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Importance of speech वाक in Vedas

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Importance of speech वाक in Vedas
Author : Subodh Kumar
Human speech RV10.125,reiterated as  AV4.30

ऋषि:- अथर्वा, देवता:- वाक 

1.अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत  विश्वदेव्यैः |

अहं मित्रावरुणोभा बिभर्यमिंद्राग्नी अहमश्विनोभा ||

अथर्व 4.30.1,ऋ10.125.1

 मैं वाक  शक्ति पृथिवी के आठ वसुओं , ग्यारह प्राण.आदित्यै बारह मासों,विश्वेदेवाः ऋतुओं और मित्रा वरुणा दिन और  रात द्यौलोक और भूलोक  सब को धारण करती हूं. ( मानव सम्पूर्ण विश्व पर  वाक शक्ति  के  सामर्थ्य  से ही अपना कार्य क्षेत्र  स्थापित करता है)  

2. अहं  राष्ट्री सङ्गमनी  वसूनां चिकितुषो प्रथमा यज्ञियानाम्‌|

तां मा  देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयंतः ||

अथर्व 4.30.2 ऋ10.125.3

मैं (वाक शक्ति) जगद्रूप राष्ट्र  की स्वामिनी हो कर धन प्रदान करने वाली हूँ , सब वसुओं को मिला कर सृष्टि का सामंजस्य  बनाये रख कर सब को ज्ञान देने वाली हूँ. यज्ञ द्वारा सब देवों मे अग्रगण्य  हूँ. अनेक स्थानों पर अनेक रूप से प्रतिष्ठित रहती हूँ.

3.अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवानामुत मानुषाणाम्‌ |

तं तमुग्रं  कृणोमि तं  ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम्‌ ||

अथर्व 4.30.3ऋ10.125.5

संसार में जो भी ज्ञान है देवत्व धारण करने पर मनुष्यों में उस दैवीय ज्ञान  का प्रकाश मैं (वाक शक्ति) ही करती हूँ. मेरे द्वारा ही मनुष्यों  में क्षत्रिय स्वभाव  की उग्रता, ऋषियों जैसा ब्राह्मण्त्व और  मेधा स्थापित  होती है.

4.मया सोSन्नमत्ति यो  विपश्यति यः प्रणीति य ईं शृणोत्युक्तम्‌ |

अमन्तवो मां  त  उप  क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धेयं ते वदामि ||

अथर्व4.30.4ऋ10.125.4

मेरे द्वारा ही अन्न प्राप्ति के साधन  बनते  हैं , जो भी कुछ कहा जाता है, सुना जाता है, देखा  जाता है, मुझे  श्रद्धा से ध्यान देने से ही प्राप्त  होता है. जो मेरी उपेक्षा करते  हैं , मुझे अनसुनी कर देते हैं, वे अपना विनाश कर लेते हैं.

5.अहं रुद्राय धनुरा  तनोमि  ब्रह्मद्विशे  शरवे हन्तवा  उ |

अहं  जनाय सुमदं कृणोभ्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश ||

अथर्व 4.30.5ऋ10.125.6

असमाजिक दुष्कर्मा शक्तियों के विरुद्ध संग्राम की भूमिका मेरे द्वारा ही स्थापित होती है. पार्थिव जीवन मे विवादों  के  निराकरण से मेरे द्वारा ही शांति स्थापित होती है.

6. अहं सोममाहनसं  विभर्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम्‌ |

अहं दधामि  द्रविणा हविष्मते सुप्राव्या3 यजमानाय  सुन्वते ||

अथर्व 4.30.6 ऋ10.125,2

श्रम, उद्योग, कृषि, द्वारा  जीवन में आनंद के साधन मेरे द्वारा ही सम्भव  होते हैं .जो  धन धान्य से भरपूर समृद्धि प्रदान करते  हैं.

7. अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्व1न्तः समुद्रे |

ततो वि तिष्ठे भुवनानि विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृश्यामि ||

अथर्व 4.30.7ऋ10.125.7

मैं अंतःकरण में गर्भावस्था से ही पूर्वजन्मों के संस्कारों का अपार समुद्र ले कर मनुष्य के मस्तिष्क में स्थापित होती हूँ  पृथ्वी  तथा द्युलोक के भुवनों तक स्थापित होती हूँ.

8.अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा  भुवनानि  विश्वा |

परो  दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिम्ना सं बभूव ||

अथर्व 4.30.8 ऋ 10.125.8

मैं ही सब भुवनों पृथ्वी के परे द्युलोक तक वायु के समान फैल कर अपने मह्त्व को विशाल होता देखती हूँ |