लाला जीवनदासजी का हृदय-परिवर्तन: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

 

आर्यसमाज के इतिहास से सुपरिचित सज्जन लाला जीवनदास

जी के नाम नामी से परिचित ही हैं। जब ऋषि ने विषपान से देह

त्याग किया तो जो आर्यपुरुष उनकी अन्तिम वेला में उनकी सेवा

के लिए अजमेर पहुँचे थे, उनमें लाला जीवनदासजी भी एक थे।

आपने भी ऋषि जी की अरथी को कन्धा दिया था।

आप पंजाब के एक प्रमुख ब्राह्मसमाजी थे। ऋषिजी को पंजाब

में आमन्त्रित करनेवालों में से आप भी एक थे। लाहौर में ऋषि के

सत्संग से ऐसे प्रभावित हुए कि आजीवन वैदिक धर्म-प्रचार के

लिए यत्नशील रहे। ऋषि के विचारों की आप पर ऐसी छाप लगी कि

आपने बरादरी के विरोध तथा बहिष्कार आदि की किञ्चित् भी

चिन्ता न की। जब लाहौर में ब्राह्मसमाजी भी ऋषि की स्पष्टवादिता

से अप्रसन्न हो गये तो लाला जीवनदासजी ब्राह्मसमाज से पृथक्

होकर आर्यसमाज के स्थापित होने पर इसके सदस्य बने और

अधिकारी भी बनाये गये।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि जब ऋषि लाहौर में पधारे तो

उनके रहने का व्यय ब्राह्मसमाज ने वहन किया था। कई पुराने

लेखकों ने लिखा है कि ब्राह्मसमाज ने यह किया गया व्यय माँग

लिया था।

पंजाब ब्राह्मसमाज के प्रधान लाला काशीरामजी और आर्यसमाज

के एक यशस्वी नेता पण्डित विष्णुदज़जी के लेख इस बात का

प्रतिवाद करते हैं।1

लाला जीवनदासीजी में वेद-प्रचार की ऐसी तड़प थी कि जहाँ

कहीं वे किसी को वैदिक मान्तयाओं के विरुद्ध बोलते सुनते तो झट

से वार्तालाप , शास्त्रार्थ व धर्मचर्चा के लिए तैयार हो जाते। पण्डित

विष्णुदत्त जी के अनुसार वे विपक्षी से वैदिक दृष्टिकोण मनवाकर ही

दम लेते थे। वैसे आप भाषण नहीं दिया करते थे।

अनेक व्यक्तियों ने उन्हीं के द्वारा सम्पादित  और अनूदित वैदिक

सन्ध्या से सन्ध्या सीखी थी।

अपने जीवन के अन्तिम दिनों में पण्डित लेखराम इन्हीं के

निवास स्थान पर रहते थे और यहीं वीरजी ने वीरगति पाई थी।

राजकीय पद से सेवामुक्त होने पर आप अनारकली बाजार

लाहौर में श्री सीतारामजी आर्य लकड़ीवाले की दुकान पर बहुत

बैठा करते थे। वहाँ युवक बहुत आते थे। उनसे वार्ज़ालाप करके

आप बहुत आनन्दित होते थे। बड़े ओजस्वी ढंग से बोला करते थे।

तथापि बातचीत से ही अनेक व्यक्तियों को आर्य बना गये। धन्य है

ऐसे पुरुषों का हृदय-परिवर्तन। 1893 ई0 के जज़्मू शास्त्रार्थ में

आपका अद्वितीय योगदान रहा।

 

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