यह समाधि नहीं है

ashutosh maharaj

यह समाधि नहीं है

आज सुबह से ही एक खबर देख रहा हू दिव्य ज्योति जागरण संस्था के संस्थापक श्री आशुतोष जी महाराज के शरीर को फ्रीजर में रखा है और संस्था के व्यस्थापको द्वारा  कहा जा रहा है महाराज समाधि में लिन है | जब की डॉक्टरओ द्वारा कहा जा चूका  है की उनकी मस्तिष्क में कोई गति विधि नहीं है जिसे अंग्रेजी में Brain Dead कहते है | उनके हृदय में कोई गति नहीं है, उनकी नाडी भी शांत है और चमड़ी ने भी रंग बदलना शरू हो गया है इस कारण डॉक्टरी भाषा में कहा जाय तो उनकी मृत्यु हो चुकी है और डॉक्टरओ ने भी उन्हें मृत घोषित कर दिया है, पर संस्था मानने को तयार नहीं है और बस एक रट लगाये है महाराज समाधि में लिन है और वो भी फ्रीज़र के शुन्य के तापमान में क्या यही समाधि है ? या समाधि किसी अन्य अवस्था को कहते है | हम योग दर्शन के आधार पर इस सत्य या असत्य को जानने का प्रयत्न करेंगे |

जो समाधि शब्द का प्रयोग बड़े साधारण स्थर पर करते है उन्हें समाधि को समझने के लिए सर्वप्रथम योग शब्द को समझना पडेंगा | योग दर्शन के समाधिपाद का दूसरा सूत्र :-

योगश्चितवृतिनिरोध: ||१:२||

परिभाषा :- योग है चित्त की वृतियो का निरोध=रोखना | चित्त की वृतियो को रोखना योग का स्वरुप है |

सांख्य में जिसे बुद्धि तत्व के नाम से कहा गया है, योग ने उसी को चित्त नाम दिया है | योग प्रक्रिया के अनुसार-एक विशिष्ट कार्य है – अर्थ तत्व का चिंतन | योग दर्शन में अर्थ तत्व से तात्पर्य परमात्मा तत्व से है | ईश्वर का निरंतर चिंतन इस शास्त्र का मुख्य उद्देश्य है और यह चिंतन बुद्धि द्वारा होता है | जब मानव योग विधियों द्वारा समाधि अवस्था को प्राप्त कर लेता है ; तब वह बाह्य विषयो के ज्ञान के लिए इन्द्रियों से बंधा नहीं रहता, उस दशा में बाह्य विषयो के ज्ञान के लिए इन्द्रियों से बंधा नहीं रहता, उस दशा में बाह्य इन्द्रियों के सहयोग के विना केवल अंत:करण द्वारा बाह्य विषयों के ग्रहण करने में समर्थ रहता है |

समाधि दो प्रकार की होती है १. सम्प्रज्ञात समाधि और २. असम्प्रज्ञात समाधि

सम्प्रज्ञात समाधि उस अवस्था को कहते है जब त्रिगुणात्मक अचेतन प्रकृति और चेतन आत्मा तत्व के भेद का साक्षात्कार हो जाता है | इसी का नाम ‘प्रकृति-पुरुष विवेक ख्याति’ है | परन्तु सम्प्रज्ञात समाधि की यह दशा वृति रूप होती है | विवेक ख्याति गुणों की एक अवस्था है | रजस,तमस का उद्रेक न होने पर सत्व गुण  की धारा प्रवाहित रहती है | योगी इसका भी निरोध कर पूर्ण शुद्ध आत्म स्वरुप में अवस्थित हो जाता है | वह वैराग्य की पराकाष्टा ‘धर्ममेध-समाधि’ नाम से योग शास्त्र [४/२९] में उदृत है |अभ्यास और वैराग्य दोनों उपायों के द्वारा चित्त की वृतियो का निरोध पर सम्प्रज्ञात समाधि की अवस्था आती है |

असम्प्रज्ञात समाधि उन योगियों को प्राप्त होती है जिन्होंने देह और इन्द्रियों में आत्म साक्षात्कार से निरंतर अभ्यास एवं उपासना द्वारा उनका साक्षात्कार कर उनकी नश्वरता जड़ता आदि को साक्षात् जान लिया है, और उसके फल स्वरुप उनकी और से नितांत विरक्त हो चुके है | वे लंबेकाल  तक देह-इन्द्रिय आदि के संपर्क में न आकर उसी रूप में समाधि जनित फल मोक्ष सुख के समान भोग करते है |

शास्त्रों [मुंडक,२/२/८; गीता,४/१९, तथा ३७ ] में ज्ञान अग्नि से समस्त कर्मो के भस्म हो जाने का जो उल्लेख उपलब्ध होता है, वह योग की उस अवस्था को समझना चाइये, जब आत्म साक्षात्कार पूर्ण स्थिरता के स्थर पर पहुचता है | अभी तक समस्त संस्कार आत्मा में विद्यमान रहते है | कोई भी संस्कार उभरने पर योगी समाधि भ्रष्ट हो जाता है |

समाधि लाभ के लिए दो गुणों की अत्यावश्यक है १. वैराग्य २. योग सम्बन्धी क्रिया अनुष्ठान | वैराग्य की स्तिथि होने पर भी यदि योगांगो के अनुष्ठान में शिथिलता अथवा उपेक्षा की भावना रहती है, तो शीघ्र समाधि लाभ की आशा नहीं रखनी चाइये |

सम्प्रज्ञात समाधि की दशा में योगी आत्मा और चित्त के भेद का साक्षात् कर लेता है | वह इस तथ्य को स्पष्ट रूप में आंतर प्रत्यक्ष में जान लेता है, की प्राप्त विषयों के अनुसार चित्त का परिणाम होता रहता है परन्तु आत्मा अपरिणामी रहता है |

आत्म बोध के अतिरिक्त इस अवस्था में अन्य किसी विषय का किसी भी प्रकार का ज्ञान न होने से योगी इस अवस्था का नाम ‘असम्प्रज्ञात समाधि’ है | इन दोनों में भेद केवल इतना है, कि पहली दशा में संस्कार उद्बुद्ध होते है, जब कि दूसरी दशा में नि:शेष हो जाते है |

समाधि अवस्था में आत्मा अपने रूप में अवस्तिथ होता है | अनुभव करना चैतन्य का स्वभाव है, वह उससे छुट नहीं सकता | फलत: जब वह केवल शुद्ध चैतन्य स्वरुप आत्मा का अनुभव करता है, तब उसे स्वरुप में अवस्थित कहा जाता है,केवल स्व का अनुभव करना ; अन्य समस्त विषयो से अछुता हो जाना | आत्मा इस अवस्था को प्राप्त कर समाधि शक्ति द्वारा परमात्मा के आनंद स्वरुप में निमग्न हो जाता है | उस आनंद का वह अनुभव करने लगता है | यही आत्मा के मोक्ष अथवा अपवर्ग का स्वरुप है |

यह हमने समाधि का संक्षिप्त में विवरण किया है और समाधि कि इस स्वरुप में मस्तिष्क कि गति, हृदय गति, नाडी का चलना अन्य सब बातें आवश्यक है | क्यों कि यह सब गति विधिया शरीर के लिए आवश्यक है और विना शरीर के समाधि अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती और शरीर को जीवित रखना है तो इन गति विधियों को होना आवश्यक है | इसलिए दिव्य ज्योति जागरण संस्था के संस्थापक श्री आशुतोष जी महाराज के शरीर कि इस अवस्था को समाधि अवस्था न कह कर इस अवस्था को मृत्यु कहा जायेंगा | और संस्था के प्रतिनिधि जो इस अवस्था को समाधि कह रहे है वह नितांत मूर्खता या पाखण्ड है | किसी भी शास्त्र में श्री आशुतोष जी महाराज कि जो अवस्था है उस अवस्था को समाधि नहीं कहा है |स्व में या परमात्मा के आनंद स्वरुप में स्तिथ रहने के लिए शरीर का जीवित अवस्था में होना आवश्यक है |

सहायता ग्रन्थ :- योग दर्शन भाष्य –भाष्यकार पंडित उदयवीर शास्त्री 

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