आर्यों का समाज कहाँ है? – सोहनलाल कटारिया

लेखक पुराने आर्य समाजी हैं। संगठन की वर्तमान समय में शिथिलता एवं समय के साथ-साथ आई कुछ न्यूनताओं पर आपने अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। ऐसा समय आर्यसमाज में कभी नहीं रहा कि जन्मना जाति को आधार बनाकर किसी को सदस्य न बनाया गया हो। समय-समय पर स्थान-स्थान पर आर्यसमाजें यह प्रयत्न करती रहीं कि इससे जुड़े लोग अपने नाम के साथ आर्य लगाये और (जन्मना) जाति-सूचक शब्द न लगायें। इस मिशन में पूर्ण सफलता नहीं मिली। व्यापक रूप में आर्यसमाज व्यक्तियों तक सबद्ध रहा, परिवारों तक (कुछ अपवादों को छोड़कर) नहीं पहुँच सका। लेखक के विचारों से सपादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। हम श्री सोहनलाल कटारिया जी का लेख पाठकों के लाभार्थ यहाँ मूल रूप में दे रहे हैं। -सपादक

‘कुछ तड़प-कुछ झड़प’ के स्तभ लेखक ने परोपकारी जुलाई (प्रथम) 2015 के अंक में लिखा है- ‘‘गंजोटी के इस कार्यक्रम में ‘दलित आर्य परिवारों ने सोत्साह बढ़-चढ़कर प्रत्येक घर से वेद प्रकाश हुतात्मा के नाम पर बिना माँगे दान दिया।’ यह प्रसंग आज भी वहाँ चर्चित है। यह आनन्द की बात है।’’

आर्य परिवार दलित है तो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य भी होने ही चाहिये। मैंने पढ़ा है कि आर्यसमाज के संगठन में प्रारभिक काल में तथाकथित दलित वर्ग को सदस्य ही नहीं बनाया जाता था और जो व्यक्ति अपने नाम के साथ आर्य लिखता था, उसे ताना मारकर चिढ़ाते थे कि यह अपनी जात को छुपाता है, इससे बचने के लिये लोगों ने आर्य लिखना त्याग दिया (मनुस्मृति के उदाहरण देते थे, शर्मा, वर्मा, गुप्त, दास) यह ब्राह्मण धर्म की मानसिकता की गहरी पैठ है।

वर्तमान में आर्यसमाज के संगठन में अन्य संगठनों के अनुसार प्रवेश के लिये एक आवेदन भरना पड़ता है और अपनी आय का शंताश धन भी देना अनिवार्य है, यदि वह चन्दा नहीं देता है तो सदस्यता समाप्त हो जाती है, यही नहीं, यदि सदस्य संगठन के नियमों, सिद्धान्तों के विरुद्ध कार्य करने का दोषी  पाया जाता है तो उसे संगठन से निष्कासित भी कर दिया जाता है अर्थात् इस संगठन में जबतक व्यक्ति चन्दा देता है तबतक ही सदस्य रहता है- स्वयं भी संगठन को त्याग सकता है। इस प्रकार व्यक्ति के ‘सामाजिक’ संगठन से इसकी कोई निरन्तरता नहीं रहती है। लोगों को कहते सुन लेंगे कि ‘‘मेरे दादाजी आर्यसमाजी थे।’’

‘समाज’ का अर्थ है- व्यक्तियों का वह समूह जहाँ उनका आपस में खानपान, विवाह और दुःख-सुख में समिलित होना और एक दूसरे के कल्याण में तत्पर रहना होता हो। वर्तमान आर्यसमाज संगठन इन सामाजिक व्यवहारों को लेशमात्र भी नहीं निभाता है। यह भी ‘लॉयन, रोटेरी अथवा फिलेनथ्रफिक सोसायटी’ क्लब के समान ही कार्य कर रहा है। जब किसी समूह की सामाजिक आवश्यकतायें पूरी नहीं होगी तो उसके सदस्य-परिवार इस संगठन से क्यों जुड़ेंगे? दलित परिवारों का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

मानव समाज के समूह के निर्माण में विवाह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कड़ी है और इसके महत्व को समझकर सार्वदेशिक सभा के प्रयासों से आर्य विवाह एक विधान (अन्तरजातीय) पारित करवाया गया। इसका लाभ तो थोड़ा मिला परन्तु आज तो दुरुपयोग ही हो रहा है। आर्यों का सामाजिक समूह तो बना नहीं। प्रसिद्ध आर्यों की पुत्रियाँ इतर धर्मावलयिों में विवाही जा रही है और आर्यों से उनकी मूल जातीय समूह से युवतियाँ विवाही जा रही है, परिणाम आर्यों का समाज बनता ही नहीं है। एक आर्यसमाजी के देहान्त हो जाने पर उसके परिवार का कोई सदस्य आर्यसमाज के संगठन का सदस्य बने, यह अनिवार्य तो है नहीं, बाध्यता भी नहीं। मैं कितने ही प्रसिद्ध आर्यसमाजियों को जानता हूँ, जो महर्षि के जीवनकाल में, उनकी सेवा में रहे थे, आज उनके परिवार का कोई सदस्य आर्यसमाज का सदस्य नहीं है और न ही आर्यसमाज के नियमों, सिद्धान्तों का पालन करता है। अजमेर-मेरवाडा और मेवाड़ में कितने ही पौराणिकों, जैनियों को, जिन्हें स्वामी जी ने स्वयं यज्ञोपवीत धारण कराकर वैदिक धर्म आर्यसमाज में ही दीक्षित कराया, उनके वंशज अपने पूर्व धर्म समाज-जाति में ……. गये। आज से पचास-साठ वर्ष पूर्व के आर्य समाजियों (जिनका देहान्त हो गया है) के परिवार का कोई विरला ही सदस्य, वर्तमान आर्यसमाज संगठन का सदस्य है। बड़े-बड़े आर्यसमाज (अजमेर जैसे गढ़) की सभासदों की संया 15/20 भी नहीं है। साप्ताहिक सत्संग में यज्ञ पर बैठने के लिये चार व्यक्ति भी उपलध नहीं होते हैं।

आर्यसमाजी की परिभाषा, ‘आर्य विवाह एक्ट’ के अनुसार वह व्यक्ति – (क) किसी भी आर्यसमाज का सदस्य हो, (ख) खण्ड (क) में वर्णित व्यक्ति के कुटुब का सदस्य या आश्रित सबन्धी।

आर्य और आर्यसमाजी शब्द एक ही व्यक्ति के लिये प्रयुक्त होते हैं। वस्तुतः यह दोनों पर्यावाची शब्द है ‘‘आर्यसमाज’’ शब्द का शादिक अर्थ- ‘आर्यों का समाज’ है। और इस समाज वाले को आर्यसमाजी कहते हैं। भाषा और कानून दोनों ही दृष्टियों से इन दोनों शदों से एक ही व्यक्ति का बोध होता है। साधारण व्यवहार में व्यक्ति को अपना धर्म बताने के लिये किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती, केवल घोषणा पर्याप्त होती है। कोई कहे मैं हिदू हूँ, मुसलमान हूँ, आर्यसमाजी हूँ तो ऐसा ही मान लिया जाता है। बीसवीं शतादी के तीसरे दशक में आर्यसमाजी बनने और कहलाने में व्यक्ति शान गौरव समझताा था। जनगणना में भी आर्य समाजियों की अलग से गणना की गयी थी, 1931 की जनगणना के अनुसार राजपुताने में- आर्य 14073, सिक्ख 42943, जैन 320245, ईसाई 12725, हिन्दू 20606003, इनमें ब्राह्मण धर्म मानने वाले 9999142 थे परन्तु विडबना है कि काल के साथ हम अपनी संया गणना कराने से हट गये। तर्क हम ‘अल्पसंयक’ नहीं होना चाहते, हिन्दुओं के अन्तर्गत रहने में ही राष्ट्रहित होगा। यह नहीं मानते कि ‘हिन्दू’ ऐसा पौराणिक महासागर है, इसमें कितनी ही बाहर से आयी हुई जातियाँ- हूण, शक, यवन, सब इसमें डूब गये, आज उनका अस्तित्व नहीं रहा। इसी प्रकार आर्य भी इसी महासागर में बनते रहते हैं और डूबते रहते हैं– छटपटाते हुये, न इधर के न उधर के।

आर्यों के समाज के निर्माण के बारे में प्रसिद्ध आर्यसमाजी नेता यावर के श्री वैद्य रविदत्त जी कहा करते थे कि आर्यसमाज प्रवेश करने के पश्चात् उस व्यक्ति का, पिछला द्वार जहाँ से वह आता है, बन्द हो जाना चाहिये, तब ही आर्यसमाज बनेगा, अन्यथा पिछला द्वार खुला है, तो फिर उसे पुनः उसी द्वार से लौटने में विलब नहीं होगा। यद्यपि पं. भगवानस्वरूप जी न्यायूभूषण जैसे विद्वान् का मत सदा यही रहा कि आर्यसमाजियों केा अपने-अपने समाज-जाति में ही रहकर अपने समाज का सुधार करते रहना चाहिये। डॉ. धर्मवीर जी नेाी कितनी ही बार कहा है कि जातीय संगठन इतना मजबूत है कि इसे तोड़ना, असभव जैसा है जब महर्षि दयानन्द इसे नहीं तोड़ सके तो भविष्य में भी इसे तोड़ने वाला दिखायी नहीं देता। गुरुकुल विश्व विद्यालय में एक नरदेव को यज्ञोपवीत धारण कराया, स्नातकोत्तर भूषित करके पण्डित बनाया परन्तु सामाजिक व्यवहार में जब वह सांसारिक कर्म क्षेत्र में गृहस्थाश्रम जीवन यापन के लिये उतरता है तो उसी मूल दलित समाज में ही प्रवेश करना पड़ता है- राजनैतिक जीवन में लोकसभा की ‘दलित’ आरक्षित सीट से चुनाव लड़ता है और ललाट पर एक अमिट दलित की छाप लग जाती है। यज्ञोपवीत और स्नातक की उपाधि गौण, उसे ‘वर्तमान जाति’ से छुटकारा पाने के लिये दूसरा जन्म ही एक मात्र सपना रहता है।

परोपकारिणी सभा ने कुछ वर्ष पूर्व अन्तरजातीय विवाह के लिये ऋषि मेले के अवसर पर प्रयत्न किया था परन्तु निष्फल रहा- एक महिला ने कहा ‘‘मुझे ब्राह्मण लड़की ही चाहिये आर्यसमाज में तो नीच जाति के लोग भी आ जाते बताये जाते हैं।’’

अस्तु आर्यों को अपना सामाजिक संगठन करना होगा। अपनी अलग पहचान बनानी होगी ‘‘जातिवाद का अजगर देश को निगलने पर तुला बैठा, इसको समाप्त करना होगा।’’ पौराणिक सनातनी के अनुसार भेद नहीं होगा। तब ही हमारे स्त्संगों, उत्सवों, पर्वों के कार्यक्रमों में परिवार के सदस्य उपस्थित होंगे और महर्षि के उद्देश्यों को प्राप्त कर सकेंगे और आर्यसमाजी कहलाने में गौरव, शान का अनुभव कर सकेंगे। 95 वर्ष की आयु हो गयी है। आर्यसमाज में कई स्थानों में, सभासद, उपमन्त्री, मन्त्री, उपप्रधान, प्रधान और राजस्थान आर्य प्रतिनिधि सभा में उपमन्त्री रह चुका हूँ।

वर्तमान में तो आर्यों का समाज कहाँ है, ढूँढ़ता ही रहता हैं, कोई बतायेगा, कहाँ है?

– 89, पहाड़गंज, राजेन्द्र स्कूल के अजमेर, राज.

One thought on “आर्यों का समाज कहाँ है? – सोहनलाल कटारिया”

  1. लेख अच्छा लगा….
    परोपकारी पुष्तक में भी वाचन किया

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