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हदीस : समझाना-बुझाना

समझाना-बुझाना

किन्तु यह पद्धति भी दोषरहित नहीं थी। उनके कुछ पुराने समर्थकों में इससे बड़ा असंतोष उभरा और उन्हें शांत करने के लिए मुहम्मद को कूटनीति एवं खुशामद की अपनी पूरी क्षमता का प्रयोग करना पड़ा। मक्का-विजय के बाद, इस सफलता के मुख्य सहभागी अंसारों ने लूट के वितरण में अन्याय के शिकवे किए। वे बोले-”यह अजीब है क हमारी तलवारां से जिनका खून टपक रहा है, उन (कुरैशों) को ही हमारे द्वारा युद्ध में लूटा गया माल दिया जा रहा है।“ मुहम्मद उनसे बोले-”क्या तुम्हें इस पर खुशी नहीं महसूस हो रही है कि (दूसरे) लोग धन के साथ (मक्का की ओर) लौटें, और तुम अल्लाह के रसूल के साथ (मदीना) वापस जाओ“ (2307)।

 

मुहम्मद ने और भी खुशामद करते हुए अंसारों से कहा कि वे उनके ”भीतरी वस्त्र“ हैं। (यानी ज्यादा नजदीक हैं), जबकि लूट का माल पाने वाले कुरैश उनके सिर्फ ”बाहरी वस्त्र“ हैं। फुसलाहट को पंथमीमांसा के साथ जोड़ते हुए वे उनसे बोले कि ”हौज़ कौसर में मुझसे मिलने तक तुम्हें धीरज दिखाना चाहिए“ (2313)। हौज़ कौसर जन्नत की एक नहर है। अंसार लोग खुश हो गए।

author : ram swarup

त्रैतवाद की चर्चा

त्रैतवाद की चर्चा

पण्डित श्री रामचन्द्र देहलवी एक स्कूल के पास से निकल रहे थे। ईसाइयों का स्कूल था। व्यायाम अध्यापक दौड़ें करवा रहा था।

छात्रों से अध्यापक ने कहा-‘‘मैं कहूँगा, एक, दो, तीन-जब तीन कहूँ, तब दौड़ना, पहले नहीं।’’

देहलवीजी ने बड़े प्रेम से कहा-‘‘दो पर ज़्यों नहीं दौड़ना? तीन पर ही बस ज़्यों? ज़्यों नहीं एक, दो, चार, पाँच, छह पर? वह कुछ उज़र न दे पाया। देहलवीजी कहा करते थे कि यह एक, दो,

तीन, त्रैतवाद का परज़्परागत संस्करण है।’’ मानव मन पर तीन अनादि पदार्थों की सज़ा का ज्ञान करवाने के लिए पूरे विश्व में यही परज़्परा है।

*सच्ची रामायण की पोल खोल-3

*सच्ची रामायण की पोल खोल-३ अर्थात्*
*पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
-लेखक:- *कार्तिक अय्यर
*ओ३म*
धर्मप्रेमी सज्जनों! सादर नमस्ते । पिछले लेख में हमने पेरियार साहब द्वारा लिखी भूमिका का खंडन प्रारंभ किया था। इसी भूमिका में आगे *राम जी पर अनर्गल आरोप लगायें हैं साथ ही आर्य-द्रविड़ राजनीति का कार्ड भी खेला गया है।पाठकवृंद आगे की समीक्षायें पढ़कर आनंद उठाये तथा सत्य को जाने*
निवेदन:-पोस्ट को अधिकाधिक शेयर करें ताकि पेरियारभक्तों का मुखमर्दन तेजी से हो।
*प्रश्न २* पेरियार साहब भूमिका में आगे लिखते हैं *”राम तमिल सभ्यता का कण मात्र भी नहीं था।उसकी स्त्री सीता तमिलनाडु की विशेषताओं से रहित  उत्तरी भारत की निवासिनी थी।तमिल के मनुष्यों को बंदर और राक्षस कहकर उनका उपहास किया जाता है।वही उनकी स्त्रियों के प्रति भी।*
*समीक्षा* :-
१:-लेखक महोदय से पूछना चाहिये कि तमिल नाडु और तमिल नाडु की सभ्यता तथा आर्य संस्कृति में क्या अंतर है?स्पष्ट हो गया कि आपका पुस्तक बनाने का उद्देश्य तमिल-उत्तर भारत में फूट डालने के अलावा कुछ और विदित नहीं होता। पेरियार साहब को बताना चाहिये कि तमिल संस्कृति व सभ्यता की विशेषतायें क्या हैं और सीता राम में तमिल की किन विशेषताओं का अभाव था।
२:-तमिल के मनुष्यों को बंदर और राक्षस नहीं कहा गया। बल्कि वाल्मीकि रामायण में *वानर* शब्द है तथा दुष्टाचरण,पापी,समाज विघातक,आतंककारी आदि का करने वालों का नाम राक्षस,दस्यु,असुर है। वानर और राक्षस दोनों गुणवाचक नाम हैं नाकि जातिवाचक। हम क्रमशः दोनों शब्दों की मीमांसा करते हैं।
*(अ)* *वानर* :- *वने भवं वानरम्,राति गृहणाति ददाति वा।वानं वनं संबंधिनं,फलादिकं गृहणाति ददाति वा।* – जो वन में उत्पन्न होने वाले फलादि खाता है वह वानर है। वानर कोई विशेष जाति नहीं है अपितु वनवासी और वानुप्रस्थ वर्ग इस श्रेणी में आते हैं। इसलिये सुग्रीव,बालि,जामवंत,हनुमान आदि वानर मनुष्य ही थे पूंछवाले बंदर नहीं। और तारा,रुमा आदि भी मानव स्त्रियां थीं।वे ऋष्यमूक पर्व पर रहते थे ,वन में उगने वाले फलादिक खाते थे इसलिये “वानर” कहलाये नाकि पूंछवाले बंदर थे।उनकी पूंछ बंदर जैसी न थी बल्कि वो विलक्षण मानव ही थे। उनकी पूंछ एक यंत्र थी जो उछलने कूदने के काम आती थी। वाल्मीकि रामायण से कुछ प्रमाण हम लिखते हैं:-
*हनुमानजी को  वेदज्ञ तथा राजमंत्री कहा गया है। (  आध्यात्म रामायण किष्किंधाकांड १/१६,१८,३९)
*हनुमान जी व्याकरण के महापंडित थे ( वाल्मीकीय रामायण किष्किंधा-३/२६,२८,२९)
*सुग्रीव का सिंहासन पर बैठना व स्वयं को मनुष्य कहना ( किष्किंधा-२/२२ तथा ३३/६३)
*सोने के घड़े,चंवर आदि (किष्किंधा-२६/२३,३३-३६)
* अंगद का बाली को अग्नि देक अपना यज्ञोपवीत दाहिने कंधे पर रखना( किष्किंधा-२ ५/५) इससे सिद्ध है कि वानर मानव ही थे क्यों कि यज्ञोपवीत यज्ञ करने वाला धारण करता है। यज्ञेपवीत आर्य संस्कृति का चिह्न है अतः वानर क्षत्रिय आर्य थे ।
* बालि की पत्नी तारा को राज संचालन में निपुण कहा गया है। ( किष्किंधा-२ २/१३,१४) क्या कोई बंदरिया राज-संचालन कर सकती है? कदापि नहीं। अतः वानर मनुष्य ही थे जो वनों में रहा करते थे।
पेरियार साहब, यहां ऋष्यमूक पर्वतवासी वानरों को द्रविड़ या तमिलवासी कहकर आपकी दाल नहीं गलेगी। देखिये, जब बालि का वध हुआ तब बाली की भार्या तारा ने उसे *आर्यपुत्र* कहकर संबोधित किया था:- लीजिये प्रमाण-
*समीक्ष्य व्यथिता भूमौ संभ्रांता निपपात ह।*
*सुप्तेवै पुनरुत्थायलआर्यपुत्रेति क्रोशती।।* *(किष्किंधा-१९/२७)*
*अर्थात-् युद्ध में मरे अपने पति को देख विकल और उद्विग्न हो तारा भूमि पर गिर पड़ी।थोड़ी देर बाद सोती हुई के समान उठकर, “हा आर्यपुत्र!” कह और कालकवलित पति को देख रोने लगी।*
अब आपका क्या कहना है पेरियार साहब?यहां तथाकथित “वानर तमिलवासी” बालि को भी “आर्य पुत्र कहा गया है।इससे सिद्ध है कि आर्य एक गुणवाचक नाम है,किसी जातिविशेष का नहीं।जिस समाज में कोई भी श्रेष्ठ गुण वाला वेदानुसार सत्याचरण करने वाला व्यक्ति हो, वो आर्य है।
अब आर्य शब्द की मीमांसा करते हैं :-आर्य का अर्थ है श्रेष्ठ,बलवान,सद्गुणी आदि।
* ऋग्वेद १/१०३/३,१/१३०/८ में श्रेष्ठ व्यक्ति का वाचक आर्य है।
*ऋग्वेद ६/२२/१०- आर्य का प्रयोग बलवान के अर्थ में हुआ।
* ” कृण्वंतो विश्वमार्यम्” विश्व को आर्य बनाओ, यह वेद का आदेश है।
*निरुक्त ६/२६- अर्य ईश्वरपुत्रः। अर्य ईश्वरपुत्र होता है ।इसी से आर्य बना है।
अब डॉ अंबेडकर के भक्त नवबौद्ध भाइयों के लिये विशेष प्रमाण लिखते हैं, अवलोकनकरें:-
* डॉ अंबेडकर अपनी पुस्तक “शूद्र कौन थे” में  शूद्र तक को आर्य कहते हैं।
*धम्मपद अध्याय ६ वाक्य १९/६/४ ममें आया है कि जो आर्यों के मार्ग पर चले वो पंडित है।
*बौद्धग्रंथ “विवेक विलास” में आर्य शब्द आया है *बौधानाम सुगतो देवो च क्षभंगुमार्य सत्वाख्या यावरुव चतुष्यामिद कल्पना त*  अर्थ:- बुद्धवग्ग ने अपने उपदेशों मेॉ तार आर्य सत्य प्रकाशित किये। (अध्याय १४) *चत्वारि आरिय सच्चानि*।।
: *ब * राक्षस मीमांसा*:- राक्षस का प्रयोग विध्वंसकारी,आतंककारी,हत्यारे तथा दुष्ट प्रवृत्ति वालों के लिये किया जाता है। यह भी गुणवाचक नाम है।देखिये:-
*ऋग्वेद ७/१०४/२४- यहां यातुधान (प्रजाजनों को छुपकर मारने वाले)को राक्षस कहा है।*
*ऋग्वेद १०/८३/१९-यहां अनार्य को दस्यु कहा है।*
*ऋग्वेद १०/२२/८-अज्ञानी,अकर्म का , अमानवीय व्यवहार वाला व्यक्ति दास है।*
*निरुक्त ७/१३-कर्मों नाश करने वाला दस्यु है।*
*अष्टाध्यायी ५/१०-हिंसा करने वाले,गलत भाषण करने वाले दास,दस्यु,डाकू हैं।*
अतः पेरियार जी का दास,दस्यु ,असुर आदि शब्दों का द्रविड़ो,आदिनासियों,दलितों के लिये प्रयोग करना अयुक्त है । दस्यु ,दास,राक्षस आदि का प्रयोग अमानवीय, हिंसक,लुटेरों के लिये किया गया है।तब क्या आप आज के सभी द्रविड़ों(तमिल वासियों)को दस्यु आदि कहेंगे?परंतु रावण और लंका के वासी आतंककारी,विध्वंसकारी, हिंसक,मांसभक्षक,मद्यपि,ऋषि मुनियों के हत्यारे आदि होने के कारण राक्षस कहलाने के अधिकारी हैं। परंतु वर्तमान के के तमिललोग राक्षस नहीं कहे जा सकते क्योंकि उनमें उपर्युक्त गुण नहीं हैं।
*निष्कर्ष:- पेरियार साहब का पुस्तक लिखने का उद्देश्य उत्तर और दक्षिण भारत में फूट डालकर राजनीति करने का था,यह स्पष्ट हो गया। द्रविड़,आर्य,दस्यु,राक्षस वानर आदि नाम उछालकर जनता की आंखों में धूल झोंककर अपना मतलब साधना चाहा परंतु हमने इन शब्दों की गुणवाचक व्याख्या कर दी है।
पोस्ट को पूरा पढ़ने के लिये धन्यवाद । अगले लेख में खंडन कार्य आगे बढ़ाया जायेगा।

नोट : यह लेखक का अपना विचार  है |  लेख में कुछ गलत होने पर इसका जिम्मेदार  पंडित लेखराम वैदिक  मिशन  या आर्य मंतव्य टीम  नहीं  होगा |

हदीस : भेंट-उपहार देकर ”दिल जीतना“

भेंट-उपहार देकर ”दिल जीतना“

वितरण के सिद्धान्त का आधार जरूरत अथवा न्याय अथवा पात्रता ही नहीं था। मुहम्मद अन्य बातों का भी ध्यान रखते थे। वे कहते हैं-”मैं उन को (बहुत सी बार पार्थिव उपहार) प्रदान करता हूं जो अभी कुछ दिन पहले तक कुफ्र की हालत में थे, ताकि मैं उन को सच्चाई की ओर झुका सकूं“ (2303)।

 

उपहार की मदद से लोगों के दिल इस्लाम के वास्ते जीतना (मुअल्लफा कुलुबहुम) सर्वथा निर्दोष व्यवहार समझा जाता है, जो कुरान के उपदेशों के पूर्णतः अनुरूप है (9/60)। लोगों को इस्लाम की तरफ लाने के लिए मुहम्मद ने उपहारों का असरदार इस्तेमाल किया। नए-नए मतान्तरित लोगों को वे उदारतापूर्वक इनाम देते थे जबकि पुराने मुसलमानों को अनदेखा कर देते थे। साद बतलाते हैं कि ”अल्लाह के रसूल ने लोगों के एक गिरोह को उपहार दिए, किन्तु एक शख्स को उन्होंने छोड़ दिया और उसे कुछ नहीं दिया, और मुझे वह शख्स उन सब में सर्वोत्तम दिख रहा था।“ साद ने उस मोमिन की तरफ पैगम्बर का ध्यान खींचा। पर मुहम्मद ने उत्तर दिया-”वह मुसलमान भले ही हो। मैं अक्सर किसी आदमी को इस डर से कुछ प्रदान कर देता हूं कि वह कहीं तेजी से (नरक की) आग में न गिर जाए। भले ही उससे अधिक प्रिय कोई अन्य व्यक्ति बिना कुछ पाए रह जाए“ (2300)। यहां आग में गिरने से आशय है कि व्यक्ति इस्लाम को छोड़कर फिर अपने पुराने धर्म-पथ को अपना सकता है। अनुवादक और टीकाकार यह कह कर इस मुद्दे को बिल्कुल स्पष्ट कर देते हैं कि ”किसी व्यक्ति को ज्यादा करीब लाने के लिए और मुस्लिम समाज में उसके हिल-मिल जाने के लिए पाक पैगम्बर उसे पार्थिव उपहार-स्वरूप देते थे“ (टि0 1421)।

 

इसी प्रकार के अन्य उदाहरण भी हैं। अब्दुल्ला बिन जैद बतलाते हैं ”जब अल्लाह के रसूल ने हुनैन को फ़तह किया, तो उन्होंने युद्ध की लूट का माल बांटा, और जिनके दिल वे जीतना चाहते थे उनको उपहार दिए“ (2313)। उन्होंने उन कुरैश और बद्दू मुखियाओं को कीमती उपहार दिए जो कुछ ही हफ्तों पहले उनके शत्रु थे। अहादीस ने उपहार पाने वाले इन अभिजात लोगों में से कुछ के नाम संजो रखे हैं, जैसे अबू सुफिया बिन हर्व, सफवान बिन उमय्या, उयैना बिन हिस्न, अक़रा बिन हाबिस और अलक़मा बिन उलस (2303-1314)। इनमें से हरेक को लड़ाई की लूट में मिले माल में से सौ-सौ ऊंट मिले।

 

यमन से अली बिन अबू तालिब द्वारा भेजे गए, लड़ाई की लूट में मिले सोने के साथ भी मुहम्मद ने यही किया। उन्होंने उसे चार लोगों में बांट दिया-उयैना, अकरा, जैद अल-खैल, ”और चौथा या तो अलकमा बिन उलस था या आमीर बिन तुफैल“ (2319)।

author : ram swarup

चर्च में रविवार को प्रार्थना व्यर्थ

चर्च में रविवार को प्रार्थना व्यर्थ

स्वामी सत्यप्रकाशजी ने देश व विदेश में ईसाई मित्रों से कई बार यह कहा है कि सबथ के दिन (रविवार) चर्च में ईश्वर की प्रार्थना व्यर्थ है। कारण यह कि उस दिन ईसाइयों का प्रभु विश्राम

करता है। ‘‘विश्राम के दिन तो उसको परेशान न किया करो।’’

नोट-ईसाइयों का एक सज़्प्रदाय यह मानता है कि सबथ का दिन रविवार नहीं शनिवार है।

*अथ पेरियार दर्प भंजनम्* सच्ची रामायण का जवाब -१ –

*अथ पेरियार दर्प भंजनम्*

सच्ची रामायण का जवाब -१
– कार्तिक अय्यर
नमस्ते मित्रों! पिछली पोस्ट में हमने प्रस्तावना तथा पेरियार रचित पुस्तक “सच्ची रामायण” का खंडन करने का उद्देश्य लिखा था। अब इस लेख में पेरियार जी के आक्षेपों का क्रमवार खंडन किया जाता है। परंतु इसके पहले *ग्रंथ प्रमाणाप्रमाण्य* विषय पर लिखते हैं।
 १: *वाल्मीकीय रामायण* – वाल्मीकि मुनिकृत रामायण श्रीरामचंद्र जी के जीवन इतिहास पर सबसे प्रामाणिक पुस्तक है। महर्षि वाल्मीकि राम जी के समकालीन थे अतः उनके द्वारा रचित रामायण ग्रंथ ही सबसे प्रामाणिक तथा आदिकाव्य कहलाने का अधिकारी है। अन्य रामायणें जैसे रामचरितमानस, चंपूरामायण, भुषुंडि रामायण, आध्यात्म रामायण,उत्तररामचरित ,खोतानी रामायण, मसीही रामायण, जैनों और बौद्धों के रामायण ग्रंथ जैसे पउमचरिउ आदि बहुत बाद में बने हैं । इनमें वाल्मीकि की मूल कथा के साथ कई नई कल्पनायें, असंभव बातें, इतिहास ,बुद्धि ,तथा वेदविरोधी  बातें समावेश की गई हैं। रामायण की मूल कथा में भी काफी हेर-फेर है। साथ ही स्वयं वाल्मीकि रामायण में भी काफी प्रक्षेप हुये हैं। अतः वाल्मीकि रामायण श्रीरामचंद्रादि के इतिहास के लिये परम प्रमाण है तथा इसमें मिलाये गये प्रक्षेप इतिहास,विज्ञान,बुद्धि तथा वेदविरुद्ध होने से अप्रमाण हैं ।अन्य रामायणें तब तक मानने योग्य हैं जब तक वाल्मीकि की मूल कथा से मेल खाये। अन्यथा उनका प्रमाण भी मानने योग्य नहीं।
२:- *महाभारत में वर्णित रामोपाख्यानपर्व* तथा *जैमिनीय अश्वमेध* :- महाभारत में रामोपाख्यान का वर्णन है तथा जैमिनीय अश्वमेध में भी ।  चूंकि महाभारत महर्षि वेदव्यास रचित है परंतु राम जी के काल का बना हुआ नहीं है और महाभारत में प्रक्षेप होने से पूर्णतः शुद्ध नहीं है, तथापि आर्षग्रंथ होने से इसका *अंशप्रमाण* मान्य होगा। यही बात जैमिनीय अश्वमेध पर भी लागू होती है।
३:- *उत्तरकांड* पूर्ण रूप से प्रक्षिप्त तथा नवीन रचना है। यह वाल्मीकि मुनि ने नहीं रचा है। क्योंकि युद्धकांड के अंत में ग्रंथ की फल-श्रुति होने से ग्रंथ का समापन घोषित करता है। यदि उत्तरकांड लिखी होता तो वाल्मीकि जी उत्तरकांड के अंत में फल श्रुति देते। इस कांड में वेद,बुद्धि,विज्ञान तथा राम जी के मूल चरित्र के विरुद्ध बातें जोड़ी गई हैं। साथ ही राम जी पर शंबूक वध,सीता त्याग,लक्ष्मण त्याग के झूठे आरोप,रावणादि की विचित्र उत्पत्ति,रामजी का मद्यपान आदि मिथ्या बातें रामजी तथा आर्य संस्कृति को बदनाम करने के लिये किसी दुष्ट ने बनाकर मिला दी हैं। अतः उत्तरकांड पूरा का पूरा प्रक्षिप्त होने से खारिज करने योग्य तथा अप्रामाणिक है। उत्तरकांड की
प्रक्षिप्त होने के विषय में विस्तृत लेख में आंतरिक तथा बाह्य साक्ष्यों सहित लेख दिया जायेगा। फिलहाल उत्तरकांड अप्रामाणिक है, ऐसा जान लेना चाहिये ।
४:- *वेद* – वेद परमेश्वर का निर्भ्रांत ज्ञान है। ऋक्,यजु,साम तथा अथर्ववेद धर्माधर्म निर्णय की कसौटी हैं। वेद तथा अन्य ग्रंथों में विरोध होने पर वेद का प्रमाण अंतिम कसौटी है। अतः रामायण की कोई बात यदि वेद सम्मत हो तो मान्य हैं, वेदविरुद्ध होने पर मान्य नहीं। यदि रामायण के किसी भी चरित्र के आचरण वेदसम्मत हों,तभी माननीय हैं अन्यथा नहीं।
५:- कोई भी पुस्तक चाहे मैथिलीशरण गुप्त रचित *साकेत* हो अथवा कामिल बुल्के रचित *रामकथा* , वे हमारे लिये अप्रमाण हैं। क्योंकि मैथिलीशरण जी, फादर कामिल बुल्के आदि सज्जन ऋषि-मुनि नहीं थे/हैं और न ही श्रीराम के समकालीन ही हैं जो उनका सच्चा खरा इतिहास लिख सके। अत: *आर्यसमाज के लिये यह सभी ग्रंथ अनार्ष होने से अप्रमाण हैं।इन ग्रंथों के प्रमाणों का उत्तरदायी आर्यसमाज या लेखक  नहीं है* ।
*निष्कर्ष*- *अतः यह परिणाम आता है कि ऐतिहासिक रूप में वाल्मीकि रामायण परमप्रमाण तथा धर्माधर्म के निर्णय में चारों वेद( ऋक्, यजु,साम तथा अथर्ववेद)परमप्रमाण हैं। अन्य आर्ष ग्रंथ जैसे महाभारतोक्त रामोपाख्यान आदि आर्ष व परतः प्रमाण हैं। मानवरचित ग्रंथ जैसे साकेत,कैकेयी,रामकथा,पउमचरिउ,उत्तरपुराण आदि ग्रंथ अप्रमाण हैं क्योंकि ये अनार्ष , नवीन तथा कल्पित हैं।*
जारी……….
अब पेरियार साहब के आक्षेपों का क्रमवार उत्तर लिखते हैं। *भूमिका* शीर्षक से लिखे लेख का उत्तर:-
*प्रश्र-1* – *रामायण किसी ऐतिहासिक कथा पर आधारित नहीं है। यह एक कल्पना तथा कथा है।……रावण लंका का राजा था।।  १।।* ( मूल लेख चित्र में देखा जा सकता है।हम केवल कुछ अंश उद्धृत करके खंडन लिख रहे हैं)
*समीक्षक:-* धन्य हो पेरियार साहब! यदि रामायण नामकी कोई घटना घटी ही नहीं थी तो आपने इस पुस्तक को लिखने का कष्ट क्यों किया?जब आपके पास निशाना ही नहीं है तो तीर किस पर चला रहे हैं।
उस घटना पर,जिसे आप सत्य नहीं मानते पर अनर्गल आक्षेप लगाकर जनसामान्य को दिग्भ्रमित करना किसी सत्यान्वेशी अथवा विद्वान का काम नहीं हो सकता। आपके अनुसार यदि श्रीराम, लक्ष्मण, सीता,हनुमान आदि महामानव यदि काल्पनिक थे तो परस्त्रीगामी,कामी,दुराचारी रावण महात्मा,सच्चा भक्त, सच्चा संत व आदर्श कैसे हो गया? जब पूरी रामायण ही काल्पनिक है तो फिर विवाद कैसा? या तो पूरी रामायण को सच्ची घटना मानिये अन्यथा रावण को पूर्वज मसीहा आदि लिखकर राजनीतिक रोटियां सेंकने का प्रयास न करें। यहां हम अंबेडकर साहब के अनुयायी मित्रों से यह पूछना चाहते हैं कि एक ओर वे रावण को अपना वीर पूर्वज मानकर उसको आदर्श मानते हैं, वहीं उनके दूसरे नेता पेरियार साहब पूरी रामायण को काल्पनिक कहकर रावण को भी काल्पनिक सिद्ध कर रहे हैं। अहो मूलनिवासी मित्रों! आपके दोनों नेताओं में से आप किसकी बात मानेंगे? यह फैसला हम आप पर छोड़ते हैं।
  आगे रामायण के ऐतिहासिक होने के प्रबल साक्ष्य दिये जायेंगे। किसी पेरियार भक्त में सामर्थ्य हो तो उचित तर्क-प्रमाण से रामायण को काल्पनिक सिद्ध करे।
   *प्रश्न*:- पेरियार जी ने रामायण को उपन्यास मानकर लेखनी चलाई। इसमें क्या आपत्ति है?
*उत्तर*:- यदि उपन्यास माना है तो रावण भी स्पाइडर मैन ,बैटमैन,सुपरमैन जैसे काल्पनिक पात्रों से बढ़कर कोई हैसियत नहीं रखता। तो आप लोग उसे अपना  आदर्श पूर्वज क्यों कहते हो? और एक उपन्यास के पात्रों पर लेखनी चलाकर लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना तथा आर्य-द्रविड़ राजनीति का मंतव्य साधना क्या धूर्तता की श्रेणी में नहीं आता? यदि उपन्यास मानते हो तो धर्म को घसीटकर दलित-आर्य का कार्ड खेलकर समाज में वैमनस्य क्यों फैलाया? अतः इस पुस्तक को लिखना न केवल अनुचित है, अपितु धूर्तता भी है।

 

नोट : यह लेखक का अपना विचार  है |  लेख में कुछ गलत होने पर इसका जिम्मेदार  पंडित लेखराम वैदिक  मिशन  या आर्य मंतव्य टीम  नहीं  होगा |

हदीस : असंतोष

असंतोष

वनू नजीर ने जो प्रचूर सम्पत्ति छोड़ी थी उसका बहुलांश मुहम्मद ने अपने और अपने परिवार के लिए हस्तगत कर लिया था। उनके अन्य कोष भी लगातार बढ़ रहे थे। इस नए धन को ज़कात कहना कठिन था। वह युद्ध की लूट का माल था। उसके वितरण से उनके अनुयायियों के दिलों में रंजिश पैदा होने लगी। उनमें से ज्यादातर यह चाहते थे कि उन्हें और ज्यादा मिलना चाहिए अथवा दूसरों को तो हर हालत में उनसे कम ही मिलना चाहिए था। इस स्थिति को संभालने के लिए मुहम्मद को लौकिक और पारलौकिक दोनों ही तरह की धमकियों से भरी यथयोग्य कूटनीति का उपयोग करना पड़ा।

लेखक :  राम स्वरुप

हुतात्मा महाशय राजपाल का बलिदान :डॉ अशोक आर्य

हुतात्मा महाशय राजपाल का  बलिदान

सन १९२३ में मुसलमानों की ओर से दो पुस्तकें ” १९ वीं सदी का महर्षि “और “कृष्ण,तेरी गीता जलानी पड़ेगी ” प्रकाशित हुई थी. पहली पुस्तक में आर्यसमाज का संस्थापक स्वामी दयानंद का सत्यार्थ प्रकाश के १४ सम्मुलास में कुरान की समीक्षा से खीज कर उनके विरुद्ध आपतिजनक एवं घिनोना चित्रण प्रकाशित किया था जबकि दूसरी पुस्तक में श्री कृष्ण जी महाराज के पवित्र चरित्र पर कीचड़ उछाला गया था. उस दौर में विधर्मियों की ऐसी शरारतें चलती ही रहती थी पर धर्म प्रेमी सज्जन उनका प्रतिकार उन्ही के तरीके से करते थे. महाशय राजपाल ने स्वामी दयानंद और श्री कृष्ण जी महाराज के अपमान का प्रति उत्तर १९२४ में रंगीला रसूल के नाम से पुस्तक छाप कर दिया जिसमे मुहम्मद साहिब की जीवनी व्यंग्यात्मक शैली में प्रस्तुत की गयी थी. यह पुस्तक उर्दू में थी और इसमें सभी घटनाएँ इतिहास सम्मत और प्रमाणिक थी. पुस्तक में लेखक के नाम के स्थान पर “दूध का दूध और पानी का पानी छपा था”. वास्तव में इस पुस्तक के लेखक पंडित चमूपति जी थे जो की आर्यसमाज के श्रेष्ठ विद्वान् थे. वे महाशय राजपाल के अभिन्न मित्र थे. मुसलमानों के ओर से संभावित प्रतिक्रिया के कारण चमूपति जी इस पुस्तक में अपना नाम नहीं देना चाहते थे इसलिए उन्होंने महाशय राजपाल से वचन ले लिया की चाहे कुछ भी हो जाये,कितनी भी विकट स्थिति क्यूँ न आ जाये वे किसी को भी पुस्तक के लेखक का नाम नहीं बतायेगे. महाशय राजपाल ने अपने वचन की रक्षा अपने प्राणों की बलि देकर की पर पंडित चमूपति सरीखे विद्वान् पर आंच तक न आने दी.१९२४ में छपी रंगीला रसूल बिकती रही पर किसी ने उसके विरुद्ध शोर न मचाया फिर महात्मा गाँधी ने अपनी मुस्लिम परस्त निति में इस पुस्तक के विरुद्ध एक लेख लिखा. इस पर कट्टरवादी मुसलमानों ने महाशय राजपाल के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया. सरकार ने उनके विरुद्ध १५३ए धारा के अधीन अभियोग चला दिया. अभियोग चार वर्ष तक चला. राजपाल जी को छोटे न्यायालय ने डेढ़ वर्ष का कारावास तथा १००० रूपये का दंड सुनाया. इस फैसले के विरुद्ध अपील करने पर सजा एक वर्ष तक कम कर दी गयी. इसके बाद मामला हाई कोर्ट में गया. कँवर दिलीप सिंह की अदालत ने महाशय राजपाल को दोषमुक्त करार दे दिया.मुसलमान इस निर्णय से भड़क उठे. खुदाबख्स नामक एक पहलवान मुसलमान ने महाशय जी पर हमला कर दिया जब वे अपनी दुकान पर बैठे थे पर संयोग से आर्य सन्यासी स्वतंत्रानंद जी महाराज एवं स्वामी वेदानन्द जी महाराज वह उपस्थित थे. उन्होंने घातक को ऐसा कसकर दबोचा की वह छुट न सका. उसे पकड़ कर पुलिस के हवाले कर दिया गया, उसे सात साल की सजा हुई. रविवार ८ अक्टूबर १९२७ को स्वामी सत्यानन्द जी महाराज को महाशय राजपाल समझ कर अब्दुल अज़ीज़ नमक एक मतान्ध मुसलमान ने एक हाथ में चाकू ,एक हाथ में उस्तरा लेकर हमला कर दिया. स्वामी जी घायल कर वह भागना ही चाह रहा था की पड़ोस के दूकानदार महाशय नानकचंद जी कपूर ने उसे पकड़ने का प्रयास किया.इस प्रयास में वे भी घायल हो गए. तो उनके छोटे भाई लाला चूनीलाल जी जी उसकी ओर लपके.उन्हें भी घायल करते हुए हत्यारा भाग निकला पर उसे चौक अनारकली पर पकड़ लिया गया. उसे चोदह वर्ष की सजा हुई ओर तदन्तर तीन वर्ष के लिए शांति की गारंटी का दंड सुनाया गया.स्वामी सत्यानन्द जी के घाव ठीक होने में करीब डेढ़ महीना लगा.६ अप्रैल १९२९ को महाशय अपनी दुकान पर आराम कर रहे थे. तभी इल्मदीन नामक एक मतान्ध मुसलमान ने महाशय जी की छाती में छुरा घोप दिया जिससे महाशय जी का तत्काल प्राणांत हो गया.हत्यारा अपने जान बचाने के लिए भागा ओर महाशय सीताराम जी के लकड़ी के टाल में घुस गया. महाशय जी के सपूत विद्यारतन जी ने उसे कस कर पकड़ लिया.पुलिस हत्यारे को पकड़ कर ले गयी. देखते ही देखते हजारों लोगो का ताँता वहाँ पर लग गया.देवतास्वरूप भाई परमानन्द ने अपने सम्पादकीय में लिखा हैं की “आर्यसमाज के इतिहास में यह अपने दंग का तीसरा बलिदान हैं. पहले धर्मवीर लेखराम का बलिदान इसलिए हुआ की वे वैदिक धर्म पर किया जाने वाले प्रत्येक आक्षेप का उत्तर देते थे. उन्होंने कभी भी किसी मत या पंथ के खंडन की कभी पहल नहीं की. सैदेव उत्तर- प्रति उत्तर देते रहे. दूसरा बड़ा बलिदान स्वामी श्रद्धानंद जी का था. उनके बलिदान का कारण यह था की उन्होंने भुलावे में आकर मुसलमान हो गए भाई बहनों को, परिवारों को पुन: हिन्दू धर्म में सम्मिलित करने का आन्दोलन चलाया और इस ढंग से स्वागत किया की आर्य जाति में “शुद्धि” के लिए एक नया उत्साह पैदा हो गया. विधर्मी इसे न सह सके. तीसरा बड़ा बलिदान महाशय राजपाल जी का हैं.जिनका बलिदान इसलिए अद्वितीय हैं की उनका जीवन लेने के लिए लगातार तीन आक्रमण किये गए. पहली बार २६ सितम्बर १९२७ को एक व्यक्ति खुदाबक्श ने किया दूसरा आक्रमण ८ अक्टूबर को उनकी दुकान पर बैठे हुए स्वामी सत्यानन्द पर एक व्यक्ति अब्दुल अज़ीज़ ने किया. ये दोनों अपराधी अब कारागार में दंड भोग रहे हैं. इसके पश्चात अब डेढ़ वर्ष बीत चूका हैं की एक युवक इल्मदीन, जो न जाने कब से महाशय राजपाल जी के पीछे पड़ा था, एक तीखे छुरे से उनकी हत्या करने में सफल हुआ हैं. जिस छोटी सी पुस्तक लेकर महाशय राजपाल के विरुद्ध भावनायों को भड़काया गया था, उसे प्रकाशित हुए अब चार वर्ष से अधिक समय बीत चूका हैं.”.महाशय जी का अंतिम संस्कार उसी शाम को कर दिया गया. परन्तु लाहौर के हिंदुयों ने यह निर्णय किया की शव का संस्कार अगले दिन किया जाये. पुलिस के मन में निराधार भूत का भय बैठ गया और डिप्टी कमिश्नर ने रातों रात धारा १४४ लगाकर सरकारी अनुमति के बिना जुलुस निकालने पर प्रतिबन्ध लगा दिया. अगले दिन प्रात: सात बजे ही हजारों की संख्या में लोगो का ताँता लग गया. सब शव यात्रा के जुलुस को शहर के बीच से निकल कर ले जाना चाहते थे पर कमिश्नर इसकी अनुमति नहीं दे रहा था. इससे भीड़ में रोष फैल गया. अधिकारी चिढ गए. अधिकारियों ने लाठी चार्ज की आज्ञा दे दी. पच्चीस व्यक्ति घायल हो गए . अधिकारियों से पुन: बातचीत हुई. पुलिस ने कहाँ की लोगों को अपने घरों को जाने दे दिया जाये. इतने में पुलिस ने फिट से लाठी चार्ज कर दिया. १५० के करीब व्यक्ति घायल हो गए पर भीड़ तस से मस न हुई. शव अस्पताल में ही रखा रहा. दुसरे दिन सरकार एवं आर्यसमाज के नेताओं के बीच एक समझोता हुआ जिसके तहत शव को मुख्य बाजारों से धूम धाम से ले जाया गया. हिंदुयों ने बड़ी श्रद्धा से अपने मकानों से पुष्प वर्षा करी.
ठीक पौने बारह बजे हुतात्मा की नश्वर देह को महात्मा हंसराज जी ने अग्नि दी. महाशय जी के ज्येष्ठ पुत्र प्राणनाथ जी तब केवल ११ वर्ष के थे पर आर्य नेताओं ने निर्णय लिया की समस्त आर्य हिन्दू समाज के प्रतिनिधि के रूप में महात्मा हंसराज मुखाग्नि दे. जब दाहकर्म हो गया तो अपार समूह शांत होकर बैठ गया. ईश्वर प्रार्थना श्री स्वामी स्वतंत्रानंद जी ने करवाई. प्रार्थना की समाप्ति पर भीड़ में से एकदम एक देवी उठी. उनकी गोद में एक छोटा बालक था.यह देवी हुतात्मा राजपाल की धर्मनिष्ठा साध्वी धर्मपत्नी थी. उन्होंने कहा की मुझे अपने पति के इस प्रकार मारे जाने का दुःख अवश्य हैं पर साथ ही उनके धर्म की बलिवेदी पर बलिदान देने का अभिमान भी हैं. वे मारकर अपना नाम अमर कर गए.
पंजाब के सुप्रसिद्ध पत्रकार व कवि नानकचंद जी “नाज़” ने तब एक कविता महाशय राजपाल के बलिदान का यथार्थ चित्रण में लिखी थी-
फ़ख से सर उनके ऊँचे आसमान तक तक हो गए,हिंदुयों ने जब अर्थी उठाई राजपाल.
फूल बरसाए शहीदों ने तेरी अर्थी पे खूब, देवताओं ने तेरी जय जय बुलाई राजपाल
हो हर इक हिन्दू को तेरी ही तरह दुनिया नसीब जिस तरह तूने छुरी सिने पै खाई राजपाल
तेरे कातिल पर न क्यूँ इस्लाम भेजे लानतें, जब मुजम्मत कर रही हैं इक खुदाई राजपाल
मैंने क्या देखा की लाखों राजपाल उठने लगे दोस्तों ने लाश तेरी जब जलाई राजपाल

तुलसीजी का ठाकुरजी से विवाह

तुलसीजी का ठाकुरजी से विवाह

अपने जीवन के अन्तिम दिनों में पण्डित श्री रामचन्द्रजी देहलवी पानीपत पधारे। आपने श्रोताओं से कहा कि आज मैं व्याज़्यान नहीं दूँगा। केवल शङ्का-समाधान करूँगा, आप लोग शङ्काएँ कीजिए, मैं उज़र दूँगा। एक सज्जन ने प्रश्न किया-‘‘आपके आगमन से कुछ दिन पूर्व यहाँ तुलसीजी से ठाकुर का विवाह सज़्पन्न हुआ है। लोगों ने बड़ी प्रसन्नता प्रकट की। आपका इस विषय में ज़्या विचार है?’’

श्रद्धेय पण्डितजी ने कहा-‘‘मुझे तो लोगों से भी अधिक हर्ष हुआ है। मेरे हर्ष का कारण यह है कि यह विवाह महर्षि दयानन्द के सिद्धान्तानुसार जाति-बन्धन तोड़कर हुआ है, परन्तु एक बात

स्मरण रखें कि विवाह का मुज़्य उद्देश्य सन्तान की उत्पज़ि है। ये दज़्पती (तुलसी का पौधा व पत्थर का ठाकुर) संसार से नि-सन्तान ही जाएँगे। इनकी गोदी कभी भी हरी न होगी।’’

जिज्ञासा समाधान : आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा २महोदय जिज्ञासा समाधान के सन्दर्भ में अवगत हो कि मेरी जिज्ञासा कुछ अटपटी है। विषय है सूर्य संसार में ऊर्जा का स्रोत है। सूर्य के प्रचंड ताप व प्रकाश के बिना जीवन असंभव है। तथापि जानकारी करना है कि सूर्य को ऊर्जा कहाँ से प्राप्त होती है।

दूसरी बात यह कि उपनिषदों में सात लोक का वर्णन आता है। १. पृथ्वी लोक २. वायु लोक ३. अन्तरिक्ष लोक४. आदित्य लोक ५. चन्द्र लोक ६. नक्षत्र लोक ७. ब्रह्माण्ड लोक। क्या इन लोकों में भी लोगों का निवास संभव है।

– रामनारायण गुप्त, बिलासपुर

 

समाधान २– (क)परमेश्वर ने ब्रह्माण्ड की रचना की है, इस विशाल ब्रह्माण्ड में करोड़ों आकाश गंगाएँ हैं, उनमें करोड़ों-करोड़ों सूर्य हैं। सूर्य, जो ऊर्जा का स्रोत है, इसकी सतह का निर्माण हाइड्रोजन, हीलियम, लोहा, निकेल, ऑक्सीजन, सिलिकॅान, सल्फर, मैग्निशियम, कार्बन, नियोन, कैल्शियम, क्रोमियम तत्वों से हुआ है। इनमें से सूर्य के सतह पर हाइड्रोजन की मात्रा ७४ प्रतिशत तथा हीलियम २४ प्रतिशत है। इन्हीं तत्वों के कारण सूर्य में ऊर्जा है। सूर्य में हाइड्रोजन के जलने से हीलियम गैस उत्पन्न होती है, जो कि ऊर्जा का महा-भण्डार है।

सूर्य के कारण ही हम पृथिवी वासियों का जीवन चल रहा है। सुबह से शाम तक सूर्य अपनी किरणों से- जिनमें औषधीय गुणों का भंडार है, अनेक रोग उत्पादक कीटाणुओं का नाश करता है। स्वस्थ रहने के लिए जितनी शुद्ध हवा आवश्यक है, उतना ही प्रकाश भी आवश्यक है। प्रकाश में मानव शरीर के कमजोर अंगों को पुनः सशक्त और सक्रिय बनाने की अद्भुत क्षमता है। सूर्य के प्रकाश का संबन्ध केवल गर्मी देने से नहीं है, अपितु इसका मनुष्य के आहार के साथ भी घनिष्ट सम्बन्ध है। छोटे-बड़े पौधे व वनस्पतियों के पत्ते सूरज की किरणों के सान्निध्य से क्लोरोफिल नामक तत्व का निर्माण करते हैं। जिससे पौधों में हरापन होता है।

सूर्य ऊर्जा का महाभण्डार है। सूर्य के एक वर्ग सेंटीमीटर से जितनी ऊर्जा पैदा होती है, उतनी ऊर्जा १०० वाट के ६४ बल्बों को जलाने के लिए काफी है। सूर्य की जितनी ऊर्जा धरती पर पहुँचती है, उतनी ऊर्जा सम्पूर्ण मानवों द्वारा खपत की ऊर्जा से ६००० गुना ज्यादा होती है। जितनी ऊर्जा ३० दिन में धरती को सूर्य द्वारा मिलती है, उतनी ऊर्जा मानवों द्वारा पिछले ४०,००० साल से खपत ऊर्जा से कहीं अधिक है। यदि सूर्य की चमक (ऊर्जा) धरती पर एक दिन न पहुँचे तो धरती कुछ घंटों में बर्फ की तरह से जम जाएगी, सम्पूर्ण पृथिवी उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव जैसी हो जायेगी।

यह सब ऊर्जा सूर्य को कहाँ से मिलती है, यह आपकी जिज्ञासा है। सूर्य में यह ऊर्जा परमेश्वर की व्यवस्था से उत्पन्न होती है। वही परमेश्वर सूर्य की रचना करने वाला है। वह ही अपनी व्यवस्था से सूर्य में ऊर्जा उत्पन्न करने वाला है।

(ख) अन्य लोकों पर भी प्राणियों का वास सम्भव है। परमात्मा की व्यवस्था से जिस लोक की संरचना हुई है, उसी संरचना के आधार पर वहाँ वास सम्भव हो सकता है। न्यायदर्शन के सूत्र ३.१.२७ के भाष्य में वात्स्यायन मुनि लिखते हैं-

‘‘अप्तैजस्वायव्यानि लोकान्तरे शरीराणि’’

अर्थात् लोकान्तर में जल, अग्नि और वायु के शरीर होते हैं। इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि लोकान्तर में केवल जल, अग्नि अथवा वायु के शरीर होते हैं, अपितु इसका अर्थ है कि जहाँ जिसकी प्रधानता होगी वहाँ वैसा शरीर होगा।

पृथिवी से अतिरिक्त करोड़ों लोक-लोकान्तर व्यर्थ नहीं होंगे। जैसे इस पृथिवी पर प्राणियों का वास है, ऐसे अन्य लोकों पर भी होगा। दिल्ली से प्रकाशित ‘नवभारत टाइम्स’ के दिनांक २४ मार्च १९९० के अंक में कुछ ऐसी बात प्रकाशित हुई-हमारी दुनिया यह नहीं मानती कि उसके अलावा और भी दुनिया है। पृथिवी का आदमी अपनी दुनिया से इतना आश्वस्त है कि वह अन्य ग्रहों या आकाशगंगाओं पर बुद्धिमान् प्राणियों की मौजूदगी की बात पर विश्वास ही नहीं कर सकता। वह सोचता है कि ऐसा कैसे हो सकता है कि उस जैसे आदमी या उनसे भी अधिक बुद्धिमान् प्राणी अन्यत्र हो सकते हैं। किन्तु वैज्ञानिकों की दुनिया में आयें तो हमें विश्वास होने लगता है कि हाँ अन्यत्र भी प्राणी हो सकते हैं।

अनेक वर्षों से वैज्ञानिक मानते आये हैं कि पृथिवी के अतिरिक्त भी बुद्धिमान् प्राणी हैं। वर्तमान वैज्ञानिकों, प्राचीन ऋषियों व तर्क से तो यही लगता है कि अन्य लोकों पर प्राणियों का वास सम्भव है।