Tag Archives: Dharm

धर्म की आवश्यकता क्यों? – शिवदेव आर्य

धर्म की आवश्यकता क्यों?
– शिवदेव आर्य
गुरुकुल पौन्धा, देहरादून
मो.-8810005096

जीवन की सफलता सत्यता में है। सत्यता का नाम धर्म है। जीवन की सफलता के लिए अत्यन्त सावधान होकर प्रत्येक कर्म करना पड़ता है, यथा – मैं क्या देखूॅं, क्या न देखूॅं, क्या सुनॅूं, क्या न सुनूॅं, क्या जानॅंू, क्या न जानूॅं, क्या करुॅं अथवा क्या न करूॅं। क्योंकि मनुष्य एक चिन्तनशील प्राणी है, जब मनुष्य किसी भी पदार्थ को देखता है तब उसके मन में उस पदार्थ के प्रति भाव ;विचारद्ध उत्पन्न होते हें। क्योंकि यही मनुष्य होने का लक्षण है, इसीलिए निरुक्तकार यास्क ने मनुष्य का निर्वचन करते हुए लिखा है कि ‘मनुष्यः कस्मात् मत्वा कर्माणि सीव्यति’ (३/८/२) अर्थात् मनुष्य तभी मनुष्य है जब वह किसी भी कर्म को चिन्तन तथा मनन पूर्वक करता है। यही मनन की प्रवृत्ति मनुष्यता की परिचायक है अन्यथा मनुष्य भी उस पशु के समान ही है जो केवल देखता है और बिना चिन्तन मनन के विषय में प्रवृत्त हो जाता है।
मनुष्य जब किसी पदार्थ को देखकर कार्य की ओर अग्रसर होता है तब चिन्तन उसको घेर लेता है, ऐसे समय में धर्म बताता है कि आपको किस दिशा में कार्य करना है, यही धर्म की आवश्यकता है। यदि धर्म जीवन में होगा तब जाकर श्रेष्ठ कर्म को कर सकेंगे अथवा पदार्थ का यथायोग्य व्यवहार (कर्म) कर सकेंगे।
काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, मद और मोह ये मानव जीवन में मनःस्थिति को दूषित करने वाले हैं। ये षड्रिपु मनुष्य की उन्नति के सर्वाधिक बाधक होते हैं इनका नाश मनुष्य धर्मरूपी अस्त्र से कर सकता है। इन विध्वंसमूलक प्रवृत्तियों को जीतना ही जितेन्द्रियता तथा शूरवीरता कहलाता है। यदि व्यक्ति के अन्दर धर्म नहीं है तो वह इनके वशीभूत होकर स्वयं तथा सामाजिक पतन का कारण बन जाता है।
इन पतनोन्मुखी प्रवृत्तियों को रोकने के लिए परमावश्यक होता है कि व्यक्ति विवेकशील हो और विवेकशील होने के लिए आवश्यक है अच्छे सद् चरित्रवान् मित्रों का संग करें तथा अच्छे ग्रन्थों का स्वाध्याय करें।
आज हमारी युवा पीढ़ी धर्म के अभाव में पतन की ओर अग्रसरित होती चली जा रही है, ऐसे में लोगों की चिन्तन क्षमता समाप्त हो गयी है। नित्य नये-नये मानवीय ह्रासता के कृत्य दिखायी देते हैं, ऐसा क्यों है? क्या हमने कभी विचार व चिन्तन किया है? आज हमारी सोचने की क्षमता इतनी कम क्यों हो गयी है, क्योंकि हम धर्म को समझ ही नहीं पा रहे हैं। हम धर्म को एकमात्र कर्मकाण्ड का रूप स्वीकार करते हैं। आज हमें धर्म को स्वयं के अन्दर धारण करना होगा। धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य, अक्रोध इन दश प्रमुख कर्तव्यों को स्वयं के लिए धारण करने का नाम धर्म बताया है।
धर्म की परिभाषा करने वाले विभिन्न आचार्यों के अपने-अपने मत हैं। संसार में मतवालों ने अपने-अपने धर्म के नाम पर विभिन्न चिह्न बना लिए हैं, जैसे- कोई केश बढ़ा रहा है, कोई लम्बी दाढ़ी बढ़ाये हुए है, कोई केश व दाढ़ी दोनों ही बढ़ाये हुए है, कोई पॉंच शिखाएं रखे हुए है, कोई मूछ कटाकर दाढ़ी बढ़ा रहा है, कोई चन्दन का तिलक लगाए हुए है, कोई माथे पर अनेक रेखाओं को अंकित किये हुए है और न जाने धर्म के नाम पर क्या-क्या करते हैं। किन्तु ये सभी धर्म से सम्बन्ध नहीं रखते हैं क्योंकि कहा भी है – ‘न लिंग धर्मकारणम्’ अर्थात् धर्म का कारण कोई चिह्न विशेष नहीं होता है।
यदि हम धर्म को जानना चाहते हैं तो हमें धर्मशास्त्र की इस पंक्ति को समझना होगा-
‘धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः’
जो व्यक्ति धर्म को जानना चाहता है, उसे वेद को प्रमुखता के साथ जानना होगा। धर्म धारण करने का नाम है इसी लिए कहते हैं ‘धारणाद् धर्म इत्याहुर्धर्मो धारयते प्रजाः’। जो किसी भी कार्य को करने में सत्य-असत्य का निर्णय कराये, चिन्तन व मनन कराये उसे धर्म कहते हैं। हम धर्म को धारण करते हैं तथा उसको व्यवहार रूप में प्रस्तुत करते हैं।
धर्म ज्ञान के लिए वेद ज्ञान की अत्यन्त आवश्यकता है, क्योंकि वेद ज्ञान ईश्वरीय ज्ञान है और ईश्वर सर्वज्ञ होने से उसके ज्ञान में भ्रान्ति अथवा अधूरापन का लेशमात्र भी निशान नहीं है। वेदज्ञान सृष्टि के आदि का है तथा सभी का मूल है, अतः हम मूल को छोड़ पत्तों अथवा टहनियों को समझने में अपना समय व्यर्थ न करें।
इसीलिए धर्म का ज्ञान और उस पर आचरण मनुष्य के लिए परमावश्यक है, यह हमारी उन्नति व सुख का आधार है। मनुष्य के परम लक्ष्य पुरुषार्थ चतुष्ट्य की सिद्धि में परमसहायक है।
वेद मनुष्य को आदेश देता है ‘मा मृत्योरुदगा वशम्’। मनुष्य को प्रतिक्षण सर्तक रहकर अपने चारों ओर फैले मृत्यु के भयंकर पाशों से बचने का प्रयास करना चाहिए।
उपनिषद् का ऋषि प्रार्थना करता है-‘मृत्योर्माऽमृतं गमय’ हे प्रभो ! मुझे इन मृत्युपाशों से बचाकर अमरता का पथिक बनाइए। इसी रहस्य को स्पष्ट करने के लिए ही धर्मशास्त्रकार घोषणा करता है-धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः। अर्थात् जो व्यक्ति धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है और जो धर्म को नष्ट करता है, धर्म उसको नष्ट कर देता है। जीवन में हताशा और किंकर्त्तव्यमूढ़ता धार्मिक पक्ष के निर्बल होने पर ही आती है। जीवन में अधर्म की वृद्धि ही व्यक्ति को निराश तथा दुर्बल बना देती है अतः धर्म की वृद्धि करके व्यक्ति को सबल व सशक्त रहना चाहिये जिससे अधर्म के कारण क्षीणता न आ सके। धर्म से परस्पर प्रीति व सहानुभूति के भावों की वृद्धि होती है।
आचार्य चाणक्य ने लिखा है-‘‘सुखस्य मूलं धर्मः धर्मस्य मूलमिन्द्रियजयः।’’ अर्थात् सुख का मूल धर्म है और धर्म का मूल -इन्द्रियों को संयम में रखना है। संसार में प्रत्येक मनुष्य की इच्छा होती है कि मैं सुखी रहूँ और सुख की प्राप्ति धर्म के बिना नहीं हो सकती। अतः धर्म का आचरण अवश्य ही करना चाहिये। बिना धर्म को अपनाये कोई भी मनुष्य सुखी नहीं हो सकता।
संसार की कोई भी वस्तु सुख का हेतु हो सकती है परन्तु मरणोत्तर किसी के साथ नहीं जा सकती। शास्त्रकार कहते हैं-‘धर्म एकोऽनुगच्छति’ आर्थात् एक धर्म ही मरणोत्तर मनुष्य के साथ जाता है। संस्कृत के नीतिकार कहते है-
धनानि भूमौ, पशवश्च गोष्ठे, नारी गृहे बान्धवाः श्मशाने।
देहश्चितायां परलोकमार्गे, धर्मानुगो गच्छति जीव एक: ।।
अर्थात् समस्त भौतिक धन भूमि में ही गड़ा रह जाता है अथवा आजकल बैंकों में या तिजोरियों में ही धरा रह जाता है और गाय आदि पशु गोशाला में ही बंधे रह जाते हैं । पत्नी घर के द्वार तक ही साथ जाती है और परिवार के भाई-बन्धु व मित्रजन श्मशान तक ही साथ देते हैं एक मनुष्य का शुभाशुभ कर्म ;धर्मद्ध ही परलोक में मनुष्य का साथ देता है अर्थात् धर्म के अनुसार ही मनुष्य को परलोक में अच्छी-बुरी योनियों में जाना पड़ता है।
हमे धर्म को यथार्थ में जानकर व्यवहार रूप में स्वयं के लिए धारण करने की आवश्यकता है। धर्म ही एकमात्र हमारा अस्त्र तथा शस्त्र है, जिसका प्रयोग कर हम इह लोक से पारलौकिक यात्रा को पूर्ण करें। आओं! हम सब मिलकर धर्म को धारण करें।

‘मनुष्य और उसका धर्म’ -मनमोहन कुमार आर्य

 

संसार के सभी मनुष्य अपने-अपने माता-पिताओं से जन्में हैं। जन्म के समय वह शिशु होते हैं। इससे पूर्व 10 माह तक उनका अपनी माता के गर्भ में निर्माण होता है। मैं कौन हूं? यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न है। मैं वह हूं जो अपनी माता से जन्मा है और उससे पूर्व लगभग 10 माह तक गर्भ में रहा है। माता के गर्भ में यह कैसे आया यह भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न है।  इस प्रश्न के उत्तर को ढूढ़ने से पूर्व हम यह देखते हैं कि जब वृद्धावस्था आदि में मनुष्य की मृत्यु होती है तो वस्तुतः होता क्या है? पृथिवी, अग्नि, जल, वायु और आकाश नामी पंच-भूतों से निर्मित उसका जड़ शरीर हमारे सामने होता है जिसका शास्त्रीय व लोक नियमों के अनुसार दाह संस्कार कर दिया जाता है। अनेक देशों में मृतक शव को दफनाने की प्रथा भी विद्यमान है। मृत्यु से पूर्व तक जड़ शरीर में एक चेतन तत्व भी होता है जो शरीर से निकल जाता है जिससे उस मनुष्य व उसके शरीर की मृत्यु कही जाती है। वह चेतन तत्व क्या है, आईये, विचार करते हैं। मृत्यु से पूर्व मनुष्य के शरीर में हम ज्ञान व क्रियाओं वा कर्मों की निरन्तरता को बना हुआ देखते हैं जो मृत्यु होने पर बन्द हो जाती है। शरीर की संवेदनायें समाप्त हो जाती है और वह पूर्णतः निष्क्रिय हो जाता है। अतः यह सिद्ध होता है कि जीवित अवस्था में शरीर में ज्ञान व क्रियायें किसी एक चेतन सत्ता की विद्यमानता के कारण हो रही थी जिसके न रहने, निकल जाने या शरीर छोड़ कर चले जाने पर वह पूर्णतः बन्द हो गई। अतः शरीर में दिखने वाला ज्ञान व क्रियायें एक चेतन तत्व अर्थात् जीवात्मा की उपस्थिति का प्रमाण होने के साथ यह दोनों ज्ञान व क्रियायें=कर्म, जीवात्मा का स्वभाव वा स्वाभाविक गुण हैं। जीवात्मा के स्वाभाविक ज्ञान व क्रियाओं को जानने के बाद आईये, जानते हैं कि जीवात्मा के अन्य गुण वा उसका स्वरूप कैसा है? हम सभी अनुभव करते हैं कि जीवात्मा शरीर तक ही सीमित है। अतः जीवात्मा अल्प परिमाण वाली एवं एकदेशी सत्ता है। अल्प परिमाण एवं एकदेशी सत्त अल्प शक्ति वाली ही हो सकती है। हम यह भी देखते हैं कि हम और अन्य सभी प्राणी दुःख, रोग व मृत्यु से भयभीत होते हैं। अतः यह हमारी अल्प शक्ति के साथ परतन्त्रता को भी सिद्ध करता है। प्रश्न उपस्थित होता है कि हमें दुःख, रोग व मृत्यु किससे मिलता है? उत्तर प्राप्त होता है कि इसका कारण हमारा अज्ञान व हमारे अज्ञान-जनित कर्म होते हैं। अज्ञान का कारण हमारी अल्पज्ञता है जिसे सर्वज्ञ ईश्वर एवं ज्ञानी गुरूओं का सान्निध्य प्राप्त कर दूर किया जा सकता है। मनुष्य जब सर्वज्ञ ईश्वर के सान्निध्य को प्राप्त करता है और स्तुति, प्रार्थना व उपासना करता है तो इसके प्रभाव से धीरे-धीरे उसकी आत्मा, मन, बुद्धि व अन्तःकरण के मल छटने वा दूर होने आरम्भ हो जाते हैं। निरन्तर अभ्यास से आत्मा आदि के मल दूर हो जाने से वह निर्मल होकर ईश्वर व आत्मा में स्थिति को प्राप्त करता है। इस अवस्था में पहुंचने पर उसे दुःख, रोग व मृत्यु आदि का भय समाप्त हो जाता है। संसार में जहां भी मनुष्य निवास करता है, वह किसी भी मत, सम्प्रदाय, मजहब का अनुयायी हो, परन्तु उसके समस्त दुःख व भय आदि केवल व केवल ईश्वर की उपासना से ही दूर हो सकते हैं। नान्यः पन्था विद्यते अयनायः अर्थात् इन मलों को दूर करने का अन्य कोई उपाय नहीं है।

 

उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि जीवात्मा, सत्य, चित्त, एकदेशी, अल्पज्ञ, कर्म करने में स्वतन्त्र व फल भोगने में परतन्त्र है। योग विधि से स्तुति, प्रार्थना व उपासना व वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन वा स्वाध्याय करके वह अपनी अज्ञानता व अविद्या को दूर करके विवेक को प्राप्त होकर दुःखों से मुक्त होता है। दुःखों के साथ-साथ वह जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होकर मोक्ष अर्थात् मुक्ति को भी प्राप्त हो जाता है और नियत अवधि तक मुक्ति का सुख भोगता है।

 

जीवात्मा का स्वरूप जान लेने के पश्चात प्रश्न आता है कि जीवात्मा अपनी उन्नति, प्रगति व उत्थान के लिए क्या करे? जीवात्मा को जब अपने स्वरूप का ज्ञान होता जाता है तो इसके साथ ही साथ परमात्मा का भी ज्ञान हो जाता है। कारण यह है कि ज्ञान प्राप्त होने पर जीवात्मा यह जान जाता है कि यह कार्य जगत अथवा विशाल सृष्टि उसे बनी बनाई मिली है जिसे संसार में विद्यमान दूसरी सर्वव्यापक चेतन सत्ता, ईश्वर ने बनाया है। ईश्वर व स्वयं को जानकर जीवात्मा को यह ज्ञान भी हो जाता है कि उसे भोगों का त्याग पूर्वक उपभोग करना है। इसके अतिरिक्त जो ज्ञान उसने गुरूओं, वृद्धों, सृष्टि के दर्शन व चिन्तन-मनन-ऊहा करके प्राप्त किया है उसे अज्ञानियों व अल्पज्ञानियों में फैलाना है। उसे इसकी प्रेरणा सूर्य, वायु, जल व नदी-समुद्र-वर्षा, वृक्ष आदि सभी से मिलती है। सूर्य के पास प्रकाश है, वह उसे अपने पास न रखके पूरे सौर्य मण्डल में फैला रहा है। नदिया व समुद्र अपना जल अपने पास नहीं रखते अपितु उसे वाष्प बना कर वायु में उड़ा देते हैं जो वर्षा के द्वारा असंख्य लोगों को लाभ पहुंचाता है। नदियों का जल किसानों द्वारा खेती में उपयोग किया जाता है व नदी के आस-पास बसे ग्राम व नगर के लोग, जल की अपनी भिन्न- भिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति में करते हैं। इसी प्रकार वृक्ष, ओषधियां, दुधारू पशु, भूमि आदि सभी परोपकार-यज्ञ कर रहे हैं जिससे संसार चल रहा है।  यह सब जीवात्मा को परोपकारमय जीवन व्यतीत करने की शिक्षा देते हैं। इनका मनन कर मनुष्य अपने जीवन का उद्देश्य ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना, ध्यान, परोपकार एवं यज्ञ आदि करना निश्चित करता है। यही जीवात्मा वा मनुष्यों का कर्तव्य व धर्म भी है। इन कार्यो को करते हुए वह अपने पुर्व किये हुए कर्मो को भोगेगा व आगे के लिए नये कर्मों को करके प्रारब्ध तैयार करेगा। जड़ पदार्थ परोपकार कार्यो में संलग्न हैं तो बुद्धिमान जीवात्मा इस कार्य में पीछे कैसे रह सकता है?

 

इस संक्षिप्त लेख में जीवात्मा के स्वरूप व उसके कर्तव्य-धर्म का संक्षेप में विचार किया है। मनुष्य को अपने जीवन के सभी प्रश्नों के उत्तर व जीवन के उद्देश्य की पूर्ति के साधनों एवं उपायों को जानने के लिए महर्षि दयानन्द सरस्वती कृत सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का आश्रय लेना चाहिये। इस ग्रन्थ में मनुष्य जीवन से सम्बन्धित सभी प्रश्नों का सत्य व यथार्थ समाधान विद्यमान है। विगत 140 वर्षों में संसार के करोड़ों लोगों द्वारा इस ग्रन्थ में प्रस्तुत विचारों से लाभ उठा कर अपने जीवनों को संवारा जा चुका है।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2,

देहरादून-248001

फोनः 09412985121

धर्म तर्क की कसौटी पर : प्रकृति के सिद्धान्त – आचार्य राम चन्द्र जी

lak

 

वैज्ञानिकों में प्राय: मतभेद पाया जाता है। भिन्न भिन्न विषयों में उनकी भिन्न भिन्न धारणाएं होती हैं। यह स्वाभाविक भी है। जब दो वैज्ञानिक परीक्षण आरम्भ करते हैं तो उनकी भिन्न भिन्न धारणाएं, भिन्न भिन्न शैलियां, परिस्थितियां और उपकरण होते हैं। अत: यदि उनके विचारों में भेद पाया जाए तो इसमें आश्चर्य का कोई कारण नहीं है। परन्तु संसार भर के वैज्ञानिक इस बात में एकमत हैं कि प्रकृति के सिद्धान्त एक है,अटल और अपरिवर्तनशील  हैं। उनमें कोई भी परिवर्तन नहीं हो सकता।

  जब हम प्रकृति का अध्ययन करते हैं तो हमें यह ज्ञात होता है कि प्रकृति सतत परिवर्तनशील है। जो आज है वह कल नहीं होगा। जो अवस्था इस समय है, दो क्षण पूर्व वह नहीं थी। दो क्षण में कितना परिवर्तन आ सकता है ? अभी आंधी आ सकती है, शान्त वातावरण में तूफान आ सकता है, वर्षा हो सकती है, सूर्य का तेज बढ़ सकता है। पर्वतों में बर्फ गिर सकती है, सैकडों मील भूमि उससे प्रभावित हो सकती है फिर भूकम्प आते हैं क्षण भर में पृथ्वी के हिलनें से नगर के नगर धराशायी हो जाते हैं। सहस्रों प्राणियो की मृत्यु हो जाती है, सैकड़ों एकड़ भूमि पर बालू बिछ जाती है। पर्वतों के बर्फीले भाग खिसक जाने हैं। लहलहाते उपवन और चहचहाते नगर वीरान हो जाते हैं    इतनें बड़े बड़े परिवर्तन होने पर भी कोई भी वैज्ञाानिक एक पल के लिए भी प्रकृति के सिद्धान्तों को परिवर्तनशील मानने को एक पल के लिए भी उद्यत नहीं होगा।

यदि प्रकृति के नियमों में स्थायित्व न होता तो संसार में एक भी अन्वेषणशाला न होती। प्रकृति के अस्थाई परिवर्तनशील नियमों को जानने की आवश्यकता किसी को भी अनुभव न होती। उदाहरणस्वरूप जब पानी का अध्ययन किया गया तो पता चला कि दो भाग हाईड्रोजन और एक भाग आक्सीजन को यदि मिलाया जाए तो उसका रूप पानी होता है। यह सिद्धान्त अटल है। देश काल परिस्थिति का इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। फिर चाहे वह गंगा का जल हो, टेम्ज+,वोल्गा वा मिस्सीसिप्पी का जल हो सर्वत्र यह नियम इसी रूप में कार्य करता है। अमेरिका, यूरोप, आस्ट्रेलिया और अफ्रीका आदि स्थनों, सतयुग द्वापर, त्रेता अथवा कलियुग आदि युग तथा भूत भविष्य और वर्तमान काल के लिए भी बलपूर्वक यह कहा जा सकता है कि जल के विषय में सदा यही नियम कार्य करेगा।

विज्ञान की सर्वत्र यही  स्तिथी है। पाठशाला में आज जो रेखागणित अथवा बीजगणित के नियम पढ़ाए जाते हैं वे आज भी वे ही हैं जिनका यूक्लिड नें आरम्भ किया था। आर्यभÍ, पाइथागेारस, प्लैटो, न्यूटन, जगदीषचन्द्र वसु, रमन आदि संसार प्रसिद्ध वैज्ञानिकों नें प्रकृति के सिद्धान्तों का जो अध्ययन किया था, वही आज भी हमारे मतिष्कों को आलोकित कर रहा है।

वैज्ञानिकों की विचारधाराएं भिन्न भिन्न रही हैं। उनमें मतभेद भी रहे हैं। उसमें उनकी अपनी अल्पज्ञता अथवा किन्हीं कारणों से उचित निर्णय पर न पहुंच पाना जैसे कारण रहे। उन्होंने पुन: प्रयत्न किए और ठीक ठीक निर्णयों पर पहुंचकर अपने ज्ञान का परिष्कार किया।

कहते हैं यह विज्ञान का युग है। विज्ञान ने बड़ी उन्नति कर ली है। इससे केवल इतना ही तात्पर्य है कि पहले प्रकृति के जिन सिद्धान्तों से हमारा परिचय नहीं था, अब ऐसे असंख्य नियमों से हम परिचित हो गए हैं। प्रकृति विषयक हमारा ज्ञान पूर्वापेक्षा अधिक परिष्कृत हो गया है। हम प्राय: देखते हैं कि हमसे कभी कभी भूल हो जाती है और हम कुछ का कुछ समझ बैठते है। इस पर हम यह कभी नहीं कहते कि प्रकृति ने अपना नियम बदल लिया अब उसमें परिवर्तत हो गया है।

परिवर्तनशील वस्तु में परिवर्तन तो होगा ही। उदाहरण स्वरूप आपने धातु निर्मित कोई छड़ ली। नापने पर वह आठ फुट की पाई गई। कुछ कालोपरान्त नापने पर यह एक इंच अधिक पाई गई धातु की छड़ परिवर्तनशील हैं। इसलिए हम यह नहीं कह सकते पहले नापनें वाले से अवश्य ही भूल हुई थी। यह सम्भव है कि ताप के प्रभाव से लम्बाई में परिवर्तन आ गया हो।

इसी प्रकार कलकत्ता अथवा बम्बई का डेढ़ सौ वर्ष पूर्व का वर्णन पढ़ा जाय तो उसमें कितनी विभिन्नता मिलेगी । डेढ़ सौ वर्ष पूर्व कलकत्ता एक छोटी सी नगरी थी। आज गगनचुम्बी अट्टालिका इसकी शोभा बढ़ा रही हैं। किस प्रकार मछुआरों का एक गांव आज का इतना बड़ा नगर हो गया। बम्बई भी किस प्रकार उन्नत हो गया। इस सब को देखकर हम यह तो न कहेंगे कि १५० वर्ष पूर्व किसी पर्यटक नें इन नगरों का भ्रान्तिपूर्ण वर्णन कर दिया। रामायण मे प्रयागराज का वर्णन है। वह वर्णन वर्तमान के प्रयाग से कितना अलग है। क्या इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि वाल्मीकि जी ने प्रयागराज की कल्पना मात्र की थी।

परन्तु प्रकृति के सिद्धान्तों का जो वर्णन वर्तमान बाईबल में पाया जाता है उस पर कौन विश्वास करेगाा। बाईबल में पृथ्वी को चपटा माना गया है। वहां पृथ्वी को गतिशील भी नहीं माना गया। हमारा मस्तिष्क कभी भी इस बात को स्वीकार नहीं करेगा कि पृथ्वी कभी चपटी रही होगी अथवा यह किसी समय सूर्य का चक्कर नहीं लगाती होगी। आज का कोई विद्यार्थी ऐसी भूल नहीं करेगा। और विक्षिप्त व्यक्ति तो ऐसी धारणाओं का उपहास उड़ाएगे। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रकृति परिवर्तनशील है परन्तु उसके नियम अटल हैं। भ्रम इसलिए होता है कि हमने प्रृकृति और इसके सिद्धान्त को ठीक प्रकार नहीं समझा। हम कहते हैं प्रकृति के सिद्धान्त या  सोने का रंग इन दोनों में का और के अर्थों पर विचार करो। जब हम सोने का रंग कहते हैं तो इसमें का शब्द का वह अर्थ नहीं होता जो प्रकृति का सिद्धान्त मे का शब्द का है। यहां सोना एक वस्तु है और वह आधार है रंग का। परन्तु जब हम प्रकृति के सिद्धान्त कहते है तो यहां सिद्धान्त प्रकृति का आधार स्वरूप नहीं है। प्राय: शब्दों की खींचतान समाज में की जाती है। बाल की खाल निकाली जाती है। इससे प्रकृति के सम्बन्ध में अनेक भ्रान्त धारणाएं लोगों के हृदय में स्थान पा जाती हैं। इस प्रकार की खींचतान से अप सिद्धान्त प्रचलित हो जाते हैं उनका विचारपूर्वक अध्ययन करना चाहिए।

प्रकृति में विभिन्नताएं प्रकट करनें वाली आश्चर्यजनक घटनाएं समाचार पत्रों में बहुधा स्थान पा जाती हैं। उनका सहारा पाकर अनकों पौराणिक कथानकों की पुष्टी की जाती है। अमुक स्त्री के सांप उत्पन्न हुआ, अमुक बालक के दो मुख थे और एक शरीर, अमुक बालक के मुख पर हाथी जैसी नाक थी। अमुक घोड़ी नें बकरी को जन्म दिया। यह सब विभिन्नताएं देखनें में तो आश्चर्यजनक होती है, परन्तु सन्तति’शास्त्र के उल्लंघन मात्र से एसी घटनाएं हो जाती हैं। दो मुख वाला बालक होना या हाथी जैसा मुख होने से यह सिद्ध नहीं होता कि मानवी माता हाथी को जन्म दे सकती है। ऐसी ऐसी रेत की नींव पर बड़े बडे हवाई किले खड़े कर लिए जाते हैं। बुद्धिमान व्यक्ति अपनी कल्पना की उड़ान से ऐसी ऐसी धारणाओं को जन्म देते है कि जिससे समाज की महान क्षति होती है। यह विचार ही है जो मानव के परिष्कार अथवा पतन का कारण बनते है उदाहरण स्वरूप कुछ ज्ञान शास्त्र की कोटि में आ गए हैं। सूर्य सिद्धान्त का ज्ञान वास्तविक है परन्तु क्या  फलित ज्योतिष जिसको जिस किसी प्रकार सूर्य सिद्धान्त से जोड़ दिया गया है, इसको कौन युक्ति युक्त कहेगा ? ग्रहों का हेर फेर, अमुक ग्रह में उत्पन्न व्यक्ति अमुक भाग्य रखेगा इसको कौन बुद्धिमान व्यक्ति स्वीकार करेगा। जिन ग्रहों के फेर हमारे देश में विपत्तियों की आंधी आ रही है अमरीका और रूस देश वासी उनमें क्या क्या नहीं कर रहे। ग्रहों के हेर फेर,उच्चाटन, मारण की क्रियायें, दानवों की कपोल कल्पनाएं,जादू टोने, आत्माओं का आवाहन आदि अनेक विद्याएं हैं जिनकी जड़ समाज में गहरी जम चुकी हैं। यह सब केवल भ्रान्तियां है जो मानव जाति में जड़ता की वृद्धि कर रही हैं।