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अम्बेडकर के वेदों पर आक्षेप

भीम राव अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक “सनातन धर्म में पहेलियाँ” (Riddles In Hinduism) में वेदों पर अनर्गल आरोप लगाये हैं और अपनी अज्ञानता का परिचय दिया है। अब चुंकि भीम राव को न तो वैदिक संस्कृत का ज्ञान था और न ही उन्होनें कभी आर्ष ग्रंथों का स्वाध्याय किया था, इसलिये उनके द्वारा लगाये गये अक्षेपों से हम अचंभित नहीं हैं। अम्बेडकर की ब्राह्मण विरोधी विचारधारा उनकी पुस्तक में साफ झलकती है।
इसी विचारधारा का स्मरण करते हुए उन्होनें भारतवर्ष में फैली हर कुरीति का कारण भी ब्राह्मणों को बताया है और वेदों को भी उन्हीं की रचना बताया है। अब इसको अज्ञानता न कहें तो और क्या कहें? अब देखते हैं अम्बेडकर द्वारा लगाये अक्षेप और वे कितने सत्य हैं।
अम्बेडकर के अनुसार वेद ईश्वरीय वाणी नहीं हैं अपितु इंसाने मुख्यतः ब्राह्मणों द्वारा रचित हैं। इसके समर्थन में उन्होनें तथाकथित विदेशी विद्वानों के तर्क अपनी पुस्तक में दिए हैं और वेदों पर भाष्य भी इन्हीं तथाकथित विद्वानों का प्रयोग किया है। मुख्यतः मैक्स मुलर का वेद भाष्य।
उनके इन प्रमाणों में सत्यता का अंश भर भी नहीं है। मैक्स मुलर, जिसका भाष्य अपनी पुस्तक में अम्बेडकर प्रयोग किया है, वही मैक्स मुलर वैदिक संस्कृत का कोई विद्वान नहीं था। उसने वेदों का भाष्य केवल संस्कृत-अंग्रेजी के शब्दकोश की सहायता से किया था। अब चुंकि उसने न तो निरुक्त, न ही निघण्टु और न ही अष्टाध्यायी का अध्यन किया था, उसके वेद भाष्य में अनर्गल और अश्लील बातें भरी पड़ी हैं। संस्कृत के शून्य ज्ञान के कारण ही उसके वेद भाष्य जला देने योग्य हैं।
अब बात आती है कि वेद आखिर किसने लिखे? उत्तर – ईश्वर ने वेदों का ज्ञान चार ऋषियों के ह्रदय में उतारा। वे चार ऋषि थे – अग्नि, वायु, आदित्य और अंगीरा। वेदों की भाषा शैली अलंकारित है और किसी भी मनुष्य का इस प्रकार की भाषा शैली प्रयोग कर मंत्र उत्पन्न करना कदापि सम्भव नहीं है। इसी कारण वेद ईश्वरीय वाणी हैं।
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः | ब्रह्मराजन्याभ्या शूद्राय चार्य्याय च | स्वाय चारणाय च प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुरिह भूयासमयं मे कामः समृध्यतामुपमादो नमतु|| (यजुर्वेद 26.2)
परमात्मा सब मनुष्यों के प्रति इस उपदेश को करता है कि यह चारों वेदरूप कल्याणकारिणी वाणी सब मनुष्यों के हित के लिये मैनें उपदेश की है, इस में किसी को अनधिकार नहीं है, जैसे मैं पक्षपात को छोड़ के सब मनुष्यों में वर्त्तमान हुआ पियारा हूँ, वैसे आप भी होओ | ऐसे करने से तुम्हारे सब काम सिद्ध होगें ||
डॉ अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक में दर्शन ग्रंथों से भी प्रमाण दिये हैं जिसमें उन्होनें वेदों में आंतरिक विरोधाभास की बात कही है। अम्बेडकर के अनुसार महर्षि गौतम कृत न्याय दर्शन के 57 वे सुत्र में वेदों में आंतरिक विरोधाभास और बली का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार महर्षि जैमिनी कृत मिमांसा दर्शन के पहले अध्याय के सुत्र 28 और 32 में वेदों में जीवित मनुष्य का उल्लेख किया गया है। ऐसा अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक में वर्णन किया है परंतु ये प्रमाण कितने सत्य हैं आइये देखते हैं।
पहले हम न्याय दर्शन के सुत्र को देखते हैं। महर्षि गौतम उसमें लिखते हैं:
तदप्रामाण्यमनृतव्याघातपुनरुक्तदोषेभ्यः |58|
(पूर्वपक्ष) मिथ्यात्व, व्याघात और पुनरुक्तिदोष के कारण वेदरूप शब्द प्रमाण नहीं है।
न कर्मकर्त साधनवैगुण्यात् |59|
(उत्तर) वेदों में पूर्व पक्षी द्वारा कथित अनृत दोष नहीं है क्योंकि कर्म, कर्ता तथा साधन में अपूर्णता होने से वहाँ फलादर्शन है।
अभ्युपेत्य कालभेदे दोषवचनात् |60|
स्वीकार करके पुनः विधिविरुद्ध हवन करने वाले को उक्त दोष कहने से व्याघात दोष भी नहीं है।
अनुवादोपपत्तेश्च |61|
सार्थक आवृत्तिरूप अनुवाद होने से वेद में पुनरुक्ति दोष भी नहीं है।
अतः इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि वेदों में किसी प्रकार का कोई दोष नहीं है और अम्बेडकर के न्याय दर्शन पर अक्षेप पूर्णतः असत्य हैं।
अब मिमांसा दर्शन के सुत्र देखते हैं जिन पर अम्बेडकर ने अक्षेप लगाया है:
अविरुद्धं परम् |28|
शुभ कर्मों के अनुष्ठान से सुख और अशुभ कर्मों के करने से दुःख होता है।
ऊहः |29|
तर्क से यह भी सिद्ध होता है कि वेदों का पठन पाठन अर्थ सहित होना चाहिये।
अपि वा कर्तृसामान्यात् प्रमाणानुमानं स्यात् |30|
इतरा के पुत्र महिदास आदि के रचे हुए ब्राह्मण ग्रंथ वेदानुकुल होने से प्रमाणिक हो सकते हैं।
हेतुदर्शनाच्च |31|
ऋषि प्रणीत और वेदों की व्याख्या होने के कारण ब्राह्मण ग्रंथ परतः प्रमाण हैं।
अपि वा कारणाग्रहणे प्रयुक्तानि प्रतीयेरन् |32|
यदि ब्राह्मण ग्रंथ स्वतः प्रमाण होते तो वेदरूप कारण के बिना वे बिना वेद स्वतंत्र रूप से प्रयुक्त प्रतीत होने चाहिये थे, परंतु ऐसा नहीं है।
अतः इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि वेदों में कहीं भी किसी जीवित मनुष्य का उल्लेख नहीं किया गया है। अतः यह अक्षेप भी अम्बेडकर का असत्य साबित होता है।
प्रिय पाठकों, अम्बेडकर ने न तो कभी आर्ष ग्रंथ पढ़े थे और न ही उन्हें वैदिक संस्कृत का कोई भी ज्ञान था। अपनी पुस्तक में केवल उन्होनें कुछ तथाकथित विदेशी विद्वानों के तर्क रखे थे जो कि पूर्णतः असत्य हैं। अम्बेडकर ने ऋग्वेद में आये यम यमी संवाद पर भी अनर्गल आरोप लगाये हैं जिनका खण्डन हम यहाँ कर चुके हैं: यम यमी संवाद के विषय में शंका समाधान
अब पाठक गण स्वंय निर्णय लेवें और असत्य को छोड़ सत्य का ग्रहण करें और हमेशा याद रखें:
वेदेन रूपे व्यपिबत्सुतासुतौ प्रजापतिः| ऋतेन सत्यमिन्द्रियं विपानम् शुक्रमन्धसऽइन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोऽमृतं मधु || (यजुर्वेद 19.78)

 

वेदों को जाननेवाले ही धर्माधर्म के जानने तथा धर्म के आचरण और अधर्म के त्याग से सुखी होने को समर्थ होते हैं ||

बुद्ध मत मे नारिया

download (2)अम्बेडकर वादी कहते है की नारियो का सम्मान सिर्फ बुद्ध मत ही करता है जबकि हिन्दू वैदिक मत मे नारियो पर अत्याचार होते थे …ओर सती प्रथा ओर बाल विवाह आदि अन्य कुप्रथाए हिन्दुओ द्वारा चलयी गयी….लेकिन कई वैदिक विद्वानों ,आर्य विद्वानों द्वारा इसका संतुष्ट जनक जवाब दिया जाता रहा है ,,,

जैसे सीता जी की अग्नि परीक्षा पर ,सती प्रथा पर(*इस पेज पर भी एक पोस्ट इसी से सम्बंधित है )
लेकिन दुर्भावना से ग्रसित लोग आछेप करते रहते है ।
ओर वो भी कुछ प्रक्षेप को उठा कर ये लोग आक्षेप करते है ,,जैसे की मनुस्म्रती पर भी …जबकि मनुस्म्रति मे लिखा है :- यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:।

अर्थात जहा नारियो की पूजा (सम्मान) होता है..वहा देवता निवास करते है..जहा नारियो का सम्मान नही होता वह सभी कर्म विफल होते है…लेकिन फिर भी ये लोग प्रक्षेप उठा कर यहाँ भी आरोप लगा देते है ..
इसी तरह ऋषि यागव्ल्क्य पर भी आरोप लगाते है । कि एक प्रश्न पूछने पर ॠषि ने गार्गी को मारने की धमकी दी..
खैर अब यहाँ इनके लगाये आरोपों की समीक्षा न कर,,,इनके प्रिय बुद्ध के विचार भी बता देना चाहता हु कि नारियो के बारे मे महात्मा बुद्ध के क्या विचार थे :-
 विनय पीतका के कुल्लावग्गा खंड के अनुसार गौतमबुद्ध ने कहा था की “नारी अशुध, भ्रष्ट और कामुक होती हैं.” ये बात
भी   साफ – साफ लिखी गई है की वो “शिक्षा ग्रहण” नही कर सकती..

अब बताये क्या बुद्ध मत नारियो के बारे मे जहर नही उगलता है।
(१) वेदों की कई मन्त्र द्रष्टा ऋषिय मे से ३० महिलाये है ..
 
(२) बुद्ध मत मे २८ बुद्ध है लेकिन एक भी बुद्ध स्त्री या शुद्र नही है,,जबकि पौराणिको मे देवताओ के साथ 
 साथ देविया भी है ,,
 
उपरोक्त सभी बातो से स्पष्ट है कि बुद्ध मत नारी जाती का सम्मान नही करता है ,,बस दिखावा करता है …  

क्या बुद्ध तर्कवादी ओर जिज्ञासु थे

अम्बेडकरवादी दावा :-

बुद्ध तर्क वादी ओर जिज्ञासा को शांत करने वाले व्यक्ति थे….अपने शिष्यों को भी तर्क करने ओर जिज्ञासु बनने का उपदेश देते थे …

दावे का भंडाफोड़ :-

एक समय मलयूक्ष्य पुत्त नामक किसी व्यक्ति ने महात्मा गौत्तम बुध्द से प्रश्न किया- भगवन क्या यह संसार अनादी व अन्नत है? यदि नही तो इसकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई?
लेकिन बुध्द ने उत्तर दिया – है मलयूक्ष्य पुत्त तुम आओ ओर मेरे शिष्य बन जाऔ,मै तुमको इस बात की शिक्षा दुंगा कि संसार नित्य है या नही|”
मलयूक्ष्य पुत्त ने कहा ” महाराज आपने ऐसा नही कहा|”(कि शिष्य बनने पर ही शंका दूर करोगे)
तो बुध्द बोले- तो फिर इस प्रश्न को पूछने का मुझसे साहस न करे| -(मझिम्म निकाय कुल मलूक्य वाद)
इससे निम्न बात स्पष्ट है कि बुध्द का सृष्टि ज्ञान शुन्य था …उनका मकसद केवल अपने अनुयायी बनाना था ..इसके अलावा पशु सुत्त ओर महा सोह सुत्त से पता चलता है कि वे अपने शिष्यो को भी जिज्ञासा प्रकट करने का उत्साह नही देते थे..
एक ओर बुध्दवादी कहते है कि बौध्द मत तर्को को प्राथमिकता देता है लेकिन यहा मलुक्य को बुध्द खुद चुप कर रहे है|
अत स्पष्ट है की बुध तर्कवादी ओर जिज्ञासा शांत करने वाले व्यक्ति नही थे ….

साईँ भक्ति अर्थात लाश की उपासना !

sai

 

जिस  दिन ज्योतिर्पीठ  के  शकराचार्य  स्वरूपानन्द  सरस्वती  ने  हिन्दुओं द्वारा शीरडी  के फ़क़ीर ” साईँ  बाबा ” की उपासना के बारे में आपत्ति  उठाई   है  .तबसे  मीडिया  और साईं के भक्तों  ने स्वरूपानंद  के  खिलाफ  एक जिहाद  सी  छेड़  राखी  है.. कुछ लोग  साइन भक्ति को निजी और  आस्था  या श्रद्धा का मामला   बता  रहे  हैं   . लेकिन अधिकांश  हिन्दुओं  में  साईँ  बारे में  कुछ  ऐसे सवाल खड़े हो गए हैं  , जिनका प्रामाणिक  और शास्त्रानुसार   उत्तर  देना  जरुरी  हो  गया  है  ,  कुछ  प्रश्न  इस  प्रकार  हैं  , 1 क़्या  साइ कोई  हिन्दू  संत था  , जिसके  लिए उसकी हिन्दू विधि  से  आरती  और पूजा होती  है. 2 . क्या साइ के आचरण  और शिक्षाओं  से हिन्दू  समाज सशक्त  हो  रहा  है ? क्या साईँ   में दैवी शक्तियां  थीं ? क्या  साईं धूर्त मुस्लिम  नहीं   था ,जिसका उद्देश्य हिन्दू  धर्म  मजबूत  नीव  को  खोखला  करना   था  . और  साईं  भक्त  धर्म   के  बहाने  जो अधर्म  कर  रहे हैं  वह वैदिक सनातन  हिन्दू  धर्म का अपमान  नहीं  माना  जाये  ?
हम इस लेख  के माध्यम  से    प्रमाण सहित इन प्रश्नों  के उत्तर  दे रहे  हैं ,ताकि हिन्दू अपने  सनातन वैदिक धर्म पर आस्था  बना रखें  और किसी  पाखंडी के जाल में फ़सने  से बच सकें
1-साईं  एक धूर्त  कट्टरपंथी  मुसलमान
शीरडी  के  साईं  के  बारे में पहली   प्रामाणिक किताब अंगरेजी में  “डाक्टर मेरिअन वारेन – Dr. Marianne Warren Ph.D (University of Toronto, Canada  “ने  लिखी  थी  . जो सन 1947  में  प्रकाशित  हुई  थी   . और जिसके प्रकाशक का नाम   ” Sterling Paperbacks; ISBN 81-207-2147-0.   ” है .और  इस किताब  का  नाम   ”  Unravelling The Enigma – Shirdi Sai Baba”  है  . जिसका  अर्थ   है साईं की  पेचीदा  पहेली   का पर्दाफाश “वारेन  ने अपनी किताब साईं  के ख़ास  सेवक अब्दुल द्वारा मराठी मिश्रित उर्दू  में भाषा ( जिसे दक्खिनी उर्दू  भी कहते  हैं )एक नोट बुक  के आधार पर लिखी  है .लेकिन  शिर्डी  के साईं ट्रस्ट  ने  जानबूझ  कर  न  तो मूल पुस्तक  को प्रकाशित  किआ और  न ही भारत  की  किसी  भाषा में  अनुवाद  करवाया  . अब्दुल की  हस्त लिखित किताब ( Manuscript ) में  साइ  केबारे में सन 1870  से  1889  तक  की घटनाओं  का  विवरण  है  , सब  साइ क्षद्म रूप  से  हिन्दू बन कर  महाराष्ट्र के अहमद नगर  जिले  के शिरडी गाँव  आया  था  . उस  समय शिर्डी में सिर्फ  10  प्रतिशत  मुसलमान  थे  . चूँकि  हिन्दू मुसलमानों  कोपसंद नहीं  करते  थे  . इसलिए  साईं  ने अपने रहने के लिए  एक  मस्जिद  को चुन  लिया  था  . साईं  ने   हिन्दुओं  को धोखा देने के लिए  उसमस्जिद का नाम  द्वारका माई  रख  दिया  .साईं का सेवक अब्दुल साईं  के अंतिम समय  तक रहा  . और उसने अपनी  पुस्तक  में साईं  के बारे में कुछ ऐसी  बातें  लिखी  हैं ,जो काफी चौंकाने  वाली  हैं ,जैसे साईं  खुद  को मुसलमान बताता था  . और अब्दुल के सामने   कुरान पढ़ा  करता  था ( पेज 261 ) . साईं इस्लाम  के सूफी पंथ  और इस्माइली पंथ से प्रभावित  था (पेज 333 )  . साईं  दूसरे  धर्म  की किताबों  को बेकार  बताता था  ,और हमेशा अपने पास एक कुरान रखता था  ( पेज 313 ) . यही  नहीं  साइ हिन्दू  धर्म  का सूफी करण  करना  चाहता  था (पेज 272) .  डाक्टर मेरियन वारेन ( Dr. Marianne Warren ) अब्दुल द्वारा साईं  बारे  में  हस्तलिखित पुस्तक  को पूरा पढ़ा  था  . और इस नतीजे  पर पहुंचा  कि साईं “एक छद्म दार्शनिक, छद्म आदर्शवादी छद्म नीतिज्ञ और धूर्त   कट्टरपंथी था .(a pseudo-philosopher, pseudo-moralist and Findhorn fanatic).अर्थात  साईं  एक  सूफी  जिहादी  था ,जिसका  उद्देश्य  हिन्दुओं  में अपने प्राचीन सनातन धर्म के प्रति अनास्था  और अरुचि पैदा  करना  था  . ताकि जब  मुसलमान  बहुसंख्यक  हो  जाएँ  तो ऐसे धर्म हिन्दुओं  को आसानी  से  मुसलमान  बनाया  जा सके जिन्हें  अपने धर्म  से पूरी   आस्था  नहीं  हो  . क्योंकि जिस भवनकी नींव  कमजोर  हो जाती  है ,उसे आसानी  से गिराया   जा  सकता  है  .
मेरियन वारेन   की पूरी  किताब  के लिए इस  लिंक  को खोलिए
2-श्री साईं  चरित्र
इसके आलावा  साईं बारे में  एक  पुस्तक उसके भक्त ” गोविन्द राव रघुनाथ दामोलकर ”  ने मराठी  में  लिखी  है  ,जिसका नाम  “साईँ सत चरित्र  ”  है  . इसमे कुल 51  अध्याय  हैं  . इस  किताब  का अनुवाद  कई  भाषाओं  में  किया  गया है  . और ‘ श्री साईँ बाबा संस्थान शिरडी ”  द्वारा इसका प्रकाशन  किया गया  है  . यद्यपि इस् किताब में साईं  की दैवी शक्तिओं और चमत्कारों  की बातों  की  भरमार  है  ,फिरभी  लेखक ने साईं  केबारे में कुछ  ऐसी  बातें  भी लिख दी हैं  जो  साईं का भंडा  फोड़ने के  लिए पर्याप्त  हैं  , उदहारण  के  लिए   देखिये ,
1 . जवानी में  साईं  पहलवानी  करता  था  , और मोहिउद्दीन तम्बोली  ने  साईं  को कुश्ती में पछाड़  दिया  था  . अध्याय 5
2 . साईं  हर  बात पर  अल्लाह मालिक  कहा  करता  था  .  अध्याय 5
3.साईं हिन्दुओं  से कहता था कि  प्राचीन  वैदिक ग्रन्थ  ,जैसे न्याय ,मीमांसा आदि अनुपयोगी  हो गए  हैं , इसलिए उन्हें पढ़ना बेकार  है . अ -10
 4.साईं कहता  था कि यदि  कोई कितना भी दुखी हो और वह  जैसे ही मस्जिद में पैर  रखेगा दुःख समाप्त  हो जायेगा  . अ -13
5.साइ तम्बाखू  खाता  था और बीड़ी पीता  था  . अ -14
6.बाबा ने एक बीमार और दुर्बल बकरे की कुर्बानी करवाई थी  . अ -15
7.बाबा कहता था कि मैं अपनी मस्जिद  से जो भी कहूँगा  वही सत्य  और प्रमाण  समझो  . अ -18 -19
8.बाबा  कहता था कि योग औरप्राणायाम  कठिन   और  बेकार  हैं  . अ 23
9.बाबा को  किसी  की  बुरी  नजर लग गयी  थी , यानि वह अंध विश्वासी  था   . अ 28
10.बाबा अपनी मस्जिद से बर्तन  मंगा  कर उसमे गोश्त पकवाता  था  , और उस पर फातिहा पढ़ा कर प्रसाद के रूप  में लोगों  को बंटवा  देता था  . अ -38
11.बाबा  दमे के कारण  72  घंटे तक खांस खांस  कर  तड़प  कर मर  गया था  . अ -43 -44
अब हमारे  भोले भले साईं  भक्त हिन्दू बताएं कि हम ऐसे व्यक्ति  को संत , दैवी पुरष  या अवतार  कैसे  मान सकते  हैं ?
3-साईँ  की समाधि  नहीं  कबर  है
साईँ  दमे  की  बीमारी  से पीड़ित  था ,और  उसी बीमारी  से  मंगलवार  15  अक्टूबर  सन 1918  को  मर  गया था  . उसकी लाश को बुट्टीवाङा  में  इस्लामी विधि से दफना दिया  गया  था  . और आज के अज्ञानी  साईं भक्त  हिन्दू  साईँ  की  कबर   को  समाधि  कहते हैं  , और उसकी पूजा  आरती   करते  हैं  . साइ की कबर  की तस्वीर के  लिए  यह  लिंक  खोलिए ,
इस से स्पष्ट  हो जाता है कि  अज्ञानी  हिन्दू साईं  की समाधी की  पूजा  करके उसके अंदर  की  साईं  की  लाश  की पूजा  करते  हैं ,
4-साईं  पूजा हिन्दू धर्म  का अपमान
शिर्डी के साईं बाबा जो इस समय हजारो मुर्ख हिन्दुओ द्वारा पूजे जा रहे है और ये आज के समय का सबसे बड़ा इस्लामिक षड्यंत्र बन चूका है जिसे कुछ मुस्लिम गायक और इस्लामिक संगठन हिन्दुओ का भगवान् बना कर जमकर प्रचारित कर रहे है साईं जो मूलतः एक मुसलमान है उसका भगवाकरण करके हिन्दुओ को मुर्ख बनाया जा रहा है और हिन्दू अपनी कुंठित बुद्धि और गुलाम मानसिकता के कारण इसे पहचानने की जगह उल्टा इसकी तरफ आकर्षित हो रहा है, यही नहीं इस यवनी(मुसलमान) की तुलना सनातनी इश्वरो जैसे राम कृष्ण या शिव से करके सनातन धर्म का मखोल उड़ाया जा रहा है, जबकि किसी ग्रन्थ या किसी महापुरुष द्वारा साईं जैसा कोई अवतार या महापुरुष होने की कोई भविष्यवाणी नहीं है, साईं सत्चरित्र के कुछ अध्यायों से भी यह प्रमाणित हो चुका है की साईं एक मुसलमान था और केवल अल्लाह मालिक करता था ऐसे में एक यवनी को सनातनी इश्वर का दर्जा देना न केवल पाखण्ड की पराकाष्ठा है बल्कि सनातन धर्म का घोर अपमान है
5-हिन्दुओं   का इस्लामीकरण
अक्सर देखा गया  है कि  कुछ खास मौकों  पर शिरडी में क़व्वालिओं    का आयोजन  किया  जाता  है  ,जिसमे मुस्लिम कव्वाल अल्लाह ,रसूल  की बड़े और तारीफ़  बखानते है  , और हिन्दू भी बड़ी संख्या में  सुनने  को आते  हैं , यह भी एक प्रकार  इस्लाम  का प्रचार  ही  है , जिसका उद्देश्य  हिन्दुओं  में  इस्लाम के प्रति आस्था  और  हिन्दू  धर्म  से अरुचि पैदा  करना  है  , जैसा की इस कव्वाली में कहा जारहा है  ,
How this muslim making fool of hindus on the name of shirdi sai
6-साईँ  गायत्री  मन्त्र
साईं  कैसा  था और उसका क्या उद्देश्य  था  , यह  स्पष्ट  हो  गया  ,  साईं  तो  मर गया  है  ,लेकिन उसके अंधे चेले साईं भक्ति के नशे में ऐसे चूर होगये कि  वेद  मन्त्र  के  साथ  भी खिलवाड़  करने  लगे  , इन पापियों  ने  वैदिक  गायत्री मन्त्र  में हेराफेरी  करके “साईं गायत्री मन्त्र ” बना डाला। जो की एक दंडनीय  अपराध है  . यह साईं के चेले अपनी  खैर  मनाएं  कि हिन्दुओं में अल कायदा जैसा  कोई कट्टर  हिन्दू  संगठन  नहीं  है  , वरना  सभी साईं के चेलों को मत के घाट उतार  देते  . हमें  ख़ुशी हैकि  अदालत में इस अपराध के लिए  मुक़दमा  दर्ज  हो चूका  है   . फिर भी  पाठकों  की  जानकारी   के  लिए साईं गायत्री  यहाँ  दी  जा रही  है ,
“ॐ  शीरडी  वासाय विद्महे ,सच्चिदानन्दाय धीमहि  तन्नो साई  प्रचोदयात “
“Om Shirdi Vasaaya Vidmahe
Sachchidhaanandaaya Dhimahee
Thanno Sai Prachodayath”.
इस  साइ गायत्री   को  48  बार पाठ   करने  के लिए  कहा  जाता  है ,यह यू ट्यूब   में भी  मौजूद   है  , इस लिंक  से आप इस साईँ  गायत्री  को  सुन  सकते  हैं  .
7-साईं भक्त हिन्दू जवाब दें
जिन हिन्दुओं  को खुद के हिन्दू  होने पर गर्व  है  , और जो भगवान कृष्ण  की पूजा  करते   हैं ,और भगवद्गीता  में उनके दिए गए वचनों  को सत्य और प्रमाण  मानते हैं  . और  जो वेद  को  ईश्वरीय आदेश  समझते  हैं , वह  यहाँ   गीता में  दिए कृष्ण  के वचन और  वेद  कर मात्र को पढ़ें ,और बताएं ,
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्‌॥18:62
भावार्थ :  हे भारत! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परमधाम को प्राप्त होगा॥18:62
“प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये जयन्ते तामसा जनाः ॥ 17:4
भावार्थ-तामसी गुणों से युक्त मनुष्य भूत-प्रेत आदि को पूजते हैं.17:4
“यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्‌ ॥ 16:23
भावार्थ : जो मनुष्य कामनाओं के वश में होकर शास्त्रों की विधियों को त्याग कर अपने ही मन से उत्पन्न की गयीं विधियों से कर्म करता रहता है, वह मनुष्य न तो सिद्धि को प्राप्त कर पाता है, न सुख को प्राप्त कर पाता है और न परम-गति को ही प्राप्त हो पाता है। 16:23
(देवताओं को पूजने वालों का निरुपण)
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥ 7:20
भावार्थ : जिन मनुष्यों का ज्ञान सांसारिक कामनाओं के द्वारा नष्ट हो चुका है, वे लोग अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पूर्व जन्मों के अर्जित संस्कारों के कारण प्रकृति के नियमों के वश में होकर अन्य देवी-देवताओं की शरण में जाते हैं। 7:20
“अन्धं  तमः प्रविशन्ति  ये अविद्यामुपासते “यजुर्वेद 40 :9
अर्थात  -जो  लोग अविद्या यानी पाखण्ड  की उपासना  करते  हैं  अज्ञान  के अंधे  कुएं  में पड़  जाते  हैं “
 
बताइये  गीता  में  कहे गए भगवान  कृष्ण  के यह वचन  और वेद  का मन्त्र सभी झूठे हैं ?या साईं भगवान कृष्ण  से भी बड़ा  हो गया ?  या साईं की फर्जी चमत्कार की कथाएं  वेद मन्त्र  से भी  अधिक प्रामाणिक हो  गयीं  हैं  ? यदि  हिन्दू ऐसे ही होते  हैं  , तो उनको  लाश पूजक (dead body worshippers) क्यों  न  कहा  जाये ?

Importance of speech वाक in Vedas

words
Importance of speech वाक in Vedas
Author : Subodh Kumar
Human speech RV10.125,reiterated as  AV4.30

ऋषि:- अथर्वा, देवता:- वाक 

1.अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत  विश्वदेव्यैः |

अहं मित्रावरुणोभा बिभर्यमिंद्राग्नी अहमश्विनोभा ||

अथर्व 4.30.1,ऋ10.125.1

 मैं वाक  शक्ति पृथिवी के आठ वसुओं , ग्यारह प्राण.आदित्यै बारह मासों,विश्वेदेवाः ऋतुओं और मित्रा वरुणा दिन और  रात द्यौलोक और भूलोक  सब को धारण करती हूं. ( मानव सम्पूर्ण विश्व पर  वाक शक्ति  के  सामर्थ्य  से ही अपना कार्य क्षेत्र  स्थापित करता है)  

2. अहं  राष्ट्री सङ्गमनी  वसूनां चिकितुषो प्रथमा यज्ञियानाम्‌|

तां मा  देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयंतः ||

अथर्व 4.30.2 ऋ10.125.3

मैं (वाक शक्ति) जगद्रूप राष्ट्र  की स्वामिनी हो कर धन प्रदान करने वाली हूँ , सब वसुओं को मिला कर सृष्टि का सामंजस्य  बनाये रख कर सब को ज्ञान देने वाली हूँ. यज्ञ द्वारा सब देवों मे अग्रगण्य  हूँ. अनेक स्थानों पर अनेक रूप से प्रतिष्ठित रहती हूँ.

3.अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवानामुत मानुषाणाम्‌ |

तं तमुग्रं  कृणोमि तं  ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम्‌ ||

अथर्व 4.30.3ऋ10.125.5

संसार में जो भी ज्ञान है देवत्व धारण करने पर मनुष्यों में उस दैवीय ज्ञान  का प्रकाश मैं (वाक शक्ति) ही करती हूँ. मेरे द्वारा ही मनुष्यों  में क्षत्रिय स्वभाव  की उग्रता, ऋषियों जैसा ब्राह्मण्त्व और  मेधा स्थापित  होती है.

4.मया सोSन्नमत्ति यो  विपश्यति यः प्रणीति य ईं शृणोत्युक्तम्‌ |

अमन्तवो मां  त  उप  क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धेयं ते वदामि ||

अथर्व4.30.4ऋ10.125.4

मेरे द्वारा ही अन्न प्राप्ति के साधन  बनते  हैं , जो भी कुछ कहा जाता है, सुना जाता है, देखा  जाता है, मुझे  श्रद्धा से ध्यान देने से ही प्राप्त  होता है. जो मेरी उपेक्षा करते  हैं , मुझे अनसुनी कर देते हैं, वे अपना विनाश कर लेते हैं.

5.अहं रुद्राय धनुरा  तनोमि  ब्रह्मद्विशे  शरवे हन्तवा  उ |

अहं  जनाय सुमदं कृणोभ्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश ||

अथर्व 4.30.5ऋ10.125.6

असमाजिक दुष्कर्मा शक्तियों के विरुद्ध संग्राम की भूमिका मेरे द्वारा ही स्थापित होती है. पार्थिव जीवन मे विवादों  के  निराकरण से मेरे द्वारा ही शांति स्थापित होती है.

6. अहं सोममाहनसं  विभर्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम्‌ |

अहं दधामि  द्रविणा हविष्मते सुप्राव्या3 यजमानाय  सुन्वते ||

अथर्व 4.30.6 ऋ10.125,2

श्रम, उद्योग, कृषि, द्वारा  जीवन में आनंद के साधन मेरे द्वारा ही सम्भव  होते हैं .जो  धन धान्य से भरपूर समृद्धि प्रदान करते  हैं.

7. अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्व1न्तः समुद्रे |

ततो वि तिष्ठे भुवनानि विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृश्यामि ||

अथर्व 4.30.7ऋ10.125.7

मैं अंतःकरण में गर्भावस्था से ही पूर्वजन्मों के संस्कारों का अपार समुद्र ले कर मनुष्य के मस्तिष्क में स्थापित होती हूँ  पृथ्वी  तथा द्युलोक के भुवनों तक स्थापित होती हूँ.

8.अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा  भुवनानि  विश्वा |

परो  दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिम्ना सं बभूव ||

अथर्व 4.30.8 ऋ 10.125.8

मैं ही सब भुवनों पृथ्वी के परे द्युलोक तक वायु के समान फैल कर अपने मह्त्व को विशाल होता देखती हूँ |

दान का स्वरूप : शिवदेव आर्य गुरुकुल पौंधा, देहरादून (उ.ख.)

 

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मारी वैदिक संस्कृति में त्याग, सेवा, सहायता, दान तथा परोपकार को सर्वोपरि धर्म के रूप में निरुपित किया गया है, क्योकि वेद में कहा गया है – शतहस्त समाहर सहस्त्र हस्त सं किर अर्थात् सैकड़ों हाथों से धन अर्जित करो और हजारों हाथों से दान करो। गृहस्थों, शासकों तथा सम्पूर्ण प्राणी मात्र को वैदिक वाङ्मय में दान करने का विधान किया गया है।  दक्षिणावन्तो अमृतं भजन्ते, ‘न स सखा यो न ददाति सख्ये, पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि, शुध्द: पूता भवत यज्ञियासः५  इत्यादि अनेक मन्त्रों में दान की महिमा का विस्तृत वर्णन किया गया है। दान लेना ब्राह्मणों का शास्त्रसम्मत अधिकार है परन्तु वहीं यह भी निरुपित किया गया है कि दान सुपात्र को दिया जाए, जिससे कोई दुरुपयोग न हो सके।

 

प्रतिग्रहीता की पात्रता पर विशेष बल देते हुए याज्ञवल्क्य जी कहते है कि-सभी वर्णों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है, ब्राह्मणों में भी वेद का अध्ययन करने वाले श्रेष्ठ हैं, उनमें भी श्रेष्ठ क्रियानिष्ठ है और उनसे भी श्रेष्ठ आध्यात्मवेत्ता ब्राह्मण है। न केवल विद्या से और न केवल तप से पात्रता आती है अपितु जिसमें अनुष्ठान, विद्या और तप हो वही दान ग्रहण करने का सत्पात्र होती है।

 

न विद्यया केवला तपसा वापि पात्रता।

 

                                                 यत्र वृत्तमिमे चोभे तध्दि पात्रं प्रकीर्तितम्।। ६

 

दान के सम्पूर्ण फल की प्रप्ति सत्पात्र को दान देने से ही प्राप्त होती है। अतः आत्मकल्याण की इच्छा रखने वाले को चाहिए कि वह अपात्र को दान कदापि न दे, क्योंकि-

 

गोभूतिहिरण्यादि पात्रे दातव्यमर्चितम्।

 

नापात्रे विदुषा किंचिदात्मनः श्रेय इच्छता।।७

 

जिस समय जिस व्यक्ति को जिस वस्तु की आवश्यकता है, उस समय उसे वही वस्तु देनी चाहिए। यदि जो मनुष्य इस प्रकार दान देते है तो उनको वेद कहता है कि एतस्य वाऽक्षरस्य शासने ददतो मनुष्याः प्रशंसन्ति ऐसे दान देने वाले मनुष्य इस परमपिता परमेश्वर के शासन में सदैव प्रशंसा को प्राप्त होते है। गीता में श्रीकृष्ण जी महाराज कहते है कि –

 

यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।

 

                                                यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणम्।।९ 

 

यज्ञ, दान तथा तप इन तीन सत्कर्मों को कदापि नहीं छोड़ना चाहिए। यज्ञ, दान, तप मनुष्यों को पवित्र व पावन बनाने वाले हैं। श्रध्दा  एवं सामथ्र्य से दान के सत्य स्वरूप को जानकर किया गया दान लोक-परलोक दोनों में ही कल्याण करने वाला होता है।

 

जब यदि मन में धन संग्रह की प्रवृत्ति जागृत हो गई तो समझो वो अपने मुख्य उद्देश्य को छोड़कर अन्यत्र किसी अन्य लक्ष्य की ओर आकृष्ट हो गया है।

 

इसीलिए कहा गया है कि-

 

वृत्तिसप्रोचमन्विच्छेन्नेहेत धनविस्तरम्।

 

                                                धनलोभे प्रसक्तस्तु ब्राह्मण्यादेव हीयते।।१॰

 

ब्राह्मण को भी अपनी आवश्यकता पूर्ति लायक धन ही दान स्वरूप लेना चाहिए। धन-संग्रह का लोभ नहीं करना चाहिए। अब यह जानने की आवश्यकता है कि दान में कौन-सी वस्तु देनी चाहिए। जब हम वैदिक वाङ्मय में निहारते है तो हमें ज्ञात होता है कि – जिस व्यक्ति को जिस समय, जिस वस्तु की आवश्कता हो, उसे उस समय उसी वस्तु का दान देना चाहिए। दान की यदि कोई सच्ची पात्रता है तो वो है जिसे यथोचित समय पर यथोचित पदार्थ मिले, जैसे कोई भूखा हो तो उसे भोजनादि से तृप्त करना चाहिए, प्यासे को पानी पिलाना चाहिए, वस्त्रहीन को वस्त्र देने चाहिए, रोगी को ओषधी देनी चाहिए, विद्याभ्यासी को विद्या का दान कराना चाहिए इत्यादि परन्तु लिप्सता नहीं होनी चाहिए। इसी प्रसंग में एक दृष्टांट उद्धृत कर रहा हूॅं- एक दिन एक व्यक्ति महात्मा गाॅंधी के पास अपना दुखडा लेकर पहुॅंचा। उसने गाॅंधी जी से कहा-बापू! यह दुनिया बड़ी बेईमान है।  आप तो यह अच्छी तरह जानते हैं कि मैंने पचास हजार रूपये दान देकर धर्मशाला बनवायी थी पर अब उन लोगों ने मुझे ही उसकी प्रबन्धसमिति से हटा दिया है। धर्मशाला नहीं थी तो कोई नहीं था, पर अब उस पर अधिकार जताने वाले पचासों लोग खड़े हो गये हैं। उस व्यक्ति की बात सुनकर बापू थोड़ा मुस्कराये और बोले-भाई, तुम्हें यह निराशा इसलिये हुई  कि तुम दान का सही अर्थ नहीं समझ सके। वास्तव में किसी चीज को देकर कुछ प्राप्त करने की आकांक्षा दान नहीं है। यह तो व्यापार है। तुमने धर्मशाला के लिये दान तो दिया, लेकिन फिर तुम व्यापारी की तरह उससे प्रतिदिन लाभ की उम्मीद करने लगे। वह व्यक्ति चुपचाप बिना कुछ बोले वहाॅं से चलता बना। उसे दान और व्यापार का अन्तर समझ में आ गया।

 

अब हमें यह जानना चाहिए कि दान कैसे करना चाहिए इसके लिए तैत्तिरीयोपनिषद् में अवलोकन करते हैं कि श्रध्दया देयम्। अश्रध्दया देयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भिया देयम्।’११ जो कुछ भी दान में दिया जाये श्रध्दापूर्वक दिया जाना चाहिए । क्योंकि बिना श्रध्दा के किये हुए दान असत् माना गया है-

 

  अश्रध्दया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।

 

                                                  असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।।१२

 

श्रध्दा पूर्वक देना चाहिये क्योंकि सारा धन तो उस परमपिता परमेश्वर का ही है। इसलिए उनकी सेवा में धन लगाना मेरा कर्तव्य है। जो कुछ मैं दान कर रहा हूॅं वह थोड़ा है, इस संकोच से दान देना चाहिये। अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार देना चाहिये। भय के कारण भी दान देना चाहिए परन्तु जो कुछ भी दिया जाय विवेकपूर्वक निष्काम भाव से कर्तव्य समझ कर देना चाहिए। ‘दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे’१३  इस प्रकार दिया गया दान परमपिता परमेश्वर को प्राप्त करने में अर्थात् मोक्ष प्राप्त करने में सहायक बन जाता है।

 

कुछ लोगों का ऐसा भी कहना है कि यज्ञ, दान आदि पुण्ययुक्त कर्मों को करने से हम दरिद्र हो जाते है, हमारा धन, वैभव समाप्त हो जाता है तो मैं उन लोगों से कहना चाहॅंुगा कि दान करने से धन एवं विद्या की निरन्तर वृध्दि होती है, क्योकि शास्त्रों में कहा गया है कि

 

मूर्खो हि न ददात्यर्थानिह दारिद्र्य शंकया।

 

प्राज्ञस्तु विसृजत्यर्थानमुत्र तस्य ननु शंकया।।१४

 

अर्थात् दान देने से धन समाप्त हो जाऐगा या दरिद्रता आयेगी यह तो मूर्खों की सोच होती है। मूर्ख लोग दरिद्रता की आशंका में वशीभूत होकर दान न देकर पुण्य से वंचित रहते है और सदैव दुखों को भोगते रहते हैं।

 

अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा।

 

                                                अनुग्रहश्च दानं च शीलमेतत् प्रशस्यते।।

 

दरिद्रता को दूर करने का अमोघ शस्त्र है दान। दरिद्रता आदि दुःखों से दूर रहने का यहीं एकमात्र साधन है। दानशील पुरुष या स्त्री किसी भूखे, प्यासे, तिरस्कृतों का पालन-पोषण करके उन्हे तृप्त करते है तो वो सदा प्रसन्नता को प्राप्त करते है। वे सदा ही अपने जीवन में आनन्दित रहते है।

 

 दानं भोगो नाशस्तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।

 

                                    यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति।।१५

 

धन की तीन गतियाॅं होती है – दान, भोग और नाश। जो व्यक्ति धन का दान व भोग नहीं करता उसकी तीसरी गति अर्थात् नाश होती है।

 

हमारे शास्त्रों में धन की सबसे अच्छी गति दान है। दान देने से हमारा धन पात्र के पास पहुॅंच गया और उसकी जरुरी आवश्यकता पूर्ण हो गई। इसीलिए यह श्रेष्ठ गति है। अगर हम दान न देकर उसका भोग करेंगे तो आवश्यक-अनावश्यक कर्मों में व्यय होगा। यदि खर्च ही नहीं करेंगे तो तीसरी गति अर्थात् नाश को प्राप्त होगा। जैसे-जूए में हार जाना, चोरी हो जाना आदि। अतः सर्वोत्तम गति दान ही सिध्द होती है। क्योंकि दान के   माध्यम से अत्यन्त आवश्यकता वाले के उद्देश्य की पूर्ति होती है।

 

इसप्रकार दान देना हमारा कर्तव्य कर्म है-यह समझकर देना चाहिए। जहाॅं जब एवं जिस वस्तु की आवश्यकता हो तब दिया जाय एवं देश, काल तथा परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए सुपात्र को ही दिया जाये।

 

 

 

सन्दर्भ सूची:-

 

१. ऋग्वेद-३.२४.५।

 

२. ऋग्वेद-१.१२५.६।

 

३. ऋग्वेद-१॰.११७.४।

 

४. ऋग्वेद-५.५१.१५।

 

५. ऋग्वेद-१॰.१८.२।

 

६. याज्ञ.स्मृ.आ.२॰॰।

 

७. याज्ञ.स्मृ.आ.२॰१।

 

८. वेद।

 

९. गीता-१८.५।

 

१॰. कूर्मपुराण।

 

११. तैत्तिरीयोपनिषद्-१.११।

 

१२. गीता-१७.२८।

 

१३. गीता-१७.२॰।

 

१४. स्कन्दपुराण-२.६३।

 

१५. पंचतन्त्र।

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कर्मानुसार वैदिक वर्ण व्यवस्था भाग – १ : विपुल प्रकाश आर्य

 

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शास्त्रों में गुण कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था का समर्थन करने वाले श्लोक अथवा मंत्र,जिनका गलत अर्थ लगा कर पाखण्डी जाति प्रथा का समर्थन करते हैं (भाग १):-

 

प्रिय पाठकगण, इस लेख शृङ्खला को शुरु करने के पीछे लेखक का उद्देश्य है आपके सामने वेदादि सत्य शास्त्रों से ऐसे प्रमाणों को प्रस्तुत करना जो कि स्पष्ट रूप से गुण कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था का समर्थन करते हैं और साथ ही यह भी दिखाना कि किस प्रकार जातिवादी पाखण्डी उनका गलत अर्थ करके  अपना मतलब साधते  हैं। जहां तक ईशवर प्रदत्त चारों वेदों का सवाल है,उसके मन्त्रों का गलत अर्थ विगत ३००० वर्षों में अनेक लोगों ने अज्ञानवश अथवा स्वार्थसिद्धी के लिए किया है और जहां तक ऋषि मुनियों द्वारा रचित ग्रन्थों जैसे मनुस्मृति इत्यादि का सवाल है वहां पर तो श्लोकों का गलत अर्थ करने के साथ साथ कुछ कुछ नये श्लोक मनमाने तरीके से अपना मतलब साधने के लिए मिला दिये हैं। ऐसे नये मिलाए गये श्लोकों को प्रक्षिप्त श्लोक कहा जाता है। इस लेख शृङ्खला में ऐसे श्लोकों का सही अर्थ किया जाएगा जिनके गलत अर्थ से जातिवाद की सिद्धी की जाती है तथा प्रक्षिप्त श्लोकों को भी युक्तिपूर्वक प्रक्षिप्त सिद्ध किया जाएगा।

मनुस्मृति में गुणकर्मानुसार वर्ण व्यवस्था की सिद्धी करने वाला ऐसा ही एक श्लोक निम्नलिखित है:-

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राहमणश्चैति शूद्रतां।

क्षत्रियाज्जात्मेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च। ।  (मनु १०:६५)

इस श्लोक का सही अर्थ इस प्रकार है :- शूद्र ब्राह्मण हो सकता है और ब्राह्मण शूद्र हो सकता है,इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य की सन्तानों के विषय में भी समझना चाहिए।

इस श्लोक से स्पष्ट रूप से यह विदित होता है कि ब्राहमण की सन्तान अपने गुण कर्मों के आधार पर शूद्र हो सकती है और शूद्र की सन्तान भी अगर ब्राह्मण बनने के योग्य हो तो ब्राह्मण हो जाएगी। यही नहीं अगर कोई शूद्र स्वयं भी ब्राह्मणत्व के योग्य हॊ तो वह ब्राहमण हो जाएगा। उसी तरह अगर कोई ब्राहमण स्वयं भी शूद्र बन जाने के योग्य कर्म करेगा तो शूद्र हो जाएगा। और अगर ब्राहमण का शूद्र बनना और शूद्र का ब्राहमण बनना सम्भव है तो फ़िर क्षत्रिय अथवा वैश्य बनना क्यों असम्भव हो सकता है। ठीक ऐसा ही क्षत्रिय अथवा वैश्य के घर पैदा हुई सन्तानों के बारे में समझा जाना चाहिए।

इस श्लोक से स्पष्ट रूप से गुण कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था का समर्थन है। मगर जातिवाद के समर्थक इसका गलत अर्थ निम्नलिखित तरीके से लगाते हैं:-

अगर किसी ब्राह्मण का ब्याह शूद्रा से हो और उससे कोई कन्या उत्पन्न हो और उस कन्या का ब्याह किसी ब्राहमण पुरुष से हो और फ़िर कन्या उत्पन्न हो और उसका ब्याह फ़िर एक ब्राह्मण से हो तो इस तरह से सातवीं पीढी में जो सन्तान होगी वह ब्राहमण होगी। और अगर ब्राह्मण का शूद्रा से कोई पुत्र उत्पन्न हो और उस पुत्र का ब्याह शूद्रा से हो और उनका भी पुत्र उत्पन्न हो और उसका ब्याह भी शुद्रा से किया जाए तो इस तरह से सातवीं पीढी की सन्तान शूद्र होगी। यही विधान क्षत्रिय और वैश्य के साथ भी समझना चाहिए ।

और इस अर्थ की सिद्धी के लिए उपर दिए गये श्लोक (१०:६५) से पहले एक प्रक्षिप्त श्लोक भी मनुस्मृति में मिलाया हुआ है जो कि निम्नलिखित है:-

शूद्रायां ब्राह्मणाज्जातःश्रेयसा चेत्प्रजायते।

अश्रेयान्श्रेयसीं जातिं गच्छत्यासप्तमाद्युगात् ।  । (मनु १०:६४)

जिसका अर्थ वे इस प्रकार लगाते हैं:-अगर किसी ब्राह्मण का ब्याह शूद्रा से हो और उससे कोई कन्या उत्पन्न हो और उस कन्या का ब्याह किसी ब्राहमण पुरुष से हो और फ़िर कन्या उत्पन्न हो और उसका ब्याह फ़िर एक ब्राह्मण से हो तो इस तरह से सातवीं पीढी में जो सन्तान होगी वह ब्राहमण होगी।

और इसी के साथ मिला कर के अगले श्लोक (शूद्रो ब्राह्मणतामेति १०:६५) का अर्थ लगाते है कि शुद्र (ब्राह्मण से शूद्रा में उत्पन्न पुत्री को ब्राह्मण से उपर्युक्त विधि से ब्याह्ने से सातवीं पीढी में उत्पन्न पुत्र )जैसे ब्राह्मणता को प्राप्त करता है वैसे ब्राह्मण भी शूद्रता को प्राप्त करता है (अगर ब्राह्मण द्वारा शूद्रा में पुत्र हो और उसका विवाह भी शूद्रा से हो तो इस प्रकार सातवीं पीढी की सन्तान शूद्र होगी) । वैसे ही क्षत्रिय से शूद्रा में उत्पन्न पुत्र छठी पीढी में शूद्रता को प्राप्त करता है और वैश्य से शूद्रा में उत्पन्न पुत्र पाचवी पीढी में शूद्रता प्राप्त करता है इत्यादि।

यहां गौरतलब है कि प्रक्षेपक महोदय ने श्लोकों का अर्थ बिगाडने का काम बहुत ही चतुराई से किया है । मगर हम ध्यानपूर्वक दोनो श्लोकों की समीक्षा करें तो सारी कलै खुल के सामने आ जाती है।

सर्वप्रथम तो हम श्लोक संख्या १०:६५ के शाब्दिक अर्थ को देखें :-शूद्र ब्राह्मण हो सकता है और ब्राह्मण शूद्र हो सकता है,इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य की सन्तानों के विषय में भी समझना चाहिए।

अब हमें सर्वप्रथम ये विचार करना चाहिए कि मनु महाराज ने शूद्र अथवा ब्राह्मण किनको कहा है? अगर मनुस्मृति का अध्ययन किया जाय तो ह्म पाएंगे कि प्रथम तो शूद्र या ब्राह्मण शब्द या तो उस व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हो सक्ता है जो कि स्वयं शूद्र अथवा ब्राह्मण वर्ण का हो । दूसरा ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य अथवा शूद्र द्वारा समान वर्णों की स्त्रियों में उत्पन्न सन्तानो को भी क्रमशः  ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य अथवा शूद्र जाति से जाना जाता है(मनु १०: ५)।  यहां यह ध्यान देने योग्य है कि उपर्युक्त जातियों का आशय सिर्फ़ उपनयन संस्कार इत्यादि की आयु निर्धारण करने से है ना कि जन्म के आधार पे बालक का वर्ण निर्धारण करने से।

मगर हम १०:६५ श्लोक के जातिवादियों द्वारा लगाए गये अर्थ की समीक्षा करें तो हम पाएंगे कि “शुद्रो ब्राह्मणतामेति ” मे शूद्र का अर्थ उन्होने लगाया है ब्राह्मण पुरुष की शूद्रा स्त्री से उत्पन्न हुइ पुत्री को पुनः ब्राह्मण पुरुष को ब्याहकर और फ़िर उनकी पुत्री को पुनः ब्राह्मण पुरुष को ब्याहकर इस प्रकार सातवीं पीढी में जो सन्तान होगी । उसी प्रकार ‘ब्राह्मणश्चैति शूद्रतां ‘ मे ब्राह्मण शब्द का अर्थ उन्होने लगाया है कि ब्राह्मण पुरुष द्वारा शूद्रा स्त्री से उत्पन्न पुत्र को शूद्रा से ब्याह कर फ़िर उनसे उत्पन्न पुत्र को पुनः शूद्रा से ब्याह्कर इस प्रकार जो सातवीं पीढी में सन्तान उत्पन्न हो। अब भला शूद्र और ब्राह्मण शब्द का इतना विचित्र अर्थ ये लोग किस व्याकरण के नियम के अनुसार लगाते हैं ये तो यही लोग जानते होंगे। इसी प्रकार क्षत्रियाज्जातः का अर्थ होता है कि जो क्षत्रिय पिता के द्वारा उत्पन्न हो । मगर इस श्लोक में जातिवादी इस शब्द का अर्थ लगाते हैं क्षत्रिय द्वारा शुद्रा में उपर्युक्त विधी से उत्पन्न छठी पीढी की सन्तान ।   अब यहां विचारणीय है कि अगर छ्ठी पीढी की सन्तान को ‘क्षत्रियाज्जातः’बोलेंगे तो ५वी पीढी की सन्तान को क्षत्रिय मानना पडेगा  ।  अब जबकि जातिवादी लोग क्षत्रिय द्वारा शूद्रा में उत्पन्न पहली पीढी की सन्तान( जिसको उग्र बोला जाता है) को भी क्षत्रिय नहीं मानते हैं तो ५ वी पीढी की सन्तान को क्षत्रिय मान लेना क्या सिर्फ़ मतलब साधने वाली बात नहीं है?

ये तो थी १०:६५ नं० श्लोक के इनके द्वारा किए गये अर्थ (अनर्थ) की समीक्षा । इससे स्पष्ट हो जाता है कि ६४ वे श्लोक से ६५ वे श्लोक का दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है क्योंकि ६४ वे श्लोक से प्रासङ्गिक तालमेल बैठाने के लिए शूद्र,ब्राह्मण,क्षत्रिय इत्यादि शब्द का किस प्रकार व्याकरण विरुद्ध अर्थ लगाना पड रहा है। सिर्फ़ इतना ही नहीं, अपितु अगर ६४ वें श्लोक के अर्थ की भी समीक्षा करें तो हम पाते हैं कि “शूद्रायां ब्राह्मणाज्जातः” यह पद तो पुल्लिङ्ग है मगर इसका प्रयोग पुरुष अथवा स्त्री पुरुष दोनो के लिए न होकर सिर्फ़ स्त्री सन्तान के लिए हुआ है। भला ऐसा विचित्र प्रकार का श्लोक परम विद्वान महर्षि मनु का कैसे हो सकता है? इससे सिद्ध हॊता है कि यह श्लोक (१०:६४)  अगले (१०:६५) श्लोक का अर्थ बिगाडने के हेतु से किसी धूर्त व्यक्ति द्वारा मिलाया गया है। अतः श्लोक संख्या  १०:६४ को प्रक्षिप्त मानना ही उचित है।

अब तक की समीक्षा से हम इस निष्कर्ष पे पहुंचे हैं कि मनु १०:६५ का जातिवादियों के द्वारा किया गया अर्थ गलत है  और उसका सही अर्थ गुण कर्मानुसार वर्ण वयवस्था का ही पोषक है जो कि इस प्रकार है :-

कि ब्राहमण की सन्तान अपने गुण कर्मों के आधार पर शूद्र हो सकती है और शूद्र की सन्तान भी अगर ब्राह्मण बनने के योग्य हो तो ब्राह्मण हो जाएगी। यही नहीं अगर कोई शूद्र स्वयं भी ब्राह्मणत्व के योग्य हॊ तो वह ब्राहमण हो जाएगा। उसी तरह अगर कोई ब्राहमण स्वयं भी शूद्र बन जाने के योग्य कर्म करेगा तो शूद्र हो जाएगा। और अगर ब्राहमण का शूद्र बनना और शूद्र का ब्राहमण बनना सम्भव है तो फ़िर क्षत्रिय अथवा वैश्य बनना क्यों कर असम्भव हो सकता है। ठीक ऐसा ही क्षत्रिय अथवा वैश्य के घर पैदा हुई सन्तानों के बारे में समझा जाना चाहिए ।

प्रिय पाठकगण हमें आशा है कि यह लेख सत्य और असत्य का विवेक करने में आपके लिए सहायताप्रद सिद्ध होगा। त्रुटियों के लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं.

अगले भाग में फ़िर इसी तरह एक नये श्लोक,सूत्र अथवा मन्त्र की समीक्षा की जाएगी ।

(क्रमशः)

ओम् का माहात्म्य :- उत्तरा नेरूर्कर

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ओम् का माहात्म्य

 

सभी हिन्दू ’ओम्’ पद का अत्यधिक सम्मान करते हैं । जहां एक ओर वैदिक पाठों में तो इसका उच्चारण होता ही है, परन्तु अन्य अवैदिक स्तुतियों, भजनों, पूजाओं में भी इसका विशेष स्थान पाया जाता है । यहां तक कि अन्य धर्मों में भी इसका बोलबाला है । ईसाइयों का ’आमैन्’ और मुसलमानों का ’आमीन्’ स्पष्ट रूप से ओम् के अपभ्रंश हैं । हर प्रार्थना के बाद इसे जोड़ा जाता है । इनके धर्म-ज्ञाताओं से इन शब्दों के अर्थ पूछे जाएं, या उनके महत्त्व पर प्रकाश डालने को कहा जाए, तो वे कोई भी सन्तोषजनक उत्तर न दे पायेंगे । वस्तुतः, कब ओम् उन देशों में पहुंचा, इसका कोई लेखा-जोखा नहीं है । बौद्ध धर्म तो हिन्दू-धर्म के बहुत निकट है । सो, वहां ओम् जैसा का तैसा पाया जाता है – “ओम् मनि पद्मे हुम्’ । वैदिक संस्कृति में, जबकि परमात्मा के नाम असंख्य हैं, ओम् का स्थान शिखर पर है । ऐसा क्यों है ? इस प्रश्न पर इस लेख में विचार किया गया है।

पहले हम देखते हैं कि किसने हमें बताया कि ओम् परमात्मा का मुख्य नाम है । एक ओर जहां ब्राह्मण-ग्रन्थों ने उसके माहात्म्य का वर्णन किया है, वहीं प्रायः सभी उपनिषदों ने इसकी स्तुति में कसर नहीं छोड़ी है । कुछ ऐसे ही श्लोक नीचे दिये हैं –

सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति

तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति ।

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति

तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीमि – ओमित्येतत् ॥ कठ० १।२।१५ ॥

यहां यमराज नचिकेता को परम सत्य बताते हुए कहते हैं कि, “जिस प्राप्तव्य को सब वेद बार-बार कहते हैं, जिस के लिए सभी तप बताये गये हैं, जिसकी इच्छा करते हुए ब्रह्मचर्य जैसे कठिन व्रत का आचरण किया जाता है, वह संक्षेप में ’ओम्’ – यह पद है ।

प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ॥ मुण्डक० २।२।४ ॥

उस ब्रह्म को जब लक्ष्य करो, तब प्रणव का धनुष बनाओ, अर्थात् ओंकार का जप करो, और आत्मा को बाण बना कर उसपर चढ़ जाओ, और अपने लक्ष्य को बींध दो, प्राप्त कर लो । ओम् के सहारे से ब्रह्म जितनी शीघ्रता से मिलता है, उतना किसी और शब्द से नहीं मिलता । यही बात एक अन्य श्लोक कहता है –

एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम् ।

एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते ॥ कठ० १।२।१७ ॥

इस ओम् का ही आलम्बन श्रेष्ठ है, सबसे ऊंचा है । जो इस आश्रय को जान गया, वह ब्रह्म के लोक में महत्त्व पाता है, अर्थात् ब्रह्म को पा जाता है, मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।

इस प्रकार हम पाते हैं कि पुनः पुनः आध्यात्मिक शास्त्र हमें बता रहे हैं कि ओम् को अपने मार्ग का दीपक बनाओ, क्योंकि यही सब से शक्तिशाली और प्रभावात्मक आलम्बन है ।

फिर भी, यह स्पष्ट नही हुआ कि ओम् में वह कौन सी विशेषता है जिसके कारण सब ऋषि-मुनि हमें यह बता रहे हैं ! इसको समझने के लिए थोड़ा और अन्वेषण करते हैं ।

ओम् की एक व्युत्पत्ति ’अव’ धातु से मन् प्रत्यय लगाकर बताई गई है । इस धातु को पाणिनि के धातु-पाठ में इस प्रकार पढ़ा गया है – अव रक्षण-गति-कान्ति-प्रीति-तृप्ति-अवगम-प्रवेश-श्रवण-स्वामी-अर्थ-याचन- क्रिया-इच्छा-दीप्ति-अवाप्ति-आलिङ्गन-हिंसा-दान-भाग-वृद्धिषु । उपर्युक्त प्रकार से सन्धि-विच्छेद करने से २० अर्थ बनते हैं; ’स्वामी+अर्थ’ को एक पद मानने से, और ’दान’ के बदले ’आदान’ पढ़ने से दो अर्थ और बनते हैं । इस प्रकार यहां कुल २२ अर्थों का योग है । इतने अधिक अर्थ पाणिनि ने किसी और धातु के नहीं लिखे ! इसीसे इस धातु की विशेषता ज्ञात होती है । फिर, ये सभी अर्थ कर्ता या कर्म या दोनों के रूप में परमात्मा में घटाए जा सकते हैं । यथा –

प्रवेश – जो सब में प्रवेश करे अर्थात् सर्वव्यापक है (कर्ता)

याचन – जिसे या जिससे सब मांगें (कर्म)

अवाप्ति – जिसको सब प्राप्त है (कर्ता), और जो सब वस्तुओं में प्राप्त होता है (कर्म)

इसीलिए स्वामी दयानन्द ने लिखा है कि इस नाम में परमात्मा के अन्य सभी नाम समाहित हो जाते हैं । इस विशेषता के कारण ही केवल यही पद परमात्मा का निज नाम होने योग्य है; अन्य किसी का भी यह नाम नहीं हो सकता – तस्य वाचकः प्रणवः (योगदर्शनम् १।२५) । जहां इन्द्र, आदि, शब्द विभिन्न प्रकरणों में जीवात्मा, मेघ, विद्युत्, आदि के द्योतक हो सकते हैं, वहां ओम् शब्द किसी और का वाचक सम्भव ही नहीं है । अपितु इस शब्द का अपने वाच्य से इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि इसको परमात्मा की तरह अक्षर = अकाट्य, नाश-रहित ही कहा गया है, जबकि यह २ अक्षरों का बना हुआ है –

एतद्ध्येवाक्षरं ब्रह्म ॥ कठ० १।२।१६ ॥ – यह ’ओम्’ अक्षर ही ब्रह्म है ।

ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं । भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव । यच्चान्यत् त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव ॥ माण्डूक्य० १ ॥ – ओम् यह अक्षर (ब्रह्म) है । इस ब्रह्माण्ड में जो कुछ दिख रहा है, वह इसका उपव्याख्यान – इसको कुछ अंश में कहने वाला है । (उदाहरण के लिए -) जो भूत, वर्तमान और भविष्य में हुआ, है और होगा, वे सभी ओंकार ही हैं । और जो इन तीनों कालों से परे है, वह भी ओंकार ही है । कितनी सुन्दरता से ऋषि ने ओम् का व्याख्यान किया है !

माण्डूक्य ने इसका एक अन्य प्रकार से विवरण दिया है । वहां ओम् को ३ मात्राओं में विभक्त किया गया है – अ, उ और म् । फिर अकार को ब्रह्म का जागरित रूप बताया है, जिस प्रकार प्राणी की जागरित-अवस्था होती है । इस रूप में परमात्मा इस विराट् ब्रह्माण्ड की रचना करके वैश्वानर अग्नि के समान सब में व्याप्त होता है, और सब प्राणियों के ज्ञान और व्यवहार के लिए प्रकट होता है । इसलिए मोटी टाइप में दिये शब्द भी इस अकार के अन्तर्गत अर्थ हैं ।

उकार से परमात्मा का स्वप्नस्थान अभिप्रेत है, जो कि जागरित और सुषुप्ति के बीच की अवस्था है । उस समय मन अन्दर ही अन्दर काम करता है, बाहरी विषयों से दूर । इसी प्रकार ब्रह्माण्ड के रचन में सूक्ष्मावस्था को प्राप्त प्रकृति का रूप, उत्पन्न होते हुए भी, अप्रकट होता है । वहां परमात्मा तैजस और हिरण्यगर्भ के रूप में स्थित होता है । उस सूक्ष्मावस्था को वायु से भी सम्बोधित किया जाता है ।

मकार में शब्द के उच्चारण के अन्त के साथ-साथ जैसे परमात्मा भी सुषुप्ति में चले जाते हैं ! सुषुप्ति प्रलयावस्था या कारण जगत् की द्योतक है । इस अवस्था में केवल एक ईश्वर ही प्राज्ञ रहता है, जबकि अन्य सब सुषुप्ति में पहुंच जाते हैं । इस रूप को आदित्य = न नष्ट होने वाला भी कहा गया है ।

माण्डूक्य ने एक चौथी मात्रा भी बताई है, जो सबसे गूढ़ है । ओम् के उच्चारण का अन्त होने पर जो नीरवता है, उसे ऋषि ने अव्यवहार्य मात्रा बताया है, जो परमात्मा के निराकार रूप की द्योतक है, जो कि इस प्रपञ्च से अतीत है । इस अवस्था को वेदों ने इस प्रकार कहा है –

पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ यजु० ३१।३ ॥

अर्थात् परमात्मा के एक पाद में तो यह समूचा विश्व है, और उसके शेष तीन पादों में वह अपने अमिश्रित, अमृत, प्रकाशमय रूप में स्थित है । सो, जो ओम् की चार मात्राओं में से यह अन्तिम मात्रा है, वही वास्तव में तीन मात्राओं के बराबर है, जबकि अन्य तीन मात्राएं महत्त्व में एक मात्रा के बराबर हैं !

मनु इस विषय में कहते हैं –

अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापतिः ।

वेदत्रयान्निरदुहद् भूर्भुवः स्वरितीति च ॥ मनुस्मृतिः २।७६ ॥

तीनों वेदों से प्रजापति ने एक-एक मात्रा – अ, उ और म् – दुह कर निकाली, और उसी प्रकार तीन व्याहृतियां – भूः, भुवः, स्वः – भी वेदों का निचोड़ हैं ।

इस प्रकार ओम् पद को ऋषियों ने सदा से परमात्मा का समीपतम नाम माना है, बल्कि उसको सही रूप में व्यक्त करने वाला बताया है । ओम् के विभिन्न अर्थों से भी ज्ञात होता है कि ओम् में अर्थों का सागर समाया हुआ है । जिस प्रकार ईश्वर अनन्त गुण-कर्म-स्वभाव वाला है, उसी प्रकार यह छोटा-सा नाम उन सभी को प्रकाशित करने का सामर्थ्य रखता है । उसकी सरलता में भी परमात्मा का एक गुण सन्निहित है । परमात्मा भी सरल स्वभाव वाले हैं, उनमें कोई धोखा या दिखावा नहीं है । और ऐसे ही मनुष्य उसे प्रिय भी हैं !

शासन पद्धति और इसकी समस्याएँ : डा. अशोक आर्य

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आज भारत सहित विश्व में अनेक शासन व्यवस्थाएं चल रही हैं | इन में एकतंत्र ,सीमित एकतंत्र,प्रजातंत्र,गणतंत्र आदि कुछ शासन पद्धतियाँ हमारे सामने आती हैं | इन पद्धतियों में से हम किस पद्धति को उत्तम मानते हैं तथा वेद किस पद्धति को अपनाने के लिए हमें प्रेरणा देता है | इन बातों पर यहाँ हम विचार करते हैं | यजुर्वेद में कहा गया है कि विशी राजा प्रतिष्ठित: यजुर्वेद २०.९ || अर्थात राजा का सब कुछ प्रजा पर ही आधारित होता है | प्रजा जब तक खुश है तब तक ही राजा कार्य कर सकता है | प्रजा के विरोध में आते ही राजा के हाथ से सत्ता चली जाती है | इस से स्पष्ट होता है कि राजा का चुनाव करने की प्रथा वेद ने ही दी है | वेद प्रजातंत्र व्यवस्था में शासन चलाने के लिए स्पष्ट आदेश देता है | आज के मानव ने अनेक बार वेद के विरुद्ध शासन व्यवस्था की है , जिससे अनेक समस्याएँ पैदा हो रही हैं | इन सब समस्याओं का समाधान केवल वेद ही देता है | अत: अमारे लिए आवश्यक है कि वेद में इन समस्याओं का समाधान खोज कर तदनुरूप शासन चला कर समस्या दूर करें | वेद तो कहता है कि जब राजा प्रजा को प्रसन्न नहीं रख पाता तो उसे तत्काल हटा देना चाहिए | ऋग्वेद में इस प्रकार बताया गया है :
आ त्वाहार्षमन्त्रेधि ध्रुवस्तिष्ठाविचाचलि: |
विशस्त्वा सर्वा वान्छ्न्तु मा त्वद्राष्टमधि भ्रशट ||ऋग्वेद १०.१७३.१ ||


राज्य सता में एक पुरोहित होता है | यह पुरोहित सत्ता क्षेत्र में प्रजा का प्रतिनिधित्व करता है | चुनाव होने के पश्चात यह पुरोहित नवनिर्वाचित शासक को सम्बोधन करते हुए कहता है कि मैं तुझे प्रजा में से चुनकर लाया हूँ | प्रजा के आदेश से मैं तुझे राजा के पद पर आसीन कर रहा हूँ | इससे स्पष्ट होता है कि जिसे आज हम चुनाव अधिकारी कहते हैं , उसे वेद ने पुरोहित कहा है | आज के चुनाव अधिकारी इस पुरोहित का ही प्रतिरूप होते हैं | यह पुरोहित अथवा चुनाव अधिकारी जनता की प्रतिमूर्ति होने के कारण जनता की इच्छानुसार ही राजा को चलाते हैं , ज्योंही प्रजा किसी राजा के , किसी शासक के अथवा किसी शासक दल के विमुख होती है ,त्यों ही यह पुरोहित , यह चुनाव अधिकारी राजा को हटा कर दूसरा शासक चुनने के लिए जनता के पास जाता है | समस्या तो उस समय पैदा होती है , जब शासक अथवा राजा प्रजा की चिंता भी नहीं करता और पद को छोड़ने के लिए तैयार भी नहीं होता , जैसा की हम विगत कुछ वर्षों से भारत में देख रहे हैं | प्रजा ने वर्तमान शासक का भरपूर विरोध किया किन्तु यहाँ का शासक निरंकुश बनकर कहने लगा हम जनता के चुने हुए प्रतिनिधि हैं , अब जनता में से कोई भी हमारे विरोध में नहीं बोला सकता | जो बोलेगा , उसे हम कुचल कर रख देंगे | इससे देश में अव्यवस्था को बल मिला तथा समस्याएँ खडी हुई |
नए राजा को उपदेश करते हुए चुनाव अधिकारी अथवा पुरोहित आगे कहता है कि जनता के निर्णय के अनुसार मैं तुझे इस देश की सता का अधिकारी बना रहा हूँ | तु इस सता पर स्थिर हो , इस का अधिष्ठाता बन , इस पर बैठ कर जनता के लिए कार्य कर | इस शासन को संभालने के पश्चात तूं कभी भी अपने कर्तव्य से विचलित मत होना | बड़ी से बड़ी समस्या आने पर भी घबराना नहीं | तुझे उत्तम मान कर ही यह शासन की चाबी तेरे हाथ में दी गई है कि तेरे में तत्काल उत्तम निर्णय लेने की शक्ति है , तेरे में

उत्तम व्यवस्था करने के गुण हैं | यदि तूं ठीक से इस कार्य को करता रहेगा तो मैं तेरे साथ हूँ तथा यह जनता , यह प्रजा तेरा आदर करती है | ज्योंही तूने जनता को भुला दिया , जनता की इच्छा के विरुद्ध कार्य करने लगा त्यों ही तुझे इस सता से वंचित कर दिया जावेगा |
पुरोहित आगे कहता है कि इस सता को संभालने के पश्चात इस देश की सारी प्रजाएँ , सारी जनता तेरा आदर करेगी | अब तूं किसी एक समुदाय का , किसी एक दल का प्रतिनिधि नहीं है , अब पूरे देश की जनता का तू प्रतिनिधि है , शासक है | तूं ऐसे कार्य कर की देश की पूरी की पूरी प्रजा तुझे पसंद करे , तुझे चाहे तथा तेरी कामना करे | सारी प्रजा की सब कामनाएं जब तू पूरा करेगा तो इस सत्ता का अधिकारी बना रहेगा किन्तु प्रजा के रुष्ट होते ही तेरी यह सत्ता तेरे से छीन जावेगी | प्रजा तुझे हटा देवेगी | इसलिए तू सदा ऐसे कार्य करना कि यह सत्ता तेरे से कभी भी छीन न पावे | इसका एक मात्र उपाय है कि तूं प्रजा की इच्छा के अनुरूप शासन चला |
इस से स्पष्ट होता है कि वेद शासन व्यवस्था में प्रजा को सर्वोपरि मानता है तथा आदेश देता है की देश की सरकार का चुनाव प्रजा करे तथा यह सरकार तब तक ही कार्य करे , जब तक प्रजा प्रसन्न है | प्रजा के विरोध में आते ही यह सरकार सता के सूख को त्याग दे तथा नई सरकार को चुना जावे | इस से यह भी स्पष्ट होता है कि राजा का शासन प्रजा की दया पर ही निर्भर है | ज्यों ही राजा निरंकुश होता है , प्रजा के अनुरूप कार्य नहीं करता तो यह प्रजा तत्काल उसे पदच्युत करने की शक्ति रखती है , उसे इस शासन के पद से हटा सकती है अर्थात इस सरकार या उसके किसी भी अंग को , किसी भी अधिकारी को वापिस बुला कर , उसके स्थान पर नए व्यक्ति को, अथवा नए दल को बैठा सकती है |

ऋग्वेद का यह मन्त्र स्पष्ट आदेश दे रहा है कि राजा तब तक ही सत्ता का अधिकारी है , कोई भी सरकार तब तक ही इस सत्ता की गद्दी पर आसीन है , जब तक वह प्रजा को प्रसन्न रख सकती है , अन्यथा नहीं | देश में अत्याचार बढ़ रहे हों , अनाचार का शासन हो जावे, महंगाई बढ़ने लगे किन्तु इसे रोकने की क्षमता सरकार के पास न हो या फिर जान बुझ कर इसे रोक न पा रही हो , भृष्टाचार बढ़ जावे , सरकार के अंगभूत सांसद या विधायक अथवा मंत्रिगण भ्रष्टाचार से अपना घर भर रहे हों , देश की सुरक्षा व्यवस्था गड़बड़ा रही हो , अन्याय का राज्य हो , जनता को अकारण ही परेशान किया जाने लगे, शिक्षा, बिजली , पानी आदि की ठीक से व्यवस्था न हो पा रही हो अथवा जनता की किसी मांग को सरकार स्वीकार करने को तैयार न हो तो जनता के पास एसी शक्ति हो कि वह तत्काल एसी सरकार को चलता करे तथा अपनी व्यवस्था के लिए नयी सरकार को चुने |

डा. अशोक आर्य
१०४ शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी २०१०१०
गाजियाबाद , भारत
दूरभाष ०१२०२७७३४००, ०९७१८५२८०६८

धर्म तर्क की कसौटी पर : प्रकृति के सिद्धान्त – आचार्य राम चन्द्र जी

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वैज्ञानिकों में प्राय: मतभेद पाया जाता है। भिन्न भिन्न विषयों में उनकी भिन्न भिन्न धारणाएं होती हैं। यह स्वाभाविक भी है। जब दो वैज्ञानिक परीक्षण आरम्भ करते हैं तो उनकी भिन्न भिन्न धारणाएं, भिन्न भिन्न शैलियां, परिस्थितियां और उपकरण होते हैं। अत: यदि उनके विचारों में भेद पाया जाए तो इसमें आश्चर्य का कोई कारण नहीं है। परन्तु संसार भर के वैज्ञानिक इस बात में एकमत हैं कि प्रकृति के सिद्धान्त एक है,अटल और अपरिवर्तनशील  हैं। उनमें कोई भी परिवर्तन नहीं हो सकता।

  जब हम प्रकृति का अध्ययन करते हैं तो हमें यह ज्ञात होता है कि प्रकृति सतत परिवर्तनशील है। जो आज है वह कल नहीं होगा। जो अवस्था इस समय है, दो क्षण पूर्व वह नहीं थी। दो क्षण में कितना परिवर्तन आ सकता है ? अभी आंधी आ सकती है, शान्त वातावरण में तूफान आ सकता है, वर्षा हो सकती है, सूर्य का तेज बढ़ सकता है। पर्वतों में बर्फ गिर सकती है, सैकडों मील भूमि उससे प्रभावित हो सकती है फिर भूकम्प आते हैं क्षण भर में पृथ्वी के हिलनें से नगर के नगर धराशायी हो जाते हैं। सहस्रों प्राणियो की मृत्यु हो जाती है, सैकड़ों एकड़ भूमि पर बालू बिछ जाती है। पर्वतों के बर्फीले भाग खिसक जाने हैं। लहलहाते उपवन और चहचहाते नगर वीरान हो जाते हैं    इतनें बड़े बड़े परिवर्तन होने पर भी कोई भी वैज्ञाानिक एक पल के लिए भी प्रकृति के सिद्धान्तों को परिवर्तनशील मानने को एक पल के लिए भी उद्यत नहीं होगा।

यदि प्रकृति के नियमों में स्थायित्व न होता तो संसार में एक भी अन्वेषणशाला न होती। प्रकृति के अस्थाई परिवर्तनशील नियमों को जानने की आवश्यकता किसी को भी अनुभव न होती। उदाहरणस्वरूप जब पानी का अध्ययन किया गया तो पता चला कि दो भाग हाईड्रोजन और एक भाग आक्सीजन को यदि मिलाया जाए तो उसका रूप पानी होता है। यह सिद्धान्त अटल है। देश काल परिस्थिति का इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। फिर चाहे वह गंगा का जल हो, टेम्ज+,वोल्गा वा मिस्सीसिप्पी का जल हो सर्वत्र यह नियम इसी रूप में कार्य करता है। अमेरिका, यूरोप, आस्ट्रेलिया और अफ्रीका आदि स्थनों, सतयुग द्वापर, त्रेता अथवा कलियुग आदि युग तथा भूत भविष्य और वर्तमान काल के लिए भी बलपूर्वक यह कहा जा सकता है कि जल के विषय में सदा यही नियम कार्य करेगा।

विज्ञान की सर्वत्र यही  स्तिथी है। पाठशाला में आज जो रेखागणित अथवा बीजगणित के नियम पढ़ाए जाते हैं वे आज भी वे ही हैं जिनका यूक्लिड नें आरम्भ किया था। आर्यभÍ, पाइथागेारस, प्लैटो, न्यूटन, जगदीषचन्द्र वसु, रमन आदि संसार प्रसिद्ध वैज्ञानिकों नें प्रकृति के सिद्धान्तों का जो अध्ययन किया था, वही आज भी हमारे मतिष्कों को आलोकित कर रहा है।

वैज्ञानिकों की विचारधाराएं भिन्न भिन्न रही हैं। उनमें मतभेद भी रहे हैं। उसमें उनकी अपनी अल्पज्ञता अथवा किन्हीं कारणों से उचित निर्णय पर न पहुंच पाना जैसे कारण रहे। उन्होंने पुन: प्रयत्न किए और ठीक ठीक निर्णयों पर पहुंचकर अपने ज्ञान का परिष्कार किया।

कहते हैं यह विज्ञान का युग है। विज्ञान ने बड़ी उन्नति कर ली है। इससे केवल इतना ही तात्पर्य है कि पहले प्रकृति के जिन सिद्धान्तों से हमारा परिचय नहीं था, अब ऐसे असंख्य नियमों से हम परिचित हो गए हैं। प्रकृति विषयक हमारा ज्ञान पूर्वापेक्षा अधिक परिष्कृत हो गया है। हम प्राय: देखते हैं कि हमसे कभी कभी भूल हो जाती है और हम कुछ का कुछ समझ बैठते है। इस पर हम यह कभी नहीं कहते कि प्रकृति ने अपना नियम बदल लिया अब उसमें परिवर्तत हो गया है।

परिवर्तनशील वस्तु में परिवर्तन तो होगा ही। उदाहरण स्वरूप आपने धातु निर्मित कोई छड़ ली। नापने पर वह आठ फुट की पाई गई। कुछ कालोपरान्त नापने पर यह एक इंच अधिक पाई गई धातु की छड़ परिवर्तनशील हैं। इसलिए हम यह नहीं कह सकते पहले नापनें वाले से अवश्य ही भूल हुई थी। यह सम्भव है कि ताप के प्रभाव से लम्बाई में परिवर्तन आ गया हो।

इसी प्रकार कलकत्ता अथवा बम्बई का डेढ़ सौ वर्ष पूर्व का वर्णन पढ़ा जाय तो उसमें कितनी विभिन्नता मिलेगी । डेढ़ सौ वर्ष पूर्व कलकत्ता एक छोटी सी नगरी थी। आज गगनचुम्बी अट्टालिका इसकी शोभा बढ़ा रही हैं। किस प्रकार मछुआरों का एक गांव आज का इतना बड़ा नगर हो गया। बम्बई भी किस प्रकार उन्नत हो गया। इस सब को देखकर हम यह तो न कहेंगे कि १५० वर्ष पूर्व किसी पर्यटक नें इन नगरों का भ्रान्तिपूर्ण वर्णन कर दिया। रामायण मे प्रयागराज का वर्णन है। वह वर्णन वर्तमान के प्रयाग से कितना अलग है। क्या इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि वाल्मीकि जी ने प्रयागराज की कल्पना मात्र की थी।

परन्तु प्रकृति के सिद्धान्तों का जो वर्णन वर्तमान बाईबल में पाया जाता है उस पर कौन विश्वास करेगाा। बाईबल में पृथ्वी को चपटा माना गया है। वहां पृथ्वी को गतिशील भी नहीं माना गया। हमारा मस्तिष्क कभी भी इस बात को स्वीकार नहीं करेगा कि पृथ्वी कभी चपटी रही होगी अथवा यह किसी समय सूर्य का चक्कर नहीं लगाती होगी। आज का कोई विद्यार्थी ऐसी भूल नहीं करेगा। और विक्षिप्त व्यक्ति तो ऐसी धारणाओं का उपहास उड़ाएगे। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रकृति परिवर्तनशील है परन्तु उसके नियम अटल हैं। भ्रम इसलिए होता है कि हमने प्रृकृति और इसके सिद्धान्त को ठीक प्रकार नहीं समझा। हम कहते हैं प्रकृति के सिद्धान्त या  सोने का रंग इन दोनों में का और के अर्थों पर विचार करो। जब हम सोने का रंग कहते हैं तो इसमें का शब्द का वह अर्थ नहीं होता जो प्रकृति का सिद्धान्त मे का शब्द का है। यहां सोना एक वस्तु है और वह आधार है रंग का। परन्तु जब हम प्रकृति के सिद्धान्त कहते है तो यहां सिद्धान्त प्रकृति का आधार स्वरूप नहीं है। प्राय: शब्दों की खींचतान समाज में की जाती है। बाल की खाल निकाली जाती है। इससे प्रकृति के सम्बन्ध में अनेक भ्रान्त धारणाएं लोगों के हृदय में स्थान पा जाती हैं। इस प्रकार की खींचतान से अप सिद्धान्त प्रचलित हो जाते हैं उनका विचारपूर्वक अध्ययन करना चाहिए।

प्रकृति में विभिन्नताएं प्रकट करनें वाली आश्चर्यजनक घटनाएं समाचार पत्रों में बहुधा स्थान पा जाती हैं। उनका सहारा पाकर अनकों पौराणिक कथानकों की पुष्टी की जाती है। अमुक स्त्री के सांप उत्पन्न हुआ, अमुक बालक के दो मुख थे और एक शरीर, अमुक बालक के मुख पर हाथी जैसी नाक थी। अमुक घोड़ी नें बकरी को जन्म दिया। यह सब विभिन्नताएं देखनें में तो आश्चर्यजनक होती है, परन्तु सन्तति’शास्त्र के उल्लंघन मात्र से एसी घटनाएं हो जाती हैं। दो मुख वाला बालक होना या हाथी जैसा मुख होने से यह सिद्ध नहीं होता कि मानवी माता हाथी को जन्म दे सकती है। ऐसी ऐसी रेत की नींव पर बड़े बडे हवाई किले खड़े कर लिए जाते हैं। बुद्धिमान व्यक्ति अपनी कल्पना की उड़ान से ऐसी ऐसी धारणाओं को जन्म देते है कि जिससे समाज की महान क्षति होती है। यह विचार ही है जो मानव के परिष्कार अथवा पतन का कारण बनते है उदाहरण स्वरूप कुछ ज्ञान शास्त्र की कोटि में आ गए हैं। सूर्य सिद्धान्त का ज्ञान वास्तविक है परन्तु क्या  फलित ज्योतिष जिसको जिस किसी प्रकार सूर्य सिद्धान्त से जोड़ दिया गया है, इसको कौन युक्ति युक्त कहेगा ? ग्रहों का हेर फेर, अमुक ग्रह में उत्पन्न व्यक्ति अमुक भाग्य रखेगा इसको कौन बुद्धिमान व्यक्ति स्वीकार करेगा। जिन ग्रहों के फेर हमारे देश में विपत्तियों की आंधी आ रही है अमरीका और रूस देश वासी उनमें क्या क्या नहीं कर रहे। ग्रहों के हेर फेर,उच्चाटन, मारण की क्रियायें, दानवों की कपोल कल्पनाएं,जादू टोने, आत्माओं का आवाहन आदि अनेक विद्याएं हैं जिनकी जड़ समाज में गहरी जम चुकी हैं। यह सब केवल भ्रान्तियां है जो मानव जाति में जड़ता की वृद्धि कर रही हैं।