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जिज्ञासा समाधान – आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा १- ‘‘जिज्ञासा-समाधान’’ में एक जिज्ञासा का हल चाहिए। हवन करते हैं तो अन्त में बलिवैश्वदेवयज्ञ में पके चावल भात की दस आहुतियाँ चढ़ाते हैं। कहीं-कहीं भात न होने के कारण फल या प्रसाद की ही आहुतियाँ दे देते हैं और कहीं-कहीं सिर्फ घी की दस आहुतियाँ चढ़ा देते हैं। बलिवैश्वदेवयज्ञ तो प्रतिशाम में करना चाहिए। वर्तमान जगत् में कम घी होता है। आपकी राय क्या है?

– सोनालाल नेमधारी

जिज्ञासा २- महर्षि मनु द्वारा लिखित भूतयज्ञ का मन्त्र-

‘‘शुनां च पतितानां………पापरोगीणाम्। वायसानों……..भुवि।।’’

को अर्थसहित पढ़ा। आर्य गुटका में लिखित अर्थ के अनुसार कुत्ता, पतित, चांण्डाल, पापरोगी, काक के स्थान पर कोयल, चाण्डाल के स्थान पर महात्मा इत्यादि को महत्त्व नहीं दिया। उन सब कुत्ता, पतित वगैरह का उस समय समाज में क्या स्थान था? वे किस प्रकार से अधिक उपयोगी थे या उपयोगी समझे जाते थे? हमारे वेद-शास्त्रों के अनुसार चाण्डाल, पतित, पापरोगी, काक का वास्तविक अर्थ क्या है। क्योंकि आधुनिक समाज में इन शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाता।

– डॉ. वेदप्रकाश गुप्ता

समाधान १- बलिवैश्वदेवयज्ञ गृहस्थाश्रमी को अवश्य करना चाहिए। यह यज्ञ पाकशाला की अग्रि में करना होता है। इसके दो भाग हैं- एक अग्रि में आहुति देना, दूसरा कुछ प्राणी विशेष के लिए भोजन में से भाग निकालकर उनको देना। जो अग्रि में आहुति दी जाती हैं, वे आहुतियाँ घर में बने भोजन में से दी जाती हैं। इसके लिए महर्षि लिखते हैं-

यदन्नं पक्वमक्षारलवणं भवेत्तेनैव

बलिवैश्वदेवकर्म काय्र्यम्।

– ऋ.भा.भू.।

जो पका हुआ, क्षार और लवण से रहित अन्न है, उसकी आहुति देवें। यह बलिवैश्वदेवयज्ञ पके अन्न से ही करने का विधान है। इस विषय में महर्षि संस्कारविधि में भी लिखते हैं-‘‘……घृतमिश्रित भात की, यदि भात न बना हो तो क्षार और लवणान्न को छोड़ के जो कुछ पाक में बना हो, उसकी दश आहुति करें।’’ यहाँ मुख्य रूप से भात की आहुति देने को कहा है और यदि भात न हो तो दूसरा विकल्प अन्य दूसरा पका हुआ अन्न कहा है।

बलिवैश्वदेवयज्ञ को श्रद्धा से करने वाला व्यक्ति ऋषि के अनुसार भात बनायेगा या बनवायेगा, तब आहुति देगा अथवा अन्य मिष्ट अन्न की आहुति देगा, यह ऋषि की मान्यता के अनुसार आदर्श रीति है। हाँ, कभी ऐसी परिस्थिति है कि कोई पक्व अन्न है ही नहीं और हम बलिवैश्वदेवयज्ञ करना चाहते हैं तो घी की आहुति भी दी जा सकती है, ऐसा करने से लाभ ही होगा।

आपने कहा ‘‘भात न होने पर फल या प्रसाद की आहुति दे देते हैं।’’ इस विषय में हमने ऋषि का मन्तव्य रख दिया है।

यह यज्ञ प्रतिदिन प्रात: करना होता है, प्रतिशाम नहीं। हाँ, यदि किसी कारणवश प्रात: नहीं कर पाये तो सायं किया जा सकता है। ये कहना कि ‘‘वर्तमान जगत् में घी कम होता है’’ उचित नहीं, क्योंकि जैसे पहले घी का उत्पादन होता था, आज भी हो रहा है। यदि हम यज्ञ करना चाहते हैं, यज्ञ के प्रति श्रद्धा है तो घी का उत्पादन बढ़ा लेंगे, प्राप्त कर ही लेंगे। अस्तु।

बलिवैश्वदेवयज्ञ के विषय में थोड़ा और लिखते हैं। वेद व ऋषियों ने इस यज्ञ का वर्णन किया है। महर्षि मनु कहते हैं-

वैश्वदेवस्य सिद्धस्य गृहेऽग्नौ विधिपूर्वकम्।

आभ्य: कुर्यात् देवाताभ्यो ब्राह्मणो होममन्वहम्।।

ब्राह्मण एवं द्विज व्यक्ति पाकशाला की अग्रि विधिपूर्वक सिद्ध हुए बलिवैश्वदेवयज्ञ के भाग वाले भोजन का प्रतिदिन ईश्वरीय दिव्यगुणों के चिंतनपूर्वक आहुति देकर हवन करे।

अहरहर्बलिमित्ते हरन्तोऽश्वायेव तिष्ठते घासमग्रे।

रायस्पोषेण समिषा मदन्तो मा ते अग्रे प्रतिवेशा रिषाम।।

– अथर्व. १९.५५.७

यह अथर्ववेद का मन्त्र भी बलिवैश्वदेवयज्ञ-विषयक आहुति देने का निर्देश कर रहा है। आहुति देने वाला यह बलिवैश्वदेवयज्ञ का प्रथम भाग है।

समाधान २- बलिवैश्वदेवयज्ञ का दूसरा भाग असहाय प्राणियों के लिए अपने भोजन में से कुछ भाग निकालकर उनको देना है। महर्षि मनु लिखते हैं-

शुनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम्।

वायसानां कृमीणां च शनकैर्निर्वपेद् भुवि।।

– मनु. ३.९२

अर्थात् कुत्तों, कंगालों, कुष्ठी आदि रोगियों, काक आदि पक्षियों और चींटी आदि कृमियों के लिए भी छ: भाग अलग-अलग बाँट के दे देना और उनकी प्रसन्नता करना अर्थात् सब प्राणियों को मनुष्यों से सुख होना चाहिए। ऋ.भा.भू.

महर्षि मनु ने ये जो प्राणी गिनाये हैं, ये व कुछ अन्य भी मनुष्यों के आश्रित रहते हैं। आपने कहा कुत्ते के स्थान पर गाय क्यों नहीं? यहाँ गाय का निषेध भी नहीं है। दूसरी बात, गाय को जितनी सरलता से चारा आदि मिल जाता है, उतनी सरलता से ग्राम्य या गली के कुत्तों को नहीं मिलता। इस प्रकार के प्राणी मनुष्यों पर आश्रित रहते हैं, इसलिए कुत्ते का कथन है।  कोयल का भोजन प्राय: जंगली होता है, वह कौवे की भाँति घर का भोजन नहीं करती और यहाँ कौवा कहने से कोयल आदि अन्य पक्षियों का निषेध भी नहीं है, कौवा तो उपलक्षण मात्र है। ऐसे ही पतित और अन्यों की बात जानें।

पतित का तात्पर्य कंगाल आदि से है। जो कंगाल है, उनका भरण-पोषण बलिवैश्वदेवयज्ञ के द्वारा गृहस्थ लोग करें। कुष्ठ आदि रोगयुक्त असहाय जो मनुष्य हैं, उनको भोजन आदि कराना श्रेष्ठकर्म ही कहलायेगा। रही बात इनके स्थान पर महात्मा आदि की, तो इनके लिए ऋषियों ने अतिथियज्ञ का पृथक् विधान कर रखा है। इनका आदर सत्कार उस यज्ञ के माध्यम से होता ही जाता है।

इनके जैसे पहले अर्थ थे, वैसे आज भी हैं। कौवा कौवा ही है, कोई और अर्थ इसका नहीं है। चाण्डाल, जो श्मशान भूमि आदि में सेवाकार्य करता था। पतित से कंगाल असहाय आदि और पापरोगी अर्थात् कुष्ठरोग आदि से ग्रसित व्यक्ति। इनको सहयोग, सहायता करना, भोजन आदि से प्रसन्न करना बलिवैश्वदेवयज्ञ का दूसरा भाग कहलाता है। अलम्।

जिज्ञासा समाधान : – आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा- कुछ प्रश्रों के द्वारा मैं अपनी शंकाएँ भेज रही हँू। कृपया उनका निवारण कीजिए।

(क) ‘गायत्री मन्त्र’ और ‘शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।’ दोनों मन्त्र सन्ध्या में दो-दो बार आयें हैं इनका क्या महत्त्व है?

(ख) कुछ विद्वानों का कथन है कि प्रात:काल की सन्ध्या पूर्व दिशा की ओर मुख करके करनी चाहिए और सायंकाल की सन्ध्या पश्चिम दिशा की ओर मुख करके करनी चाहिए। इसमें क्या भेद है?

(ग) दैनिक यज्ञ करने वाला व्यक्ति यदि रुग्ण हो जाये या किसी कारणवश ५-७ दिन के लिए बाहर चला जाये, यज्ञ न कर पाये और घर में दूसरा व्यक्ति यज्ञ करने वाला न हो तो वह क्या दैनिक यज्ञ का अनुष्ठान अपूर्ण हो जाता है? यज्ञकत्र्ता क्या करे?

(घ) परमाणु (सत्व, रज, तम) जड़ हैं और ईश्वर को भी परम-अणु अथवा आत्मा को भी अणु-स्वरूप वैदिक आधार से माना जाता है, जबकि ये दोनों चेतन हैं। कृपया बताइये कि सत्य क्या है?

– सुमित्रा आर्या, सोनीपत।

समाधान- (क) पञ्चमहायज्ञों के अन्तर्गत ‘संध्या’ प्रथम ब्रह्मयज्ञ है। ब्रह्मयज्ञ प्रत्येक आर्य (आत्मकल्याण इच्छुक) को अवश्य करने का निर्देश ऋषियों ने किया है। जो इस महायज्ञ को नहीं करता, उसको हीन माना गया है। महर्षि मनु कहते हैं-

न तिष्ठति तु य: पूर्वां योपास्ते यस्तु पश्चिमाम्।

स साधुभिर्बहिष्कार्य: सर्वस्माद् द्विजकर्मण:।।

भाव यह है कि जो संध्योपासना आदि नहीं करता वह सज्जनों के द्वारा बहिष्कार करने योग्य है।

महर्षि दयानन्द ने संध्योपासना का एक विशेष क्रम रखा है। उस क्रम को ठीक से समझने पर संध्या की विधि ठीक समझ में आ जाती है। आपने कहा-संध्या के मन्त्रों में ‘गायत्री मन्त्र’ व ‘शन्नो देवी’ मन्त्र दो-दो बार आये सो आधी बात ठीक है। संध्या मन्त्रों में ‘शन्नो देवी’ मन्त्र को दो बार महर्षि ने निर्दिष्ट किया है, किन्तु ‘गायत्री मन्त्र’ का विनियोग तो एक ही बार किया है।

सन्ध्या के प्रारम्भ में ‘शन्नो देवी’ मन्त्र का प्रयोजन मनुष्य-जीवन का उद्देश्य बताने का है। हम मनुष्य संसार में सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए परमसुख मोक्ष को प्राप्त करें। यह भाव इस मन्त्र का है। मोक्ष हमारा लक्ष्य है, यह लक्ष्य संध्या के प्रारम्भ में स्मरण कराने के लिए ‘शन्नो देवी’ है, संध्या के मध्य में हमें हमारा लक्ष्य याद रहे कि दोबारा इस मन्त्र के द्वारा आचमन का विधान किया और संध्या के अन्त में ‘हे ईश्वर दयानिधे…………’ इस बात से लक्ष्य का स्मरण करते हुए परमेश्वर को नमस्कार करते हुए संध्या का विराम। मुख्य रूप से तो ‘शन्नो देवी’ मन्त्र का विनियोग महर्षि ने आचमन के लिए किया है। वह संध्या में दो बार करने के लिए कहा है।

(ख) संध्या करते समय दिशाओं का विधान है-पूर्व की ओर मुख करके संध्या करें। पूर्व दिशा के विषय में महर्षि ने दो बातें कहीं हैं-

यत्र स्वस्य मुखं सा प्राची दिक् तथा यस्यां सूर्य उदेति सापि प्राची दिगस्ति।

यहाँ महर्षि की दृष्टि में संध्या करते हुए जिस ओर हमारा मुख हो, वही प्राची= पूर्व दिशा है। दूसरा, जिस ओर से सूर्य निकलता है, वह प्राची=पूर्व दिशा है। यह विधान तो ऋषियों का है कि संध्या पूर्व दिशा की ओर मुख करके करें, किन्तु हमें पश्चिम दिशा का विधान पढऩे को अभी तक नहीं मिला। हाँ, कर्मकाण्ड पूर्व, उदक् अर्थात् पूर्व दिशा और उत्तर दिशा की ओर मुख करके करने का विधान अवश्य शास्त्र में मिलता है।

दिशाओं की महत्ता के विषय में मीमांसा दर्शन के अध्याय तीन के चौथे पाद के दूसरे अधिकरण में भाष्यकार शबर स्वामी ने लिखा है-

प्राचीं देवा अभजन्त दक्षिणां पितर:, प्रतीचीं मनुष्या:, उदीचीमसुरा: इति। अपरेषाम्-उदीचीं रुद्रा: इति।

पूर्व दिशा प्रकाश देने वाली है, ज्ञान की द्योतक है, इसलिए देव लोग पूर्व दिशा को चाहते हैं। ज्ञान की द्योतक होने से संध्या में पूर्व की ओर मुख क रके बैठते हैं।

(ग) यज्ञकर्म मनुष्य के लिए कत्र्तव्य कर्म हंै। पाँच महायज्ञों में यह देवयज्ञ कहलाता है। महर्षि तो यह यज्ञ प्रत्येक मनुष्य करे-इसका विधान करते हैं। सत्यार्थप्रकाश समुल्लास तीन में लिखते हैं-‘‘प्र.-प्रत्येक मनुष्य कितनी आहुति करे और एक-एक आहुति का कितना परिमाण है? उत्तर- प्रत्येक मनुष्य को सोलह-सोलह आहुतियाँ और छ:-छ: माशे घृतादि एक-एक आहुति का परिमाण न्यून से न्यून चाहिए और जो इससे अधिक करे तो बहुत अच्छा है।’’

आजकल हमने बहुत से लोगों को व आर्यसमाजों में हवन होते देखा है। कहने को तो ये दैनिक अग्रिहोत्र करने वाले हैं, किन्तु क्या वे ऋषि के अनुकूल यज्ञ करते हैं? कितनी ही धनी आर्यसमाजों में हवन होते हुए देखा कि समिधाएँ ज्यादा जलाते हैं, घी की दो तीन बूँदों से एक-एक आहुति में देते हैं। उनसे छ: माशे घी की आहुति देने क ी कहते हैं तो उनकी ओर से बात आती है कि इतना खर्चा कहाँ से आयेगा। आश्चर्य तो तब होता है कि जब ये लंगर करते हैं, तब सब्जी-पूड़ी, कढ़ी-चावल, मिठाई, रायता आदि सब बनता है। इसमें खर्चा नहीं दिखता, किन्तु हवन में यदि कोई थोड़ा-सा घी अधिक जला दे तो खर्चा दिखने लगता है।

हवन में व्यक्ति की कितनी श्रद्धा है, यह उसके घी-सामग्री, हवन-पात्र, हवन करने का स्थान, मन्त्रोच्चारण क्रिया आदि से ज्ञात हो जाता है। हवन करना सिखाने वाले भी धनी व्यक्तियों को कह देते हैं कि २०-२५ रु. में हवन हो जाता है, यह सुनकर आश्चर्य ही होता है। जहाँ समिधाएँ अधिक जलें और उनमें भूसे जैसी सूखी सामग्री और दो-तीन बूँद घी डाला जाये, वहाँ लाभ अधिक है या हानि अधिक है-विचार करें। धनी व्यक्ति एक दिन यदि ५००० रु. गाडिय़ों का तेल जलाने में खर्च कर देते हैं, नित्य प्रति हजारों रु. का व्यर्थ का खर्चा कर देते हैं, वहाँ २०-२५ रु. का हवन करके कितना लाभ प्राप्त कर लेंगे-विचारणीय ही है।

आपने जो पूछा कि किसी कारण वश दैनिक अग्रिहोत्र करने वाला कभी किसी दिन या कई दिन हवन न कर पाये तो क्या करना चाहिए। इसमें यदि हो सके तो ऐसी परिस्थिति में हम किसी और से उन दिनों अपना हवन करवा सकते हैं। यदि ऐसा नहीं बन पड़े तो जितने दिन का हवन छूट गया है, उतने दिन की घी सामग्री का हवन अन्य दिनों में अतिरिक्त कर लें, इसी से हमारा पूरा कत्र्तव्य पालन होगा।

महर्षि ने भी संस्कार विधि में एक टिप्पणी देते हुए लिखा है-‘‘किसी विशेष कारण से स्त्री वा पुरुष अग्रिहोत्र के समय दोनों साथ उपस्थित न हो सकें तो एक ही स्त्री वा पुरुष दोनों की ओर का कृत्य कर लेवे, अर्थात् एक-एक मन्त्र को दो-दो बार पढ़ के दो-दो आहुतियाँ करंे।’’

(घ) संसार में जड़ चेतन-दो की सत्ता है। जड़ में संसार की समस्त वस्तुएँ और चेतन में आत्मा और परमात्मा। आत्मा परमात्मा परम सूक्ष्म है। आत्मा सूक्ष्म है और परमात्मा उससे भी सूक्ष्मतर है।

भौतिक वस्तुओं में परमाणु सबसे छोटी ईकाई मानी जाती है। वह सबसे सूक्ष्म माना जाता है। आपने परमाणु की सूक्ष्मता को लेकर आत्मा-परमात्मा के अणु स्वरूप की जो बात कही, उसका समाधान यह है कि जो अणु है, उसकी जड़ता को लेकर आत्मा-परमात्मा को नहीं कहा जा रहा, अपितु उसकी सूक्ष्मता को लेकर कहा जा रहा है। यहाँ यह नहीं कह रहे हैं कि जैसे अणु जड़ है, वैसे आत्मा-परमात्मा भी जड़ हैं, अपितु यहाँ तो आत्मा-परमात्मा की सूक्ष्मता को बताने के लिए अणु का दृष्टान्त दे रहे हैं कि जैसे अणु सूक्ष्म है, वैसे ये भी अत्यन्त सूक्ष्म हैं। अस्तु

 

जिज्ञासा समाधान : आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा २महोदय जिज्ञासा समाधान के सन्दर्भ में अवगत हो कि मेरी जिज्ञासा कुछ अटपटी है। विषय है सूर्य संसार में ऊर्जा का स्रोत है। सूर्य के प्रचंड ताप व प्रकाश के बिना जीवन असंभव है। तथापि जानकारी करना है कि सूर्य को ऊर्जा कहाँ से प्राप्त होती है।

दूसरी बात यह कि उपनिषदों में सात लोक का वर्णन आता है। १. पृथ्वी लोक २. वायु लोक ३. अन्तरिक्ष लोक४. आदित्य लोक ५. चन्द्र लोक ६. नक्षत्र लोक ७. ब्रह्माण्ड लोक। क्या इन लोकों में भी लोगों का निवास संभव है।

– रामनारायण गुप्त, बिलासपुर

 

समाधान २– (क)परमेश्वर ने ब्रह्माण्ड की रचना की है, इस विशाल ब्रह्माण्ड में करोड़ों आकाश गंगाएँ हैं, उनमें करोड़ों-करोड़ों सूर्य हैं। सूर्य, जो ऊर्जा का स्रोत है, इसकी सतह का निर्माण हाइड्रोजन, हीलियम, लोहा, निकेल, ऑक्सीजन, सिलिकॅान, सल्फर, मैग्निशियम, कार्बन, नियोन, कैल्शियम, क्रोमियम तत्वों से हुआ है। इनमें से सूर्य के सतह पर हाइड्रोजन की मात्रा ७४ प्रतिशत तथा हीलियम २४ प्रतिशत है। इन्हीं तत्वों के कारण सूर्य में ऊर्जा है। सूर्य में हाइड्रोजन के जलने से हीलियम गैस उत्पन्न होती है, जो कि ऊर्जा का महा-भण्डार है।

सूर्य के कारण ही हम पृथिवी वासियों का जीवन चल रहा है। सुबह से शाम तक सूर्य अपनी किरणों से- जिनमें औषधीय गुणों का भंडार है, अनेक रोग उत्पादक कीटाणुओं का नाश करता है। स्वस्थ रहने के लिए जितनी शुद्ध हवा आवश्यक है, उतना ही प्रकाश भी आवश्यक है। प्रकाश में मानव शरीर के कमजोर अंगों को पुनः सशक्त और सक्रिय बनाने की अद्भुत क्षमता है। सूर्य के प्रकाश का संबन्ध केवल गर्मी देने से नहीं है, अपितु इसका मनुष्य के आहार के साथ भी घनिष्ट सम्बन्ध है। छोटे-बड़े पौधे व वनस्पतियों के पत्ते सूरज की किरणों के सान्निध्य से क्लोरोफिल नामक तत्व का निर्माण करते हैं। जिससे पौधों में हरापन होता है।

सूर्य ऊर्जा का महाभण्डार है। सूर्य के एक वर्ग सेंटीमीटर से जितनी ऊर्जा पैदा होती है, उतनी ऊर्जा १०० वाट के ६४ बल्बों को जलाने के लिए काफी है। सूर्य की जितनी ऊर्जा धरती पर पहुँचती है, उतनी ऊर्जा सम्पूर्ण मानवों द्वारा खपत की ऊर्जा से ६००० गुना ज्यादा होती है। जितनी ऊर्जा ३० दिन में धरती को सूर्य द्वारा मिलती है, उतनी ऊर्जा मानवों द्वारा पिछले ४०,००० साल से खपत ऊर्जा से कहीं अधिक है। यदि सूर्य की चमक (ऊर्जा) धरती पर एक दिन न पहुँचे तो धरती कुछ घंटों में बर्फ की तरह से जम जाएगी, सम्पूर्ण पृथिवी उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव जैसी हो जायेगी।

यह सब ऊर्जा सूर्य को कहाँ से मिलती है, यह आपकी जिज्ञासा है। सूर्य में यह ऊर्जा परमेश्वर की व्यवस्था से उत्पन्न होती है। वही परमेश्वर सूर्य की रचना करने वाला है। वह ही अपनी व्यवस्था से सूर्य में ऊर्जा उत्पन्न करने वाला है।

(ख) अन्य लोकों पर भी प्राणियों का वास सम्भव है। परमात्मा की व्यवस्था से जिस लोक की संरचना हुई है, उसी संरचना के आधार पर वहाँ वास सम्भव हो सकता है। न्यायदर्शन के सूत्र ३.१.२७ के भाष्य में वात्स्यायन मुनि लिखते हैं-

‘‘अप्तैजस्वायव्यानि लोकान्तरे शरीराणि’’

अर्थात् लोकान्तर में जल, अग्नि और वायु के शरीर होते हैं। इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि लोकान्तर में केवल जल, अग्नि अथवा वायु के शरीर होते हैं, अपितु इसका अर्थ है कि जहाँ जिसकी प्रधानता होगी वहाँ वैसा शरीर होगा।

पृथिवी से अतिरिक्त करोड़ों लोक-लोकान्तर व्यर्थ नहीं होंगे। जैसे इस पृथिवी पर प्राणियों का वास है, ऐसे अन्य लोकों पर भी होगा। दिल्ली से प्रकाशित ‘नवभारत टाइम्स’ के दिनांक २४ मार्च १९९० के अंक में कुछ ऐसी बात प्रकाशित हुई-हमारी दुनिया यह नहीं मानती कि उसके अलावा और भी दुनिया है। पृथिवी का आदमी अपनी दुनिया से इतना आश्वस्त है कि वह अन्य ग्रहों या आकाशगंगाओं पर बुद्धिमान् प्राणियों की मौजूदगी की बात पर विश्वास ही नहीं कर सकता। वह सोचता है कि ऐसा कैसे हो सकता है कि उस जैसे आदमी या उनसे भी अधिक बुद्धिमान् प्राणी अन्यत्र हो सकते हैं। किन्तु वैज्ञानिकों की दुनिया में आयें तो हमें विश्वास होने लगता है कि हाँ अन्यत्र भी प्राणी हो सकते हैं।

अनेक वर्षों से वैज्ञानिक मानते आये हैं कि पृथिवी के अतिरिक्त भी बुद्धिमान् प्राणी हैं। वर्तमान वैज्ञानिकों, प्राचीन ऋषियों व तर्क से तो यही लगता है कि अन्य लोकों पर प्राणियों का वास सम्भव है।

जिज्ञासा समाधान : आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा १ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चारों वर्णों का निर्णय तो कर्म के आधार पर होता है। नामकरण प्रकरण संस्कार विधि में नवजात शिशु ने अभी कोई कर्म ही नहीं किया तो किस आधार पर देवशर्मा, देववर्मा, देवगुप्त और देवदास नाम रखे जाएँ, यह बात मेरी समझ में नहीं आई। कृपया मेरी इस शंका का समाधान कर दीजिए।

– राज कुकरेजा, करनाल

यही जिज्ञासा यतीन्द्र आर्य, मन्त्री बालसमन्द, हिसार की भी है।

समाधान-१.लोक में हमारी पहचान हमारे नाम से होती है। जीवात्मा शरीर धारण कर जन्म लेता है, तब उस शरीर से युक्त मनुष्य का संसार में व्यवहार करने के लिए नाम रखा जाता है। सोलह संस्कारों में पांचवा संस्कार नामकरण संस्कार है। इस संस्कार में नवजात शिशु का सार्थक नाम रखा जाता है। शिशु के कुल, वंश को देखकर उस कुल की परम्परा अनुसार वा शिशु किस वर्ण में उत्पन्न हुआ है, उसके अनुसार नाम रखा जाता है।

महर्षि दयानन्द ने वर्णों के अनुसार नामों का संकेत किया है कि ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ हो तो अमुक नाम रखें, क्षत्रिय कुल का हो तो अमुक नाम रखें आदि।

दूसरी ओर महर्षि वर्ण का निश्चय बच्चे के बड़े हो जाने पर उसके गुण, कर्म के अनुसार करने को कहते हैं। अभी वर्ण का निश्चय हुआ नहीं और बच्चे का नाम ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि के नामों के अनुसार रखा जा रहा है। यहाँ विरोधाभास दिखाई दे रहा है। यही जिज्ञासा आप लोगों की है।

प्रथम यहाँ विचार करें कि महर्षि ने संस्कार विधि में जो बच्चे का नाम ब्राह्मण आदि का रखने के लिए कहा, वह उस बच्चे को ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि मानकर नहीं कहा है। महर्षि ने बच्चे का नाम उसके कुल के आधार पर किया है। बच्चा अभी किस वर्ण का है यह निश्चित नहीं हुआ है, फिर भी उसका नाम उसके कुल के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वाला रखने के लिए कहा है। दूसरी बात, भले ही बच्चों का अभी वर्ण निश्चित नहीं हुआ, ऐसा हेाते हुए भी अधिक सम्भावना है कि बच्चा जिस वर्ण में पैदा हुआ है, उसी का बने, क्योंकि अनुवांशिक गुण आना स्वाभाविक है। इसलिए भी उसके कुल के अनुसार नाम रख दिया जाता है।

अथवा शास्त्र में भावी संज्ञा का विधान भी है। अर्थात् जो परिस्थिति अभी तो नहीं है, किन्तु भविष्य में होने वाली है, जैसे कुर्ता अभी है नहीं फिर भी हम कपड़ा सिलाने वाले को कपड़ा देते हुए कहते हैं कि इसका कुर्ता बना दो। व्याकरण के ग्रन्थ महाभाष्य में भाविनी संज्ञा को दर्शाया है-

‘‘एवं तर्हि भाविनीयं संज्ञा विधास्यते, तद् यथा-कश्चित्कंचित्तन्तुवायमाह- ‘अस्य सूत्रस्य शाटकं वयेति, सः पश्यति यदि शाटको न वातव्यो न शाटकः, शाटको वातव्यश्चेति विप्रतिविद्धम् भाविनी खलवयं संज्ञाऽभिप्रेता, स मन्ये वातव्यो-यस्मिन्नुते शाटक इत्येतद् भवतीति।’’

– महाभाष्य १.१.४४ आह्निक ७

यह महाभाष्य का वचन हमने भावी संज्ञा होने के प्रमाण में दिया है। लोक में भी कोई डॉक्टर की पढ़ाई कर रहा है, डॉक्टर बना नहीं, फिर भी उसको डॉक्टर कहने लग जाते हैं। ऐसे ही यहाँ पर भी समझ सकते हैं।