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मिर्ज़ा गुलाम अहमद कादियानी की शालीनता

मिर्ज़ा  गुलाम अहमद  कादियानी  और  उसकी उम्मत  लगातार ये कहती  आयी है कि  पण्डित लेखराम की वाणी अत्यन्त तेज  व  असभ्य थी . मिर्ज़ा  गुलाम अहमद  और  न ही उसके चेले  आज तक  इस  सन्दर्भ में कोई  प्रमाण प्रस्तुत  कर पाए हैं . इसके विपरीत मिर्ज़ा  गुलाम अहमद स्वयम कहता है कि पण्डित लेखराम  सरल  स्वाभाव  के थे :

‘ वह अत्यधिक  जोश के होते हुए भी अपने स्वभाव से सरल था ”
सन्दर्भ- हकीकुत उल वही पृष्ट  -२८९ ( धर्मवीर पण्डित लेखराम – प्र राजेन्द्र जिज्ञासु)

मिर्ज़ा गुलाम अहमद और उनके चेले तो धर्मवीर पण्डित लेखराम जी के वो शब्द तो न दिखा सके न ही दिखा सकते हैं क्योंकि झूठ के पांव नहीं होते .

आइये आपको मिर्ज़ा गुलाम अहमद की भाषा की शालीनता के कुछ नमूने उनकी ही किताबों से देते हैं :

 

रंडियों की औलाद  

” मेरी इन किताबों को हर मुसलमान  मुहब्बत  की नजर से देखता है और उसके इल्म से फायदा उठाता है और मेरी अरु मेरी दावत के हक़ होने की गवाही देता है और इसे काबुल करता है .

किन्तु रंडियों (व्यभिचारिणी औरतों ) की औलादें मेरे हक़ होने  की गवाही नहीं देती ”

– आइन इ कमालाते  इस्लाम पृष्ट -५४८ लेखक – मिर्जा गुलाम अहमद प्रकाशित सब १८९३ ई

 

हरामजादे

” जो हमारी जीत का कायल नहीं होगा , समझा जायेगा कि उसको हरामी (अवैध संतान ) बनने का शौक हिया और हलालजादा (वैध संतान ) नहीं है .”

– अनवारे इस्लाम पृष्ट -३० , लेखक – मिर्ज़ा गुलाम अहमद कादियानी प्रकाशित – सन १८९४ ई

मर्द सूअर  और औरतें  कुतियाँ

” मेरे  विरोधी जंगलों के सूअर हो गए और उनकी  औरतें  कुतियों से बढ़ गयीं ”

– जज्जुल हुदा पृष्ठ – १० लेखक  मिर्ज़ा  गुलाम अहमद  कादियानी प्रकाशित – १९०८ ई

जहन्नमी

मिर्ज़ा जी बयान करते हैं :

‘ जो व्यक्ति मेरी पैरवी नहीं करेगा और मेरी जमाअत में दाखिल नहें होगा वह खुदा और रसूल की नाफ़रमानी करने वाला है जहन्नमी है ”

– तबलीग रिसालत पृष्ट – २७ , भाग – ९

मौलाना मुहम्मद अब्दुर्रउफ़ “कादियानियत की हकीकत” में लिखते हैं कि मानो कि तमाम मुसलमान जो मिर्ज़ा गुलाम अहमद के हक़ होने की गवाही न तो वह जहन्नमी और हरामजादे , जंगल के सूअर और रण्डियों की औलादें हैं और मुसलमान औरतें हरामजादियां रंडियां (वैश्याएँ) और जंगल की कुतियाँ और जहन्नमी हैं

– पृष्ट -५४, प्रकाशन – २०१०

 

मिर्ज़ा गुलाम अहमद की भाषा शैली किस स्तर तक गिरी हुयी थी ये उसके चुनिन्दा नमूने हैं अन्यथा भाषा की स्तर इस कदर गिरा हुआ है कि हम उसे पटल पर रखना ठीक नहीं समझते .

समझदारों के लिए इशारा ही काफी है .

 

Pandit Lekhram gave Mirza Ghulam Ahmad a very hard time for a number of years. He would respond to the latter’s challenges, and would show up to meet him, and also wrote in an equally tough, though more civil tone, but nevertheless very sarcastic.  Here references are given of sarcastic & unplished tone of Mirza Ghulam Ahamd

 

 

देखें तो पण्डित लेखराम को क्या  हुआ? प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

 

पण्डितजी के बलिदान से कुछ समय पहले की घटना है।

पण्डितजी वज़ीराबाद (पश्चिमी पंजाब) के आर्यसमाज के उत्सव

पर गये। महात्मा मुंशीराम भी वहाँ गये। उन्हीं दिनों मिर्ज़ाई मत के

मौलवी नूरुद्दीन ने भी वहाँ आर्यसमाज के विरुद्ध बहुत भड़ास

निकाली। यह मिर्ज़ाई लोगों की निश्चित नीति रही है। अब पाकिस्तान

में अपने बोये हुए बीज के फल को चख रहे हैं। यही मौलवी

साहिब मिर्ज़ाई मत के प्रथम खलीफ़ा बने थे।

पण्डित लेखरामजी ने ईश्वर के एकत्व व ईशोपासना पर एक

ऐसा प्रभावशाली व्याख्यान  दिया कि मुसलमान भी वाह-वाह कह

उठे और इस व्याख्यान को सुनकर उन्हें मिर्ज़ाइयों से घृणा हो गई।

पण्डितजी भोजन करके समाज-मन्दिर लौट रहे थे कि बाजार

में एक मिर्ज़ाई से बातचीत करने लग गये। मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद

अब तक कईं बार पण्डितजी को मौत की धमकियाँ दे चुका था।

बाज़ार में कई मुसलमान इकट्ठे हो गये। मिर्ज़ाई ने मुसलमानों को

एक बार फिर भड़ाकाने में सफलता पा ली। आर्यलोग चिन्तित

होकर महात्मा मुंशीरामजी के पास आये। वे स्वयं बाज़ार

गये, जाकर देखा कि पण्डित लेखरामजी की ज्ञान-प्रसूता, रसभरी

ओजस्वी वाणी को सुनकर सब मुसलमान भाई शान्त खड़े हैं।

पण्डितजी उन्हें ईश्वर की एकता, ईश्वर के स्वरूप और ईश की

उपासना पर विचार देकर ‘शिरक’ के गढ़े से निकाल रहे हैं।

व्यक्ति-पूजा ही तो मानव के आध्यात्मिक रोगों का एक मुख्य

कारण है।

यह घटना महात्माजी ने पण्डितजी के जीवन-चरित्र में दी है

या नहीं, यह मुझे स्मरण नहीं। इतना ध्यान है कि हमने पण्डित

लेखरामजी पर लिखी अपनी दोनों पुस्तकों में दी है।

यह घटना प्रसिद्ध कहानीकार सुदर्शनजी ने महात्माजी

के व्याख्यानों  के संग्रह ‘पुष्प-वर्षा’ में दी है।

 

पं. पद्मसिंह शर्मा जी की दृष्टि में पं. लेखराम साहित्यः- प्रा लेखराम

आर्यसमाजी पत्रों के लेखकों का एक प्रिय विषय है ‘हिन्दी भाषा और आर्यसमाज परन्तु भूलचूक से भी कभी किसी ने यह नहीं लिखा कि आर्य विचारक, दार्शनिक, समीक्षक, पं. पद्मसिंह जी शर्मा सपादक परोपकारी के पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें हिन्दी का सर्वोच्च पुरस्कार मंगलाप्रसाद सबसे पहले दिया गया। आप साहित्य समेलन प्रयाग के प्रधान पद को भी सुशोभित करने का गौरव प्राप्त कर पाये। जब ‘कुल्लियाते आर्य मुसाफिर’ के नये संस्करण को सपादित करने का गौरवपूर्ण दायित्व आर्यसमाज के मनीषियों ने मुझे सौंपा तो पं. लेखराम जी विषयक असंय लेख व अनगिनत पुस्तकें मेरे मस्तिष्क में घूमने लगीं।

मन में आया कि आचार्य उदयवीर जी तथा मुंशी प्रेमचन्द जी सरीखे विद्वानों व साहित्यकारों के निर्माता पं. पद्मसिंह जी शर्मा की पं. लेखराम के पाण्डित्य तथा साहित्य पर पठनीय गभीर टिप्पणी आर्य जनता की सेवा में रखी जाये। पं. शान्तिप्रकाश जी, पं. देवप्रकाश जी, ठाकुर अमरसिंह जी तथा शरर जी आदि के पश्चात् पूज्य पं. लेखराम जी के साहित्य का तलस्पर्शी ज्ञान रखने वालों का अकाल-सा पड़ गया है।

ऋषि के अन्तिम काल की चर्चा करते हुए पं. पद्मसिंह जी लिखते हैं कि इसके कुछ समय पश्चात् मिर्जा गुलाम अहमद ने हिन्दू धर्म पर और विशेष रूप से आर्यसमाज पर नये सिरे से आक्रमण करने आरभ किये। कादियानी मियाँ के आक्रमणों का समुचित उत्तर श्रीमान् पं. लेखराम जी ने दिया और ऐसा दिया कि बायद व शायद (जैसा देना चाहिये था- अनूठे ढंग से)।

फिर लिखा है, ‘‘पं. लेखराम जी के पश्चात् इस शान की, इस कोटि की यह एक ही पुस्तक (चौदहवीं का चाँद) निकली है, जिस पर अत्यन्त गौरव किया जा सकता है।’’

यह भी क्या अनर्थ है कि आर्यसमाज के बेजोड़ साहित्यकार का अवमूल्यन करने के लिए कुछ तत्त्व समाज में घुस गये हैं। उनके ऋषि जीवन को तो ‘विवरणों का पुलिंदा’ घोषित कर अपमानित किया और सहस्रों जनों को धर्मच्युत होने से बचाने वाले उनके साहित्य को अपने पोथी-पोथों से कहीं निचले स्तर का….। अधिक क्या लिखें।

परोपकारी के ऐसे-ऐसे कृपालु पाठकः- ‘परोपकारी’ पाक्षिक की प्रसार संया कभी कुछ सौ तक सीमित थी। आज देश के प्रत्येक भाग के यशस्वी समाजसेवी, जाति रक्षक, विचारक, वैज्ञानिक, गवेषक (अन्य-अन्य मतावलबी भी) सैंकड़ों की संया में परोपकारी के नये अंक की प्रतिक्षा में पोस्टमैन की राह में पलके बिछाये रहते हैं। इसके लिए सपादक जी तथा सभा का अधिकारी वर्ग बधाई का पात्र है। आचार्य धर्मेन्द्र जी, देश के गौरव युवा वैज्ञानिक डॉ. बाबूराव जी, डॉ. हरिश्चन्द्र जी, देश के वयोवृद्ध ज्ञानवृद्ध आयुर्वेद के उपासक, उन्नायक व रक्षक 92 वर्षीय डॉ. स.ल. वसन्त जी तो इस आयु में केवल गायत्री जप, उपासना व वेद का स्वाध्याय करते हैं। आप सोमदेव जी, धर्मवीर जी, स्वामी विष्वङ् जी तथा इस सेवक को पत्र लिखते ही रहते हैं। आपने अभी-अभी एक पत्र में लिखा है, ‘‘परोपकारी में आपके स्थायी स्तभ ‘कुछ तड़प-कुछ झड़प’ पढ़े बिना आनन्द नहीं आता।’’

पाठकों को बता दें कि डॉ. वसन्त जी गुजरात, म.प्र., राजस्थान, हरियाणा में ऊँचे पदों पर रहकर आयुर्वेद की सेवा कर चुके हैं। आप यशस्वी आर्य नेता, आर्य सपादक, तपस्वी स्वाधीनता सेनानी लाला सुनामराय जी के दामाद हैं। परोपकारी को ऐसा संरक्षक मिला है। यह बहुत गौरव का विषय है।

ऋषि ने तब क्या कहा था?ः- ईसाइयों, मुसलमानों से शास्त्रार्थ के लिए हिन्दुओं ने आमन्त्रित किया था। आत्म रक्षा के लिए तब हिन्दुओं को ऋषि की शरण लेनी पड़ी थी। मुसलमानों ने ऋषि के सामने प्रस्ताव रखा कि हम और आप दोनों मिलकर गोरे पादरियों से टक्कर लें। परस्पर की बातचीत फिर हो जायेगी, पहले इनको हराया जाये। महर्षि ने कहा कि सत्य न स्वदेशी है न विदेशी होता है। हम सत्यासत्य के निर्णय के लिए यहाँ शास्त्रार्थ करने आये हैं, हार-जीत के लिए नहीं।

पाखण्ड कहीं भी हो, पाखण्ड अंधविश्वास कोई भी व्यक्ति फैलावे उसका खण्डन करना आर्यत्व है। आर्यसमाज पर बाहर वाले प्रहार करें तो ‘तड़प-झड़प’ परमोपयोगी है और कोई नामधारी आर्यसमाजी वैदिक सिद्धान्त विरुद्ध कुछ लिखे व कहे तो उसे कुछ न कहो। इससे आर्यसमाज के उस व्यक्ति की अपकीर्ति होती है। यह क्या दोहरा मापदण्ड नहीं है? आर्यसमाज के अपयश व हानि की तो चिन्ता नहीं। अमुक व्यक्ति गुरुकुल का पढ़ा हुआ है। कोई बात नहीं शिवजी की बूटी आदि का पान करने का समर्थक है। यह क्या वैदिक धर्म प्रचार है? ऋषि दयानन्द सिद्धान्तों का बट्टा-सट्टा अदला-बदली नहीं जानते थे।

– वेद सदन, अबोहर, पंजाब-152116

ऐसे थे पण्डित लेखराम : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

 

मास्टर गोविन्दसहाय आर्य समाज अनारकली लाहौर के लगनशील सभासद थे

श्री मास्टर जी पर पण्डित जी का गहरा प्रभाव था . आप पण्डित लेखराम की शूरता की एक घटना सुनाया करते थे

एक दिन किसी ने पण्डित जी को सुचना दी कि लाहौर की बादशाही मस्जिद में एक हिन्दू लड़की को शुक्रवार के दिन बलात मुसलमान बनाया जायेगा

लड़की को कुछ दुष्ट पहले ही अपहरण करके ले जा चुके थे . यह सुचना पाकर पण्डित जी बहुत दुखी ही . देवियों का अपहरण व बलात्कार उनके लिए असह्य था . वे इसे मानवता के विरुद्ध एक जघन्य अपराध मानते थे . पण्डित जी की आँखों में खून उतर आया ..

पण्डित जी ने मास्टर गोविन्दसहाय जी से कहा “चलिए , मास्टर जी हम आज रात्रि ही उस लडकी को खोजकर लावेंगे “

बृहस्पतिवार को सायंकाल के समय दोनों मस्जिद में गए . लड़की वही पाई गयी .लड़की से कहा : चलो हमारे साथ .

वह साथ चल पडी . वहां उस समय कुछ मुसलमान उपस्थित थे परन्तु किसी को भी पण्डित जी के मार्ग में बाधक बनने का दुस्साहस न हुआ. धर्म प्रचार व जाति रक्षा के लिए वे प्रतिपल जान जोखिम में डालने के लिए तैयार  रहते थे . यह घटना श्री मास्टर गोविन्दसहाय जी ने दिवंगत वैदिक विद्वान वैद्य रामगोपाल जी को सुनाई थी. श्री महात्मा हंसराज जी भी पण्डित जी के जीवन की इस प्रेरक घटना की चर्चा किया करते थे

पं० लेखराम की विजय: स्वामी श्रद्धानन्द जी

श्री मिर्जा गुलाम अहमद कादयानी ने अप्रेल १८८५ ईस्वी में एक विज्ञापन के द्वारा भिन्न भिन्न सम्प्रदायों के विशिष्ट व्यक्तियों को सूचित किया कि दीने इसलाम की सच्चाई परखने के लिए यदि कोई प्रतिष्ठत व्यक्ति एक वर्ष के काल तक मेरे पास क़ादयान में आ कर निवास करे तो मैं उसे आसमानी चमत्कारों का उसकी आँखों से साक्षात् करा सकता हूं । अन्यथा दो सौ रुपए मासिक को गणना से हरजाना या जुर्माना दूँगा ।

इस पर पं० लेखराम जी ने चौबीस सौ रुपए सरकार में जमा करा देने की शर्त के साथ स्वीकृति दी । उस समय वह आर्यसमाज पेशावर के प्रधान थे ।

मिर्ज़ा जी ने इस पर टालमटोल से कार्य करते हुए क़ादयान, लाहौर, लुध्याना, अमृतसर और पेशावर के समस्त आर्य सदस्यों की अनुमति की शर्त लगा दी कि वह पं० लेखराम जी को अपना नेता मानकर उनके आसमानी चमत्कार देख लेने के साथ ही उनके सहित ननुनच के बिना दीनें इसलाम को स्वीकार करने की घोषणा करें । जब कि स्वयं मिर्ज़ा जी ने स्वीकार किया है कि “वह आर्यों का एक बड़ा एडवोकेट और व्याख्यान दाता था ।”

“वह अपने को आर्य जाति का सितारा समझता था और आर्य जाति भी उसको सितारा बताती थी ।”

अन्ततः मिर्ज़ा जी ने चौबीस सो रूपये सरकार में सुरक्षित न करा कर केवल पं० जी को दो तीन दिन के लिए कादयान आने का निमन्त्रण दिया और साथ ही चौबीस सौ रूपये सरकार में सुरक्षित कराने की शर्त पं० जी के लिए बढ़ा दी जिससे चमत्कार स्वीकृति से इन्कार की अवस्था में वह रूपए मिर्ज़ा जी प्राप्त कर सकें । पं० जी ने इस शर्त को स्वीकार कर लिया और लिखा कि जो आसमानी चमत्कार आप दिखायेंगे, वह कैसा होगा ? उसका निश्चय पूर्व हो जाए । क्या कोई दूसरा सूर्य दिखाओगे कि जिस का उदय पश्चिम और अस्त पूर्व में होगा ? अथवा चांद के दो टुकड़े करने के चमत्कार को दोहराएंगे ? अर्थात् पूर्णिमा की रात्रि को चन्द्रमा के दो खण्ड हो जावें और अमावस्या की रात्रि को पूर्णिमा की भान्ति पूर्ण चन्द्र का उदय हो जावे । इसमें जो चमत्कार दिखाना सम्भव हो, इसकी तिथि और चमत्कार दिखाने का समय निश्चित किया जाए जिसे जनता में प्रसिद्ध कर दिया जाए ।

किन्तु मिर्ज़ा जी इस स्पष्ट और भ्रमरहित नियम को स्वीकार न कर सके । इसका उत्तर देना और स्वीकार करना इनके लिए असम्भव हो गया । स्वीकार किया कि हम यह शर्त पूरी नहीं कर सकते और न ऊपर लिखे चमत्कार दिखा सकते हैं । किन्तु हमें ज्ञात नहीं कि क्या कुछ प्रगट होगा या न होगा ? और इस आकस्मिक आपत्ति से पीछा छुड़ाना चाहा ।”

अन्ततः पं० जी ने मिर्ज़ा जी को लिखा किः—

“बस शुभ प्रेरणा के विचार से निमन्त्रण दिया जाता है …. वेद मुकद्दस पर ईमान लाईये । आप को भी यदि दृढ़ सत्यमार्ग पर चलने की सदिच्छा है तो सच्चे हृदय से आर्य धर्म को स्वीकार करो । मनरूपो दर्पण को स्वार्थमय पक्षपात से पवित्र करो । यदि शुभ सन्देश के पहुंचने पर भी सत्य की ओर (ञ) ध्यान न दोगे तो ईश्वर का नियम आपको क्षमा न करेगा …. और जिस प्रकार का आत्मिक, धार्मिक अथवा सांसारिक सन्तोष आप करना चाहें—सेवक उपस्थित और समुद्यत है ।

पत्र प्रेषकः—

लेखराम अमृतसर ५ अगस्त १८८५ ईस्वी

इस अन्तिम पत्र का उत्तर मिर्ज़ा जी की ओर से तीन मास तक न आया । तब पं० जी ने एक पोस्ट कार्ड स्मरणार्थ प्रेषित किया । उसके उत्तर में मिर्ज़ा जी का कार्ड आया कि क़ादयान कोई दूर तो नही है । आकर मिल जाएं । आशा है कि यहां पर परस्पर मिलने से शर्ते निश्चित हो जाएंगी ।

इस प्रकार से पं० जी की विजय स्पष्ट है जिसे कोई भी नहीं छिपा सकता । मिर्ज़ा जी के पत्रानुसार अन्ततः पं० जी क़ादयान पहुंचे । वहां दो मास तक रहने पर भी मिर्जा जी किसी एक बात पर न टिक सके । क़ादयान में दो मास ठहर कर वहां आर्यसमाज स्थापित करके चले आए । आर्य-समाज कादयान की स्थापना हुई तो मिर्ज़ा जी के चचेरे भाई मिर्ज़ा इमाम दीन और मुल्लां हुसैना भी आर्यसमाज के नियम पूर्वक सदस्य बने । मिर्ज़ा जी ने भी पं० जी को दो मास तक कादयान निवास को स्वीकार किया है ।

पं० जी ने कादयान में रह कर मिर्जा जी को उनके वचनानुसार आसमानी चमत्कार दिखाने के लिए ललकारा और लिखा कि आप अच्छी प्रकार स्मरण रखें कि अब मेरी ओर से शर्त पूरी हो गी । सत्य की ओर से मुख फेर लेना बुद्धिमानों से दूर है । ५ दिसम्बर १८८५ ईस्वी

मिर्ज़ा जी ने आसमानी चमत्कार दिखाने के स्थान पर आर्य धर्म और इसलाम के दो तीन सिद्धान्तों पर शास्त्रार्थ करने का बहाना किया । अन्य शर्ते निश्चित करने का भी लिखा । जिस पर पं० ने लिखा कि मेरा पेशावर से चलकर कादयान आने का प्रयोजन केवल यही था और अब तक भी इस आशा पर यहां रह रहा हूं कि आपके चमत्कार = प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध कार्य, करामात व इलहामात और आसमानी चिह्नों का विवेचन करके साक्षात करूं । और इससे पूर्व कि किसी अन्य सिद्धान्त पर शास्त्रार्थ किया जाए यह चमत्कार दर्शन की बात एक प्रतिष्ठित लोगों की सभा में अच्छी प्रकार निर्णीत हो जानी चाहिए । और इसके सिद्ध कर सकने में यदि आप अपनी असमर्थता बतावें तो शास्त्रार्थ करने से भी मुझे किसी प्रकार का इन्कार नहीं ।

तीसरा और चौथा पत्र

पुनः पं० जी ने तीसरे पत्र में लिखा कि ….. मुझे आज यहां पच्चीस दिन आए हुए हो गए है । मैं कल परसों तक जाने वाला हूं । यदि शास्त्रार्थ करना है तो भी, यदि चमत्कार दिखाने के सम्बन्ध में नियम निश्चित करने है तो भी शीघ्रता कीजिए । अन्यथा पश्चात मित्रों में फर्रे मारने का कुछ लाभ न  होगा । किन्तु बहुत ही अच्छा होगा कि आज ही स्कूल के मैदान में पधारें । शैतान, सिफारिश, चांद के टुकड़े होने के चमत्कार का प्रमाण दें । निर्णायक भी नियत कर लीजिए । मेरी ओर से मिर्ज़ा इमामदीन जी (मिर्जा जी के चचेरे भाई) निर्णायक समझें । यदि इस पर भी आपको सन्तोष नहीं है तो ईश्वर के लिए चमत्कारों के भ्रमजाल से हट जाइए । १३ दिसम्बर १८८५ ईस्वी

पं० जी ने चतुर्थ पत्र में मिर्ज़ा जी को पूर्ण बल के साथ ललकारा और लिखा कि ….. आप सर्वथा स्पष्ट बहाना, टालमटोल और कुतर्क कर रहे है । मिर्ज़ा साहब ! शोक ! ! महाशोक ! ! ! आप को निर्णय स्वीकार नही है । किसी ने सत्य कहा है किः-

 

(ट)

उजुरे नामआकूल साबितमेकुनद तक़स़ीर रा ।

बुद्धिशून्य टालमटोल तो जुर्म को ही सिद्ध करता है ।

इसके अतिरिक्त आप द्वितीय मसीह होने का दावा करते हैं । इस अपने दावा को सिद्ध कर दिखाइए । (लेखराम कादयान ९ बजे दिन के)

अन्ततोगत्वा मिर्ज़ा जी ने समयाभाव और फारिग न होने का बहाना किया । जिससे पं० जी को दो मास कादयान रहकर लौट आना पड़ा ।

जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि मिर्ज़ा  जी ने पं० लेखराम जी की भावना शुद्ध न होने का भी बहाना किया है । यह दोषारोपण हक़ीकतुल्वही पृष्ठ २८८ से खंडित हो जाता है । क्योंकि वहां उनके स्वभाव में सरलता का स्वीकरण स्पष्ट विद्यमान है । इस पर भी अहमदी मित्र यदि पं० लेखराम जी की पराजय और श्री मिर्ज़ा जी की विजय का प्रचार करते और ढ़ोल बजाकर अपने उत्सवों में घोषणा करते है तो यह उनका साहस उनकी अपनी पुस्तकों और मिर्जा जी के लेखों के ही विरुद्ध है । यदि पं० का वध किया जाना आसमानी चमत्कार समझा जाए तो भी ठीक नहीं । क्योंकि आसमानी चमत्कार दिखाने का समय एक वर्ष के अन्दर सीमित था । और इसके साथ पं० लेखराम जी के इसलाम को स्वीकार करने की शर्त बन्धी हुई थी जैसा कि मिर्ज़ा जी के विज्ञापन में लिखा गया था । इन दोनों बातों के पूरना न होने के कारण पं० जी की विजय सूर्य प्रकाशवत् प्रगट है क्योंकि मिर्ज़ा जी ने स्वयं लिखा है किः—

“यह प्रस्ताव न अपने सोच विचार का परिणाम है किन्तु हज़रत मौला करीम (दयालु भगवान्) की ओर से उसकी आज्ञा से है । ………इस भावना से आप आवेंगे तो अवश्य इन्शाअल्लाह (यदि भगवान चाहे) आसमानी चमत्कार का साक्षात् करेंगे । इसी विषय का ईश्वर की ओर से वचन हो चुका है जिसके विरुद्ध भाव की सम्भावना कदापि नहीं ।” तब्लीगे रसालत जिल्द १ पृ० ११-१२

शर्त निश्चित न हो सकने के कारण पं० जो को कादयान से वापिस लौटना पड़ा । इसका प्रमाण पं० जी और मिर्जा जी की पुस्तकों से प्रगट है ।

पं० जी ने लिखा ही तो है किः—

” ……… अन्ततोगत्वा मिर्ज़ा साहब ने एक वर्ष रहने की शर्त को भी धनाभाव के कारण बहाना साजी, क्रोध और छल कपट से टाल दिया । बाधित होकर मैं दो मास कादयान रहकर और वहां आर्य-समाज स्थापित करके चला आया ।”

इशतहार सदाकत अनवार में श्री मिर्ज़ा जी ने पं० लेखराम जी के कादयान में आकर दो मास ठहरने और शर्तें निश्चित न हो सकने का उल्लेख किया है । अतः अहमदी मित्रों को ननुनच के बिना स्वीकार कर लेने में संकोच न करना चाहिए कि आगे के घटना चक्र में हत्या का विषय चमत्कार का परिणाम नहीं किन्तु इस पराजय का परिणाम ही है जिसे भविष्यवाणी का नाम दे दिया गया है । किन्तु सत्य तो अन्ततोगत्वा सत्य ही है कि श्री मिर्ज़ा साहब सुनतानुल्क़लम (मिर्जा जी का इलहाम सुनतानुल्क़लम का है । अतः वह अपने को क़लम का बादशाह मानते थे) की लेखनी से सत्य का प्रकाश हुए बिना न रह सका । और पं० लेखराम जी के वध को केवल हत्या नहीं प्रत्युत बलिदान अर्थात् शहीद मान लिया । देखिये स्पष्ट लिखा है किः—

 

(ठ)

“सो आसमानों और जमीन के मालिक ने चाहा कि लेखराम सत्य के प्रकाश के लिए शहीद हुए हैं । शहीद शब्द अरबी भाषा का है । अतः मिर्ज़ा जी ने इसका पर्यायवाची शब्द बलिदान रखा है । वेद में अंग-२ कटा कर धर्म प्रचार की सच्चाई प्रमाण देने वाले मनुष्य को अमर पदवी की प्राप्ति होती है । इसकी मुक्ति में कोई सन्देह नहीं रहता । क़ुरान शरीफ़ में भी शहीदों, सत्य पर मिटने वालों को जीवित कहा है । जिनके लिए न कोई भय और न कोई शोक है । खुदा के समीप इनका पद उच्च से उच्च है ।

पं० लेखराम की शहादत पर संसार ने साक्षी दी कि उनका धर्म सत्य और वह सत्य के प्रचारक थे । स्वयं श्री मिर्ज़ा जी ने पं० जी के बलिदान से पूर्व वेदों को नास्तिक मत का प्रतिपादक घोषित किया था ।

नास्तिक मत के वेद हैं हामी ।

बस यही मुद्आ (प्रयोजन) है वेदों का ।।

किन्तु पं० लेखराम आर्य पथिक के महा बलिदान के पश्चात् स्पष्ट रूप से घोषणा की जब कि मिर्ज़ा जी के दिवंगत होने में चार दिन शेष थे । अतः यह उनका अन्तिम लेख और अहमदी मित्रों के लिए यह उनकी अन्तिम वसीयत है कि वह भी श्री मिर्ज़ा की भान्ति पं० जी को सच्चा शहीद और वेद मुगद्दस को पूर्ण ईश्वरीय ज्ञान स्वीकार करें ।

मिर्ज़ा जी ने अपनी अन्तिम पुस्तक में घोषणा की है— यह पूज्य पं० जी की ईश्वर से सच्चे मन से की गई प्रार्थना का परिणाम है जो इस प्रकार है किः—

………..हे परमेश्वर ! हम दोनों में सच्चा निर्णय कर और जो तेरा सत्य धर्म है उसको न तलवार से किन्तु प्यार से तर्क संगत प्रकाश से जारी कर और विधर्मी के मन को अपने सत्य ज्ञान से प्रकाशित कर जिस से अविद्या, पक्षपात, अत्याचार और अन्याय का नाश हो । क्योंकि झूठा सच्चे की भान्ति तेरे सम्मुख प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं कर सकता ।” नुसखा (निदान) १८८८ ईस्वी

मिर्जाजी की प्रार्थना असफल

पं० जी की प्रार्थना से पूर्व मिर्ज़ा जी ने भी अपने विचार तथा मन्तव्य़ के अनुसार ईश्वर से प्रार्थना की थी । जो निम्न प्रकार हैः—

“……. ऐ मेरे जब्वारो कहार खुदा ! यदि मेरा विरोधी पं० लेखराम कुरआन को तेरा कलाम (वाणी) नहीं मानता । यदि वह असत्य पर है तो उसे एक वर्ष के अन्दर अजाब (दुःख) की मृत्यु दे ।”             सुरमा सन् १८८६ ईस्वी

मिर्ज़ा जी ने १८८६ ईस्वी में पं० जी के विरुद्ध ईश्वर से उन के लिये दुःखपूर्ण मौत मारने की प्रार्थना की । किन्तु यह प्रार्थना वर्ष भर बीत जाने पर भी स्वीकार नहीं हुई । अतः मिर्ज़ा जी के प्रार्थना के शब्दों में कुरान शरीफ़ ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध न हो सका । किन्तु पं० लेखराम जी ने मिर्जा जी की प्रार्थना का एक वर्ष बीत जाने पर और उस प्रार्थना के विफल सिद्ध होने पर १८८८ ईस्वी में अपनी आर्यों की गौरव पूर्ण प्रार्थना परमात्मा के समक्ष सच्चे एकाग्र मन से लिखी । जिस में एक वर्ष की अवधि की शर्त नही थी । जीवन भर में किसी समय भी इस प्रार्थना की आपूर्ति सम्भव थी जो परमात्मा की कृपा से पूर्ण सफल हुई । अतः वेद के ईश्वरीय ज्ञान होने तथा पं० जी के सत्य सिद्ध होनेमें कोई सन्देह न रहा ।

इसलमा की परिभाषा में इसी का नाम “मुकाबला” है । जो दो भिन्न विचारवान् व्यक्ति भीड़ के सम्मुख शपथ पूर्वक परमात्मा से प्रार्थना करते हैं । मिर्ज़ा जी ने अन्तिम निर्णय के लिए मुकाबला की प्रस्तावना रखी थी और उस की विस्त़ृत प्रार्थना लिख कर छाप दी थी । चाहे नियम पूर्वक मुकाबला नहीं हुआ । किन्तु उस की रसम पूरी मान ली जाए । तो मिर्ज़ा जी की पराजय और आर्य गौरव पं० जी की विजय स्पष्ट सिद्ध है ।

पं० जी की प्रार्थना यह है कि “विधर्मी (मिर्ज़ा जी) के मन में सत्य ज्ञान का प्रकाश कर ।”

परमात्मा ने इसे स्वीकार किया और मिर्ज़ा जी धीरे-२ वैदिक धर्म के सिद्धान्तों के निकट आते चले गये । प्रथम मिर्ज़ा जी ने जीव तथा प्रकृति को नित्य स्वीकार किया । पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर ईमान लाए । स्वर्ग, नरक के इसलामिक सिद्धांत को परिवर्तित किया । जिहाद की समाप्ति की घोषणा की । अन्त में अपनी मृत्यु से चार दिन पूर्व ” पैगामे सुलह” (शान्ति का सन्देश) नामी पुस्तक लिखी जिस में अपने वैदिक धर्मी होने की घोषणा इन शब्दों में कीः—

(१) “हम अहमदी सिलसिला के लोग सदैव वेद को सत्य मानेंगे । वेद और उस के ऋषियों की प्रतिष्ठा करेंगे तथा उन का नाम मान से लेंगे ।”

(२) “इस आधार पर हम वेद की ईश्वर की ओर से मानते है और उस के ऋषियों को महान् और पवित्र समझते है ।

(३) ” तो भी ईश्वर की आज्ञानुसार हमारा दृढ़ विश्वास है कि वेद मनुष्य की रचना नहीं है । मानव रचना में यह शक्ति नहीं होती कि कोटि मनुष्यों को अपनी ओर खेंच ले और पुनः नित्य का क्रम स्थिर कर दे ।”

(४) “हम इन कठिनाईयों के रहते भी ईश्वर के भय से वेद को ईश्वरीय वाणी जानते हैं और जो कुछ उस की शिक्षा में भूलें हैं वह वेद के भाष्यकारों की भूले समझते हैं ।”

इस से  सिद्ध हुआ कि वेद की कोई भूल नहीं । वेद के वाम मार्गी भाष्यकारों की भूल है ।

(५) मैं वेद को इस बात से रहित समझता हूं कि उस ने कभी अपने किसी पृष्ठ पर ऐसी सिक्षा प्रकाशित की हो जो न केवल बुद्धिविरुद्ध और शून्य हो किन्तु ईश्वर की पवित्र सत्ता पर कंजूसी और पक्षपात का दोष लगाती हो ।”

अतः वेद का ज्ञान ही तर्क की कसौटी पर उत्तीर्ण है और बुद्धि विरुद्ध नहीं तथा ईश्वर की दया से पूर्ण है क्योकि ईश्वर में कंजूसी नहीं । आरम्भ सृष्टि में आया है कि जिस से सब के कल्याण के लिए हो और किसी के साथ ईश्वर का पक्षपात न हो ।

(६) “इस के अतिरिक्त शान्ति के इच्छुक लोगों के लिए यह एक प्रसन्नता का स्थान है कि जितनी इसलाम में शिक्षा पाई जाती है । वह वैदिक धर्म की किसी न किसी शाखा प्रशाखा में विद्यमान है ।”

(ढ़)

अतः सिद्ध हुआ कि इसलाम संसार में कोई पूर्ण धर्म का प्रकाश नहीं कर सकता । क्योंकि उसकी सिक्षा तो अधूरी है । वह तो वैदिक धर्म की शाखा प्रशाखा में पूर्व से लिखी हुई है । वास्तव में तो वेद का धर्म ही पूर्ण और भूलों से रहित होने से परम पावन है ।

परमात्मा आर्यावर्त, पाक, इसलामी देशों और संसार भर के अमहदी  मि6 तथा अन्य सभी लोगों को यह सामर्थ्य प्रदान करें कि वह अपने मनों को पवित्र करके स्वार्थ और पक्षपात की समाप्ति के साथ सत्य सिद्धान्त युक्त वेद के धर्म को पूर्णतः स्वीकार करें । पं० लेखराम जी ने भगवान् से यही प्रार्थना सच्चे हृदय और पवित्र मन से की ।

इस प्रार्थना की पुष्टि के लिए उन्होंने अपना जीवन वैदिक धर्म की बलिवेदी पर स्वाहा कहकर आहुत कर दिया । और सच्चे धर्म की सच्ची शहादत अपने खून से दे दी । जिस का प्रभाव यह हुआ कि मिर्ज़ा गुलाम अहमद के विचार परिवर्तित होते होते उनको वैदिक धर्म का शैदाई बना गए ।

ऐ काश ! हमारी भी शाहदत प्रभु के सम्मुख स्वीकार हो और हमें वीर लेखराम की पदवी प्राप्त हो । पदवी नहीं, गुमनामी ही सही । किन्तु वैदिक धर्म की पवित्र बलिवेदी पर हमारी आहुति भी डाली जाकर उसके किंचित् प्रकाश से संसार में उजाला और वेदों का बोलबोला हो । परमेश्वर सत्य हृदय से की गई प्रार्थना को स्वीकार करें ।

ओ३म् शम्

-इतिहास प्रदूषण- ‘पं. लेखराम एवं वीर सावरकर के जीवन विषयक सत्य घटनाओं का प्रकाश’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य अल्पज्ञ है इसलिये उससे अज्ञानता व अनजाने में यदा-कदा भूल व त्रुटियां होती रहती है। इतिहास में भी बहुत कुछ जो लिखा होता है, उसके लेखक सर्वज्ञ न होने से उनसे भी न चाहकर भी कुछ त्रुटियां हो ही जाती हैं। अतः इतिहास विषयक घटनाओं की भी विवेचना व छानबीन होती रहनी चाहिये अन्यथा वह कथा-कहानी ही बन जाते हैं। आर्य विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु आर्यसमाज के इतिहास विषयक साहित्य के अनुसंधान व तदविषयक ऊहापोह के धनी है। हिन्दी, अंग्रेजी व उर्दू के अच्छे जानकार है। लगभग 300 ग्रन्थों के लेखक, अनुवादक, सम्पादक व प्रकाशक हैं। नियमित रूप से पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखते हैं। मिथ्या आरोपों का खण्डन करते हैं। वह इतिहास विषयक एक सन्दर्भ को एक ही पुस्तक में देखकर सन्तोष नहीं करते अपितु उसे यत्र-तत्र खोजते हैं जिससे कि उस घटना की तिथियां व उसकी विषय-वस्तु में जानबूझ, अल्पज्ञता व अन्य किसी कारण से कहीं कोई त्रुटि न रहे। उनके पास प्रकाशित पुस्तकों व लेखों में जाने-अनजाने में की गईं त्रुटियों की अच्छी जानकारी है जिस पर उन्होंने इतिहास प्रदूषण नाम से एक  पुस्तक भी लिखी है। 160 पृष्ठीय पुस्तक का हमने आज ही अध्ययन समाप्त किया है। इस पुस्तक में रक्तसाक्षी पं. लेखराम जी के जीवन की एक घटना के प्रदूषण की ओर भी उनका ध्यान गया है जिसे उन्होंने सत्य की रक्षार्थ प्रस्तुत किया है। हम यह बता दें कि पण्डित लेखराम महर्षि दयानन्द के अनन्य भक्त थे। आपने लगभग 7 वर्ष तक निरन्तर देशभर में घूम कर महर्षि दयानन्द के सम्पर्क में आये प्रत्येक व्यक्ति व संगठनों से मिलकर उनके जीवन विषयक सामग्री का संग्रह किया जिसके आधार पर उनका प्रमुख व सर्वाधिक महत्वपूर्ण जीवनचरित्र लिखा गया। 39 वर्ष की अल्प आयु में ही एक मुस्लिम युवक ने धोखे से इनके पेट में छुरा घोप कर इन्हें वैदिक धर्म का पहली पंक्ति का शहीद बना दिया था। कवि हृदय प्रा. जिज्ञासु जी ने इस शहादत पर यह पंक्तियां लिखी हैं-जो देश को बचा सकें, वे हैं कहां जवानियाँ ? जो अपने रक्त से लिखें, स्वदेश की कहानियां।। पं. लेखराम जी के जीवन की इस घटना को प्रस्तुत करने का हमारा उद्देश्य है कि पाठक यह जान सकें सच्चे विद्वानों से भी अनजाने में इतिहास विषयक कैसी-कैसी भूलें हो जाती हैं, इसका ज्ञान हो सके।

 

स्मृतिदोष की यह घटना आर्यजगत के प्रसिद्ध विद्वान जिन्हें भूमण्डल प्रचारक के नाम से जाना जाता है, उन मेहता जैमिनी से सम्बन्ध रखती है। मेहता जैमिनी जी की स्मरण शक्ति असाधारण थी। इस कारण वह चलते फिरते इतिहास के ग्रन्थ थे। उनकी स्मरण शक्ति कितनी भी अच्छी हो परन्तु वह थे तो एक जीवात्मा ही। जीव की अल्पज्ञता के कारण उनमें भी अपवाद रूप में स्मृति दोष पाया गया है। आपकी स्मृति दोष की एक घटना से आर्यसमाज में एक भूल इतिहास बन कर प्रचलित हो गई। प्रा. जिज्ञासु जी बताते हैं कि यह सम्भव है कि इस भूल का मूल कुछ और हो परन्तु उनकी खोज व जांच पड़ताल यही कहती है कि यह भ्रान्ति मेहता जैमिनि जी के लेख से ही फैली। घटना तो घटी ही। यह ठीक है परन्तु श्री मेहता जी के स्मृति-दोष से इतिहास की इस सच्ची घटना के साथ कुछ भ्रामक कथन भी जुड़ गया। कवियों ने उस पर कविताएं लिख दीं। लेखकों ने लेख लिखे। वक्ताओं ने अपने ओजस्वी भाषणों में उस घटना के साथ जुड़ी भूल को उठा लिया। घटना तो अपने मूल स्वरूप में ही बेजोड़ है और जो बात मेहता जी ने स्मृति-दोष से लिख दी व कह दी उससे उस घटना का महत्व और बढ़ गया।

 

घटना पं. लेखराम जी के सम्बन्ध में है। इसे आर्यसमाजेतर जाति प्रेमी हिन्दू भी कुछ-कुछ जानते हैं। यह सन् 1896 की घटना है। पं. लेखराम जी सपरिवार तब जालन्धर में महात्मा मुंशीराम (बाद में स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती) जी की कोठी से थोड़ी दूरी पर रेलवे लाईन के साथ ही एक किराये के मकान में रहते थे। मेहता जैमिनि जी (तब जमनादास) भी जालन्धर में ही रहते थे। मुंशीराम जी आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान थे। मेहता जैमिनि जी सभा प्रधान के पास बैठे हुए थे। पण्डित लेखराम जी प्रचार-यात्रा से लौटकर आये। महात्मा मुंशी राम जी ने उन्हें बताया कि मुस्तफाबाद (जिला अम्बाला) में पांच हिन्दू मुसलमान होने वाले हैं। आपका प्रिय पुत्र सुखदेव रूग्ण है। आप तो उसको देखें, सम्भालें ( उपचार करायें) मैं हकीम सन्तराम जी (जो शाहपुरा राजस्थान भी रहे) को तार देकर वहां जाने के लिए कहता हूं।

 

मेहता जी ने अपने इस विषयक लेख में लिखा है-‘‘नहीं, वहां तो मेरा (पं. लेखराम का) ही जाना ठीक है। मुझे अपने एक पुत्र से (आर्यहिन्दू) जाति के पांच पुत्र अधिक प्यारे हैं। आप वहां तार दे दें। मैं सात बजे की गाड़ी से सायं को चला जाऊंगा। यह भी लिखा कि वह केवल दो घण्टे घर पर रुके। उनकी अनुपस्थिति में डा. गंगाराम जी ने बड़ा उपचार निदान किया, परन्तु सुखदेव को बचाया न जा सका। 18 अगस्त 1896 ई. को वह चल बसा। (द्रष्टव्यः ‘आर्यवीर’ उर्दू का शहीद अंक सन् 1953 पृष्ठ 9-10)।  ईश्वर का विधि-विधान अटल है। जन्म-मृत्यु मनुष्य के हाथ में नहीं है।

 

जिज्ञासु जी आगे लिखते हैं कि यह तो हम समझते हैं कि पण्डित जी के लौटने पर मेहता जी ने महात्मा जी पण्डित जी का संवाद अवश्य सुना, परन्तु आगे का घटनाक्रम उनकी स्मृति से ओझल हो गया। पण्डित जी पुत्र की मृत्यु के समय जालन्धर में ही थे। घर से बाहर होने की बात किसी ने नहीं लिखी। वह पुत्र के निधन के पश्चात् मुस्तफाबाद जाति रक्षा के लिए गये। अब इस सम्बन्ध में और अधिक क्या लिखा जाए? एक छोटी सी चूक से इतिहास में भ्रम फैल गया। लोक झूम-झूम कर गाते रहे-

 

लड़का तिरा बीमार था

                        शुद्धि को तू तैयार था ।।

                        मरने का पहुंचा तार था।

                        पढ़कर के तार यूं कहा।।

                        लड़का मरा तो क्या हुआ।

                        दुनिया का है यह सिलसिला ।।

 

इससे भी अधिक लिफाफे वाले गीत को लोकप्रियता प्राप्त हुई। अब तो वह गीत नहीं गाया जाता। उस गीत की ये प्रथम चार पंक्तियां स्मृति-दोष से इतिहास प्रदूषण का अच्छा प्रमाण है।

 

लिफाफा हाथ में लाकर दिया जिस वक्त माता ने।

                        लगे झट खोलकर पढ्ने दिया है छोड़ खाने को।।

                        मेरा इकलौता बेटा मरता है तो मरने दो लेकिन

                        मैं जाता हूं हजारों लाल जाति के बचाने को।।

 

इस प्रसंग की समाप्ति पर जिज्ञासु जी कहते हैं कि स्मृति दोष से बचने का तो एक ही उपाय है कि इतिहास लेखक घटना के प्रमाण को अन्यान्य संदर्भों से मिलाने को प्रमुखता देवें।

 

विद्वान लेखक प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु ने वीर सावरकर पर भी एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। हम इस प्रसंग से पहली बार परिचित हुए हैं जिसे हम पाठकों के साथ साज्ञा कर रहे हैं। पुस्तक इतिहास प्रदूषण में लेखक ने लिखा है कि वीर सावरकर ने अपनी आत्मकथा में ऋषि दयानन्द तथा आर्य समाज से प्राप्त ऊर्जा प्रेरणा की खुलकर चर्चा की है। यदि ये बन्धु लार्ड रिपन के सेवा निवृत्त होने पर काशी के ब्राह्मणों द्वारा उनकी शोभा यात्रा में बैलों का जुआ उतार कर उसे अपने कन्धों पर धरकर उनकी गाड़ी को खींचने वाला प्रेरक प्रसंग (श्री आर्यमुनि, मेरठवैदिकपथपत्रिका में वीर सावरकर जी पर प्रकाशित अपने लेख में) उद्धृत कर देते तो पाठकों को पता चला जाता कि इस विश्व प्रसिद्ध क्रान्तिकारी को देश के लिए जीने मरने के संस्कार विचार देने वालों में ऋषि दयानन्द अग्रणी रहे। इसी क्रम में दूसरी घटना है कि मगर आर्यसमाज ने जब अस्पृश्यता निवारण के लिए एक बड़ा प्रीतिभोज आयोजित किया तो आप (यशस्वी वीर सावरकर जी) विशेष रूप से इसमें भाग लेने के लिए अपने जन्मस्थान पर पधारे। इससे यह एक ऐतिहासिक घटना बन गई। इस लेखक (प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु) ने कई बार लिखा है कि भारत के राजनेताओं में से वीर सावरकर ने सर्वाधिक आर्य हुतात्माओं तथा देशभक्तों पर हृदय उड़ेल कर लेख लिखे हैं। आर्यसमाज ऋषि के विरोधियों को लताड़ने में वीर सावरकर सदा अग्रणी रहे। कम से कम भाई परमानन्द स्वामी श्रद्धानन्द जी की चर्चा तो की जानी चाहिये। आपके एक प्रसिद्ध पत्र का नाम ही श्रद्धानन्द था। यह पत्र भी इतिहास साहित्य में सदा अमर रहेगा। 

 

महर्षि दयानन्द आर्यसमाज संगठन के प्रति समर्पित अनेक विद्वान हुए हैं परन्तु जो श्रद्धा, समर्पण, इतिहास साहित्य के अनुसंधान की तड़फ पुरूषार्थ सहित महर्षि समाज के प्रति दीवानगी वर्तमान समय में प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी में दिखाई देती है, वह अन्यतम एव अनुकरणीय है। नाज नखरों से रहित उनका जीवन एक सामान्य सरल व्यक्ति जैसा है। आज की हाईफाई जीवन शैली से वह कोसों दूर हैं। उन्होंने आर्यसमाज को जो विस्तृत खोजपूर्ण प्रामाणिक साहित्य प्रदान किया है वह स्वयं में एक कीर्तिमान है। पाठकों हममें उनका समस्त साहित्य प्राप्त कर अध्ययन करने की क्षमता भी नहीं है। हम उनकी ऋषिभक्ति खोजपूर्ण साहित्यिक उपलब्धियों के प्रति नतमस्तक हैं।  उनके साहित्य का अध्ययन करते हुए जबजब हमें नये खोजपूर्ण प्रसंग मिलते हैं तो हम गद्गद् हो जाते हैं और हमारा हृदय उनके प्रति श्रद्धाभक्ति से भर जाता है। कुछ अधूरे प्रसंग पढ़कर संदर्भित पुस्तक तथा प्रमाण तक हमारी पहुंच होने के कारण मन व्यथित भी होता है। उनके समस्त साहित्य में ऋषि भक्ति साहित्यिक मणिमोती बिखरे हुए हैं जो अध्येता को आत्मिक सुख देते हैं। हम ईश्वर से अपने इस श्रद्धेय विद्वान की शताधिक आयु के स्वस्थ क्रियात्मक जीवन की प्रार्थना करते हैं।

हम समझते हैं कि लेखकों से स्मृति दोष व अन्य अनेक कारणों से ऐतिहासिक घटनाओं के चित्रण व वर्णन में भूलें हो जाती हैं। इतिहास में विगत कई शताब्दियों से अज्ञानता व स्वार्थ के कारण धार्मिक व सांस्कृतिक साहित्य में परिवर्तन, प्रेक्षप, मिलावट व हटावट होती आ रही है जिसे रोका जाना चाहिये। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की इतिहास प्रदूषण पुस्तक इसी उद्देश्य से लिखी गई है। विद्वान लेखक ने अपनी इस पुस्तक में जाने-अनजाने में होने वाली भूलों के सुधार के लिए एक से अधिक प्रमाणों को देखकर व मिलान कर ही पुष्ट बातों को लिखने का परामर्श दिया है जो कि उचित ही है। इतिहास प्रदूषण से बचने के उनके द्वारा दिये गये सभी सुझाव यथार्थ व उपयोगी हैं। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

रक्त्साक्षी पंडित लेखराम ने क्या किया ? क्या दिया ? राजेन्द्र जिज्ञासु

Pt Lekhram

मूलराज के पश्चात् पंडित लेखराम आर्य जाति के ऐसे पहले महापुरुष थे जिन्हें धर्म की बलिवेदी पर इस्लामी तलवार कटार के कारण शीश चढाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ . वे आर्य जाति के एक ऐसे सपूत थे जो धर्म प्रचार व जाती रक्षा के लिए प्रतिक्षण सर तली पर धरकर प्रतिपल तत्पर रहते थे . उन्हीं के लिए कुंवर सुखलाल जी ने यह लिखा था :

हथेली पे सर जो लिए फिर रहा हो

वे सर उसका धड से जुदा क्या करेंगे

पंडित लेखराम ने लेखनी व वाणी से प्रचार तो किया ही, आपने एक इतिहास रचा . आपको आर्यसमाज तथा भारतीय पुनर्जागरण के इतिहास में नई -२ परम्पराओं का जनक होने का गौरव प्राप्त हुआ . श्री पंडित रामचन्द्र जी देहलवी के शब्दों उनका नाम नामी आर्योपदेशकों के लिए एक गौरवपूर्ण उपाधि बन गया . वे आर्य पथिक अथवा आर्यामुसाफिर बने तो उनके इतिहास व बलिदान से अनुप्राणित होकर आर्यसमाज के अनेक दिलजले आर्य मुसाफिर पैदा हो गए . किस किस का नाम लिया जाए . मुसाफिर विद्यालय पंडित भोजदत्त से लेकर ठाकुर अमरसिंह कुंवर सुखलाल डॉक्टर लक्ष्मीदत्त पंडित रामचंद्र अजमेर जैसे अनेक आर्यमुसाफिर उत्पन्न किये.

धर्म पर जब जब वार हुआ पंडित लेखराम प्रतिकार के लिए आगे निकले . विरोधियों के हर लेख का उत्तर दिया . उनके साहित्य को पढ़कर असंख्य जन उस युग में व बाद में भी धर्मच्युत होने से बचे. श्री महात्मा विष्णुदास जी लताला वाले पंडित लेखराम का साहित्य पढ़कर पक्के वैदिक धर्मी बने . आप ही की कृपा से स्वामी स्वतान्त्रतानंद जी महाराज के रूप में नवरत्न आर्य समाज को दिया .

 

बक्षी रामरत्न तथा देवीचंद जी आप को पढ़ सुनकर आर्यसमाज के रंग में रंगे  गए. सियालकोट छावनी में दो सिख युवक विधर्मी बनने लगे . वे मुसलमानी साहित्य पढकर  सिखमत  को छोड़ने का निश्चय कर चुके थे . सिखों की शिरोमणि संस्था सिख सभा की विनती पर एक विशेष व्यक्ति को महात्मा मुंशी राम जी के पास भेजा गया की शीघ्र आप सिविल सर्जन पंडित लेखराम को सियालकोट भेजें . जाती के दो लाल बचाने  का प्रश्न है . पंडित लेखराम महात्मा जी का तार पाकर सियालकोट आये . सियालकोट के हिन्दू सिखों की भारी भीड़ समाज मंदिर में उन्हें सुनने  को उमड़ पड़ी . टिल धरने को भी वहां स्थान नहीं था .

दोनों युवकों को धर्म पर दृढ कर दिया गया . इनमें एक श्री सुन्दरसिंह ने आजीवन आर्यसमाज की सेवा की . सेना छोड़कर वह समाज सेवा के लिए समर्पित हो गया .

मिर्जा काद्यानी ने सत्बचन ( सिखमत  खण्डन ) पुस्तक लिखकर सिखों में रोष व निराशा उत्पन्न कर दी . उत्तर कौन दे ? सिखों ने पंडित जी की और से रक्षा करने के लिए निहारा . धर्मवीर लेखराम ने जालंधर में मुनादी करवा कर गुरु नानक जी के विषय में भारी सभा की . जालंधर छावनी के अनेक सिख जवान उनको सुनने के लिए आये . पंडित जी ने प्रमाणों की झडी  लगाकर मिर्जा की भ्रामक व विषैली पुस्तक का जो उत्तर दिया तो श्रोता वाह ! वाह ! कर उठे ! व्याख्यान की समाप्ति पर पंडित लेखराम जी को कन्धों पर उठाने की स्पर्धा आरम्भ हो गयी. मल्लयुद्ध के विजेता को अखाड़े में कन्धों पर उठाकर जैसे पहलवान घूमते  हैं वैसे ही पंडित जो उठाया गया .

 

जाती के लाल बचाने के लिए वे चावापायल में चलती गाडी से कूद पड़े. जवान भाई घर पर मर गया . वह सूचना पाकर घर न जाकर दीनानगर से मुरादाबाद मुंशी इन्द्रमणि जी के एक भांजे को इसाई मत से वापिस लाने पहुँच गए . मौलाना अब्दुल अजीज उस युग के एक्स्ट्रा असिस्टेंट कमिश्नर थे . इससे बड़ा पद कोई भारतीय पा ही नहीं सकता था . पंडित लेखराम का साहित्य पड़कर अरबी भाषा का इसलाम का मर्मग्य यह मौलाना पंजाब से अजमेर पहुंचा और परोपकारिणी सभा से शुद्ध करने की प्रार्थना की .”देश हितैषी “ अजमेर में छपा यह समाचार मेरे पास है . यह ऋषी जी के बलिदान के पश्चात् सबसे बड़ी शुद्धी थी .

स्वयं पंडित लेखराम ने इसकी चर्चा की है .यह भी बता दूँ की इसरो के महान भारतीय वैज्ञानिक डॉक्टर सतीश धवन मौलाना के सगे सम्बन्धियों में से थे . आपको लाला हरजसराय नाम दिया गया . इन्हें सभा ने लाहौर में शुद्ध किया . तब आर्यसमाज का कडा विरोध किया गया . अमृतसर के कुछ हिन्दुओं ने आर्य समाज का साथ भी दिया था . स्वामी दर्शनानंद तब पंडित लेखराम की सेना में थे तो उनके पिता पंडित रामप्रताप पोपमंडल  के साथ शुद्धि का विरोध कर रहे थे . आज घर वापस की रट  लगाने वाले शुद्धि के कर्णधार का नाम लेते घबराते व कतराते हैं  . क्या वे बता सकते हैं की स्वामी विवेकानन्द जी ने किस किस की घर वापसी करवाई . कांग्रेस का तो आदि काल का बंगाली ब्राहमण बनर्जी ही इसाई बन चूका था.

मौलाना अब्दुल्ला मेमार ने पंडित लेखराम जी के लिए “गौरव गिरि “ विशेषण का प्रयोग किया है . केवल एक ही गैर मुसलमान के लिए यह विशेषण अब तक प्रयुक्त हो हुआ है . यह है प्राणवीर पंडित लेखराम का इतिहास में स्थान व सम्मान .

सिखों की एक “सिख सभा “ नाम की पत्रिका निकाली गयी . इसका सम्पादक पंडित लेखराम जी का दीवाना था . पंडित लेखराम जी का भक्त व प्रशंषक था . उसका कुछ दुर्लभ साहित्य में खोज पाया . पंडित लेखराम जी जब धर्म रक्षा के लिए मिर्जा गुलाम अहमद की चुनौती स्वीकार कर उसका दुष्प्रचार रोकने कादियान पहुंचे तो मिर्जा घर से निकला ही नहीं

आप उसके इल्हामी कोठे पर साथियों सहित पहुँच गए . मिर्जा चमत्कार दिखाने की डींगे मारा करता था . पंडित जी ने कहा कुरआन में तो “खारिक आदात “ शब्द ही नहीं . उसने कहा _ है “ पंडित जी ने अपने झोले में से कुरान निकाल कर कहा  “ दिखाओ कहाँ है ?”

वहां यह शब्द हो तो वह दिखाए . मौलवियों ने इस पर मिर्जा को फटकार लगाईं हिया . पंडित जी ने अपनी ताली पर “ओम “ शब्द लिखकर मुट्ठी बंदकर के कहा “ खुदा से पूछकर  बताओ मैने क्या लिखा है ?. सिख सभा के सम्पादक ने लिखा है कि  मिर्जा की बोलती बंद  हो गयी , वह नहीं बता सका कि  पंडित जी ने अपनी तली पर क्या लिखा हिया . अल्लाह ने कोई सहायता न की . पंडित लेखराम जी के तर्क व प्रमाण दे कर देहलवी के प्रधान मंत्री राजा सर किशन प्रसाद को मुसलमान बनने  से बचाया था .

वेद सदन अबोहर पंजाब

LEKHRAM- THE ARYA MISSIONARY!

 

 

Pt Lekhram High resolution photo

6th MARCH – THE MARTYRDOM DAY OF  Pt.  LEKH RAM, THE ARYA MISSIONARY!

 By : KM Rajan

 Arya Samaj has moulded many great missionaries who were ready to do supreme sacrifice for the sake of Vedic dharma. Pandit Lekh Ram was one of the first among them.

Pt. Lekh Ram was born on 8th of Chaitra 1915 (1858)in the village Saiyad Pur in the Jhelum district of Punjab.  His parents were Sri. Tara Singh and Smt.  Bhag Bhari.

He was a police officer in Punjab and resigned from the government service voluntarily and devoted for propagation of Vedas even not caring for his family and only son too. He was influenced by the writings of Munshi Kanhaiya Lal Alakhdhari and came to know about Maharshi Dayanand Saraswati and Arya Samaj. He founded Arya Samaj at Peshawar (now in Pakisthan) and became a preacher of Punjab Arya Pratinidhi Sabha. He also vowed to write the authentilc life history of Maharshi Dayanand Saraswati.  For this purpose, he travelled far and wide and collected a detailed account of the life of the founder of Arya Samaj. Pt. Lekh Ram wrote thirty three books. All his writings are in Urdu, but they have been translated in Hindi and some books have been translated into Sindhi and English also.

He established the  view points on Arya Samaj and vedic religion so forcefully that nobody dared to come forward to oppose. Many inspiring facts from his life are written in golden lines of Arya Samaj history. A small incident from his life is being quoted here. He was an ardent propagator for Vedic dharma and shuddi (re-conversion to Vedic religion) movement. One day he returned to home after day’s long propagation work and was so tired. His wife told that their only son is very sick and if unable to take him to a doctor immediately, his life will be in danger. He understood the gravity of sickness of his son and promised to take him hospital after taking one Rotti as he was so hungry. When he was about to eat the Rotti, a post man carrying a telegram reached to him stating that few Hindus are about to change their religion to Islam in`Payal’ village in Patiala district of Punjab. Without thinking for a moment he left the meals and moved to the said village in a train. When he saw that there is no stoppage for train at the`Payal’ village, he jumped out of the running train and some how reached the venue of conversion with severe body injuries. He shouted `I am Pt. Lekharam from Arya Samaj is coming for Shasthrarth (religious debate) with you. If you defeat me in arguments, I myself along with these poor Hindus will embrace Islam. Otherwise you all should accept Vedic dharma. In the end of the shasthrarth all embraced Vedic Religion. This time one another telegram reached to him. The matter of it was his only son died of sickness! That was the dedication of Pt. Lekharam!

This great son of mother India was died from the stab wounds of a fanatic inflicted upon him on 6th  March 1897.  Let us take inspiration from this immortal martyr on the occasion of his death anniversary (6th  March) for fulfilling the vision of `Krinvantho viswamaryam’