परमेश्वर ही सच्चा गणेश है – इन्द्रजित् देव

परमेश्वर ही सच्चा गणेश है

– इन्द्रजित् देव

‘‘आर्य वन्दना’’ के जनवरी अंक में गणेश की महिमा विषयक एक लेख प्रकाशित हुआ है जो पूरी तरह से पौराणिकता से भरपूर है। लेखक महोदय के अनुसार गणेश की पूजा के पीछे यह धारणा कार्य करती है कि इससे सभी सुख, सौभाग्य तथा समृद्धि की प्राप्ति होती है तथा जीवन में सभी बाधाओं एवं विघ्नों से मुक्ति मिलती है। लेखक ने यह भी लिखा है कि पार्वती ने अपने शरीर पर इतना उबटन लगा राा था कि जिससे एक मनुष्य का पुतला बन सके। पार्वती ने फिर उसमें प्राण फूँके और उसे अपना पुत्र बनाया। यह भी लेख में लिखा है कि शिव ने कहा जो संसार का चक्कर लगाकर प्रथम आएगा, वही प्रथम पूजनीय होगा तथा सभी देवता तेजी से दौड़े परन्तु गणेश नामक शिव का पुत्र न दौड़ सका क्योंकि उसका शरीर भारी था। गणेश ने अपने माता-पिता का ही चक्कर लगाया एवं उन्हें प्रणाम करके बैठ गये, अतः गणेश प्रथम पूज्य बन गया इत्यादि।

पूरा लेख अवैज्ञानिक, तर्कहीन व प्रमाणहीन है। लेखक महोदय इसे ‘‘कल्याण’’ या किसी अन्य पौराणिका पत्रिका में छपा लेते तो उनकी उपरोक्त बातों का कोई विरोध न करता, परन्तु एक वैदिक पत्रिका में यह प्रकाशित हुआ है, अतः इसे पढ़कर हमें आश्चर्य व दुःख हुआ है। इसके उत्तर में कुछ बातों को तर्क व विज्ञान के आधार पर लिखना वाञ्छनीय है, ताकि आर्य समाजियों को तो सत्य का ज्ञान हो सके तथा वे भ्रम में न रहें।

हमारे कुछ प्रश्न लेखक से हैंः यदि स्त्री के शरीर पर उबटन लगा लेने से पुत्र का शरीर बन सकता है तो ईश्वर ने पुरुष को क्यों उत्पन्न किया? पार्वती हो या कोई अन्य स्त्री, उसके शरीर में गर्भाशय की स्थापना ही क्यों की? वेदानुसार विवाह का मुय उद्देश्य उत्तम सन्तान उत्पन्न करना है। यदि पार्वती बिना पति के पुत्र को उत्पन्न करने की कला जानती थी तो उसने शिव से विवाह ही क्यों किया? क्या शिव में कोई कमी थी। उबटन से पुत्र-प्राप्ति की विद्या का उल्लेख किस वेद या किस आयुवैदिक अथवा एलोपैथिक ग्रन्थ में है? उबटन लगाकर सोने से व्यक्ति के शरीर से वह झड़ या उतर जाना चाहिये परन्तु पार्वती ने उतरने नहीं दिया, तभी तो उबटन से पुत्र बना लिया व फूँक मारकर उसे चेतन गणेश बना दिया। लेखक को चाहिए कि इस ईलाज का बांझ स्त्रियों में प्रचार करें ताकि वे भी अपने शरीर पर उबटन लगा लिया करें व जब चाहें, वे अपने उबटन से पुत्र का पुतला बनाकर व उस पुतले में प्राण फूँक कर सन्तानवती बन जाया करें। वे पति तथा वैद्य-डॉक्टर की सहायता लेने की आवश्यकता से मुक्त हो जाया करेंगी। प्राण फूँकने से पुत्र में आत्मा आती है तो मृत पुत्र की किसी भी माता को आज तक पुत्र-वियोग का दुःख क्यों भोगना पड़ता रहा है? पुत्र की मृत्यु होने पर पुत्र का शरीर तो घर में पड़ा होता है। पार्वती की तरह पुत्र की माता उस मृ्रत देह में फूँ क मार कर पुत्र को जीवित कर लिया करें। यह फार्मूला बताने के लिए हम लेखक के बहुत धन्यवादी रहेंगे।

पार्वती ने अपने उबटन से उत्पन्न किए गणेश को घर के बाहर बैठा दिया, ताकि वे निश्चित होकर स्नान कर सकें व कोई भी व्यक्ति भीतर प्रवेश न कर सके, परन्तु शिवजी स्वयं को न रोक सके व पुत्र गणेश व पिता शिव के मध्य युद्ध छिड़ गया। परिणामतः पुत्र का सिर काटकर शिव जी भीतर प्रवेश कर गए। पार्वती ने हाहाकार मचाया तो शिव ने एक हथिनी का सिर जोड़कर पुत्र को पुनः जीवित कर दिया। हमारी इच्छा विद्वान लेखक से यह जानने की है जिस शिवजी को पौराणिक व लेखक स्वयं ईश्वर मानते हैं, उसके घर में इतनी अधिक गरीबी क्यों थी कि वह अपने घर में दरवाजा बन्द करके स्नान करने योग्य एक बाथरूम भी नहीं बनवा सका? जब इतनी निर्धनता थी ही तो वह ईश्वर कैसे कहला सकता है, क्योंकि ईश्वर का अर्थ ऐश्वर्यशाली होता है। लेखक को यह भी बताना होगा कि जब शिवजी की पत्नी घर के भीतर स्नान कर रही थी तथा उनके पुत्र गणेश ने उन्हें भीतर जाने से रोका तो वे रुके क्यों नहीं? भीतर जाने का उनका उतावलापन उनके संयम की पोल खोलता है। इतना उतावलापन उनमें था कि भीतर जाने से रोकने वाले अपने पुत्र का सिर भी काटना उन्हें अधर्म प्रतीत नहीं हुआ। किसी का सिर जब कटेगा तो उसके शरीर से उसके प्राण व उसकी आत्मा निकल जाएगी, यह एक दृढ़ वैज्ञानिक नियम है। तत्पश्चात् कोई भी पिता, माता, राजा, वैज्ञानिक या गुरु तो क्या, स्वयं ईश्वर भी पुनः प्राण तथा आत्मा को उसी शरीर में प्रवेश नहीं करा सकता।

लेखक के अनुसार जब पार्वती ने अपने पति के समक्ष पुत्र वियोग का दुखड़ा रोया, शिव ने एक हथिनी का सिर सिरहीन पुत्र के सिर पर फिट करके जीवित कर दिया। हमारा प्रश्न उपरोक्त लेख के लेखक से यह है किस कपनी के फैवीकोल या कीलों से गणेश का सिर पुनः फिट किया? आज परस्पर लड़ाई के अनेक मामलों में एक दूसरे के सिर काटे जा रहे हैं। लेखक की मान्यता वाले जिसाी किसी ग्रन्थ में सिरहीन धड़ से किसी अन्य प्राणी का सिर जोड़ने की सफल विधि का उल्लेख है, उस ग्रन्थ की पृष्ठ संया सहित नाम व लेखक का नाम बताने की कृपा करें ताकि आज जहाँ कहीं परस्पर लड़ाई में सिर कटते हैं, मैं वहाँ सिर जोड़ने में कुछ सहायता कर सकूँ।

हमारा अगला प्रश्न यह है कि शिव जी में हथिनी का सिर अपने मृत पुत्र के धड़ से जोड़कर पुनर्जीवित करने की योग्यता व क्षमता थी तो उन्होंने अपने पुत्र का पहला सिर ही क्यों नहीं जोड़ दिया? हथिनी की मृत्यु कर के अपने पुत्र को पुनर्जीवित करना कथित ईश्वर शिव की शोभा बढ़ाने वाला कार्य है क्या? कोई भी मनुष्य जिसका धड़ तो मनुष्य का हो परन्तु सिर हथिनी का हो, क्या सूखपूर्वक सो सकेगा?

उपरोक्त लेख के अनुसार एक बार देवों में यह विवाद हो गया कि उन सबमें किस देवता की पूजा सर्वप्रथम होनी चाहिए? शिव ने उन्हें संसार का चक्कर लगाकर आने को कहा। जो दौड़ में सबसे पहले लौटेगा, वही देवता प्रथम पूज्य होगा। गणेश का शरीर भारी था। वह न दौड़ सका। उसने माता-पिता का चक्कर लगाया और प्रणाम करके बैठ गया। अतः प्रथम पूज्य माने गए। हमारा निवेदन यह है कि प्रथम पूज्य देव का निर्णय करने का लाईसैंस (=अधिकार) शिवजी को किसने दिया? उसका निर्णय मान्य क्यों होना चाहिए? वे देव क्यों कर माने जा सकते हैं, जब परस्पर उनमें होड़ मची हुई थी कि मेरा पूजन सर्वप्रथम होना चाहिए? लोकैषणा रहित व्यक्ति देवता होता है जबकि लोकैषणायुक्त (=प्रशंसा प्राप्त करने की इच्छा करने वाला) व्यक्ति मनुष्य कहलाता है, देवता तो कदापि मान्य हो ही नहीं सकता। यहाँ हम आचार्य यास्क द्वारा निरुक्त 7/11 में वर्णित देवों का वर्णन करना उचित समझते हैं- देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनाद्वा द्युस्थाने भवतीति वा। इसके अनुसार निम्नलिखित कुछ मूर्तिमान व कुछ अमूर्तिमान देव ये होते हैंः-

  1. दान देने वाले= मनुष्य, विद्वान् व परमेश्वर।
  2. दीपन, प्रकाश करने वाले= सूर्योदि लोक, सब मूर्तिमान द्रव्यों का प्रकाश करने वाले।
  3. द्योतन करने वाले= सत्योपदेश करने से भी देव अर्थात् माता, पिता , आचार्य व अतिथि तथा पालन, विद्या व सत्योपदेशादि करने वाले।
  4. द्युस्थान वाले देव= सूर्य की किरण, प्राण तथा सूर्यादि लोको का भी जो प्रकाश करने हारा है, वह परमेश्वर देवों का भी देव है।
  5. अन्य देव= इन्द्रियाँ, मन। ये शदादि विषयों तथा सत्यासत्य का प्रकाश करते हैं। वेद मन्त्र भी देव हैं।

महर्षि दयानन्द सरस्वती ‘‘सत्यार्थप्रकाश’’ के सप्तम समुल्लास में इस विषय में लिखते हैं- ‘‘देवता दिव्य गुणों से युक्त होने के कारण कहते हैं, जैसी कि पृथिवी।……….जो त्रयस्त्रिशनिशता’’ इत्यादि वेदों में प्रमाण हैं, इसकी व्याया ‘शतपथ’ में की है कि-तैंतीस देव अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु,आकाश, चन्द्रमा,सूर्य और नक्षत्र सब सृष्टि के निवास स्थान होने से ये आठ वसु हैं। प्राण, अपान, व्यान, उदान, सामान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय और जीवात्मा, ये ग्यारह रुद्र इसलिए कहाते हैं कि जब शरीर को छोड़ते हैं, तब रोदन कराने वाले होते हैं। संवत्सर के बारह महीने बारह आदित्य इसलिए कहाते हैं कि ये सब की आयु को लेते जाते हैं। बिजली का नाम इन्द्र इस हेतु है कि वह परम ऐश्वर्य का हेतु है। यज्ञ को प्रजापति कहने का कारण यह है कि जिससे वायु, वृष्टि, जल, औषधी की शुद्धि, विद्वानों का सत्कार और नाना प्रकार की शिल्पविद्या से प्रजा का पालन होता है। ये तैंतीस पदार्थ पूर्वोक्त गुणों के योग से देव कहाते हैं।

लेखक सत्यपाल भटनागर जी से अनुरोध है कि उपरोक्त विवरण व व्याया को ध्यान से पढ़ने का कष्ट करें व पाठकों को स्पष्ट करें कि कौन-से वे देव थे जिनमें अपनी पूजा प्रथमतः कराने की थी? वास्तविकता यह है कि उपरोक्त देवों से अतिरिक्त काल्पनिक देवों की धारणा लेखक के मस्तिष्क में है। उसे त्याग दें व केवल उपरोक्त वास्तविक देवों की मान्यता स्थापित करें।

लेखक जी! पुत्र को अपने माता-पिता का आदर व यथोचित सेवा करनी ही चाहिए, यह निर्विवाद है, परन्तु गणेश की तरह माता-पिता की परिक्रमा कर लेना न तो किसी प्रकार की सेवा है तथा न ही इस कार्य में तनिक भी आदर करने का भाव है। गणेश के मन मेंाी अपनी पूजा सर्वप्रथम कराने की ही इच्छा थी जिसे शास्त्रीय भाषा में लोकैषणा कहते हैं। हम लेखक महोदय को स्मरण दिलाना चाहते हैं कि इतिहास में माता-पिता का आदर व उचित सेवा करने वाले कई सुपुत्रों के प्रमाण उपलध हैं। श्रवण कुमार तथा मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र इत्यादि के कार्यों को ध्यान में रखकर सोचिए व पाठकों को बताइए कि माता-पिता के शरीरों की परिक्रमा करने वाले गणेश में सुपुत्र के गुण थे अथवा श्रवण कुमार में? रामचन्द्र जी ने तो राजभवन के सुख-सुविधाओं का परित्याग करके 14 वर्षों तक वनों में रहकर अपने पिता की प्रतिष्ठा तथा सौतेली माँ की इच्छा की रक्षा की थी। गणेश के जीवन में सेवा की एकाी घटना जब उपलध नहीं होती तो उसका पूजन सर्वप्रथम करने-कराने में औचित्य क्या है? सर्वप्रथम पूजन करने-कराने की किसी व्यक्ति की यदि इच्छा है तो श्रवण कुमार अथवा रामचन्द्र जी की। वैसे आज न गणेश संसार में है,न ही श्रवण कुमार कहीं दिखते हैं तथा न ही रामचन्द्र जी कहीं मिलते हैं। उनकी पूजा कैसे करोगे- कराओगे? केवल चित्रों, मूर्तियों या थाली में जल रही धूप अगरबत्ती को मत्था टेकने का नाम पूजा करना नहीं है। पूजा का अर्थ महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने ‘‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’’ में इस प्रकार लिखा है- ‘‘जो ज्ञानादि गुण वाले को यथायोग्य सत्कार करना है, उसको ‘पूजा’ कहते हैं।’’ आज जो कुछ हो रहा है, वह पूजा न होकर अपूजा है, क्योंकि महर्षि दयानन्द सरस्वती ने ‘‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’’ में यह भी लिखा है- ‘‘जो ज्ञानादि रहित जड़ पदार्थ और जो सत्कार के योग्य नहीं है। उसका जो सत्कार करना है, वह ‘‘अपूजा’’ है।’’ थोड़ी देर के लिए हम बहस के लिए मानते हैं कि गणेश ने अपने माता-पिता की परिक्रमा की थी, इसलिए सर्वप्रथम उसी की पूजा करनी चाहिए तो प्रश्न उत्पन्न होगा कि जिस गणेश ने वह कार्य किया था, वह ही आज कहाँ नहीं है। पत्थर की बनी मूर्ति या कागज में दिख रहा गणेश वास्तविक गणेश नहीं है। आप पत्थर या कागज की पूजा कराते हैं जो जड़ पदार्थ हैं, ज्ञानरहित, क्रिया रहित हैं। इनका सत्कार हो नहीं सकता, अतः इस कथित गणेश से जो कुछ करते हो, वह अपूजा है व इससे कुछ लाभ नहीं होता, हानि अवश्य होती है।

गणेश का पूजन करना है तो पहले गणेश शद का अर्थ समझना चाहिए। ‘गण संयाने’ इस धातु से गण शद सिद्ध होता है। उसके आगे ईश शद लगाने से गणेश शद सिद्ध होता है। ‘गणानां समूहानां जगतामीशः स गणेशः’ अर्थ= सब गणों नाम संघातों का अर्थात् सब जगतों का ईश स्वामी होने से परमेश्वर का नाम गणेश है।

-सत्यार्थप्रकाश, प्रथम समुल्लास

परमेश्वर के अनेक गुणवाचक, कर्मवाचक, सबन्धवाचक नाम हैं। इनमें शिव, गणेश, ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र तथा सरस्वती आदि नाम भी हैं। वेद क्योंकि सृष्टि के प्रथम दिन ईश्वर ने दिए थे, उस दिन इन नामों के शरीरधारी मनुष्य कोई न थे। सामाजिक व्यवहार के लिए मनुष्यों के नाम रखना आवश्यक होता है, अतः वेदों में प्रयुक्त शदों को अपने व अपनी सन्तान के नाम करण हेतु प्रयोग करना पड़ा था। आज भी ऐसा ही होता है। वेद में यदि गणेश व शिवादि की पूजा का आदेश है तो वह सदैव रहने वाले अशरीरी गणेश से ही अभिप्रेत है, न कि बाद में शरीरधारी हुए किसी गणेश नामक व्यक्ति से। परमेश्वर से बड़ा विघ्नहारी कौन होगा? विस्तार से इस विषय को समझने हेतु ‘‘सत्यार्थप्रकाश’’ का प्रथम समुल्लास पढ़ना चाहिए। ‘शिवपुराण’ व अन्य सभी पुराणों को महर्षि दयानन्द जी ने ‘सत्यार्थप्रकाश’ के तृतीय समुल्लास ‘‘संस्कार विधिः’’ के वेदारभ संस्कार तथा ‘‘ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका’’ के ग्रंथ प्रामान्याप्रमाण्य विषय के अन्तर्गत पठन-पाठन हेतु त्याज्य ग्रंथों में रखा है। फिर लेखक ने आर्य समाजी होते हुए ग्रहण क्यों किया?

-चूना भट्ठियाँ, सिटी सेंटर के निकट, यमुनानगर, हरि.

5 thoughts on “परमेश्वर ही सच्चा गणेश है – इन्द्रजित् देव”

  1. Sahi hai !

    Aadaraniya Vyavasthapak mohaday,

    aapake pas agar sandhya se sambandhit koi post ho to share kare. Ya sandhya ki jo vidhi “sandhya evam yagya vidhi” (G.H.) main di hai us vidhi ko vistar purvak batane ka kasht kare.

    Dhanyawad

  2. Vishwa me 372 Dharma hai parntu Vaidic hindu dharma se arthat jise 1925 se hindu dharma kaha jata hai usse jhutha nahi dekha n suna, Shri man ji Shiv ji YA parwati ji ki janam hua nahi hai to uska putra kaise ho sakta hai, SHIV ling hai Aadmi ya Devta nahi PARWATI Bhag Yoni hai ye kalpanic dev hai BHAG & LING ka UNke putra ganesh ko batana ya kahna murkhon ka kam hai

    1. Dr. ShiV Kumar Singh साहब जी धर्म किसे बोलते हैं इसकी जानकारी देना ? यह भी बतलाना आपके हिसाब से Vishwa me 372 Dharma कौन कौन hai ? वैदिक hindu dharam आपके हिसाब से क्या होता है इस पर जानकारी दें ? फिर आगे चर्चा की जायेगी | आपके लिए एक कहावत याद आ रहा है ” नाच ना जाने आंगन टेढ़ा ” और ” बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद ” | आप जैसे ग्यानी से थोडा ज्ञान लेना चाहता हु मेरे जैसे अज्ञानी, कृपया जानकारी देना जिसके बाद चर्चा की जायेगी धन्यवाद |

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