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पृथिवी पर श्रेष्ठ धर्म वैदिक धर्म और श्रेष्ठ संगठन आर्यसमाज

ओ३म्

पृथिवी पर श्रेष्ठ धर्म वैदिक धर्म और श्रेष्ठ संगठन आर्यसमाज

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति का अस्तित्व सत्य है। किसी भी विषय में सत्य केवल एक ही होता है। जिस प्रकार दो व दो को जोड़ने से चार होता है, कुछ कम व अधिक नहीं हो सकता इसी प्रकार ईश्वर, जीव, प्रकृति, सृष्टि, धर्म, समाज, मानवीय आचार व विचार आदि सिद्धान्त व मान्यतायें भी भिन्न-भिन्न न होकर सर्वत्र एक समान ही होनी चाहिये। यदि यह पूछा जाये कि वेद पर आधारित वैदिक धर्म और आर्यसमाज संगठन की प्रमुख विशेषता क्या है तो इसका एक वाक्य में उत्तर है कि यह धर्म संगठन सत्य पर आधारित है। दूसरा उत्तर यह है कि वैदिक धर्म आर्य समाज का संगठन प्राणीमात्र के हित कल्याण के लिए हैं। यह कभी किसी के अकल्याण की बात सोचता है और ही करता है। एक अन्य उत्तर यह भी हो सकता है कि यह दोनों ज्ञान पर आधारित है तथा अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीति, रूढि़, मिथ्या परम्परा आदि से पूर्णतः रहित हैं। आर्यसमाज की मान्यता है कि वेद मन्त्रों के अर्थ वही स्वीकार्य होंगे जो सत्य हों व मानव सहित प्राणीमात्र के हित के लिए हों। यदि कहीं कोई भ्रान्ति हो तो उसे इस कसौटी पर कस कर संशोधित कर लेना चाहिये। अन्य मतों, सम्प्रदायों वा धर्मों में सत्य, तर्क व युक्ति को वैदिक धर्म की भांति महत्व नहीं दिया जाता। तर्क व युक्ति से सिद्ध बातें ही सत्य हुआ करती हैं। इसी से ज्ञान की उन्नति व अज्ञान की निवृत्ति होती है और यही मनुष्य के सुख व उन्नति का मुख्य कारण व आधार है।

 

वैदिक धर्म का आरम्भ कब, किसने व क्यों किया? इस प्रश्न पर विचार करना भी समीचीन है। इसका उत्तर है वैदिक धर्म का आरम्भ चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के ज्ञान से सृष्टि के आरम्भ में हमारे पहली पीढ़ी के ऋषियों ने किया। यह सभी ऋषि ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति का साक्षात व यथार्थ ज्ञान रखने के साथ-साथ वेदों के पूर्ण वेत्ता व विद्वान थे। वेदों में जो मन्त्र व उनमें अलौकिक ज्ञान है वह किसी मनुष्य व ऋषि द्वारा रचित, निर्मित व उत्पन्न नहीं है अपितु यह वेद, इसके मन्त्र व ज्ञान इस सृष्टि के रचयिता व संचालक ईश्वर का निज ज्ञान है जो वह सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न आदि मनुष्यों, स्त्री व पुरूषों को, उनके कल्याणार्थ देता है। चार वेदों का यह ज्ञान सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान सर्वज्ञ ईश्वर ने सृष्टि के आदि में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य अंगिरा की आत्माओं में प्रेरणा द्वारा स्थापित किया था। ईश्वर ने ही जीवात्मा को मनुष्य शरीर दिये, इन शरीरों में व्यवहार के लिए पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां व बुद्धि आदि प्रदान करने सहित सृष्टि के आरम्भ में वेदमन्त्रों का उच्चारण, परस्पर संवाद एवं व्यवहार करना भी सिखाया है। तर्क व विवेचन से यह सिद्ध है कि यदि ईश्वर इस सृष्टि के आदि मनुष्यों को वेदों का ज्ञान न देता, जिससे कि वह परस्पर संवाद आदि कर सके और सत्य व असत्य में भेद कर सकें, तो उनका जीवन व्यतीत करना संभव नहीं था। मान लीजिए हमें बोलना नहीं आता और हमारे आसपास के अन्य मनुष्यों को भी नहीं आता। हममें ज्ञान भी नहीं है। ऐसी स्थिति में हम क्या कोई व्यवहार कर सकते हैं? इसका उत्तर है कि हम परस्पर किसी प्रकार का कोई व्यवहार नहीं कर सकते। व्यवहार के लिए किसी न किसी भाषा सहित उठने, बैठने, चलने, फिरने, सोचने, समझने, खाद्य-अखाद्य पदार्थों का ज्ञान, भोजन की विधि, मल-मूत्र विसर्जन आदि सभी आवश्यक क्रियाओं का ज्ञान आवश्यक है। अतः सृष्टि की रचना के बाद अमैथुनी सृष्टि में मनुष्यों की उत्पत्ति के साथ ही उनको ईश्वर से ज्ञान मिलना तर्क संगत है। यही ज्ञान उसे परमात्मा से मिलता है और इसी का नाम वेद है।

 

परमात्मा प्रदत्त इसी ज्ञान से प्रथम चार ऋषियों से अध्ययन, अध्यापन, शिक्षा, प्रचार, प्रवचन व उपदेश की परम्परा आरम्भ हुई और सभी लोग ज्ञान सम्पन्न हुए। यह वेद ज्ञान आज भी अपने मूल स्वरूप में सुरक्षित है। महाभारत के बाद यह ज्ञान लुप्त हो गया था जिसके कारण देश व विश्व में अज्ञान का घोर अन्धकार फैला और अज्ञान पर आधारित अनेक मत व मतान्तर उत्पन्न हुए। महर्षि दयानन्द, जो कि वेदों के उच्च कोटि के मर्मज्ञ विद्वान थे, उन्होंने चारों वेदों की परीक्षा कर घोषणा की कि वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। वेद का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सभी मनुष्यों वा आर्यों का परम धर्म है। अपनी इस घोषणा को उन्होंने सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि अनेक ग्रन्थों को लिखकर पुष्ट किया। उन्होंने वेदों के सभी मन्त्रों का भाष्य करना आरम्भ किया था। ऋग्वेद आंशिक व यजुर्वेद का सम्पूर्ण भाष्य उन्होंने किया है। आकस्मिक मृत्यु के कारण वह वेदों के भाष्य को पूर्ण नहीं कर सके। उन्होंने जितने ग्रन्थ लिखे और उनकी जो शिक्षायें, उपदेश, पत्र, पुस्तकें, शास्त्रार्थों के विवरण आदि उपलब्ध हैं, उनसे वैदिक धर्म का विस्तृत सत्य स्वरूप प्रकट होता है। इस पर विचार करने पर यह पूर्व व पश्चात प्रचलित सभी धर्मों में श्रेष्ठ सिद्ध होता है। अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में उन्होंने प्रमुख सभी मतों का तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया है जो वेद को विश्व के सभी मनुष्यों के धर्म की उनकी मान्यता को पुष्ट करता है।

 

वेद धर्म की पहली विशेषता तो यह है कि वेद की सभी मान्यताओं तर्क व युक्ति की कसौटी पर सत्य सिद्ध होती हैं। वेद, तर्क व युक्तियों से डरता नहीं अपितु उनका स्वागत करता है। वेदों की सभी मान्यतायें ज्ञान व विज्ञान की कसौटी पर भी सत्य सिद्ध हैं। ईश्वर, जीव व प्रकृति का जो स्वरूप वेदों में उपलब्घ होता है वह अपूर्व व आज भी सर्वोत्तम हैं एवं विवेक पर आधारित है। अन्य मतों में यह बात नहीं है। वेदाधारित ईश्वरोपासना वा पंचमहायज्ञ विधि में भी मुनष्यों के सर्वोत्तम कर्तव्यों का विधान किया गया है जिससे मनुष्य की व्यक्तिगत व सामाजिक उन्नति होने के साथ सभी प्राणियों का कल्याण होता है। कर्म-फल सिद्धान्त भी वेद प्रदत्त ज्ञान के अन्र्तगत ही सत्य सिद्धान्त है जिसके अनुसार मनुष्य जो शुभ व अशुभ कर्म करता है उसका फल उसे जन्म व जन्मान्तरों में अवश्य ही भोगना होता है। अशुभ कर्मों का त्याग व शुभ कर्मों को करके तथा साथ हि वेदविहित ईश्वरोपासना, यज्ञादि कार्य, मातृ-पितृ-आचार्यों की सेवा, परोपकार व विद्यायुक्त कर्मों को करने से ही मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होता है। यह वैदिक धर्म की विशेषता व युक्तिसंगत सिद्धान्त है।

 

आर्यसमाज वेदों के सत्य ज्ञान को संसार में फैलाने के लिए स्थापित किया गया एक संगठन है जिसकी स्थापना महर्षि दयानन्द सरस्वती ने 10 अप्रैल सन् 1875 को मुम्बई में की थी। इस संगठन की स्थापना का मुख्य उद्देश्य महर्षि दयानन्द के समय में वैदिक धर्म का संगठित रूप से प्रचार करना था और उनके बाद भी कृण्वन्तो विश्वमार्यम् (संसार को श्रेष्ठ बनाओ) के लक्ष्य की प्राप्ति तक संसार में वेदों का प्रचार अबाधित रूप से हो, यह मुख्य प्रयोजन था। महर्षि दयानन्द ने पृथिवी के सभी मनुष्यों के कल्याणार्थ वेदों की सार्वभौमिक व सार्वजनीन मान्यताओं व सिद्धान्तों के प्रचार के लिए अनेक ग्रन्थों की रचना की जिनमें सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, ऋग्वेद आंशिक व यजुर्वेद सम्पूर्ण वेदभाष्य आदि ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों के अनेक भाषाओं में अनुवाद भी उपलब्ध हैं। ग्रन्थ लेखन के इस स्थाई कार्य के अतिरिक्त महर्षि दयानन्द ने देश के प्रमुख स्थानों पर जाकर वैदिक विचारधारा का प्रचार किया और सभी मतों को अपनी-अपनी धर्म व समाज विषयक मान्यताओं पर शंकाओं का निवारण करने का अवसर दिया। प्रतिपक्षी मतों के आचार्यों को उन्होंने शंका समाधान का अवसर देने के साथ शास्त्रार्थ करने की चुनौती भी दी और अनेक प्रमुख मतों के विद्वानों से शास्त्रार्थ कर वैदिक मत की श्रेष्ठता, ज्येष्ठता, ज्ञानसम्पन्नता व सत्यता को प्रतिपादित व सम्पादित किया। इसके साथ ही महर्षि दयानन्द ने उदयपुर, शाहपुर, जोधपुर आदि अनेक देशी रियासतों के शासकों को भी अपना शिष्य व अनुगामी बनाया और वहां वैदिक मत की स्थापना में आंशिक सफलतायें प्राप्त कीं। अनेक पादरी व मुस्लिम विद्वान भी उनकी मित्र मण्डली में थे जो उनकी सभी मतों के अनुयायियों के प्रति सदाशयता के उदाहरण हैं। स्वामी दयानन्द जी ने अनेक अवसरों पर हिन्दी के प्रचार व प्रसार सहित गोरक्षा आदि आन्दोलनों का सूत्रपात भी किया जबकि ऐसे कार्य व उदाहरण पूर्व इतिहास में कहीं उपलब्ध नहीं होते। इस प्रकार से प्रचार करते हुए उन्होंने वेदों के ज्ञान को फैलाकर विश्व के मनुष्यों को प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी वैदिक धर्म की स्थापना व विश्व समुदाय में इसकी स्वीकृति में यथाशक्ति योगदान किया।

 

ईश्वर इस सृष्टि के सभी मनुष्यों व पूर्वजों का आदि गुरू है। इस सृष्टि में अब तक उत्पन्न हुए सभी आचार्य, विद्वान व ऋषि-मुनि ईश्वर के शिष्य सिद्ध होते हैं जिन्होंने अपने-अपने काल में ईश्वर द्वारा आदि ऋषियों को प्रदत्त वेद ज्ञान को ही जाना, समझा व प्रचारित किया। जिस प्रकार सृष्टि की आदि में ईश्वर अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को चार वेदों का उपदेश देने से उनका गुरू व चारों ऋषि ईश्वर के शिष्य सिद्ध होते हैं, उसी प्रकार से चार ऋषियों से आरम्भ आचार्य-शिष्य परम्परा के अनुसार उनके बाद के सभी आचार्य उसी ईश्वरीय ज्ञान के प्रचारक व प्रसारक सिद्ध होते हैं। सच्चा आचार्य माता-पिता के समान होता है। इस प्रकार से संसार में जितने भी सच्चे उपदेशक, ज्ञानी व ऋषि आदि हुए हैं वह-वह ज्ञानदाता व ज्ञानप्रसारक होने से अपने शिष्यों के मातृ-पितृ तुल्य ही रहे हैं। उसी परम्परा व ज्ञान प्रवाह का परिणाम ही आज का अन्यान्य विषयक ज्ञान-विज्ञान है। यदि उन्होंने वैदिक ज्ञान को सुरक्षित रखते हुए उपदेश आदि से उसका देश-देशान्तर में प्रचार न किया होता तो आज का मानव ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न न हो पाता। संसार के सभी मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह ज्ञान विज्ञान का क्षेत्र हो या मत-मतान्तरों का, उनकी सभी मान्यताओं वा सिद्धान्तों की परीक्षा कर उनमें विद्यमान सत्य को ही अपनायें और मिथ्या का त्याग करें। मत-मतान्तरों में निहित अज्ञान व भ्रम की बातें कि जिससे मनुष्यों में समरसता में बाधा पहुंचती है, उनका त्याग करें। सत्य का ग्रहण असत्य का त्याग ही वैदिक धर्म आर्यसमाज का मुख्य प्रयोजन है। आर्यसमाज सत्य का पोषक व प्रचारक है और विश्व के सभी मनुष्यों में वेदों के सत्य ज्ञान का प्रचार कर उनका कल्याण करना चाहता है। वैदिक ज्ञान ही एकमात्र मनुष्य के अभ्युदय व निःश्रेयस क कारण है, यह निर्विवाद सत्य है। आर्यसमाज के संगठन में कुछ दुर्बलतायें हो सकती हैं परन्तु विश्व के कल्याण की दृष्टि से आर्यसमाज की अवधारणा व उसका प्रभावशाली सशक्त रूप ही मानवता के हित में है। वेद और आर्यसमाज विश्व में मानवता को विद्यमान रखने की गारण्टी है। इसके साथ विश्व के सभी मनुष्यों को अभ्युदय व निःश्रेयस के मार्ग पर अग्रसर करने का एकमात्र संगठन हैं। इसके महत्व को जानकर सभी मनुष्यों को इसे सहयोग देना चाहिये और अपनी सर्वांगीण उन्नति करनी चाहिये।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

आर्य समाज का वेद प्रचारः एक नूतन प्रयोग – रामनिवास गुणग्राहक

 

आर्य समाज की प्रचार पद्धति के सबन्ध में विचार करने से पहले एक बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि संसार के धार्मिक कहे जाने वाले मत-पन्थों के प्रचार-अभियान और आर्य समाज के प्रचार कार्य में बहुत बड़ा अन्तर है। पाखण्ड और अन्धविश्वास को धर्म स्वीकार कर चुका भारतीय जन मानस एक पाखण्ड से अच्छे और सरल लगने वाले दूसरे पाखण्ड को सहजता से स्वीकार कर लेता है। मूर्ति राम की न सही, कृष्ण की भी चलेगी, गणेश की न सही, हनुमान की भी चलेगी। यही परपरा आज यहाँ तक पहुँच गई है कि शिव का स्थान साँई ले सकता है और गली-गली में बनने वाले भोले-भैरों के मन्दिर से जिनकी कामना सिद्ध नहीं होती, वे उसी कथित श्रद्धा-भक्ति से किसी मियाँ की मजार या कब्र पर जाकर भेंट पूजा चढ़ाने चले जाते हैं। आर्य समाज इन सबसे अलग हटकर बुद्धि और तर्क की बात करता है, जिन्हें हमारे पुराणी और कुरानी बन्धु सैकड़ों सहस्रों वर्ष पूर्व धार्मिक सोच से दूर भगा चुके हैं। यही कारण है कि तर्क और बुद्धि से काम लेने वालों को आज के धर्माचार्य व धर्मभीरु लोग बिना सोचे-समझे नास्तिक कह डालते हैं। वैसे यह एक कड़वा सच भी है कि तर्क और विज्ञान की बात करने वाले हमारे बुद्धिजीवी आज नास्तिक बन कर ही रह गये हैं। ऐसे में आर्य समाज को अपनी प्रचार-पद्धति की जाँच-परख करते रहना चाहिए।

यह सही है कि आर्य समाज की पहली पीढ़ी ने जितना, जो कुछ वेद प्रचार व समाज सुधार का काम किया, वह सब इसी प्रचार-पद्धति से किया है। ऐसे में प्रत्येक वेद भक्त और ऋषि भक्त आर्य का कर्त्तव्य है कि वह आर्य समाज के प्रचार कार्य को प्रखर और प्रभावी बनाने की दिशा में गभीरता से विचार करे और उसे व्यावहारिक बनाने  के लिए कुछ ठोस कार्य भी करे।

आर्य समाज को नवजीवन देने के लिए हमें अपनी प्रचार-पद्धति में क्या कुछ बदलना पड़ेगा। यद्यपि आज आर्य समाज में ऐसे उपदेशक बहुत कम संया में हैं जो नित्य नियमित रूप से संध्योपासना व स्वाध्याय करते हों। जितने भी हों, प्रारभ के लिए ऐसे विद्वान् हमारे मध्य हैं जो संध्या व स्वाध्याय दैनिक कर्म के रूप में करते हैं। जो नहीं भी करते हैं, जब सिर पर आ पड़ेगी तो सब करने लग जाएँगे। आज समस्या यह है कि आर्य समाज में ‘सब धान सत्ताईस का सेर’ बिकता है। हमें सिद्धान्तनिष्ठ, धर्मात्मा, निष्कलंक, निर्लोाी और सरल स्वभाव के स्वाध्यायशील किसी एक विद्वान को अपने आर्य समाज में प्रचार कार्य के लिए कम से कम 8-10 दिन के लिए सादर आमन्त्रित करना चाहिए। उससे पहले आर्य समाज के पदाधिकारी व श्रेष्ठ सभासद मिलकर प्रचार योजना इस ढंग से बनायें – प्रतिदिन प्रातःकाल सुविधानुसार किसी पदाधिकारी या श्रद्धालु आर्य के घर यज्ञ व पारिवारिक सत्संग रखें, जिसमें एक घण्टे तक व्यायायुक्त यज्ञ हो और एक घण्टा धर्म, ईश्वर, वेद आदि की विशेषताएँ लिये हुए परिवार समाज व राष्ट्र से जुड़े हुए कर्त्तव्यों के पालन की प्रेरणा परक प्रवचन होना चाहिए। जिसके परिवार में यज्ञ व सत्संग हो,वह अपने परिचितों व पड़ौसियों को प्रेमपूर्वक आमन्त्रित करे। घर मीठे चावल बनाये, स्विष्टकृत् आहुति व बलिवैश्वदेव की आहुतियाँ देकर प्रसाद रूप में सबको वही यज्ञ शेष प्रदान करे।

प्रातःकाल इतना करके दिन में किसी विद्यालय में कार्यक्रम रखने के लिए पहले से सबन्धित प्रधानाध्यापक आदि से मिलकर सुविधानुसार 40-50 मिनट का समय तय कर लें। आर्य समाज के एक या दो सज्जन आमन्त्रित विद्वान् को समानपूर्वक विद्यालय ले जाएंँ और विद्या व विद्यार्थियों से जुड़े हुए विषय पर सरल व रोचकााषा शैली में वेद व वैदिक साहित्य के प्रमाणपूर्वक प्रवचन करें। वेद व आर्य समाज के प्रति श्रद्धा बढ़ाने की भावना का ध्यान पारिवारिक यज्ञ-सत्संग में भी रखना चाहिए और विद्यालयों में भी। कार्यक्रम के अन्त में सबको निवेदन करें कि वे सायंकाल आर्य समाज में होनेवाली धर्मचर्चा सत्संग में पुण्य लाभ प्राप्त करने हेतु अवश्य पधारें। सुविधानुसार एक दिन में दो-तीन विद्यालयों में प्रवचन रख सकते हैं। हमारी आज की पीढ़ी बहुत तेज तर्रार है, उसके मन-मस्तिष्क में धर्म और ईश्वर को लेकर अनेक प्रश्न खड़े होते हैं। लेखक लड़के-लड़कियों के कॉलेजों के अनुभव के आधार पर कह सकता है कि युवक- युवतियाँ बड़े तीखे प्रश्न करते हैं। ऐसे में आर्य समाज के गौरव को ये स्वाध्यायशील व साधनाशील आर्य विद्वान् ही बचा सकते हैं। नई पीढ़ी को प्रश्नों व शंका समाधान की छूट दिये बिना हम नई पीढ़ी के मन-मस्तिष्क को धर्म, ईश्वर व आर्य समाज की ओर नहीं मोड़ सकते, इसलिए किसी विद्वान् को बुलाने से पहले इस बात का ध्यान अवश्य रखें और उन्हें इसकी सूचना भी अवश्य कर दें।

दिन में इतना कुछ करके रात्रि में सबकी सुविधा व अधिकतम लोगों के आगमन की सभावना को ध्यान में राते दो घण्टे का कार्यक्रम बनायें। दिन में अगर अधिक प्रश्न व शंकाएँ रखी गई हों तो उनके उत्तर रात्रिकाल के सत्संग में रखे जा सकते हैं या समाज के  सुधी जन कार्यक्रम बनाते समय कुछ उपयोगी व सामयिक विषय निश्चित कर सकते हैं। इस प्रकार एक दिन का यह कार्यक्रम है। ऐसे ही 8-10 दिन का कार्यक्रम बनाकर हम इसके अनुसार प्रचार-कार्य करके अपने समय, श्रम व संसाधनों का सटीक सदुपयोग करके बहुत लाभ प्राप्त कर सकते हैं। प्रसंगवश एक बहुत ही महत्त्पूर्ण तथ्य की ओर आर्य जनों का ध्यान आकर्षित करना बहुत आवश्यक है। प्रचार कार्य में प्रवचन और सत्संग से अधिक भूमिका साहित्य की होती है। प्रचार को प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक है कि हम ऋषि दयानन्द के लघु ग्रन्थों, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम, पं. चमूपति, स्वामी दर्शनानन्दजी, स्वामी वेदानन्द जी जैसे सिद्धान्तनिष्ठ विद्वानों के साहित्य को बहुत बड़ी मात्रा प्रकाशित करा कर अल्प मूल्य में उपलध करायें। आर्य समाज को इस दिशा में भी गभीरता से सोचना पड़ेगा। पहली-दूसरी पीढ़ी के गभीर, सिद्धान्त जीवी वैदिक विद्वानों के साहित्य का उद्धार करना आज की बहुत बड़ी माँग है, ऐसा न हो कि कल बहुत देर हो जाए। वेद प्रचार को जीवन्त बनाने के लिए सत्साहित्य सिद्धान्तनिष्ठ प्रवचन-सत्संग ही एक मात्र उपाय है। हमारे सुधी पाठक इस पर गभीरता से विचार करके देखेंगे तो लगेगा कि बिना लबी-चौड़ी भागदौड़ के, बिना किसी ताम-झाम के, बिना किसी बड़े खर्चे के – एक सीमित आय वाले आर्य समाज भी इसका लाभ ले सकते हैं।

कुछ लोग यह कहते हैं कि आर्य समाज का सांगठनिक ढाँचा आज के समय के अनुकूल नहीं है। ऐसे लोग लोकतान्त्रिक पद्धति की न्यूनताएँ गिनाने लगते हैं, लेकिन वे महर्षि दयानन्द की वेद विद्या से प्राप्त दूरदृष्टि को समझ नहीं पाते। नियम-सिद्धान्त कितने ही उच्चस्तर के हों, अगर व्यक्ति निम्न स्तर के हैं तो अति महत्त्वपूर्ण तथ्यों की अनदेखी करके, साधारण या मनोनुकूल तथ्यों पर अधिक ध्यान केन्द्रित करके वे अच्छे-अच्छे नियम-सिद्धान्तों का दुरुपयोग कर डालते हैं। आर्य समाज के संगठन सबन्धी नियम-उपनियमों के साथाी हमारे कर्णधार लबे समय से यही करते चले आ रहे हैं।

– स्मृति भवन, जोधपुर, राजस्थान

मो. 07597894991

वह ऐतिहासिक गीत : – प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु

‘‘सीस जिनके धरम पर चढ़े हैं’’

श्री यतीन्द्र आर्य की उत्कट इच्छा से मैं कई मास से इस पूरे गीत की खोज में लगा रहा। जब कुँवर सुखलालजी पर विरोधियों ने प्राणघातक आक्रमण किया था, तब पता करने वालों के प्रश्न के उत्तर में इसका प्रथम पद्य बोला था। यह गीत कुँवर जी की रचना नहीं है- जैसा कि प्रायः हम सब समझे बैठे थे। यह किसी पंजाबी आर्य लिखित गीत है। इसके अन्त में ‘धरम’ शब्द  से लगता है कि यह लोकप्रिय पंजाबी आर्य गीतकार पं. धर्मवीर की रचना है। कुछ पंक्तियाँ छोड़कर इसे परोपकारी की भेंट किया जाता है। यह लेखराम जी के बलिदान के काल में रचा गया था।

– जिज्ञासु

सीस जिनके धरम पर चढ़े हैं।

झण्ड दुनिया में उनके गड़े हैं।।

एक लड़का हकीकत नामी,

सार जिसने धरम की थी जानी,

जग में अब तक है जिसकी निशानी,

सीस कटवाने को खुश खड़े हैं।

सीस जिनके धरम पर चढ़े हैं……………………

बादशाह ने कहा सब तुहारे,

राज दौलत खजाने हमारे

सुन हकीकत यह बोले विचारे,

हम तो इनसे किनारे खड़े हैं।

सीस जिनके धरम पर चढ़े हैं……………………

यह हकीकत को दौलत न भाई,

बल्कि आािर को है दुःखदायी

कारुँ जैसे ने प्रीत बढ़ाई,

आ नरक में वे आखिर पड़े हैं।

सीस जिनके धरम पर चढ़े हैं……………………

गुरु गोविन्द के थे दो प्यारे,

गये रणभूमि में वे भी मारे

और जो छोटे थे जो न्यारे,

जिन्दा दीवार में वे गड़े हैं।

सीस जिनके धरम पर चढ़े हैं…………………..

महर्षि दयानन्द प्यारे,

धरम कारण खा विष सिधारे

सुनके हिल जाते थे दिल हमारे,

ओ3म् जपते वे आगे बढ़े हैं।

सीस जिनके धरम पर चढ़े हैं………………….

लेखराम धरम का प्यारा,

जिसने धरम पर तन मन वारा

खाया जिस्म पर तेग कटारा,

उठ ‘‘धरम’’ तू याँ क्या करे है?

सीस जिनके धरम पर चढ़े हैं

झण्डे दुनिया में उनके गड़े हैं।।

‘वेद आर्यसमाज और गणतन्त्र प्रणाली’ -मनमोहन कुमार आर्य

 

भारत का इतिहास उतना ही पुराना है जितना की इस सृष्टि के बनने के बाद प्राणी जगत व मानव उत्पत्ति के बाद का सृष्टि का इतिहास। सभी मनुष्यों को नियम में रखने व सभी श्रेष्ठ आचरण करने वाले मनुष्यों को अच्छा भयमुक्त व सद्ज्ञानपूर्ण वैदिक परम्पराओं के अनुरुप वातावरण देने के लिए एक आदर्श राजव्यवव्स्था की आवश्यकता एवं उपयोगिता स्वयंसिद्ध है। वैदिक मान्यताओं के अनुसार इस सृष्टि में मानव उत्पत्ति का इतिहास 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार 115 वर्ष पूर्व आरम्भ होकर वर्तमान समय तक चला आया है। 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजों की दासता से स्वतन्त्र होने से पूर्व भी इस देश में अगणित राजा हुए जिन्होंने देश पर राज किया और राज्य के संचालन के लिए उनके अपने संविधान, नियम व सिद्धान्त भी रहे हैं। वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि महाभारत काल व उसके बाद के भारत के आर्य राजाओं के संविधान वेद सम्मत नियमों व प्रक्षेप रहित मनुस्मृति के विधान हुआ करते थे। अभाग्योदय से प्राचीन भारत में वर्तमान समय से लगभग 5,200 वर्ष पूर्व महाभारत का विनाशकारी युद्ध हुआ जिसमें लाखों की संख्या में लोग मारे गये। इस युद्ध के परिणामस्वरुप देश की शैक्षिक, सामाजिक व प्रशासनिक व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा जिससे ज्ञान व विज्ञान का ह्रास होकर समाज में अन्धविश्वास, सामाजिक विषमता व लोगों का चारित्रिक पतन आदि देखने को मिलता है। इन कारणों से देश पहले मुगलों वा यवनों का और उसके बाद अंग्रेजों का दास बन गया। मुगलों व अंग्रेजों की दासता के समय में भी अनेक आर्य वा हिन्दू राजाओं ने विदेशी विधर्मी शासकों का पुरजोर विरोध किया। महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह जी आदि हमारे ऐसे ही पूर्वजों में थे जिन्होंने देश की स्वतन्त्रता व सुशासन के लिए अपना उल्लेखनीय योगदान किया।

 

वेद व वैदिक ज्ञान सत्य व न्याय पर आधारित राज्य का समर्थक व पोषक है। वेदों ने मनुष्यों को यह बताया है कि इस जगत में ईश्वर, जीव व प्रकृति यह तीन मुख्य व प्रमुख तत्व हैं। ईश्वर व जीव चेतन तत्व वा पदार्थ हैं तथा प्रकृति इनके विपरीत जड़ है। ईश्वर निराकार, सर्वव्यापक व सर्वज्ञ है तथा जीव अल्पज्ञ, एकदेशी व ससीम है। ईश्वर सृष्टि का निमित्त कारण तथा प्रकृति उपादान कारण है। जीव संख्या में अनन्त हैं व ईश्वर केवल एकमात्र व केवल एक सत्ता है। इन्हीं जीवों के पूर्वजन्म के कर्मों के फल रूपी सुख व दुःख के भोग के लिए ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाया है जिससे कि ईश्वर की सामथ्र्य का उपयोग हो सके और जीवों को मानव आदि शरीरों की प्राप्ति के साथ कर्मानुसार सुख व दुःख मिल सके। मनुष्य जीवन का उद्देश्य पूर्व जन्मों के अवशिष्ट कर्मों के फलों का भोग करते हुए ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना व सभी वेद विहित कर्मों को करना जिससे दुःखों की पूर्णतया निवृति होकर मोक्ष की प्राप्ति हो सके। मनुष्य वा उसकी जीवात्मा को मोक्ष वैदिक ज्ञान की प्राप्ति कर उसके अनुसार निष्काम व फलों की इच्छा से रहित सभी प्राणियों के हितकारी कर्मों के आचरण सहित ईश्वर की उपासना से समाधि को सिद्ध करने अर्थात् ईश्वर का साक्षात्कार करने पर प्राप्त होता है। समाज में अपराध से मुक्त वातावरण हो, लोगों को उन्नति के अवसर मिलें, नागरिक सुखी व समृद्ध हों तथा राज्य विदेशी शत्रुओं से सुरक्षित रहे, ऐसे अनेक प्रयाजनों की व्यवस्था के लिए राज्य की स्थापना की जाती है। इस दृष्टि से रामराज्य अब तक हुए सभी राजाओं व राज्यों में श्रेष्ठ राज्य था। सज्जन पुरुष तो अनुशासन में रहते ही हैं परन्तु दुष्टों व अपराध प्रवृत्ति के स्त्री व पुरुषों को अनुशासन में रखने के लिए कठोर दण्ड का प्राविधान आवश्यक है। न केवल दण्ड का प्राविधान ही अपितु ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये कि जिसमें कोई अपराधी बिना दण्ड के बच न सके। सभी अपराधियों को उनके अपराध के अनुरुप कठोर दण्ड देकर ही समाज को अपराधमुक्त किया जा सकता है। दण्ड व्यवस्था के पूर्ण प्रभावशाली होने के साथ देश के सभी स्त्री-पुरुषों व उनके बच्चों के लिए एक समान, सबके लिए अनिवार्य, निःशुल्क व आदर्श वैदिक शिक्षा प्रणाली होनी चाहिये जिससे सभी बच्चों व नागरिकों को अच्छे संस्कार मिले। आजकल की हमारे देश की व्यवस्था में यह उत्तम बातें नहीं हैं। अतः यह कहना व मानना पड़ता है कि व्यवस्था में अनेक खामियां है जिनके सुधार की आवश्यकता है।

 

वेद क्या हैं, यह भी जानना आवश्यक है। वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न मनुष्यों में चार ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को ईश्वर द्वारा इन ऋषियों की आत्मा में प्रेरणा द्वारा स्थापित किया गया था। इस ज्ञान से ही संसार की प्रथम पीढ़ी के मनुष्यों का तिब्बत में जीवन निर्माण हुआ और नई पीढि़यों ने जन्म लेकर न केवल जनसंख्या की वृद्धि की अपितु जनसंख्या वृद्धि व कुछ लोगों के यायावरी स्वभाव के कारण यह सारा संसार वेदानुयायी आर्यों द्वारा बसाया गया। महाभारत काल तक वैदिक नियमों व इनके अनुसार बनाये गये ऋषियों के विधानों के आधार पर आर्य राजाओं ने संसार पर शासन किया। रामायण, महाभारत एवं महर्षि दयानन्द के ग्रन्थ आदि इसके प्रमाण हैं। महर्षि दयानन्द ने चारों वेदों का गम्भीर अध्ययन करके इसको पूर्णतया सत्य व निभ्र्रान्त पाया था और इसकी प्रमाणिकता को तर्क व युक्तियों से सिद्ध किया। उन्होंने ऋग्वेद का आंशिक एवं यजुर्वेद का संस्कृत व हिन्दी भाषा में भाष्य भी किया है। वेदों में देश के संचालन के लिए साम्प्रदायिक व मजहबी बातों से रहित शुद्ध सत्य व न्याय पर आधारित विधान दिये गये है जो भारत सहित संसार के सभी देशों के लिए माननीय हैं। वेदों से दूर जाने के कारण ही अतीत में भारत की दुर्दशा हुई और आज संसार में सर्वत्र जो अशान्ति, भय, हिंसा व अन्याय का वातावरण है उसका प्रमुख कारण भी संसार का वेदों से दूर जाना है।

 

महर्षि दयानन्द ने 10 अप्रैल, 1875 को वेदों के प्रचार व प्रसार हेतु मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की थी। अज्ञान, अन्धविश्वास, पक्षपात-अन्याय-अत्याचार-शोषण-असमानता आदि को दूर कर संसार में वेदानुरुप ईश्वर की सच्ची पूजा, पर्यावरण की शुद्धि सहित सभी नागरिकों को सद्ज्ञान व श्रेष्ठ संस्कारों से संयुक्त करना उनका मुख्य उद्देश्य था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने व उनके आर्यसमाज के अनुयायियों ने जो पुरुषार्थ किया है, वह इतिहास के पन्नों पर स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। उनके विचारों, मान्यताओं व सिद्धान्तों का सारे संसार पर प्रभाव पड़ा परन्तु बहुत सी बातें लोगों की अल्पज्ञता, अज्ञानता, स्वहित आदि अनेक कारणों से आज भी बनी हुई हैं। इसके लिए आर्यसमाज को अपने गुरुकुलों में वेदों के आधुनिक विद्वान तैयार करने चाहिये जो न केवल संसार की सभी समस्याओं के व्यवहारिक वैदिक समाधान दे सकें अपितु विश्व में वेदों का अपूर्व रीति से प्रभावशाली प्रचार भी करें जिससे कि एक ईश्वर, एक विचारधारा, एक सिद्धान्त व मान्यता, अन्याय-शोषण-हिंसा रहित समाज का निर्माण किया जा सके। यही आर्यसमाज का उद्देश्य, परम्परा,  कार्य व प्रचार की दिशा है।

 

हमारे देश में गणतन्त्र प्रणाली है जो कि अन्य प्रचलित प्रणालियों से श्रेष्ठ है। अनेक प्रावधान ऐसे भी हैं जिनका दुरुपयोग किया जाता है जिससे समाज में सामाजिक व आर्थिक असमानता अत्यधिक बढ़ गई है। इस देश में ऐसे भी लोग हैं जिनको रात दिन काम करने के बाद भी न भर पेट भोजन मिलता है, अच्छे वस्त्रों, निजी घर, उच्च शिक्षा की तो बात ही क्या है? गणतन्त्र प्रणाली में सबको एक समान, निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा का प्रबन्ध होना चाहिये। ब्रह्मचर्य व संयम पूर्ण जीवन की प्रतिष्ठा होनी चाहिये। मांसाहार, धूम्रपान, मदिरापान व नशा आदि पूर्ण प्रतिबन्धित होने चाहिये। गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध ही न हो अपितु गोसंवर्धन के लिए अनुसंधान केन्द्रों सहित गोपालन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये जिससे देश में दुग्ध व दुग्ध उत्पाद प्रचुरता से सर्वसुलभ हो सकें। गाय सहित सभी पशुओं के मांसाहारार्थ वध पर पूर्ण प्रतिबन्ध ही न हो अपितु ऐसा करने वालों को दण्डित भी किया जाना चाहिये। पशुओं की हत्या हिंसात्मक कार्य है और यह अमानवीय व्यवहार है। हम समझते हैं धर्म सदगुणों को धारण करने व उनके अनुसार व्यवहार करने को कहते हैं, अतः कोई भी धर्म अकारण व भोजनार्थ पशु की हत्या की अनुमति नहीं दे सकता। सारे देश में सरकार की ओर वेदों की अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था भी होनी चहिये। स्त्रि़यों का आदर व सम्मान होना चाहिये और सभी स्त्री-पुरुष नागरिकों को वैदिक संस्कृति के अनुसार आचरण-व्यवहार करने सहित आदर्श वेशभूषा को धारण करना चाहिये। जन्मना जातिवाद प्रतिबन्धित हो व पूर्णतया समाप्त हों। दलितों व पिछड़ों को शिक्षा में विशेष सुविधायें मिलनी चाहिये जिसका आधार उनकी सामाजिक व आर्थिक स्थिति होनी चाहिये। समाज में कोई दलित व पिछड़ा हो ही न अपितु सभी सामाजिक व आर्थिक दृष्टि उन्नत हो और सभी में परस्पर प्रेम व भातृभाव विकसित अवस्था में होना चाहिये। असत्य आचरण, अपरिग्रह व सच्चरित्रता को सामाजिक जीवन में अधिक महत्व दिया जाना चाहिये और इसके विपरीत की उपेक्षा होनी चाहिये। समाज में आध्यात्मिकता का विकास व विस्तार और साम्प्रदायिक विचारधारा पर अंकुश व प्रतिबन्ध होना चाहिये। जब यह व ऐसे सभी लक्ष्य प्राप्त हो जायेंगे तभी हमारी गणतन्त्र प्रणाली सफल मानी जा सकती है। क्या हम गणतन्त्र प्रणाली के आदर्श इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए काम कर रहें हैं, इस पर हमें आज के दिन विचार करना चाहिये। इन सभी प्रश्नों पर विचार करना व इनका हल ढूढंना ही गणतन्त्र दिवस को मनाना हमें प्रतीत होता है। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘वेदों और आर्यसमाज का प्रचार और प्रभाव’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

स्वाध्याय करते समय आज मन में विचार आया कि महर्षि दयानन्द ने गुरु विरजानन्द जी की आज्ञा से अज्ञान व अन्धविश्वासों का खण्डन-मण्डन और वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रचार किया था। क्या कारण है कि इसका वह प्रभाव नहीं हुआ जो वह चाहते थे व होना चाहिये था? क्या महर्षि दयानन्द की वेदों पर आधारित मान्यतायें व सिद्धान्त दोषयुक्त वा अपूर्ण थे अथवा इसका कारण कुछ और था? इसी क्रम में यह भी बता दें कि उनके समय (1825-1883) व आज संसार में जितने भी मत-मतान्तर प्रचलित हैं, उन सबकी परीक्षा करने पर वह सभी मान्यतायें तर्क, युक्ति व वैदिक सिद्धान्तों पर सत्य सिद्ध नहीं होती। महर्षि दयानन्द द्वारा प्रोक्त वैदिक मत को सभी मत-पन्थों को साथ बैठा कर भी सत्य सिद्ध किया जा सकता है और ऐसा महर्षि दयानन्द जी ने अपने समय में बैठक, गोष्ठी, विचार-विमर्श व शास्त्रार्थ सहित अपने ग्रन्थों के लेखन आदि द्वारा किया भी है। ऐसे मत जिनमें अज्ञान, अन्धविश्वास व मानव हित के विपरीत कथन आदि हैं, इनके आचार्य और अनुयायी अपने-अपने मतों के सत्यासत्य की युक्ति व तर्क के द्वारा कभी परीक्षा ही नहीं करते जिससे उनकी सत्यता स्वतः संदिग्ध है। महर्षि दयानन्द की मान्यतायें उनके ब्रह्मचर्यादियुक्त अपूर्व पुरुषार्थ व तप सहित वेदादि ग्रन्थों के अध्ययन व सहस्रों विद्वानों व योगियों की संगति से जानकर विवेकपूर्वक निश्चित की गईं हैं, असत्य व अपूर्ण होने की सम्भावना नहीं है। वर्तमान के हम सभी आर्यों से पूर्व महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के अनेक असाधारण विद्वान हुए हैं जिन्होंने महर्षि दयानन्द की मान्यताओं का अध्ययन व परीक्षा की और उन्हें पूर्ण सत्य पाया। उन्होंने उनमें किसी संशोधन व परिमार्जन की आवश्यकता का अनुभव नहीं किया। अब भविष्य में इस कोटि के विद्वानों के होने में भी आशंका प्रतीत होती है। अतः धर्म संबंधी विषयों में उनकी मान्यतायें व सिद्धान्त ही सत्य मानने होंगे। महर्षि दयानन्द के बाद हुए वरिष्ठ विद्वानों में पं. गुरुदत्त विद्याथी, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. आयुमुनि, पं. तुलसीराम, पं. शिवशंकरशर्मा काव्यतीर्थ, पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, स्वामी सत्यानन्द, स्वामी अमर स्वामी, पं. रामचन्द्र देहलवी, पं. शान्तिप्रकाश, पं. देव प्रकाश, स्वामी सर्वदानन्द, स्वामी वेदानन्द तीर्थ, पं. भगवद्दत्त, पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, पं. युधिष्ठिर मीमांसक, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, पं. विश्वनाथ विद्यालंकार, डा. रामनाथ वेदालंकार आदि के नाम ले सकते हैं। अतः महर्षि दयानन्द व आर्यसमाज की वैदिक धर्म की विचारधारा का प्रचार और संसार के वेदेतर मतों के लोगों द्वारा उसको स्वीकार न करने के पीछे वेदों की विचारधारा व उसके सिद्धान्तों की असत्यता, न्यूवतायें व अज्ञानयुक्तता नहीं है अपितु जिन लोगों में प्रचार किया जाता है उन लोगों का अज्ञान वा मिथ्याज्ञान, अपने-अपने हित, अपात्रता, रूढि़वादिता, मत-मतान्तरों के आचार्यों वा धर्मगुरुओं का अपने अनुयायियों को आंखें बन्द कर व बिना विचार किए उनकी धर्मपुस्तकों, विचारों व मान्यताओं का पालन करने की धारणा का प्रचार है। यह तो हम सभी जानते हैं कि यदि हमारे मत पर कोई आक्षेप करता है तो हमारा सीमित ज्ञान व अध्ययन होने के कारण हम अपने विद्वानों को उनका प्रतिवाद करने के लिए कहते हैं। ऐसा ही अन्य मतों में भी होता है। वहां इतना हमसे पृथक होता है कि उन मतों के आचार्य अपनी अयोग्यता वा अपने मत की मान्यताओं की असत्यता को जानकर मौन रहते हैं और कह देते हैं कि आक्षेपकत्र्ता अनावश्यक व अन्य कारणों से आक्षेप कर रहा है व ऐसे अन्य बहाने बनाते हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने जब सत्य ज्ञान का अर्जन कर सन् 1863 से वेद प्रचार व असत्य मतों का खण्डन मण्डन आरम्भ किया तो अन्य मतों के आचार्यों व लोगों में उनके विचारों व तर्कों को सुनकर खलबली मच गई। उनके आचार्यों के पास उनके तर्क व युक्तियों का सन्तोषप्रद उत्तर नहीं था। वह प्रायः उनसे वार्तालाप व शास्त्रार्थ करने में दूर रहते थे। यदि आलोचित मत के आचार्य को कभी किसी कारणवश उनसे वार्तालाप व शास्त्रार्थ आदि करना भी पड़ा तो वह अपने मिथ्या मतों की मान्यताओं को तर्क व युक्तिपूर्वक सिद्ध नहीं कर पाते थे और अपने स्वार्थों के कारण उन्हें छोड़ भी नहीं पाते थे। वही स्थिति आज तक बनी हुई है। वर्तमान में मत-मतान्तरों के आचार्यों व उनके अनुयायियों ने अपने मत के सत्य व असत्य सिद्धान्तों की परीक्षा छोड़ ही दिया है और प्रायः सभी धन, सम्पत्ति, सुख-सुविधा रूपी भोग व अधिकारों आदि के चक्र में फंसे हुए दीखते हैं। संसार में ज्ञान-विज्ञान की उन्नति व प्रगति तभी हुई है जब यूरोप के देशों के लोगों ने वहां के धार्मिक संगठनों की मान्यताओं व सिद्धान्तों से स्वयं को पृथक कर सत्य का अनुसंधान, अध्ययन व उसके अनुसार क्रियात्मक प्रयोग किये। यदि वह अपने आप को वहां के मतों से जोड़े हुए रखते तो पश्चिम के देशों में ज्ञान विज्ञान की जो प्रगति हुई है, वह कदापि न होती। जिन देशों में यह प्रगति नहीं हुई या कम हुई है, उसका कारण भी वहां के लोगों का अपने आप को अपने-अपने मतों व धर्म की अविद्या वा अज्ञानजन्य मान्यताओं से जोड़े रखना है तथा इन मतों की अज्ञानयुक्त रूढि़यों व परम्पराओं का उन पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव होना है। अतः हमें लगता है कि सत्य वैदिक धर्म का जितना प्रचार किया जाये, अच्छा है, परन्तु उसका अपेक्षा के अनुकूल प्रभाव न होकर सीमित प्रभाव ही होगा। हमारे विगत डेढ़ शताब्दी में प्रचार से सभी धार्मिक संगठनों व मनुष्यों द्वारा वैदिक धर्म को सार्वजनिक पूर्णरूपेण स्वीकृति न तो मिली है और न निकट भविष्य में सभव प्रतीत होती है। ‘‘सत्यमेव जयते वाक्य के अनुसार सत्य में अपनी एक नैसर्गिक शक्ति होती है। यदि असत्य समाज व मनुष्यों में अपना अस्थाई रूप से स्थान बना सकता है तो सत्य भी अवश्य बना सकता है परन्तु असत्य के स्थापित व रूढ़ हो जाने पर उसको हठाने के लिए प्रयत्न व पुरुथार्थ कुछ अधिक करना पड़ता है। यह सत्य मत के प्रचारकों की योग्यता व पुरुषार्थ पर निर्भर करता है। महर्षि दयानन्द ने इस कार्य को पूर्ण योग्यता व अपने ब्रह्मचर्य के अपूर्व बल व सामर्थ्य से किया, अपने प्राण भी इस कार्य के लिए दे दिये, जिसका देश व विदेश के लोगों पर, सीमित ही सही, वरन् आशातीत प्रभाव पड़ा। इस प्रक्रिया को प्रभावशाली रूप से जारी रखना आवश्यक है।

 

अतीत में अनेक मतों के लोगों ने वेदों का अध्ययन किया है और वह इससे आकर्षित हुए हैं। कुछ ने वैदिक मत को इसकी श्रेष्ठता के कारण अपनाया भी है। वेदों व वैदिक साहित्य जिसमें महर्षि दयानन्द जी के ग्रन्थ भी सम्मिलित हैं, का जो भी मनुष्य शुद्ध हृदय से अध्ययन करता है वह इस परिणाम पर पहुंचता है कि संसार में धार्मिक जगत में आर्यसमाज द्वारा स्वीकार्य व प्रचारित वैदिक सिद्धान्त ही पूर्णतया सत्य हैं। वेद के विपरीत प्रचलित मान्यतायें लोगों को भ्रमित करती हैं और उन्हें जीवन के लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष से दूर करती हैं। हमने इस लेख में महर्षि दयानन्द द्वारा प्रचारित सत्य वेद मत के संसार में प्रसारित होने में आईं बाधाओं का संकेत कर यह बताने का प्रयास किया है कि सामान्य मनुष्यों का ज्ञान इस स्तर का नहीं होता कि वह धर्म के सभी सिद्धान्तों को पूर्णरूपेण जान व समझ सके वा जानने-समझने पर स्वीकार कर ले। इसके लिए श्रोता का स्तर वक्ता के समान व उससे कुछ कम तथा अध्येता का स्तर ग्रन्थकार के स्तर के कुछ-कुछ अनुरूप होना चाहिये। स्कूल के अध्यापक का उदाहरण भी यहां लिया जा सकता है। हम जानते हैं कि स्कूल के अध्यापक के ज्ञान का स्तर विद्यार्थियों से अधिक ही होता है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह होती है कि शिक्षक अविद्यायुक्त, स्वार्थी, हठी व प्रमादी नहीं होता। शिक्षक व पुस्तकों की बातें सत्य ही हुआ करती हैं जिसको विद्यार्थी पक्षपात रहित होकर समर्पित भाव से पढ़ता है और ऐसा करने से उसकी बौद्धिक उन्नति होती है। यदि प्राचीन काल से हमारे सभी धर्म प्रचारक व धर्मों के आचार्य शिक्षकां की तरह से ज्ञानी, निष्पक्ष, सत्य के आग्रही व विवेकशील होते तो आज संसार में इतने मत, मतान्तर वा धर्म आदि न होते जितने की आज हो गये हैं। प्राचीनकाल से अच्छे शिक्षकों व प्रचारकों की कमी का परिणाम ही वर्तमान के अविद्यायुक्त मत-मतान्तर हैं।

 

महर्षि दयानन्द व आर्यसमाज के विद्वान और अनुयायी यह जानते हैं कि उनका मत ईश्वरीय ज्ञान वेदों पर आधारित है और पूर्ण सत्य है। हमें अपने जीवनों को भी वैदिक मान्यताओं के अनुसार बनाना चाहिये। हमें भी आत्म चिन्तन कर अपने जीवन की कमियों को दूर करना चाहिये और अपने आचरण व व्यवहार पर ध्यान देना चाहिये। यदि हमारे गुण-कर्म-स्वभाव, आचरण व व्यवहार वेद और आर्यसमाज के सिद्धान्तों पर आधारित होंगे तो उनका हमारे परिवार व समाज पर भी अच्छा प्रभाव होगा। इस लेख में हमने यह विचार किया कि सत्य व ज्ञान से पूर्ण होने पर भी महर्षि दयानन्द द्वारा प्रचारित वेदमत का देश व विश्व पर अपेक्षानुरुप प्रभाव क्यों नहीं हुआ? आर्यसमाज के अन्य विद्वान भी इस विषय पर विचार कर लेखों के द्वारा आर्यजनता का मार्गदर्शन कर सकते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

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आर्यसमाज के कार्यक्रमों के अराजकतावादी मुख्य अतिथि

आर्यसमाज के कार्यक्रमों के अराजकतावादी मुख्य अतिथि

ऋषियों मनीषियों द्वारा प्रदत्त दिव्यज्ञान से ओतप्रोत इस वसुन्धरा पर यथा समय अनेक दिव्य आयोजन प्रायोजित होते रहे हैं। ऋषियों की वाणी के प्रचार-प्रसार में लगी हुयी संस्था आर्यसमाज सतत संलग्न हैं। किन्तु वर्तमान परिवेश को देखकर शायद ऐसा प्रतित होता है कि ये संस्थाएं  ऋषि की वाणी का प्रचार-प्रसार न करके अपने पेट पूजा में लगी हुयी हैं।  ऋषियों की बतायी बातों का प्रचार-प्रसार कैसे हो, शायद ये तो इनको आता ही नहीं है। इनकी दिशा व दशा गलतमार्ग का अनुसरण कर चुकी है।

देश की कुछ शीर्षस्थ संस्थाएं आर्यसमाज के मन्तव्यों को स्वीकार न कर वश पैसे को ही सब कुछ समझती हैं। ऐसी शीर्षस्थ संस्थाओं में यदि किन्हीं का नामोल्लिखत है तो वें हैं आर्य सभाएँ तथा प्रतिनिधि सभाएँ । जिनकों प्रत्येक आर्यसमाजी अपना मार्गदर्शक स्वीकार करता है।  आप खुद ही विचार-विमर्श कर सकते हैं कि जिसका नेता आर्यमन्तव्य को स्वीकार नहीं करता हो, जो स्वयं ही अनार्यत्व को स्वीकार करता हो। उसको अपना मार्गदर्शक स्वीकार करने वाली जनता कैसे आर्यत्व को स्वीकार कर पायेगी। जो नया-नया आर्यसमाजी बना हो वह तो आर्यसमाज की विशेषता को स्वीकार कर ही नहीं सकता।

जो व्यक्ति पूर्ण तन्मयता के साथ आर्यसमाज का कार्य कर रहा हो, वह इनके लिए किसी महत्व का नहीं किन्तु यदि कोई राजनेता, व्यापारी इनको ग्यारह सौ रुपये भी दे तो ये उसको आर्यसमाज का सर्वश्रेष्ठ कार्यकर्ता स्वीकार करते हैं।

मुझे वह दिन याद है जब मंच पर एक ओर विद्वान लोग तो बैठे हुए हैं, किन्तु राजनेताओं का सम्मान विद्वानों से पहले हो रहा था। मैंने सोचा शायद बाद में विद्वानों का भी माल्यार्पण से स्वागत होगा किन्तु कार्यक्रम के अन्तिम क्षण तक ऐसा नहीं हुआ।

आज का समय ऐसा आ गया है कि आर्यसमाज के मंचों से सिद्धान्तविरोधी बातों बोली जा रही है, जिनको रोकने का कोई सहास तक नहीं करता। बात कुछ इस प्रकार की है एक साल पहले आर्यसमाज के कार्यक्रम में वी.के.सिंह जी को बुलाया गया। स्वागत व सम्मान हुआ किन्तु अपने वक्तव्य के दौरान वे कहते हैं कि देश के लिए सर्वाधिक कार्य स्वामी विवेकानन्द जी ने किया है, फिर जाकर किन्हीं स्वामी दयानन्द का नाम लिया। ऐसा सुनते हुए वहाॅं बैठे किसी भी मन्त्र-प्रधान की नजरों का पानी नहीं मरा। किसी ने ऐसा दुष्सहास भी नहीं किया जो वी.के.सिंह को बाद में कहता कि स्वामी दयानन्द ने देश के लिए ये-ये कार्य किये। स्वामी विवेकानन्द की बुरायाॅं गिनाने का तो शायद सहास हो ही नहीं सकता था।

किन्तु आज फिर से ऐसा ही इतिहास दोहराया जा रहा है। जब स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती जी के बलिदान दिवस पर किसी भ्रष्टाचारी, असत्यवादी, स्वार्थी नेता केजरीवाल को बुला रहें है। इस नेता की सत्यता से तो आप पूर्णतया परिचित ही हैं, जो देश में बलात्कार करने वालों को 10,000 रुपये तथा सिलाई मसीन दे रहा है। ऐसा नेता आर्यसमाज को क्या दिशा व दशा देगा? जो खुद बलात्कार को बढावा देने वाला है वह कैसे आर्यसमाज को नई दिशा दे सकेगा?

समाज के कार्यकर्ताओं को कुछ तो विचार-विमर्श करके बुलाना चाहिए। एक लक्षण भी तो आर्यसमाज का हो, जिसको हम बुला रहे है। यदि नहीं भी है तो एक समाज में तो उसका अच्छा वातावरण होना चाहिए। दिल्ली की समस्त जनता केजरीवाल के कार्यकाल से पूर्णतया परिचित ही है। इसके विषय में जितना कहा जाये उतना ही कम है।

वैसे आर्यसामज के मंचों पर विद्वानों का ही सम्मान होना चाहिए किन्तु बड़ा दुर्भाग्य है। न जाने किस दिन विद्वानों का सम्मान आर्यसमाजों के मंच से होना प्रारम्भ होगा।

शायद आर्यसमाज का वैचारिक रूप से पतन नित्यप्रति बढ़ता ही जा रहा है। इनका ध्यान केवल पेट, पैसा व मकान ही रह गया है। वेदप्रचार तो इनके लिय दिवास्वन के समान है।

मुझे वो श्लोक याद आ रहा है-

अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूज्यानां तु विमानना।

त्रीणि तत्र प्रवर्तन्ते दुर्भिक्षं मरणं भयम्। -पंचतन्त्र काकोलूकीय

अर्थात् जहाॅ अपूज्या का सम्मान होता है और विद्वानों का तिरस्कार तो वहाॅं निश्चित रूप से पतन, नाश और भय उत्पन्न होता है।

यदि सत्यता में आर्यसमाज की यही गति रही तो अवश्य ही वह दिन दूर नहीं जब आर्यसमाज का नाम केवल स्वार्थवादी संस्थाओं में गिना जायेगा। आज भी समय है……कुछ तो समझ जाओ……………..ऋषि दयानन्द को समझने का प्रयाश तो करो……………….

‘भारत माता के वीर आदर्श सपूत शहीद रामप्रसाद बिस्मिल और उनके साथी’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

आज की युवापीढ़ी आधुनिक युग के निर्माता देशभक्तों को भूल चुकी है जिनकी दया, कृपा, त्याग व बलिदान के कारण आज हम स्वतन्त्र वातावरण में सम्मानजनक जीवन व्यतीत कर रहे हैं। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि आज की युवा पीढ़ी प्रायः धर्म, जाति व देश के प्रति अपने कर्तव्यों के प्रति सजग नहीं है वा विमुख है। यह आश्चर्य है कि हमें देश-विदेश के क्रिकेट आदि खिलाडि़यों, फिल्मी अभिनेताओं, बड़े-बड़े घोटाले व भ्रष्टाचार करने वाले राजनीतिज्ञों के नाम व कार्यो के बारे में तो ज्ञान है परन्तु जिन लोगों अपने जीवन को बलिदान करके देशवासियों को गुलामी व अपमानित जीवन जीने से बचाया है, उन्हें हम भूल चुके हैं। इसे देशवासियों की उन हुतात्मा बलिदानियों के प्रति कृतघ्नता ही कह सकते हैं। ऐसा क्यों हुआ? इसका सरल उत्तर है कि स्वतन्त्रता के बाद देश में जो वातावरण बना और नैतिकता, देश भक्ति व योग को शिक्षा पद्धति में अनिवार्य विषयों में सम्मिलित नहीं किया, उसके कारण ही ऐसा हुआ है। आज की युवा पीढ़ी ने स्वदेशी सभी अच्छी चीजों को छोड़ दिया है और पाश्चात्य अच्छी व बुरी सभी चीजों को अविवेकपूर्ण ढंग से अपनाया है व अपनाती जा रही है। ऐसे प्रतिकूल वातावरण में शहीदों के जन्म व बलिदान दिवस हमें अवसर देते हैं कि हम तत्कालीन परिस्थितियों में उनके द्वारा किए गये कार्यो पर दृष्टिपात कर उनका मूल्यांकन करें व उनसे शिक्षा व प्रेरणा ग्रहण कर अपना कर्तव्य निर्धारित करें। भारत माता को विदेशी आक्रान्ताओं से, जो देशवासियों को पल-प्रतिपल अपमानित करते थे, जिनके शासन में हमारा प्राचीन वैदिक सनातन धर्म व संस्कृति सुरक्षित नहीं थे, जो देश की सम्पदाओं को लूटते थे, देशवासियों के श्रम का व उनका बौद्धिक शोषण करते थे, जिन्होंने हमारी अस्मिता को अपने अहंकार व द्वेष-बुद्धि से कुचल दिया था, उन क्रूर शासकों से देश को मुक्त कराने के लिए जिस भारतमाता के वीर सपूत ने आज के दिन अपना तन, मन व धन मातृभूमि की स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर अर्पित किया था, उस नरपुगंव का नाम है पं. रामप्रसाद बिस्मिल।  शहीद बिस्मिल ने 29 वर्ष की भरी जवानी में 19 दिसम्बर, 1927 को फांसी के फन्दे को चूम कर अपना बलिदान दिया। उनके जीवन पर दृष्टि डालने पर ज्ञात होता है कि उनके जीवन का उद्देश्य विदेशी शासक अंग्रेजों की पराधीनता से देश को मुक्त कर सभी देशवासियों के प्राचीन धर्म व संस्कृति की रक्षा, सम्मानजनक जीवन के साथ देश की एकता व अखण्डता की रक्षा करते हुए सबकी शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक व आत्मिक उन्नति करना एवं वैदिक आदर्श सत्य व न्याय पर आधारित शासन स्थापित करना था।

 

रामप्रसाद बिस्मिल के पिता श्री मुरलीधर, चाचा श्री कल्याणमल तथा पितामह श्री नारायणलाल थे। आप चार भाई व पांच बहने थी जिनमें आप सबसे बड़े थे। पिता कुछ शिक्षित थे। ग्वालियर से आकर शाहजहांपुर, संयुक्त प्रान्त में बसे थे। मुरलीधरजी ने पहले नगर पालिका में 15 रूपये मासिक पर सर्विस की और इसके बाद कोर्ट में स्टाम्प पेपर बेचने का काम किया। आपके परिवार में पुत्रियों को जन्म लेते ही मार दिया जाता था परन्तु आपके पिता ने यह कुकृत्य नहीं किया यद्यपि आपके दादाजी का पुत्रियों की हत्या करने का परामर्श था। रामप्रसाद जी का जन्म 11 जून सन् 1897 को हुआ। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा हिन्दी व उर्दू में हुई। अपनी धर्म पारायणा माताजी की प्रेरणा से आपने अंग्रेजी भी सीखी।  बचपन में आपको अनेक बुरे व्यस्न लग गये। शाहजहांपुर में घर के पास ही आर्यसमाज मन्दिर था, वहां आप जाने लगे। मन्दिर के पण्डितजी ने आपको ब्रह्मचर्य व व्यायाम के बारे में बताया और उसका पालन करने को कहा जिससे आपको सही दिशा मिली।  आर्यसमाज मन्दिर में आपको श्री इन्द्रजीत जी का सत्संग प्राप्त हुआ। उन्होंने आपको ईश्वर का ध्यान करना व महर्षि दयानन्द रचित सन्ध्या करना सिखाया। उनकी प्रेरणा से आपने सत्यार्थप्रकाश पढ़ा। सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से आपके सारे व्यस्न छूट गये और आपमें देशप्रेम व देश को स्वतन्त्र कराने की प्रबल भावना उत्पन्न हुई। आपका स्वास्थ्य जो पहले खराब रहता था अब सन्ध्या, व्यायाम व योगाभ्यास से दर्शनीय हो गया। हमें आर्यसमाजी मित्र, आर्य विद्वान प्रो. अनूप सिंह से ज्ञात हुआ था कि आप अपने भव्य, प्रभावशाली व आकर्षक शरीर के कारण दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो गये। लोग दूर-दूर से आपकी प्रशंसा सुनकर आपको देखने आने लगे।

 

पं. रामप्रसाद बिसिल्ल जी को आर्यसमाज के सम्पर्क में आने से पूर्व अनेक दुर्व्यसन लग गये थे। दुर्व्यसनों के लिए पैसे चाहिये। इसके लिए वह पिता के पैसे भी चोरी कर लेते थे। दुर्व्यसनों को छुपकर किया जाता है, इसलिए अन्यों पर वह प्रायः प्रकट नहीं होते हैं। रामप्रसाद जी धूम्रपान, भांग का सेवन, चरित्र बिगाड़ने वाले उपन्यासों को पढ़ना व निरर्थक घूमना-फिरना व उसमें समय नष्ट करना जैसे लक्ष्य से भटके मनुष्य की भांति कार्य करते थे। रामप्रसाद जी का भाग्योदय हुआ। संयोग से आप आर्यसमाज के सम्पर्क में आये। यहां आर्यों की संगति व उनसे मिलने वाले तर्क पूर्ण सुझावों ने आपको प्रभावित करना आरम्भ किया। व्यस्नों से जीवन को होने वाली हानि का स्वरूप आप पर प्रकट होने से उनके प्रति अरूचि हो गई। हमने इस अल्प जीवन में अनेक लोगों को उठते हुए भी देखा है और वेदों व सत्यार्थ प्रकाश पढ़े व दूसरों को सदाचारी व आर्य बनाने वाले को नाना प्रकार के बुरे कार्य करते हुए भी पाया है जिनसे चरित्र का पतन होता है।  यह सामान्य बात है, ऐसी घटनायें समाचार पत्रों व टीवी आदि पर भी यदा-कदा देखने को मिलती रहती हैं। रामप्रसाद जी में जो दूषण थे वह अज्ञानता, मन के नियन्त्रित न होने व इन्द्रियों के दास बनने के कारण उत्पन्न हुए थे, उनका दूर होना सरल था। उन्हें इनके दुष्प्रभावों का ज्ञान हुआ तो उन्होंने इसे त्याग दिया और इनके त्याग से आत्मा की शुद्धि प्राप्त करके एक अज्ञात युवा महात्मा बन गये या महात्मा बनने के मार्ग पर तेजी से बढ़ चले।

 

आर्यसमाज में सन्ध्या, हवन, वहां के सच्चरित्र सदस्यों एवं विद्वानों के उपदेशों, उनकी संगति, वार्तालाप व उनकी सेवा का आप पर ऐसा प्रभाव हुआ कि आर्यसमाज में रहकर आप अपना अधिक समय व्यतीत करने लगे। पिता आर्यसमाज के वास्तविक स्वरूप से अपरिचित थे। उन्हें अपने पुत्र रामप्रसाद का वहां अधिक समय व्यतीत करना अच्छा नहीं लगता था। इससे वह उनसे क्रुद्ध हो गये। उन्होंने रामप्रसादजी को वहां जाने से मना किया और अपशब्द कहकर धमकी भी दी की सोते समय उसका गला काट देगें। इस कारण घर से भी उन्हें निकाल दिया। इस कठिन परीक्षा में, जिसे छोटी अग्नि परीक्षा भी कह सकते हैं, हमारे पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी पूरी तरह सफल हुए। यदि वह पिता के अनुचित सुझाव को मान लेते तो उनका जीवन निरर्थक होता और इतिहास में उनकी शहादत की जो युगान्तरकारी घटना घटी, वह न हुई होती।  यहां हम स्वामी श्रद्धानन्द के उदाहरण को भी स्मरण कर सकते हैं जब इस युवावस्था में नास्तिक युवा मुंशीराम, श्रद्धानन्द कहलाने से पूर्व का नाम, के पौराणिक व अन्धविश्वासों को मानने वाले पिता नानक चन्द बरेली में महर्षि दयानन्द के सत्संग में लेकर जाते हैं, इस आशा के साथ कि स्वामी दयानन्द के सत्संग व उपदेश के प्रभाव से इसकी नास्तिकता समाप्त हो जायेगी।  महर्षि दयानन्द के सत्संग से उनकी नास्तिकता भी समाप्त हुई, सारे दुव्र्यस्न भी समाप्त हुए और एक दुर्व्यसनी युवक आगे चलकर अपने युग का युगपुरूष बन गया जिसका स्मारक गुरूकुल कांगड़ी आज भी अतीत के स्वर्णिम कार्यों को संजोय हुए उनकी साक्षी दे रहा है।

 

पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी को मुंशी इन्द्रजीत से सत्यार्थ प्रकाश भी पढ़ने को मिला। सत्यार्थ प्रकाश से आपको ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति, धर्म, कर्म, यज्ञ, सन्ध्या, जीवन-मृत्यु के रहस्य, पुनर्जन्म, सुख, दुख, बन्धन, मोक्ष, देश भक्ति, मातृभूमि से प्रेम, उसकी सेवा, माता-पिता-गुरूजनों-सज्जनों-वृद्धों की सेवा, मत-मतान्तरों का वास्तविक ज्ञान व उन सबमें सत्य व असत्य मान्ताओं का मिश्रण, धर्म केवल एक है जिसमें सर्वांश सत्य होता है, असत्य बिल्कुल नहीं होता आदि का ज्ञान हुआ एवं मूर्तिपूजादि पोषित पौराणिक वा कथित सनातन धर्म सहित बौद्ध, जैन, नास्तिक मत, ईसाई व इस्लाम मत की अवैदिक व अज्ञानपूर्ण बातों का ज्ञान भी हो गया। इतना ज्ञान होना, इसके धारण की भावना का होना, इनकी इच्छा, संकल्प, प्रयत्न करना व इससे सहमत होना — यह सब एक महात्मा के लक्षण हैं। रामप्रसाद बिस्मिल भी इसके साक्षी बने व इन्हें अपने जीवन में धारण किया।

 

आर्यसमाज, शाहजहांपुर में एक बार आर्य संन्यासी स्वामी सोमदेव जी का आगमन हुआ। स्वामीजी धार्मिक विद्वान होने के साथ-साथ देश की परतन्त्रता व उसके परिणामों से व्यथित थे। आपको इनका सत्संग प्राप्त हुआ। सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय, संस्कृत वाक्य प्रबोध एवं व्यवहार भानु जैसे ग्रन्थों को पढ़कर देश को आजाद कराने के बीजों का वपन तो आपके हृदय में हो ही चुका था। उनको खाद व पानी स्वामी सोमदेव जी के सत्संग, वार्तालाप व सेवा से प्राप्त हुआ। उनके परामर्श से आपने देश की आजादी के लिए कार्य करने का अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। आर्य मनीषी डा. भवानी लाल भारतीय ने लिखा है कि स्वामी सोमदेव जी की शिक्षाओं से प्रभावित होकर रामप्रसाद बिस्मिल ने प्रतिज्ञा की – अंग्रेजी साम्राज्य का नाश करना मेरे जीवन का प्रमुख लक्ष्य होगा। इस प्रतिज्ञा के बाद आपने युवकों का एक संगठन बनाया। इस संगठन की योजनाओं को पूरा करने के लिए शस्त्रों की आवश्यकता थी और उन्हें खरीदने के धन चाहिये था। आपने धन की प्राप्ति के लिए एक पुस्तक लिखी जिसका नाम था – अमेरिका को स्वतन्त्रता कैसे मिली?’ इसकी बिक्री से प्राप्त धन अपर्याप्त था।  दूसरा उपाय यह किया कि पास के एक गांव पर सशस्त्र हमला कर धन लूटा गया। यह ध्यान रखा गया कि किसी को भी शारीरिक क्षति नहीं पहुंचानी है। पराधीन भारत माता को आजाद करने के लिए उसी की सन्तानों से धन प्राप्त करने का उस समय उन्हें यही तरीका दिखाई दिया। इस घटना से आप पुलिस की जानकारी में तो आ गये परन्तु गिरिफ्तारी से बचते रहे। सन् 1920 में राजनैतिक कैदियों व अन्य अपराधियों को आम माफी दिये जाने के बाद आपके नाम जारी वारण्ट भी रद्द हो गया। तब आप अज्ञात स्थान से शाहजहांपुर आ गये। जब आपने युवकों का सशस्त्र दल बनाया तो सुप्रसिद्ध देशभक्त, शहीद व आपके अभिन्न मित्र अशफाक उल्ला खां भी आपके सम्पर्क में आये। दोनों में पक्की दोस्ती हो गई। अशफाक को अपने मित्र बिस्मिलजी को बहुत निकट से देखने का अवसर मिला। वह भी आर्यसमाज मन्दिर में आने लगे। हम अनुमानतः कह सकते हैं कि उन्होंने आर्य समाज के सत्यस्वरूप को काफी हद तक समझा था। एक बार कुछ मुसलमानों ने आर्यसमाज पर आक्रमण कर दिया। अशफाक उल्ला उस समय आर्य समाज मन्दिर में पं. रामप्रसाद बिस्मिल के साथ ही थे।  अशफाक ने रामप्रसाद जी के साथ मिलकर आक्रमणकारियों को ललकारा था और उनके मंसूबे विफल कर दिये थे। इस मित्रता को सच्ची मित्रता कह सकते हैं और हिन्दू-मुस्लिम संबंधों की एक अच्छी मिसाल भी। इन दोनों की मित्रता के अनेक प्रसंग हैं, जो प्रेरणाप्रद हैं।

 

पं. राम प्रसाद बिस्मिल प्रसिद्ध उर्दू-फारसी के कवि भी थे। आपकी रचनायें आजादी के आन्दोलन के दिनों में सभी लोगों की जुबान पर होतीं थीं। आज भी उनमें ताजगी है, देश प्रेम व हृदय को छू लेने की उनमें अवर्णनीय क्षमता है। नमूने के रूप में कुछ को देखते हैं। फांसी के फन्दे को चूमने से पूर्व उन्होंने कहा था – मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे। बाकी मैं रहूं और मेरी आरजू रहे।। जब तक कि तन में जान रगों में लहू बहे। तेरा ही जिक्र और तेरी जुस्तजू रहे।। भारतमाता के प्रति अपने उद्गार व्यक्त करते हुए आपने लिखा था – यदि देश हित मरना पड़े मुझको सहस्रों बार भी। तो भी मैं इस कष्ट को निज ध्यान में लाऊं कभी।। हे ईश भारत वर्ष में शत बार मेरा जन्म हो। कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो।। देश प्रेम पर उनकी पंक्तियां हैं – ‘‘हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रहकर, हमको भी पाला था मांबाप ने दुख सहसह कर। वक्ते रूखसत उन्हें इतना भी आये कहकर, गोद में कभी आंसू बहें जो रूख से बहकर।। तिफ्ल उनको ही समझ लेना जी बहलाने का। देष सेवा का ही बहता है अब तो लहू नसनस में। हमने जब वादि गुरबत में कदम रखा था। दूर तक यादें वतन आईं थी समझाने को।  उनकी पंक्तियों सर फरोसी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजू कातिल में है। पर तो एक फिल्मी गीत बन चुका है जो कभी देश के बच्चे-बच्चे की जुबान पर होता था।  मरने से पूर्व उन्होंने लिखा – मरते बिस्मिल, रोशन, लाहिड़ी, अशफाक अत्याचार से, पैदा होगें सैकड़ों इनके रूधिर की धार से।

 

अन्याय करना व अन्याय सहना दोनों ही गलत हैं। अंग्रेज देशवासियों पर अमानवीय अत्याचार करते थे। जाते-जाते भी वह देश का विभाजन करा गये और इस बात का भी प्रयास किया कि खण्डित भारत सबल देश न बन सके। रामप्रसाद बिस्मिल जी अंग्रेजों के भारतीयों के प्रति अन्याय को दूर कर देशवासियों के लिए सम्मान, ईश्वर व प्रकृति प्रदत्त समानता व स्वतन्त्रता के अधिकारों को प्राप्त कराना व सभी सामाजिक बन्धुओं व देशवासियों को दिलाना चाहते थे। इसी विचारधारा ने उन्हें सशस्त्र क्रान्ति का नायक बनाया। हम जब विचार करते हैं कि कोई किसी की सम्पत्ति को छीन लें या उसकी अचल सम्पत्ति पर कब्जा कर लें, तो उस अन्यायकारी को कैसे हटा कर सम्पत्ति को मुक्त कराया जाये? इसके दो ही तरीके हैं कि पहले उसे बताया व समझाया जाये कि उसने गलत किया है, वह सम्पत्ति लौटा दें। प्रायः सम्पत्ति छीनने वाला व लूटने वाला अधिक बलवान होने के कारण सत्य के आग्रह करने पर सम्पत्ति लौटाता नही हैं। यदि ऐसा होता तो चीन ने हमारी भूमि अब तक हमें लौटा दी होती। पाकिस्तान ने अनधिकृत कश्मीर हमें सौंप दिया होता। यहां तो अन्य भागों पर भी कब्जा करने के मंसूबे बनायें जाते हैं और गुप्त रूप से उन पर कार्य भी किया जाता है जिसमें हमारे निर्दोष लोग अपने प्राणों से हाथ धो बैठते हैं। जनता के हाथ में ताकत तो होती नहीं। वह सरकार की ओर देखती है।  छीनी गई अपनी सम्पत्ति को अपने शत्रु से लेने का दूसरा तरीका केवल बल प्रयोग ही बचता है।  यही तरीका बाद में महान देशभक्त नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने भी अपनाया जिसको सारे देश ने समर्थन दिया।  उनका नारा – तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा। आज भी कानों में गूंज जाता है। ऐसा ही कुछ हमारे देशभक्त क्रान्तिकारी सोचते थे कि कैसे अपने अपमान को रोका जाये, हमें उचित अधिकार प्राप्त हों और देश स्वतन्त्र हो। उनके द्वारा अपनाया गया मार्ग गलत नहीं था। रामप्रसाद जी के सामने पृष्ठ भूमि कुछ अलग रही होगी। उन्होंने निर्णय किया कि शस्त्रों के लिए धन की जो आवश्यकता है उसे सरकारी खजाने का लूट कर पूरा किया जाये। वस्तुतः खजाने का धन भी जनता व देशवासियों का ही धन था। योजना बनाई गई और उसके अनुसार 9 अगस्त, सन् 1925 की रात्रि को जब रेल लखनऊ के निकट काकोरी स्टेशन पर पहुंचीं, तो उसे रोक कर उसमें सरकारी खजाने से 10,000 रूपये लूट लिए गये। यह घटना अपने आप में ही अत्याचारी अंग्रेजों के लिए एक सबक था कि उनके लाख प्रयत्नों, लोगो को दबाने व कुचलने के बाद भी ऐसी घटना घट गई। इससे बौखला करघटना में शामिल देशभक्तों की धर पकड़ का अभियान चला। रामप्रसाद बिस्मिल पकड़ लिये गये। उन पर दबाव डाला गया कि वह अपने सभी साथियों के नाम बताये। उन्हें निष्कृटतम् यातनायें दी गईं। वह सब उन्होने अपनी देशभक्ति के कारण सहन की। सरकार की ओर से दिखावे का मुकदमा चलाया गया और उन्हें मृत्यु दण्ड के रूप में फांसी की सजा दी गई। उनके अन्य साथियों अशफाक उल्ला खां, रोशन सिंह व राजेन्द्र लाहिड़ी को भी फांसी की सजा दी गई। हम जब विचार करते हैं तो हमें लगता है कि यह लोग अपनी मातृभूमि से प्रेम करते थे। उसे आजाद कराना चाहते थे। अंग्रेजों द्वारा जो भारतीयों का अपमान किया जाता था उसका यह लोग विरोध करते थे। इस सबका तो इन्हें पारितोषिक मिलना चाहिये था।  यदि वस्तुतः अंग्रेज न्यायप्रिय होते तो कदापि इन देशभक्त युवकों को सजा न देते।  अपने देश में भी तो वह इसी प्रकार से देश भक्ति के कार्य करते हैं। इससे यह सिद्ध है कि सत्य व न्याय का कोई गुण हमारे तत्कालीन शासकों में नही था। हमें देश के उन तत्कालीन बड़े नेताओं से भी शिकायत हैं जो इन युवकों को फांसी दिए जाने पर मौन व खामोश थे। इतना तो कह ही सकते कि यह निर्णय गलत है। अस्तु। पं. रामप्रसाद बिस्मिल को काल कोठरी में रखा गया। वहां का वातावरण पशुओं से भी बदतर था।  इस पर भी उन्होंने वहां योग साधना की और यह एक सुखद आश्चर्य है कि उस दूषित वातावरण में जहां मनुष्य जीवित नहीं रह सकता, उनके शरीर का भार घटने के स्थान पर बढ़ा। वहां रहते हुए उन्होंने अपनी आत्म कथा भी लिखी, जो सौभाग्य से उपलब्ध है और सभी युवक व वृद्धों के लिए पठनीय है। इस प्रेरणादायक आत्मकथा को स्कूली शिक्षा में सम्मिलित किया जाना चाहये था जिससे युवापीढ़ी देशभक्त बनती। परन्तु कहें किसे, सर्वत्र अहितकर वातावरण है। अब से 88 वर्ष पहले, 19 दिसम्बर, सन् 1927 को उन्हें गोरखपुर में फांसी पर चढ़ाया गया। प्रातः उठकर उन्होंने स्नान कर व्यायाम व सन्ध्या की और हवन किया। फांसी के फन्दे पर खड़े होकर अपनी इच्छा व्यक्त की और कहा – ‘I wish the downfall of British Empire’. यह कह कर वेदमन्त्र ओ३म् विश्वानिदेव सवितरदुरितानि परासुव यद् भद्रं तन्न सुव। कह कर फांसी पर झूल गये। इस समय आपकी आयु लगभग 29 वर्ष थी। देश को आजाद कराने की उनकी भावना आंशिक रूप से 15 अगस्त, सन् 1947 को पूरी हुई।  आजाद होने पर भी उनके स्वप्नों के अनुरूप देश नहीं बन सका। आज भी सत्य व न्याय पर आधारित अध्यात्म ज्ञान से सम्पन्न देश के निर्माण का कार्य शेष है जो कालान्तर मे पूरा होगा। युवा पीढ़ी उनके जीवन से प्रेरणा ग्रहण करे, यह अपेक्षा की जाती है। उनके बलिदान दिवस के अवसर पर हमारी पं. रामपप्रसाद बिस्मिल को हार्दिक श्रद्धांजलि। उनके अन्य साथी देशभक्त वीर अशफाक उल्ला खां, रोशन सिंह व राजेन्द्र लाहिड़ी जी को श्री सश्रद्ध सादर नमन।

 –मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

दूरभाषः 09412985121

‘आर्य जाति नहीं गुण सूचक शब्द है।’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

सृष्टि के आदि काल व उसके बाद के समय में आर्य, दास तथा दस्यु आदि कोई मुनष्यों की जातियां नहीं थीं, और न ही इनके बीच हुए किसी युद्ध व युद्धों का वर्णन वेदों में है। वेद में आर्य आदि शब्द  गुणवाचक हैं, जातिवाचक नहीं। जाति तो संसार के सभी मनुष्यों की एक है और इस मनुष्य जाति की स्त्री व पुरूष दो उपजातियां कह सकते हैं। जो पाश्चात्य लेखक ऋग्वेद में आदिवासियों को चपटी नाक और काली त्वचा वाले बताते हैं, वह असत्य, निराधार व अप्रमाणिक है। वह यह भी कहते हैं कि आर्य लोग आदिवासियों की बस्तियों (पुरों) का विध्वंस करते थे, और कभी-कभी आर्यों का आर्यों के साथ भी युद्ध हो जाया करता था। उनकी ये सारी बातें वेद और सत्यान्वेषण के विरुद्ध होने से काल्पनिक एवं प्रमाणहीन हैं।

 

सृष्टि का सबसे प्राचीनतम ग्रन्थ वेद हैं। वेद वह ग्रन्थ हैं जिनमें आदि सृष्टि में ईश्वर से चार ऋषियों को प्राप्त ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद रूपी ज्ञान, जिनके विषय ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान हैं, को लिपिबद्ध किया गया है। यह पुस्तकें व ग्रन्थ मन्त्र संहिताएं कहलाती हैं। ईश्वर द्वारा प्रदत्त ऋग्वेद का 1/51/8 मन्त्र प्रस्तुत है जिसमें आर्य और दस्यु को जातिसूचक नहीं अपितु गुण-कर्म-स्वभाव का सूचक बताया गया है। इससे सभी विदेशी और देशी अल्पज्ञ विद्वानों की आर्यों विषयक भ्रान्तियों व मिथ्या मान्यताओं का खण्डन होता है।

 

मन्त्रः    वि जानीह्यार्यान् ये दस्यवो बर्हिष्मते रन्ध्या शासदव्रतान्।

शाकी भव यजमानस्य चोदिता विश्वेत्ता ते सधमादेषु चाकन।।

 

इस मन्त्र का अर्थ हैः इस संसार में आर्य=श्रेष्ठ और दस्यु=विनाशकारी इन दो प्रकार के स्वभाव वाले स्त्री पुरुष हैं। हे परमैश्वर्यवान् इन्द्र (परमात्मा) ! आप बर्हिष्मान् अर्थात् संसार के परोपकार रूप यज्ञ में रत आर्यों की सहायता के लिए (परहित विरोधी, स्वार्थ साधक व हिंसक) दस्युओं का नाश करें। हमें शक्ति दें कि हम अव्रती (व्रतहीन, सामाजिक नियम व वेदविहित ईश्वराज्ञा भंग करने वाले) अर्थात् अनार्य दुष्ट पुरुषों पर शासन करें। वह कदापि हम पर शासन न करें। हे इन्द्र (ऐश्वर्यो के स्वामी ईश्वर) ! हम सदा ही तुम्हारी स्तुतियों की कामना करते हैं। आप आर्य सद्विचारों के प्रेरक बनें, जिससे हम अनार्यत्व को त्याग कर आर्य बनें।

 

मन्त्र में ‘‘आर्य शब्द प्रयोग परोपकार में संलग्न आर्यों अर्थात् श्रेष्ठ मनुष्योचित आचरण वाले लोगों के लिए प्रयुक्त हुआ है। किसी भी समुदाय में अच्छे व बुरे तथा श्रेष्ठ और कदाचार करने वाले लोग हुआ ही करते हैं। मन्त्र में ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि हम आर्य विचारों के प्रेरक बनें और अनार्यत्व अर्थात् बुराईयों व दुगुर्णों को त्याग दें। अतः इस बात में कोई संशय नहीं है कि आर्य जातिसूचक शब्द नहीं अपितु मनुष्यों में श्रेष्ठ गुणों की प्रधानता का सूचक है।

 

इसी क्रम में हम भारत में अंग्रेजी शिक्षा के जन्मदाता मैकाले और एफ0 मैक्समूलर की भारतीय वैदिक धर्म और संस्कृति को दूषित करने की योजना को क्रियान्वित करने पर हुई बैठक का विवरण भी प्रस्तुत करना चाहते हैं। सन् 1839 में जब मैकाले भारत से इंग्लैण्ड आया तब वह एक संस्कृत के विद्वान की खोज में था। वह ऐसा विद्वान् चाहता था कि जो वेद के सम्बन्ध में योग्यता रखता हो। एच0एच0 विलसन और वारोन वुनसन के द्वारा मैकाले को पता चला कि जर्मन देशोत्पन्न संस्कृत के विद्वान एफ0 मैक्समूलर इस काम के लिए उपयुक्त हैं। दिसम्बर, 1954 में मैक्समूलर और मैकाले की इंग्लैण्ड में भेंट हुई। उस समय मैकाले 55 वर्ष का अनुभवी राजनीतिज्ञ बन चुका था और मैक्समूलर 32 वर्ष का नवयुवक था। मैक्समूलर आर्थिक दृष्टि से कृपण था और उसे किसी ऐसे काम की अपेक्षा थी जिससे वह अच्छा खासा धन कमा सके। मैकाले और मैक्सूमूलर के बीच कई घण्टों तक बातचीन हुई। इस बैठक में मैकाले ने मैक्सूलर को कहा कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी लाखों रुपये व्यय करने को तैयार है यदि आप हिन्दुओं के आदि धर्म ग्रन्थ ऋग्वेद का अंग्रेजी में अनुवाद करें और इस ढंग से व्याख्या करें कि जिससे वेदों की विचारधारा के विद्वानों अनुयायियों को धर्मभ्रष्ट किया जा सके। तुम इस काम में अंग्रेजी सरकार को सहयोग दो और हिन्दुओं के हृदयों में वेद के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न करो जिससे अंगेजी राज्य की भारत में नींव सुदृढ़ हो तथा हिन्दुओं को बिना किसी यत्न किये सरलता से ईसाई बनाया जा सके। यह कहना न होगा कि इस काम को करने के लिए मैक्समूलर को प्रभूत धन का प्रस्ताव व लालच दिया गया था। किसी भी धनहीन विद्वान की सबसे बड़ी कमजोरी धन ही होती है। मैक्समूलर ने इस प्रस्ताव को चाहे व अनचाहें दोनों ही रूपों में स्वीकार कर लिया। इसका प्रमाण उनका अपनी पत्नी को सन् 1866 में तथा 16 दिसम्बर 1868 को तत्कालीन भारत के मन्त्री श्री ड्यूक आफ आर्गायल को लिखे पत्र हैं।

 

अंग्रेजों    ने अपना राज्य स्थाई वा चिरकालीन करने के लिये जो षडयन्त्र किया था उसके शिकार भारत के अधिकांश बुद्धिजीवी हुए। यदि वह ऐसा न करते तो अंगे्रजों से मिलने वाली सुविधाओं से उन्हें हाथ धोना पड़ सकता था। वर्तमान में भी अज्ञानता, स्वार्थवश व आत्म गौरव की न्यूवता के कारण हम इसे ढो रहे हैं। आज भी देश के बच्चों को इस बारे में मिथ्या पाठ पढ़ाये जाते हैं। भारत की लोकसभा तक में कांगे्रस दल के नेता श्री मल्लिकार्जुन खड़से आर्यों को बाहर से आया हुआ कह देते हैं और किन्हीं कारणों से सब मौन साधे रहते हैं। बुद्धिमान जो भी बात कहते हैं वह उसे सप्रमाण कहते हैं। आज तक आर्यों का बाहर से भारत आना व आर्य का एक जाति होने का कोई प्रमाण नहीं मिला। फिर भी बुद्धिजीवी कहे जाने वाले कुछ लोग इसे ढोये जा रहे हैं। आर्यों को भारत से बाहर से आया हुआ कहना व मानना पूर्णतया असत्य कथन व विवके व ज्ञानशून्य मान्यता है। इस पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिये। लोकसभा में भी इसका उल्लेख करने वालों से प्रमाण मांगे जाने चाहिये अन्यथा वह अपना बयान वापिस लें, इस पर बल दिया जाना चाहिये।

 

हम पुनः बलपूर्वक कहना चाहते हैं कि ‘‘आर्य गुणों का सूचक शब्द है, जाति सूचक शब्द नहीं है। श्रेष्ठ गुणों से युक्त वेदों को मानने वाले लोगों को आर्य कहा गया है। यह लोग भारत के मूल निवासी थे। सृष्टि के आरम्भ में इन आर्यों ने ही इस जम्बू दीप स्थित आर्यावत्र्त को वैदिक ज्ञान-विज्ञान से युक्त श्रेष्ठ गुणों को धारण करने वाले आर्यों ने ही बसाया था। यह वह समय था जब संसार में तिब्बत के अतिरिक्त कहीं कोई मनुष्य निवास नहीं करता था, संसार की सारी भूमि मनुष्यों से रहित खाली पड़ी थी। इससे पूर्व भारत में वनवासी, आदिवासी वा द्राविड़ नाम की कोई जाति निवास नहीं करती थी, इसका प्रश्न ही नहीं था क्योंकि यह सृष्टि का आदि काल था। आदिवासी, वनवासी व द्राविड़ आदि शब्दों का रूढि़वादी प्रयोग अर्वाचीन है प्राचीन नहीं। ढूढने पर इनमें अनेक जन्मना जातिसूचक शब्द मिल जायेंगे। जाति सूचक इन शब्दों का प्रचलन सृष्टि की आदि में मनुष्यों की उत्पत्ति के करोड़ों वर्ष तथा महाभारत का युद्ध समाप्त हो जाने के भी कई सौ या हजारों वर्ष बाद आरम्भ हुआ। हम आशा करते हैं कि विवकेशील पाठक हमारे विचारों से सहमत होंगे। हमारा यह भी निवेदन है कि यदि किसी के पास आर्यों के बाहर से आने का कोई पुष्ट प्रमाण हो तो वह प्रस्तुत कर सकते हैं। विदेशियों ने जो कुछ लिखा व कहा, वह अपने स्वार्थ के कारण किया। भारत के किसी प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ वेद, मनुस्मृति, चार ब्राह्मण ग्रन्थों, रामायण, महाभारत, दर्शन ग्रन्थों व उपनिषदों में कहीं नहीं लिखा की आर्य बाहर से आये थे, उन्होंने यहां की किसी प्राचीन जाति पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की, उन्हें दास बनाया आदि। आर्य कोई जाति नहीं अपितु यह शब्द श्रेष्ठ गुणों का सूचक है। अतः विदेशियों का इस बारे में कोई भी प्रमाणहीन कथन स्वीकार नहीं किया जा सकता।

 

महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के अन्त में स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश नाम से अपनी मान्यताओं सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया है जो सभी वेदों पर आधारित होने से सार्वभौमिक, सार्वकालिक एवं सर्वमान्य आर्यश्रेष्ठसिद्धान्त हैं। वह लिखते हैं किजो मतमतान्तर के परस्परर विरुद्ध झगड़े हैं, उन को मैं प्रसन्न नहीं करता क्योंकि इन्हीं मत वालों ने अपने मतों का प्रचार कर मनुष्यों को फंसा के परस्पर शत्रु बना दिये हैं। इस बात को काट सर्व सत्य का प्रचार कर सब को ऐक्यमत में (स्थिर) करा द्वेष छुड़ा परस्पर में दृढ़ प्रीतियुक्त करा के सब से सब को सुख लाभ पहुंचाने के लिये मेरा प्रयत्न और अभिप्राय है। सर्वशक्तिमान् परमात्मा की कृपा सहाय और आप्तजनों की सहानुभूति से यह (ईश्वरप्रदत्त वेदा का ज्ञान) सिद्धान्त सर्वत्र भूगोल (संसार विश्व) में शीघ्र प्रवृत्त हो जावे जिस से सब लोग सहज से धर्म्मार्थ, काम, मोक्ष की सिद्धि करके सदा उन्नत और आनन्दित होते रहें। यही मेरा मुख्य प्रयोजन (उद्देश्य इच्छा) है।आर्यावर्त्त देश का उल्लेख कर महर्षि दयानन्द ने यह भी लिखा है कि इस भूमि का नाम आर्यावर्त्त इसलिये है कि इस में आदि सृष्टि से आर्य लोग निवास करते हैं परन्तु इस की अवधि उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रह्मपुत्रा नदी है। इन चारों के बीच में जितना प्रदेश है उस को आर्यावर्त्तकहते हैं और जो इस आर्यावर्त्त देश में सदा से रहते हैं उन को भी आर्य कहते हैं। महर्षि दयानन्द के विश्व के लिए कल्याणकारी इन विचारों पर विचार करना और इन्हें मानना सभी मनुष्यों का कर्तव्य है।            

मनमोहन कुमार आर्य

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महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के दलितोद्धार कार्यों पर स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी का प्रेरणादायक उपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य,

 

सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक सभी वैदिक सनातनधर्मी स्वयं आर्य कहलाने में गौरव का अनुभव करते थे। तब तक हिन्दुओं शब्द का अस्तित्व भी संसार में नहीं था। मुस्लिम  आक्रमणकारियों के भारत आने पर यह शब्द प्रचलित हुआ। समय के साथ वेदों से दूर जाते और पतन की ओर बढ़ रहे आर्य कहलाने वाले बन्धुओं ने इस गौरवपूर्ण शब्द को भुलाकर हिन्दु शब्द को अंगीकार कर लिया। हिन्दुओं में प्राचीन वैदिक काल में गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वर्णव्यवस्था कुछ परिवर्तनों के साथ वर्तमान समय में भी विद्यमान है जो अब गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित न होकर यह प्रथा जन्मना हो गई है। इसके कारण हिन्दू समाज का सार्वत्रिक पतन हुआ है। आर्यसमाज के एक शीर्षस्थ विद्वान स्वामी वेदानन्द सरस्वती इस व्यवस्था के अन्तर्गत दलित बन्धुओं के सुधार पर महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के योगदान पर उपदेश कर रहे हैं और बताते हैं कि तथाकथित शूद्रों की दुर्दशा स्त्रियों से भी अधिक थी। उनमें से बहुसंख्यकों को अस्पृश्य माना जाता था। ऋषि दयानन्द ने उनको उनके सब अधिकार दिलवाए। महान् इतिहासविद् डा. काशीप्रसाद जायसवाल के शब्दों में ‘‘महात्मा बुद्ध से लेकर राजा राममोहनराय तक जिस कार्य (शूद्रोद्धार कार्य) में सफलता प्राप्त कर सके, शास्त्र का आश्रय लेकर दयानन्द ने उसमें अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। स्वामीजी ने इस विषय में केवल उपदेश ही नहीं किये, परन्तु अपने आचारण द्वारा इस कार्य को किया। उदाहरणार्थजब ऋषि उत्तरप्रदेश में विचर रहे थे तो साधुजाति (यह अछूत मानी जाती थी) के एक व्यक्ति ने उन्हें भोजन लाकर दिया। ऋषि दयानन्द ने प्रेमपूर्वक उसका आतिथ्य स्वीकार किया। लोगों ने जब आक्षेप किया कि आपने साधु (एक अछूत) की रोटी खाकर अच्छा नहीं किया तो महाराज ने उन अबोध आक्षेपकत्र्ताओं को प्रेम से बोध दिया कि रोटी तो (अछूत की नहीं अपितु) अन्न की (बनी) थी। यदि वह अपवित्र पदार्थों की बनी हो अथवा पाप की कमाई की हो तो वह निषिद्ध है। वे साधु तो कृषि कर्म करते हैं, परिश्रमी हैं, ये लोग चोरी आदि कुकर्म भी नहीं करते अतः इनके अन्न में कोई दोष नहीं है। (उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में घटी अछूतोद्धार की यह अन्यतम घटना है।)

 

शूद्रों (दलित बन्धुओं) के साथ ऋषि के प्रेम के दृष्टान्त अनेक हैं। आर्यसमाज ने ऋषि के इस उपदेश से यह कार्य कर दिखलाया है कि संसार दंग रह गया है। पंजाब में वशिष्ठों, डोमों, मेघों, बटवालों, ओड़ों, रहतियों का उत्थान करके उनको तथाकथित द्विजों के तुल्य यज्ञोपवीतादि का अधिकार दिया गया। इन जातियों के अनेक जन अब गुरुकुल से स्नातक, शास्त्री, बी0ए0, वकील आदि हैं। उनके उत्थान के लिए आर्यसमाजियों को कितना कष्ट सहन करना पड़ा, उसकी एक-दो घटनाओं के द्वारा एमझा जा सकता है।

 

लाला मुन्शीराम जिज्ञासु (पश्चात महात्मा तत्पश्चात् स्वनामधन्य स्वामी श्रद्धानन्द) ने जालन्धर जिले के रहतियों (ये अछूत माने जाते थे) का जातिप्रवेश संस्कार कराया। इस पर पौराणिक भाई बिगड़ खड़े हुए। उनसे और तो कुछ न बन सका, उन्होंने इनका तथा इस कार्य में इनके सहकारी लाला देवराजजी (जालन्धर के कन्या महाविद्यालय की ख्याति वाले) का सामाजिक बहिष्कार करने का विचार किया। लाला देवराज की गहरी नीति से वह सफल न हो सका। तब उन लोगों ने उन सब पुनः प्रविष्ट आर्यों को सार्वजनिक कूपों (कुओं) से जल लेने से रोक दिया। जालन्धर के राजा माने जानेवाले राय शालिग्राम के सुपुत्र देवराज तथा उनके दामाद लाला मुन्शीराम उनके लिए जल भरकर उनके घरों में पहुंचाते थे। यह दृश्य देख विरोधियों की उद्दण्डता नष्ट हो गई।

 

दूसरी घटना कारुणिक है। रोपड़ अछूतोद्धारकार्य करनेवालों का भी पानी बन्द कर दिया गया था। वे लोग नारहर (नहर) से जल लाते थे। लाला सोमनाथ वहां के एक सम्भ्रान्त आर्य इस कार्य के मुखिया थे। दैवयोग से उनकी वृद्धा माता बीमार पड़ गई। चिकित्सकों ने कहाइसे कुवें का जल पिलाओ। जब तक यह नहर का जल पियेंगी, अच्छी हो सकेंगी। सोमनाथ द्विविधा में पड़ गये। मातृभक्ति ने उन्हें प्रेरणा की कि वे क्षमा मांग लें और इस पुनीत कार्य से विरत हो जाएं। सोमनाथ जी की माता को जब अपने पुत्र की दुर्बलता का ज्ञान हुआ, तब तत्काल उन्हें बुलाकर उस देवी ने कहा‘‘देख ! पुत्र सोमनाथ ! मैं जीवन का सब सुख भेाग चुकी हूं। मुझे अब जीने की चाह नहीं रही। तू यदि मेरे लिए स्वधर्मअछूतोद्धार का परित्याग करेगा, तो मेरे प्राण वैसे ही निकल जाएंगे, अतः तू धर्म से मत गिरियो। सोमनाथ ने माता के उत्साहवर्धक शब्द सुनकर शिथिलता का परित्याग किया। इसमें सन्देह नहीं कि उनको अपनी माता से वंचित होना पड़ा, किन्तु वृद्धा माता सुख एवं शान्ति के साथ मरी। बतलाइए कितनी कठोर तितिक्षा है।

 

एक घटना और भी सुन लीजिए–स्यालकोट जिला में तथा जम्मू रियासत में मेघों की विपुल संख्या बसती थी। मेघ लोग किसी समय जम्मू के राजा थे। डोगरों ने मेघों से जम्मू छीना था। राज्य-भ्रष्ट होकर ये इतने गिरे कि ये अछूत माने जाने लगे। हिन्दू निकालना जानता है, अपने अन्दर डालना नहीं जानता। स्यालकोट के एक आर्य नेता श्री लाला गंगाराम का ध्यान इनकी ओर गया। उन्होंने इनमें कार्य आरम्भ किया और आगे चलकर इनके सुधारकार्य को व्यवस्थित करने के लिए मेघोद्धार सभा की स्थापना की। मेघोद्धार सभा ने स्यालकोट में इनके लिए एक हाईस्कूल स्थापित किया। सरकार से भूमि क्रय करके मुलतान जिला में इनके लिए एक नगर बसाया। इनकी आर्थिक दशा को उन्नत करने के लिए इनमें कई प्रकार के शिल्पों का प्रचार भी किया। वैसे अधिकतर मेघ कृषि तथा वस्त्र-निर्माण का कार्य ही करते हैं। स्यालकोट जिला में जब कार्य सुव्यवस्थित भित्ति पर समझ लिया गया, तो जम्मू के मेघों की ओर सभा का ध्यान गया। जम्मू में पहले भी कार्य हो रहा था। जम्मू के राजपूतों को दयानन्द के सैनिकों का यह पवित्र कार्य न रुचा और उन्होंने इसका विरोध करना आरम्भ किया। विरोध के सभी प्रकार–सामाजिक बहिष्कार आदि प्रयोग में लाये गये, किन्तु ये सब हथियार बेकार सिद्ध हुए। अन्त में राजपूतों ने इस आन्दोलन का, अपने विचार से मूल ही उन्मूलन करने की ठानी। उन्होंने इस आन्दोलन के एक कार्यकत्र्ता महाशय रामचन्द्र पर जम्मू के समीप बटैहरा ग्राम में जबकि वे अपने किसी निजी कार्य पर जा रहे थे, आक्रमण करके लाठियों के बर्बर प्रहारों से जर्जरित करके अपने विचारानुसार मारकर भाग गये। आर्यसामाजिकों को जब इसका ज्ञान हुआ, वे वहां पहुंचे, रामचन्द्रजी को उन्होंने जम्मू के अस्पताल में पहुंचाया, किन्तु रामचन्द्र के भाग्य में अमरता (बलिदान वा शहीदी) बदी थी। वे उन प्रहारों से बच सके।

 

दलितोद्धार के पवित्र कार्य में आई इस प्रकार की कष्टकथाओं की संख्या बहुत बड़ी है। यह सब दयालु देव दिव्य दयानन्द की दया का परिणाम है कि आज दलित वर्ग अपना माथा ऊंचा कर सका है।

 

भारत विभाजन होने पर कुछ-एक स्वार्थी हरिजन नेताओं ने हरिजनों को पापिस्थान में रहने का असत्परामर्श दिया जबकि ये स्वयं भारत में चले आये। मेघों ने अपने ऐसे स्वार्थी नेताओं के परामर्श को ठुकरा दिया और भारत में चले आये। उनमें से पर्याप्त संख्या अलवर जिले में बसी है। उनके धर्मभाव को देखिए। वहां आने पर उन लोगों ने कहाहम पहले अपने मन्दिर तथा कन्या पाठशालाओं के भवनों का निर्माण करेंगे, रहने के घर पीछे बनवाएंगे। आर्यसमाज ने इनके लिए आर्यनगर बसाया। कुएं खुदवाए। इसी प्रकार संयुक्त प्रान्त (पूर्व का उत्तर प्रदेश और वर्तमान में उत्तराखण्ड) में डोमों की शुद्धि के अतिरिक्त नायक जाति का सुधार एक महत्वपूर्ण कार्य हैं। नायक जाति के लोग अपनी कन्याओं का विवाह न करके उन्हें वेश्यावृत्ति अंगीकार करने पर बाध्य करते थे। आर्यसमाज ने उनमें प्रचार करके उस जाति की काया पलट दी है।

यह सब दयालु दयानन्द की दया का मधुर फल है। इस प्रकार भारत के अन्य प्रान्तों में भी दयानन्द की दया ने अपना चमत्कार दिखाया है और अभी तक दिखा रही है।

 

स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी का यह उपदेश आर्यसमाज के सभी अधिकारियों व अनुयायियों सहित देश के सभी दलित भाईयों को भी पढ़ना चाहिये। हम अपने अनुभव के आधार पर यह कहना चाहते हैं कि यदि दलित भाई आर्यसमाज के सिद्धान्तों को अपनायेंगे तो उनका सामाजिक, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आत्मिक, शैक्षिक, नैतिक व आर्थिक, सभी प्रकार का सुधार व उन्नति होगी। आर्यसमाज की वैदिक विचारधारा सिद्धान्त वह पारसमणि है जिसे संसार का कोई भी मनुष्य छूकर साधारण सामान्य स्तर से ऊपर उठकर देवतुल्य मानव बन सकता है और मनुष्य जीवन के श्रेष्ठ प्रमुख उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। हम यह भी बताना चाहते हैं कि आर्यसमाज जन्मना जाति को अस्वीकार करता है। वह जन्मना वर्ण व्यवस्था को मरण व्यवस्था मानता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों सहित सभी दलित भाईयों व स्त्रियों को वेदाध्ययन का अधिकारी मानता है। सबको विद्या के चिन्ह  यज्ञोपवीत सकेंगी प्रदान करता है। वेद एवं वैदिक साहित्य सहित सभी आधुनिक विषयों के आवासीय गुरुकुल शिक्षा पद्धति से अध्ययन का पोषक व समर्थक है। सबको एक समान, निःशुल्क शिक्षा, समान भोजन व वस्त्र दिये जाने के साथ अध्ययन के बाद उनके गुण-कर्म-स्वभावानुसार विवाह का पोषक है। ऐसा करके ही भारत का विश्व का अग्रणीय राष्ट्र बनाया जा सकता है। हम आशा करते हैं कि पाठकों को स्वामी वेदानन्द जी का यह उपदेश पसन्द आयेगा।

मनमोहन कुमार आर्य

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वैदिक पशुबन्ध इष्टि (यज्ञ) का वैज्ञानिक विवेचन (एक संक्षिप्त नोट) – डॉ. पुष्पा गुप्ता

 

श्री आर.बी.एल. गुप्ता बैंक में अधिकारी रहे हैं। आपकी धर्मपत्नी डॉ. पुष्पा गुप्ता अजमेर के राजकीय महाविद्यालय संस्कृत विभाग की अध्यक्ष रहीं हैं। उन्हीं की प्रेरणा और सहयोग से आपकी वैदिक साहित्य में रुचि हुई, आपने पूरा समय और परिश्रम वैदिक साहित्य के अध्ययन में लगा दिया, परिणामस्वरूप आज वैदिक साहित्य के सबन्ध में आप अधिकारपूर्वक अपने विचार रखते हैं।

आपकी इच्छा रहती है कि वैज्ञानिकों और विज्ञान में रुचि रखने वालों से इस विषय में वार्तालाप हो। इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर इस वर्ष वेदगोष्ठी में एक सत्र वेद और विज्ञान के सबन्ध में रखा है। इस सत्र में विज्ञान में रुचि रखने वालों के साथ गुप्त जी अपने विचारों को बाँटेंगे। आशा है परोपकारी के पाठकों के लिए यह प्रयास प्रेरणादायी होगा।

-सपादक

वैदिक पशुबन्ध इष्टि को लेकर भारतीय समाज में अनेक मिथ्या भ्रांतियां उत्पन्न हो गई है।

‘‘वैदिक यज्ञों में पशुओं की बलि दी जाती थी’’ यह सर्वथा मिथ्या भाषण प्रचारित हो रहा हैं।

सर्वप्रथम इस बात को समझना आवश्यक है- ये सृष्टि में होने वाले यज्ञ हैं जो महाप्रलय/प्रलय की अवस्था में प्रजापति द्वारा प्रारभ किये गये थे। महाप्रलय की वैज्ञानिक स्थिति क्या होगी? नासदीय सूक्त उस स्थिति को बता रहा है परन्तु हमारी वैज्ञानिक दृष्टि न होने से हम उस स्थिति की ठीक से कल्पना नहीं कर पा रहे हैं। सलिल अवस्था का अर्थ है- जिसमें सब कुछ लीन हो गया था अर्थात् भौतिक सृष्टि बिल्कुल नष्ट हो गई थी तथा सब कुछ आग्नेय स्थिति में था – करोड़ों डिग्री के तापमान पर केवल ऊर्जा ही ऊर्जा (Heat Energy)थी। सब कुछ ऊर्जा द्वारा ही व्याप्त था इससे इसे आपः अवस्था भी कहा गया। सलिल तथा आपः का अर्थ जल ले लिया जाता है जो कि पूर्णतया मिथ्या अर्थ है।

आधिभौतिक सृष्टि के प्रारंभ करने का मूल सिद्धांत है करोड़ों डिग्री के तापमान में व्याप्त ऊर्जा को संहित कर(Condensation Process) विभिन्न प्रकार की तरंगों एवं मूल भौतिक कणों में परिवर्तित करना तथा परमाणुओं का निर्माण करना। इतने अधिक तापमान पर क्या कोई पशु – अश्व, ऋषभ, गौ आदि हो सकते हैं?

पशु क्या है? शतपथ ब्राह्मण 6.2.1.2-4 के अनुसार अग्नि ने 5 पशुओं – पुरुष, अश्व, गौ, अवि, अज को देखा। यत् पश्यति तस्मात् पशवः। प्रजापति ने इन 5 पशुओं को अग्नि में देखा आश्चर्य है कि ब्राह्मण वचनों पर ध्यान दिये बिना हमने पशुओं का अर्थ आज के लौकिक प्रचलित शदों के आधार पर करके कितना बड़ा अनर्थ कर दिया है?

पशुबन्ध का अर्थ होगा- पशु का बन्धन- पशु को बांधना(Bonding of Animal) – आश्चर्य है कि पशु बन्ध को – पशुवध कहके  बहुत ही सरल हास्यास्पद अर्थ कर दिया गया- पशु का वध करना (Killing of Animal)यही अर्थ वैदिक पशु बन्ध यज्ञ के यथार्थ अर्थ को न समझने के कारण भ्रांतियां पैदा कर रहा है। कुछ ब्राह्मणों / विद्वानों ने – पशुबन्ध के स्थान पर पशुवध करके वेदों के वास्तविक अर्थ का अनर्थ ही कर दिया ।

पचति क्रिया का अर्थ कर दिया पशु को पकाना परंतु यह तात्पर्य यहाँ नहीं हैं। पचति का अर्थ पचाना किसको? करोड़ों डिग्री की ऊर्जा को संहित करना। अश्व का अर्थ अश्नुते अर्थात् व्याप्त करना। पुरुष – जो पुर में शयन करता है। अर्थात् जो भी भौतिक कण या तरंग का निर्माण होगा उसका केन्द्रीय बिन्दु। गौ गति का प्रतीक है। अवि रक्षा करने के अर्थ में है। अज अजन्मा((Heat Energy)है। प्रजापति ने इन 5 पशुओं को अर्थात् 5 गुण धर्मों को अग्नि में देखा।

शमिता से अभिप्राय है शमन करने वाला। त्वष्टा रूप अग्नि ही शमिता है जो पशुओं को तराश करके एक निश्चित रूप (आकृति) में लाता है – अत्यधिक ताप की ऊर्जा का शमन करते हुए, काट-छाँट कर एक निश्चित प्रकार की प्रकाश तरंग को बनाना। ब्राह्मण वचन है- पशु अग्नि है , पशु छंद है। छंद अर्थात् तरंग(ङ्खड्डक्द्ग)। वैज्ञानिक दृष्टि से एक निश्चित प्रकाश तरंग को 5 गुणों से जाना जाता है –

(1) तरंग दैर्घ्य (Wave Length) (2) तरंग का विस्थापन (Amplitude) (3) आवृत्ति (Frequency) (4) काल (Time Period) (5) वेग (Velocity) ये 5 अवयव (गुणधर्म)ही एक तरंग का निर्धारण करते हैं। पशु बन्ध प्रक्रिया में कुल 11 पशुओं का उल्लेख पशु एकादशिनी के रूप में मिलता है। अर्थात् सृष्टि करते समय प्रजापति ने 11 प्रकार की तरंगों का निर्माण किया था।

शमिता द्वारा विशसन करने का अर्थ – पशु को मारना नहीं है अपितु अग्नि को संहित एवं शमित करते हुए – पशु रूप (छंदरूप) तरंग को  निश्चित आकृति प्रदान करना है।

पशु का संज्ञपन करना – सं ज्ञपन- सयक् रूप से पशु को पहचान लेना अर्थात् जिस प्रकार की आकृति प्रजापति पशु की चाहता था, वह आकृति बन गयी है।

पशु बन्ध प्रक्रिया में आप्री सूक्त का पाठ किया जाता है। अर्थात् प्रजापति की ‘‘रिरिचान् इव आत्मा’’ को आप्यातित करना। अन्त में स्वाहकृत आहुति दी जाती है। स्वाहकृत प्रतिष्ठा है। स्वाहकृत का तात्पर्य है कि – ‘‘सु आहुतं हविः जुहोति’’। तात्पर्य यह है कि प्रजापति जिस प्रकार की तरंग (पशु) का निर्माण करना चाहता था वह कार्य पूरा हो गया।

पशु बन्ध में चार प्रकार की आहुतियाँ दी जाती हैं – (1) वपा आहुति (2) आज्य आहुति (3) अग्नया आहुति (4) सोम आहुति। वपा रेतः रूप है। आज्य देवों का प्रिय धाम हैं। पशु आज्य हैं। रेतः आज्य है। अनेक ब्राह्मण वचन स्पष्ट बताते हैं कि आज्य का, घृत का, हवि के जो प्रचलित अर्थ है, वह वैदिक अर्थ नहीं हो सकता । आज्य, घृत, हवि, पयः, मधु आदि जितने भी शद वेदों में प्रयुक्त हैं – जिनकी अग्नि में आहुति दी जाती है – ये विभिन्न प्रकार के अत्यधिक लघु मात्रा में अग्नि को संहित एवं शमित कर बनाये गये भौतिक कण ((Quantas, Photones)  हैं जो दशपूर्णमास, चार्तुमास्य यज्ञ प्रक्रियाओं में निर्मित किये गये थे।

अग्नि एवं सोम – उष्णता एवं शीत के प्रतीक हैं। करोड़ों डिग्री तापमान पर जब ऊर्जा संहित हुई तो जो स्थान ऊष्मा के संहित होने से खाली हो गया वह स्थान सोमात्मक अर्थात् उस तापमान की तुलना में काफी ठण्डा हो गया। एक उदाहरण – दस करोड़ डिग्री तापमान पर, एक लाख घन मीटर ऊर्जा (Heat Energy) को यदि संहित करके – एक घन मीटर में इकट्ठा कर दिया जाये तो 99 हजार घन मीटर आकाश रिक्त हो जायेगा – सोमात्मक हो जायेगा तथा संहित ऊर्जा को और आगे संहित करेगा तथा शम् करेगा अर्थात् तापमान क ो कम करेगा।

इससे यह स्पष्ट है कि पशु बन्ध यज्ञ द्वारा प्रजापति ने 11 प्रकार के पशुओं अर्थात् तरंगों का निर्माण किया था। पशु को मारना या पशु की बलि देना यह एकदम मिथ्या है तथा वैदिक अर्थ के सर्वथा प्रतिकूल है।

– 176 आदर्श नगर, अजमेर