानन्द और स्वामी नित्यानन्द का भी अभूतपूर्व व्यक्तित्व था।

 

स्वामी सत्यप्रकाश जी के अनुसार स्वामी श्रद्धानन्द ने इस शती के प्रथम पाद में भारत के इतिहास में मार्मिक भूमिका निभायी। आर्यसमाज में दयानन्द के बाद श्रद्धानन्द-सा दूसरा व्यक्ति देखने में नहीं आया। स्वामी सत्यप्रकाश जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी की 1924 ई. में प्रकाशित कल्याणमार्ग का पथिक आत्मकथा को पढ़ा, उनके पास उनका और गुरुकुल कांगड़ी में श्रद्धानन्द जी सहयोगी आचार्य रामदेव जी द्वारा सम्पादित आर्यसमाज एण्ड इट्स डिटैक्टर्स विण्डिकेशन प्रसिद्ध ग्रन्थ था। दुःखी दिल की पुरदर्द दास्तान उन्होंने नहीं पढ़ी। ( उर्दू में लिखित यह ग्रन्थ आर्यसमाज के आन्तरिक विग्रह की कष्ट कथा है।  इसका अनुवाद हरिद्वार निवासी हिन्दी कवि श्री सुमन्त सिंह आर्य ने किया है जो प्रकाशन की प्रतीक्षा में है। कुछ विद्वान इसमें समाहित आलोचनाओं के कारण इसके प्रकाशन की आवश्यकता नहीं समझते। हमारी अनुवादक महोदय से भेंट हुई है। उन्होंने बताया कि यह ग्रन्थ उन्होंने प्रकाशनार्थ आर्यविद्वान डा. महावीर अग्रवाल जी को दिया हुआ है।)। श्रद्धानन्द जी विषयक सबसे अधिक बातें स्वामी सत्यप्रकाश जी को स्वामी श्रद्धानन्द जी पर आस्ट्रेलियाई प्रो. जे.टी.एफ. जार्डन्स की पुस्तक से ज्ञात हुईं।

 

स्वामी सत्यप्रकाश जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी पर कई टिप्पणियां की हैं। वह लिखते हैं कि गुरुकुल के अनगिनत स्नातकों के कुलगुरु महात्मा मुंशीराम थे, न कि श्रद्धानन्द। मुंशीराम और श्रद्धानन्द तो दो अलग व्यक्तित्व हैं। मुंशीराम के रूप में वे महात्मा थे, गांधी के अत्यन्त निकट, गुरुकुलीय प्रणाली के उन्नायक, शिक्षा के क्षेत्र में अनन्य प्रयोगी तथा टैगोर की समकक्षता के शिक्षाशास्त्री। दूसरा उनका स्वरूप स्वामी श्रद्धानन्द का रहा–सम्प्रदायवादिता मिश्रित राष्ट्र-उलझनों में फंसे हुए–कभी मालवीय के साथ, कभी महासभा के साथ, कभी उनसे दूर भागते हुए अत्यन्त विवादास्पद व्यक्तित्व, कभी-कभी निर्वाचनों की उलझनों में फंस जाने वाले व्यक्ति। उसका उन्हें पुरस्कार मिला–23 दिसम्बर, 1926 ई. को सायंकाल 4 बजे दिल्ली में अब्दुल रशीद की गोलियों से बलिदान । वे सदा के लिए अमर हो गए। अंग्रेजों की संगीनों के सामने छाती खोलकर खड़ा होने वाला वीर राष्ट्रभक्त संन्यासी श्रद्धानन्द का एक यह तेजस्वी रूप था। (महर्षि दयानन्द के बाद वैदिक धर्म के 7 मार्च, 1897 को एक विधर्मी आततायी द्वारा प्रथम शहीद पण्डित) लेखराम की पंक्ति में खड़ा कर देने वाला ऋषि दयानन्द का असीम भक्त अमर शहीद श्रद्धानन्द।

 

स्वामी श्रद्धानन्द ने गुरूकुल कांगड़ी की स्थापना की और उसे अपने खून से सींचा। आज यह संस्था अपने मूल उद्देश्य व गौरवपूर्ण अतीत से दूर हो चुकी है। यह स्थिति हमें कई बार पीड़ा देती है। 23 दिसम्बर को स्वामी श्रद्धानन्द जी का बलिदान दिवस है। अतः इस अवसर पर उनके पावन जीवन चरित्र का अध्ययन कर अपने जीवन को सुधारा व पुण्यकारी बनाया जा सकता है। धर्म की वेदी पर शहीद स्वामी श्रद्धानन्द जी का जीवन चरित्र व उनके ग्रन्थों का अध्ययन कर ही उनको श्रद्धांजलि दी जा सकती है। स्वामी श्रद्धानन्द जी के प्रायः सभी ग्रन्थों को श्रद्धानन्द ग्रन्थावली के नाम से लगभग 27 वर्ष पूर्व 11 खण्डों में प्रकाशित किया गया था। इसका नया भव्य एवं आकर्षक संस्करण दो खण्डों में विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, 4408 नई सड़क, दिल्ली से इसी माह प्रकाशित किया गया है। हम पाठकों को इसे मंगाकर पढ़ने की संस्तुति करते हैं। आईये, स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन व कार्यों को जानकर उनसे प्रेरणा ग्रहण करें और वैदिक धर्म व संस्कृति की सेवा कर अपने जीवन को कृतार्थ एवं सफल करें।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

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‘स्वामी श्रद्धानन्द का पावन चमत्कारिक व्यक्तित्व’ -मनमोहन कुमार आर्य,

ओ३म्

 

स्वामी श्रद्धानन्द (1856-1926), पूर्वनाम महात्मा मुंशीराम, महर्षि दयानन्द के प्रमुख शिष्यों में से एक थे जिन्हें अपने धर्मगुरू के शिक्षा सम्बन्धी स्वप्नों को साकार करने के लिए हरिद्वार के निकटवर्ती कांगड़ी ग्राम में आर्ष संस्कृत व्याकरण और समग्र वैदिक साहित्य के अध्ययनार्थ गुरूकुल खोलने का सौभाग्य प्राप्त है। आर्यसमाज के इतिहास में स्वामी श्रद्धानन्द और प्राचीन आदर्शों व मूल्यों पर आधारित शिक्षण संस्था ‘‘गुरुकुल कांगड़ी का महत्वपूर्ण स्थान है। हम अनुमान करते हैं कि यदि स्वामी श्रद्धानन्द आर्यसमाज में न आये होते तो आर्यसमाज का इतिहास अपने उज्जवल स्वरुप से कुछ निम्नतर होता। स्वामीजी का 23 दिसम्बर 1926 को दिल्ली में बलिदान हुआ था। इस अवसर पर उनके महान व चमत्कारिक व्यक्तित्व को स्मरण करना प्रत्येक देशवासी, आर्य व ऋषिभक्त का पुनीत कर्तव्य है। आर्यजगत के विख्यात विप्र संन्यासी स्वामी वेदानन्द तीर्थ तीन अवसरों पर स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती के सम्पर्क में आये और उनके महान व्यक्तित्व से प्रभावित हुए। स्वामी श्रद्धानन्द जी विषयक उनके संस्मरणों को प्रस्तुत कर हम स्वामी श्रद्धानन्द जी की महानता और उनके चमत्कारिक व्यक्तित्व का परिचय इस लेख में दे रहें हैं। आशा है कि पाठकों को पसन्द आयेगा।

 

स्वामी वेदानन्द तीर्थ ने स्वामी श्रद्धानन्द जी के प्रथम दर्शन लगभग सन् 1910 में किये थे। उस समय वह महात्मा मुंशीराम जी के नाम से विख्यात थे। आर्यसमाज के महात्मा विभाग वा घासपार्टी के उस समय वह एकमात्र नेता थे। उन दिनों आर्यजगत में उनकी ख्याति पूर्ण यौवन पर थी। जब स्वामी वेदानन्द जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी के दर्शन किये तो उनकी भव्यमूर्ति, विशालकाय, सुदीर्घ शरीर संस्थान, नग्न सिर, सुन्दर दाढ़ी तथा पीले दुपट्टे ने उनके चित्त पर विचित्र प्रभाव डाला। संकोचवश इस भेट से पूर्व स्वामी वेदानन्द जी उनके सामने न जाना चाहते थे। वह समझते थे कि वे बड़े आदमी हैं और स्वामी वेदानन्द जी एक नगण्य लघुव्यस्क बालक से हैं। भला महात्मा मुंशीराम उनसे क्यों कुछ बातें करेंगे? स्वामी वेदानन्द जी का अनुमान था कि वह तो उनके अभिवादन प्रणाम-नमस्ते का प्रत्युत्तर भी न देंगे। वेदानन्द जी असंजस में थे कि तभी एक माननीय वृद्ध आर्य सज्जन ने उनसे कहा–‘‘हे ब्रह्मचारी जी ! महात्मा जी के दर्शन किये। स्वामी वेदानन्द जी ने उनसे कहा-‘‘नहीं, उन्हें भय लगता है। वह वृद्ध आर्य सज्जन हंसकर बोले ‘‘बिना देखे डरने लगे हैं। आप मेरे साथ चलिये। डर की कोई बात होगी, तो हम रक्षा करेंगे। स्वामी वेदानन्दजी उन वृद्ध सज्जन के उपहास मिश्रित व्यंग्य को समझ गये और साहस करके उनके साथ महात्मा जी के सामने चले गये। ज्यों ही महात्मा जी के उनको दर्शन हुए, उन्होंने तत्काल उनको प्रणाम किया। महात्मा जी ने बहुत प्रीति से उन्हें नमस्ते कह कर अपने पास बिठा लिया और उनका कुशल पूछकर उनसे बातें करने लगे। महात्मा जी के व्यवहार ने स्वामी वेदानन्द जी को मन्त्रमुग्ध कर दिया। इस व्यवहार से वह हैरान थे। बाद में उनकी समझ में आया कि स्वामी श्रद्धानन्द जी के नेतृत्व का रहस्य उनका यही गुण था। वह किसी भी मनुष्य को तुच्छ समझते थे। 

 

स्वामी वेदानन्द जी ने लिखा है कि वह उस समय आर्यसमाज में नवप्रविष्ट थे। वह अपना भावी कार्यक्रम सोचने की चिन्ता में थे। उन दिनों उन्हें उत्साह एवं भय दोनों घेरे रहते थे। महात्मा मुंशीराम जी के प्रेम भरे प्रथम दर्शन ने उन्हें उत्साहित किया। स्वामी वेदानन्द जी को दूसरी बार सन् 1914 में महात्मा मुंशीराम जी के दर्शन करने का सौभाग्य गुरूकुल कांगड़ी में मिला जो उन दिनों गंगा पार कांगड़ी ग्राम में था। वह गुरुकुल कांगड़ी का वार्षिकोत्सव देखने वहां आये थे। गुंरूकुल पहुंच कर वह सीधे महात्मा जी की गंगा के तीर पर स्थित कुटिया जो उन दिनों बंगला कहलाती थे, गये। उस समय महात्मा जी कार्य में व्यस्त थे। वेदानन्द जी की आहट सुनकर उन्होंने उनके प्रणाम करने से पहले ही स्वयं उनको प्रेम से नमस्ते की। वेदानन्द जी उन दिनों संन्यास आश्रम में प्रविष्ट हो चुके थे। उनके काषाय वस्त्रों को देखकर उन्होंने पूछा ‘यह क्या?’ वेदानन्द जी ने उत्तर दिया, आप ऐसे बूढ़े जब संन्यासी हो तो अनुपात पूरा रखने के लिए मुझ जैसों को ही संन्यासी बनना पड़ता है। उनके इस वचन पर महात्मा जी खिलखिला कर हंस पड़े। बोले–भाई ! तुम्हारा उपालम्भ शीघ्र उतार देंगे। वेदानन्द जी लज्जावश चुप रहे। महात्मा जी ने उन्हें जलपान करा कर कहा-भोजन के समय जाना। मेरे साथ भोजन करना।

 

इस दूसरी भेंट पर टिप्पणी करते हुए स्वामी वेदानन्द जी ने लिखा है–मैं चकित था। मैं समझता था, तीनचार वर्ष पूर्व देखे हुए एक तुच्छ से व्यक्ति को ऐसा महान् महात्मा कैसे स्मरण रख सकता है। किन्तु देखते ही उनका मुझे मेरे पुरातन नाम से पुकारना, मेरा इतने दिनों का वृत्त पूछना, संन्यासी होने के हेतु की जिज्ञासाउनकी इन सारी बातों ने मुझे उनका भक्त बना डाला। वह आगे लिखते हैं कि ‘उस दिन मैं उनके आदेशानुसार भोजन के समय पहुंचा, मैं कुछ उलूलजुलूलसा आदमी हूं। मैं उत्सवमण्डप में जाकर गंगा तीर पर जिधर वह जा रही है, उधर ही चला गया। कुछ दूर जाकर मैं एक स्थान पर बैठ गया। मैं भोजन की बात भूल गया। मैं कोई चार बजे लौटा। मुझसे उनके सेवक ने कहा कि महात्मा जी को आज तुम्हारे कारण उपवास करना पड़ा है। मेरी आंखों में आंसू गये। साथ ही हृदय में भय का संचार भी हुआ। मैं चला उनसे क्षमा मांगने। जब सामने गया और हाथ जोड़ कर क्षमा मांगने लगा तो मेरे हाथ पकड़ कर कहने लगे–‘‘भाई ! उत्सव के दिनों में ऐसी गड़बड़ करो। मैं चुपचाप उनका मुख निहार रहा था। वहां मुझे क्रोध, क्षोभ दीखे। दिल ही दिल में मैंने उन्हें प्रणाम किया। अगले दिन उनका सेवक मुझे भोजन के समय पकड़ लाया। आज सोचता हूं, श्रद्धानन्द की महत्ता के हेतु की घटक ये छोटीछोटी घटनाएं ही है।

 

स्वामी श्रद्धानन्द जी भागलपुर में होने वाले हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति मनोनीत हुये थे। महामना मदनमोहन मालवीय जी ने उस सम्बन्ध में स्वामी वेदानन्द जी को उनकी सेवा में गुरुकुल भेजा और कहा कि उन्हें साथ ले आना। वेदानन्द जी गुरुकुल आकर उनसे मिले। श्रद्धानन्द जी उस दिन किसी कारणवश उनके साथ न जा सके। वेदानन्द जी को वापिस भेज दिया और अगले दिन भागलपुर के लिए रवाना हुए। बनारस छावनी रेलवे स्टेशन पर कई महानुभाव उनके दर्शनों के लिये आये थे। भागलपुर सम्मेलन दो-तीन दिन बाद था, अतः उनको बनारस में उतार लिया गया। उनके आने की सूचना मिलने पर ऋषिकुल के अधिकारी उनसे मिले। उस समय वह कुछ अस्वस्थ थे। ऋषिकुल के अधिकारियों द्वारा प्रार्थना करने पर उन्होंने उनके उत्सव में उपदेश करना स्वीकार कर लिया। ऋषिकुल के अधिकारियों के चले जाने के बाद वहां उपस्थित प्रसिद्ध देशभक्त बाबू शिवप्रसाद गुप्त जी ने कहा, आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं है, वहां भी आपको अधिक कार्य करना पड़ेगा, आप कहें तो मैं उन्हें निषेध कर भेंजू। इसके उत्तर में स्वामी श्रद्धानन्द जी ने कहा–वचन कैसे तोड़ा जाये और बाबूजी मुझ पर तो ब्रह्मचर्य प्रचार का भूत सवार है। मरते हुए भी इसका प्रचार करना चाहता हूं। स्वामी जी का ़ऋषिकुल में व्याख्यान हुआ। इस व्याख्यान ने ऋषिकुल की बिगड़ी व्यवस्था को संभाल दिया। बनारस में स्वामी श्रद्धानन्द जी के आतिथ्य का भार स्वामी वेदानन्द जी पर था। उन्होंने लिखा है कि ‘‘स्वामी श्रद्धानन्द जी प्रातः चार बजे उठकर शौचस्नान से निवृत्त होकर घंटा डेढ़ घण्टा ईश्वरोपासना किया करते थे। स्वामी श्रद्धानन्द जी को महान बनाने में नियमित देर तक सन्ध्योपासना करना भी उनका एक मुख्य गुण था।

 

इस लेख का समापन हम स्वामी वेदानन्द जी द्वारा श्रद्धानन्द जी को दी गई श्रद्धाजंलि के शब्दों से कर रहे हैं। वह कहते हैं कि श्रीयुत स्वामी श्रद्धानन्द जी उन महामना मनुष्यघुरीणों में से थे, जो समय की उपज नहीं होते, अपितु समय को बनाया करते हैं। साधारणतया नेता लोकरुचि का प्रवाह देखकर उसमें वेग या प्रचण्डता पैदा करके ख्याति प्राप्त किया करते हैं। स्वामी श्रद्धानन्द इसका अपवाद हैं। उदाहरण के लिए गुरुकुल स्थापना को ले लीजिए। जिस समय महात्मा मुंशीराम जी (स्वामी श्रद्धानन्द जी) ने इसकी स्थापना का संकल्प किया उस समय लोगों में इसके लिए कोई अनुकूल भावना थी, कदाचित् प्रतिकूल भावना भी जागृत थी। श्रद्धानन्द जी को सत्यार्थ प्रकाश से गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का एक माव मिला, उसको उन्होंने समय प्रवाह की परवाह करते हुए मूर्तरूप दे ही डाला। यह है उनकी काल निर्माण कुशलता, और इसी कारण वे असाधारण महापुरुषों की पंक्ति में समादृत हुए हैं और आचन्द्रदिवाकर होते रहेंगे।

 

स्वामी श्रद्धानन्द जी के विलक्षण व्यक्तित्व पर आर्यजगत के विख्यात विद्वान डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी ने स्वामी श्रद्धानन्दःएक विलक्षण व्यक्तित्व ग्रन्थ की रचना व सम्पादन किया है। यह ग्रन्थ आर्य प्रकाशक श्रीघूड़़मल प्रहलादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डोनसिंटी से प्रकाशित एवं उपलब्ध है। इस ग्रन्थ व उसमें अनेक महत्वपूर्ण लेखों सहित स्वामी वेदानन्द तीर्थ का संस्मरणात्मक लेख दने के लिए हम डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी का आभार व्यक्त करते हैं। स्वामीजी ने अपने जीवनकाल में आर्यसमाज को नेतृत्व प्रदान करने के साथ विश्व विख्यात गुरूकुल कांगड़ी की स्थापना व संचालन किया, वह महान देशभक्त एवं देश की आजादी के आन्दोलन के प्रमुख नेता थे, शुद्धि व जाति तोड़क आन्दोलन के प्रणेता सहित धर्मोपदेशक, समाज सुधारक, साहित्यकार, पत्रकार, लेखक और दलितों के मसीहा थे। उनको हमारा शत् शत् प्रमाण।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द : सत्येन्द्र सिंह आर्य

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पंजाब प्रान्त के  जालन्धर जिले में तलवन ग्राम में एक प्रतिष्ठित परिवार में लाला नानकचन्द्र जी के गृह में विक्रमी सवत् 1913 में फाल्गुन मास में कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन जिस बालक का जन्म हुआ, उसका नाम पण्डित जी ने बृहस्पति रखकर भी प्रसिद्ध नाम मुंशीराम रख दिया। संन्यास ग्रहण करने के समय तक वे इसी नाम से वियात रहे। पिता जी पुलिस में इस्पेक्टर के पद पर राजकीय सेवा में थे। अतः जल्दी-जल्दी होने वाले स्थानान्तरण के कारण बच्चों की पढ़ाई में व्यवधान पड़ना स्वाााविक था। परन्तु एक लाा भी हुआ। जिन दिनों श्री नानकचन्द्र जी बरेली में पद स्थापित थे, उन दिनों अंग्रेजी भाषा के व्यामोह में फंसे और नास्तिकता के भँवर में गोते लगाते मुंशीराम को स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के दर्शन करने का, उनके वेदोपदेश सुनने का, उनसे मिलकर अपनी शंकाओं का समाधान करने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी द्वारा प्रतिपादित वैदिक विचारधारा का मुंशीराम जी के जीवन पर प्रााव पड़ने में यद्यपि वर्षों का समय लगा, परन्तु अन्त में ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा कि वे ऋषि-मिशन के दीवाने हो गए। एक-एक करके इतने कार्य किये कि उनका सही मूल्यांकन कोई ऋषि-भक्त, तपस्वी, वैदिक विद्वान् ही कर सकता है।

जालन्धर में कन्या पाठशाला खोली जिसका स्थानीय लोगों ने घोर विरोध किया। उस युग में सब स्त्री-शिक्षा के शत्रु थे। पाठशाला चार लड़कियों से आरभ हुई, दो बेटियाँ इनकी स्वयं की थी और दो इनके साले की थीं। वही संस्था आज स्नातकोत्तर कन्या विद्यालय के रूप में प्रतिष्ठित है जिसमें हजारों कन्याएँ शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। हरिद्वार के निकट काँगड़ी ग्राम में गुरुकुल की स्थापना की। अपने दोनों पुत्रों हरिशचन्द्र एवं इन्द्र को उसी में प्रविष्ट किया। वह संस्था भी आज एक विश्वविद्यालय के रूप में विद्यमान है। इस संस्था से आर्यसमाज को बड़ी संया में वेद के विद्वान्, उपदेशक, साहित्यकार, पत्रकार एवं समाजसेवी राजनेता प्राप्त हुए। पं. इन्द्र जी विद्यावाचस्पति एक आर्य पुरुष, साहित्यकार, पत्रकार के रूप में इसी संस्था की देन हैं।

वैदिक विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए मुंशीराम जी ने सद्धर्म प्रचारक पत्र निकाला। पहले उर्दु में और बाद में आर्य भाषा में। पत्र इतना लोकप्रिय था कि पाठकों को अगले अंक की सदैव प्रतीक्षा रहती थी। मुद्रण की सुविधा के लिए अपना प्रेस स्थापित किया। देश-दुनिया के समाचारों से आर्य जनता को परिचित कराये रखने का यह बड़ा सशक्त माध्यम था। अपनी पत्रकारिता में कुशलता के बल पर मुंशीराम जी ने उस युग में राष्ट्र की महती सेवा की।

अछूतोद्धार का कार्य उनकी प्राथमिकता में था। राजनैतिक रूप से उस समय कांग्रेस एक पार्टी के रूप में देश की आजादी के लिए कार्य कर रही थी। मुंशीराम जी (और अप्रैल 1917 में संन्यास ग्रहण के पश्चात् स्वामी श्रद्धानन्द जी) उस समय देश के अग्रणी नेताओं में थे उनके जीवन की एक-एक घटना उनकी महानता की साक्ष्य है। वर्ष 1917 ईसवी में अप्रैल मास में उत्सव के समाप्त होने के पश्चात् अगले दिन उन्हें संन्यास लेना था। संन्यास-ग्रहण संस्कार के समय वहाँ हजारों की भीड़ थी। आर्य समाज के बहुत से संन्यासी, पण्डित और अधिकारी साक्षीरूप से उपस्थित थे। संस्कार में सबसे विशेष बात यह हुई कि, मंशीराम जी ने किसी संन्यासी महानुााव को अपना आचार्य न बनाकर परमात्मा को ही आचार्य माना और जो प्रक्रिया आचार्य द्वारा पूरी होनी थी, वह स्वयं ही पूरी कर ली। क्षौर कराकर और भगवावस्त्र पहनकर वे यज्ञ-मण्डप में आए और खड़े होकर उन्होंने निम्नलिखित आशय की घोषणा की-

‘‘मैं सदा सब निश्चय परमात्मा की प्रेरणा से श्रद्धापूर्वक ही करता रहा हॅूँ। मैंने संन्यास भी श्रद्धा की भावना से प्रेरित होकर ही लिया है। इस कारण मैंने श्रद्धानन्द नाम धारण करके संन्यास में प्रवेश किया है। आप सब नर-नारी परमात्मा से प्रार्थना करें कि वे मुझे अपने इस नए व्रत को पूर्णता से निभाने की शक्ति दे।’’

सन् 1919 में बैसाखी के दिन अमृतसर में जलियाँवाला बाग में भीषण हत्याकाण्ड हुआ। उसी वर्ष कुछ माह पश्चात् अमृतसर में ही कांग्रेस का महा-अधिवेशन होना था, परन्तु बैसाखी वाली भयावह घटना लोगों के मन-मस्तिष्क पर छाई हुई थी। निर्भीकता की प्रतिमूृर्ति स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने स्वागताध्यक्ष का कार्य भार ग्रहण करके सारे आयोजन को सहज और सरल बना दिया।

अछूतोद्धार एवं शुद्धि सभा स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज आर्य पुरुष थे और कांग्रेसी भी थे। उस समय कांग्रेस में आर्यों की संया काफी अधिक थी। उन्होंने समाज में अछूत कहे जाने वाले लोगों के लिए विशेष कार्य किया। संस्थागत रूप में इस कार्य को आगे बढ़ाया। जन्मना जाति-प्रथा को यथावत् बनाए रखने वाले हिन्दुओं एवं मठाधीशों का उस समय दबदबा था। अछूत कहे जाने वाले नर-नारियों की बात तो दूर रही, उस समय के हिन्दू मठाधीश, सन्त-महन्त तो मजबूरी में या प्रलोभनवश ईसाइयों -मुसलमानों द्वारा हिन्दू वर्ग से धर्मान्तरित किये गए सवर्ण हिन्दुओं को भी शुद्ध करके पुनः अपने में मिलाना शास्त्र-विरुद्ध और पूर्णतः निषिद्ध मानते थे। हिन्दू (आर्य) जाति एक प्रकार से कच्चे माल की खान बनी हुई थी। सूक्ष्म राजनीतिक सूझबूझ वाले ईसाई मिशनरी और मुल्ला मौलवी इसी खान में से विशेषकर अछूत कहे जाने वाले वर्ग में से हमारे ही भाई-बहनों को बहला-फुसलाकर, प्रलोभन देकर, धोखाधड़ी से ईसाई-मुसलमान बना रहे थे। हिन्दू जाति के विघटन की यह चरम स्थिति थी। ऐसे में दूरदर्शी आर्य नेता एवं इस हिन्दू जाति के परम शुभचिन्तक स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने अछूतोद्धार एवं शुद्धि का कार्य एक आन्दोलन के रूप में किया। शुद्धि के काम से महात्मा गाँधी के चहेते अलीबन्धु बौखला गए और उन्होंने गाँधी जी से स्वामी श्रद्धानन्द जी के शुद्धि-कार्य के विरुद्ध शिकायत की। गाँधी जी द्वारा एतद्विषयक चर्चा किये जाने पर स्वामी श्रद्धानन्द जी ने कहा कि आप अली बन्धुओं को कहकर इस्लाम द्वारा जारी तबलीग (धर्मान्तरण के लिए इस्लाम मतावलबियों द्वारा निरन्तर चलाई जाने वाली प्रक्रिया) का काम रुकवा दीजिए, मैं शुद्धि का काम बन्द कर दूँगा। भला यह कार्य मुस्लिम तुष्टिकरण के जनक और मसीहा महात्मा गाँधी के बूते का कहाँ था। अतः स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज कांग्रेस से अलग हो गये। शुद्धि के कार्य को करने के मूल्य के रूप में स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज को अपने प्राण आहूत करने पड़े।

विडबना देखिए कि जिस हत्यारे अदुल रसीद ने स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज को गोली मारी और जिसे रंगे हाथों पकड लिया गया उसी के बचाव के लिए महात्मा गाँधी के दायाँ और बाँया हाथ (जैसा कि अली बन्धुओं-मौलाना मोहमद अली, मौलाना शौकत अली को कहा करते थे) ये अली बन्धु न्यायालय में उपस्थित रहा करते थे और गाँधी जी इस बात को जानते थे। मुस्लिम प्रेम के आगे महात्मा गाँधी को सत्य दिखाई नहीं पड़ता था जैसे रतौन्धी (आँखों की एक बीमारी) वाले व्यक्ति को रात्रि में कुछ नहीं दिखाई पड़ता। इस्लाम मतावलबियों की करतूतों का वर्णन करने लगे तो पोथे पर पोथे बनते चले जायेंगे परन्तु उन करतूतों का किनारा नहीं पा सकते। उदाहरण के लिए एक घटना देते हैं।

वाजा हसन निजामीकृत ‘दाइये इस्लाम’- वाजा हसन निजामी अपने समय के मौलवियों, पीरों, सूफियों और मुस्लिम नेताओं में सर्वोच्च स्थान रखते थे। इस्लामी साहित्य और इतिहास के वे बहुत बड़े आलिम माने जाते थे। वह अपना अखबार निकालते थे और अपना रोजनामचा (दैनन्दिनी) भी लिखते थे। देहली की निजामी दरगाह में उनका मुय निवास था। वह सदा यही सोचते रहते थे कि किस प्रकार भारत के हिन्दुओं को इस्लाम में धर्मान्तरित किया जाए और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उचित-अनुचित की चिन्ता किये बिना वे किसी भी सीमा तक जाने को तैयार थे। जहाँ उन्होंने और अनेक उपाय इस बात के लिए मुसलमानों को जताये थे, वहीं हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षित करने का एक बड़ा विषैला और गुप्त उपाय भी निकाला था। सब मुसलमानों में उस उपाय का गुप्त रूप से प्रचार किया गया। जितने धन्धे-पेशे मुसलमान करते थे जैसे नाई, धोबी, लुहार आदि उन्हीं के अनुसार उनको उपाय समझाए गए थे। यहाँ तक कि बाजारू औरतों (वेश्याओं) को भी हिदायत दी गई थी कि वे अपनी सुन्दरता में फँसा कर हिन्दुओं को मुसलमान बनाएँ। इन सब उपायों को एक पुस्तक में लिखा गया था और पुस्तक का नाम था- ‘दाइये इस्लाम’। इस पुस्तक को गुप्त रूप से न केवल भारत भर के मुसलमानों में पहुँचाया गया, अपितु भारत से बाहर के इस्लामी देशों में भी भेजा गया था।

हिन्दुओं के विरुद्ध किये जा रहे इस भीषण षड्यन्त्र की पौराणिकों के किसी सन्त-महन्त, मठाधीश, शंकराचार्य अथवा नेता को भनक तक न लगी। स्वामी श्रद्धानन्द जी तब मुय रूप से दिल्ली में ही रहा करते थे। नया बाजार के एक मकान के ऊपरी भाग में निवास करते थे। स्वामी जी महाराज बड़े ही विलक्षण आर्य नेता थे। वह आर्य समाज के साथ-साथ समस्त हिन्दुओं के बारे में खबरगीरी रखते थे। वह यह पूरा ध्यान रखते थे कि बेखबर सोती हिन्दू जाति की सब तरफ से रक्षा की जाए। इस बात को जानने के लिए चाणक्य मुनि द्वारा वर्णित उपायों को काम में लाते थे। उसी आधार पर उन्हें अत्यन्त सूक्ष्म और अतीव गुप्त रूप और अज्ञात द्वार से वाजा हसन निजामी द्वारा लिखित और प्रचारित ‘दाइये-इस्लाम’ पुस्तक की सूचना मिली। पुस्तक उर्दु में लिखी गयी, प्रैस में छपी। कातिबों ने काम किया, मशीनों पर छपी, बाइण्डरों ने जिल्दें बान्धी, दुकानों में बिक्री के लिए गयी। न जाने कितने हाथों में पहुँची। प्रैस एक्ट के अनुसार छपी पुस्तकों की प्रतियाँ सरकारी कार्यालय को भेजी जानी चाहिए। इतना सब कुछ होते हुए भी कानोकान किसी गैर-मुसलमान को जरा सी भी भनक सुनाई नहीं पड़ी। सारे भारत में गुप्त खोज करने पर इस पुस्तक की एक भी प्रति न मिल सकी। परन्तु स्वामी जी के हाथ भी बहुत लबे थे। अन्त में बहुत यत्न करने पर एक प्रति ब्रिटिश ईस्ट अफ्रीका में एक सज्जन के हाथ लगी और उस पुस्तक को दिल्ली स्वामी जी के पास पहँुंचा दिया गया। उन्होंने उसको पढ़ा और देखा कि हिन्दुओं को नाश के गहरे गड्ढ़े में गिराये जाने के लिए कैसे षड्यन्त्र किये और कराये जा रहे हैं। स्वामी जी ने उस पुस्तक को फिर से छपवाया और ‘आर्य-बिगुल’, ‘अलार्म’ नाम से उसका खण्डन और आलोचनाएँ भी प्रकाशित हुई। हिन्दुओं को सावधान किया गया। आज के तथाकथित आर्य नेता? तो अपनी सर्व-स्वीकार्यता का ग्राफ ऊँचा करने के लिए मुस्लिम नेताओं और ईसाई पादरियों की चापलूसी में जीवन गुजार देते हैं परन्तु नोबेल पुरस्कार (शान्ति के लिए) प्राप्त करने की उनकी इच्छा अपूर्ण ही रह जाती है। नोबेल पुरस्कार क्या, नई दिल्ली स्थित उप वैटिकन में दशकों तक मत्था टेकने के बाद राज्यसभा की सदस्यता भी नसीब न हुई। ऐसे लोग जाति की क्या सेवा करेंगे।

स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज के बलिदान की पहली कड़ी यह पुस्तक ‘दाइये इस्लाम’ कहीं जा सकती है। आज साधारण जनता और आर्यजनों की तो बात ही क्या है अपितु बड़े-बड़े नेताओं को इस पुस्तक का पता भी नहीं है, उसका पढ़ना तो दूर रहा। इन पंक्तियों के लेखक के पास उस पुस्तक के हिन्दी संस्करण की एक प्रति है जो परोपकारिणी सभा को पुस्तकालय हेतु सौंप दी जाएगी।

प्रतिवर्ष अमर हुतात्मा का बलिदान दिवस मनाया जाता है। धुआँ-धार व्यायान होते हैं। अखबारों में लेख लिखे जाते हैं। उनके अनेक उत्तम गुणों पर प्रकाश डाला जात है परन्तु उस जहरीली पुस्तक दाइये-इस्लाम का मानो किसी को पता ही नहीं। स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने अछूतोद्धार एवं शुद्धि का जो कार्य अपने जीवन में किया उनके बलिदान के बाद उसमें शिथिलता आ गई थी। आर्य समाज के लिए यह हानि की बात रही। स्वामी जी ने देश, जाति, धर्म की अहर्निश सेवा की, ऋषि मिशन के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया और 23 दिसबर सन् 1926 को अपने प्राण भी दे दिये। उस नर-नाहर सर्वस्व-त्यागी आर्य पुरुष के प्रति मेरी विनम्र श्रद्धाञ्जलि।

– 751/6, जागृति विहार, मेरठ