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ईश्वरीय ज्ञान: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

 

अपनी मृत्यु से पूर्व स्वामी रुद्रानन्द जी ने ‘आर्यवीर’ साप्ताहिक

में एक लेख दिया। उर्दू के उस लेख में कई मधुर संस्मरण थे।

स्वामीजी ने उसमें एक बड़ी रोचक घटना इस प्रकार से दी।

 

आर्यसमाज का मुसलमानों से एक शास्त्रार्थ हुआ। विषय था ईश्वरीय

ज्ञान। आर्यसमाज की ओर से तार्किक शिरोमणि पण्डित श्री रामचन्द्रजी

देहलवी बोले। मुसलमान मौलवी ने बार-बार यह युक्ति दी कि

सैकड़ों लोगों को क़ुरआन कण्ठस्थ है, अतः यही ईश्वरीय ज्ञान है।

पण्डितजी ने कहा कि कोई पुस्तक कण्ठस्थ हो जाने से ही ईश्वरीय

ज्ञान नहीं हो जाती। पंजाबी का काव्य हीर-वारसशाह व सिनेमा के

गीत भी तो कई लोग कण्ठाग्र कर लेते हैं। मौलवीजी फिर ज़ी यही

रट लगाते रहे कि क़ुरआन के सैकड़ों हाफ़िज़ हैं, यह क़ुरआन के

ईश्वरीय ज्ञान होने का प्रमाण है।

 

श्री स्वामी रुद्रानन्दजी से रहा न गया। आप बीच में ही बोल

पड़े किसी को क़ुरआन कण्ठस्थ नहीं है। लाओ मेरे सामने, किस

को सारा क़ुरआन कण्ठस्थ है।

 

इस पर सभा में से एक मुसलमान उठा और ऊँचे स्वर में

कहा-‘‘मैं क़ुरआन का हाफ़िज़ हूँ।’’

स्वामी रुद्रानन्दजी ने गर्जकर कहा-‘‘सुनाओ अमुक आयत।’’

वह बेचारा भूल गया। इस पर एक और उठा और कहा-‘‘मैं

यह आयत सुनाता हूँ।’’ स्वामीजी ने उसे कुछ और प्रकरण सुनाने

को कहा वह भी भूल गया। सब हाफ़िज़ स्वामी रुद्रानन्दजी के

सज़्मुख अपना कमाल दिखाने में विफल हुए। क़ुरआन के ईश्वरीय

ज्ञान होने की यह युक्ति सर्वथा बेकार गई।

 

‘आर्यसमाज की स्थापना और इसके नियमों पर एक दृष्टि’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

महर्षि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) उन्नीसवीं शताब्दी के समाज व धर्म-मत सुधारकों में अग्रणीय महापुरुष हैं। उन्होंने 10 अप्रैल सन् 1875 ई. (चैत्र शुक्ला 5 शनिवार सम्वत् 1932 विक्रमी) को मुम्बई में आर्यसमाज की  स्थापना की थी। इससे पूर्व उन्होंने 6 या 7 सितम्बर, 1872 को वर्तमान बिहार प्रदेश के आरा स्थान पर आगमन पर भी वहां आर्यसमाज स्थापित किया था। उपलब्ध इतिहास व जानकारी के अनुसार यह प्रथम आर्यसमाज था। महर्षि दयानन्द सरस्वती की जीवनी के लेखक पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय रचित जीवन चरित में इस विषय में उल्लेख है कि नगर के सभी सम्भ्रान्त पुरुष महाराज के दर्शनार्थ आते थे और सन्ध्यासमय उनके पास अच्छी भीड़ लग जाती थी। स्वामीजी ने आरा में एक सभा की भी स्थापना की थी जिसका उद्देश्य आर्यधर्म और रीतिनीति का संस्कार करना था, परन्तु उसके एकदो ही अधिवेशन हुए। स्वामी जी के आरा से चले जाने के पश्चात् थोड़े ही दिन में उसकी समाप्ती (गतिविधियां बन्द) हो गई। जिन दिनों आर्यसमाज आरा की स्थापना हुई, तब न तो सत्यार्थप्रकाश प्रकाशित हुआ था और न हि संस्कारविधि, आर्याभिविनय वा अन्य किसी प्रमुख ग्रन्थ की रचना ही हुई थी। आरा में स्वामीजी का प्रवास मात्र 1 या 2 दिनों का होने के कारण आर्यसमाज के नियम आदि भी नहीं बनाये जा सके थे। यहां से स्वामीजी पटना आ गये थे और यहां 25 दिनों का प्रवास किया था। आरा में स्वामीजी ने पं. रुद्रदत्त और पं. चन्द्रदत्त पौराणिक मत के पण्डितों से मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ किया था। प्रसंग उठने पर आपने बताया था कि सभी पुराण ग्रन्थ वंचक लोगों के रचे हुए हैं। आरा में स्वामी जी के दो व्याख्यान हुए जिनमें से एक यहां के गवर्नमेंट स्कूल के प्रांगण में हुआ था। व्याख्यान वैदिक धर्म विषय पर था जिसमें बोलते हुए स्वामी जी ने कहा था कि प्रचलित हिन्दूधर्म और रीतिरिवाज वेदानुमोदित नहीं हैं, प्रतिमापूजा वेदप्रतिपादित नहीं है, विधवा विवाह वेदसम्मत और बालविवाह वेदविरुद्ध है। व्याख्यान में स्वामी जी ने कहा था कि गुरुदीक्षा करने की रीति आधुनिक है तथा मन्त्र देने का अर्थ कान में फूंक मारने का नहीं है, जैसा कि दीक्षा देने वाले गुरू करते थे।

 

स्वामी दयानन्द जी ने 31 दिसम्बर 1874 से 10 जनवरी 1875 तक राजकोट में प्रवास कर वैदिक धर्म का प्रचार किया। यहां जिस कैम्प की धर्मशाला में स्वामी ठहरे, वहां उन्होंने आठ व्याख्यान दिये जिनके विषय थे ईश्वर, धर्मोदय, वेदों का अनादित्व और अपौरुषेयत्व, पुनर्जन्म, विद्याअविद्या, मुक्ति और बन्ध, आर्यों का इतिहास और कर्तव्य। यहां स्वामीजी ने पं. महीधर और जीवनराम शास्त्री से मूर्तिपूजा और वेदान्त-विषय पर शास्त्रार्थ भी किया। स्वामीजी का यहां राजाओं के पुत्रों की शिक्षा के कालेज, राजकुमार कालेज में एक व्याख्यान हुआ। उपदेश का विषय था ‘‘अंहिसा परमो धर्म यहां स्कूल की ओर से स्वामीजी को प्रो. मैक्समूलर सम्पादित ऋग्वेद भेंट किया गया था। राजकोट में आर्यसमाज की स्थापना के विषय में पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय रचित महर्षि दयानन्द के जीवन चरित में निम्न विवरण प्राप्त होता है-स्वामीजी ने यह प्रस्ताव किया कि राजकोट में आर्यसमाज स्थापित किया जाए और प्रार्थनासमाज को ही आर्यसमाज में परिणत कर दिया जाए। प्रार्थनासमाज के सभी लोग इस प्रस्ताव से सहमत हो गये। वेद के निभ्र्रान्त होने पर किसी ने आपत्ति नहीं की। स्वामीजी के दीप्तिमय शरीर और तेजस्विनी वाणी का लोगों पर चुम्बक जैसा प्रभाव पड़ता था। वह सबको नतमस्तक कर देता था। आर्यसमाज स्थापित हो गया, मणिशंकर जटाशंकर और उनकी अनुपस्थियों में उत्तमराम निर्भयराम प्रधान का कार्य करने के लिए और हरगोविन्ददास द्वारकादास और नगीनदास ब्रजभूषणदास मन्त्री का कर्तव्य पालन करने के लिए नियत हुए। आर्यसमाज के नियमों के विषय में इस जीवन-चरित में लिखा है कि स्वामीजी ने आर्यसमाज के नियम बनाये, जो मुद्रित कर लिये गये। इनकी 300 प्रतियां तो स्वामीजी ने अहमदाबाद और मुम्बई में वितरण करने के लिए स्वयं रख लीं और शेष प्रतियां राजकोट और अन्य स्थानों में बांटने के लिए रख ली गई जो राजकोट में बांट दी र्गइं, शेष गुजरात, काठियावाड़ और उत्तरीय भारत के प्रधान नगरों में भेज दी गईं। उस समय स्वामी जी की यह सम्मति थी कि प्रधान आर्यसमाज अहमदाबाद और मुम्बई में रहें। आर्यसमाज के साप्ताहिक अधिवेशन प्रति आदित्यवार को होने निश्चित हुए थे। यह ध्यातव्य है कि राजकोट में आर्यसमाज की स्थापना पर बनाये गये नियमों की संख्या 26 थी। इनमें से 10 नियमों को आगे प्रस्तुत किया जा रहा है।

 

इसके बाद मुम्बई में 10 अप्रैल, सन् 1875 को आर्यसमाज की स्थापना हुई। इससे सम्बन्धित विवरण पं. लेखराम रचित महर्षि दयानन्द के जीवन चरित्र से प्रस्तुत है। वह लिखते हैं कि ‘स्वामीजी के गुजरात की ओर चले जाने से आर्यसमाज की स्थापना का विचार जो बम्बई वालों के मन में उत्पन्न हुआ था, वह ढीला हो गया था परन्तु अब स्वामी जी के पुनः आने से फिर बढ़ने लगा और अन्ततः यहां तक बढ़ा कि कुछ सज्जनों ने दृढ़ संकल्प कर लिया कि चाहे कुछ भी हो, बिना (आर्यसमाज) स्थापित किए हम नहीं रहेंगे। स्वामीजी के लौटकर आते ही फरवरी मास, सन् 1875 में गिरगांव के मोहल्ले में एक सार्वजनिक सभा करके स्वर्गवासी रावबहादुर दादू बा पांडुरंग जी की प्रधानता में नियमों पर विचार करने के लिए एक उपसभा नियत की गई। परन्तु उस सभा में भी कई एक लोगों ने अपना यह विचार प्रकट किया कि अभी समाज-स्थापन न होना चाहिये। ऐसा अन्तरंग विचार होने से वह प्रयत्न भी वैसा ही रहा (आर्यसमाज स्थापित नहीं हुआ)।’ इसके बाद पं. लेखराम जी लिखते हैं, और अन्त में जब कई एक भद्र पुरुषों को ऐसा प्रतीत हुआ कि अब समाज की स्थापना होती ही नहीं, तब कुछ धर्मात्माओं ने मिलकर राजमान्य राज्य श्री पानाचन्द आनन्द जी पारेख को नियत किए हुए नियमों (राजकोट में निर्धारित 26 नियम) पर विचारने और उनको ठीक करने का काम सौंप दिया। फिर जब ठीक किए हुए नियम स्वामीजी ने स्वीकार कर लिए, तो उसके पश्चात् कुछ भद्र पुरुष, जो आर्यसमाज स्थापित करना चाहते थे और नियमों को बहुत पसन्द करते थे, लोकभय की चिन्ता करके, आगे धर्म के क्षेत्र में आये और चैत्र सुदि 5 शनिवार, संवत् 1932, तदनुसार 10 अप्रैल, सन् 1875 को शाम के समय, मोहल्ला गिरगांव में डाक्टर मानक जी के बागीचे में, श्री गिरधरलाल दयालदास कोठारी बी.., एल.एल.बी. की प्रधानता में एक सार्वजनिक सभा की गई और उसमें यह नियम (28 नियम) सुनाये गये और सर्वसम्मति से प्रमाणित हुए और उसी दिन से आर्यसमाज की स्थापना हो गई।

 

हम अनुमान करते हैं कि पाठक आर्यसमाज के उन 28 नियमों को अवश्य जानने को उत्सुक होंगे जो मुम्बई में स्थापना के अवसर पर स्वीकार किये गये थे। यदि इन सभी नियमों को प्रस्तुत करें तो लेख का आकार बहुत बढ़ जायेगा अतः चाहकर भी हम केवल 10 नियम ही दे रहे हैं। पाठकों से निवेदन है कि वह इन नियमों को पं. लेखराम रचित महर्षि दयानन्द के जीवन चरित में देख लें। महर्षि दयानन्द के पत्र और विज्ञान के दूसरे भाग में तृतीय परिशिष्ट के रूप में यह 28 नियम महर्षि दयानन्द कृत हिन्दी व्याख्या सहित दिये गये हैं। वहां इन्हें देख कर भी लाभ उठाया जा सकता है। 28 में से प्रथम 10 नियम हैं। 1-सब मनुष्यों के हितार्थ आर्यसमाज का होना आवश्यक है। 2-इस समाज में मुख्य स्वतःप्रमाण वेदों का ही माना जायेगा। साक्षी के लिए तथा वेदों के ज्ञान के लिए और इसी प्रकार आर्य-इतिहास के लिए, शतपथ ब्राह्मणादि 4, वेदांग 6, उपवेद 4, दर्शन 6 और 1127 शाखा (वेदों के व्याख्यान), वेदों के आर्ष सनातन संस्कृत ग्रन्थों का भी वेदानुकूल होने से गौण प्रमाण माना जायगा। 3- इस समाज में प्रति देश के मध्य (में) एक प्रधान समाज होगा और दूसरी शाखा प्रशाखाएं होंगीं। 4- प्रधान समाज के अनुकूल और सब समाजों की व्यवस्था रहेगी। 5- प्रधान समाज में वेदोक्त अनुकूल संस्कृत आर्य भाषा में नाना प्रकार के सत्योपदेश के लिए पुस्तक होंगे और एक आर्यप्रकाश पत्र यथानुकूल आठ-आठ दिन में निकलेगा। यह सब समाज में प्रवृत्त किये जायेंगे। 6-प्रत्येक समाज में एक प्रधान पुरुष, और दूसरा मंत्री तथा अन्य पुरुष और स्त्री, यह सब सभासद् होंगे। 7- प्रधान पुरुष इस समाज की यथावत् व्यवस्था का पालन करेगा और मंत्री सबके पत्र का उत्तर तथा सबके नाम व्यवस्था लेख करेगा। 8- इस समाज में सत्पुरुष सत्-नीति सत्-आचरणी मनुष्यों के हितकारक समाजस्थ (सदस्य बन सकेंगे) किये जायेंगे। 9- जो गृहस्थ गृहकृत्य से अवकाश प्राप्त होय सो जैसा घर के कामों में पुरुषार्थ करता है उससे अधिक पुरुषार्थ इस समाज की उन्नति के लिए करे और विरक्त तो नित्य इस समाज की उन्नति ही करे, अन्यथा नहीं। 10- प्रत्येक आठवें दिन प्रधान मंत्री और सभासद् समाज स्थान में एकत्रित हों और सब कामों से इस काम को मुख्य जानें।

 

28 नियमों के बाद पं. लेखराम जी लिखते हैं कि फिर अधिकारी नियत किये गए। तत्पश्चात् प्रति शनिवार सायंकाल की आर्यसमाज के अधिवेशन होने लगे, परन्तु कुछ मास के पश्चात् शनिवार का दिन सामाजिक पुरुषों के अनुकूल न होने से रविवार का दिन रखा गया जो अब तक है।

 

मुम्बई के बाद लाहौर में स्थापित आर्यसमाज का विशेष महत्व है। यहां न केवल महर्षि दयानन्द जी द्वारा आर्यसमाज की स्थापना ही की गई अपितु मुम्बई में जो 28 नियम स्वीकार किए गये थे उन्हें संक्षिप्त कर 10 नियमों में सीमित कर दिया गया और 8 सितम्बर, सन् 1877 को उन्हें विज्ञापित भी कर दिया गया। इससे सम्बन्धित विवरण पं. लेखराम रचित जीवन में मिलता है। वहां लिखा है कि ‘विदित हो कि जब स्वामी जी डाक्टर रहीम खां साहब की कोठी (जो नगर के बाहर छज्जू भगत के चैबारे से लगी हुई थी) में उतरे थे, उस समय उन्होंने लोगों को बतलाया कि आर्यधर्म की उन्नति तभी हो सकती है जब नगरनगर और ग्रामग्राम में आर्यसमाज स्थापित हो जावें। चूंकि स्वामीजी के उपदेशों से लोगों के विचार अपने धर्म पर दृढ़ हो चुके थे, सब लोगों ने इस बात को स्वीकार किया और 24 जून, सन् 1877, रविवार तदनुसार जेठ सुदि 13 संवत् 1934 वि. आषाढ़ 12, संक्रान्ति के दिन लाहौर नगर में आर्यसमाज स्थापित हुआ। चूंकि इससे पहले बम्बई और पूना में आर्यसमाज स्थापित हो चुका था और नियम भी निश्चित हो चुके थे किन्तु वे बहुत विस्तृत थे, उन विस्तृत नियमों को पंजाब में यहां के कुछ लोगों के कहने से उनकी सम्मति से स्वामीजी ने संक्षिप्त कर दिया और वे नियम 8 सितम्बर, सन् 1877 के समाचार पत्र खैरख्वाह और स्टार आफ इण्डिया खंड 12, संख्या 17, पृष्ठ 8 सियालकोट नगर में प्रकाशित हुए। यह संक्षिप्त किये गये 10 नियम वर्तमान में भी प्रचलित हैं। यह नियम हैं, 1-सब सत्यविद्या और विद्या से जो पदार्थ जाने जाते हैं उनका सबका आदिमूल परमेश्वर है। 2-ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करनी योग्य है। 3-वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है। 4- सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। 5- सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहियें। 6-संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। 7- सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य वर्तना चाहिये। 8-अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। 9- प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न रहना चाहिये किन्तु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये। तथा 10-सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें।

 

आर्यसमाज लाहौर की स्थापना का आर्यसमाज में उल्लेखनीय स्थान है। इस आर्यसमाज से ही आर्यसमाज को लाला साईं दास, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, लाला लाजपतराय और लाला जीवनदास जैसे प्रमुख विद्वान व नेता मिले। गुरुकुल कांगड़ी जैसी विश्व विख्यात राष्ट्रीय शिक्षा संस्था और डी.ए.वी. आन्दोलन में भी आर्यसमाज लाहौर व पंजाबस्थ आर्यसमाजों की ही महत्वपूर्ण भूमिका है। महर्षि दयानन्द जी का पं. लेखराम रचित विस्तृत जीवन चरित भी पंजाब आर्य प्रतिनिधि सभा की ही देन है। महर्षि दयानन्द की मृत्यु के बाद महर्षि के यश व गौरव को बढ़ाने और समाज सुधार व धर्म सुधार व प्रचार का जो कार्य आर्यसमाज लाहौर और पंजाब की आर्य प्रतिनिधि सभा ने किया वह इससे पूर्व स्थापित आर्यसमाजों और प्रादेशिक सभाओं से नहीं हो सका। हम आशा करते हैं कि इस लेख से पाठकों को आर्यसमाज की स्थापना और आर्यसमाज के नियमों की इतिहास व निर्णय संबंधी जानकारी मिलेगी। इसी के साथ लेखनी को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2, देहरादून-248001

इतिहास प्रदूषण – प्राक्कथन : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु  

आर्य समाज के इतिहास में मिलावट की दुखद कहानी 

इस विनीत ने इस पुस्तक को कालक्रम से नहीं लिखा। न ही

निरन्तर बैठ कर लिखा। जब-जब समय मिला जो बात लेखक के

ध्यान में आई अथवा लाई गई, उसे स्मृति के आधार पर लिखता

चला गया। इन पंक्तियों के लेखक ने आर्यसमाज से ऐसे संस्कार

विचार पाये कि अप्रामाणिक कथन व लेखन इसे बहुत अखरता है।

बहुत छोटी आयु में पं0 लेखराम जी, आचार्य रामदेव जी, पं0

रामचन्द्र जी देहलवी, पं0 शान्तिप्रकाश जी, पं0 लोकनाथ जी

आदि द्वारा दिये जाने वाले प्रमाणों व उद्धरणों की सत्यता की चर्चा

अपने ग्राम के आर्यों से सुन-सुन कर लेखक ने इस गुण को अपने

में पैदा करने की ठान ली।

भूमण्डल प्रचारक मेहता जैमिनि जी, स्वामी स्वतन्त्रतानन्द जी

और स्वामी वेदानन्द जी महाराज को जब पहले पहल सुना तो उन्हें

बहुत सहज भाव से विभिन्न ग्रन्थों को उद्धृत करते सुना। उनकी

स्मरण शज़्ति की सब प्रशंसा किया करते थे। उनको बहुत कुछ

कण्ठाग्र था। उनके द्वारा दिये गये प्रमाणों, तथ्यों तथा अवतरणों

(Quotations) में आश्चर्यजनक शुद्धता ने इन पंक्तियों के लेखक

पर गहरी व अमिट छाप छोड़ी। पुराने आर्य विद्वानों की यह विशेषता

आर्यसमाज की पहचान बन गई। अप्रमाणिक कथन को आर्य नेता,

विद्वान् व संन्यासी तत्काल चुनौती दे देते थे।

इतिहास केसरी पं0 निरञ्जजनदेव जी अपने आरंभिक  काल

का एक संस्मरण सुनाया करते थे। देश-विभाजन के कुछ समय

पश्चात् आर्यसमाज रोपड़ (पंजाब) के उत्सव पर पं0 निरञ्जनदेव

जी ने व्याज़्यान देते हुए दृष्टान्त रूप में एक रोचक घटना सुनाई।

दृष्टान्त तो अच्छा था, परन्तु यह घटना घटी ही नहीं थी। यह तो एक

गढ़ी गई कहानी थी। पूज्यपाद स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने अपने

शिष्य का व्याख्यान  बड़े ध्यान से सुना।

बाद में पण्डित जी से पूछा-‘‘यह घटना कहाँ से सुनी? क्या

कहीं से पढ़ी है?’’

पं0 निरञ्जनदेव ने झट से किसी मासिक के अंक का पूरा अता

पता तथा पृष्ठ संख्या  बताकर गुरु जी से कहा-‘‘मैंने उस पत्रिका

में छपे लेख में इसे पढ़ा था।’’

शिष्य से प्रमाण का पूरा अता-पता सुनकर महाराज बड़े प्रसन्न

हुए और कहा-‘‘प्रेरणा देने के लिए यह दृष्टान्त है तो अच्छा,

परन्तु यह घटना सत्य नहीं है। ऐसी घटना घटी ही नहीं।’’

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, स्वामी आत्मानन्द जी, श्री महाशय

कृष्ण जी नये-नये युवकों से भूल हो जाने पर उन्हें ऐसे ही सजग

किया करते थे।

अंजाने में भूल हो जाना और बात है, परन्तु जानबूझ कर और

स्वप्रयोजन से इतिहास प्रदूषित करने के लिए चतुराई से मनगढ़न्त

कहानियाँ, बढ़ा-चढ़ाकर, घटाकर हदीसें गढ़ना यह देश, धर्म व

समाज के लिए घातक नीति है।

आर्यसमाज के आरम्भिक  काल में ऋषि दयानन्द जी के सुधार

के कार्यों से प्रभावित होकर कई बड़े-बड़े व्यक्ति  आर्यसमाज में

आए। वे ऋषि के धार्मिक तथा दार्शनिक सिद्धान्तों में आस्था विश्वास

नहीं रखते थे। इन्होंने अपने परिवारों में, अपने व्यवहार, आचार में

वैदिक धर्म का प्रवेश ही न होने दिया। इन बड़े लोगों को न समझने

से आर्यसमाज की बहुत क्षति हुई। इनमें से कई प्रसिद्धि पाकर

समाज को छोड़ भी गये। इतिहास-प्रदूषण का यह भी एक कारण

बना।

मेहता राधाकिशन द्वारा लिखित आर्यसमाज का इतिहास (उर्दू)

में क्या  इतिहास था? लाला लाजपतराय जी ने अपनी अंग्रेज़ी

पुस्तक में कुछ संस्थाओं व पीड़ितों की सहायता पर तो लिखा है,

परन्तु पं0 लेखराम जी, वीर तुलसीराम, महात्मा नारायण स्वामी

आदि हुतात्माओं, महात्माओं का नाम तक नहीं दिया। इसे आप

क्या  कहेंगे?

कुछ वर्षों से पुराने विद्वानों और महारथियों के उठ जाने से

वक्ता  लेखक जो जी में आता है लिख देते हैं और जो मन में आता

है बोल देते हैं। कोई रोकने-टोकने वाला रहा नहीं। इस आपाधापी

व मनमानी को देखकर मन दुखी होता है। सम्पूर्ण आर्य जगत् से

आर्यजन मनगढ़न्त हदीसों को पढ़कर लेखक को प्रश्न पूछते रहते हैं।

इतिहास की यह तोड़-मरोड़ एक सांस्कृतिक आक्रमण

है। बहुत ध्यान से इस पर विचारा तो पता चला कि सन् 1978 से

ऋषि दयानन्द जी की जीवनी की आड़ लेकर डॉ0 भवानीलाल जी

ने आर्यसमाज के इतिहास को प्रदूषित करने का अभियान छेड़ रखा

है। ‘आर्यसन्देश’ साप्ताहिक दिल्ली में एक लेख देकर स्वयं को

धरती तल पर आर्यसमाज का सबसे बड़ा इतिहासकार घोषित

करके जो जी में आता है लिखते चले जा रहे हैं।

आस्ट्रेलिया के डॉ0 जे0 जार्डन्स ने अंग्रेज़ी में लिखी अपनी

पुस्तक में कोलकाता की आर्य सन्मार्ग संदर्शिनी सभा की चर्चा

करते हुए महर्षि के बारे दो भ्रामक, निराधार व आपत्तिजनक  बातें

लिखी हैं। श्रीमान् जी ने आज तक इन पर दो पंक्तियाँ  नहीं लिखीं।

डॉ0 जार्डन्स ने ऋषि को उद्देश्य से भटका हुआ भी लिखा है।

डॉ0 महावीर जी मीमांसक ने इस आक्षेप का अवश्य उत्तर  दिया है।

स्वामी श्रद्धानन्द जी पर एक मौलाना ने एक लाञ्छन लगाया

था। वह तो स्वामी जी पर अपनी पुस्तक में डॉ0 जार्डन्स महोदय ने

दिया, परन्तु उसका उत्तर नहीं दिया। न हम जैसों से पूछा। डॉ0

भारतीय जी स्वप्रयोजन से, डॉ0 जार्डन्स का अपने ‘नवजागरण के

पुरोधा’ में चित्र देते हैं। उत्तर  ऐसे आक्षेपों का आज तक नहीं दिया।

किसी वार प्रहार का कभी सामना किया? विरोधियों के

आपज़िजनक लेखों पर मौन साधने की आपकी नीति रही है।

आर्यसमाज में भी ‘योगी का आत्म चरित’ के प्रतिवाद के लिए

दीनबन्धु, आदित्यपाल सिंह जी व सच्चिदानन्द जी पर तो लेख पर

लेख दिये, परन्तु इन सबको आशीर्वाद देने वाले महात्मा आनन्द

स्वामी जी से उनकी इस महाभयंकर भूल पर कुछ कहने व लिखने

का साहस ही न बटोर सके। अपना हानि लाभ देखकर ही आप

लिखते चले आये हैं।

आर्यसमाज के बलिदानी संन्यासियों, विद्वानों, लेखकों

तथा शास्त्रार्थ महारथियों ने ऋषि को समझा, उनके सिद्धान्तों

को समझा, उनके जीवन से प्रेरणा पाकर ऋषि के मिशन की

रक्षा, वैदिक धर्म के प्रचार के लिए अपने शीश कटवाये,

प्राण दिये और लहू की धार देकर एक स्वर्णिम इतिहास बनाया।

मत-पन्थों से ऋषि की विचारधारा का लोहा मनवाया। ऐसे

गुणियों, मुनियों, प्राणवीरों को नीचा दिखाते हुए भारतीय जी

ने लिखा है-‘‘मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि उस महामानव

के जीवन एवं कृतित्व तथा उसके वैचारिक अवदान का

वस्तुनिष्ठ, तलस्पर्शी तथा मार्मिक, साथ ही भावना प्रवण

विश्लेषण जैसा आर्यसमाजेतर अध्येताओं ने किया है, वैसा

वे लोग नहीं कर सके हैं, जो दयानन्द के दृढ़ अनुयायी होने

का दावा करते हैं, अथवा जो उनकी विचारधारा से अपनी

प्रतिबद्धता की कसमें खाते नहीं थकते।’’1

श्रीमान् जी रौमाँ रौलाँ, दीनबन्धु सी0एफ़0 एण्ड्रयूज़ को ऋषि

की विचारधारा का मार्मिक विश्लेषण करने के लिए अपूर्व बताते

हैं। इसी प्रकार भारतीय लेखकों में देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, श्री

अरविन्द घोष तथा साधु टी0एल0 वास्वानी जैसी योग्यता व क्षमता

इस प्रमाणपत्र प्रदाता को किसी भी आर्यसमाजी लेखक में दिखाई

नहीं दी।1 जिनके नाम श्रीमान् ने लिये हैं उन्होंने आर्यसमाज को

कौनसा ज्ञानी, बलिदानी और समर्पित सेवक दिया? कोई गुरुदत्त ,

कोई लेखराम या कोई गंगाप्रसाद, अरविन्द जी आदि ने दिया क्या ?

इन्हें क्या  पता कि श्री वास्वानी तो पं0 चमूपति जी की लेखन

शैली, विद्वज़ा व ऋषि-भज़्ति पर मुग्ध थे।

कुँवर सुखलाल जी ने कभी लिखा था-

सब मज़ाहब में ऐसी मची खलबली,

गोया महशर का आलम बपा कर गया।

तर्क के तीर बर्साय इस ज़ोर से,

होश पाखण्डियों के हवा कर गया॥

फिर लिखा-

नमस्ते लब पै आते ही मुख़ालिफ़ चौंक पड़ते थे।

समाजी नाम से पाखण्डियों के होश उड़ते थे॥

विरोधियों, विधर्मियों पर ऋषि की विचारधारा की धाक किन्होंने

बिठाई? मत पन्थों में खलबली मचाने वाले कौन थे? ऋषि की

सजीली ओ3म् पताका पहराने वाले कौन थे? ऋषि के सिद्धान्तों व

मन्तव्यों को समझकर ऋषि मिशन पर जानें वारने वाले, सर्वस्व

लुटाने वाले तथा दुःख-कष्ट झेलने वाले कौन थे?

सब जानकार पाठक कहेंगे कि यह पं0 लेखराम का वंश था।

जो स्वामी दर्शनानन्द जी से लेकर पं0 नरेन्द्र और पं0 शान्तिप्रकाश

जी तक इस मिशन के लिए तिल-तिल जले व जिये। क्या  ऋषि को

समझे बिना उसकी राह पर शीश चढ़ाने वाले, यातनाएँ सहने वाले

स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा नारायण स्वामी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द,

स्वामी वेदानन्द, पं0 रामचन्द्र देहलवी, पं0 गंगाप्रसाद सब मूर्ख थे

जो बिना सोचे समझे ऋषि मिशन पर जवानियाँ वार गये?

अरविन्द घोष महान् थे, परन्तु अन्त तक काली माता के ही

पूजक रहे। वास्वानी जी बहुत अच्छे अंग्रेज़ी लेखक थे, परन्तु

अपने मीरा स्कूल के बच्चों को उनकी परीक्षा के समय उनका पैन

छू कर आशीर्वाद देते थे। बच्चों में पैन स्पर्श करवाने के लिए होड़

लग जाती थी। क्या  वास्वानी जी ने किसी को वैदिक धर्मी बनाया?

जब जब विरोधियों ने महर्षि दयानन्द जी के निर्मल-जीवन पर

कोई आक्षेप किया, कोई आपज़िजनक पुस्तक लिखी तो उज़र

किसने दिया? ऋषि के नाम लेवा उत्तर  देने के लिए आगे आये

अथवा रोमा रोलाँ, श्री अरविन्द व वास्वानी महात्मा ने जान

जोख़िम में डालकर उत्तर  दिया? अन्धविश्वासों का, पाखण्ड-

खण्डन का और वैदिक धर्म के मण्डन का कठिन कार्य शीश तली

पर धर कर स्वामी दर्शनानन्द, पं0 गणपति शर्मा, स्वामी नित्यानन्द,

पं0 धर्मभिक्षु, पं0 चमूपति, लक्ष्मण जी, पं0 लोकनाथ, पं0 नरेन्द्र,

पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय करते रहे अथवा उन लोगों ने किया

जिनका नाम लेकर डॉ0 भारतीय ‘कसमें खाने’ की ऊटपटांग

बात बनाकर आर्य महापुरुषों को लताड़ लगा रहे हैं।

हम श्रीमान् की करनी कथनी को देखते रहे। ऋषि जीवनी का

सर्वज्ञ बनकर प्राणवीर पं0 लेखराम तथा सब आर्यों को नीचा

दिखाने का कुकर्म करने वाले इस देवता ने महाराणा सज्जनसिंह

जी, केवल कृष्ण जी आदि पर तो दो-दो पृष्ठ लिख कर अपनी

नीतिमज़ा दिखा दी और अंग्रेज़ भज़्त प्रतापसिंह पर 47 पृष्ठ लिखकर

अपने को धन्य-धन्य माना। ‘अवध रीवियु’ में प्रतापसिंह ने अपनी

जीवनी छपवाई उसमें ऋषि का नाम तक नहीं। राधाकिशन

लिखित प्रतापसिंह की जीवनी जोधपुर राजपरिवार ने छापी

है। इस पुस्तक में भी ऋषि के जोधपुर आगमन पर कुछ नहीं।

फिर भी उसके शिकार के, गोरा भज़्ति के चित्र व प्रसंग न देकर

प्रतापसिंह का गुणगान करके राजपरिवार को तो रिझा ही लिया।

नन्ही वेश्या को चरित्र की पावनता का प्रमाण पत्र देकर इतिहास

को प्रदूषित करने की रही सही कमी पूरी कर दी।

सत्य का गला घोंटना इनका स्वभाव है। हम सर्वज्ञ नहीं हैं।

अल्पज्ञ जीव से भूल तो हो ही जाती है, परन्तु हम जानबूझ कर भूल

करना पाप मानते हैं। देश व जाति को भ्रमित करना तो और भी पाप

है। हम अपनी प्रत्येक भूल से जो भी अनजाने से हो जाये, सुधार के

लिए व खेद प्रकट करने के लिए हर घड़ी तत्पर हैं।

इतिहास प्रदूषण अभियान के हीरो श्री भवानीलाल जी को

पता चला कि यति मण्डल इस लेखक से आर्य संन्यासियों पर एक

ग्रन्थ लिखवा रहा है। तब आप बिन बुलाये पहली व अन्तिम बार

यति मण्डल की बैठक में पहुँच गये और कहा, मैंने आर्यसमाज के

साधुओं पर एक पुस्तक लिखी है, यति मण्डल इसे छपवा दे। इस

पर स्वामी सर्वानन्द जी बोले, ‘‘यह कार्य तो जिज्ञासु जी को सौंपा

जा चुका है, वे लिखेंगे। इस पर भवानीलाल जी बोले, ‘‘जिज्ञासु

जी तो लिखेंगे, मैंने तो पुस्तक लिख रखी है।’’ स्वामी सर्वानन्द जी

यह दुस्साहस देखकर दंग रह गये। स्वामी जी ने आचार्य नन्दकिशोर

जी से इनके बारे जो बात की, वह यहाँ क्या  लिखें। तब स्वामी

ओमानन्द जी ने भी इन्हें कुछ सुनाईं। प्रश्न यह है कि इनका वह

महज़्वपूर्ण इतिहास ग्रन्थ फिर कहाँ छिप गया? वह अब तक छपा

क्यों  नहीं? जिज्ञासु ने तो एक के बाद दूसरे और दूसरे के पश्चात्

तीसरे चौथे संन्यासी पर नये-नये ग्रन्थ दे दिये।

गंगानगर आर्यसमाज ने इस लेखक का सज़्मान रखा। हमने

स्वीकृति देकर भी सम्मान  लेना अस्वीकार कर दिया। समाज वालों

ने यहां आकर सस्नेह दबाव डाला।

‘‘यह प्रेम बड़ा दृढ़ घाती है’ ’

हमें स्वीकृति देनी पड़ी। सम्मान  वाले दिन श्रीमान् ने श्री

अशोक सहगल जी प्रधान को घर से सन्देश भेजा, ‘‘मैं जिज्ञासु जी

के साहित्य पर बोलूँगा, मुझे बुलवाओ।’’ उन्होंने कहा, ‘‘आ जाओ।

रिक्शा  का किराया दे दिया जायेगा।’’ समाज ने मेरे विषय में (मेरे

रोकने पर भी) एक स्मारिका निकाली। उसमें भारतीय जी ने लेख

दिया कि ‘गंगा ज्ञान सागर’ जो चार भागों में छपा है निरुद्देश्य (At Random)  है। इनकी  उत्तम पवित्र सोच पर कवि की ये पंज़्तियाँ

याद आ गईं-

ख़ुदा मुझको ऐसी ख़ुदाई न दे।

कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे॥

देश की आध दर्जन प्रादेशिक भाषाओं में इस ग्रन्थमाला का

अनुवाद मेरी अनुमति से किसी न किसी रूप में छपता चला आ

रहा है। आर्य विद्वानों ने, समाजों ने इनके उपर्युज़्त फ़तवे की

धज्जियाँ उड़ा कर रख दी हैं। मैंने अनुवाद छपवाने वालों से किसी

पारिश्रमिक की कोई माँग ही नहीं की।

हिण्डौन में पुरोधा के विमोचन के लिए यह ट0न0चतुर्वेदी जी

को लेकर गये। या तो चतुर्वेदी जी बोले या यह स्वयं अपने ग्रन्थ पर

बोले। डॉ0 श्री कुशलदेव जी तथा यह लेखक भी वहीं उपस्थित

थे। ऋषि जीवन पर कुछ जानने वालों में हमारी भी गिनती है।

भारतीय जी को अपनी रिसर्च की पोल खुलने का भय था। अपराध

बोध इन्हें कंपा  रहा था। इन्हें हम दोनों को बोलने के लिए कहने

की हिज़्मत ही न पड़ी। इनको डर था कि इनके इतिहास प्रदूषण का

कच्चा चिट्ठा न खुल जाये। उस कार्यक्रम का संयोजन अपने आप

हाथ में ले लिया। हृदय की संकीर्णता व सोच की तुच्छता को सबने

देख लिया। हम आने लगे तो कुशलदेव जी ने अपने ग्रन्थ के

विमोचन के लिए हमें रोक लिया। यह अपना कार्यक्रम करके फिर

नहीं रुके। गंगानगर व हिण्डौन की घटना दिये बिना इतिहास

प्रदूषण अभियान का इतिहास अधूरा ही रहता।

सत्य की रक्षा के लिए, इतिहास-प्रदूषण को रोकने के लिए,

पं0 लेखराम वैदिक मिशन के लिए यह पुस्तक लिखी है। मिशन

के कर्मठ युवा कर्णधारों के स्नेह सौजन्य के लिए हम हृदय से

आभार मानते हैं। हम जानते हैं कि जहाँ कुछ महानुभाव आर्यसमाज

के इतिहास को विकृत व प्रदूषित करने वालों के अपकार की पोल

खुलने पर हमें जी भर कर कोसेंगे, वहाँ पर सत्यनिष्ठ, इतिहास प्रेमी

और ऋषि भज़्त आर्यजन हमारे साहस व प्रयास के लिए हमारी

सेवाओं व तथ्यों की ठीक-ठीक जानकारी देने के लिए धन्यवाद भी

अवश्य देंगे। कुछ शुभचिन्तक यह भी कहेंगे कि आपको इतिहास

प्रदूषित करने वालों के विकृत इतिहास का खण्डन करने से ज़्या

मिला? इससे क्या  लाभ? देखो तो! युग कैसा है-

सच्च कहना हमाकत है और झूठ ख़िुरदमन्दी

इक बाग़ में इक कुमरी गाती यह तराना थी

वोह और ज़माना था, यह और ज़माना है

ऐसा कहने वालों की बात भी अपने स्थान पर ठीक है। सत्य

लिखना बोलना आज मूर्खता है और असत्य लिखना ख़िरदरमंदी

(बुद्धिमज़ा) है। एक वाटिका में एक कोकिला ठीक ही तो गा रही

थी कि यह और युग है। पहले और युग था। हमारा किसी से

व्यज़्तिगत झगड़ा नहीं। हमने जो कुछ लिखा है ऋषि मिशन की

रक्षा के लिए लिखा है।

आर्यजाति का एक सेवक

राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

स्वामी श्रद्धानन्द बलिदान पर्व वेद सदन, गली नं0 6

संवत् 2071 वि0 नई सूरज नगरी, अबोहर-152116

 

 

ईश्वर व जीवात्मा का यथार्थ उपदेश देने से महर्षि दयानन्द विश्वगुरु हैं’ -मनमोहन कुमार आर्य,

ओ३म्

यह संसार वैज्ञानिकों के लिए आज भी एक अनबुझी पहेली ही है। आज भी वैज्ञानिक इस सृष्टि के स्रष्टा की वास्तविक सत्ता व स्वरुप से अपरिचित हैं। यदि उन्होंने महर्षि दयानन्द सरस्वती की तरह वेदों की शरण ली होती तो वह इस रहस्य को जान सकते थे। आज का संसार दोहरे मापदण्डों वाला संसार है। बिना जाने व समझे वेदों को भी अन्य मतों के धार्मिक ग्रन्थों के समान एक धार्मिक ग्रन्थ मान लिया गया है। इसके पीछे कुछ विदेशियों का अपना स्वार्थ दिखाई देता है जिससे उनके मतों की वास्तविकता समाज के सामने न आ जाये। सच्चाई यह है कि वेद अन्य मत-मतान्तरों की तरह, रूढ़ अर्थ में प्रयोग धर्म, की धार्मिक पुस्तक नहीं है अपितु यह सब सत्य ज्ञान व विद्या की पुस्तक हैं। वेद आज भी अपने मूल स्वरुप में विद्यमान हैं। वेदों की उत्पत्ति सृष्टि के आरम्भ में इस सृष्टि के रचयिता सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी परमेश्वर के द्वारा हुई थी। उन्होंने सृष्टि और मनुष्य के कर्तव्यों आदि का विस्तृत ज्ञान आदि सृष्टि में वेदों के माध्यम से चार ऋषियों की हृदय गुहा में अन्तः प्रेरणा द्वारा दिया था। वेदों का ज्ञान मन्त्रों के रूप में दिया गया है जो कि संस्कृत में है। इन वेद मन्त्रों के अध्ययन से ही संस्कृत भाषा की उत्पत्ति हुई है। पहले सृष्टि की आदि में ईश्वर ने चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया। फिर इन ऋषियों ने अन्य लोगों में वेदों का प्रचार किया। वेद ज्ञान दिये जाने से पूर्व किसी भाषा का अस्तित्व नहीं था। यह वेद ज्ञान व वेद मन्त्र ही भाषा के प्रथम आधार व संस्कृत भाषा के मूल स्रोत हैं। सृष्टि के आरम्भ के अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा व ब्रह्मा आदि ऋषि ईश्वर के स्वरूप के साक्षात्कर्ता थे जिन्हें वेदों के सत्य अर्थों का यथार्थ ज्ञान था और उन्होंने इनका प्रचार कर संसार से अज्ञान व सभी भ्रान्तियों को दूर किया। महाभारतकाल तक यह व्यवस्था सुचारु रूप से चलती रही। महाभारत का युद्ध होने के बाद अध्ययन अध्यापन में बाधा उत्पन्न हुई। वेद मन्त्रों के अर्थ जानने की योग्यता संसार के लोगों में न रही, इस कारण वेदों के अनेक भ्रान्तिपूर्ण व मिथ्या अर्थ प्रचलित हो गये। इसी कारण संसार में अज्ञान का अन्धकार फैला और नाना मत-मतान्तर उत्पन्न हुए। समाज के कुछ प्रबुद्ध लोगों ने अपनी-अपनी बुद्धि व योग्यतानुसार शिक्षा का प्रचार किया। प्रायः उनके अनुयायियों ने उन्हें दिव्य मनुष्य या महापुरूष मानकर प्रचारित किया। यह दावा किया गया कि उन मतों की सभी शिक्षायें सत्य व यथार्थ हैं, जबकि ऐसा नहीं था। सभी मतों में सत्य व असत्य का मिश्रण है जिसका दिग्दर्शन महर्षि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) ने अपने ग्रन्थों मुख्यतः सत्यार्थ प्रकाश के अन्तिम 4 अध्यायों में कराया है।

 

महर्षि दयानन्द के समय में सभी मत मतान्तरों में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के स्वरुप को लेकर भ्रम की स्थिति थी। उन्होंने भ्रम निवारण करते हुए ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति, इन तीन सत्ताओं के त्रैतवाद का सिद्धान्त संसार के सम्मुख रखा। ईश्वर सहित तीनों पदार्थों का सत्यस्वरूप सामने रखते हुए उन्होंने इन तीनों सत्ताओं को अनादि व नित्य बताया। उनका मानना था कि ईश्वर, जीवात्मा व मूल-कारण प्रकृति अनुत्पन्न, अनादि व नित्य है। इस कारण यह तीनों सत्तायें अविनाशी व अमर भी हैं अर्थात् इनका नाश अथवा अभाव कभी नहीं होता। उनके समय में ईश्वर के विषय में बहुत सी मिथ्या मान्तयायें प्रचलित थी जो आज भी प्रचलित ने केवल प्रचलित हैं अपितु इनमें वृद्धि हुई है। स्वामीजी ने उन सभी का खण्डन व आलोचना की और ईश्वर के सत्यस्वरूप का उल्लेख करते हुए कहा कि ईश्वर सच्चिदानन्द-स्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, सृष्टि का कर्त्ता-धर्त्ता-हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है। इन लक्षणोवाली सत्ता को ही परमेश्वर मानना और उसी की उपासना करना सबके लिए लाभकारी व श्रेयस्कर है। ईश्वर के इन लक्षणों से अवतारवाद व मूर्तिपूजा सहित इनके विपरीत ईश्वर विषयक सभी मान्यताओं का खण्डन हो जाता है। ईश्वर की उपासना का सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ महर्षि पतंजलि का योग दर्शन है। उसका अध्ययन कर ईश्वर का साक्षात्कार किया जा सकता है। महर्षि दयानन्द ने अपने व्यापक वेद और वैदिक साहित्य के अध्ययन व ज्ञान के आधार पर उपासना की सरलतम विधि वैदिक सन्ध्या लिखी है। इसी के आधार पर आज संसार के करोड़ों लोग उपासना करते हैं। इस सन्ध्या की विधि में योगदर्शन की उपासना पद्धति का निचोड़ वा सार प्रस्तुत किया गया है जिसका अभ्यास करके मनुष्य ईश्वर व अपनी आत्मा दोनों का साक्षात्कार कर सकता है। ईश्वर सहित अन्य सभी विषयों व विद्याओं का अध्ययन करने के लिए मनुष्यों को सत्यार्थ प्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका से अध्ययन का आरम्भ कर उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति व वेदों का अध्ययन करना चाहिये जिससे सभी शंकायें व भ्रान्तियां दूर होती हैं। इसके साथ हि साधना के सरल व प्रभावशाली उपायों का ज्ञान होने से मनुष्य जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य, ईश्वर का साक्षात्कार, की प्राप्ति होकर जीवन को सफल बनाया जा सकता है।

 

महर्षि दयानन्द जी ने अपने ग्रन्थों में जीवात्मा के सत्य स्वरुप पर भी प्रकाश डाला है। अपने लघु ग्रन्थ स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश में जीव विषयक अपनी मान्यता लिखते हुए वह बताते हैं कि जीवात्मा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, ज्ञानादि गुणयुक्त, अल्पज्ञ, नित्य व चेतन सत्ता है। नित्य का अर्थ है कि यह जीव हमेशा से है और हमेशा रहेगा अर्थात् यह अनुत्पन्न और अविनाशी सत्ता है। जीवात्मा को अपने पूर्व जन्मों के कर्मानुसार जीवन व योनि मिलती है जिसमें वह अपने प्रारब्ध के अनुसार फल भोग कर व नये कर्मों को करके मृत्यु को प्राप्त होती है और मृत्यु के पश्चात प्रारब्ध के अनुसार पुनः नया जन्म धारण करती है। जन्म-मरण का यह चक्र अनादि काल से चला आ रहा है और इसी प्रकार सदा चलता रहेगा जब तक कि वेदानुसार सद्कर्मों को करके जीवात्मा की मुक्ति न हो जाये। मनुष्य यदि अच्छे कर्म करता है तो उसकी उन्नति होती है जिससे वह मृत्यु के बाद श्रेष्ठ उन्नत योनि व अवस्थाओं में जन्म ग्रहण करता है और यदि उसके अच्छे कर्म कम व बुरे कर्म अधिक होते हैं तो वह अवनति को प्राप्त होकर निम्न योनियों में जन्म ग्रहण करता है जहां उसे अपने बुरे कर्मों के फलों को भोगना होता है। महर्षि दयानन्द के यह विचार भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं कि जीव और ईश्वर स्वरूप और वैधम्र्य से भिन्न और व्याप्य-व्यापक और साधम्र्य से अभिन्न हैं। अर्थात् जैसे आकाश से मूर्तिमान द्रव्य कभी भिन्न न था, न है, न होगा और न कभी एक था, न है और न होगा, इसी प्रकार परमेश्वर और जीव का व्याप्य-व्यापक, उपास्य-उपासक और पिता-पुत्र आदि सम्बन्ध है।

 

कारण व कार्य प्रकृति जड़ है। कारण प्रकृति अनुत्पन्न तथा त्रिगुणात्मक अर्थात् सत्व, रज व तमोगुण वाली है। यही परमाणु व अणुरूप होकर स्वरूपाकार से बहुत प्रजारूप हो जाती है अर्थात् यह प्रकृति परिणामिनी होने से अवस्थान्तर अर्थात् परिवर्तनों को प्राप्त होकर नाना स्वरूप व आकारवाली हो जाती है। पृथिवी, चन्द्र, ग्रह-उपग्रह, सूर्य, नक्षत्र आदि सभी इस त्रिगुणात्मक प्रकृति के विकार वा कार्य हैं। इसको विस्तार से जानने के लिए सांख्य दर्शन सहित वेदों के नासदीय सूक्त आदि का अध्ययन करना चाहिये। यह भी जानने योग्य है कि यह सृष्टि प्रवाह से अनादि है अर्थात् इस प्रकृति से सृष्टि का निर्माण होता है, सृष्टि निर्धारित अवधि तक बनी रहती है, फिर प्रलय होती है और प्रलय में यह पुनः अपने मूल स्वरूप में आ जाती है। प्रलयकाल समाप्त होने पर ईश्वर सृष्टि की रचना कर इसे पुनः उत्पन्न करता है व चलाता है तथा यथासमय प्रलय करता है। इस प्रकार से सृष्टि की उत्पत्ति व प्रलय का क्रम अनादि काल से चला आ रहा है और भविष्य में भी चलता रहेगा।

 

महर्षि दयानन्द ने न केवल तीन अनादि पदार्थ ईश्वर, जीव व प्रकृति के सत्य सिद्धान्त त्रैतवाद व इनके स्वरूप का ही प्रचार किया अपितु वेदों का पुनरुद्धार भी किया। वेद ही मानव मात्र का सबसे बड़ा धन व पूंजी है। वेद से ही कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध होता है जिसे धर्माधर्म कहते हैं। इस धर्माधर्म से ही मनुष्य को बन्ध व मुक्ति होती है। महर्षि दयानन्द के सम्पूर्ण कार्यों को जानने के लिए सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि सहित उनके समस्त ग्रन्थ, उनके जीवन चरितों और पत्रव्यवहार आदि का अध्ययन करना चाहिये। उन्होंने ईश्वर की सच्ची उपासना के साथ अन्य महायज्ञों देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ एवं बलिवैश्वदेवयज्ञ का भी पुनरुद्धार किया। इसका अवलम्बन कर मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। इस संक्षिप्त लेख में हम पाठकों को महर्षि दयानन्द को परा विद्या के क्षेत्र में संसार को ईश्वर, जीव व प्रकृति के सत्य व यथार्थ स्वरूप से परिचित कराने व मनुष्यों को धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के मार्ग का ज्ञान कराकर मोक्ष तक पहुंचाने के लिए संसार का सबसे बड़ा हितैषी व पुरोधा मानते हैं। महाभारत काल के बाद अन्य कोई महापुरूष ऐसा नहीं हुआ जिसने मनुष्य को संसार विषयक समस्त ‘‘सत्य ज्ञान से परिचित कराया हो जैसा महर्षि दयानन्द ने कराया है। महर्षि दयानन्द भूतो भविष्यति महापुरूष थे। उनके मनुष्य जीवन की इहलौकिक व पारलौकिक उन्नति में योगदान को स्मरण कर संसार के सभी मनुष्यों को लाभ उठाना चाहिये।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

आर्यों का समाज कहाँ है? – सोहनलाल कटारिया

लेखक पुराने आर्य समाजी हैं। संगठन की वर्तमान समय में शिथिलता एवं समय के साथ-साथ आई कुछ न्यूनताओं पर आपने अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। ऐसा समय आर्यसमाज में कभी नहीं रहा कि जन्मना जाति को आधार बनाकर किसी को सदस्य न बनाया गया हो। समय-समय पर स्थान-स्थान पर आर्यसमाजें यह प्रयत्न करती रहीं कि इससे जुड़े लोग अपने नाम के साथ आर्य लगाये और (जन्मना) जाति-सूचक शब्द न लगायें। इस मिशन में पूर्ण सफलता नहीं मिली। व्यापक रूप में आर्यसमाज व्यक्तियों तक सबद्ध रहा, परिवारों तक (कुछ अपवादों को छोड़कर) नहीं पहुँच सका। लेखक के विचारों से सपादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। हम श्री सोहनलाल कटारिया जी का लेख पाठकों के लाभार्थ यहाँ मूल रूप में दे रहे हैं। -सपादक

‘कुछ तड़प-कुछ झड़प’ के स्तभ लेखक ने परोपकारी जुलाई (प्रथम) 2015 के अंक में लिखा है- ‘‘गंजोटी के इस कार्यक्रम में ‘दलित आर्य परिवारों ने सोत्साह बढ़-चढ़कर प्रत्येक घर से वेद प्रकाश हुतात्मा के नाम पर बिना माँगे दान दिया।’ यह प्रसंग आज भी वहाँ चर्चित है। यह आनन्द की बात है।’’

आर्य परिवार दलित है तो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य भी होने ही चाहिये। मैंने पढ़ा है कि आर्यसमाज के संगठन में प्रारभिक काल में तथाकथित दलित वर्ग को सदस्य ही नहीं बनाया जाता था और जो व्यक्ति अपने नाम के साथ आर्य लिखता था, उसे ताना मारकर चिढ़ाते थे कि यह अपनी जात को छुपाता है, इससे बचने के लिये लोगों ने आर्य लिखना त्याग दिया (मनुस्मृति के उदाहरण देते थे, शर्मा, वर्मा, गुप्त, दास) यह ब्राह्मण धर्म की मानसिकता की गहरी पैठ है।

वर्तमान में आर्यसमाज के संगठन में अन्य संगठनों के अनुसार प्रवेश के लिये एक आवेदन भरना पड़ता है और अपनी आय का शंताश धन भी देना अनिवार्य है, यदि वह चन्दा नहीं देता है तो सदस्यता समाप्त हो जाती है, यही नहीं, यदि सदस्य संगठन के नियमों, सिद्धान्तों के विरुद्ध कार्य करने का दोषी  पाया जाता है तो उसे संगठन से निष्कासित भी कर दिया जाता है अर्थात् इस संगठन में जबतक व्यक्ति चन्दा देता है तबतक ही सदस्य रहता है- स्वयं भी संगठन को त्याग सकता है। इस प्रकार व्यक्ति के ‘सामाजिक’ संगठन से इसकी कोई निरन्तरता नहीं रहती है। लोगों को कहते सुन लेंगे कि ‘‘मेरे दादाजी आर्यसमाजी थे।’’

‘समाज’ का अर्थ है- व्यक्तियों का वह समूह जहाँ उनका आपस में खानपान, विवाह और दुःख-सुख में समिलित होना और एक दूसरे के कल्याण में तत्पर रहना होता हो। वर्तमान आर्यसमाज संगठन इन सामाजिक व्यवहारों को लेशमात्र भी नहीं निभाता है। यह भी ‘लॉयन, रोटेरी अथवा फिलेनथ्रफिक सोसायटी’ क्लब के समान ही कार्य कर रहा है। जब किसी समूह की सामाजिक आवश्यकतायें पूरी नहीं होगी तो उसके सदस्य-परिवार इस संगठन से क्यों जुड़ेंगे? दलित परिवारों का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

मानव समाज के समूह के निर्माण में विवाह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कड़ी है और इसके महत्व को समझकर सार्वदेशिक सभा के प्रयासों से आर्य विवाह एक विधान (अन्तरजातीय) पारित करवाया गया। इसका लाभ तो थोड़ा मिला परन्तु आज तो दुरुपयोग ही हो रहा है। आर्यों का सामाजिक समूह तो बना नहीं। प्रसिद्ध आर्यों की पुत्रियाँ इतर धर्मावलयिों में विवाही जा रही है और आर्यों से उनकी मूल जातीय समूह से युवतियाँ विवाही जा रही है, परिणाम आर्यों का समाज बनता ही नहीं है। एक आर्यसमाजी के देहान्त हो जाने पर उसके परिवार का कोई सदस्य आर्यसमाज के संगठन का सदस्य बने, यह अनिवार्य तो है नहीं, बाध्यता भी नहीं। मैं कितने ही प्रसिद्ध आर्यसमाजियों को जानता हूँ, जो महर्षि के जीवनकाल में, उनकी सेवा में रहे थे, आज उनके परिवार का कोई सदस्य आर्यसमाज का सदस्य नहीं है और न ही आर्यसमाज के नियमों, सिद्धान्तों का पालन करता है। अजमेर-मेरवाडा और मेवाड़ में कितने ही पौराणिकों, जैनियों को, जिन्हें स्वामी जी ने स्वयं यज्ञोपवीत धारण कराकर वैदिक धर्म आर्यसमाज में ही दीक्षित कराया, उनके वंशज अपने पूर्व धर्म समाज-जाति में ……. गये। आज से पचास-साठ वर्ष पूर्व के आर्य समाजियों (जिनका देहान्त हो गया है) के परिवार का कोई विरला ही सदस्य, वर्तमान आर्यसमाज संगठन का सदस्य है। बड़े-बड़े आर्यसमाज (अजमेर जैसे गढ़) की सभासदों की संया 15/20 भी नहीं है। साप्ताहिक सत्संग में यज्ञ पर बैठने के लिये चार व्यक्ति भी उपलध नहीं होते हैं।

आर्यसमाजी की परिभाषा, ‘आर्य विवाह एक्ट’ के अनुसार वह व्यक्ति – (क) किसी भी आर्यसमाज का सदस्य हो, (ख) खण्ड (क) में वर्णित व्यक्ति के कुटुब का सदस्य या आश्रित सबन्धी।

आर्य और आर्यसमाजी शब्द एक ही व्यक्ति के लिये प्रयुक्त होते हैं। वस्तुतः यह दोनों पर्यावाची शब्द है ‘‘आर्यसमाज’’ शब्द का शादिक अर्थ- ‘आर्यों का समाज’ है। और इस समाज वाले को आर्यसमाजी कहते हैं। भाषा और कानून दोनों ही दृष्टियों से इन दोनों शदों से एक ही व्यक्ति का बोध होता है। साधारण व्यवहार में व्यक्ति को अपना धर्म बताने के लिये किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती, केवल घोषणा पर्याप्त होती है। कोई कहे मैं हिदू हूँ, मुसलमान हूँ, आर्यसमाजी हूँ तो ऐसा ही मान लिया जाता है। बीसवीं शतादी के तीसरे दशक में आर्यसमाजी बनने और कहलाने में व्यक्ति शान गौरव समझताा था। जनगणना में भी आर्य समाजियों की अलग से गणना की गयी थी, 1931 की जनगणना के अनुसार राजपुताने में- आर्य 14073, सिक्ख 42943, जैन 320245, ईसाई 12725, हिन्दू 20606003, इनमें ब्राह्मण धर्म मानने वाले 9999142 थे परन्तु विडबना है कि काल के साथ हम अपनी संया गणना कराने से हट गये। तर्क हम ‘अल्पसंयक’ नहीं होना चाहते, हिन्दुओं के अन्तर्गत रहने में ही राष्ट्रहित होगा। यह नहीं मानते कि ‘हिन्दू’ ऐसा पौराणिक महासागर है, इसमें कितनी ही बाहर से आयी हुई जातियाँ- हूण, शक, यवन, सब इसमें डूब गये, आज उनका अस्तित्व नहीं रहा। इसी प्रकार आर्य भी इसी महासागर में बनते रहते हैं और डूबते रहते हैं– छटपटाते हुये, न इधर के न उधर के।

आर्यों के समाज के निर्माण के बारे में प्रसिद्ध आर्यसमाजी नेता यावर के श्री वैद्य रविदत्त जी कहा करते थे कि आर्यसमाज प्रवेश करने के पश्चात् उस व्यक्ति का, पिछला द्वार जहाँ से वह आता है, बन्द हो जाना चाहिये, तब ही आर्यसमाज बनेगा, अन्यथा पिछला द्वार खुला है, तो फिर उसे पुनः उसी द्वार से लौटने में विलब नहीं होगा। यद्यपि पं. भगवानस्वरूप जी न्यायूभूषण जैसे विद्वान् का मत सदा यही रहा कि आर्यसमाजियों केा अपने-अपने समाज-जाति में ही रहकर अपने समाज का सुधार करते रहना चाहिये। डॉ. धर्मवीर जी नेाी कितनी ही बार कहा है कि जातीय संगठन इतना मजबूत है कि इसे तोड़ना, असभव जैसा है जब महर्षि दयानन्द इसे नहीं तोड़ सके तो भविष्य में भी इसे तोड़ने वाला दिखायी नहीं देता। गुरुकुल विश्व विद्यालय में एक नरदेव को यज्ञोपवीत धारण कराया, स्नातकोत्तर भूषित करके पण्डित बनाया परन्तु सामाजिक व्यवहार में जब वह सांसारिक कर्म क्षेत्र में गृहस्थाश्रम जीवन यापन के लिये उतरता है तो उसी मूल दलित समाज में ही प्रवेश करना पड़ता है- राजनैतिक जीवन में लोकसभा की ‘दलित’ आरक्षित सीट से चुनाव लड़ता है और ललाट पर एक अमिट दलित की छाप लग जाती है। यज्ञोपवीत और स्नातक की उपाधि गौण, उसे ‘वर्तमान जाति’ से छुटकारा पाने के लिये दूसरा जन्म ही एक मात्र सपना रहता है।

परोपकारिणी सभा ने कुछ वर्ष पूर्व अन्तरजातीय विवाह के लिये ऋषि मेले के अवसर पर प्रयत्न किया था परन्तु निष्फल रहा- एक महिला ने कहा ‘‘मुझे ब्राह्मण लड़की ही चाहिये आर्यसमाज में तो नीच जाति के लोग भी आ जाते बताये जाते हैं।’’

अस्तु आर्यों को अपना सामाजिक संगठन करना होगा। अपनी अलग पहचान बनानी होगी ‘‘जातिवाद का अजगर देश को निगलने पर तुला बैठा, इसको समाप्त करना होगा।’’ पौराणिक सनातनी के अनुसार भेद नहीं होगा। तब ही हमारे स्त्संगों, उत्सवों, पर्वों के कार्यक्रमों में परिवार के सदस्य उपस्थित होंगे और महर्षि के उद्देश्यों को प्राप्त कर सकेंगे और आर्यसमाजी कहलाने में गौरव, शान का अनुभव कर सकेंगे। 95 वर्ष की आयु हो गयी है। आर्यसमाज में कई स्थानों में, सभासद, उपमन्त्री, मन्त्री, उपप्रधान, प्रधान और राजस्थान आर्य प्रतिनिधि सभा में उपमन्त्री रह चुका हूँ।

वर्तमान में तो आर्यों का समाज कहाँ है, ढूँढ़ता ही रहता हैं, कोई बतायेगा, कहाँ है?

– 89, पहाड़गंज, राजेन्द्र स्कूल के अजमेर, राज.

पं. पद्मसिंह शर्मा जी की दृष्टि में पं. लेखराम साहित्यः- प्रा लेखराम

आर्यसमाजी पत्रों के लेखकों का एक प्रिय विषय है ‘हिन्दी भाषा और आर्यसमाज परन्तु भूलचूक से भी कभी किसी ने यह नहीं लिखा कि आर्य विचारक, दार्शनिक, समीक्षक, पं. पद्मसिंह जी शर्मा सपादक परोपकारी के पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें हिन्दी का सर्वोच्च पुरस्कार मंगलाप्रसाद सबसे पहले दिया गया। आप साहित्य समेलन प्रयाग के प्रधान पद को भी सुशोभित करने का गौरव प्राप्त कर पाये। जब ‘कुल्लियाते आर्य मुसाफिर’ के नये संस्करण को सपादित करने का गौरवपूर्ण दायित्व आर्यसमाज के मनीषियों ने मुझे सौंपा तो पं. लेखराम जी विषयक असंय लेख व अनगिनत पुस्तकें मेरे मस्तिष्क में घूमने लगीं।

मन में आया कि आचार्य उदयवीर जी तथा मुंशी प्रेमचन्द जी सरीखे विद्वानों व साहित्यकारों के निर्माता पं. पद्मसिंह जी शर्मा की पं. लेखराम के पाण्डित्य तथा साहित्य पर पठनीय गभीर टिप्पणी आर्य जनता की सेवा में रखी जाये। पं. शान्तिप्रकाश जी, पं. देवप्रकाश जी, ठाकुर अमरसिंह जी तथा शरर जी आदि के पश्चात् पूज्य पं. लेखराम जी के साहित्य का तलस्पर्शी ज्ञान रखने वालों का अकाल-सा पड़ गया है।

ऋषि के अन्तिम काल की चर्चा करते हुए पं. पद्मसिंह जी लिखते हैं कि इसके कुछ समय पश्चात् मिर्जा गुलाम अहमद ने हिन्दू धर्म पर और विशेष रूप से आर्यसमाज पर नये सिरे से आक्रमण करने आरभ किये। कादियानी मियाँ के आक्रमणों का समुचित उत्तर श्रीमान् पं. लेखराम जी ने दिया और ऐसा दिया कि बायद व शायद (जैसा देना चाहिये था- अनूठे ढंग से)।

फिर लिखा है, ‘‘पं. लेखराम जी के पश्चात् इस शान की, इस कोटि की यह एक ही पुस्तक (चौदहवीं का चाँद) निकली है, जिस पर अत्यन्त गौरव किया जा सकता है।’’

यह भी क्या अनर्थ है कि आर्यसमाज के बेजोड़ साहित्यकार का अवमूल्यन करने के लिए कुछ तत्त्व समाज में घुस गये हैं। उनके ऋषि जीवन को तो ‘विवरणों का पुलिंदा’ घोषित कर अपमानित किया और सहस्रों जनों को धर्मच्युत होने से बचाने वाले उनके साहित्य को अपने पोथी-पोथों से कहीं निचले स्तर का….। अधिक क्या लिखें।

परोपकारी के ऐसे-ऐसे कृपालु पाठकः- ‘परोपकारी’ पाक्षिक की प्रसार संया कभी कुछ सौ तक सीमित थी। आज देश के प्रत्येक भाग के यशस्वी समाजसेवी, जाति रक्षक, विचारक, वैज्ञानिक, गवेषक (अन्य-अन्य मतावलबी भी) सैंकड़ों की संया में परोपकारी के नये अंक की प्रतिक्षा में पोस्टमैन की राह में पलके बिछाये रहते हैं। इसके लिए सपादक जी तथा सभा का अधिकारी वर्ग बधाई का पात्र है। आचार्य धर्मेन्द्र जी, देश के गौरव युवा वैज्ञानिक डॉ. बाबूराव जी, डॉ. हरिश्चन्द्र जी, देश के वयोवृद्ध ज्ञानवृद्ध आयुर्वेद के उपासक, उन्नायक व रक्षक 92 वर्षीय डॉ. स.ल. वसन्त जी तो इस आयु में केवल गायत्री जप, उपासना व वेद का स्वाध्याय करते हैं। आप सोमदेव जी, धर्मवीर जी, स्वामी विष्वङ् जी तथा इस सेवक को पत्र लिखते ही रहते हैं। आपने अभी-अभी एक पत्र में लिखा है, ‘‘परोपकारी में आपके स्थायी स्तभ ‘कुछ तड़प-कुछ झड़प’ पढ़े बिना आनन्द नहीं आता।’’

पाठकों को बता दें कि डॉ. वसन्त जी गुजरात, म.प्र., राजस्थान, हरियाणा में ऊँचे पदों पर रहकर आयुर्वेद की सेवा कर चुके हैं। आप यशस्वी आर्य नेता, आर्य सपादक, तपस्वी स्वाधीनता सेनानी लाला सुनामराय जी के दामाद हैं। परोपकारी को ऐसा संरक्षक मिला है। यह बहुत गौरव का विषय है।

ऋषि ने तब क्या कहा था?ः- ईसाइयों, मुसलमानों से शास्त्रार्थ के लिए हिन्दुओं ने आमन्त्रित किया था। आत्म रक्षा के लिए तब हिन्दुओं को ऋषि की शरण लेनी पड़ी थी। मुसलमानों ने ऋषि के सामने प्रस्ताव रखा कि हम और आप दोनों मिलकर गोरे पादरियों से टक्कर लें। परस्पर की बातचीत फिर हो जायेगी, पहले इनको हराया जाये। महर्षि ने कहा कि सत्य न स्वदेशी है न विदेशी होता है। हम सत्यासत्य के निर्णय के लिए यहाँ शास्त्रार्थ करने आये हैं, हार-जीत के लिए नहीं।

पाखण्ड कहीं भी हो, पाखण्ड अंधविश्वास कोई भी व्यक्ति फैलावे उसका खण्डन करना आर्यत्व है। आर्यसमाज पर बाहर वाले प्रहार करें तो ‘तड़प-झड़प’ परमोपयोगी है और कोई नामधारी आर्यसमाजी वैदिक सिद्धान्त विरुद्ध कुछ लिखे व कहे तो उसे कुछ न कहो। इससे आर्यसमाज के उस व्यक्ति की अपकीर्ति होती है। यह क्या दोहरा मापदण्ड नहीं है? आर्यसमाज के अपयश व हानि की तो चिन्ता नहीं। अमुक व्यक्ति गुरुकुल का पढ़ा हुआ है। कोई बात नहीं शिवजी की बूटी आदि का पान करने का समर्थक है। यह क्या वैदिक धर्म प्रचार है? ऋषि दयानन्द सिद्धान्तों का बट्टा-सट्टा अदला-बदली नहीं जानते थे।

– वेद सदन, अबोहर, पंजाब-152116

नेतृत्वहीन दिशाहीन आर्यसमाज

महर्षी दयानन्द सरस्वती ने उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में वेदों का भाष्य, सत्यार्थ प्रकाश जैसे कालजयी ग्रंथों की रचना के साथ साथ आर्य समाज की स्थापना करके देश को एक नई दिशा दी. ऋषी के दीवानों ने ऋषी की इस वाटिका को अपने रक्त से सींच कर नई उचाईयों पर पहुँचाया. ऋषी के आकस्मिक निधन की स्तिथी में इन ऋषी भक्तों ने बलिवेदी पर अपने प्राणों को न्योंछावर कर न केवल देश की स्वतन्त्रता संग्राम में अग्रिम भूमिका का निर्वाह किया अपितु सामाजिक सुधारों के लिए देश को जागृत करके  इन सामाजिक सुधारों को देशभर में लागू करने के लिए बलिदान देकर एक नई परम्परा का आगाज  किया . उस काल में प्रचलित और स्थापित हुए  और किसी संगठन में समाज सुधारों के लिए बलिदान देने के एक भी प्रमाण सामने नहीं आते चाहे वो विवेकानन्द द्वारा पोषित रामकृष्ण मिशन हो या ब्रह्म समाज.

वह समाज ऋषि दयानन्द की एक दूरगामी सोच का परिणाम था जो न केवल उस समय देश की  पराधीनता से मुक्ति व देश की संस्कृति सभ्यता को अपने पुराने गौरव प्रदान करने के लिए संघर्षरत था बल्कि देश में औद्योगीकरण व विदेशों में व्यापार करने  एवं इसके लिए विदेशी भाषाओँ को सीखने का भी पक्षधर रहा .

वह ऋषी दयानन्द की दूरगामी सोच ही थी जिसने विश्व का ध्यान ऋषी दयानन्द की तरफ खींचा और विश्व भर के अनेकों लोग ऋषी दयानन्द के मुरीद हो गए . यह हमारे लिए दुर्भाग्य का ही विषय रहा की वह नेतृत्वकारी पथ  प्रदर्शित करने वाली ज्योती अल्प समय में ही अदृश्य हो गयी. वह भी उस समय में जब संगठन अपनी शैशव अवस्था में ही था .

ऋषी दयानन्द के बाद की पीढी ने ऋषी दयानन्द की विचारधारा को न केवल पोषित किया बल्कि इसे अपने रक्त से सींचकर इसे प्रज्वलित रखने और इसको प्रभावी बनाए रखने के हरसंभव प्रयास किये . ऋषी के ये अनुयायियों ने  एक के बाद एक इसके लिए प्राणों को न्योंछावर करने की रीति की परिपाटी रख दी जो अपने आप में एक नई परंपरा का निर्माण थी

उसी आर्य समाज की स्तिथि आज कितनी दयनीय है. कोई एक सर्वमान्य नेत्रित्व नहीं है. सर्वमान्य संस्था नहीं है. एक कम्युनिस्ट भी आर्य समाज के प्रतिनिधित्व की बात करता हैं, अनैतिक आरोपों से घिरे हुए व्यक्ति भी, वैदिक सिद्धांतों के खिलाफ बोलने वाला भी समाज और संस्था कर प्रधान होता है और शराब पीने वाला भी . आइये ऐसे ही  कुछ अन्य  बिन्दुओं पर विचार करते हैं :

  • लेकिन उसी ऋषी दयानन्द द्वारा स्थापित आर्य समाज की वर्तमान स्तिथी का क्या ?उसका वर्तमान समय में देश और संस्कृति या किसी और क्षेत्र में क्या योगदान है?
  • देश और संस्कृति के उत्थान के लिए वह किस योजना पर कार्य कर रहा है यह किसे विदित है ? आर्य समाज के किस समाज सुधार को देश के मुखपत्रों पर जगह मिली ?
  • आज स्तिथी यह है कि  लोग स्वामी दयानन्द को नहीं स्वामी विवेकानन्द को अधिक जानते हैं . आर्य समाजों में ऋषी दयानन्द के साथ साथ मांस भक्षक वेद निंदक स्वामी विवेकानन्द के चित्र लगे हुए हैं . ऋषी के सच्चे भक्तों के ये वाक्य कटु लगें लेकिन सत्यता यही है.
  • आर्य समाज की अग्रिम संस्था होने का दावा करने वाली संस्थाओं के मंच से स्वामी दयानन्द के निर्वाण दिवस पर मुख्य अतिथी जनरल वी के सिंह  स्वामी विवेकानन्द  के ऊपर व्याख्यान  देकर निकल जाते हैं और श्रोता तालियाँ बजाते  हैं और मंच संचालक और अन्य समाजियों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती. किसी के खून में ये सुन कर उबाल नहीं आता की स्वामी दयानन्द का इस देश के लिए योगदान विवेकानन्द के बाद आता है .ऐसा प्रतीत हुआ वहां लोगों की रगों में खून नहीं पानी दौड़ रहा था . किसी में इतनी हिम्मत भी नहीं हुयी  कि वक्ता की बात का शालीनता से  प्रतिउत्तर तो दे सकें .
    आर्य समाज के कभी ऐसे भी दुर्बल प्रतिनिधि होंगे शायद ही किसी ने सोचा हो.
  • आर्य समाजों के इतिहास भी पुस्तकों में हवस के पोषक ओशो नास्तिक दलाई लामा के विचारों को स्थान मिलने लगा है और वो भी आर्य समाज के मंत्री आदि की प्रेरणा से लिखी जाती हैं और उन्हीं हो समर्पित की जाती हैं.
  • आर्य समाज के मन्दिर आज शादी कराने के अड्डे बन चुके हैं जहाँ ५००० रूपए आदि लेकर किसी की भी शादी कर दी जाती है चाहे वो आर्य समाज की विचार धारा से परिचित हो या न हो .इन्टरनेट पर आर्यसमाज खोजने पर आर्य समाज मैरिज ही लिखा सबसे पहले दिखाई देता है . मात्र २ ३ घंटे में शादी का प्रमाण पत्र देने वाले अनेकों विज्ञापन दिखाई देते हैं या यही ऋषी का सपनों का आर्य समाज है.
    बिग बॉस -९ की प्रतिभागी मंदाना करीमी की शादी कर प्रमाण पत्र ही इन ऋषी भक्त होने के दम्भ भरने वाली आर्य समाज साकेत नामक संस्था से प्रकाशित हुयी हैं. “कुछ दुष्ट लोगों द्वारा ये धंधा किये जाने का नाम लेकर” इस मुद्दे से हाथ झाड़ने वाले संस्थाओं के अधिकारी क्या यह बताएँगे की आर्य समाज साकेत जहाँ से यह सर्टिफिकेट जारी हुआ क्या उन्ही फर्जी संस्थाओं की सूची में शामिल है . यह सर्टिफिकेट पर डॉ. डबास के हस्थाक्षर हैं जिन्होंने आर्य समाज साकेत का इतिहास विनय आर्य की प्रेरणा से लिखा और उन्ही को समर्पित किया . यह वही पुस्तक है जिसमें ऋषी की सूक्तियों के स्थान पर ओशो और नास्तिक दलाई लामा की सूक्तियाँ दी गयी हैं . ये लोग जरा बताएं तो सही की आर्य समाज में की जा रही इन शादियों का आधार क्या होता है . ऋषी दयानन्द द्वारा बताये गए विवाहों के प्रकारों में से किस प्रकार के विवाह कराने में ये आर्य संस्थाएं संलग्न हैं  .
  • आर्य समाज के मंचों पर नर्तकियों द्वारा फ़िल्मी गानों पर नाच: जिस आर्य समाज के मंचों से वैदिक गान गुंजा करता था जहाँ वेद मन्त्रों की व्याख्याएँ और शाश्त्रार्थ हुआ करते थे उन्ही आर्य समाज के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में आज आर्य समाज के वर्तमान विद्वानों और तथाकथित नेत्रित्व्य की उपस्तिथी में नर्तकियों द्वारा “पीतल की तोरी गागरी और श्याम रंग बोमरो आदि गानों पर थिरकना आर्य समाज के पतन के साक्षात उदाहरण हैं.
  • नैतिक पतन : किसी प्रभावशाली नेतृत्व के अभाव का ही परिणाम है की आज इस संगठन के कई लोगों पर चारित्रिक हनन के मुकदमें चल रहे हैं. किन्चित जेल की हवा खा चुके और कुछ खा रहे हैं . कहाँ गया वह ऋषी द्वारा प्रतिपादित ब्रह्मचर्य का सिद्धांत और स्वामी स्वतान्त्रतानंद जी, स्वामी दर्शानानानंद जी जैसे ऋषी के परम भक्त जिन्होंने ऋषी के सिद्धांतों पर चलते ही अपनी जीवन की हवि दे दी.
  • गुरुकुलों और विद्वानों की दयनीय हालात : आजादी के इतने वर्षों बाद आज हालात ये है की ऋषी दयानन्द की पद्धिति को सरकारी माध्यम में प्रचलित करवाने के बजाय स्वयं आर्य समाज के गुरुकुलों ने सीबीएसई आदि के पाठ्यक्रमों को अपनाना आरम्भ कर दिया . ऋषी दयानन्द की शिक्षा पद्धिति से अध्यन अध्यापन करवाने वाले गुरुकुलों के संख्या २ अंकों में भी नहीं. क्या यही वो पद्धिती है जिससे हम विश्व को आर्य बनायेंगे . जिस गुरुकुल की स्थापना के लिए स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपनी संपत्ति और जीवन कुर्बान कर दिया उस गुरुकुल की हालत आज सर्व विदित है.
    आर्य समाज के विद्वान की हालत किसी पौराणिक अध् पढ़े पुजारी से भी गई गुज़री है . वह ऋषि दयानन्द का अनुयायी अपने निर्वाह के लिए दर दर की ठोकरें खाता है उसे  जीवन निर्वाह के लिए वह पौरानिकों के यहाँ पर पौराणिक कर्मकाण्ड कराने के लिए विवश है या  उस वर्ग की कृपा का पात्र बनने के लिए निर्भर होना पढता है जिसे ऋषी के सिद्धांत भी नहीं पता.
    आज देश में ऐसे गुरुकुलों का अभाव है जो क्षत्रियों का निर्माण करते हों  जो कर्मकारों का निर्माण करते हो जो व्यवसायियों का निर्माण करते हों . समाज की व्यवस्था चारों वर्णों के अधीन है क्या अन्य वर्गों का निर्माण करने के लिए कोई व्यवस्था की गयी ?
  • खाली पड़े समाज : आर्य समाज के नीरस होने के प्रत्यक्ष प्रमाण उसके खाली पढ़े भवन हैं . जिनमें रविवार के दिन कुछ वृध्द लोग दिख जाते हैं जो जीवन के अंतिम पढाव में हैं . पौराणिक पण्डित अपने मन्दिर में मूर्ति के पास बैठा मिल जाता है लेकिन आर्य समाज मन्दिर में जाने पर अधिकतर या तो ताले लगे मिलते हैं या फिर संचालक/पुरोहित मन्दिर में अपने कमरे में.
    आर्य समाज के भवनों पर ताले, उन पर किये गए कब्जे और दान के पैसे का उन मुकदमों पर खर्च सर्व विदित है . काश इन नेताओं ने विद्वानों का निर्माण किया होता जो अपने जीवन को आर्य सिद्धांतों के प्रचार प्रसार में लगाते.
  • विधर्मियों को पुरजोर जवाब देने की परम्परा: ऋषि दयानन्द के नाम पर करोड़ों का दान डकारने वाली संस्थाएं आज धर्म पर होने वाले आक्षेपों का जवाब देने तक में अपनी रूचि नहीं रखतीं. ऋषी दयानन्द के नाम पर भवनों का निर्माण और दान इकठ्ठा करना ही इनका परम ध्येय है लेकिन जिस वैदिक धर्म के लिए महर्षि दयानन्द ने अपने प्राणों का त्याग कर दिया उसी ऋषी दयानन्द और उसके वैदिक धर्म पर आक्षेप होने पर ऋषी दयानन्द के नाम पर ये दान इकट्ठे करने वाले और ऋषि भक्त होने का दावा करने वाले उनके ये अनुचर पता नहीं किन बिलों में चुप जाते हैं पता नहीं कौनसा सांप इन्हें सूंघ जाता है .
    इनकी नाक के नीचे जब ऋषी दयानन्द पर आक्षेप होते हैं ऋषी दयानन्द पर आक्षेप करती हुयी पुस्तकों का प्रकाशन होता है लेकिन इन आर्य समाजी नेताओं के काना पर जूं तक नहीं रेगती .
    सम्पूर्ण आर्य जगत में केवल ऋषी दयानन्द की स्थानापन्न  परोपकारिणी सभा ही इस परंपरा को जिन्दा रखे हुए हैं . उनका यह कदम अत्यंत ही सराहनीय है . कभी भी किसी भी पुस्तक, पत्रिका या किसी भी मंच से वैदिक धर्म या ऋषी दयानन्द पर आक्षेप हो तो ऋषी द्वारा स्थापित ये संस्था जवाब देने में कभी पीछे नहीं रहती . चाहे खुशवन्त सिंह द्वारा धर्म पर आक्षेप हो या जनरल वी के सिंह द्वारा ऋषी के योगदान को कम आंकने की कोशिश या हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा ऋषी दयानन्द पर आक्षेप यही एक संस्था है जो आक्षेपों का न केवल जवाब देती है अपितु यह भी सुनिश्चित करती है कि वो जवाब आक्षेप करने वाले तक पहुंचे .
  • कुकुरमुत्ते की तरह उगते तथाकथित विद्वान और आर्य समाजी हदीसों की रचना :
    आर्य समाज में पुरोहितों/विद्वानों की दयनीय स्तिथी का एक कारण कुकुरमुत्ते की तरह उगते स्वघोषित विद्वान भी हैं. जो कार्य विद्वानों को करने चाहिए वो कार्य में ये स्वघोषित अपनी दक्षता प्रदर्शित कर न केवल पुरोहितों /विद्वानों के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप करते हैं, उनकी आजीविका के माध्यम पर चोट करते हैं अपितु  वैदिक सिद्धांतों के खिलाफ भी बोलते हैं. पण्डित राम चन्द्र देहलवी ,शाश्त्रार्थ महारथी शांती प्रकाश जी ने जीवन लगा कर वह योग्यता प्राप्त की थीं लेकिन ये बिना परिश्रम किये वह चाहते हैं>

यही कारण है की विधर्मियों से वार्तालाप में इनके ईश्वर को अनुमान भी हो जाता है.
इन स्वघोषितों की पत्नी माता पौराणिक तीर्थों की यात्रा में जाती हैं और ये विश्व को आर्य बनाने और शाश्त्रार्थ महारथी बनने का दम्भ भरते हैं.
आर्य समाज में इन अध् कचरे विद्वानों की वजह से अनेक हदीसों की रचना होने लगी है जो ऋषी के भक्तों जिनको तथ्यों का ज्ञान नहीं होता है बड़ी आसानी से प्रचारित हो जाती है.
यथा मंगल पांडे का ऋषी दयानन्द का भक्त होना, खुदी राम बोस के फांसी से पहले सत्यार्थ प्रकाश के दर्शन, सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर तांगे वाले के आर्य समाजी बनाना हो या लाठियां खाने  के समय लाला लाजपत राय के हाथों में सत्यार्थ प्रकाश का होना हो ये हदीसें इन तथाकथित स्वघोषित विद्वानों की ही देन हैं जो समाज की जड़ों में मट्ठा डालने का कार्य कर रहे  हैं

  • अवैदिक कार्यों का आर्य समाज में प्रचलन

जिन कार्यों का आर्य समाजी विद्वान विरोध करते हुए चले आये आज उन्हीं अवैदिक कर्मों को आर्य समाज में स्थान मिलने लगा है. चाहे वह एक आर्य संस्था के प्रधान द्वारा कौशाम्बी आर्य समाज के कार्यकर्म में करवा चौथ को वैदिक सिध्ध करना हो या सर्व मनोंकामना पूर्ण करने जैसे कार्यक्रम करना या फिर समाजों में बलि प्रथा के सांकेतिक प्रचलन के तहत यज्ञ की समाप्ति पर गोले को काट कर उसमें मखाने आदि भर उसके मुहं को बंद कर हवि के रूप में डालना.
ऋषी दयानन्द और वैदिक धर्म के अनुयायियों को चाहिए की समाज की वर्तमान स्तिथी और समाज के गौरवशाली अतीत का अवलोकन करें . आवश्यकता है कि पतन की वर्तमान स्तिथी का अध्ययन कर इससे उबरने के प्रयासों का निर्धारण कर समयबद्ध तरीके से उनको पूर्ण किया जाये. उन संस्थाओं को चिन्हित किया जाये जो ऋषि के सपनों के समाज और सिध्धातों का पालन करती हैं और उनके नेत्रित्व में अपने गौरवशाली अतीत के स्तर को प्राप्त कर ऋषी के कार्य को आगे बढ़ाने के मार्ग पर प्रशस्त किया  जाये .

“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 12”

इस्लाम, नारी और महिला विकास का अवरोधक बुरका

“ग्यारहवे अध्याय का जवाब पार्ट 1 ”

सत्यार्थ प्रकाश समीक्षा की समीक्षा पुस्तक में सतीशचंद गुप्ता जी एक अध्याय प्रस्तुत करते हैं “क्या पर्दा नारी के हित में नहीं है ?” अपनी परदे वाली थियोरी को जायज़ (वैध) सिद्ध करने के चक्कर में लेखक इतने मशगूल हुए की बिना सिद्धांतो के ही कुतर्क और मिथ्याभाषण करते हुए, वर्तमान युग में भारतीय नारी का उद्धार करने वाले ऋषि दयानंद को इस्लाम और मुसलमानो का कटुआलोचकर बना दिया। क्या ये समाज को सच्चाई दिखाने की जगह खुद ही सच्चाई पर पर्दा डालने वाली बात न हुई ? लेखक को चाहिए था की नारी की मनोस्थति को समझते हुए उसकी भावनाओ का सम्मान करते, मगर इस्लामी धारणा से ओतप्रोत हुए लेखक ने सच को नकारते हुए, विशुद्ध रूप से मजहबी कट्टरता का परिचय देकर सम्पूर्ण नारी जाती का अपमान कर दिया। क्या ये आक्षेपकर्ता का मानसिक दिवालियापन नहीं है ?

देखिये, पर्दा प्रथा न तो भारतीय संस्कार हैं, न ही ये शब्द ही भारतीय हिंदी भाषा से सम्बंधित है, “पर्दा” शब्द स्वयं विदेशी है जो फ़ारसी भाषा से है, संपादक “डॉ सैयद असद अली” प्रकाशक राजपाल इन संस, दिल्ली से प्रकाशित “व्यवहारिक उर्दू हिंदी शब्दकोष” पृष्ठ संख्या १८८ में शब्द “पसेपर्दा” आता है, जो “फ़ारसी पुल्लिंग” शब्द है। जिसका अर्थ है आड़ में। तो ये बात तो क्लियर है की पर्दा शब्द खुद में ही विदेशी शब्द है, तो इसका मूल भी भारतीय नहीं हो सकता, वैदिक संस्कृति में नारी को सम्मान का सूचक “देवी” कहा गया है, जो कभी भी छुपाने की वस्तु वाले नजरिये से नहीं देखि गयी। क्योंकि “औरत” शब्द अरबी है जो अरबी धातु औराह या आईन-वाव-रा (ayn-waw-ra) से जिसका मतलब है कानापन या एक आंख से देखना से बना है। सीधा सीधा अर्थ है, शायद अरब के लोग नारी को केवल भोग की वस्तु या शारीरिक सम्बन्ध बनाने वाली नजर से ही देखते थे, जिस कारण नारी को “औरत” शब्द यानी छुपाने वाली बना दिया ताकि ऐसी दुष्ट और काम वास्नामयी नजरो से बचा सके।

जबकि भारतीय पद्धति में महिला को देवी का दर्जा प्राप्त है, जिससे ज्ञात होता है की भारतीय परंपरा और संस्कार नारियो के प्रति कितने उदारशील और संस्कारी थे। अब जो बात है पर्दा की तो किसी भी वैदिक साहित्य में महिला को छुपाने या पर्दा करने का विवरण प्राप्त नहीं होता देखिये :

निरुक्त में पर्दा प्रथा का विवरण कहीं मौजूद नहीं।

निरुक्तानुसार संपत्ति संबंधी मामले निपटाने के लिए न्यायालयों में स्त्रियों के आने जाने के लिए कहीं पर्दा व्यवस्था का विवरण नहीं, बल्कि अधिकार है।

रामायण और महाभारत काल में भी महिलाओ की पर्दा प्रथा नहीं पायी जाती, इसके उल्ट रावण की बहन जब श्री राम और लक्ष्मण के सामने आई तब भी कोई पर्दा न था, जब रावण माता सीता को ले जाकर, अशोक वाटिका में रखा वहा भी कोई पर्दा व्यवस्था नहीं थी। रामायण और महाभारत कालीन इतिहास में स्वयंवर होते थे, तब भी पर्दा व्यवस्था का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता।

इन सब तथ्यों से ज्ञात हो जाता है की आर्य सभ्यता में पर्दा व्यवस्था थी ही नहीं, क्योंकि आर्य जाति सदैव सदाचारी और संयमी रही है, अतः पुरुषो को अपनी इन्द्रियों को वश में करना ही सदाचार है, महिलाओ को ढक कर, छिपा कर पुरुष इन्द्रियों को वश में नहीं कर सकता, खैर ये ढकने और छिपाने जैसी प्रथा से पुरुष की इन्द्रिय संयम में रहती हैं और पुरुष सदाचार की शिक्षा प्राप्त करता है, इतना विज्ञानं अरबी सभ्यता में ही था।

अब हम आपको वेद से प्रमाण दिखाते हैं, देखिये :

सुमंगलीरियं वधुरिमा समेत पश्यत
सौभाग्यमस्यै दत्वायाथास्तं वि परेतन

ऋग्वेद (10.85.33)

हे विवाह में उपस्थित भद्र स्त्री पुरुषो ! यह वधु शुभा और सौभाग्यशालिनी है। आप लोग आइये, देखिये और इसे सौभाग्य का आशीर्वाद देकर अनन्तर अपने अपने घरो को जाइए।

यहाँ स्पष्ट है की पर्दा प्रथा का कोई औचित्य भारतीय संस्कृति में महिलाओ के लिए निर्धारित नहीं किया गया। बल्कि आश्वलायनगृह्यसूत्र (1/8/7) के अनुसार वधु को अपने घर ले आते समय वर को चाहिए कि वह प्रत्येक निवेश स्थान (रुकने के स्थान) पर दर्शकों को ऋग्वेद के उपर्युक्त मंत्र के साथ दिखाए। इससे स्पष्ट है कि वैदिक सभ्यता (भारतीय संस्कृति) में वधुओं द्वारा अवगुण्ठन (पर्दा) नहीं धारण किया जाता था, प्रत्युत वे सबके सामने निरावगुण्ठन आती थी। पर्दा प्रथा का उल्लेख सबसे पहलेे महाकाव्यों में हुआ है पर उस समय यह केवल कुछ राजपरिवारों तक ही सीमित था। (धर्मशास्त्र का इतिहास पृ.336)

अब मूल सवाल यह है की ये पर्दा प्रथा जैसी कुप्रथा हमारे भारतीय समाज में कैसे दाखिल हुई ? इसका जवाब हमें हुतात्मा पंडित लेखराम कृत “महर्षि दयानंद सरस्वती का जीवन चरित्र” नामक पुस्तक में बेहद तर्कपूर्ण आधार पर मिलता है, जहाँ महर्षि ने एक शंकालु की शंका समाधान करते हुए कहा :

“स्त्रियों को परदे में रखना आजन्म कारागार में डालना है। जब उनको विद्या होगी वह स्वयं अपनी विद्या के द्वारा बुद्धिमती होकर प्रत्येक प्रकार के दोषो से रहित और पवित्र रह सकती हैं। परदे में रहने से सतीत्व रक्षा नहीं कर सकती और बिना विद्या प्राप्ति के बुद्धिमती नहीं हो सकती हैं और परदे में रखने की प्रथा इस प्रकार प्रचलित हुई की जब इस देश के शासक मुस्लमान हुए तो उन्होंने शासन की शक्ति से जिस किसी की बहु बेटी को अच्छी रूपवती देखा उसको अपने शासनाधिकार से बलात छीन लिया और दासी बना लिया। उस समय हिन्दू विवश थे, इस कारण उनमे सामना करने की सामर्थ्य न थी। इसलिए अपने सम्मान की रक्षा के लिए उन्होंने अपनी स्त्रियों और बहु बेटियो को घर से बाहर जाने का निषेध कर दिया। सो मूर्खो ने उसको पूर्वजो का आचार समझ लिया। देखो, मेमो अर्थात अंग्रेज की स्त्रियों को, वे भारत की स्त्रियों की अपेक्षा कितनी साहसी, विद्यावती और सदाचारिणी होती हैं।”

ऋषि ने जो समझाया उसे न समझकर पूर्वाग्रह से ग्रसित हो आक्षेपकर्ता ने कुछ और ही समझा, स्त्रियों को परदे में रखना आजन्म कारागार है, क्योंकि ये महिला की इच्छा विरुद्ध है, अनेको मुस्लिम महिलाये ही बुरखा का विरोध करती हैं, यहाँ तक की अनेको मुस्लिम महिलाओ ने तो नग्न तक होकर विरोध किया है, ऐसी अनेको खबरों से फ्रांस, ब्रिटेन आदि देशो के समाचार पत्र भरे पड़े हैं। हम नग्न्ता का समर्थन तो बिलकुल नहीं करते, विरोध सदैव ही शालीन और मर्यादित होना चाहिए, लेकिन शायद उन मुस्लिम महिलाओ को नग्न्ता की राह दिखाने वाला भी बुरखा ही था जिसमे उन्हें घुटन महसूस हो रही थी। खैर हम ऋषि की दूसरी बात समझते हैं, उन्होंने कहा महिला कभी भी परदे से अपनी सतीत्व रक्षा नहीं कर सकती, ये कटु सत्य है, क्योंकि भारत में ही अनेको मुस्लिम परिवारो में मुस्लिम बहु की इज्जत को तार तार करने में उसके ही अपने मुस्लिम ससुर का योगदान था। मुजफ्फरनगर उ० प्र० में इमराना का केस मात्र एक उदहारण है, मुस्लिम पति नूर इलाही की जो पत्नी इमराना थी, उसके ससुर अली मोहम्मद ने बलात्कार किया था, तब इस्लामी कानून अनुसार दारुल उलूम देवबंद ने एक फतवा निकाला जो दुनिया से मानवता शर्मसार करने वाला था, इस कानून में पीड़ित महिला जो ससुर की हैवानियत का शिकार हुई थी, उसे उस हैवान की पत्नी बना दिया गया, और जो उसका पति था, जिससे उस महिला को पांच बच्चे थे, उसे बेटा बना दिया, अंततः पीड़ित ने भारतीय संविधान का दरवाजा खटखटाया और पीड़िता को इंसाफ मिला। अब सवाल ये है, क्या बुरखा यहाँ स्त्री की सतीत्व रक्षा कर पाया ? क्या ये जरुरी नहीं था, की पुरुष अपनी इन्द्रियों को वश में करना सीखे। महिलाओ को शिक्षित करने से ही महिलाओ का शोषण रुकेगा, क्योंकि महिलाओ को जो अधिकार प्राप्त हैं, वो शरिया कानून नहीं देता, क्योंकि इस्लाम में महिलाओ का पढ़ना लिखना हराम है, महिलाओ का नौकरी करना हराम है, महिलाओ का पर पुरुषो (ऑफिस सहकर्मी) के साथ बैठना, काम करना, सब हराम है। खैर इस विषय पर हम अगले लेख में विचार करेंगे। आप अभी केवल ये सोचिये की यदि महिला शिक्षित होकर नौकरी करना चाहे तो क्या वो ऑफिस में बुरखा पहने हुए, बैठ सकती है ? क्या ये एक प्रकार का मानसिक अत्याचार नहीं है ? क्या पुरुष को भी बुरखे में रहने की आज्ञा है ? यदि नहीं, तो क्यों एक नारी पर अत्याचार किया जाता है, वो भी मजहब के नाम पर ? फिर भी कहते हैं की महिला और पुरुष को इस्लाम में समान अधिकार प्राप्त हैं ? क्या ये एक प्रकार का बेहूदा मजाक नहीं ?

यही बात यहाँ महर्षि ने बताई, की महिला को शिक्षित होना चाहिए, ताकि वो अपने अधिकार प्राप्त कर सके, मगर खेद की इस्लाम में महिलाओ का पढ़ना लिखना, उनको अधिकार देना इस्लामी शरिया में हराम है, पाकिस्तान की मलाला युसूफ ज़ई से ज्यादा इस बात को कोई नहीं समझ सकता।

उपरोक्त तथ्यों से सिद्ध है की भारतीय सभ्यता में तो पर्दा का कोई रोल नहीं, ये कुप्रथा विशुद्ध रूप से मुस्लिम शासको के कारण ही भारतीय परिवेश में दाखिल हुई। ऋषि ने जो तर्क दिया था, उसका ही समर्थन करते हुए “भारतरत्न पांडुरंग वामन काणे” ने अपनी पुस्तक हिस्ट्री आफ धर्मशास्त्र (धर्मशास्त्र का इतिहास) में पृष्ठ ३३७ में लिखते हैं :

“उत्तरी भारत एवं पूर्वी भारत में पर्दा की प्रथा जो सर्वसाधारण में पाई जाती है, उसका आरंभ मुसलमानों के आगमन से हुआ।

इसके तीन कारण थे-

हिन्दू स्त्रियों को सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से।

विजेता शासकों की शैली का चाहे-अनचाहे तरीके से अनुसरण।

विपरीत परिस्थितियों के कारण स्त्रियों में बढ़ती अशिक्षा और मुस्लिम शासकों के राज में गिरता स्तर।

इतिहास को आप छुपा नहीं सकते, इस विषय पर अनेको लेखको ने स्वतंत्रता से लिखते हुए अपनी सहमति दी है, क्योंकि मुस्लिम शासक और आक्रांता, इस देश में आक्रमण करते और पुरुषो को मारकर, उनकी स्त्रियों को उठा ले जाते तथा अरब आदि देशो में गुलाम दासी के तौर पर दो दो दिनार में बेच देते थे, ये तो इतिहास था, मगर इतिहास फिर दुहरा गया, सीरिया में इस्लामी आतंकी संगठन ने यजीदी महिलाओ को निर्वस्त्र करके गली मोहल्ले में बोली लगाकर १०० डॉलर में बेचा, ये तो अभी हाल की ही खबर है, बिलकुल यही परिस्थिति मुग़ल काल में भी थी राजपुताना में मौजूद अनेको जौहर स्थल इसके साक्षात प्रमाण हैं। इतिहास साक्षी है, की मुस्लिमो की बादशाहत दौरान हिन्दू महिलाओ को अगवा कर बलात्कार किया जाता था, डॉ श्रीवास्तव अपनी पुस्तक अकबर द मुग़ल पृष्ठ ६३ में लिखते हैं “when people Deosa and other places on Akbar’s route fled away on his approach” अब यहाँ शंका ये है यदि राजा भारमल की पुत्री जोधा का विवाह वधु पक्ष की मर्जी से हुआ था तो अकबर के आने पर जनता भाग क्यों गयी ? जाहिर है, वो विवाह था ही नहीं, ये स्पष्ट है की अकबर ने राजा भारमल की पुत्री की सुंदरता के प्रसिद्द किस्से सुने थे, इसीलिए उसे पाने को राजा भारमल पर आक्रमण किया, यही हाल सती रानी दुर्गावती की कहानी का भी है, हालांकि जौहर करने से दो महिलाये बच गयी थी एक दुर्गावती की बहन कमलावती और दूसरी राजा पुरंगद की बेटी थी जिन्हे अकबर के हरम में पंहुचा दिया गया था (जे एम शेलत, अकबर 1964)

अनेको इतिहासिक दस्तावेजो से ये सिद्ध है की उत्तर भारतीय हिन्दू परिवारो में पर्दा प्रथा मौजूद नहीं थी, ये कुप्रथा हिन्दू समाज में मुस्लिम आक्रंताओ से हिन्दू महिलाओ को बचाने के लिए अपनाया गया, नवाब वज़ीर लखनऊ का तत्कालीन नवाब सुन्दर हिन्दू महिलाओ को अगवा कर उनको प्रताड़ित किया करता था, और जबरन मुसलमान बनवाता था (इट इज कॉन्टिनुएड, अशोक पंत, पृष्ठ १३०)

औरंगजेब के समय तत्कालीन प्रधान मंत्री का नवासा मिर्ज़ा तवाख्खुर ने हिन्दुओ की दुकानो को नष्ट किया और हिन्दू महिलाओ को अगवा कर बलात्कार किया (India & South East Asia to 1800 सांडर्सन बेक)

औरंगजेब के समय तत्कालीन प्रधान मंत्री का नवासा मिर्ज़ा तवाख्खुर ने घनश्याम जो नवविाहित वधु को डोली में बैठा कर घर ला रहा था, उसे अपने घर के गेट के सामने ही लूट लिया, २ हिन्दू मार दिए गए और घनश्याम की पत्नी को मिर्ज़ा तवाख्खुर अपने घर ले गया (Ahkam-i-Alamgiri)

The Afghan ruler Ahmad Shah Abdali attacked India in 1757 AD and made his way to the holy Hindu city of Mathura, the Bethlehem of the Hindus and birthplace ofKrishna.

The atrocities that followed are recorded in the contemporary chronicle called : ‘Tarikh-I-Alamgiri’ :

“Abdali’s soldiers would be paid 5 Rupees (a sizeable amount at the time) for every enemy head brought in. Every horseman had loaded up all his horses with the plundered property, and atop of it rode the girl-captives and the slaves. The severed heads were tied up in rugs like bundles of grain and placed on the heads of the captives…Then the heads were stuck upon lances and taken to the gate of the chief minister for payment.

“It was an extraordinary display! Daily did this manner of slaughter and plundering proceed. And at night the shrieks of the women captives who were being raped, deafened the ears of the people…All those heads that had been cut off were built into pillars, and the captive men upon whose heads those bloody bundles had been brought in, were made to grind corn, and then their heads too were cut off. These things went on all the way to the city of Agra, nor was any part of the country spared.”

कितने ही प्रमाण दिए जा सकते हैं, जो सिद्ध करते हैं, की हिन्दू महिलाओ पर मुस्लिम आक्रंताओ द्वारा कितना अत्याचार किया गया, की इससे हमारी सभ्यता और संस्कृति में अनेको परिवर्तन आ गए। जिनमे मुख्य रूप से :

पर्दा कुप्रथा का भारतीय महिलाओ द्वारा अपनाना मुख्य है।
बाल विवाह, ताकि हिन्दू महिलाओ को शोषण से बचा सके।
सती प्रथा, ये जौहर का परिणाम था जिसे स्वेच्छा से अपनाया जाने लगा ताकि मृत हिन्दू पति के बाद हिन्दू महिला की आबरू बच सके।

इसके अतरिक्त सतीशचंद गुप्ता से पूछना चाहेंगे की, जो पर्दा प्रथा हालिया हिन्दू समाज में पायी जाती है, वह केवल घूंघट या सर पर पल्लू रख कर देखि जाती है, लेकिन जो पर्दा प्रथा का समर्थन आक्षेपकर्ता ने किया वो बुरखा है, वो किसी भी लिहाज से घूँघट का कार्य तो करता नहीं, फिर बुरखा की बराबरी घूँघट से करना मानसिक दिवालियापन ही है। क्योंकि हालिया समय में हिन्दू समाज में घूँघट या सर पर पल्लू रखना एक नजरिये से देखे तो आदर सूचक ही लगता है जो बड़े बुजुर्गो के सम्मान हेतु रखते हैं, लेकिन बुरखा घूँघट या पर्दा की बराबरी नहीं कर सकता, फिर क्यों बराबर जोड़ा गया ?

अब हम इस लेख में ज्यादा तो अब नहीं लिख सकते, क्योंकि बड़ा हो जाएगा, अतः अब हम अगले लेख में देखेंगे, कि :

बुरका प्रथा मुस्लिम समाज में कैसे आया ?

बुरखे की हानिया और आज का आतंकवाद

बुरखे से महिलाओ को होने वाली बीमारियां तथा बुरखे पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण

बुरखे के कारण मुस्लिम महिलाओ की स्थति

महिला विकास में अवरोधक बुरखा

और क्या बुरखा महिलाओ के प्रति छेड़ छाड़ और बलात्कार रोक पाता है ?

अगले लेख में।

आओ लौट चले वेदो की और।

नमस्ते

‘विजयादशमी पर्व पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदर्श जीवन के अनुरूप स्वयं को बनाने का व्रत लें’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

ओ३म्

विजयादशमी पर्व से हमारे पूर्वजों व देशवासियों ने मर्यादा पुरूषोत्तम श्री रामचन्द्र जी के आदर्श जीवन व उनके कृतित्व को जोड़ा है। यद्यपि आश्विन शुक्ला दशमी को मनाई जाने वाली विजयादशमी का श्री रामचन्द्र जी की लंकेश रावण पर विजय की तिथि से कोई ऐतिहासिक सम्बन्ध नहीं है, परन्तु भारत की वैदिक धर्म व संस्कृति के आदर्श होने के कारण और विजयादशमी का पर्व प्राचीन काल से क्षात्र धर्म से जुड़ा होने के कारण क्षात्र धर्म के मूर्त व आदर्श रूप मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम को स्मरण करने का दिवस तो निश्चय ही है। यदि क्षात्र धर्म के पर्व पर श्री रामचन्द्र जी को स्मरण न किया जाये तो उनके समान अन्य कम ही हैं जिन्हें हम स्मरण कर सकते हैं और उनके जीवन से प्रेरणा ले सकते हैं। हम समझते हैं कि आज के दिन हमें योगेश्वर श्री कृष्ण और उनके व्यक्तित्व व कृतित्व को स्मरण कर उनके जीवन से भी प्रेरणा ग्रहण करने का व्रत लेना चाहिये। इससे न केवल हमारा जीवन लाभान्वित होगा वरन देश और समाज को भी लाभ होगा। यह नहीं भूलना चाहिये कि श्री रामचन्द्र जी ने ऋषियों के यज्ञों में विघ्न डालने वाले असुरों व राक्षसों का नाश किया था जिससे विश्व का कल्याण करने वाले यज्ञों की रक्षा हुई थी। इन्हीं यज्ञों को उन्नीसवीं सदी में वेदों के तलस्पर्शी विद्वान आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने पुनः प्रचलित किया है। विजयादशमी का दिन आज हमें श्री रामचन्द्र जी के जीवन से प्रेरणा लेने सहित यज्ञों की रक्षा करने व स्वयं यज्ञ एवं उनके आदर्शों को अपने जीवन में धारण करने की भी अपेक्षा करता हुआ प्रतीत होता है। श्री रामचन्द्र जी में जो ज्ञान, बल, आचरण था वह वेदों की शिक्षा, ऋषि-मुनियों की संगति व यज्ञों के कारण था। अतः हमें भी वेदाध्ययन कर अपने जीवन में ज्ञान व बल की वृद्धि करने के साथ उनका आचरण करना है और ईश्वरीय ग्रन्थ वेद और वेद ज्ञान के वाहक ऋषियों की आज्ञा के अनुसार प्रतिदिन पंचमहायज्ञों को धारण व आचरण में लाकर, इससे स्वयं उन्नत होकर संसार को भी उन्नत करना है।

 

श्री रामचन्द्र जी का जीवन इस लिए भी अनुकरणीय है कि उन्होंने देश व समाज से आसुरी व राक्षसी प्रवृत्तियों को दूर करने के साथ देश के ऋषि-मुनियों को सताने व उनके यज्ञीय कार्यों में बाधा डालने वाले राक्षसी स्वभाव के लंकापति राजा रावण को दण्डित किया था। सत्य की रक्षा के लिए दुष्टों को दण्डित करना आवश्यक होता है नहीं तो सत्य का व्यवहार समाप्त होकर देश व समाज में अनुशासन नहीं रहता और इससे धार्मिक व सदाचारी लोगों को दुःख व कष्ट होता है। हमारा देश श्री राम व श्री कृष्ण जी की सन्तानें है। इस कारण कि हमारे सबके पूर्वज राम व कृष्ण से जुड़े हुए हैं। यह इस कारण भी है कि प्राचीन काल में गुण, कर्म व स्वभावानुसार वर्ण परिवर्तन होता था। ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र बन जाते थे और क्षत्रिय व वैश्य गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार अनेक उन्नत व निम्न वर्णों को प्राप्त होते थे। अतः श्री राम व श्री कृष्ण सभी वर्णों के साझे पूर्वज हैं और हम उन्हीं की सन्ततियां हैं। अतः हमें उनको ही आदर्श मानकर उनका अनुकरण व अनुसरण करना है। यह भी हमारा कर्तव्य व धर्म है।

 

हम जानते हैं कि श्री राम व श्री कृष्ण यज्ञों के प्रेमी थे। यज्ञ परोपकार का सर्वश्रेष्ठ कार्य व उदाहरण हैं। इससे वायु शुद्ध होती है और पर्यावरण को लाभ होता है। वायु शुद्ध करने का यज्ञ के समान दूसरा उपाय संसार में वैज्ञानिकों के पास भी नहीं है। यज्ञ का मुख्य आधार गोघृत है। अतः गोपालन सहित व गोरक्षा भी यज्ञ से जुड़ी हुई है। इसलिये प्रत्येक वैदिक धर्मी राम व कृष्ण के अनुयायी को यज्ञ की रक्षा करने हेतु स्वयं इसको प्रतिदिन सम्पन्न करना चाहिये। महर्षि दयानन्द ने दीर्घ काल से बन्द यज्ञ की परम्परा को वैदिक काल के अनुसार प्रचलित कर इसे सरल व सर्वत्र सुलभ करा दिया है। सभी आर्य विचारधारा के लोग प्रतिदिन यज्ञ करते ही हैं। यज्ञकर्ता, गोपालक व गोरक्षक ही वस्तुतः श्री राम व श्री कृष्ण के अनुयायी कहलाने के अधिकारी हैं।  इस पर सभी सनातन धर्मी भाईयों को विचार करना चाहिये और ओ३म् नाम तथा वेद के विचारों, मान्यताओं व सिद्धान्तों के अन्तर्गत संगठित होकर वेदों, सनातन वैदिक धर्म व संस्कृति का प्रचार व प्रसार करना चाहिये। यह ध्यान में रखना चाहिये कि संसार में केवल वेद और वैदिक धर्म ही ऐसी जीवन शैली हैं जो विश्व से अशान्ति, अधर्म तथा पाप को मिटा कर शान्ति, धर्म व शुभ कर्मों को स्थापित कर सकती हैं।

 

संसार में बहुत से महापुरूष व वैज्ञानिक आदि हुए हैं। हम जब भी किसी महापुरूष या वैज्ञानिक की जयन्ती मनाते हैं तो हम क्या करते हैं? उनके जीवन, विचारों, गुणों व कार्यों को स्मरण कर उनमें संशोधन, सवंर्धन व प्रचार की प्रेरणा प्राप्त कर उसके प्रसार का ही तो व्रत लेते हैं। अतः विजयादशमी पर्व पर भी हमें ऐसा ही करना है। हमें श्री राम चन्द्र जी व श्री कृष्ण जी के जीवन पर विचार करना है और उनके जीवन, कार्यों व आदर्शों को जानकर उनकी प्राप्ति को अपने जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य बनाना है। ऐसा करके हम कुछ-कुछ उनके जैसे बन सकते हैं। केवल उनके नाम का कीर्तन करने से कोई लाभ किसी को नहीं होता। विजया दशमी का पर्व मनाते हुए सर्वोत्तम विधि यही है कि हम अपने घरों में वृहत्त यज्ञ-अग्निहोत्रों का आयोजन करें जिससे परिवार व समाज का वातावरण शुद्ध व पवित्र हो और इससे सभी को स्वास्थ्य व मन की प्रसन्नता का लाभ हो। इसके साथ श्री राम, श्री कृष्ण, चाणक्य, महर्षि दयानन्द, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, सरदार पटेल, पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा, वीर सावरकर, मदन लाल ढ़ीगरा, शहीद ऊधम सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, भगतसिंह, राजगुरू व सुखदेव आदि का स्मरण कर उनके जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिये।

 

इन संक्षिप्त शब्दों के साथ हम सभी बन्धुओं को विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनायें एवं बधाई देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

“यज्ञ क्या होता है और कैसे किया जाता है?” -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्यज्ञ सर्वश्रेष्ठ कार्य वा कर्म को कहते हैं। आजकल यज्ञ शब्द अग्निहोत्र, हवन वा देवयज्ञ के लिए रूढ़ हो गया है। अतः पहले अग्निहोत्र वा देवयज्ञ पर विचार करते हैं। अग्निहोत्र में प्रयुक्त अग्नि शब्द सर्वज्ञात है। होत्र वह प्रक्रिया है जिसमें अग्नि में आहुत किये जाने वाले चार प्रकार के द्रव्यों की आहुतियां दी जाती हैं। यह चार प्रकार के द्रव्य हैं- गोधृत व केसर, कस्तूरी आदि सुगन्धित पदार्थ, मिष्ट पदार्थ शक्कर आदि, शुष्क अन्न, फल व मेवे आदि तथा ओषधियां वा वनस्पतियां जो स्वास्थ्यवर्धक होती हैं। अग्निहोत्र का मुख्य प्रयोजन इन सभी पदार्थों को अग्नि की सहायता से सूक्ष्मातिसूक्ष्म बनाकर उसे वायुमण्डल व सुदूर आकाश में फैलाया जाता है। हम सभी जानते हैं कि जब कोई वस्तु जलती है तो वह सूक्ष्म परमाणुओं में परिवर्तित हो जाती है। परमाणु हल्के होते हैं अतः वह वायु मण्डल में सर्वत्र वा दूर-दूर तक फैल जाते हैं। वायु मण्डल में फैलने से उनका वायु पर लाभप्रद प्रभाव होता है। जिस प्रकार दुर्गन्धयुक्त वायु स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद व मन के लिए अप्रिय होती है उसी प्रकार से गोघृत व केसर, कस्तूरी आदि नाना प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों के जलने से वायु का दुर्गन्ध दूर होकर वह सुगन्धित, स्वास्थ्यप्रद व रोगनाशक हो जाती है। इस यज्ञ के परिणाम स्वरूप यज्ञ से पूर्व की वायु के गुणों में वृद्धि होकर वह स्वास्थ्यवर्धक, रोगनिवारक, वर्षाजल को शुद्ध करने वाली, प्रदुषण निवारक, वर्षा जल पर आश्रित अन्न व वनस्पतियों को स्वास्थ्यप्रद करने, यहां तक की अच्छी सन्तानों को जन्म देने में भी सहायक होती है।

 

अग्निहोत्र यज्ञ करने के लिए हम घर में एक यज्ञकुण्ड वा हवनकुण्ड का प्रयोग करते है जो तली में छोटा व ऊपर की ओर बड़ा व खुले मुख वाला होता है। यह पूरा यज्ञ कुण्ड टीन, लोहे व ताम्बे का बना होता है। भूमि खोद कर भी यज्ञ कुण्ड बनाया जा सकता है। आम, पीपल, गुग्गल, कपूर व पलाश आदि अनेक प्रकार के स्वास्थ्य व पर्यावरण के हितकर काष्ठों की समिधाओं को यज्ञ कुण्ड के आकार में काट कर उन्हें यज्ञकुण्ड में रखा जाता है। कपूर को यज्ञ में प्रयुक्त घृताहुति वाली चम्मच में रखकर उसे दीपक के द्वारा प्रदीप्त किया जाता है। इस प्रक्रिया को करते हुए वेद मन्त्र को बोलकर अग्नि का आधान यज्ञकुण्ड के बीच समिधाओं में किया जाता है। जब अग्नि प्रज्जवलित हो जाती है तो यज्ञ के विधान के अनुसार परिवार का एक व अधिक सदस्य घृत की और कुछ हवन सामग्री वा साकल्य जिसका वर्णन ऊपर किया गया है, को लगभग पांच-पांच ग्राम या कुछ अधिक मात्रा में लेकर उसकी आहुतियां वेद मन्त्रों को बोलकर यज्ञ की अग्नि में डाली जाती हैं जिससे अग्नि में पड़ कर वह आहुतियां पूर्णतया जलकर व सूक्ष्म होकर वायुमण्डल में फैल जायें। जिन मन्त्रों को शुद्ध उच्चारित कर आहुतियां दी जाती हैं, उनके अन्त में स्वाहा बोला जाता है। मन्त्र बोलने का प्रयोजन यह है कि इससे यज्ञ करने के लाभ यजमान वा यज्ञकत्र्ता को विदित हो जाये और साथ ही उन मन्त्रों के कण्ठस्थ हो जाने से उनकी रक्षा व सुरक्षा हो सके। इस प्रकार न्यून से न्यून प्रतिदिन प्रातः व सायं सोलह-सोलह व अधिक आहुतियां देने का विधान हमारे पूर्वजों व ऋषियों ने किया है। इस प्रकार से यज्ञ अग्निहोत्र करने में मात्र 10 से 15 या अधिकतम 20 मिनट का समय लगता है। इस प्रक्रिया से वायुमण्डल शुद्ध हो जाता है। यज्ञ की गर्मी से घर का वायु हल्का होकर ऊपर व खिड़कियों-रोशनदानों से बाहर चला जाता है और बाहर का शुद्ध व हितकर वायु घर के अन्दर प्रवेश करता है। इससे घर में रहने वाले सभी सदस्यों का स्वास्थ्य अच्छा वा निरोग रहता है। परिवार के किसी भी सदस्य को रोग नहीं होते और यदि किसी कारण से हों भी जायें तो अल्प मात्रा में उपचार करने से वह शीघ्र ठीक हो जाते हैं। घृत एवं यज्ञ सामग्री के अनेक पदार्थ किटाणु नाशक भी हैं। यज्ञ करने से जल, वायु आदि में व घर में यत्र-तत्र जो सूक्ष्म हानिकारक किटाणु छिपे होते हैं, वह भी नष्ट हो जाते हैं। शुद्ध वायु मिलने से मनुष्यों का स्वास्थ्य अच्छा होता है व उनके शरीर बलवान, रोगमुक्त व स्वस्थ होते हैं। यज्ञ करने के अनेक अदृश्य लाभ भी होते हैं जो यज्ञ में वेद मन्त्रों के द्वारा की जाने वाली प्रार्थनाओं के अनुरूप प्राप्त होते हैं। ऋषियों ने अपनी गवेषणा व अनुसंधान से यहां तक कहा कि यज्ञ करने वाले के अगले पुनर्जन्म में यह आहुतियां उसको अनेकविध लाभ पहुंचाती हैं। हमारी गवेषणा के अनुसार यह लाभ ईश्वर जीवात्मा को प्रदान करता है। यह जानना भी जरूरी है कि वेद मन्त्र ईश्वर के द्वारा प्रदत्त व निर्मित है। वेदों की कोई भी बात अज्ञान व असत्य नहीं है। वेद मन्त्रों में असम्भव प्रार्थनायें भी नहीं है जो उसके अनुरूप व्यवहार करने से पूर्ण वा सिद्ध न हों। वेद की प्रार्थनायें सत्य व ज्ञान से परिपूर्ण हैं। अतः वेदों में जो कहा गया है वह जीवन में अवश्य प्राप्त होता है अथवा वह सभी लाभ उसको प्राप्त होते हैं जो व्यक्ति यज्ञ को करता है। यह भी उल्लेखनीय है कि यज्ञ को करते समय जब यज्ञकुण्ड की अग्नि मन्द होने लगे तो उसमें आवश्यकतानुसार समिधायें रखते रहना चाहिये जिससे हमारी आहुतियां तेज वा प्रचण्ड अग्नि से सूक्ष्म होकर वायुमण्डल व आकाश में दूर दूर तक पहुंचती रहे।

 

अब यज्ञ करने की विधि भी जान लेते हैं। प्रातःकाल यज्ञ से पूर्व तथा सायंकाल यज्ञ के पश्चात सन्ध्योपासना करने का विधान है। सन्ध्या का अर्थ है कि ईश्वर का भलीभांति ध्यान कर उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना। सन्ध्या की सर्वांगपूर्ण अति उत्तम विधि महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने पंच महायज्ञ विधि व संस्कार विधि पुस्तकों में प्रस्तुत की है। सन्ध्या के बाद तथा जब सूर्योदय हो गया हो, तब अग्निहोत्र किया जाता है। सबसे पहले गायत्री का मन्त्र का पाठ कर लेना चाहिये जिससे मन यज्ञ करते समय इधर-उधर न भागे और यज्ञ में ही एकाग्र रहे। इसके बाद तीन आचमन अर्थात् अल्प मात्रा में जल पीने का विधान है जो आचमन के मन्त्रों को बोलकर किये जाते हैं। इससे कफ आदि की निवृत्ति होकर वाणी का उच्चारण शुद्ध होता है। इसके पश्चात बायें हाथ की अंजलि में जल लेकर दायें हाथ की अंगुलियों से शरीरस्थ इन्द्रियों के स्पर्श करने का विधान है। इस प्रक्रिया द्वारा ईश्वर से इन्द्रियों व शरीर के स्वस्थ, निरोग व बलवान होने की प्रार्थना है। तत्पश्चात 8 स्तुति-प्रार्थना व उपासना के मन्त्रों का उनके अर्थ को विचार करते हुए या पृथक से बोल कर गायन वा उच्चारण करने का विधान है। इसके बाद दीपक जला कर उससे कपूर को प्रज्जवलित कर यज्ञ कुण्ड में उस कपूर की अग्नि का आधान मन्त्रों को बोलकर किया जाता है जो मात्र 25 से 30 सेकेण्ड्स में हो जाता है। अग्न्याधान के बाद चार मन्त्रों को बोलकर काष्ठ की 3 समिधायें प्रदीप्त अग्नि पर रखने का विधान है। समिदाधान के बाद एक ही मन्त्र को पांच बार बोल कर घृत की आहुतियां दी जाती हैं। तत्पश्चात चारों दिशाओं में जल सिंचन का विधान है। यह सभी कार्य पृथक पृथक मन्त्रों को बोल कर किये जातें हैं। जल सिंचन के बाद घृत की दो आघाराज्य व दो आज्यभाग आहुतियां दी जाती हैं। इसके बाद दैनिक यज्ञ की आहुतियां दी जाती हैं। प्रातः काल की 12 आहुतियां एवं सायं काल की भी 12 आहुतियां हैं। इनके बाद यज्ञकर्त्ता यजमान यदि अधिक आहुति देना चाहें तो गायत्री मन्त्र को बोलकर देने का विधान है। इसके बाद पूर्णाहुति तीन बार ओं सर्वं वै पूर्णं स्वाहा। बोलकर की जाती है। इससे पूर्व यदि यजमान स्विष्टकृदाहुति प्राजापत्याहुति देना चाहे तो सम्बन्धित मन्त्रों को बोल कर दे सकता है। इस प्रकार से दैनिक यज्ञ सम्पन्न होता है। बहुत से लोग प्रातः व सायं यज्ञ न कर सायंकाल के 4 मन्त्रों को भी प्रातःकाल के यज्ञ में सम्मिलित कर आहुतियां दे देते हैं। इस प्रकार से यज्ञ पूर्ण हो जाता है। यज्ञ के बाद हिन्दी में यज्ञरूप प्रभो हमारे भाव उज्जवल कीजिए, छोड़ देवें छल कपट को मानसिक बल दीजिए यह यज्ञ प्रार्थना भी की जा सकती है और उसके बाद शान्तिपाठ का मन्त्र बोलकर यज्ञ समाप्त हो जाता है। यह अग्निहोत्र वा देवयज्ञ करने की विधि व विधान है। यह भी ध्यान रखना अत्यावश्यक है यज्ञ पूर्णतः अंहिसात्मक कर्म है, इसमें किंचित किसी प्राणी की हिंसा निषिद्ध है। ऐसा होने यज्ञ यज्ञ न होकर पापकर्म बन जाता है।

 

सभी मनुष्य श्वास में मुख्यतः आक्सीजन लेते और कार्बन डाइआक्साइड गैस छोड़ते हैं। इससे वायु प्रदुषित होती है। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने प्रयोजन से की गई दूषित वायु को शुद्ध करे। इसी प्रकार हम अपने निजी प्रयोजन से वायु सहित प्रकृति को भी प्रदूषित करते हैं। हमारा कर्तव्य है कि रोग व दुःखों से बचने व अन्यों को बचाने के लिए हम वायु, जल व प्रकृति को शुद्ध रखें व यज्ञ आदि क्रिया कर सबको शुद्ध करें। जो मनुष्य, स्त्री व पुरूष, ऐसा नहीं करता वह पाप का भागी होता है। यज्ञ न करना पाप करना है क्योंकि इससे हमारे द्वारा किये गये भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रदूषणों से अन्य प्राणियों को दुःख होता है। यदि मनुष्य इस जन्म व परजन्मों में सुखी होना चाहता है तो उसे यज्ञ अवश्य करना चाहिये। यज्ञ का अन्य कोई विकल्प नहीं है। यदि नहीं करेगा तो कालान्तर में परिणाम ईश्वर की व्यवस्था से इसके सम्मुख अवश्य आता है। इसके साथ ही यह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष से भी अनेक प्रकार से भी वंचित हो जाता है।

 

धर्म की एक शब्द की एक परिभाषा है ‘‘सत्याचरण सत्याचरण में माता-पिता की सेवा सुश्रुषा सहित प्राणिमात्र पर दया व उनके भोजन का प्रबन्ध करने के साथ, विद्वान अतिथियों की सेवा, उनसे सद्व्यवहार, उनका अन्न, धन, वस्त्र दान द्वारा सम्मान एवं यथासमय ईश्वरोपासना-सन्ध्या व अग्निहोत्र कल्याण के हितैषी सब मनुष्यों को अनिवार्य रूप से करना चाहिये। जो करेगा वह ईश्वर से इन कर्मों का लाभ व फल पायेगा और जो नहीं करेगा वह ईश्वरीय दण्ड का भागी होगा। यह हमने बहुत संक्षेप में अग्निहोत्र देव यज्ञ पर प्रकाश डाला है। यज्ञ पर बहुत साहित्य उपलब्ध है। यज्ञ सर्वश्रेष्ठ कर्म को कहते हैं। इसका अर्थ है देवों की पूजा, उनसे संगतिकरण और सबको पात्रतानुसार दान देना। इसके अनुसार माता-पिता-आचार्यों व विद्वानों का सम्मान व सेवा-सत्कार भी यज्ञ है। इनके साथ संगतिकरण कर उनके ज्ञान व अनुभव को प्राप्त करना और उससे जनकल्याण व प्राणियों का हित करना भी यज्ञ है। इसी प्रकार से अपनी सामथ्र्यानुसार सुपात्रों को अधिक से अधिक दान देकर देश व समाज को समरस, एकरस व गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार यथाशक्ति सुख-सुविधायें प्रदान करना भी यज्ञ के अन्तर्गत आता है। लेख को समाप्त करने पर यह अवगत कराना है कि इस लेख में स्थानाभाव के कारण हम यज्ञ के मन्त्रों को प्रस्तुत नहीं कर सके हैं। इसके लिए पाठक नैट पर उपलब्ध पुस्तक को डाउनलोड कर सकते हैं या आर्यसमाज के पुस्तक विक्रेताओं से क्रय कर सकते हैं। सहायतार्थ यूट्यूब पर उपलब्घ वीडियोज् को भी देखा जा सकता है। इसी के साथ हम इस संक्षिप्त लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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