Category Archives: हिन्दी

अजेयता के तप लिए आवश्यक

ओउम
अजेयता के तप लिए आवश्यक
डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
यह तप ही है जो मानव को अजेय बनाता है | यह तप ही है जो मानव को अघर्श्नीय बनाता है | यह तप ही है जो मानव को सब सुखों की प्राप्ति कराता है | यह तप ही है जो ज्ञान आदि की प्राप्ति कराता है | यह तप ही है जो सब प्रकार की सफलता का साधन है | इस तथ्य को ऋग्वेद के अध्याय १० मंडल १५४ के मन्त्र संख्या २ मैं इस प्रकार स्पष्ट किया गया है : तपसा ये अनाध्रिश्यास्तपसा ये स्वर्ययु: |
तपो ये चक्रिरे महास्तान्श्चिदेवापी गच्छतात || ऋग. १०.१५४.२ ||
हे (मर्त्य ) मनुष्य (ये ) जो (तपसा) तपस्या से (अनाध्रिश्या:) अघर्शनीय हैं ( ये) जो (तपसा) तपस्या से (स्व: ) सुख को (ययु:)प्राप्त हुए हैं (ये) जिन्होंने (माह: ) महान (तप: ) तपस्या ( चक्रिरे) की है ( तान चिद एव ) उनके पास ही (अपि गच्छतात) जाओ |
भावार्थ : –
हे मनुष्य इस संसार मे जो अघर्श्नीय हैं , जो तप से सुखों को प्राप्त कर चुके हैं , जिन मनुष्यों ने महान तप किया है , ज्ञान आदि प्राप्त करने के लिए उनके ही समीप जाओ |
मनुष्य की यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह प्रत्येक क्षेत्र में सफल हो | वह जानता है कि सफलता से ही यश मिलता है ,सफलता से ही कीर्ति मिलती है तथा सफलता से ही उस की ख्याति दूर दूर तक जा पाती है , जो कभी सफलता के दर्शन ही नहीं करता , उस को कोंन याद करेगा, उसका उदहारण कोंन अपने बच्चों को देगा | उस का कोंन अनुगामी बनेगा , कोई भी तो नहीं | इस लिए मनुष्य की यह स्वाभाविक इच्छा रहती है कि वह प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त करे ताकि उसका यश व कीर्ति दूर दूर तक जा पावे | लोग उसके अनुगामी बन उसके पद – चिन्हों पर चलें | इस सब के लिए जीवन की सफलता का रहस्य का ज्ञान होना आवश्यक है | जिसे सफलता के रहस्य का ज्ञान ही नहीं , वह कहाँ से सफलता प्राप्त कर सकेगा | अत: हमें यह जानना आवश्यक है कि हम सफलता के रहस्य को समझें |
जीवन की सफलता का रहस्य : –
जीवन कि सफलता का रहस्य है तप और साधना |
साधना किसे कहते हैं :
जब व्यक्ति अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर लेता है तथा उस लक्ष्य को पाने के लिए एकाग्रचित हो निरंतर लग जाता है तो इसे साधना कहते हैं | तप भी इसे ही कहा जाता है |

2
इससे एक बात सपष्ट है कि मनुष्य को किसी भी प्रकार की साधना के लिए , किसी भी प्रकार का तप करने के लिए सर्व प्रथम एक लक्ष्य निर्धारित करना आवश्यक है | यह लक्ष्य ही है जो हमें निरंतर अपनी और खिंचता रहता है | यदि लक्ष्य ही हमने नहीं निश्चित किया तो किसे पाने के लिए हम प्रयास करेंगे ? जब हमें पता है कि हमने पांच किलोमीटर चलना है तो इस मंजल को पाने के लिए आगे बढ़ते चले जावेंगे तथा कुच्छ दूरी पर ही हमें आभास होगा कि अब हमारा लक्ष्य समीप चला आ रहा है किन्तु यदि हमें अपने लक्ष्य का पता ही नहीं कि हमने कितने किलोमीटर जाना है , तो हम किस लक्ष्य को पाने के लिए आगे बढेंगे | इससे यह तथ्य सपष्ट होता है कि किसी भी सफलता को पाने के लिए प्रयास आरम्भ करने से पूर्व हमें एक लक्ष्य निश्चित करना होगा |
दृढ संकल्प : –
जब हमने कोई कार्य करने के लिए लक्ष्य निर्धारित कर लिया तो उस लक्ष कि प्राप्ति के लिए दृढ संकल्प का होना भी आवश्यक है , अन्यथा हमारा लक्ष्य केवल हवाई किला ही सिद्ध होगा |
अनुष्ठान : –
जब एक लक्ष्य निर्धारित हो गया तथा इसे पूर्ण करने का दृढ संकल्प भी हो गया तो इसे अनुष्ठान कहते है | दृढ निश्चय से यह एक अनुष्ठान बन जाता है | इस अनुष्ठान या व्रत को विधि पूर्वक संपन्न करने का प्रयास ही या इसे पूर्णता पर पहुंचाना ही साधना है | इस प्रयास को तप भी कहा जाता है | साधना ही तप का वास्तविक रूप होता है |
लक्ष्य तो प्रत्येक व्यक्ति का ही बड़ा उंचा होता है किन्तु वह इसे पाने के लिए पुरुषार्थ नहीं करता , मेहनत नहीं करता , साधना नहीं करता, तप नहीं करता तो यह लक्ष्य उसे कैसे मिलेगा | यह द्रढ संकल्प ही है , जो मनुष्य को साधना करने की प्रेरणा देता है , जो हमें तप करने की प्रेरणा देता है , जो हमें पुरुषार्थ के मार्ग पर ले जाता है | दृढ निश्चय व कतिवद्धता के बिना लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता |
दृढ निश्चय तथा कतिबधता ; –
लक्ष्य की प्राप्ति के इच्छुक व्यक्ति में दृढ निश्चय तथा उसे पूर्ण करने के लिए कटिबद्धता का होना भी आवश्यक है | अन्यथा यदि हम ने बहुत ही उंचा लक्ष्य निर्धारित कर लिया किन्तु उसे प्राप्त करने के लिए हम दृढ संकल्प नहीं कर पाए , अन्यमनसक से हो कर कभी प्रयास किया कभी छोड़ दिया तो उसे कैसे पावेंगे ? और यदि संकल्प भी दृढ कर लिया किन्तु कटिबद्ध होकर कार्य में जुटे ही नहीं तो भी कार्य की सम्पान्नता संभव नहीं | लक्ष्य से भटक कर लक्ष्य को नहीं प्राप्त किया जा सकता | अत: लक्ष्य चाहे छोटा हो यहा बड़ा , उसे पाने के लिए निश्चय का दृढ होना तथा उसे पाने के लिए प्रयास करना या कटिबद्ध होना भी आवश्यक है |
जब मनुष्य दृढ निश्चय से कार्य में जुट जाता है तो वह शनै: शनै: सफलता प्राप्त करते हुए अंत में उन्नति कि पराकाष्ठा तक जा पहुंचेगा | तभी तो कहा है कि जब अभ्यास सत्य ह्रदय से होता है तो उसे करने वाला व्यक्ति सिद्ध तपोनिष्ठ हो कर अजेय व अघर्शनीय बन जाता है अर्थात वह अपने कार्य
में इतना सिद्ध हस्त हो जाता है कि कभी कोई उसका प्रतिस्पर्धी हो ही नहीं पाता | वह अजेय हो जाता है | अब उसे जय करने की क्षमता किसी अन्य में नहीं होती | सब प्रकार कि सीढियां उसे अपने कार्य में धीरे धीर मिलती ही चली जाती हैं | जिस कार्य को वह अपने हाथ में लेता है , उस कार्य में सफलता दौड़े हुए उसके पास चली आती है |
यह मन्त्र इस उपर्युक्त तथ्य पर ही प्रकाश डालता है कि जो व्यक्ति अपना लक्ष्य निर्धारित कर लेता है , उस लक्ष्य को पाने के लिए दृढ संकल्प होता है तथा वहां तक पहुँचने के लिए कटिबद्ध हो पुरुषार्थ करता है तो सब सिद्धियाँ उसे निश्चय ही प्राप्त होती हैं | अपने प्रत्येक कार्य में उसे सफलता मिलती है , मानो सफलता स्वागत के लिए उस के मार्ग पर खड़ी पहले से ही प्रतीक्षा – रत हो | इस तथ्य को ही मन्त्र में स्पष्ट किया है तथा कहा है कि किसी भी प्रकार की सफलता के लिए तप का होना आवश्यक है | बिना तप के कुछ भी मिल पाना संभव नहीं है | अत: हे मानव उठ ! अपना लक्ष्य निर्धारित कर , दृढ संकल्प हो उसे पाने के लिए प्रयास कर , तुझे सफलता निश्चित ही मिलेगी |
डा. अशोक आर्य

आर्य महापुरुषों के प्रति डॉ0 अम्बेडकरजी का कृतज्ञता भाव:डॉ कुशलदेव शाश्त्री

डॉ0 अम्बेडकरजी भी आर्य महापुरुषों के प्रति हार्दिक कृतज्ञता भाव रखते थे। उन्होंने अपनी पी0एच0डी0 का प्रकाशित शोध-प्रबन्ध बड़ोदरा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ को समर्पित किया है। डॉ0 अम्बेडकरजी के गुरु ज्योतिबा फुलेजी को महाराज सयाजीराव गायकवाड़जी ने ही सन् 1886 में मुम्बई के एक समारोह में ’महात्मा‘ उपाधि प्रदान की थी। 6 मई 1922 को कोल्हापुर नरेश शाहू महाराज का निधन हो गया। 10 मई 1922 को श्री अम्बेडकर ने युवराज राजाराम महाराज को लिखे अपने पत्र में कहा था –

’महाराज के निधन का समाचार पढ़कर मुझे तीव्र आघात पहुँचा। इस दुःखद घटना से मुझे दोहरा दुःख हुआ है। जहाँ मैं अपना एक असाधारण मित्र खो बैठा हूँ वहाँ दलित समाज अपने एक सबसे महान् हितचिन्तक से वंचित हो गया है। मैं स्वयं जब इस शोक में आकुल-व्याकुल हूँ, ऐसे समय में मैं आपके और महारानी के दुःख में अन्तःकरण पूर्वक सहानुभूति व्यक्त करने की त्वरा कर रहा हूँ।‘

 

स्वामी श्रद्धानन्दजी के विषय में डॉ0 अम्बेडकरजी लिखते हैं -’स्वामीजी अति जागरूक एवं प्रबुद्ध आर्यसमाजी थे और सच्चे दिल से अस्पृश्यता को मिटाना चाहते थे।‘ सुप्रसिद्ध राष्ट्रीय व आर्यसमाजी नेता लाला लाजपतराय की सन् 1915 में ही अमेरिका के एक पुस्तकालय में श्री अम्बेडकरजी से मुलाकात हुई थी। लालाजी ने तब इस भारतीय विद्यार्थी से बड़ी ही आस्थापूर्वक कुशलक्षेम पूछकर राष्ट्रीय विषयों की चर्चा की थी। अम्बेडकरजी दलित समाज से सम्बद्ध हैं, यह जानकारी तो लालाजी को बहुत-सा काल गुजरने के बाद ही मिली। लालाजी के सम्बन्ध में डॉ0 अम्बेडकरजी ने लिखा है-’उनके पिताजी आर्यसमाजी थे, अतः उन्हें प्रारम्भ से ही उदारमतवाद की घुट्टी पिलाई गई थी। राजनीतिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टियों से वे क्रान्तिकारी थे। दलितोद्धार के आन्दोलन में वे विश्वसनीय प्रामाणिकता और सहानुभूति के साथ शामिल थे।‘

            डॉ0 अम्बेडकरजी ने श्री सन्तराम बी0 ए0 और भाई परमानन्दजी के जात-पाँत तोड़क मण्डल से प्रेरणा ग्रहण करके ही ’समाज समता संघ‘ की स्थापना की थी। इस संघ के वे स्वयं अध्यक्ष थे। भारतीय समाज और राष्ट्र को भाई परमानन्द और श्री सन्तराम बी0 ए0 जैसे सार्वजनिक कार्यकत्र्ता आर्यसमाज की ही देन हैं। बाबासाहब अम्बेडकरजी अपने जीवन के पूर्वार्द्ध में वेदोक्त पद्धति से सम्पन्न विवाह-उपनयन आदि संस्कारों और श्रावणी कार्यक्रमों में शामिल होते हुए नजर आते हैं। घरेलू और सार्वजनिक पत्रों में ’जोहार‘ के स्थान पर ’नमस्ते‘ करते हुए दिखलाई देते हैं। सहभोज और अन्तर्जातीय विवाह आदि समाज-सुधार के उपक्रमों में सक्रिय आस्था बतलाते हैं। निश्चित रूप से उनकी इन सब गतिविधियों की पृष्ठभूमि में महर्षि दयानन्द व आर्यसमाज आन्दोलन की विस्मरणीय प्रेरणा रही है। इसका श्रेय बड़ोदरा की निर्धन-दलित बस्ती से श्री अम्बेडकरजी को सर्वप्रथम आर्यसमाज की खुली हवा में लानेवाले पं0 आत्मारामजी को विशेष रूप से है। कालान्तर में डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकरजी मुम्बई के ना0 म0 जोशी मार्ग पर स्थित क्रमांक 98 के आर्यसमाज लोअर परल के समारोह में भी ˗प्रमुख अतिथि के रूप में पधारे थे। (आर्यसमाज लोअर परल स्मरणिका 1986-87, पृष्ठ 17)

यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि बड़ोदरा नरेश श्री सयाजीराव गायकवाड़, कोल्हापुर नरेश श्री राजर्षि शाहू महाराज और आर्यविद्वान् पं0 आत्मारामजी अमृतसरी के संयुक्त-समन्वित आर्योचित आचरण के माध्यम से सर्वप्रथम बाबासाहब अम्बेडकरजी को आर्यसमाज रूपी माँ की गोद मिली। महर्षि दयानन्द द्वारा स्थापित आर्यसमाज का वात्सल्य मिला। देव दयानन्द और आर्यसमाज की जीवन दृष्टि का उल्लेखनीय प्रभाव डॉ0 अम्बेडकरजी के पूर्वार्द्ध पर स्पष्ट रूप से दिखलाई देता है। उत्तरार्द्ध में तो उन्होंने ’नास्तिको वेदनिन्दकः‘ का रूप धारण कर लिया था। सम्भवतः इसका कारण डॉ0 अम्बेडकरजी की प्राच्य वैदिक दृष्टि से अनभिज्ञता और पाश्चात्य यूरोपीय दृष्टि से प्रभावित होना था।

बाबासाहब के निर्माण में आर्यसमाज की त्रिमूत का अविस्मरणीय सहयोग:डॉ कुशलदेव शाश्त्री

लन्दन से वापस लौटने पर बैरिस्टर अम्बेडकर ने जून 1923 में अपना वकालत का व्यवसाय प्रारम्भ किया। 5 जुलाई 1923 को वे हाईकोर्ट के वकील भी बने, पर दलितों के प्रति समाज में उपेक्षा भाव होने के कारण उनकी आय इतनी नहीं थी कि वे अनुबन्ध के अनुसार बड़ोदरा प्रशासन के ऋण से उऋण हो चुकी थी। बड़ोदरा रियासत की ओर से पैसे वापस करने के लिए तकाजा लगा हुआ था। ऐसी स्थिति में उन्होंने 9 दिसम्बर 1924 को आर्यसमाजी विद्वान् पं0 आत्मारामजी अमृतसरी को याद किया और पत्र लिखकर उन्हें यह स्पष्ट किया कि ’हमारी आर्थिक परिस्थिति अभी ऐसी नहीं हो पाई है कि हम किसी निश्चित कालावधि तक हफ्ते-हफ्ते से अपना कर्ज वापस कर सकें। तत्काल पं0 आत्मारामजी ने बड़ोदरा प्रशासन को डॉ0 अम्बेडकरजी की व्यथा से सुपरिचित कराया और उन्हें इस विषय में सहानुभूतिपूर्वक विचार करने का अनुरोध किया। फलस्वरूप बड़ोदरा नरेश श्री सयाजीराव गायकवाड़ ने इस कर्ज प्रकरण को ही सदा-सदा के लिए रद्द कर दिया।

बड़ोदरा और कोल्हापुर नरेश ने बाबासाहब अम्बेडकरजी को स्वदेश और विदेश में शिक्षा प्राप्त करने के लिए काफी आर्थिक सहायता प्रदान की थी। श्री अम्बेडकर जब बी0 ए0 में पढ़ रहे थे, तभी से बड़ोदरा नरेशजी ने उन्हें प्रतिमास पन्द्रह रुपये की छात्रवृत्ति देनी प्रारम्भ की थी। इन दोनों प्रगतिशील आर्यनरेशों के निमन्त्रण पर ही आर्यविद्वान् पं0 आत्मारामजी अमृतसरी ने पददलित और उपेक्षित समाज के लिए अपने जीवन के लगभग मूल्यवान् तीन दशक समर्पित किये थे। श्री सयाजीराव गायकवाड़, राजर्षि शाहू महाराज तथा पं0 आत्मारामजी अमृतसरी से श्री अम्बेडकरजी को क्रमशः सहृदयतापूर्वक आत्मीयता और अविस्मरणीय आर्थिक सहायता प्राप्त हुई थी। ये तीनों भी महापुरुष तहेदिल से आर्यसमाजी थे। महर्षि दयानन्द और उनके द्वारा लिखित सत्यार्थप्रकाश पर इस त्रिमूर्ति की गहरी आस्था थी। मराठी ’सत्यार्थप्रकाश‘ प्रकाशित करने में बड़ोदरा और कोल्हापुर नरेश ने समय-समय पर उल्लेखनीय आर्थिक सहायता प्रदान की थी। पं0 आत्मारामजी ने तो उर्दू के साथ पंजाबी में भी सत्यार्थप्रकाश का अनुवाद किया था।

श्री अम्बेडकरजी से पं0 आत्मारामजी आयु में तीस वर्ष बड़े थे। उन्होंने श्री अम्बेडकर को उस समय अपना पितृतुल्य वात्सल्य प्रदान किया, जब रूढ़िवादी संकीर्ण समाज बड़ोदरा में उनके निवास भोजनादि की भी व्यवस्था करने के लिए तैयार नहीं था। उच्च अधिकारी होने के बावजूद भी उन्हें कार्यालय में रखा पानी तक पीने की अनुमति नहीं थी और उनके मातहत कर्मचारी भी फाइल आदि फेंक-फेंककर दे रहे थे। पं0 नरदेवरावजी वेदतीर्थ ने अपनी आत्मकथा में पं0 आत्मारामजी के विषय में लिखा है, ’अद्भुत वक्तृत्व, अनुपम कार्य कर्तृत्व? अनथक लेखक, अद्वितीय प्रबन्धक आदि गुणों के कारण मास्टर आत्मारामजी का नाम आर्यसमाज के सर्वोच्च नेताओं की पंक्तियों में दर्शनीय था। मास्टरजी बड़े मिलनसार, विनोदी और निरभिमानी पुरुष थे और उनकी दिनचर्या ऐसी थी, जैसे-घड़ी का काँटा। समय को कभी भी व्यर्थ नहीं जाने देते थे। कट्टर, किन्तु विचारशील सामाजिक थे। आपका विद्याविलास और स्वाध्याय प्रबल था। बड़ोदरा में जितनी भी सामाजिक जागृति दिखलाई पड़ती है और जितनी भी संस्थाएँ हैं, उन सबका श्रेय मास्टरजी को है। बड़ोदरा के महाराज आपसे अत्यन्त प्रसन्न थे और आपको उन्होंने राज्यरत्न, राज्यमित्र, रावबहादुर आदि उपाधियों से विभूषित किया था।‘ (आप बीती और जग बीती: प्रकाशक-गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर, हरिद्वार, संस्करण-1957: पृष्ठ 318-19)

 

डॉ0 अम्बेडकरजी ने भी अपने एक सुपुत्र का नाम ’राजरत्न‘ ही रखा था। सम्भव है राजरत्न पं0 आत्मारामजी के उदात्त गुणों की स्मृति में ही श्री अम्बेडकरजी ने उक्त नाम रखा हो। यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि बड़ोदरा नरेश सयाजीराव गायकवाड़, कोल्हापुर नरेश छत्रपति शाहूजी महाराज तथा आर्य विद्वान् पं0 आत्मारामजी अमृतसरी की त्रिमूर्ति के आर्योचित उदार आचरण को ध्यान में रखकर ही पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय ने सन् 1954 में प्रकाशित ’जीवन-चक्र‘ नामक आत्मकथा में लिखा था कि ’श्री अम्बेडकरजी को प्रथम शरण तो आर्यसमाज में ही मिली थी।‘

बड़ोदरा के आर्यनरेश द्वारा श्री अम्बेडकर को छात्रवृत्ति: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

पिताजी के देहावसान के बाद शोकाकुल अवस्था में श्री अम्बेडकर जब मुम्बई में ही थे, तब अकस्मात् बड़ोदरा के आर्यनरेश सयाजीराव गायकवाड़ का मुम्बई में आगमन हुआ। बड़ोदरा रियासत की ओर से उच्च शिक्षा हेतु छात्रवृत्ति देकर चार विद्यार्थियों को अमेरिका भिजवाने का उनका विचार था। मुम्बई में जब अम्बेडकर बड़ोदरा नरेश से मिले तो, उन्होंने उक्त छात्रवृत्ति के अनुबन्ध-पत्र पर हस्ताक्षर किये। इस अनुबन्ध के अनुसार अमेरिका में अध्ययन पूर्ण होने के बाद बड़ोदरा रियासत में कम से कम दस वर्ष तक श्री अम्बेडकरजी को अनिवार्य रूप से नौकरी करनी थी।

पं0 आत्माराम और श्री अम्बेडकर की द्वितीय भेंट (1917)

बड़ोदरा नरेश ने उन्हें 15 जून 1913 से 14 जून 1916 तक के लिए विदेश जाकर उच्च अध्ययन प्राप्त करने हेतु छात्रवृत्ति प्रदान की थी। उक्त कालावधि समाप्त होने के बाद 1917 में डॉ0 अम्बेडकरजी जब पुनः बड़ोदरा रियासत में नौकरी करने पधारे तो सबसे पहले पं0 आत्मारामजी अमृतसरी के निवास स्थान पर ही पहुँचे। पं0 आत्मारामजी से हुई पहली मुलाकात के समय डॉ0 अम्बेडकर बी0 ए0 परीक्षा उत्तीर्ण लगभग 22 वर्ष के नवयुवक थे। चार वर्ष बाद अब जब वे पं0 आत्मारामजी से मिलने आये तो ’प्राचीन भारत का व्यापार‘ इस शोध-प्रबन्ध पर एम0 ए0 की उपाधि प्राप्त कर चुके थे। लंदन तथा वाशिंगटन (अमेरिका) के बन्धनमुक्त उदात्त, स्फूर्तिदायक, अधुनातन जीवन के अनुभव से भी वे समृद्ध हो चुके थे। सम्प्रति उनकी आयु लगभग 26 वर्ष थी।

बड़ोदरा आने से पूर्व श्री अम्बेडकरजी ने प्रशासन को अपनी नौकरी के साथ निवास-भोजनादि का प्रबन्ध करने के लिए लिखा था। प्रत्युत्तर में उन्हें त्वरित बड़ोदरा आकर अपनी सेवा शुरू करने का आग्रह किया गया था, पर निवास-भोजनादि की व्यवस्था के विषय में उसमें किसी प्रकार का उल्लेख नहीं था, अतः इससे पूर्व के आत्मीयता पूर्ण व्यवहार को ध्यान में रखते हुए डॉ0 अम्बेडकर जब बड़ोदरा आये तो सबसे पहले पं0 आत्माराम जी अमृतसरी के पास ही पहुंचे। उन्होंने ही अपने परिचय से डॉ0 अम्बेडकरजी की निवास, भोजन की व्यवस्था एक पारसी सज्जन के यहाँ पर करवा दी। इस समय पं0 आत्मारामजी के सुपुत्र श्री आनन्दप्रिय आगरा में बी0 ए0 कर रहे थे। उनके परिवार के अन्य सदस्य भी बड़ोदरा में नहीं थे। अकेले पं0 आत्मारामजी ही आर्यसमाज में रह रहे थे।

 

पं0 आत्माराम और डा0 अम्बेडकर का तृतीय सम्पर्क (1924)

पं0 आत्माराम और डॉ0 अम्बेडकर के सम्पर्क का तीसरा उल्लेख दूसरी मुलाकात के सात वर्ष बाद मिलता है। दूसरी मुलाकात सन् 1917 में हुई थी और तीसरा सम्पर्क प्रत्यक्ष न होकर परोक्ष पत्र द्वारा सन् 1924 में स्थापित हुआ था। इस सम्पर्क का कारण डॉ0 अम्बेडकरजी द्वारा बड़ोदरा सरकार से अमेरिकी उच्च शिक्षा हेतु लिया हुआ कर्ज और उससे मुक्त होने की उनकी छटपटाहट था।

संकीर्ण मानसिकता ने अम्बेडकरजी की नौकरी छुड़ाई

बड़ोदरा प्रशासन के अनुबन्ध पर हस्ताक्षर करके श्री अम्बेडकरजी ने उच्च शिक्षा अध्ययन हेतु बीस हजार रुपये का ऋण लिया था। इस ऋण से बड़ोदरा प्रशासन में नौकरी करके उऋण होने की बात तय हुई थी। निश्चयानुसार डॉ0 अम्बेडकर नौकरी करने के लिए बड़ोदरा भी आ चुके थे, पर इस समय बड़ोदरा का कोई भी भोजनालय दलित होने के कारण उन्हें भोजन देने के लिए तैयार न था। जिस पारसी सज्जन के पास उनके निवास-भोजनादि की व्यवस्था की गई थी, वहाँ से भी उन्हें रूढ़िवादियों ने जबरदस्ती निकाल दिया था। उन दिनों शहर में प्लेग की बीमारी भी फैली हुई थी। ऐसी स्थिति में शहर का कोई भी व्यक्ति उन्हें जगह देने को तैयार नहीं था। विशेष कठिनाई भोजन की कोई सुविधा न होने के कारण थी। अन्त में भूख-प्यास से व्याकुल डॉ0 अम्बेडकरजी एक पेड़ के नीचे बैठकर बिलख-बिलखकर रो पड़े। एक उच्च शिक्षा विभूषित व्यक्ति को केवल इसलिए नकारा जा रहा था कि वह जन्म से दलित हैं। बड़ोदरा नरेश तो उन्हें अर्थमन्त्री बनाना चाह रहे थे, परन्तु इस क्षेत्र का उन्हें कोई अनुभव न होने के कारण सेना में सचिव के रूप में उनकी नियुक्ति की गई थी। सेना का सचिव पद भी एक प्रतिष्ठित पद था। इस नियुक्ति से भी उच्चवर्गीय व्यक्ति भीतर ही भीतर कुढे हुए थे। केवल दलित होने के कारण ’विद्वान् सर्वत्र पूज्यते‘ की बात खटाई में पड़ रही थी। इनके अधीनस्थ कर्मचारी भी जब उन्हें फाइल देते तो दूर से फेंककर देते थे। कार्यालय में रखा पानी भी वे नहीं पी सकते थे। परिणामतः ऐसी असह्म अपमानजनक स्थिति में बड़ोदरा प्रशासन की नौकरी छोड़कर उन्हें मुम्बई वापस लौट जाने के लिए विवश होना पड़ा।

 

छत्रपति शाहू महाराज की अम्बेडकरजी पर छत्रछाया

सन् 1917 से 1924 तक की कालावधि में डॉ0 अम्बेडकर विद्याध्ययन के अतिरिक्त विविध सार्वजनिक कार्यों में भी तल्लीन रहे। सन् 1923 में जब वे लन्दन में विद्याध्ययन कर रहे थे, तब उन्होंने कोल्हापुर नरेश शाहू महाराज से दो सौ पौंड का आर्थिक सहयोग देने का अनुरोध किया था। लन्दन में रहते हुए उन्होंने ’एम0 एस0 सी0‘ ’बैरिस्टर‘, ’पी0 एच0 डी0‘ और ’डी0 एस0 सी0‘ की उपाधियाँ प्राप्त कीं। 1923 से पूर्व श्री शाहू महाराज श्री अम्बेडकरजी को विद्याध्ययन हेतु डेढ़ हजार रुपये की सहायता दे चुके थे। नागपुर (1917) व कोल्हापुर (21 मार्च 1920) में सम्पन्न दलित परिषदों की अध्यक्षता भी राजर्षि शाहू महाराज ने की थी। इन दोनों परिषदों में श्री अम्बेडकर जी भी उपस्थित थे। इसी कालावधि में श्री अम्बेडकर और शाहू महाराज की सर्वप्रथम भेंट कहीं न कहीं हुई होगी। 31 जनवरी, 1920 को अम्बेडकरजी द्वारा शुरु किये गये साप्ताहिक ’मूकनायक‘ पत्र को शाहू महाराज ने एक हजार रुपये का दान दिया था। सितम्बर 1920 में विद्याध्ययन के लिए श्री अम्बेडकर लन्दर गये थे। इससे पूर्व वे ’बहिष्कृत समाज परिषद‘, ’अस्पृश्य समाज परिषद‘, बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना और संचालन कर चुके थे। बहिष्कृत समाज परिषद की स्थापना तो उन्होंने मई 1920 में नागपुर में ही की थी।

बाबासाहब अम्बेडकर का आर्यसमाज बड़ोदरा में निवास (1913): डॉ कुशलदेव शाश्त्री

श्री भीमराव अम्बेडकर ने सन् 1907 में मैट्रिक और 1912 में पर्शियन और अंग्रेजी विषय लेकर बी0 ए0 की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसी दौरान पं0 आत्मारामजी सन् 1908 से 1917 तक बड़ोदरा रियासत में दलितोद्धार का कार्य कर रहे थे। इसी कालावधि में बी0 ए0 उत्तीर्ण होने के उपरान्त सन् 1913 में श्री भीमराव अम्बेडकर बड़ोदरा आये और वहाँ की दलित बस्ती में रहने लगे। इस घटना का वर्णन करते हुए डॉ0 अम्बेडकरजी के चरित्र लेखक श्री चांगदेव भवानराव खैरमोडे ने लिखा है –

  ”भीमराव बड़ोदरा में 23 जनवरी 1913 के आस-पास पधारे थे। वहाँ प्रशासन की ओर से उनके निवास और भोजन की व्यवस्था नहीं हो पाई थी, अतः वे सबसे पहले वहाँ की दलित बस्ती (महारवाड़े) में दो-तीन दिन रहे। वह जगह हर प्रकार से असुविधाजनक थी। वहीं पर उनका पं0 आत्मारामजी से परिचय हुआ। पण्डितजी पंजाबी आर्यसमाजी थे, वे बड़ोदरा रियासत की दलितों की पाठशाला के इन्स्पैक्टर थे। वे ही भीमराव को अपने साथ आर्यसमाज के कार्यालय में ले गये। जब तक अन्यत्र कहीं व्यवस्था नहीं होती, तब तक भीमराव ने वहीं रहने का निश्चय किया। वह जगह श्री भीमराव को जिस कार्यालय में काम करना था, वहाँ से डेढ़ मील की दूरी पर थी।“

इस अवसर पर श्री अम्बेडकर एक सप्ताह से भी कुछ अधिक समय तक आर्यसमाज बड़ोदरा में आर्यविद्वान् पं0 आत्मारामजी अमृतसरी के साथ रहे।

भीमरावजी को बड़ोदरा नरेश की सेना में लैफ्टिनेन्ट पद पर नियुक्त किया गया था, परन्तु सन् 1913 की इस यात्रा में श्री अम्बेडकर अधिकतम दो सप्ताह ही बड़ोदरा में रह पाये। एक दिन उन्हें मुम्बई से तार मिला कि पिताजी बहुत बीमार हैं। जब वे मुम्बई पहुँचे तो पिताजी अन्तिम सांसें गिन रहे थे। छह वर्ष की आयु में उनकी माताजी का देहान्त हो चुका था, तो अब 21 वर्ष 9 महीने की अवस्था में पिताजी की छत्र छाया भी उनके ऊपर से उठ गई।

मास्टर आत्माराम अमृतसरी और डॉ0 अम्बेडकर : डॉ कुशलदेव शाश्त्री

बात अंग्रेजों के शासनकाल की है। डॉ0 अम्बेडकरजी (1891-1956) दलितों के नेता के रूप में उभर चुके थे। दलितों के पृथक् निर्वाचन क्षेत्र की भी उन्होंने माँग की थी। इस माँग के विरोध में 20 सितम्बर, 1932 को महात्मा गान्धीजी ने आमरण अनशन किया था। अनशन विषयक इस प्रसंग का विश्लेषण करते हुए पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय ने लिखा था कि-‘ डॉ0 अम्बेडकरजी को प्रथम शरण तो आर्यसमाज में ही मिली थी। (जीवन चक्र प्रकाशक-कला प्रेस इलाहाबाद, संस्करण-1954)। पर उपाध्यायजी ने वहाँ उन घटना-प्रसंगों या काल का उल्लेख नहीं किया है, जिससे इस जिज्ञासा की तृप्ति हो कि ’बाबासाहब अम्बेडकर जीवन में पहली बार कब और कैसे आर्यसमाज के सम्पर्क में आये ?‘

लगभग पन्द्रह साल तक डॉ0 अम्बेडकर के सम्पर्क में रहने वाले श्री चांगदेव भवानराव खैरमोडे ने सन् 1952 में डॉ0 भीमराव अम्बेडकर का चरित्र लिखा था। उस चरित्र का अध्ययन करते समय पता चला कि सर्वप्रथम सन् 1913 में बड़ोदरा निवास-काल में डॉ0 अम्बेडकर आर्य विद्वान पं0 आत्मारामजी अमृतसरी और आर्यसमाज बड़ोदरा के सम्पर्क में आये थे।

पं0 आत्मारामजी (1866-1938) मूलतः अमृतसर के निवासी थे। आर्य विद्वान् पं0 गुरुदत्तजी विद्यार्थी की प्रेरणा से उन्होंने अंग्रेज सरकार की नौकरी न करने का संकल्प किया था। सन् 1811 में उन्होंने दयानन्द हाईस्कूल लाहौर में अध्यापन किया और उसी समय वे पंजाब आर्य प्रतिनिधि सभा, लाहौर के उपमन्त्री (1894) भी बने। सन् 1897 में हुतात्मा पं0 लेखरामजी का बलिदान हो जाने के पश्चात् पं0 आत्मारामजी ने उनके द्वारा पूरे भारवर्ष में घूमकर संकलित की गई स्वामी दयानन्द विषयक जीवन सामग्री को सूत्रबद्ध कर एक बृहद् ग्रन्थ का रूप प्रदान किया। तथाकथित शूद्रों को वैदिकधर्मी बनाकर भरी सभा में उनके कर-कमलों से उन्होंने अन्न और जल भी ग्रहण किया था। समय-समय पर उन्होंने पौराणिकों और मौलवियों से शास्त्रार्थ भी किए थे। (आर्यसमाज का इतिहास: सत्यकेतु विद्यालंकार)। बड़ोदरा राज्य की ओर से न्याय विभाग के लिए विविध भाषाओं में कोश बनाये गये थे। उसके हिन्दी विभाग की जिम्मेदारी आपको ही सौंपी गई थी। यह ग्रन्थ ’श्री सयाजी शासन कल्पतरु‘ के नाम से प्रकाशित हुआ था। (डॉ0 बाबासाहेब अम्बेडकर: डॉ0 सूर्यनारायण रणसुभे: राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली संस्करण/1992)। मौलिक और अनूदित कुल मिलाकर उन्होंने लगभग बीस ग्रन्थ लिखे थे।

जब दलितों को विधर्मी बनते देख बड़ोदरा नरेश ने अपनी रियासत में दलितोद्धार के कार्य को प्रभावशाली बनाने का संकल्प किया, तब उन्होंने स्वामी दयानन्द के शिष्य आर्य सन्यासी स्वामी नित्यानन्द ब्रह्मचारी (1860-1914) से ऐसे व्यक्ति की माँग की जो उच्चवर्णीय होते हुए भी दलितों में ईमानदारी से कार्य कर सके, तो उस समय स्वामी नित्यानन्द जी ने मास्टर आत्माराम जी से अनुरोध किया। तदनुसार पं0 आत्मारामजी ने सन् 1908 से 1917 तक बड़ोदरा रियासत में और तत्पश्चात् कोल्हापुर रियासत में दलितोद्धार का कार्य किया। दलितों में उनके द्वारा किये गये कार्य की महात्मा गाँधी, कर्मवीर विट्ठल रामजी शिंदे, श्री जुगल किशोर बिड़ला, इन्दौर नरेश तुकोजीराव होल्कर आदि ने मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है। (आदर्श दम्पत्ति: सुश्री सुशीला पण्डिता)।

बड़ोदरा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ को दलितोद्धार के कार्य में सफलता उस समय से प्राप्त हुई जब उन्होंने पं0 आत्मारामजी को अपनी रियासत के छात्रावासों का अध्यक्ष और पाठशालाओं का निरीक्षक नियुक्त किया था। बड़ोदरा रियासत में शूद्रातिशूद्रों के लिए जो सैकड़ों पाठशालाएँ स्थापित की गई थीं, उनमें लगभग बीस हजार बालक बालिकाओं ने शिक्षा ग्रहण की थी। बड़ोदरा में उन्होंने आर्य कन्या महाविद्यालय की भी स्थापना की थी।

कोल्हापुर नरेश राजर्षि शाहू महाराज जब बड़ोदरा पधारे तो पं0 आत्मारामजी के कार्यों से बहुत ही प्रभावित हुए और उन्हें शीघ्र ही कोल्हापुर आने का निमन्त्रण दे गये। 1918 में जब पं0 आत्माराम कोल्हापुर पधारे तो शाहू महाराज ने उन्हें अपना मित्र ही नहीं, अपितु धर्मगुरु भी माना और अपनी रियासत को आर्यधर्मी बनाने के लिए उनके कर-कमलों से जनवरी 1918 में आर्यसमाज की स्थापना की। कोल्हापुर की राजाराम महाविद्यालय आदि शिक्षण संस्थाओं को भी उन्होंने संचालन हेतु आर्य संस्थाओं को सौंप दिया। इस प्रकार गुजरात की बड़ोदरा और महाराष्ट्र की कोल्हापुर रियासत के माध्यम से पं0 आत्माराम जी ने सामाजिक और शैक्षिक क्षेत्र में कार्य करते हुए दलितोद्धार की दृष्टि से उल्लेखनीय भूमिका निभायी थी।

हम पवित्र ह्रदय के स्वामी हों

हम पवित्र ह्रदय के स्वामी हों

डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
अग्नि तेज का प्रतीक है, अग्नि एश्वर्य का प्रतिक है, अग्नि जीवन्तता का प्रतिक है | अग्नि मैं ही जीवन है , अग्नि ही सब सुखों का आधार है | अग्नि की सहायता से हम उदय होते सूर्य की भांति खिल जाते हैं , प्रसन्नचित रहते हैं | जीवन को धन एश्वर्य व प्रेम व्यवहार लाने के लिए अग्नि एसा करे | इस तथ्य को ऋग्वेद के ६-५२-५ मन्त्र में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है : –
विश्वदानीं सुमनस: स्याम
पश्येम नु सुर्यमुच्चरनतम |
तथा करद वसुपतिर्वसुना
देवां ओहानो$वसागमिष्ठ: || ऋग.६-५२-५ ||
शब्दार्थ : –
(विश्वदानीम) सदा (सुमनस:) सुन्द व पवित्र ह्रदय वाले प्रसन्नचित (स्याम) होवें (न ) निश्चय से (उच्चरंतम) उदय होते हुए (सूर्यम) सूर्य को (पश्येम) देखें (वसूनाम) घनों का (वसुपति: ) धनपति , अग्नि (देवां) देवों को (ओहान:) यहाँ लाता हुआ (अवसा) संरक्षण के साथ (आगमिष्ठा:) प्रेमपूर्वक आने वाला (तथा) वैसा (करत ) करें |
भावार्थ :-
हम सदा प्रसन्नचित रहते हए उदय होते सूर्य को देखें | जो धनादि का महास्वामी है , जो देवों को लाने वाला है तथा जो प्रेम पूर्वक आने वाला है , वह अग्नि हमारे लिए एसा करे |
यह मन्त्र मानव कल्याण के लिए मानव के हित के लिए परमपिता परमात्मा से दो प्रार्थनाएं करने के लिए प्रेरित करता है : –
१. हम प्रसन्नचित हों
२. हम दीर्घायु हों
मन्त्र कहता है की हम उदारचित ,प्रसन्नचित , पवित्र ह्रदय वाले तथा सुन्दर मन वाले हों | मन की सर्वोतम स्थिति हार्दिक प्रसन्नता को पाना ही माना गया है | यह मन्त्र इस प्रसन्नता को प्राप्त करने के लिए ही हमें प्रेरित करता है | मन की प्रसन्नता से ही मानव की सर्व इन्द्रियों में स्फूर्ति, शक्ति व ऊर्जा आती है |
मन प्रसन्न है तो वह किसी की भी सहायता के लिए प्रेरित करता है | मन प्रसन्न है तो हम अत्यंत उत्साहित हो कर इसे असाध्य कार्य को भी संपन्न करने के लिए जुट सकते है, जो हम साधारण अवस्था में करने का सोच भी नहीं सकते | हम दुरूह कार्यों को सम्पन्न करने के लिए भी अपना

2
हाथ बढ़ा देते हैं | यह मन के प्रसन्नचित होने का ही परिणाम होता है | असाध्य कार्य को करने की भी शक्ति हमारे में आ जाती है | अत्यंत स्फूर्ति हमारे में आती है | यह स्फूर्ति ही हमारे में नयी ऊर्जा को पैदा करती है | इस ऊर्जा को पा कर हम स्वयं को धन्य मानते हुये साहस से भरपूर मन से ऐसे असाध्य कार्य भी संपन्न कर देते हैं , जिन्हें हम ने कभी अपने जीवन में कर पाने की क्षमता भी अपने अंदर अनुभव नहीं की थी |
मन को कभी भी अप्रसन्नता की स्थिति में नहीं आने देना चाहिए | मन की अप्रसन्नता से मानव में निराशा की अवस्था आ जाती है | वह हताश हो जाता है | यह निराशा व हताशा ही पराजय की सूचक होती है | यही कारण है की निराश व हताश व्यक्ति जिस कार्य को भी अपने हाथ में लेता है, उसे संपन्न नहीं कर पाता | जब बार बार असफल हो जाता है तो अनेक बार एसी अवस्था आती है कि वह स्वयं अपने प्राणांत तक भी करने को तत्पर हो जाता है | अत: हमें ऐसे कार्य करने चाहिए, ऐसे प्रयास करने चाहिए, एसा पुरुषार्थ करना चाहिए व एसा उपाय करना चाहिए , जिससे मन की प्रसन्नता में निरंतर अभिवृद्धि होती रहे |
मन की पवित्रता के लिए कुछ उपाय हमारे ऋषियों ने बताये हैं , जो इस प्रकार हैं : –
१. ह्रदय शुद्ध हो : –
हम अपने ह्रदय को सदा शुद्ध रखें | शुद्ध ह्रदय ही मन को प्रसन्नता की और ला सकता है | जब हम किसी प्रकार का छल , कपट दुराचार ,आदि का व्यवहार नहीं करें गे तो हमें किसी से भी कोई भय नहीं होगा | कटु सत्य को भी किसी के सामने रखने में भय नहीं अनुभव करेंगे तो निश्चय ही हमारी प्रसन्नता में वृद्धि होगी |
२. पवित्र विचारों से भरपूर मन : –
जब हम छल कपट से दूर रहते हैं तो हमारा मन पवित्र हो जाता है | पवित्र मन में सदा पवित्र विचार ही आते है | अपवित्रता के लिए तो इस में स्थान ही नहीं होता | पवित्रता हमें किसी से भय को भी नहीं आने देती | बस यह ही प्रसन्नता का रहस्य है | अत; चित की प्रसन्नता के लिए पवित्र विचारों से युक्त होना भी आवश्यक है |
३. सद्भावना से भरपूर मन : –
हमारे मन में सद्भावना भी भरपूर होनी चाहिए | जब हम किसी के कष्ट में उसकी सहायता करते है , सहयोग करते हैं अथवा विचारों से सद्भाव प्रकट करते हैं तो उसके कष्टों में कुछ कमीं आती है | जिसके कष्ट हमारे दो शब्दों से दूर हो जावेंगे तो वह निश्चित ही हमें शुभ आशीष देगा | वह हमारे गुणों की चर्चा भी अनेक लोगों के पास करेगा | लोग हमें सत्कार देने लगेंगे | इससे भी हमारी चित की प्रसन्नता अपार हो जाती है | अत: चित की प्रसन्नता के लिए सद्भावना भी एक आवश्यक तत्व है |
इस प्रकार जब हम अपने मन में पवित्र विचारों को स्थान देंगे , सद्भावना पैदा करेंगे तथा ह्रदय को शुद्ध रखेंगे तो हम विश्वदानिम अर्थात प्रत्येक अवस्था में प्रसन्नचित रहने वाले बन जावेंगे | हमारे प्राय:
3
सब धर्म ग्रन्थ इस तथ्य का ही तो गुणगान करते है | गीता के अध्याय २ श्लोक संख्या ६४ व ६५ में भी इस तथ्य पर ही चर्चा करते हुए प्रश्न किया है कि
मनुष्य प्रसन्नचित कब रहता है ?
इस प्रश्न का गीता ने ही उतर दिया है कि मनुष्य प्रसन्नचित तब ही रहता है जब उसका मन राग , द्वेष रहित हो कर इन्द्रिय संयम कर लेता है |
फिर प्रश्न किया गया है कि प्रसन्नचित होने के लाभ क्या हैं ?
इस का भी उतर गीता ने दिया है कि प्रसन्नचित होने से सब दु:खों का विनाश हो कर बुद्धि स्थिर हो जाती है | अत: जो व्यक्ति प्रसन्नचित है उसके सारे दु:ख व सारे क्लेश दूर हो जाते हैं | जब किसी प्रकार का कष्ट ही नहीं है तो बुद्धि तो स्वयमेव ही स्थिरता को प्राप्त कराती है |
जब मन प्रसन्नचित हो गया तो मन्त्र की जो दूसरी बात पर भी विचार करना सरल हो जाता है | मन्त्र में जो दूसरी प्रार्थना प्रभु से की गयी है , वह है दीर्घायु | इस प्रार्थना के अंतर्गत परमपिता से हम मांग रहे हैं कि हे प्रभु ! हम दीर्घायु हों, हमारी इन्द्रियाँ हृष्ट – पुष्ट हों ताकि हम आजीवन सूर्योदय की अवस्था को देख सकें | सूर्योदय की अवस्था उतम अवस्था का प्रतीक है | उगता सूर्य अंत:करण को उमंगों से भर देता है | सांसारिक सुख की प्राप्ति की अभिलाषा उगता सूर्य ही पैदा करता है | यदि हम स्वस्थ हैं तो सब प्रकार के सुखों के हम स्वामी हैं | जीव को सुखमय बनाने के लिए होना तथा स्वस्थ होना आवश्यक है | अत: हम एसा पुरुषार्थ करें कि हमें उत्तम स्वास्थ्य व प्रसन्नचित जीवन प्रन्नचित मिले |

डा. अशोक आर्य ,

कत्लखाना बंद नहीं होना चाहिए ?

कत्लखाना बंद नहीं होना चाहिए ?
हमारा देश लोकतान्त्रिक देश है और विश्व का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश है और इसे सब जानते हैं । लोकतान्त्रिक देश के 4 स्तंभ होते हैं वे स्तम्भ है १) कार्यपालिका २) न्यायपालिका ३)विधायिका और ४)मीडिया । इसमें किसी भी लोकतंत्र के लिए पहले ३ स्तम्भ बहुत ही ज्यादा प्रमुख है इसके बिना तो लोकतंत्र नहीं चल सकता । चौथा स्तंभ भी लोकतंत्र के लिए बहुत जरुरी है ।
खैर इन बातो में हमें चर्चा नहीं करना है फिलहाल ।

किसी भी देश में न्यायपालिका का कार्य होता है की न्याय दे कानून का व्याख्या करे कानून तोड़ने पर उसे दंड दे । कार्यपालिका का कार्य होता है कानून को लागू करना । विधायिका का कार्य होता कानून बनाना । अब हम चौथे स्तम्भ की बात करते हैं मीडिया ।
मीडिया वह होता है जो समसामयिक विषयों पर लोगों को जागरुक करने तथा उनकी राय बनाने में बड़ी भूमिका निभाता है वहीं वह अधिकारों/शक्ति के दुरुपयोग को रोकने में भी महत्‍वपूर्ण है ।

किसी देश में स्‍वतंत्र, निष्‍पक्ष मीडिया भी उतना ही महत्‍वपूर्ण है जितना कि लोकतंत्र के दूसरे स्‍तंभ. किसी लोकतंत्र में प्रेस के लिए ‘लोकतंत्र के चौथे स्‍तंभ’ वाली यह परिभाषा सबसे पहले एडमंड बर्क ने रखी थी.| अब हम आजकल की मीडिया के बारे में बतलाने के पहले एक कहानी के बारे में बतलाना चाहता हु ।

यह कहानी मुझे ठीक से याद नहीं आ रही है फिर भी यहाँ पर प्रकट करना चाहता हु । किसी जंगल में चुनाव हो रहा था उस जंगल में दो प्रकार के जानवर थे एक वह जानवर जो शाकाहारी जानवर थे और दूसरे वह जानवर थे जो मांसाहारी थे । सभी शाकाहारी जानवर ने यह विचार किया था की ऐसा नेता को चुनाव में जिताना है जो हमारे लिए हो और हमारी भलाई कर सके । उस जंगल में शाकाहारी जानवर ज्यादा थे और मांसाहारी जानवर कम थे । शाकाहारी जानवर की संख्या ज्यादा होने से उनकी जीत पक्की थी । मांसाहारी जानवर ने प्रचार किया की हमारे उम्मीदवार को चुनो उन्हें गलती का अहसाश हो गया है । और प्रचार ऐसा किया की शाकाहारी जानवर ने उन्हें ही चुना । और जीत जानेपर मांसाहारी जानवर ने कानून बना दिया की रोज उनके लिए भोजन के लिए शाकाहारी जानवर अपने परिवार से सदस्य को देनी होगी ।

यह कहानी बतलाने का एक उद्देश्य था । इसका उद्देश्य यह था की प्रचार के कारण कैसे लोग मुर्ख बन जाते हैं और बाद में लोग वही लोग पछताते है । आज की मीडिया भी यही कर रही है चाहे वह हमारे देश भारत में हो या फिर अमेरिका जैसे देशो ही क्यों ना हो । इसका उदाहरण आपको इसी से मालुम हो जाता है की अमेरिका में एक पत्रिका और कुछ चैनेल ने ऐसा प्रचार किया था और अपने पत्रिका लेख लिख दिया था की हिलेरी क्लिंटन अमेरिका की राष्ट्रपति बन गयी है । सभी मीडिया चैनेल ट्रम्प की हार बतला रही थी । यह सब मीडिया और प्रेस का कमाल ही था । इन सब का बात का जानकारी इस कारण दे रहा हु जिससे यह जाने मीडिया आज गलत को कैसे सही और सही को गलत करने के लिए कुछ भी कर देती है । आये अपने लेख में ज्यादा बड़ा नहीं करने के लिए भारतीय मीडिया के बारे में लिंक शेयर कर रहा हु और देखे कैसे वे अपनी पार्टी का प्रचार करते है । इसी कारण मैंने कहानी का उल्लेख किया और कैसे जनता मुर्ख बन जाती है उसका उदाहरण कहानी देकर बताया ।(टी.वी. चैनलों की मनमानी राष्ट्र के लिये घातक ) लिंक है : http://aryamantavya.in/tv-chaneel-ki-manmaani-rastra-ke-liye-ghaatak/

यह बात बतलाने के बाद अब आज की विषय पर आते हैं । आजकल यूपी में कत्लखाने बंद किये जा रहे है । और हमें इस बात की ख़ुशी होनी चाहिए की योगी आदित्यनाथ ऐसे मुख्यमंत्री हैं जो इसे बंद करवा रहे है । हमारी न्यायपालिका ने अखिलेश सरकार के समय में ही यह बतला दिया था की अवैध कत्लखाने बंद करो । अखिलेश सरकार ने कतलखाने बंद नहीं किया । वह यह नहीं चाहते थे की उनसे मुस्लिम वोट बैंक हाथ से निकल जाए । अखिलेश सरकार न्यायपालिका की भी बात नहीं मानी थी । आज जब योगी आदित्यनाथ जी यही काम कर रहे हैं न्यायपालिका का आदेश का पालन कर रहे हैं तो सारे मीडिया उनकी पीछे लग गयी है । उन मीडिया का बोलना है यह गलत हो रहा है लाखो परिवार वाले बेरोजगार हो जाएंगे । वे क्या खाएंगे । ऐसा करना गलत है । हम इसकी विरोध करते हैं । मीडिया वालो से यह पूछना है की क्या किसी की भी हत्या करना सही है ? क्या जानवर की हत्या करना सही है ? यदि जानवर की हत्या सही है तो जो लोग मनुष्य की हत्या कर रहे हैं डकैती कर रहे हैं चोरी कर रहे हैं वे गलत थोड़े कर रहे हैं ? वे भी अपनी अपने परिवार वालो के लिए चोरी कर रहे डकैती कर रहे हैं उनसे भी लाखो लोग बेकार हो जाएंगे तब तो चोरी डकैती करने वाले को भी नहीं रोकना चाहिए । आज तक के अंजना कछ्यप हो या कई राजनीती पार्टी है इसका क्यों विरोध कर रहे है इस बात का भी कारण है वह कारण है यदि ऐसा ना करेंगे तो उनके पार्टी को वोट कैसे मिलेगी मीडिया की trp कैसे मिलेगी । ऐसी गन्दी और घटिया राजनीती करना मीडिया और राजनितिक पार्टी बंद करे । निष्पक्ष होकर मीडिया काम करे वरना ये मीडिया ही हमारे देश का विनाश का कारण बनेंगी ।
आये राजनितिक पार्टी अच्छी राजनीती करे और मीडिया भी सही खबर को दिखाए और जो काम अच्छा हो रहा है उसका विरोध ना करे । देश के विकाश में सहयोग बने । देश को विकशित देश बनाये ।

लेख में कुछ त्रुटि हो तो क्षमा प्रार्थी हु । आपका सुझाब का स्वागत रहेगा
धन्यवाद |

मास्टर आत्माराम अमृतसरी और डॉ0 अम्बेडकर: डॉ. कुशलदेव शाश्त्री

बात अंग्रेजों के शासनकाल की है। डॉ0 अम्बेडकरजी (1891-1956) दलितों के नेता के रूप में उभर चुके थे। दलितों के पृथक् निर्वाचन क्षेत्र की भी उन्होंने माँग की थी। इस माँग के विरोध में 20 सितम्बर, 1932 को महात्मा गान्धीजी ने आमरण अनशन किया था। अनशन विषयक इस प्रसंग का विश्लेषण करते हुए पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय ने लिखा था कि-‘ डॉ0 अम्बेडकरजी को प्रथम शरण तो आर्यसमाज में ही मिली थी। (जीवन चक्र प्रकाशक-कला प्रेस इलाहाबाद, संस्करण-1954)। पर उपाध्यायजी ने वहाँ उन घटना-प्रसंगों या काल का उल्लेख नहीं किया है, जिससे इस जिज्ञासा की तृप्ति हो कि ’बाबासाहब अम्बेडकर जीवन में पहली बार कब और कैसे आर्यसमाज के सम्पर्क में आये ?‘

लगभग पन्द्रह साल तक डॉ0 अम्बेडकर के सम्पर्क में रहने वाले श्री चांगदेव भवानराव खैरमोडे ने सन् 1952 में डॉ0 भीमराव अम्बेडकर का चरित्र लिखा था। उस चरित्र का अध्ययन करते समय पता चला कि सर्वप्रथम सन् 1913 में बड़ोदरा निवास-काल में डॉ0 अम्बेडकर आर्य विद्वान पं0 आत्मारामजी अमृतसरी और आर्यसमाज बड़ोदरा के सम्पर्क में आये थे।

पं0 आत्मारामजी (1866-1938) मूलतः अमृतसर के निवासी थे। आर्य विद्वान् पं0 गुरुदत्तजी विद्यार्थी की प्रेरणा से उन्होंने अंग्रेज सरकार की नौकरी न करने का संकल्प किया था। सन् 1811 में उन्होंने दयानन्द हाईस्कूल लाहौर में अध्यापन किया और उसी समय वे पंजाब आर्य प्रतिनिधि सभा, लाहौर के उपमन्त्री (1894) भी बने। सन् 1897 में हुतात्मा पं0 लेखरामजी का बलिदान हो जाने के पश्चात् पं0 आत्मारामजी ने उनके द्वारा पूरे भारवर्ष में घूमकर संकलित की गई स्वामी दयानन्द विषयक जीवन सामग्री को सूत्रबद्ध कर एक बृहद् ग्रन्थ का रूप प्रदान किया। तथाकथित शूद्रों को वैदिकधर्मी बनाकर भरी सभा में उनके कर-कमलों से उन्होंने अन्न और जल भी ग्रहण किया था। समय-समय पर उन्होंने पौराणिकों और मौलवियों से शास्त्रार्थ भी किए थे। (आर्यसमाज का इतिहास: सत्यकेतु विद्यालंकार)। बड़ोदरा राज्य की ओर से न्याय विभाग के लिए विविध भाषाओं में कोश बनाये गये थे। उसके हिन्दी विभाग की जिम्मेदारी आपको ही सौंपी गई थी। यह ग्रन्थ ’श्री सयाजी शासन कल्पतरु‘ के नाम से प्रकाशित हुआ था। (डॉ0 बाबासाहेब अम्बेडकर: डॉ0 सूर्यनारायण रणसुभे: राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली संस्करण/1992)। मौलिक और अनूदित कुल मिलाकर उन्होंने लगभग बीस ग्रन्थ लिखे थे।

   जब दलितों को विधर्मी बनते देख बड़ोदरा नरेश ने अपनी रियासत में दलितोद्धार के कार्य को प्रभावशाली बनाने का संकल्प किया, तब उन्होंने स्वामी दयानन्द के शिष्य आर्य सन्यासी स्वामी नित्यानन्द ब्रह्मचारी (1860-1914) से ऐसे व्यक्ति की माँग की जो उच्चवर्णीय होते हुए भी दलितों में ईमानदारी से कार्य कर सके, तो उस समय स्वामी नित्यानन्द जी ने मास्टर आत्माराम जी से अनुरोध किया। तदनुसार पं0 आत्मारामजी ने सन् 1908 से 1917 तक बड़ोदरा रियासत में और तत्पश्चात् कोल्हापुर रियासत में दलितोद्धार का कार्य किया। दलितों में उनके द्वारा किये गये कार्य की महात्मा गाँधी, कर्मवीर विट्ठल रामजी शिंदे, श्री जुगल किशोर बिड़ला, इन्दौर नरेश तुकोजीराव होल्कर आदि ने मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है। (आदर्श दम्पत्ति: सुश्री सुशीला पण्डिता)।

बड़ोदरा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ को दलितोद्धार के कार्य में सफलता उस समय से प्राप्त हुई जब उन्होंने पं0 आत्मारामजी को अपनी रियासत के छात्रावासों का अध्यक्ष और पाठशालाओं का निरीक्षक नियुक्त किया था। बड़ोदरा रियासत में शूद्रातिशूद्रों के लिए जो सैकड़ों पाठशालाएँ स्थापित की गई थीं, उनमें लगभग बीस हजार बालक बालिकाओं ने शिक्षा ग्रहण की थी। बड़ोदरा में उन्होंने आर्य कन्या महाविद्यालय की भी स्थापना की थी।

कोल्हापुर नरेश राजर्षि शाहू महाराज जब बड़ोदरा पधारे तो पं0 आत्मारामजी के कार्यों से बहुत ही प्रभावित हुए और उन्हें शीघ्र ही कोल्हापुर आने का निमन्त्रण दे गये। 1918 में जब पं0 आत्माराम कोल्हापुर पधारे तो शाहू महाराज ने उन्हें अपना मित्र ही नहीं, अपितु धर्मगुरु भी माना और अपनी रियासत को आर्यधर्मी बनाने के लिए उनके कर-कमलों से जनवरी 1918 में आर्यसमाज की स्थापना की। कोल्हापुर की राजाराम महाविद्यालय आदि शिक्षण संस्थाओं को भी उन्होंने संचालन हेतु आर्य संस्थाओं को सौंप दिया। इस प्रकार गुजरात की बड़ोदरा और महाराष्ट्र की कोल्हापुर रियासत के माध्यम से पं0 आत्माराम जी ने सामाजिक और शैक्षिक क्षेत्र में कार्य करते हुए दलितोद्धार की दृष्टि से उल्लेखनीय भूमिका निभायी थी।

 

लाला लाजपतराय और डॉ0 अम्बेडकर: डॉ. कुशलदेव शाश्त्री

डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकरजी का मराठी में बृहद् जीवन चरित्र लिखने वाले डॉ0 चांगदेव भवानराव खैरमोडे के मतानुसार राष्ट्रीय नेताओं में लाला लाजपतराय डॉ0 अम्बेडकरजी को अपने बहुत नजदीक प्रतीत होते थे। उनकी दृष्टि में तिलक, गोखले और गान्धी अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण थे, पर वे उन्हें उतने नजदीक के महसूस नहीं होते थे, जितने कि लाला लाजपतराय। इसका एक कारण यह था कि लालाजी और अम्बेडकरजी का सन् 1913 से 1916 की कालावधि में अमरीका निवासकाल में घनिष्ठ सम्बन्ध आ चुका था तथा उन्हें इस बात का विश्वास हो चुका था कि लालाजी जैसे राजनीति में गरम दल से सम्बद्ध हैं, वैसे ही धार्मिक और समाज-सुधार के क्षेत्र में भी कट्टर क्रियाशील सुधारक हैं। सन् 1914 में लालाजी ने अपना अधिकांश समय कोलंबिया विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में बिताया था। तब उन्हें अपने सामने की मेज पर उनसे भी पहले आकर बैठा और उनके बाद ग्रंथालय से बाहर जानेवाला एक भारतीय विद्यार्थी दिखलाई दिया। उन्होंने जब उत्सुकतावश स्वयं उसका परिचय प्राप्त किया, तब उन्हें यह पता चला कि वह विद्यार्थी भीमराव अम्बेडकर था। उसका परिचय पाकर तथा उसके गहन ज्ञान को देखकर उन्हें अतिशय आनन्द हुआ था।

खैरमोडेजी ने अपने चरित्र ग्रन्थ में अम्बेडकरजी द्वारा लिखा-‘स्वर्गीय लाला लाजपतराय‘ लेख उद्धृत करने से पूर्व इस श्रद्धांजलि परक लेख लिखने से पहले डॉ0 अम्बेडकरजी की जो मनोदशा थी उसका वर्णन करने हुए लिखा है कि-

लाला लाजपतराय जी (1865-1928) की मृत्यु का समाचार सुनकर डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर अत्यन्त ही व्यथित हो गये। (स्वामी श्रद्धानन्द के बलिदान को छोड़कर अन्य) किसी भी राष्ट्रीय नेता की मृत्यु से पूर्व और पश्चात् वे इतने व्यथित नहीं हुए थे। उसी रात उन्होंने ’बहिष्कृत भारत सभा‘ की ओर से सार्वजनिक शोक सभा का आयोजन किया था। उसमें लालाजी पर भाषण करते समय उनकी आँखों से आँसू टपक रहे थे। उन्होंने अपने समस्त सार्वजनिक जीवन में किसी भी राष्ट्रीय नेता की मृत्यु के बाद शोक सभा का आयोजन नहीं किया था और न ही श्रद्धांजलि परक शोक सभा में भाषण दिया था। नत्थूराम गोड़से की तीन गोलियों से दि0 30-1-1948 को महात्माजी का खून हुआ, तब भी डॉ0 बाबासाहब गान्धीजी के विषय में या उनकी मृत्यु के विषय में एक शब्द भी नहीं बोले थे।”

लालाजी के बलिदान पर डॉ0 बाबासाहबजी ने जो श्रद्धांजलि लिखित रूप में अभिव्यक्त की थी, उसे इसी पुस्तक के परिशिष्ट चार में यथावत् अविकल रूप से दिया गया है