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जन्म जात वर्ण व्यवस्था को पोषित करते श्री कृष्ण के छ्दम शिष्य – ऋश्व आर्य

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जन्म जात वर्ण व्यवस्था को पोषित करते श्री कृष्ण के छ्दम शिष्य – ऋश्व आर्य

आजकल वैश्वीकरण हो रहा है पारम्परिक शिक्षा के तरीके बदल चुके हैं और अभी वर्तमान में प्रचिलत तरीकों में भी तीव्रता से परिवर्तन देखने को मिल रहा है। वैश्वीकरण ने और पारम्परिक सामूहिक पारिवारिक वास की परंपरा भी समाप्त कर दी है। आजकल एकल परिवार की प्रथा चल रही है। व्यक्ति अपनी जीविका की तलाश में विदेशों तक जाने में नहीं हिचकिचाता। ऐसे समय में जब शैक्षिक उन्नति हो रही है जीवन जीने के तरीके बदल चुके हैं जाति प्रथा नामक दानव को समाप्त करने के लिए इतने अभियान चलाये गए और चलाये जा रहे हैं फिर भी कुछ लोगों को इस बुराई को अपनाये रखना और उसके समर्थन में social media पर वर्तमान समय में व्यर्थ का प्रलाप करना उनकी संकुचित मानसिकता को प्रदर्शित करता है.
गलत बात का लगातार समर्थन करना ऐतिहासिक प्रमाणों को झुठलाना, वेदों के आदेश को न मानना इनको हठधर्मी ही सिद्ध करता है। सभी जीव मात्र का पिता पालनहार परम पिता परमेश्वर है। परमपिता परमेश्वर प्रत्येक मनुष्य को समान अधिकार प्रदान करता है। ईश्वर ने सभी मनुष्यों को सामान अधिकार दिया है। समानता और सद्भाव से व्यवहार करने का आदेश दिया है।
श्री कृष्ण को ईश्वर का अवतार मानने वाले ये प्रपंची श्री कृष्ण के गीता ज्ञान के श्लोकों जिनमे सभी जीवों से समभाव का सन्देश दिया है जीवन में उतारने से कतराते हैं। जाती वाद के नाम पर दुष्प्रचार करने वालो आप श्री कृष्ण के परम भक्त होने का दम्भ भरते हो ! अरे राह से भटके हुए भाइयों जरा कृष्ण के गीता ज्ञान को पड़ तो लेते कि श्री कृष्ण ने ईश्वर भक्त के क्या लक्षण बताये हैं। क्या आप जैसे व्यक्ति जो मानंव मात्र को जन्म जात जाती प्रथा के आधार पर बांटकर अनेक प्रकार के अत्याचार करते हो , कहीं से भी श्री कृष्ण के शिष्य होने के अधिकारी हो ?
इश्वर भक्त के लक्ष्ण बताते हुए योगेश्वर श्री कृष्ण कहते हैं की ” विद्या विनय सम्पन्ने ब्रहामने गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिन: (गीता 5/18) प्रभु को सर्वत्र विद्यमान जानने वालाल मनुस्य्स विद्या विनय से युक्त ब्राहमण गौ हाथी कुत्ते और चंडाल आदि में सम रूप से अवस्थित प्रभु का प्रत्यक्ष अनुभव करता है और इन सबको सामान दृष्टी से देखता अर्थात व्यवहार करता है। जब मनुष्य हर व्यक्ती के अन्दर प्रभु का प्रतिरूप देखता है तो उसका उन प्राणियों के प्रति द्वेष की भावना जाती रहती है और वह समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ ब्राहमण से लेकर न्रिक्रिष्ठ चंडाल में तथा पशुओं में श्रेष्ठ गाय से लेकर पशुओं में निकृष्ट कुत्ते तक को समभाव से देखता है।
योगेश्वर श्री कृष्ण समस्त प्राणियों में सम दृष्टी रखने का एवं सभी के सुख दुःख को अपना सुख दुःख समझकर समद्रिष्टी रखने का उपदेश देते हुए कहते हैं कि

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति यो अर्जुन ।
सुखं वास यदि वा दुखम स योगी परमो मतः ।
हे अर्जुन जो अपने आपको उपमान रखकर अर्थात जैसा दुःख मुझे होता है ऐसा ही होता है यह समझकर समभाव से सबकी सेवा करता है उसे परम योगी माना जाता है। शंकर ने अपने गीता भाष्य में इस श्लोक की व्याख्या करते हुए लिखा है की जो मनुष्य यह समझ जाता है की जैसे मुझे अनुकूलता में सुख और प्रतिकूलता में दुःख का अनुभव होता है वैसे ही दूसरों को भी अनुकूलता में सुख और प्रतिकूलता में दुःख होता है वह कभी किसी के प्रतिकूल आचरण नहीं करता है।
जयदयाल इसी का भाष्य करते हुए तत्वाविवेचनी में लिखते हैं की सर्वत्र आत्मदर्शी हो जाने के कारण समस्त विराट विश्व उसका स्वरुप बन जाता है। जगत में उसके लिए दूसरा कुछ रहता ही नहीं। इसलिए जैसे मनुष्य अपने आपको कभी किसी प्रकार ज़रा भी दुःख पहुंचाना नहीं चाहता तथा स्वाभाविक ही निरंतर सुख पाने के लिए ही अथक चेष्टा करता रहता है ऐसा करके न वह कभी अपने पर अपनेको कृपा करने वाला मानकर बदले में कृतज्ञता चाहता है न कोई अहसान करता है और न अपने को कर्त्तव्य परायण समझकर अभिमान ही करता है वह अपने सुख की चेष्टा इसीलिये करता है की उससे वैसा किये बिना रहा ही नहीं जाता यह उसका सहज स्वभाव होता है ठीक वैसे ही वह योगी समस्त विश्व को कभी किसी प्रकार किंचित भी दुःख न पहुंचाकर सदा उसके लिए सहज स्वभाव ही चेष्टा करता है।

काश इस मूढ़ प्राणियों ने श्री कृष्ण के छदम शिष्य होने के दम्भ न भरकर ईश्वर प्राप्ति भक्ति में सार्थक प्रयत्न किया होता तो ब्रह्म की निकटता में मन की यह मलीनता दूर हो गयी होती और श्री कृष्ण की तरह ये भी समस्त जीवों में ईश्वर का वास अनुभव कर सकते और सम भावना का व्यवहार करने में समर्थ होते।