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जाओ, अपनी माँ से पूछकर आओ: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

जाओ, अपनी माँ से पूछकर आओ

 

देश-विभाजन से बहुत पहले की बात है, देहली में आर्यसमाज

का पौराणिकों से एक ऐतिहासिक शास्त्रार्थ हुआ। विषय था-

‘अस्पृश्यता धर्मविरुद्ध है-अमानवीय कर्म है।’

पौराणिकों का पक्ष स्पष्ट ही है। वे छूतछात के पक्ष पोषक थे।

आर्यसमाज की ओर से पण्डित श्री रामचन्द्रजी देहलवी ने वैदिक

पक्ष रखा। पौराणिकों की ओर से माधवाचार्यजी ने छूआछात के

पक्ष में जो कुछ वह कह सकते थे, कहा।

माधवाचार्यजी ने शास्त्रार्थ करते हुए एक विचित्र अभिनय

करते हुए अपने लिंग पर लड्डू रखकर कहा, आर्यसमाज छूआछात

को नहीं मानता तो इस अछूत (लिंग) पर रखे  इस लड्डू

को उठाकर खाइए।

 

इस पर तार्किक शिरोमणि पण्डित रामचन्द्र जी देहलवी ने

कहा, ‘‘चाहे तुम इस अछूत पर लड्डू रखो और चाहे इस ब्राह्मण

(मुख की ओर संकेत करते हुए कहा) पर, मैं लड्डू नहीं खाऊँगा,

परन्तु एक बात बताएँ। जाकर अपनी माँ से पूछकर आओ कि तुम

इसी अछूत (लिंग) से जन्मे हो अथवा इस ब्राह्मण (मुख)

से?’’

 

पण्डित रामचन्द्रजी देहलवी की इस मौलिक युक्ति को सुनकर

श्रोता मन्त्र-मुग्ध हो गये। आर्यसमाज का जय-जयकार हुआ। पोंगा

पंथियों को लुकने-छिपने को स्थान नहीं मिल रहा था। इस शास्त्रार्थ

के प्रत्यक्षदर्शी श्री ओमप्रकाश जी कपड़ेवाले मन्त्री, आर्यसमाज नया

बाँस, दिल्ली ने यह संस्मरण हमें सुनाया। अन्धकार-निवारण के

लिए आर्यों को  क्या क्या  सुनना पड़ा।