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गाय को माता क्यों मानते हो? प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

गाय को माता क्यों मानते हो?

 

देश विभाजन से पूर्व अमृतसर में एक शास्त्रार्थ हुआ। आर्यसमाज

की ओर से श्री ज्ञानी पिण्डीदासजी ने वैदिक पक्ष रखा। इस्लाम की

ओर से जो मौलवी बोल रहे थे उन्होंने यह कहा कि गाय को आप

माता क्यों  मानते हैं? भैंस-बकरी को क्यों नहीं मानते?

 

वैसे तो वेद पशुहिंसा का विरोधी है। गाय क्या  भैंस, बकरी,

घोड़ा आदि सब पशु हमारे ह्रश्वयार व संरक्षण के पात्र हैं, परन्तु गाय

की महत्ता  का जो उत्तर  ज्ञानीजी ने वहाँ दिया वह सबको सदैव

स्मरण रखना चाहिए। गाय का दूध अत्यन्त उपयोगी है यह तो सब

जानते हैं, परन्तु पशुओं में केवल गाय ही एकमात्र पशु है जो मानवीय

माता की भाँति नौ मास तक अपने बच्चे को गर्भ में रखती है। इसलिए

ही इस माता का दूध मानवीय माता के बच्चे के लिए अधिक लाभप्रद

होता है।

 

‘आर्य जाति नहीं गुण सूचक शब्द है।’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

सृष्टि के आदि काल व उसके बाद के समय में आर्य, दास तथा दस्यु आदि कोई मुनष्यों की जातियां नहीं थीं, और न ही इनके बीच हुए किसी युद्ध व युद्धों का वर्णन वेदों में है। वेद में आर्य आदि शब्द  गुणवाचक हैं, जातिवाचक नहीं। जाति तो संसार के सभी मनुष्यों की एक है और इस मनुष्य जाति की स्त्री व पुरूष दो उपजातियां कह सकते हैं। जो पाश्चात्य लेखक ऋग्वेद में आदिवासियों को चपटी नाक और काली त्वचा वाले बताते हैं, वह असत्य, निराधार व अप्रमाणिक है। वह यह भी कहते हैं कि आर्य लोग आदिवासियों की बस्तियों (पुरों) का विध्वंस करते थे, और कभी-कभी आर्यों का आर्यों के साथ भी युद्ध हो जाया करता था। उनकी ये सारी बातें वेद और सत्यान्वेषण के विरुद्ध होने से काल्पनिक एवं प्रमाणहीन हैं।

 

सृष्टि का सबसे प्राचीनतम ग्रन्थ वेद हैं। वेद वह ग्रन्थ हैं जिनमें आदि सृष्टि में ईश्वर से चार ऋषियों को प्राप्त ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद रूपी ज्ञान, जिनके विषय ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान हैं, को लिपिबद्ध किया गया है। यह पुस्तकें व ग्रन्थ मन्त्र संहिताएं कहलाती हैं। ईश्वर द्वारा प्रदत्त ऋग्वेद का 1/51/8 मन्त्र प्रस्तुत है जिसमें आर्य और दस्यु को जातिसूचक नहीं अपितु गुण-कर्म-स्वभाव का सूचक बताया गया है। इससे सभी विदेशी और देशी अल्पज्ञ विद्वानों की आर्यों विषयक भ्रान्तियों व मिथ्या मान्यताओं का खण्डन होता है।

 

मन्त्रः    वि जानीह्यार्यान् ये दस्यवो बर्हिष्मते रन्ध्या शासदव्रतान्।

शाकी भव यजमानस्य चोदिता विश्वेत्ता ते सधमादेषु चाकन।।

 

इस मन्त्र का अर्थ हैः इस संसार में आर्य=श्रेष्ठ और दस्यु=विनाशकारी इन दो प्रकार के स्वभाव वाले स्त्री पुरुष हैं। हे परमैश्वर्यवान् इन्द्र (परमात्मा) ! आप बर्हिष्मान् अर्थात् संसार के परोपकार रूप यज्ञ में रत आर्यों की सहायता के लिए (परहित विरोधी, स्वार्थ साधक व हिंसक) दस्युओं का नाश करें। हमें शक्ति दें कि हम अव्रती (व्रतहीन, सामाजिक नियम व वेदविहित ईश्वराज्ञा भंग करने वाले) अर्थात् अनार्य दुष्ट पुरुषों पर शासन करें। वह कदापि हम पर शासन न करें। हे इन्द्र (ऐश्वर्यो के स्वामी ईश्वर) ! हम सदा ही तुम्हारी स्तुतियों की कामना करते हैं। आप आर्य सद्विचारों के प्रेरक बनें, जिससे हम अनार्यत्व को त्याग कर आर्य बनें।

 

मन्त्र में ‘‘आर्य शब्द प्रयोग परोपकार में संलग्न आर्यों अर्थात् श्रेष्ठ मनुष्योचित आचरण वाले लोगों के लिए प्रयुक्त हुआ है। किसी भी समुदाय में अच्छे व बुरे तथा श्रेष्ठ और कदाचार करने वाले लोग हुआ ही करते हैं। मन्त्र में ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि हम आर्य विचारों के प्रेरक बनें और अनार्यत्व अर्थात् बुराईयों व दुगुर्णों को त्याग दें। अतः इस बात में कोई संशय नहीं है कि आर्य जातिसूचक शब्द नहीं अपितु मनुष्यों में श्रेष्ठ गुणों की प्रधानता का सूचक है।

 

इसी क्रम में हम भारत में अंग्रेजी शिक्षा के जन्मदाता मैकाले और एफ0 मैक्समूलर की भारतीय वैदिक धर्म और संस्कृति को दूषित करने की योजना को क्रियान्वित करने पर हुई बैठक का विवरण भी प्रस्तुत करना चाहते हैं। सन् 1839 में जब मैकाले भारत से इंग्लैण्ड आया तब वह एक संस्कृत के विद्वान की खोज में था। वह ऐसा विद्वान् चाहता था कि जो वेद के सम्बन्ध में योग्यता रखता हो। एच0एच0 विलसन और वारोन वुनसन के द्वारा मैकाले को पता चला कि जर्मन देशोत्पन्न संस्कृत के विद्वान एफ0 मैक्समूलर इस काम के लिए उपयुक्त हैं। दिसम्बर, 1954 में मैक्समूलर और मैकाले की इंग्लैण्ड में भेंट हुई। उस समय मैकाले 55 वर्ष का अनुभवी राजनीतिज्ञ बन चुका था और मैक्समूलर 32 वर्ष का नवयुवक था। मैक्समूलर आर्थिक दृष्टि से कृपण था और उसे किसी ऐसे काम की अपेक्षा थी जिससे वह अच्छा खासा धन कमा सके। मैकाले और मैक्सूमूलर के बीच कई घण्टों तक बातचीन हुई। इस बैठक में मैकाले ने मैक्सूलर को कहा कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी लाखों रुपये व्यय करने को तैयार है यदि आप हिन्दुओं के आदि धर्म ग्रन्थ ऋग्वेद का अंग्रेजी में अनुवाद करें और इस ढंग से व्याख्या करें कि जिससे वेदों की विचारधारा के विद्वानों अनुयायियों को धर्मभ्रष्ट किया जा सके। तुम इस काम में अंग्रेजी सरकार को सहयोग दो और हिन्दुओं के हृदयों में वेद के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न करो जिससे अंगेजी राज्य की भारत में नींव सुदृढ़ हो तथा हिन्दुओं को बिना किसी यत्न किये सरलता से ईसाई बनाया जा सके। यह कहना न होगा कि इस काम को करने के लिए मैक्समूलर को प्रभूत धन का प्रस्ताव व लालच दिया गया था। किसी भी धनहीन विद्वान की सबसे बड़ी कमजोरी धन ही होती है। मैक्समूलर ने इस प्रस्ताव को चाहे व अनचाहें दोनों ही रूपों में स्वीकार कर लिया। इसका प्रमाण उनका अपनी पत्नी को सन् 1866 में तथा 16 दिसम्बर 1868 को तत्कालीन भारत के मन्त्री श्री ड्यूक आफ आर्गायल को लिखे पत्र हैं।

 

अंग्रेजों    ने अपना राज्य स्थाई वा चिरकालीन करने के लिये जो षडयन्त्र किया था उसके शिकार भारत के अधिकांश बुद्धिजीवी हुए। यदि वह ऐसा न करते तो अंगे्रजों से मिलने वाली सुविधाओं से उन्हें हाथ धोना पड़ सकता था। वर्तमान में भी अज्ञानता, स्वार्थवश व आत्म गौरव की न्यूवता के कारण हम इसे ढो रहे हैं। आज भी देश के बच्चों को इस बारे में मिथ्या पाठ पढ़ाये जाते हैं। भारत की लोकसभा तक में कांगे्रस दल के नेता श्री मल्लिकार्जुन खड़से आर्यों को बाहर से आया हुआ कह देते हैं और किन्हीं कारणों से सब मौन साधे रहते हैं। बुद्धिमान जो भी बात कहते हैं वह उसे सप्रमाण कहते हैं। आज तक आर्यों का बाहर से भारत आना व आर्य का एक जाति होने का कोई प्रमाण नहीं मिला। फिर भी बुद्धिजीवी कहे जाने वाले कुछ लोग इसे ढोये जा रहे हैं। आर्यों को भारत से बाहर से आया हुआ कहना व मानना पूर्णतया असत्य कथन व विवके व ज्ञानशून्य मान्यता है। इस पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिये। लोकसभा में भी इसका उल्लेख करने वालों से प्रमाण मांगे जाने चाहिये अन्यथा वह अपना बयान वापिस लें, इस पर बल दिया जाना चाहिये।

 

हम पुनः बलपूर्वक कहना चाहते हैं कि ‘‘आर्य गुणों का सूचक शब्द है, जाति सूचक शब्द नहीं है। श्रेष्ठ गुणों से युक्त वेदों को मानने वाले लोगों को आर्य कहा गया है। यह लोग भारत के मूल निवासी थे। सृष्टि के आरम्भ में इन आर्यों ने ही इस जम्बू दीप स्थित आर्यावत्र्त को वैदिक ज्ञान-विज्ञान से युक्त श्रेष्ठ गुणों को धारण करने वाले आर्यों ने ही बसाया था। यह वह समय था जब संसार में तिब्बत के अतिरिक्त कहीं कोई मनुष्य निवास नहीं करता था, संसार की सारी भूमि मनुष्यों से रहित खाली पड़ी थी। इससे पूर्व भारत में वनवासी, आदिवासी वा द्राविड़ नाम की कोई जाति निवास नहीं करती थी, इसका प्रश्न ही नहीं था क्योंकि यह सृष्टि का आदि काल था। आदिवासी, वनवासी व द्राविड़ आदि शब्दों का रूढि़वादी प्रयोग अर्वाचीन है प्राचीन नहीं। ढूढने पर इनमें अनेक जन्मना जातिसूचक शब्द मिल जायेंगे। जाति सूचक इन शब्दों का प्रचलन सृष्टि की आदि में मनुष्यों की उत्पत्ति के करोड़ों वर्ष तथा महाभारत का युद्ध समाप्त हो जाने के भी कई सौ या हजारों वर्ष बाद आरम्भ हुआ। हम आशा करते हैं कि विवकेशील पाठक हमारे विचारों से सहमत होंगे। हमारा यह भी निवेदन है कि यदि किसी के पास आर्यों के बाहर से आने का कोई पुष्ट प्रमाण हो तो वह प्रस्तुत कर सकते हैं। विदेशियों ने जो कुछ लिखा व कहा, वह अपने स्वार्थ के कारण किया। भारत के किसी प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ वेद, मनुस्मृति, चार ब्राह्मण ग्रन्थों, रामायण, महाभारत, दर्शन ग्रन्थों व उपनिषदों में कहीं नहीं लिखा की आर्य बाहर से आये थे, उन्होंने यहां की किसी प्राचीन जाति पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की, उन्हें दास बनाया आदि। आर्य कोई जाति नहीं अपितु यह शब्द श्रेष्ठ गुणों का सूचक है। अतः विदेशियों का इस बारे में कोई भी प्रमाणहीन कथन स्वीकार नहीं किया जा सकता।

 

महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के अन्त में स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश नाम से अपनी मान्यताओं सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया है जो सभी वेदों पर आधारित होने से सार्वभौमिक, सार्वकालिक एवं सर्वमान्य आर्यश्रेष्ठसिद्धान्त हैं। वह लिखते हैं किजो मतमतान्तर के परस्परर विरुद्ध झगड़े हैं, उन को मैं प्रसन्न नहीं करता क्योंकि इन्हीं मत वालों ने अपने मतों का प्रचार कर मनुष्यों को फंसा के परस्पर शत्रु बना दिये हैं। इस बात को काट सर्व सत्य का प्रचार कर सब को ऐक्यमत में (स्थिर) करा द्वेष छुड़ा परस्पर में दृढ़ प्रीतियुक्त करा के सब से सब को सुख लाभ पहुंचाने के लिये मेरा प्रयत्न और अभिप्राय है। सर्वशक्तिमान् परमात्मा की कृपा सहाय और आप्तजनों की सहानुभूति से यह (ईश्वरप्रदत्त वेदा का ज्ञान) सिद्धान्त सर्वत्र भूगोल (संसार विश्व) में शीघ्र प्रवृत्त हो जावे जिस से सब लोग सहज से धर्म्मार्थ, काम, मोक्ष की सिद्धि करके सदा उन्नत और आनन्दित होते रहें। यही मेरा मुख्य प्रयोजन (उद्देश्य इच्छा) है।आर्यावर्त्त देश का उल्लेख कर महर्षि दयानन्द ने यह भी लिखा है कि इस भूमि का नाम आर्यावर्त्त इसलिये है कि इस में आदि सृष्टि से आर्य लोग निवास करते हैं परन्तु इस की अवधि उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रह्मपुत्रा नदी है। इन चारों के बीच में जितना प्रदेश है उस को आर्यावर्त्तकहते हैं और जो इस आर्यावर्त्त देश में सदा से रहते हैं उन को भी आर्य कहते हैं। महर्षि दयानन्द के विश्व के लिए कल्याणकारी इन विचारों पर विचार करना और इन्हें मानना सभी मनुष्यों का कर्तव्य है।            

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

लाला जीवनदासजी का हृदय-परिवर्तन: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

 

आर्यसमाज के इतिहास से सुपरिचित सज्जन लाला जीवनदास

जी के नाम नामी से परिचित ही हैं। जब ऋषि ने विषपान से देह

त्याग किया तो जो आर्यपुरुष उनकी अन्तिम वेला में उनकी सेवा

के लिए अजमेर पहुँचे थे, उनमें लाला जीवनदासजी भी एक थे।

आपने भी ऋषि जी की अरथी को कन्धा दिया था।

आप पंजाब के एक प्रमुख ब्राह्मसमाजी थे। ऋषिजी को पंजाब

में आमन्त्रित करनेवालों में से आप भी एक थे। लाहौर में ऋषि के

सत्संग से ऐसे प्रभावित हुए कि आजीवन वैदिक धर्म-प्रचार के

लिए यत्नशील रहे। ऋषि के विचारों की आप पर ऐसी छाप लगी कि

आपने बरादरी के विरोध तथा बहिष्कार आदि की किञ्चित् भी

चिन्ता न की। जब लाहौर में ब्राह्मसमाजी भी ऋषि की स्पष्टवादिता

से अप्रसन्न हो गये तो लाला जीवनदासजी ब्राह्मसमाज से पृथक्

होकर आर्यसमाज के स्थापित होने पर इसके सदस्य बने और

अधिकारी भी बनाये गये।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि जब ऋषि लाहौर में पधारे तो

उनके रहने का व्यय ब्राह्मसमाज ने वहन किया था। कई पुराने

लेखकों ने लिखा है कि ब्राह्मसमाज ने यह किया गया व्यय माँग

लिया था।

पंजाब ब्राह्मसमाज के प्रधान लाला काशीरामजी और आर्यसमाज

के एक यशस्वी नेता पण्डित विष्णुदज़जी के लेख इस बात का

प्रतिवाद करते हैं।1

लाला जीवनदासीजी में वेद-प्रचार की ऐसी तड़प थी कि जहाँ

कहीं वे किसी को वैदिक मान्तयाओं के विरुद्ध बोलते सुनते तो झट

से वार्तालाप , शास्त्रार्थ व धर्मचर्चा के लिए तैयार हो जाते। पण्डित

विष्णुदत्त जी के अनुसार वे विपक्षी से वैदिक दृष्टिकोण मनवाकर ही

दम लेते थे। वैसे आप भाषण नहीं दिया करते थे।

अनेक व्यक्तियों ने उन्हीं के द्वारा सम्पादित  और अनूदित वैदिक

सन्ध्या से सन्ध्या सीखी थी।

अपने जीवन के अन्तिम दिनों में पण्डित लेखराम इन्हीं के

निवास स्थान पर रहते थे और यहीं वीरजी ने वीरगति पाई थी।

राजकीय पद से सेवामुक्त होने पर आप अनारकली बाजार

लाहौर में श्री सीतारामजी आर्य लकड़ीवाले की दुकान पर बहुत

बैठा करते थे। वहाँ युवक बहुत आते थे। उनसे वार्ज़ालाप करके

आप बहुत आनन्दित होते थे। बड़े ओजस्वी ढंग से बोला करते थे।

तथापि बातचीत से ही अनेक व्यक्तियों को आर्य बना गये। धन्य है

ऐसे पुरुषों का हृदय-परिवर्तन। 1893 ई0 के जज़्मू शास्त्रार्थ में

आपका अद्वितीय योगदान रहा।

 

महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के दलितोद्धार कार्यों पर स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी का प्रेरणादायक उपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य,

 

सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक सभी वैदिक सनातनधर्मी स्वयं आर्य कहलाने में गौरव का अनुभव करते थे। तब तक हिन्दुओं शब्द का अस्तित्व भी संसार में नहीं था। मुस्लिम  आक्रमणकारियों के भारत आने पर यह शब्द प्रचलित हुआ। समय के साथ वेदों से दूर जाते और पतन की ओर बढ़ रहे आर्य कहलाने वाले बन्धुओं ने इस गौरवपूर्ण शब्द को भुलाकर हिन्दु शब्द को अंगीकार कर लिया। हिन्दुओं में प्राचीन वैदिक काल में गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वर्णव्यवस्था कुछ परिवर्तनों के साथ वर्तमान समय में भी विद्यमान है जो अब गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित न होकर यह प्रथा जन्मना हो गई है। इसके कारण हिन्दू समाज का सार्वत्रिक पतन हुआ है। आर्यसमाज के एक शीर्षस्थ विद्वान स्वामी वेदानन्द सरस्वती इस व्यवस्था के अन्तर्गत दलित बन्धुओं के सुधार पर महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के योगदान पर उपदेश कर रहे हैं और बताते हैं कि तथाकथित शूद्रों की दुर्दशा स्त्रियों से भी अधिक थी। उनमें से बहुसंख्यकों को अस्पृश्य माना जाता था। ऋषि दयानन्द ने उनको उनके सब अधिकार दिलवाए। महान् इतिहासविद् डा. काशीप्रसाद जायसवाल के शब्दों में ‘‘महात्मा बुद्ध से लेकर राजा राममोहनराय तक जिस कार्य (शूद्रोद्धार कार्य) में सफलता प्राप्त कर सके, शास्त्र का आश्रय लेकर दयानन्द ने उसमें अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। स्वामीजी ने इस विषय में केवल उपदेश ही नहीं किये, परन्तु अपने आचारण द्वारा इस कार्य को किया। उदाहरणार्थजब ऋषि उत्तरप्रदेश में विचर रहे थे तो साधुजाति (यह अछूत मानी जाती थी) के एक व्यक्ति ने उन्हें भोजन लाकर दिया। ऋषि दयानन्द ने प्रेमपूर्वक उसका आतिथ्य स्वीकार किया। लोगों ने जब आक्षेप किया कि आपने साधु (एक अछूत) की रोटी खाकर अच्छा नहीं किया तो महाराज ने उन अबोध आक्षेपकत्र्ताओं को प्रेम से बोध दिया कि रोटी तो (अछूत की नहीं अपितु) अन्न की (बनी) थी। यदि वह अपवित्र पदार्थों की बनी हो अथवा पाप की कमाई की हो तो वह निषिद्ध है। वे साधु तो कृषि कर्म करते हैं, परिश्रमी हैं, ये लोग चोरी आदि कुकर्म भी नहीं करते अतः इनके अन्न में कोई दोष नहीं है। (उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में घटी अछूतोद्धार की यह अन्यतम घटना है।)

 

शूद्रों (दलित बन्धुओं) के साथ ऋषि के प्रेम के दृष्टान्त अनेक हैं। आर्यसमाज ने ऋषि के इस उपदेश से यह कार्य कर दिखलाया है कि संसार दंग रह गया है। पंजाब में वशिष्ठों, डोमों, मेघों, बटवालों, ओड़ों, रहतियों का उत्थान करके उनको तथाकथित द्विजों के तुल्य यज्ञोपवीतादि का अधिकार दिया गया। इन जातियों के अनेक जन अब गुरुकुल से स्नातक, शास्त्री, बी0ए0, वकील आदि हैं। उनके उत्थान के लिए आर्यसमाजियों को कितना कष्ट सहन करना पड़ा, उसकी एक-दो घटनाओं के द्वारा एमझा जा सकता है।

 

लाला मुन्शीराम जिज्ञासु (पश्चात महात्मा तत्पश्चात् स्वनामधन्य स्वामी श्रद्धानन्द) ने जालन्धर जिले के रहतियों (ये अछूत माने जाते थे) का जातिप्रवेश संस्कार कराया। इस पर पौराणिक भाई बिगड़ खड़े हुए। उनसे और तो कुछ न बन सका, उन्होंने इनका तथा इस कार्य में इनके सहकारी लाला देवराजजी (जालन्धर के कन्या महाविद्यालय की ख्याति वाले) का सामाजिक बहिष्कार करने का विचार किया। लाला देवराज की गहरी नीति से वह सफल न हो सका। तब उन लोगों ने उन सब पुनः प्रविष्ट आर्यों को सार्वजनिक कूपों (कुओं) से जल लेने से रोक दिया। जालन्धर के राजा माने जानेवाले राय शालिग्राम के सुपुत्र देवराज तथा उनके दामाद लाला मुन्शीराम उनके लिए जल भरकर उनके घरों में पहुंचाते थे। यह दृश्य देख विरोधियों की उद्दण्डता नष्ट हो गई।

 

दूसरी घटना कारुणिक है। रोपड़ अछूतोद्धारकार्य करनेवालों का भी पानी बन्द कर दिया गया था। वे लोग नारहर (नहर) से जल लाते थे। लाला सोमनाथ वहां के एक सम्भ्रान्त आर्य इस कार्य के मुखिया थे। दैवयोग से उनकी वृद्धा माता बीमार पड़ गई। चिकित्सकों ने कहाइसे कुवें का जल पिलाओ। जब तक यह नहर का जल पियेंगी, अच्छी हो सकेंगी। सोमनाथ द्विविधा में पड़ गये। मातृभक्ति ने उन्हें प्रेरणा की कि वे क्षमा मांग लें और इस पुनीत कार्य से विरत हो जाएं। सोमनाथ जी की माता को जब अपने पुत्र की दुर्बलता का ज्ञान हुआ, तब तत्काल उन्हें बुलाकर उस देवी ने कहा‘‘देख ! पुत्र सोमनाथ ! मैं जीवन का सब सुख भेाग चुकी हूं। मुझे अब जीने की चाह नहीं रही। तू यदि मेरे लिए स्वधर्मअछूतोद्धार का परित्याग करेगा, तो मेरे प्राण वैसे ही निकल जाएंगे, अतः तू धर्म से मत गिरियो। सोमनाथ ने माता के उत्साहवर्धक शब्द सुनकर शिथिलता का परित्याग किया। इसमें सन्देह नहीं कि उनको अपनी माता से वंचित होना पड़ा, किन्तु वृद्धा माता सुख एवं शान्ति के साथ मरी। बतलाइए कितनी कठोर तितिक्षा है।

 

एक घटना और भी सुन लीजिए–स्यालकोट जिला में तथा जम्मू रियासत में मेघों की विपुल संख्या बसती थी। मेघ लोग किसी समय जम्मू के राजा थे। डोगरों ने मेघों से जम्मू छीना था। राज्य-भ्रष्ट होकर ये इतने गिरे कि ये अछूत माने जाने लगे। हिन्दू निकालना जानता है, अपने अन्दर डालना नहीं जानता। स्यालकोट के एक आर्य नेता श्री लाला गंगाराम का ध्यान इनकी ओर गया। उन्होंने इनमें कार्य आरम्भ किया और आगे चलकर इनके सुधारकार्य को व्यवस्थित करने के लिए मेघोद्धार सभा की स्थापना की। मेघोद्धार सभा ने स्यालकोट में इनके लिए एक हाईस्कूल स्थापित किया। सरकार से भूमि क्रय करके मुलतान जिला में इनके लिए एक नगर बसाया। इनकी आर्थिक दशा को उन्नत करने के लिए इनमें कई प्रकार के शिल्पों का प्रचार भी किया। वैसे अधिकतर मेघ कृषि तथा वस्त्र-निर्माण का कार्य ही करते हैं। स्यालकोट जिला में जब कार्य सुव्यवस्थित भित्ति पर समझ लिया गया, तो जम्मू के मेघों की ओर सभा का ध्यान गया। जम्मू में पहले भी कार्य हो रहा था। जम्मू के राजपूतों को दयानन्द के सैनिकों का यह पवित्र कार्य न रुचा और उन्होंने इसका विरोध करना आरम्भ किया। विरोध के सभी प्रकार–सामाजिक बहिष्कार आदि प्रयोग में लाये गये, किन्तु ये सब हथियार बेकार सिद्ध हुए। अन्त में राजपूतों ने इस आन्दोलन का, अपने विचार से मूल ही उन्मूलन करने की ठानी। उन्होंने इस आन्दोलन के एक कार्यकत्र्ता महाशय रामचन्द्र पर जम्मू के समीप बटैहरा ग्राम में जबकि वे अपने किसी निजी कार्य पर जा रहे थे, आक्रमण करके लाठियों के बर्बर प्रहारों से जर्जरित करके अपने विचारानुसार मारकर भाग गये। आर्यसामाजिकों को जब इसका ज्ञान हुआ, वे वहां पहुंचे, रामचन्द्रजी को उन्होंने जम्मू के अस्पताल में पहुंचाया, किन्तु रामचन्द्र के भाग्य में अमरता (बलिदान वा शहीदी) बदी थी। वे उन प्रहारों से बच सके।

 

दलितोद्धार के पवित्र कार्य में आई इस प्रकार की कष्टकथाओं की संख्या बहुत बड़ी है। यह सब दयालु देव दिव्य दयानन्द की दया का परिणाम है कि आज दलित वर्ग अपना माथा ऊंचा कर सका है।

 

भारत विभाजन होने पर कुछ-एक स्वार्थी हरिजन नेताओं ने हरिजनों को पापिस्थान में रहने का असत्परामर्श दिया जबकि ये स्वयं भारत में चले आये। मेघों ने अपने ऐसे स्वार्थी नेताओं के परामर्श को ठुकरा दिया और भारत में चले आये। उनमें से पर्याप्त संख्या अलवर जिले में बसी है। उनके धर्मभाव को देखिए। वहां आने पर उन लोगों ने कहाहम पहले अपने मन्दिर तथा कन्या पाठशालाओं के भवनों का निर्माण करेंगे, रहने के घर पीछे बनवाएंगे। आर्यसमाज ने इनके लिए आर्यनगर बसाया। कुएं खुदवाए। इसी प्रकार संयुक्त प्रान्त (पूर्व का उत्तर प्रदेश और वर्तमान में उत्तराखण्ड) में डोमों की शुद्धि के अतिरिक्त नायक जाति का सुधार एक महत्वपूर्ण कार्य हैं। नायक जाति के लोग अपनी कन्याओं का विवाह न करके उन्हें वेश्यावृत्ति अंगीकार करने पर बाध्य करते थे। आर्यसमाज ने उनमें प्रचार करके उस जाति की काया पलट दी है।

यह सब दयालु दयानन्द की दया का मधुर फल है। इस प्रकार भारत के अन्य प्रान्तों में भी दयानन्द की दया ने अपना चमत्कार दिखाया है और अभी तक दिखा रही है।

 

स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी का यह उपदेश आर्यसमाज के सभी अधिकारियों व अनुयायियों सहित देश के सभी दलित भाईयों को भी पढ़ना चाहिये। हम अपने अनुभव के आधार पर यह कहना चाहते हैं कि यदि दलित भाई आर्यसमाज के सिद्धान्तों को अपनायेंगे तो उनका सामाजिक, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आत्मिक, शैक्षिक, नैतिक व आर्थिक, सभी प्रकार का सुधार व उन्नति होगी। आर्यसमाज की वैदिक विचारधारा सिद्धान्त वह पारसमणि है जिसे संसार का कोई भी मनुष्य छूकर साधारण सामान्य स्तर से ऊपर उठकर देवतुल्य मानव बन सकता है और मनुष्य जीवन के श्रेष्ठ प्रमुख उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। हम यह भी बताना चाहते हैं कि आर्यसमाज जन्मना जाति को अस्वीकार करता है। वह जन्मना वर्ण व्यवस्था को मरण व्यवस्था मानता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों सहित सभी दलित भाईयों व स्त्रियों को वेदाध्ययन का अधिकारी मानता है। सबको विद्या के चिन्ह  यज्ञोपवीत सकेंगी प्रदान करता है। वेद एवं वैदिक साहित्य सहित सभी आधुनिक विषयों के आवासीय गुरुकुल शिक्षा पद्धति से अध्ययन का पोषक व समर्थक है। सबको एक समान, निःशुल्क शिक्षा, समान भोजन व वस्त्र दिये जाने के साथ अध्ययन के बाद उनके गुण-कर्म-स्वभावानुसार विवाह का पोषक है। ऐसा करके ही भारत का विश्व का अग्रणीय राष्ट्र बनाया जा सकता है। हम आशा करते हैं कि पाठकों को स्वामी वेदानन्द जी का यह उपदेश पसन्द आयेगा।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

वैदिक पशुबन्ध इष्टि (यज्ञ) का वैज्ञानिक विवेचन (एक संक्षिप्त नोट) – डॉ. पुष्पा गुप्ता

 

श्री आर.बी.एल. गुप्ता बैंक में अधिकारी रहे हैं। आपकी धर्मपत्नी डॉ. पुष्पा गुप्ता अजमेर के राजकीय महाविद्यालय संस्कृत विभाग की अध्यक्ष रहीं हैं। उन्हीं की प्रेरणा और सहयोग से आपकी वैदिक साहित्य में रुचि हुई, आपने पूरा समय और परिश्रम वैदिक साहित्य के अध्ययन में लगा दिया, परिणामस्वरूप आज वैदिक साहित्य के सबन्ध में आप अधिकारपूर्वक अपने विचार रखते हैं।

आपकी इच्छा रहती है कि वैज्ञानिकों और विज्ञान में रुचि रखने वालों से इस विषय में वार्तालाप हो। इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर इस वर्ष वेदगोष्ठी में एक सत्र वेद और विज्ञान के सबन्ध में रखा है। इस सत्र में विज्ञान में रुचि रखने वालों के साथ गुप्त जी अपने विचारों को बाँटेंगे। आशा है परोपकारी के पाठकों के लिए यह प्रयास प्रेरणादायी होगा।

-सपादक

वैदिक पशुबन्ध इष्टि को लेकर भारतीय समाज में अनेक मिथ्या भ्रांतियां उत्पन्न हो गई है।

‘‘वैदिक यज्ञों में पशुओं की बलि दी जाती थी’’ यह सर्वथा मिथ्या भाषण प्रचारित हो रहा हैं।

सर्वप्रथम इस बात को समझना आवश्यक है- ये सृष्टि में होने वाले यज्ञ हैं जो महाप्रलय/प्रलय की अवस्था में प्रजापति द्वारा प्रारभ किये गये थे। महाप्रलय की वैज्ञानिक स्थिति क्या होगी? नासदीय सूक्त उस स्थिति को बता रहा है परन्तु हमारी वैज्ञानिक दृष्टि न होने से हम उस स्थिति की ठीक से कल्पना नहीं कर पा रहे हैं। सलिल अवस्था का अर्थ है- जिसमें सब कुछ लीन हो गया था अर्थात् भौतिक सृष्टि बिल्कुल नष्ट हो गई थी तथा सब कुछ आग्नेय स्थिति में था – करोड़ों डिग्री के तापमान पर केवल ऊर्जा ही ऊर्जा (Heat Energy)थी। सब कुछ ऊर्जा द्वारा ही व्याप्त था इससे इसे आपः अवस्था भी कहा गया। सलिल तथा आपः का अर्थ जल ले लिया जाता है जो कि पूर्णतया मिथ्या अर्थ है।

आधिभौतिक सृष्टि के प्रारंभ करने का मूल सिद्धांत है करोड़ों डिग्री के तापमान में व्याप्त ऊर्जा को संहित कर(Condensation Process) विभिन्न प्रकार की तरंगों एवं मूल भौतिक कणों में परिवर्तित करना तथा परमाणुओं का निर्माण करना। इतने अधिक तापमान पर क्या कोई पशु – अश्व, ऋषभ, गौ आदि हो सकते हैं?

पशु क्या है? शतपथ ब्राह्मण 6.2.1.2-4 के अनुसार अग्नि ने 5 पशुओं – पुरुष, अश्व, गौ, अवि, अज को देखा। यत् पश्यति तस्मात् पशवः। प्रजापति ने इन 5 पशुओं को अग्नि में देखा आश्चर्य है कि ब्राह्मण वचनों पर ध्यान दिये बिना हमने पशुओं का अर्थ आज के लौकिक प्रचलित शदों के आधार पर करके कितना बड़ा अनर्थ कर दिया है?

पशुबन्ध का अर्थ होगा- पशु का बन्धन- पशु को बांधना(Bonding of Animal) – आश्चर्य है कि पशु बन्ध को – पशुवध कहके  बहुत ही सरल हास्यास्पद अर्थ कर दिया गया- पशु का वध करना (Killing of Animal)यही अर्थ वैदिक पशु बन्ध यज्ञ के यथार्थ अर्थ को न समझने के कारण भ्रांतियां पैदा कर रहा है। कुछ ब्राह्मणों / विद्वानों ने – पशुबन्ध के स्थान पर पशुवध करके वेदों के वास्तविक अर्थ का अनर्थ ही कर दिया ।

पचति क्रिया का अर्थ कर दिया पशु को पकाना परंतु यह तात्पर्य यहाँ नहीं हैं। पचति का अर्थ पचाना किसको? करोड़ों डिग्री की ऊर्जा को संहित करना। अश्व का अर्थ अश्नुते अर्थात् व्याप्त करना। पुरुष – जो पुर में शयन करता है। अर्थात् जो भी भौतिक कण या तरंग का निर्माण होगा उसका केन्द्रीय बिन्दु। गौ गति का प्रतीक है। अवि रक्षा करने के अर्थ में है। अज अजन्मा((Heat Energy)है। प्रजापति ने इन 5 पशुओं को अर्थात् 5 गुण धर्मों को अग्नि में देखा।

शमिता से अभिप्राय है शमन करने वाला। त्वष्टा रूप अग्नि ही शमिता है जो पशुओं को तराश करके एक निश्चित रूप (आकृति) में लाता है – अत्यधिक ताप की ऊर्जा का शमन करते हुए, काट-छाँट कर एक निश्चित प्रकार की प्रकाश तरंग को बनाना। ब्राह्मण वचन है- पशु अग्नि है , पशु छंद है। छंद अर्थात् तरंग(ङ्खड्डक्द्ग)। वैज्ञानिक दृष्टि से एक निश्चित प्रकाश तरंग को 5 गुणों से जाना जाता है –

(1) तरंग दैर्घ्य (Wave Length) (2) तरंग का विस्थापन (Amplitude) (3) आवृत्ति (Frequency) (4) काल (Time Period) (5) वेग (Velocity) ये 5 अवयव (गुणधर्म)ही एक तरंग का निर्धारण करते हैं। पशु बन्ध प्रक्रिया में कुल 11 पशुओं का उल्लेख पशु एकादशिनी के रूप में मिलता है। अर्थात् सृष्टि करते समय प्रजापति ने 11 प्रकार की तरंगों का निर्माण किया था।

शमिता द्वारा विशसन करने का अर्थ – पशु को मारना नहीं है अपितु अग्नि को संहित एवं शमित करते हुए – पशु रूप (छंदरूप) तरंग को  निश्चित आकृति प्रदान करना है।

पशु का संज्ञपन करना – सं ज्ञपन- सयक् रूप से पशु को पहचान लेना अर्थात् जिस प्रकार की आकृति प्रजापति पशु की चाहता था, वह आकृति बन गयी है।

पशु बन्ध प्रक्रिया में आप्री सूक्त का पाठ किया जाता है। अर्थात् प्रजापति की ‘‘रिरिचान् इव आत्मा’’ को आप्यातित करना। अन्त में स्वाहकृत आहुति दी जाती है। स्वाहकृत प्रतिष्ठा है। स्वाहकृत का तात्पर्य है कि – ‘‘सु आहुतं हविः जुहोति’’। तात्पर्य यह है कि प्रजापति जिस प्रकार की तरंग (पशु) का निर्माण करना चाहता था वह कार्य पूरा हो गया।

पशु बन्ध में चार प्रकार की आहुतियाँ दी जाती हैं – (1) वपा आहुति (2) आज्य आहुति (3) अग्नया आहुति (4) सोम आहुति। वपा रेतः रूप है। आज्य देवों का प्रिय धाम हैं। पशु आज्य हैं। रेतः आज्य है। अनेक ब्राह्मण वचन स्पष्ट बताते हैं कि आज्य का, घृत का, हवि के जो प्रचलित अर्थ है, वह वैदिक अर्थ नहीं हो सकता । आज्य, घृत, हवि, पयः, मधु आदि जितने भी शद वेदों में प्रयुक्त हैं – जिनकी अग्नि में आहुति दी जाती है – ये विभिन्न प्रकार के अत्यधिक लघु मात्रा में अग्नि को संहित एवं शमित कर बनाये गये भौतिक कण ((Quantas, Photones)  हैं जो दशपूर्णमास, चार्तुमास्य यज्ञ प्रक्रियाओं में निर्मित किये गये थे।

अग्नि एवं सोम – उष्णता एवं शीत के प्रतीक हैं। करोड़ों डिग्री तापमान पर जब ऊर्जा संहित हुई तो जो स्थान ऊष्मा के संहित होने से खाली हो गया वह स्थान सोमात्मक अर्थात् उस तापमान की तुलना में काफी ठण्डा हो गया। एक उदाहरण – दस करोड़ डिग्री तापमान पर, एक लाख घन मीटर ऊर्जा (Heat Energy) को यदि संहित करके – एक घन मीटर में इकट्ठा कर दिया जाये तो 99 हजार घन मीटर आकाश रिक्त हो जायेगा – सोमात्मक हो जायेगा तथा संहित ऊर्जा को और आगे संहित करेगा तथा शम् करेगा अर्थात् तापमान क ो कम करेगा।

इससे यह स्पष्ट है कि पशु बन्ध यज्ञ द्वारा प्रजापति ने 11 प्रकार के पशुओं अर्थात् तरंगों का निर्माण किया था। पशु को मारना या पशु की बलि देना यह एकदम मिथ्या है तथा वैदिक अर्थ के सर्वथा प्रतिकूल है।

– 176 आदर्श नगर, अजमेर

जाओ, अपनी माँ से पूछकर आओ: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

जाओ, अपनी माँ से पूछकर आओ

 

देश-विभाजन से बहुत पहले की बात है, देहली में आर्यसमाज

का पौराणिकों से एक ऐतिहासिक शास्त्रार्थ हुआ। विषय था-

‘अस्पृश्यता धर्मविरुद्ध है-अमानवीय कर्म है।’

पौराणिकों का पक्ष स्पष्ट ही है। वे छूतछात के पक्ष पोषक थे।

आर्यसमाज की ओर से पण्डित श्री रामचन्द्रजी देहलवी ने वैदिक

पक्ष रखा। पौराणिकों की ओर से माधवाचार्यजी ने छूआछात के

पक्ष में जो कुछ वह कह सकते थे, कहा।

माधवाचार्यजी ने शास्त्रार्थ करते हुए एक विचित्र अभिनय

करते हुए अपने लिंग पर लड्डू रखकर कहा, आर्यसमाज छूआछात

को नहीं मानता तो इस अछूत (लिंग) पर रखे  इस लड्डू

को उठाकर खाइए।

 

इस पर तार्किक शिरोमणि पण्डित रामचन्द्र जी देहलवी ने

कहा, ‘‘चाहे तुम इस अछूत पर लड्डू रखो और चाहे इस ब्राह्मण

(मुख की ओर संकेत करते हुए कहा) पर, मैं लड्डू नहीं खाऊँगा,

परन्तु एक बात बताएँ। जाकर अपनी माँ से पूछकर आओ कि तुम

इसी अछूत (लिंग) से जन्मे हो अथवा इस ब्राह्मण (मुख)

से?’’

 

पण्डित रामचन्द्रजी देहलवी की इस मौलिक युक्ति को सुनकर

श्रोता मन्त्र-मुग्ध हो गये। आर्यसमाज का जय-जयकार हुआ। पोंगा

पंथियों को लुकने-छिपने को स्थान नहीं मिल रहा था। इस शास्त्रार्थ

के प्रत्यक्षदर्शी श्री ओमप्रकाश जी कपड़ेवाले मन्त्री, आर्यसमाज नया

बाँस, दिल्ली ने यह संस्मरण हमें सुनाया। अन्धकार-निवारण के

लिए आर्यों को  क्या क्या  सुनना पड़ा।

 

पुराणों के अग्राह्य विधानों पर स्वामी दयानन्द व स्वामी वेदानन्द के उपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

मनुष्य का जीवन सत्य व असत्य को जानकर सत्य का पालन व आचरण करने तथा असत्य का त्याग करने का नाम है। परमात्मा ने मनुष्यों को वेदों का ज्ञान व बुद्धि सत्यासत्य के निर्णयार्थ वा विवेक के लिए ही दी है जिसका सभी को सदुपयोग करना चाहिये। जो नहीं करता वह मनुष्य संज्ञक कहलाने का अधिकारी नहीं है। सच्चे साधु, महात्मा, ऋषि व महर्षि सदा से अल्प बुद्धि व अविवेकी लोगों को अपने ज्ञान व अनुभवों से लाभान्वित करते चले आ रहे हैं। महर्षि दयानन्द व उनके शिष्य स्वामी वेदानन्द तीर्थ ने भी इस परम्परा का निर्वाह किया है। आज इस लेख में स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी का उपदेश प्रस्तुत है। वह कहते हैं कि ‘‘शैवों को पूर्ण निष्ठावान् शैव बनने के लिए अनेक व्रतोपवास करने पड़ते हैं। शैवों को ही क्यों , वैष्णव आदि सम्प्रदायों में भी व्रतोपवास का माहात्मय बहुत अधिक है। सच पूछो तो इन मतों के आचार्यों ने ऐसी व्यवस्था बांध दी है कि वर्ष के (365) दिनों से भी अधिक उपवास के दिन हैं। एकादशी का दिन तो सभी सम्प्रदायवालों (शैव, वैष्णव व अन्य) को उपवास के लिए इष्ट है। हां, कभी-कभी स्मार्तों (शैवों) तथा वैष्णवों की एकादशी का दिन एक नहीं होता। एक की दशमी तथा दूसरे की एकादशी, अर्थात् एक की एकादशी तो दूसरे की द्वादशी तिथि होती है। भाव यह है कि किस दिन एकादशी का व्रत होना चाहिए, इस विषय में भी यह साम्प्रदायिक परस्पर झगड़ा करते हैं। उसका स्वामी दयानन्द ने अपने ग्रन्थरत्न सत्यार्थप्रकाश में इस प्रकार चित्र खींचा है-‘देखों ! शिवपुराण में त्रयोदशी, सोमवार, आदित्यपुराण में रवि, चन्द्रखण्ड में सोमग्रहवाले मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनैश्चर, राहु, केतु के, वैष्णव एकादशी, वामन की द्वादशी, नृसिंह वा अनन्त की चतुर्दशी, चन्द्रमा की पूर्णमासी, दिक्पालों की दशमी, दुर्गा की नवमी, वसुओं की अष्ठमी, मुनियों की सप्तमी, कार्तिक स्वामी की षष्ठी, नाग की पंचमी, गणेश की चतुर्थी, गौरी की तृतीया, अश्विनीकुमार की द्वितीया, आद्या देवी की प्रतिपदा, और पितरों की अमावस्या, पुराणरीति से ये दिन उपवास करने के हैं। और सर्वत्र यही लिखा है कि जो मनुष्य इन वार और तिथियों में अन्नपान ग्रहण करेगा, वह नरकगामी होगा। अब पोप और पोप जी के चेलों को चाहिए कि वे किसी वार अथवा किसी तिथि में भोजन करें, क्योंकि जो भोजन पान किया तो नरकगामी होंगे। अब निर्णय-सिन्धु, धर्मसिन्धु, व्रतार्क आदि ग्रन्थ जो कि प्रमादी लोगों के बनाये हैं उन्हीं में एक व्रत की ऐसी दुर्दशा की है कि जैसे एकादशी की शैव दशमीविद्धा, कोई द्वादशी में एकादशी व्रत करते हैं अर्थात् क्या बड़ी विचित्र पोपलीला है कि भूखे मरने में भी वादविवाद ही करते हैं। जिसने एकादशी का व्रत चलाया है उसमें उसका स्वार्थपन ही है और दया कुछ भी नहीं। वे कहते हैं-एकादश्यामन्ने पापानि वसन्ति अर्थात् जितने पाप हैं वे सब एकादशी के दिन अन्न में बसते हैं। इन पोप जी से पूछना चाहिए कि किसके पाप बसते हैं, तेरे व तेरे पिता आदि के? जो सब के सब पाप एकादशी में जा बसें तो एकादशी के दिन किसी को दुःख न रहना चाहिए। ऐसा तो नहीं होता, किन्तु उलटा क्षुधा आदि से दुःख होता है। दुःख पाप का फल है। इससे भूखे मरना पाप है। इसका बड़ा महात्म्य बतलाया है, जिसकी कथा बांच के बहुत ठगे जाते हैं। उसमें एक गाथा है कि–

 

‘‘ब्रह्मलोक में एक वेश्या थी। उसने कुछ अपराध किया। उसको शाप हुआ कि वह पृथिवी पर गिरे। उसने बहुत स्तुति की कि मैं स्वर्ग में क्योंकर आ सकूंगी? उसको कहा कि जब कभी एकादशी के व्रत का फल तुझे कोई देगा तभी तू स्वर्ग में आ जाएगी। वह विमान सहित किसी नगर में गिर पड़ी। वहां के राजा ने उससे पूछा कि तू कौन है? तब उसने सब वृत्तान्त सुनाया और कहा कि जो कोई मुझको एकादशी का फल अर्पण करे तो मैं फिर भी स्वर्ग को जा सकती हूं। राजा ने नगर में खोज कराई। कोई भी एकादशी का व्रत करनेवाला न मिला। किन्तु एक दिन किसी शूद्र स्त्री-पुरुष में लड़ाई हुई थी। क्रोध से स्त्री दिन-रात भूखी रही थी। दैवयोग से उस दिन एकादशी थी। उस स्त्री ने कहा कि मैंने एकादशी जानकर तो नहीं की, अकस्मात् उस दिन भूखी रह गई थी ऐसा (उसने) राजा के सिपाहियों से कहा। तब तो वे उसको राजा के सामने ले आये। उससे राजा ने कहा कि तू इस विमान को छू। उस स्त्री ने विमान को छुआ, उसके छूने से उसी समय विमान ऊपर को उड़ गया। यह बिना जाने एकादशी के व्रत का फल है। जो जान (कर के एकादशी का व्रत करे तो उसके) फल का क्या पारावार है।

 

”वाह रे आंख के अन्धे लोगो ! जो यह बात सच्ची हो तो हम एक पान की बीड़ी जो स्वर्ग में नहीं होती, वहां भेजना चाहते हैं। सब एकादशीवाले अपना फल हमें दे दो। जो एक पान का बीड़ा ऊपर को चला जाएगा तो पुनः लाखोंकरोड़ों पान वहां भेजेंगे और हम भी एकादशी किया करेंगे और जो ऐसा होगा तो तुम लोगों को इस भूखे मरनेरुप आपत्काल से बचावेंगे। (पुराणों में) इन चैबीस एकादशियों का नाम पृथक्-पृथक् रखा है। किसी का धनदा, किसी का कामदा, किसी का पुत्रदा, किसी का निर्जला। बहुत-से दरिद्र, बहुत-से कामी और बहुत-से निर्वंशी (अर्थात् बिना सन्तान वाले) लोग एकादशी करके बूढ़े हो गये और मर भी गये परन्तु धन, कामना और पुत्र प्राप्त न हुआ। और ज्येष्ठ महीने के शुक्लपक्ष में जिसमें यदि एक घड़ी भर जल न पावे तो मनुष्य व्याकुल हो जाता है और व्रत करनेवालों को महादुःख प्राप्त होता है। विशेष-बंगाल में सब विधवा स्त्रियों की एकादशी के दिन बड़ी दुर्दशा होती है। इस निर्दयी कसाई (व्रतों का विधान करने वाले) को लिखते समय कुछ भी मन में दया न आई। नहीं तो निर्जला का नाम सजला और पौष महीने के शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम निर्जला रख देता तो भी कुछ अच्छा होता। परन्तु इस पोप को दया से क्या काम?‘ कोई जीवे या मरे, पोपजी का पेट पूरा भरो।’ किसी गर्भवती वा नवविवाहित स्त्री, लड़के व युवा पुरुषों को तो कभी उपवास न करना चाहिए, परन्तु किसी को करना भी हो तो जिस दिन अजीर्ण हो, क्षुधा न लगे उस दिन शर्करावत् शर्बत व दूध पीकर रहना चाहिए। जो भूख में नहीं खाते और बिना भूख के भोजन करते हैं, वे तीनों रोग-सागर में गोते खा दुःख पाते हैं। इन प्रमादियों (पुराणों में व्रतों के विधायकों) के कहने-लिखने का प्रमाण कोई भी न करे।” (सत्याथप्रकाश एकादश समुल्लास)

 

व्रत की निस्सारता दिखलानेवाला यह सन्दर्भ स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी ने ऋषि बोध कथा में प्रसंगानुसार उद्धृत किया है। पुराणों में जहां व्रतों के बारे में इस प्रकार की स्वास्थ्य के लिए हानिकर का अनावश्यक कष्टदायक अनैतिहासिक मिथ्या व कल्पित कथायें वर्णित हैं वहीं उसकी अन्य सभी मान्यतायें भी विवेकशील पाठकों के लिए विचारणीय हैं। किसी बात को बिना सत्यासत्य का विचार किये स्वीकार कर लेना बुद्धि का अपमान है। पुराणों की तरह अन्य मतों में भी अव्यवहारिक व अनुपयोगी नाना प्रकार के विधान हैं। सभी मतों के विवकेशील लोगों को उनका आचरण करने के पहले अनेक बार उनके औचीत्य पर विचार करना चाहिये। हम आशा करते हैं कि पाठक पुराणों के उपर्युक्त विधानों को सत्यासत्य व गुणावगुण की कसौटी पर कर कर सत्य को ग्रहण कर उसका अपने जीवन में व्यवहार करेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘संसार के सभी मनुष्यों के पूर्वज एक थे व वैदिक धर्मानुयायी थे’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

सृष्टि का यह अनिवार्य नियम है कि इसमें मनुष्य की उत्पत्ति वा जन्म माता-पिताओं से ही होता है। माता-पिता के बिना शिशु रूप में मनुष्य का जन्म असम्भव है। अतः इससे यह सिद्ध होता है मनुष्य के माता-पिता अवश्य होते हैं। इस सिद्धान्त के आधार पर मनुष्य के पूर्वज सृष्टि के आरम्भ काल से ही होते चले आ रहे हैं। आज हमें यह ज्ञात नहीं है कि तीन चार पीढ़ी पहले हमारे पूर्वज कौन-कौन थे, परन्तु यह सुनिश्चित है कि वह अवश्य थे। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं सृष्टि से आरम्भ पूर्वजों की श्रृंखला कभी टूटी नहीं है। भविष्य में भी जो मनुष्य होंगे उनके माता-पिता अवश्य होंगे और आजकल के कोई न कोई मनुष्य ही उनके पूर्वज होंगे। इस सिद्धान्त को सम्मुख रखकर जब हम मत-मतान्तरों के इतिहास पर विचार करते हैं तो आज संसार के प्रमुख मतों सिख, इस्लाम, ईसाई, अद्वैतमत, बौद्ध, जैन, यहूदी व पारसी मत पर विचार करते हैं तो हमें लगता है कि इन-इन मतों की स्थापना से पूर्व इन मतों के पूर्वज कदापि इन मतों की मान्यताओं व सिद्धान्तों को मानने वाले लोग नहीं थे। उनका मत इनसे कुछ भिन्न अवश्य था जिस कारण इन मतों की स्थापना होकर यह अस्तित्व में आये हैं।

 

अब हम न मतों के पूर्वजों के भी पूर्वजों पर जब विचार करते हैं तो यह क्रम सृष्टि के आरम्भ पर जाकर समाप्त होता है। सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने सृष्टि की रचना पूर्ण होने व इस पृथिवी का वातावरण मनुष्यों के अनुकूल व अनुरूप स्थिति में आने पर ही ईश्वर ने मनुष्यों को उत्पन्न किया था। तर्क, युक्ति व ऊहा से ज्ञात होता है कि यह सृष्टि ईश्वर ने अमैथुनी अर्थात् बिना माता-पिता के की थी। सभी मनुष्य युवावस्था में उत्पन्न किये गये थे क्योंकि यदि शिशु रूप में होते तो उनके पालन करने के लिए माता-पिता की आवश्यकता होती और यदि वृद्धावस्था में ईश्वर इन्हें उत्पन्न करता तो फिर संसार का क्रम अवरुद्ध हो जाता। अतः यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि सृष्टि की आदि में ईश्वर द्वारा की गई दैवीय सृष्टि अमैथुनी थी और उन मनुष्यों का माता-पिता व आचार्य ईश्वर ही था। इससे यह निष्कर्ष सामने आते हैं कि ईश्वर ने अत्यन्त सूक्ष्म प्रकृति के परमाणुओं से इस ब्रह्माण्ड व सृष्टि की रचना की, उसके बाद जंगम अर्थात् प्राणि-जगत पशु-पक्षी-कीट-पतंग-थलचर-जलचर सभी को उत्पन्न किया और ईश्वर की इस क्रम की अन्तिम रचना मनुष्यों की उत्पत्ति थी। सृष्टि की रचना से ईश्वर ज्ञानवान वा सर्वज्ञ सिद्ध होता है। अतः उसके द्वारा मनुष्यों को ज्ञान मिलता सम्भव कोटि में आता है। अतः सृष्टि के आदि काल में सभी मनुष्यों का माता-पिता सहित विद्या का दान देने वाला आचार्य भी ईश्वर ही होता है। इसी बात को योगदर्शन के ऋषि पतंजलि ने भी स्वीकार किया है। ईश्वर ने सृष्टि की आदि में मनुष्यों को किस प्रकार का ज्ञान दिया था? इस पर विचार करने और शास्त्रों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि यह ज्ञान वेद था अर्थात् ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार यह ज्ञान क्रमशः अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा नाम के चार ऋषियों को दिया गया था जिन्होंने इसका अन्य सभी मनुष्यों, स्त्री व पुरुषों में प्रचार किया। यह परम्परा 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार एक सौ पन्द्रह वर्ष पूर्व सृष्टि के आदि काल से आरम्भ होकर लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत काल तक विद्यमान रही। इसको विस्तार से जानने के लिए सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं इतर वैदिक साहित्य का अध्ययन किया जाना अपेक्षित है।

 

हमारे बहुत से बन्धु यह भी प्रश्न कर सकते हैं कि जब संसार के सभी मनुष्यों का आदि स्थान प्राचीन आर्यावत्र्त भारत का तिब्बत स्थान था और उनकी भाषा एक संस्कृत थी तो फिर संसार की अलगअलग भाषायें क्यों हैं? इसका कारण विचार करने पर भिन्न-भिन्न देशों की भौगोलिक स्थिति, वहां के शब्दोच्चारण में भेद, काल की दूरी, परस्पर के संबंधों में देश व काल की दूरी की शिथिलता आदि अनेक कारण हैं। हम यह भी देखते हैं कि उत्तराखण्ड व निकटवर्ती राज्यों के ही गढ़वाल, कुमायु, जौनसार, सहारनपुर, पंजाब, हरियाणा व हिमाचल में भिन्न भिन्न प्रकार की बोलियां बोली जाती हैं। हमारे अपने एक देश भारत में ही एक सौ से अधिक बोलियां व भाषायें बोली जाती हैं। हमारे परिवार का ही यदि कोई व्यक्ति विदेश चला जाता है, वहां रहता है, एक दो पीढि़यां वहां उत्पन्न होती हैं, वह जब अपने परिवार सहित भारत आते हैं तो वह सहज रूप से अपने माता-पिता व भारत में अपने परिवार की भाषा बोलने में असहज होते हैं। हमने देहरादून के रैफल होम में विदेशी बन्धुओं को यहां के स्थानीय बच्चों के साथ सम्पर्क अर्थात् बातचीत करते हुए देखा है। विदेशी यद्यपि अपने देश की भाषा बोलते हैं परन्तु फिर भी बच्चे उसे ध्यान से सुनते हैं और किसी रोचक प्रसंग के आने पर दोनों ही खिलाखिला कर हंस भी पड़ते हैं। हमें लगता है कि जब आत्मा से कोई बात कही जाती है तो उस भाषा से इतर भाषी लोग जानने की इच्छा से उस बोलने वाले वक्ता के कुछ व अधिक आशय व अभिप्राय को अपनी क्षमतानुसार समझ जाते हैं। अतः मनुष्यों के दूर-दूर देशों में जाकर बसने, वहां की भौगोलिक स्थिति व नई पीढि़यों के उच्चारण आदि में कुछ भेद होने तथा संगति के कारण भाषायें बनती बिगड़ती रहती हैं। भाषा के आधार पर यह नहीं कह सकते कि हमारे आदि प्राचीन पूर्वज एक नहीं थे।

 

इस सम्बन्ध में यह विचार करना भी आवश्यक है कि सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने मनुष्यों की उत्पत्ति किसी एक ही स्थान पर की व एक से अधिक स्थानों पर की? उपलब्ध प्रमाण, तर्क व युक्ति से यह एक स्थान पर हुई ही सिद्ध होती है। प्राचीन शास्त्रों के प्रमाणों से यह स्थान तिब्बत सिद्ध होता है। महर्षि दयानन्द ने भी अपने जीवनकाल (1825-1883) में देश भर में उपलब्ध प्रायः समस्त ग्रन्थों का अध्ययन किया था जिसका निष्कर्ष था कि मनुष्यों की उत्पत्ति 1,96,08,53,115 (यह गणना वर्तमान समय 13 दिसम्बर, 2015 की है) हुई थी। इस प्रमाण का विरोधी कोई पुष्ट प्रमाण न होने के कारण संसार के सभी लोगों के लिए यही मान्यता स्वीकार करने योग्य है। तिब्बत में बड़ी संख्या में स्त्री व पुरुषों की उत्पत्ति होने व ऋषियों को चार वेदों का ज्ञान मिलने, उन ऋषियों द्वारा उस ज्ञान का ब्रह्मा आदि ऋषियों व सभी मनुष्यों में प्रचार करने से सृष्टि का क्रम विगत 1 अरब 96 करोड़ वर्षों में निरन्तर आगे बढ़ता रहा है। आरम्भ के कुछ काल व कुछ पीढि़यों तक लोग तिब्बत में रहे। उनमें से कुछ जिजीविषा व परस्पर के अच्छे-बुरे संबंधों के कारण समय-समय पर नये स्थानों की खोज कर वहां जाकर बसते रहे। इसी प्रकार से यह सारा संसार बसा व आबाद हुआ है। आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। मनुष्यों का परस्पर स्वभाव भी भिन्न-भिन्न होता है। बहुत से यायावर प्रकृति के भी होते हैं जो नय-नये स्थानों पर आने व जाने की रूचि वाले होते हैं। महर्षि दयानन्द ने भी किसी शास्त्र व ग्रन्थ के आधार पर पूना में सन् 1874 में दिये अपने प्रवचनों में यह बताया था कि अति प्राचीन काल में आदि मनुष्य आर्यों ने विमानों का निर्माण कर लिया था। वह विमान में अपने कुछ मित्रों के साथ देश-देशान्तरों में भ्रमण किया करते थे। उनकों जहां कोई स्थान पसन्द आ जाता तो अपने परिवार व इष्ट-मित्रों को वहां ले जाकर बसा देते थे। उनके अनुसार इस प्रकार से ही संसार बसा है। युक्तियों से भी यही सिद्ध होता है। यह सिद्धान्त मान्यता पूर्णतया तर्क पर आधारित है। अकाट्य तर्क ही सत्य होता है, अतः इस मान्यता के सत्य होने में किसी सन्देह का कोई कारण नहीं है।

 

इस लेख के माध्यम से हमारा यह निवेदन है कि इस तथ्य को सभी मत-मतान्तरों के वर्तमान आचार्यों व उनके अनुयायियों को जानना व समझना चाहिये। यह जानकर कि संसार के हम सभी लोगों के पूर्वज वैदिक धर्मी आर्य थे हमें परस्पर एक दूसरे से प्रे़म व मित्रता पूर्वक एक परिवार की ही तरह व्यवहार करना चाहिये। वैदिक संस्कृति के पूर्वजों ने वसुधैव कुटुम्बकम् अर्थात् सारा विश्व एक परिवार है, कहकर भी इसी तथ्य को प्रस्तुत किया है। क्या वर्तमान समय में प्रचलित सभी मत-मतान्तरों किंवा धर्म व धर्मों के आचार्य इस तथ्य को स्वीकार कर परस्पर भगिनी-बन्धु, मित्र व एक परिवार जैसा व्यवहार करने पर विचार करेंगे और इसकी शिक्षा अपने अपने मत के अनुयायियों को देंगे जिससे विश्व से सर्वत्र अशान्ति व दुःख दूर होकर सुख व शान्ति का वातावरण बन कर सभी के जीवन परस्पर हितकारी व कल्याणीकारी हो सकें।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

देखें तो पण्डित लेखराम को क्या  हुआ? प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

 

पण्डितजी के बलिदान से कुछ समय पहले की घटना है।

पण्डितजी वज़ीराबाद (पश्चिमी पंजाब) के आर्यसमाज के उत्सव

पर गये। महात्मा मुंशीराम भी वहाँ गये। उन्हीं दिनों मिर्ज़ाई मत के

मौलवी नूरुद्दीन ने भी वहाँ आर्यसमाज के विरुद्ध बहुत भड़ास

निकाली। यह मिर्ज़ाई लोगों की निश्चित नीति रही है। अब पाकिस्तान

में अपने बोये हुए बीज के फल को चख रहे हैं। यही मौलवी

साहिब मिर्ज़ाई मत के प्रथम खलीफ़ा बने थे।

पण्डित लेखरामजी ने ईश्वर के एकत्व व ईशोपासना पर एक

ऐसा प्रभावशाली व्याख्यान  दिया कि मुसलमान भी वाह-वाह कह

उठे और इस व्याख्यान को सुनकर उन्हें मिर्ज़ाइयों से घृणा हो गई।

पण्डितजी भोजन करके समाज-मन्दिर लौट रहे थे कि बाजार

में एक मिर्ज़ाई से बातचीत करने लग गये। मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद

अब तक कईं बार पण्डितजी को मौत की धमकियाँ दे चुका था।

बाज़ार में कई मुसलमान इकट्ठे हो गये। मिर्ज़ाई ने मुसलमानों को

एक बार फिर भड़ाकाने में सफलता पा ली। आर्यलोग चिन्तित

होकर महात्मा मुंशीरामजी के पास आये। वे स्वयं बाज़ार

गये, जाकर देखा कि पण्डित लेखरामजी की ज्ञान-प्रसूता, रसभरी

ओजस्वी वाणी को सुनकर सब मुसलमान भाई शान्त खड़े हैं।

पण्डितजी उन्हें ईश्वर की एकता, ईश्वर के स्वरूप और ईश की

उपासना पर विचार देकर ‘शिरक’ के गढ़े से निकाल रहे हैं।

व्यक्ति-पूजा ही तो मानव के आध्यात्मिक रोगों का एक मुख्य

कारण है।

यह घटना महात्माजी ने पण्डितजी के जीवन-चरित्र में दी है

या नहीं, यह मुझे स्मरण नहीं। इतना ध्यान है कि हमने पण्डित

लेखरामजी पर लिखी अपनी दोनों पुस्तकों में दी है।

यह घटना प्रसिद्ध कहानीकार सुदर्शनजी ने महात्माजी

के व्याख्यानों  के संग्रह ‘पुष्प-वर्षा’ में दी है।

 

ईश्वरीय ज्ञान: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

 

अपनी मृत्यु से पूर्व स्वामी रुद्रानन्द जी ने ‘आर्यवीर’ साप्ताहिक

में एक लेख दिया। उर्दू के उस लेख में कई मधुर संस्मरण थे।

स्वामीजी ने उसमें एक बड़ी रोचक घटना इस प्रकार से दी।

 

आर्यसमाज का मुसलमानों से एक शास्त्रार्थ हुआ। विषय था ईश्वरीय

ज्ञान। आर्यसमाज की ओर से तार्किक शिरोमणि पण्डित श्री रामचन्द्रजी

देहलवी बोले। मुसलमान मौलवी ने बार-बार यह युक्ति दी कि

सैकड़ों लोगों को क़ुरआन कण्ठस्थ है, अतः यही ईश्वरीय ज्ञान है।

पण्डितजी ने कहा कि कोई पुस्तक कण्ठस्थ हो जाने से ही ईश्वरीय

ज्ञान नहीं हो जाती। पंजाबी का काव्य हीर-वारसशाह व सिनेमा के

गीत भी तो कई लोग कण्ठाग्र कर लेते हैं। मौलवीजी फिर ज़ी यही

रट लगाते रहे कि क़ुरआन के सैकड़ों हाफ़िज़ हैं, यह क़ुरआन के

ईश्वरीय ज्ञान होने का प्रमाण है।

 

श्री स्वामी रुद्रानन्दजी से रहा न गया। आप बीच में ही बोल

पड़े किसी को क़ुरआन कण्ठस्थ नहीं है। लाओ मेरे सामने, किस

को सारा क़ुरआन कण्ठस्थ है।

 

इस पर सभा में से एक मुसलमान उठा और ऊँचे स्वर में

कहा-‘‘मैं क़ुरआन का हाफ़िज़ हूँ।’’

स्वामी रुद्रानन्दजी ने गर्जकर कहा-‘‘सुनाओ अमुक आयत।’’

वह बेचारा भूल गया। इस पर एक और उठा और कहा-‘‘मैं

यह आयत सुनाता हूँ।’’ स्वामीजी ने उसे कुछ और प्रकरण सुनाने

को कहा वह भी भूल गया। सब हाफ़िज़ स्वामी रुद्रानन्दजी के

सज़्मुख अपना कमाल दिखाने में विफल हुए। क़ुरआन के ईश्वरीय

ज्ञान होने की यह युक्ति सर्वथा बेकार गई।