मूर्तिपूजा-अवैदिक

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ओउम्

प्राक्कथन

यद्यपि प्रस्तुत पुस्तक छोटी है परन्तु लेखक ने इस विषय वस्तु से सम्बंधित अनुच्छेदों के संकलन में संभवतः सभी यूरोपीय आधिकारिक सूत्रों से विचार-विमर्श किया है और आशा है कि ध्यान आकर्षण करने वाले ये सभी अनुच्छेद पाठकगणों के विश्वास प्राप्त करेंगे।

प्रसिद्धआर्य समाज विद्वानों द्वारा पुनरावलोकन

(१) इस छोटी पुस्तिका में स्वामी मंगलानंद पूरी ने यूरोपीय और भारतीय संस्कृत विद्वानों और कुछ इतिहासकारों के भी विचारों का संकलन करके यह सिद्ध किया है कि मूर्तिपूजा वेद सम्मत नहीं है। जिन लोगों की ऐसी धारणा है कि मूर्तिपूजा वेद सम्मत है उनके लिए ये पुस्तिका विशेष लाभकारी है। वैदिक विचारधारा से अनभिज्ञ जनसामान्य में ये पुस्तिका निशुल्क वितरित की जानी चाहिए।

घासीदास, एम.ए. एल.एल.बी.

अधिष्ठातागुरुकुल ब्रिन्दाबन एवं अध्यक्ष आर्य प्रतिनिधि सभा उ.प्र.(मेरठ)

(२) स्वामी मंगलानंद पूरी द्वारा मूर्तिपूजा-अवैदिक पुस्तिका: लेखक ने शब्दों के  पक्के और विश्व के प्रसिद्ध यूरोपीय और एशियाई सूत्रों के अच्छे-खासे लेखोंका संकलन करके यह स्थापित किया है कि वेदों में मूर्तिपूजा का कोई समर्थन नहीं है और सफलतापूर्वक यह सिद्ध किया है कि मूर्तिपूजा का मूल इसाई मत में है ।

यह पुस्तिका निर्देशात्मक और रुचिपूर्ण है साथ ही दिए गए उद्धरण प्रेरणादायक और लाभकारी हैं। कम मूल्य में पुस्तिका उपलब्ध करा कर लेखक ने निश्चय ही असाधारण काम किया है।

बाबूश्याम सुन्दरलाल बी.ए. एल.एल.बी.

अधिवक्ता, अध्यक्ष आर्य समाज मैनपुरी

(३) लेखक धन्यवाद के अधिकारी हैं जिन्होंने इतनी अच्छी पुस्तिका बनाई जो सभाओं और समाजों द्वारा महाविद्यालयऔर विद्यालय के उच्च कक्षाओं के छात्रों को वितरित की जानी चाहिए। शुल्क यद्यपि कम है पर महत्व की दृष्टी से यह पुस्तिका अनमोल है और महाविद्यालय के नवजवान छात्रों की अध्यात्मिक उन्नति केलिए विशेष रूप से लाभदायक है जिससे उन्हें परमात्मा के निराकार स्वरुप की उपासना की शिक्षा मिलेगी ।

श्रीमान राव (मास्टर) आत्मा राम जी अमृतसरी

आर्य समाज के श्रेष्ठ नेताओ में से एक

 

                                                                                                                                    ओउम्

मूर्तिपूजा-अवैदिक

यूरोपीय व्याख्यानों में

आज के समय में एक हिन्दू सामान्यतःमूर्तिपूजक होता है परन्तु आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती ने पूरेविश्व को बताया कि ना तो पुरातन कालीन हिन्दू (आर्य) मूर्तिपूजक थे ना ही वेदादि सत्यशास्त्रों और आर्ष ग्रंथों में मूर्तिपूजा का लेशमात्र भी संकेत  हैं।

स्वामी जी की सत्यता इसी से प्रमाणित होती है कि अन्य पक्षपात रहित वेद विद्वान भी इसी निर्णय पर पहुंचे और मूर्तिपूजाका पुरजोर विरोध किया।अतः हम यहाँ यूरोपीय एवं अन्य संस्कृत विद्वानों को उद्धृत कर रहें हैं। हम पाठक को अपने विवेक के सहारे निर्णय पर पहुचने की स्वच्छंदता प्रदान करते हुए अनुरोध करेंगे कि यहाँ संकलित सभी मतों को यथोचित महत्व प्रदान करते हुए इनका लाभ एवं मार्गदर्शन लें  |

प्रथम अध्याय

यूरोपीय जन मूर्ति पूजा विषय पर

(१)  सरमोंलर विलियम्स (sir Monler Williams) लिखतें हैं :- “मनु स्मृति* के संकलन काल में मूर्तिपूजा के अस्तित्व के विषय में घोर संशय है”( इंडियन विजडम पृष्ट २२६)

(२)  जे.आई. वीलर(J.I. Wheeler) कहतें हैं :- “ऐसा प्रतीत होत्ता है जैसे कोई मंदिर नहीं थे और वे(आर्य या पुरातन कालीन हिन्दू)खुले वातावरण में या हर मकान के एक विशेष गृह में हवन किया करते थे” (वीलर्स हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया इंट्रोडक्शन पृष्ट ११)

(३)  प्रोफेसर डब्लू.डी. ब्राउन कहतें हैं :- “विचारवान छात्रों के लिए कई प्रबल प्रमाण यह सिद्ध करतें हैं कि पूर्व में हिन्दू मूर्तिपूजक ना थे और ना ही अशिक्षित, निर्दयी और असभ्य थे”

(४)  श्रीमान मिल कहतें हैं :- “मूर्तिपूजापूर्ण रूप से आगे विकसित हुई है। श्रेष्ठ निराकार मान्यताओं से समक्रमण ना स्थापित कर पाने वाली बुद्धि की यह उपज है। पतन अपनी व्याख्या स्वयं करता है। कपट ढोंग आदि मतान्धता और एकेश्वरवाद के पतन के प्रमुख कारण हुए। यह ढोंग स्वतंत्र देवीदेवताओं की विविधता नहीं थी वरन विशेष आयोजनों के मुख्य देव और आहावन था।“ (मिल्स ब्रिटिश इंडिया पृष्ट ११७ मई१९१८को वैदिक पत्रिका में प्रकाशित)

(५)  मक्स्मुलर लिखते हैं :- “कभी कभी यह भी कहा जाता है की वैदिक धर्म का लोप हो चुका है क्यूंकि तांत्रिकों एवं पुराणिकों द्वारा प्रतिपादित ब्राह्मणिक धर्मशिव, ब्रह्मा और विष्णु के विभिन्न रूपों के डरावने मूर्तियों की पूजा करते हैं” | (ओरिजिन एंड ग्रोथ ऑफ़ रिलीजन्स पृष्ट १५४)

(६)  मक्स्मुलर आगे लिखते हैं :- “यदि हम वसिष्ठ या विश्वामित्र या अन्य किसी आर्य कवि से पूछ पातेकि क्या वे सूर्य, जो आग का गोला है,वह हाथ पैर ह्रदय स्नायु आदि युक्त देहधारी है? तो निसंदेह वे हमारे प्रश्न पर ठहाके लगाते हुए कहते की हमने उनकी भाषाएँ जान कर भी उनके मंतव्यों को नहीं जाना।“(ओरिजिन एंड ग्रोथ ऑफ़ रिलीजन्स पृष्ट २७५)

(दूसरा अध्याय जो मक्स्मुलर के विचारों पर था वह अनुवादक को प्रयास करने पर भी प्राप्त नहीं हुआ अतः अनुवादक ने उनके कुछ प्राप्त अंशों को प्रथम अध्याय में ही जोड़ दिया है।)

द्वितीय अध्याय

मूर्तिपूजा पर आर.सि. दत्त

प्रसिद्ध भारतीय विद्वान रोमेशचन्द्रदत्त जो किसी भी रूप से आर्य समाजी भी नहीं हैं लखते हैं:

(१)ऋग्वेद में मूर्ति का कोई संकेत ही नहीं हैं, ना ही किसी पूजागृह और ना ही मंदिरों में।

(सिविलाइज़ेशन ऑफ़ अन्सिएंट इंडिया कितब१ पृष्ट ६६)

(२)और रेखागणित के व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा का महत्व उस समय ख़तम हो गया जब पुराणिक काल में चित्र आदि जड़ पूजा प्रचलित हुई और भक्तों के घर से समिधाग्नि शांत हो गयी और लोगों ने वेदी बनाने की विद्या भुला दी।

(सिविलाइज़ेशन ऑफ़ अन्सिएंट इंडिया किताब १ पृष्ट २६९ २७४)

(३) आगे वह लिखतें हैं :

“… और कोई मूर्तिपूजा का ज्ञान ना था”

(क)बौद्ध मत में मूर्तिपूजा इसाई कालके सदियों बाद आई इसलिए मूर्तिपूजा बौद्धों द्वारा शुरू हुई ऐसी शंका करना असंभव तो नहीं हैं।

(ख)ऐसा अनुमान है मनु स्मृति के संकलन काल में बौद्धों द्वारा पूजा का प्रचालन बढ़नेपर पुर्वग्रहियों द्वारा विरोध हुआ।

(ग)मूर्तियों की पूजा का विधान हिन्दुवों में बौद्ध आन्दोलन तक ना था और बौद्ध मत के प्रचार के साथ यह विकसित हुई।

(घ)मनु …क्रोधपूर्वक मूर्तिपूजकों को शराब और मांस बेचने वालो की श्रेणी में रखते हैं।

(सिविलाइज़ेशन ऑफ़ अन्सिएँट इंडिया कितब२ पृष्ट १८९-१९५ )

(४)पुरातन काल में अग्न्याधानकी एक छोटी सि विधि सभी गृहस्तों के जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग था, जब हर किसी द्वारा अपने हवनकुंड में ही ईश्वारुपसना की जाती थी और मंदिरों-मूर्तियों से सभी अनभिज्ञ थे।

(हिज सिविलाइज़ेशन किताब १ पृष्ट१८४)

(५)तीर्थों के विषय में आर.सि.दत्त लिखते हैं :

तीर्थभ्रमण, जो पुरातन काल में नगण्य या अनजाने थे, का मूर्खतापूर्ण तरीके से आयोजन होने लगा। नये-नये भगवान, नयी-नयी मूर्तियाँ-चित्र एवं मंदिरों भारत की भूमि एवं भोले-भालेश्रद्धालुओंके ह्रदय में जन्म लिया।“

(सिविलाइज़ेशनकिताब २ पृष्ट१९५)

(६)आगे श्री दत्त लिखते हैं :

“६२० ईस्वी में चीनीयात्री होव्न सॉंग के आगमन काल में जगन्नाथपुरी के विशाल मंदिर का लेश भीना था।“

(सिविलाइज़ेशन किताब २ पृष्ट १५१)

 

तृतीय अध्याय 

मूर्तिपूजा पर एल्फिन्स्तों

(१) श्री एम.एल्फिन्स्तों लिखतें हैं :

“दृश्यपदार्थ और चित्रों की पूजा का कोई विधान नहीं दिखाई पड़ता”

(एल्फिन्स्तों हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया पृष्ट ४०)

(२)आगे श्री एल्फिन्स्तों लिखते हैं :

“…. औरसाथ ही, उन्होंने ना तो मंदिर ही खड़े किये ना ही सच्चेईश्वर के प्रतिक की पूजा करते थे”

(एल्फिन्स्तों हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया पृष्ट ९३-९४)

(३)आगे जोड़ते हुए लिखतें हैं :

“श्रीमान कॉलेब्रोक स्वयं को पांच  प्रकार के पवित्र कर्मों(पञ्चमहायज्ञ) तक ही सिमित रखतें हैं जो मनु के काल से चली आ रही हैं परन्तु वर्तमान समय में एक विशेष प्रकार की पूजा का विधान है जो पहले भारतीय समाज में ना था, परन्तु अब ये विधान एक प्रधान कर्म हो चला हैं।

ये विधान हैं मूर्तियों की पूजा का, जिनके सामने अनेक प्रकार के नमन और स्तुतियों का रोज़ का विधान हैं।”

(एल्फिन्स्तों हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया पृष्ट ११०)

 

 

चतुर्थ अध्याय 

मूर्तिपूजा पर विल्सन

(१)प्रोफेसर एस.एस.विल्सन लिखतें हैं :

“वेदों में मंदिरों का कहीं संकेत नहीं है ना ही किसी सामूहिक भवन का वर्णन ही मिलता हैं, साफ़ है कि पूजा पूर्णतः घरेलु थीं”

(विल्सन्स ऋग्वेद इंट्रोडक्शन किताब १ पृष्ट XV)

(२)पुनः लिखतें हैं :

“अब तक हमारी जितनी जानकारी हैं, शिव,महादेव,काली,दुर्गा,राम और कृष्ण के नाम वेदों में नहीं मिलते, एक रूद्र नाम आता है जिसे बाद में शिव ही मान लिया गया।“

(आइबीडपृष्टxxvi)

(३)आगे लिखते हैं :

“ औरआज जिस रूप में भारतवर्ष में पूजा होती हैं, अर्थात लिंग की पूजा, उसका नाम मात्र भी संकेत , कम से कम पिछली १० शताब्दियों में नहीं मिलता। ना ही कोई संकेत ब्रह्मा, विष्णु और महेश, त्रिमूर्ति का ही प्राप्त होता है।“                       आइबीड XXVII

(४)आगे श्रीमान लिखतें हैं :

“और फिर भी मनु ना किसी अवतार,ना राम और ना ही कृष्ण कोइंगितकरतेंहैं। अतः यही माननीय हैं कि वे रामायण और महाभारत काल के बाद विकसित हुई पूजा पद्दति के पूर्व कालीन हैं।“

(५)श्री मिल्स एच.एच.विल्सन के विचारों को इस प्रकार उद्धृत करते हैं:

“…. परन्तु वे(ब्राह्मण) पगान पादरियों की तरह या यहूदियों की तरह कभी भी सार्वजानिक पूजा का आयोजन, व्यक्ति विशेष के लिए पूजन, मंदिरों में पूजन यामूर्तियों का पूजन नहीं करते थे।

जोब्राह्मणमूर्तियों की पूजा करता उसेपतित और धार्मिकआयोजनों में ना बुलाया जाता”

(मनुII१५२,१८०)-(मिल्सहिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया कितब२पृष्ट १९२)

(७)  श्रीएच.एच.विल्सन पुनः बताते हैं-

“परन्तु पूजनीय महापुरुषों की पूजा उससमाज का हिस्सा नहीं हैं और ना ही देवताओंका अवतरण जैसा की अन्य ग्रंथों में निर्देशित हैं जो अबतक मैंने देखीं हैं यद्यपि कुछ भाष्यकारों द्वारा इसपर संकेत किया गया है।“

“यह भी सत्य है कि वैदिक पूजा के अधिकतर भाग निजी हैं, जिनमे स्तुति आदि अनुष्ठान,एक अदृश्य व्यापक अप्रमाणिक सत्ता को संबोधित करते हुए,स्वयं की उन्नति लिए संपन्न किये जाते हैं,किसी मंदिर में नहीं।“

“एकशब्द में, वैदिक मत मूर्तिपूजक नहीं हैं।“

(एच.एच.विल्सन विष्णुपुराण प्रकथन पृष्ट १११)

(८)  पुनः लिखतें हैं-

“कर्ता और क्रिया में भेद मूर्तिपूजा से ही विकसित हुई है।प्रतिमा ने मुख्य प्रति की जगह लेली, और ना ही वेदों में परिपूर्ण हो रहे रहस्यवाद और वाक्यरचना[**] की कोई व्यवस्था की गयी।“

(मिल्स हिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया कितब१ पृष्ट ३९२)

(९)इसके अलावा वे लिखतें हैं :

“…. परन्तु पद्धति नयी है, जगन्नाथ स्वयं नवीन है और वैष्णवों के पुराणों में इनका कोई स्थान नहीं। यह असम्भाव्य है कि वर्त्तमान स्थल का महिमामंडन अधिक से अधिक एक शताब्दी से पूर्व हुआ हो।“

(मिल्स हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया पृष्ट४१६)

 

पंचम अध्याय 

मोहम्मदनविद्वानों के विचार मूर्तिपूजा विषय पर

अब हम मध्यकालीन भारत के दो सर्वाधिक पढ़े-लिखेमुसलमान सज्जनों केविचारों की ओर नज़र डालेंगे जो यह कहतेंहैंकिहिंदुत्व का मुर्तिपूजन से कोई नाता नहीं हैं।

(१) मौलाना अबुल फज़ल, अकबर के दरबार के प्रधानमंत्री लिखतें हैं :

“वे(हिन्दू) सभीएकेश्वरवाद में विश्वास रखतें हैं औरयद्यपि वे मूर्तियों को विशेष सम्मान से रखतें हैं फिर भी वे किसी प्रकार मूर्तिपूजक नहीं हैं जैसा की अज्ञानी जन समझतें हैं।“

(आयींने अकबरी,एफ़ गोडविनभाष्यकिताब६ पृष्ट २९४)

(२)मौलाना अलबेरुनी, अरबी और संस्कृत के विद्वान जो महमूद ग़ज़नी के साथ भारत आये थे लिखते हैं:

“… परन्तु हम ये घोषणा करते हैं कि मूर्तियाँ केवलअनपढ़लोगों द्वारा स्थापित की जातीं हैं।

स्वच्छंद विचारों के मार्ग पर चलने वाले यादर्शन शास्त्र पढने वाले जो सत्य का सार प्राप्त करना चाहतें हैं वे इश्वारुपसना को छोड़ अन्य सभी विचारों से मुक्त हैंऔर प्रतिक रूप में स्थापित की गयी चित्र आदि वस्तुवों की पूजा की कल्पना भी नहीं करते।“

(अल्बेरुनिस इंडिया डॉ. ई.सि.सोचोऊ भाष्य कितब१ अध्याय XI पृष्ट ११२-११३)

(२) अतः मौलाना अलबेरुनी आगे जोड़ते हैं :

“इन सभी मूढ़ प्रलापों को दर्शाने का  हमारा उद्देश्य पाठक को मूर्ति का विवरण देना है, अगर कोई कहीं मूर्ति देख ले  औरउसकी व्याख्या करे तो जैसा हमने पहले कहा कि मूर्तियाँ नासमझ अनपढ़निम्न दर्जे के लोगों द्वारा स्थापित की गयींऔर हिन्दुवों ने कभी इश्वर के मूर्तियों की स्थापना नहीं की।”

(ईबिड पृष्ट ११२)

षष्ट अध्याय

मूर्तिपूजा का मूलइसाई मत

हमारेमुसलमानऔरइसाई भाइयों की धारणा है कि मूर्तिपूजा का मूल हिन्दू मान्यताओं में हैं, निश्चित रूप से वे गलत हैं। पहले दर्शाये गए विचार अपनी व्याख्या खुद ही करतें हैं। स्वामी राम तीर्थ, जो यूरोप वासी तो नहीं थे परन्तु कई यूरोपीय और अमरीकियों के मार्गदर्शी हुए, पूछते हैं :

“…. भारत में मूर्तिपूजा कौन लाया?आज ये इसाई आपसे कहेंगे कि आप मूर्तिपूजक हो परन्तुभारतकी कविताओं, व्यक्रण, गणित, शिल्पकला, गायन और अन्य वृहद् वैदिक साहित्य में लेश मात्र भी मूर्तिपूजा के संकेत नहीं मिलते। यह मूर्तिपूजा आई कहाँ से? भारतीय धर्म के किसी भी रूप का ये हिस्सा नहीं है। मूर्तिपूजा भारत में ईसाईयों द्वारा आई। इतिहास का यह पृष्ट अब तक लोगों के नेत्रों से दूर रहा हैं परन्तु मेरा अनुसन्धान अबछपकरतैयार होगा।

“मैंने आतंरिक एवं बहारी दोनों साक्ष्यों द्वारा ये सिद्ध किया है कि ईसा के चौंथी और पाँचवी शताब्दीबाद भी कुछ रोमन कैथोलिकइसाई भारत में बसते हैं। दक्षिण भारत में वे संत थॉमस इसाई कहे जाते हैं। इन्होने ही मूर्तिपूजा की शुरुवात की। फिर आतंरिक साक्ष्य से, मैंने सिद्ध किया है कि मूर्तिपूजा के प्रबल समर्थक रामानुजकेनिर्देशकों में से एक ये संत थॉमस इसाई थे। जैसाहमें ज्ञात है, इन्होने पहले जिस मूर्ति को शीश नवाया वह पूर्वमुखी नहीं हैं।

“मेरे सौभाग्यावानो, यह दर्शाता है किमूर्तिपूजा का मूल उस मत में है जिसे आप इसाई मत कहतें हैं। येमिशनरी जोआज मूर्तिपूजा का खंडन करते हैं, एक ओर मुर्तिपूजा को निक्रिस्ट मानते हैं और दूसरी ओर मूर्तियों का व्यापार कर पैसे कमातें हैं। इस तरह तुम (मिशनरी) लोगोंका धर्मान्तरण करना चाहते हो। क्या यह मूर्तियाँ जिन्हें तुम बनाकर बेचते हो वो तुम्हारे गोसपेल से ज्यादा शक्तिशाली हैं? अब ये तुम ही निर्णय करो।“

(इन वुड्स ऑफ़ गॉड-रेलिज़ेशनकिताब ३ पृष्ट ३११-३१२)

इतने संस्कृत और यूरोपीय विद्वानों के साक्ष्य प्रस्तुत करने के बाद लिखने को कुछ और अधिक नहीं रह गया है। अब पाठक स्वयं ये निर्णय करे कि वेदों में मूर्तिपूजा की खोज कहाँ तक सफल होगी।

छोटे शब्दों में :

(क) …..ओल्ड टेस्टामेंट का इश्वर आदम और हव्वा से बातें करता है औरअब्राहम की रसोई से खाना खाता है औरमोसेस से वार्ता करने बादलों से प्रकट हो जाता है।

(ख) …ईसाईयों का इश्वर कुवांरी कन्याओं को गर्भवतीबना सकता है और इस तरह विश्वमें अपने “मात्र पुत्र” का जन्मदाता है।

(ग)  ….. कुरान का अल्लाह आदम, नोआह और अब्राहम के समक्ष प्रकट होने को हमेशा तैयार बैठा रहता है।

(घ)  …… परन्तु वैदिक इश्वर एक ऐसा है जो देहधारी नहीं है और किसी सीमा से बाधित नहीं है और निश्चित रूप से सभी देश, काल और वस्तु में वसता है।

हे सनातनी हिन्दू सज्जनों, आपने ऊपर दिए गए साक्ष्यों को पढ़ा और जाना कि सिर्फ दयानंद ही नहीं हैं जो मूर्तिपूजा त्यागने को कहतें हैं वरन वे सभी, जिन्होंने वेदों और अन्य प्राचीन शास्त्रों का अध्ययन किया है, यही मानते हैं। अतः आप सभी सत्य को स्वीकार करें, जैसा की आप जानते हैं:

“सत्यमेवजयते”

इति

 

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