अहल्योद्धार

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अहल्योद्धार

लेखक – स्वामी विद्यानंद सरस्वती

 

धुरिधरत निज सीस पैकहु रहीम केहि काज |

जेहिरज  मुनि पत्नी तरी तेहिढूँढत गजराज ||

कहते हें कि हाथी चलते चलते अपनी सूंड से मिट्टी उठाकर अपने शरीर पर डालता रहता है ।  वह ऐसा क्यों करता है ? रहीम के विचार में वह उस मिट्टी को खोज रहा है जिसका स्पर्श पाकर मुनि पत्नी का उद्धार हो गया था ।  इस दोहे में जिस घटना का संकेत है उसके अनुसार गौतम मुनि की पत्नी अहल्या अपने पति के शाप से पत्थर हो गयी थी और रामचंद्र जी के चरणों की घुलि का स्पर्श पाकर पुनः मानवी रूप में आ गयी थी ।

पौराणिक कथा के अनुसार – एक समय ब्रह्मा जी ने अपनी इच्छा से एक अत्यंत रूपवती  कन्या की सृष्टी की और उसका विवाह गौतम ऋषी से कर दिया ।  एक बार इंद्र गौतम मुनि का रूप धारण करके उनकी स्त्री अहल्या के पास गया और उससे सम्भोग करने लगा ।  उसी समय गौतम वहाँ आ गए इस पर अहल्या ने उस छदमवेषधारी इंद्रा को कुटिया में छिपा दिया ।  तब वह द्वार खोलने गई ।  मुनि ने द्वार खोलने में देरी का कारन पूछा तो अहल्या ने वास्तविकता को छिपा कर बात बना दी ।  परन्तु ऋषी ने अपने तपोबल से सब कुछ जानकर अहल्या को पत्थर बन जाने का शाप दे दिया और यह भी कह दिया कि त्रेता में जब भगवान् राम अवतार लेंगे तो उनके चरणों की धूलि से तेरा उद्धार होगा ।

मनुष्य से पत्थर और लाखों वर्ष बाद पत्थर से मनुष्य बन जाने की गोस्वामी तुलसीदास द्वारा प्रचारित इस कथा का आदि कवी की रचना में कोई उल्लेख नहीं है ।  वाल्मीकि रचित रामायण में अहल्या के प्रसंग में बालकाण्डसर्ग ४८ में इस प्रकार लिखा है ।

इंद्र ने गौतम का वेश  धारण कर और वैसा ही स्वर बनाकर  अहल्या से कहा – अर्थी ” रति की कामना करने वाले ” ऋतू काल की प्रतीक्षा नहीं करते।  इसलिए में तुम्हारा समागम चाहता हूँ ।  दुष्ट बुद्धी अहल्या ने मुनि वेशधारी इंद्र को पहचान कर भी कुतूहलवश उससे समागम किया ।  तत्पश्चात अहल्या ने संतुष्ट मन से इंद्र से कहा – हे इंद्र में संतुष्ट हूँ अब तुम यहाँ से शीघ्र चले जाओ ।  इस पर इंद्र हंसते हुए बोला – में भी संतुष्ट हूँ ।  यह कह कर कुटिया से बहार निकल गया ।  गौतम मुनि ने इंद्र को कुटिया से निकलते हुए देख लिया और अहल्या को श्राप देते हुए कहा ‘ तू यहाँ सहस्त्रों वर्ष तक निवास करेगी आहार रहित केवल वायु का भक्षण करने वाली भस्म में सोने वाली संतप्त और सबसे अदृश्य रहकर इस आश्रम में वास करेगी ।  इससे यह प्रतीत होता है यद्यपि इंद्र ने गौतम का रूप धारण करके छल किया अहल्या के साथ समागम उसने उसके (अहल्या के ) स्वेच्छापूर्वक समर्पण के बाद ही किया ।  अर्थात अहल्या ने यह कुकृत्य जानबूझकर किया ।  हो सकता है कि बाद में अहल्या को अपने इस कुकृत्य पर पश्चाताप हुआ हो और लज्जा के कारन समाज से दूर रह कर अपना जीवन व्यतीत करने लगी हो – न किसी से बोल चाल न ढंग से खाना पीना इत्यादि ।  यही उसका पत्थर हो जाना कहा गया हो ।

उधर इंद्र ने अपने कुकृत्य को “सुरकर्म” बताया है (४९/२)  | परन्तु वहीं श्लोक ६ से स्पष्ट होता है कि इंद्र ने यह कृत्य बिना सोचे समझे काम के वशीभूत होकर किया  था ।  जहाँ इन श्लोकों में इंद्र के अहल्या की इच्छा से समागम करने की बात कही गई है । वहाँ निम्न श्लोक में उसे बलात्कारी बताया गया है ।-

पहले विचार न करके मोह से मुनि पत्नी से बलात्कार करके  मुनि के शाप से उसी स्थान पर वृषण हीन  किया गया ।  इंद्र अब देवों पर क्रोध कर रहा है ।  ४९/६-७

पुनः सर्ग ५१ में गौतम के पुत्र शानंद का वक्तव्य भी दृष्टव्य है ।  उसने अपनी माता को ‘यशस्विनी  (श्लोक ५-६ ) बताया है ।  स्पष्ट है कि अहल्या ने इंद्र के साथ समागम अपनी इच्छा से नहीं किया था ।  इंद्र के छल से ही वह चाल चली  थी ।  आगे कहा है राम और लक्ष्मण ने उसके पैर छुए (४९/१९) यही नहीं अहल्या ने भी दोनों को अतिथि रूप में स्वीकार  किया और उनका स्वागत किया यदि अहल्या का चरित्र संदिग्ध होता तो क्या यह सब कुछ होता ?

इस समस्त वर्णन में अहल्या के शीला रूप होने और राम की चरण रज के स्पर्श से पुनः मानवी रूप में आने का कहीं संकेत तक नहीं है।  रामायण का प्रसिद्ध  टीकाकार गोविंदराज भी इस बात को नहीं मनाता ।  उन्होंने स्पष्ट लिखा है  वाल्मीकि को अहल्या का पाषाण रूप होना अभिमत नहीं है ।

अहल्या सम्बन्धी उस कथा को विश्वामित्र से सुनकर जब राम लक्ष्मण ने गौतम मुनि के आश्रम में प्रवेश किया तो उन्होंने अहल्या को जिस रूप में देखा उसका वर्णन वाल्मीकि ने इस प्रकार किया है – तप से दीप्तमान रूप वाली बादलों से मुक्त पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा के समान तथा प्रदीप्त अग्निशिखा और सूर्य के तेज के समान – क्या यह शिला  रूप अहल्या का वर्णन हो सकता है ? इतना ही नहीं शाप का अंत हुआ जानकर वह राम के दर्शनाथ आई।  शिलाभूत अहल्या के गमनार्थक “आई ” क्रिया पद का प्रयोग कैसे हो सकता था ? वस्तुतस्तु अहल्या अपने पति गौतम मुनि की भांति तपोनिष्ठ देवी थी |

ब्राह्मण ग्रंथों में इंद्र को ‘अहल्यायैजार’ कहा है ।  इसके रहस्य को न समझने के कारण लोगों ने मनमाने ढंग से कथा गढ़कर  अहल्या पर चरित्र दोष लगाया है ।  इस रहस्य को तंत्र वार्तिक के शिष्टाचार प्रकरण में शंका को पूर्ववर्ती भट्टाचार्य ने इस प्रकार स्पष्ट किया है – इंद्र का अर्थ है परम ऐश्वर्यवान वह कौन अहि ? सूर्य ।  अहल्या दो शब्दों से मिलकर बना है – अह और ल्या।  अह का अर्थ अहि दिन और ल्या  का अर्थ है छिपने वाली।  इस प्रकार दिन में छिपाने वाली या न रहने वाली को अहल्या कहते हैं ।  वह कौन है ? “रात्रि ” जार का अर्थ है जीर्ण करने वाला ।  रात्रि को जीर्ण  क्षीण करने वाला होने से सूर्य ही रात्रि अर्थात अहल्या का जार कहलाता है ।  इस प्रकार यह परस्त्री से व्यभिचार करने वाले किसी पुरुषविशेष (इंद्र ) का कोई प्रसंग नहीं है ।

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