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पुस्तक – परिचय पुस्तक – जिज्ञासा समाधान

पुस्तक – परिचय

पुस्तक – जिज्ञासा समाधान

लेखक आचार्य सत्यजित्

प्रकाशक वैदिक पुस्तकालय, दयानन्द आश्रम,

केसरगंज, अजमेर (राज.)

पृष्ठ ३१८            मूल्य – १०० रू. मात्र

जिज्ञासा पैदा होना मनुष्य की विचारशीलता का द्योतक है, जब व्यक्ति किसी विषय पर विचार करता है तब उस विषय में जो शंका उत्पन्न होती है, उस शंका का निवारण करने के लिए अपनी शंका को रखना, पूछना जिज्ञासा है, जानने की इच्छा है। जब व्यक्ति विचार शून्य होता है, अथवा जैसा जीवन चल रहा उसी से संतुष्ट है, तब व्यक्ति के अन्दर कुछ विशेष जानने की इच्छा नहीं रहती है। किन्तु विचारशील मनुष्य अवश्य जानने की इच्छा रखता है।

संसार को देख व्यक्ति इसकी विचित्रता के विषय में विचार करता है, इसके आदि-अन्त के विषय में सोचता है, यह अद्भुत संसार कैसे बना, किसने बनाया आदि, जिज्ञासा पैदा होती है। अपने आप को देख जिज्ञासाएं उभरने लगती हैं, मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, किसने मुझे इस शरीर में प्रवेश कराया है, क्यों कराया है आदि-आदि जिज्ञाएं मनुष्य मन में पैदा होती हैं। हमें दुःख क्यों होता है, दुःख का कारण क्या है, कर्म फल कौन देता है, ईश्वर है या नहीं, ईश्वर का स्वरूप कैसा है, क्या उसी ने संसार बनाया अथवा अपने आप बन गया ये सब जिज्ञाएं विचारशील मनुष्यों के अन्दर उत्पन्न होती रहती हैं। इन जिज्ञासाओं को शान्त कर व्यक्ति सन्तोष की अनुभूति करता है, अपने में ज्ञान की वृद्धि को अनुभव करता है।

जिज्ञासा समाधान की परम्परा वैदिक धर्मियों में विशेषकर पायी जाती है। आर्य समाज में जिज्ञासा समाधान का क्रम महर्षि दयानन्द के जीवन काल से लेकर आज पर्यन्त चला आ रहा है। परोपकारिणी सभा का मुख पत्र ‘परोपकारी’ पत्रिका इस कार्य को विशेष रूप से कर रही है। परोपकारी पत्रिका के अन्दर जिज्ञासा समाधान नामक स्तम्भ, वैदिक सिद्धान्तों में निष्णान्त, जिज्ञासा का समाधान करने मे सिद्धहस्त, वैदिक दर्शनों उपनिषदों व व्याकरण विद्या के धनी, उच्च आदर्शों को सामने रखकर चलने वाले, ऋषि के प्रति निष्ठावान् श्रद्धेय आचार्य सत्यजित् जी ने प्रारम्भ किया। इस स्तम्भ के प्रारम्भ होने से आर्य जिज्ञासुओं की जिज्ञासा शान्त होने लगी। जिज्ञासुओं ने सृष्टि विषय, पुनर्जन्म, ईश्वर, कर्मफल, आत्मा, यज्ञ, वृक्षों में जीव है या नहीं, मुक्ति विषय, वेद विषय आदि पर अनेकों जिज्ञासाएँ की जिनका समाधान आदणीय आचार्य सत्यजित् जी ने युक्ति तर्क व शास्त्रानुकूल किया।

परोपकारी में आये ये जिज्ञासा समाधान रूप लेखों को एकत्र कर पुस्तकाकार कर दिया है, जो कि जिज्ञासु पाठकों के लिए प्रसन्नता का विषय है। इस पुस्तक में ७६ विषय दिये गये हैं, जिनका समाधान पुस्तक में पाठक पायेंगे। समाधान सिद्धान्त निष्ठ होते हुए रोचक हैं, पाठक पढ़ना आरम्भ कर उसको पूरा करके ही हटे ऐसे समाधान पुस्तक के अन्दर हैं।

विद्वान् आचार्य लेखक ने अपने मनोभाव इस पुस्तक की भूमिका में प्रकट किये, ‘‘मानव स्वभाव से अधिक जिज्ञासु है। बाल्यावस्था की जिज्ञासा देखते ही बनती है। आयु के साथ मात्र जीवन जीने के विषयों तक जिज्ञासा सीमित नहीं रहती, वह भूत व भविष्य पर अधिक केन्द्रित होने लगती है, वह भौतिक वस्तुओं से आगे बढ़कर सूक्ष्म-अभौतिक, आध्यात्मिक विषयों पर होने लगती है। जिज्ञासा को उचित उपचार न मिले तो वह निराश करती है, जिज्ञासा भाव समाप्त होने लगता है। वैदिक धर्म में जिज्ञासा करने व उसका समाधान करने की परम्परा सदा बनाये रखी गई है। महर्षि दयानन्द व आर्य समाज ने इसका सदा पोषण किया है, इसे प्रोत्साहित यिा है।’’

यह पुस्तक केवल आर्य समाज के लिए ही नहीं अपितु प्रत्येक विचार वाले जिज्ञासा का समाधान अवश्य मिलेगा। पुस्तक साधारण पाठक से लेकर विद्वानों तक का ज्ञान पोषण करने वाली है। इसको जितना एक साधारण पाठक पढ़कर तृप्ति की अनुभूति करेगा, उतना ही एक विद्वान् भी इसका रसास्वादन कर तृप्ति की अनुभूति करेगा। हाँ इतना अवश्य है जिन किन्हीं ने किसी विषय पर अपनी कोई धारणा विशेष बना रखी है और इस पुस्तक में उनकी धारणा के अनुसार बात न मिलने पर निराशा अवश्य हो सकती है। इसलिए यदि व्यक्ति अपनी धारणा को एक ओर रख ऋषियों की धारणा व युक्ति तर्क के आधार पर इसका पठन करेगा तो वह भी सन्तोष प्राप्त करेगा, ऐसा मेरा मत है।

सुन्दर आवरण को लिए, अच्छे कागज व छपाई से युक्त यह पुस्तक प्रत्येक जिज्ञासु को पढ़ने योग्य है। सिद्धान्त को जानने की इच्छा वाले पाठक इस पुस्तक को प्राप्त कर अपनी जिज्ञासा का समाधान पाकर अवश्य ही लेखक का धन्यवाद करेंगे, इस आशा के साथ-

– आचार्य सोमदेव, पुष्कर मार्ग, ऋषि उद्यान, अजमेर।

महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के १२ वें समुल्लास में चारवाक, बौद्ध और जैन मत की समीक्षा की है। वहाँ चारवाक मत के जिन श्लोकों को उद्धृत किया है, उनमें से एक है- त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भण्डधूर्त्त निशाचराः। जर्भरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम्।। अर्थात् वेद के बनाने वाले भाँड, धूर्त और निशाचर अर्थात् राक्षस-ये तीन हैं। जर्भरी तुर्फरी इत्यादि पण्डितों के धूर्तता युक्त वचन हैं। इसकी समीक्षा में ऋषि लिखते हैं, ‘‘हाँ! भाँड धूर्त निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए हैं, उनकी धूर्तता है, वेदों की नहीं…..।’’ यहाँ तक तो बात समझ में आती हैं। आगे चारवाक इसी श्लोक में जर्भरी तुर्फरी को पण्डितों के धूर्तता युक्त वचन कह रहा है। जर्भरी तुर्फरी पर ऋषि जी ने पक्ष अथवा विपक्ष में कुछ नहीं लिखा। मुझे भी समझ नहीं पड़ रहा है कि यह जर्भरी तुर्फरी क्या बला है। कृपया, स्पष्ट करने का कष्ट करें कि यह क्या होती है? चारवाक ने उनका खण्डन किस दृष्टि से किया है और उस पर आर्ष मत क्या हो सकता है?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासाआचार्य सोमदेव जी! सादर नमस्ते!

महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के १२ वें समुल्लास में चारवाक, बौद्ध और जैन मत की समीक्षा की है। वहाँ चारवाक मत के जिन श्लोकों को उद्धृत किया है, उनमें से एक है-

त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भण्डधूर्त्त निशाचराः।

जर्भरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम्।।

अर्थात् वेद के बनाने वाले भाँड, धूर्त और निशाचर अर्थात् राक्षस-ये तीन हैं। जर्भरी तुर्फरी इत्यादि पण्डितों के धूर्तता युक्त वचन हैं।

इसकी समीक्षा में ऋषि लिखते हैं, ‘‘हाँ! भाँड धूर्त निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए हैं, उनकी धूर्तता है, वेदों की नहीं…..।’’ यहाँ तक तो बात समझ में आती हैं। आगे चारवाक इसी श्लोक में जर्भरी तुर्फरी को पण्डितों के धूर्तता युक्त वचन कह रहा है। जर्भरी तुर्फरी पर ऋषि जी ने पक्ष अथवा विपक्ष में कुछ नहीं लिखा। मुझे भी समझ नहीं पड़ रहा है कि यह जर्भरी तुर्फरी क्या बला है। कृपया, स्पष्ट करने का कष्ट करें कि यह क्या होती है? चारवाक ने उनका खण्डन किस दृष्टि से किया है और उस पर आर्ष मत क्या हो सकता है?

– जगदीश प्रसाद हरित, गिरदौड़ा, नीमच, म.प्र.

समाधान– आर्यो के आलस्य प्रमाद के कारण वेद मत न्यून होता चला गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि आर्यावर्त्त देश में अनेक-अनेक वेद विरुद्ध मत चल पड़े, जिनमें से चारवाक का वाममार्ग भी एक मत है। चारवाक एक वेद विरोधी नास्तिक व्यक्ति हुआ है। वह ईश्वर, जीव आदि को नहीं मानता था, पूर्वजन्म को नहीं मानता, इसी कारण उसने ऐसी बातें कहीं-

न स्वर्गो नाऽपवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः।

नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः।।    (१)

यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋण कृत्वा घृतं पिबेत्।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनम् कुतः।।         (२)

अर्थात् न कोई स्वर्ग है, न कोई नरक है, न कोई परलोक में जाने वाली आत्मा है और न वर्णाश्रम की क्रिया फलदायक है, इसलिए जब तक जीवे, तब तक सुख से जीवे । जो घर में पदार्थ न हो तो ऋण लेके आनन्द करे, ऋण देना नहीं पड़ेगा, क्योंकि जिस शरीर से खाया-पीया है, उसका पुनरागमन न होगा। फिर किससे कौन माँगेगा और कौन किसको देगा? इस प्रकार की बातें चारवाक ने समाज में फैलाई, जिससे वेदमत की हानि हुई। चारवाक के वेद की निंदा से जुड़े जिस श्लोक को आपने जिज्ञासा समाधानार्थ दिया है वह है-

त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भण्डधूर्त्त निशाचराः।

जर्भरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम्।।

अर्र्थात् नास्तिक चारवाक कहता है-‘‘वेद के बनाने वाले भाँड, धूर्त्त और निशाचर अर्थात् राक्षस-ये तीन हैं। ‘जर्भरी’ ‘तुर्फरी’ इत्यादि पण्डितों के धूर्त्ततायुक्त वचन हैं।’’

इस पर महर्षि दयानन्द समीक्षा देते हुए ‘‘जर्भरी तुर्फरी’’ युक्त मन्त्र का अर्थ व भावार्थ और इन शब्दों की निष्पत्ति लिखते हैं।

महर्षि की समीक्षा-‘‘अब देखिए चारवाक आदि ने वेदादि सत्यशास्त्र देखे, सुने वा पढ़े होते तो वेदों की निन्दा कभी न करते कि ‘‘वेद भाँड, धूर्त्त और निशाचरवत् पुरुष ने बनाए हैं।’’ ऐसा वचन कभी न निकालते। हाँ भाँड, धूर्त्त, निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए हैं, उनकी धूर्त्तता है, वेदों की नहीं, परन्तु शोक है चारवाक, आभाणक, बौद्ध और जैनियों पर कि इन्होंने मूल चार वेदों की संहिताओं को भी न सुना, न देखा और न किसी विद्वान् से पढ़ा, इसलिए नष्ट-भ्रष्ट बुद्धि होकर ऊटपटाँग वेदों की निन्दा करने लगे। दुष्ट वाममार्गियों की प्रमाण शून्य कपोल कल्पित भ्रष्ट टीकाओं को देखकर वेदों से विरोधी होकर अविद्या रूपी अगाध समुद्र में जा गिरे।’’

महर्षि ने यहाँ वेदों के टीकाकार महीधर जैसे को दोषी बताया है, जो कि पवित्र वेद ज्ञान का अर्थ अत्यन्त घृणित करके चला गया । महर्षि की यहाँ यह मान्यता  भी रही है कि यदि चारवाक आदि पक्षपात रहित हो वेदों की मूल संहिताओं को देखते पढ़ते तो कदापि वेदों के विषय में विपरीत बात न कहते।

अब ‘‘जर्भरी तुर्फरी’’ के विषय में लिखते हैं- इन शब्दों से युक्त मन्त्र इस प्रकार है-

सृण्येव जर्भरी तुर्फरीतू नैतोशेव तुर्फरी पर्फरीका।

उदन्यजेव जेमना मदेरुता मे जरारवजरं मरायु।।

– ऋ. १०.१०६.६

इस मन्त्र का अर्थ और इसके विषय में निरुक्त भाष्यकार श्री चन्द्रमणि विद्यालंकार जी ने जो लिखा है वह यहाँ लिखते हैं-

(सृण्या इव जर्भरी तुर्फरीतू) हे द्यावा पृथिवी के स्वामी जगदीश्वर! तू दात्री की तरह भर्त्ता और हन्ता है, (नैतोशा इव तुर्फरी पर्फरीका) तू शत्रुहन्ता राजकुमार की तरह दुष्टों को शीघ्र नष्ट करनेवाला और उन्हें फाड़ने वाला है, (उदन्यजा इव जेमना मदेरु) और तू चन्द्रमस अथवा समुद्र रत्न की तरह मन को जीतने वाला अर्थात् अपनी ओर खींचनेवाला तथा प्रसन्नताप्रद है। (ता मे मरायु जरायु) हे अश्वी! वह तू मेरे मरणधर्मा शरीर को (अजरम्) बुढ़ापे से रहित कर।

वेद का एक भी शब्द निरर्थक नहीं। जिनको वेद के शब्द निरर्थक व्यर्थ दिखते हैं, वे बाल बुद्धि हैं, जैसे चारवाक आदि नास्तिक लोग। इस मन्त्र में आये ‘जर्भरी’, ‘तुर्फरीतू’ आदि शब्दों के  विषय में आपने पूछा है, उनका अर्थ ऊपर मन्त्रार्थ में दे दिया है। जर्भरी का अर्थ है ‘भर्त्ता’ अर्थात् भरण-पोषण करने वाला। यह शब्द यङ्लुगन्त में ‘भृञ्’ धातु से ‘इ’ प्रत्यय करने से बनता है। और तुर्फरीतू का अर्थ है हन्ता, अर्थात् दुष्टों का हनन करने वाला। यह शब्द ‘तृफ’ हिंसायाम् धातु से ‘अरीतु’ प्रत्यय करने पर बनता है। इस प्रकार ये दोनों शब्द परमेश्वर के अर्थ वाचक हैं।

मन्त्र में ‘सृण्या इव’ कहा है, अर्थात् दात्री के तुल्य भरण-पोषण और हनन करने वाला है। दात्री दो तरह की होती है- भर्ती और हन्त्री अर्थात् वह दो काम करती है। चने आदि की खेती में पूर्वावस्था में शाक काटने से कृषि की वृद्धि होती है, परन्तु फसल पकने पर काटने से नष्ट हो जाती है। वह भरण तथा हनन दोनों काम करती है। इसी प्रकार परमेश्वर दोनों काम करता है-सज्जनों की रक्षा तथा दुर्जनों का नाश।

इस मन्त्र का अर्थ वेद भाष्यकार श्रीमान् हरिशरण सिद्धान्तालंकार जी इस प्रकार करते हैं- सृण्या इव= (द्विविधा सृणिर्भवति भर्ता च हन्ता च। नि. १३.५) अंकुश दो कार्य करता है, एक मत्तगज को अवस्थापित करने का और दूसरा अनिष्ट गातियों को रोकने का। इसी प्रकार ये पति-पत्नी जर्भरी= भरण करने वाले होते हैं और तुर्फरीतू= शत्रुओं के हन्ता होते हैं, वाञ्छनीय तत्त्वों का पोषण करने वाले और अवाञ्छनीयों को विनष्ट करने वाले हैं। नैतोषा इव= (नितोषयन्ति हन्ति) काम -क्रोध आदि शत्रुओं को विनष्ट करने वालों के समान तुर्फरी =(क्षिप्रहन्तारौ) शीघ्रता से शत्रुओं को विनष्ट करने वाले तथा पर्फरीका= (शत्रुणां विदारथितारौ) शत्रुओं को विदीर्ण करने वाले हैं, अथवा पात्र व्यक्तियों को धन से पूर्ण करने वाले हैं। (धनेन पूरथितारौ) उदन्यजा इव= (उदकजे इव रत्ने समुद्र्रे, नि. १३.५) समुद्रोत्पन्न कान्तियुक्त निर्मल रत्नों के समान जेमना= जयशील व मदेरु= सदा हर्षयुक्त। ऐसे पति-पत्नी जब माता-पिता बनते हैं तो ता= वे मे= मेरे जरायु= उस जरासे जीर्ण होनेवाले मरायु= मरणशील शरीर को अजरम्= अजीर्ण बनाते हैं, अर्थात् माता-पिता पूर्णरूपेण स्वस्थ शरीरवाले होते हैं तो सन्तान का भी शरीर शीघ्र जीर्ण व मृत हो जाने वाला नहीं होता।

इस प्रकार इस मन्त्र का विशेष अर्थ चारवाक आदि नास्तिक लोग न देखकर वेदों की निंदा में अपना जीवन नष्ट कर गये, और जो भी वेद को विपरीत भाव से देखेगा, उसका भी जीवन व्यर्थ ही जायेगा।

आपने ‘जर्भरी’ ‘तुर्फरीतू’ के विषय में पूछा कि ये क्या बला है, तो आपने इनके विशेष अर्थ देख लिए हैं कि ये बला नहीं, अपितु अपने अन्दर महान् अर्थ को लिए हुए हैं।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

 

ओ3म् जय जगदीश हरे… यह भजन पौराणिक जगत् में आरती के नाम से प्रचलित है। इसके रचनाकार महर्षि के घोरविरोधी पं. श्रद्धाराम फिलौरी हैं, किन्तु आर्य समाज की पुस्तकों में भी यह विद्यमान है। क्या भजन के रूप में इसे आर्य परिवारों में भी बोला जा सकता है? कृपया, समाधान करें।

आचार्य सोमदेव

जिज्ञासाआदरणीय सपादक जी,

सादर नमस्ते।

ओ3म् जय जगदीश हरे… यह भजन पौराणिक जगत् में आरती के नाम से प्रचलित है। इसके रचनाकार महर्षि के घोरविरोधी पं. श्रद्धाराम फिलौरी हैं, किन्तु आर्य समाज की पुस्तकों में भी यह विद्यमान है। क्या भजन के रूप में इसे आर्य परिवारों में भी बोला जा सकता है? कृपया, समाधान करें।

– विश्वेन्द्रार्य, आगरा

समाधान – (क) महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन काल में वेद की मान्यता के प्रचार को सर्वोपरि रखा। जो भी महर्षि को वेद विरुद्ध दिखता था, उसका प्रतिकार अवश्य करते थे। कभी महर्षि ने अपने जीवन में वेद विरुद्ध मत के साथ समझौता नहीं किया। जब कभी उनको लगता कि कुछ उनसे गलत हुआ है तो तत्काल अपनी गलती स्वीकार कर तथा उसे छोड़कर आगे बढ़ जाते थे।

जिस समय जयपुर में महर्षि पधारे तो उस समय वैष्णवों का मत अधिक प्रचलित था, उस मत को दबाने के लिए महर्षि दयानन्द ने शैव मत का प्रचार किया और इतना प्रचार किया कि वहाँ के मनुष्यों के गले में रुद्राक्ष तो आये ही आये, ऊँट-घोड़े-हाथी तक को भी रुद्राक्ष पहनाए जाने लगे थे। कालान्तर में महर्षि से किसी ने इस विषय में पूछा तो ऋषिवर ने बड़ी विनम्रता से कहा कि वह हमारी भूल थी, हमें ऐसा नहीं करना चाहिए था। महर्षि दयानन्द तो इस समाज की भूलों को दूर करने में लगे रहे और हम हैं कि इस महर्षि के  भूल रहित आर्य समाज में भूल डालते जा रहे हैं। आर्य समाज के वे तथा कथित उदारवादी सिद्धान्तों से समझौता करने में आगे बढ़-चढ़ कर भाग लेते दिखाई देते हैं। यज्ञ में गणेश पूजा हो रही है कोई बात नहीं, होने देते हैं। किसी की श्रद्धा है तो हम क्यों किसी की श्रद्धा को ठेस पहुँचावे? ये सोच उदारवादियों की है और तिलक लगाना, हाथ पर धागा बाँधना, यज्ञ के बाद प्रसाद के बहाने धन हरण करना आदि। इनके साथ पूर्णाहुति से पहले इस मन्त्र का पाठ किया जाता है-

पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

इसका भाव तो बहुत अच्छा है कि- वह भी पूर्ण है, यह भी पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण निकलता है। पूर्ण में से समपूर्ण निकाल लें तब भी पूरा रहे, पूरे में पूरा जोड़ दें तब भी पूरा रहे। यह विलक्षण बात परमेश्वर को पूर्ण दिखाने के लिए कहीं गई है, किन्तु यज्ञ की पूर्ण आहुति के समय इसको बोलना, पुरोहितों की स्वच्छन्दता है। वहाँ तो महर्षि दयानन्द ने ‘‘सर्वं वै पूर्णं स्वाहा’’ इस वाक्य से तीन बार पूर्ण आहुति का विधान किया है।

इसी प्रकार पूर्णाहुति के बाद बचे हुए घी को शतधार रूप बनाकर डालने के लिए भी मन्त्र खोज लिया है-

वसोः पवित्रमसि शतधारं वसोः पवित्रमसि सहस्रधारम्।

देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः पवित्रेण शतधारेण सुप्वा कामधुक्षः।।

– य. 1.3

इस मन्त्र में ‘‘शतधारम्’’ और ‘‘सहस्रधारम्’’ शबदों को देखकर यज्ञ की समाप्ति पर यज्ञ कुण्ड के ऊपर छेदों वाली छलनी बाँध देते हैं और उसमें घी डालकर शत सहस्र धार बनाते हैं, जो कि इस प्रकार का विधान यज्ञ कर्म में कर्मकाण्ड से जुड़ें ग्रन्थों में नहीं लिखा हुआ है। यहाँ इस मन्त्र में आये ‘शतधारम्’ और ‘सहस्रधारम्’ का अर्थ धारा न होकर दूसरा ही है। इन दोनों का महर्षि दयानन्द अर्थ करते हैं- (धारम्) असंखयात संसार का धारण करने वाला (परमेश्वर)। (सहस्रधारम्) अनेक प्रकार के ब्रह्माण्ड को धारण करने वाला (ईश्वर)। इन दोनों शबदों का अर्थ महर्षि ने इस ब्रह्माण्ड व समस्त चराचर जगत् को धारण करने वाला परमात्मा किया है और ये यज्ञ में घी की धारा लगाने वाले सौ धारा, हजार धारा को लेकर करते हैं जो कि उचित नहीं है।

उपरोक्त यज्ञ में महर्षि की बात को छोड़ स्वेच्छा से किये कर्मों के साथ यह ‘आरती ’ भी ऐसा ही कर्म है। इस ‘आरती’  गाने का निषेध हम इसलिए नहीं कर रहे कि यह ‘आरती’ महर्षि दयानन्द के विरोधी श्रद्धाराम फिलौरी ने लिखी है, निषेध तो इसलिए कर रहे हैं कि इसमें अयुक्त बातें लिखी हुई हैं।

‘जो ध्यावे फल पावे’- इस वाक्य को यदि वैदिक दृष्टि से देखेंगे तो युक्त नहीं हो पायेगा, क्योंकि वैदिक सिद्धान्त में ध्यान मात्र से फल नहीं मिलता, फल के लिए पुरुषार्थ (कर्म) करना पड़ता है। हाँ, यदि ध्यान सत्य परमेश्वर का विधिवत् किया गया है तो मन के शान्ति रूपी फल अवश्य मिलेगा, किन्तु यहाँ तो मूर्ति के सामने आरती गाई जा रही है, उसका फल क्या होगा, आप स्वयं निर्णय करें। आरती में आता है- ‘‘मैं मूरख खल कामी।’’ अब इस वाक्य को बोलने वाले क्या सब कोई मुर्ख, खल और कामी हैं? यहाँ तो इसको बड़े-बड़े सन्त गाते हैं। या तो संत इस बात पर ध्यान नहीं देते अथवा अपने को खल, कामी मानते होंगे। और भी ‘‘ठाकुर तुम मेरे’’ में ठाकुर शबद विष्णु के लिए प्रयोग में आता है, इसका एक अर्थ प्रतिमा भी है। विष्णु जो पौराणिक परमपरा में ब्रह्मा, विष्णु, महेश में से एक हैं। अब यदि ऐसा है तो यज्ञ के बाद वैदिक मान्यता वाले को यह आरती नहीं गानी चाहिए।

यज्ञ के बाद संस्कारों में महर्षि दयानन्द ने वामदेव गान करने को कहा है। यदि हम ऐसा करते हैं तो अति उत्तम है और यदि नहीं कर पा रहे तो उसके स्थान पर वैदिक सिद्धान्त युक्त यज्ञ प्रार्थना आदि भजन गा लेते हैं तो भी ठीक ही है। ‘यज्ञ प्रार्थना’ जैसे उत्तम गीत को छोड़ या उसके साथ-साथ यह अवैदिक आरती गाना युक्त नहीं है, इसलिए आर्य लोग इसको यज्ञ के बाद न अपनावें और न ही अपनी दैनिक नित्य कर्म आदि पुस्तकों में छापें।

पं. श्रद्धाराम फिलौरी जो कि इस आरती के लेखक हैं, के विषय में आर्य जगत् के इतिहास के मर्मज्ञ प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने ‘इतिहास की साक्षी’ पुस्तक में विस्तार से बताया है। इनके पत्रों को भी उस पुस्तक में दिया हुआ है, जिससे कि पाठकों को इनकी स्वाभाविक मनोवृत्ति का पता लगे।

वेद उपनिषदों के विषय में इनकी क्या मान्यता रही है, उसे हम यहाँ लिखते हैं- ‘‘संवत् 1932 में मुझे चारों वेदों को पढ़ने और विचारने का संयोग मिला तो यह बात निश्चित हुई कि ऋग्वेदादि चारों वेद भी यथार्थ सत्य विद्या का उपदेश नहीं करते, किन्तु अपरा विद्या को ही लोगों के मन में भरते हैं। हाँ, वेद के उपनिषद् भाग में कुछ-कुछ सत्यविद्या अर्थात् पराविद्या अवश्य चमकती है, परन्तु ऐसी नहीं कि जिसको सब स्पष्ट समझ लेवें। चारों वेद और उपनिषद् का लिखने वाला सत्यविद्या को जानता तो अवश्य था, परन्तु उसने सत्य विद्या को वेद में न लिखना व छिपा के लिखना इस हेतु से योग्य समझा दिखाई देता है कि उस समय के लोगों के लिए वही उपदेश लिखना श्रेष्ठ था।’’ (पुस्तक ‘इतिहास की साक्षी’ से उद्धृत)। इसमें स्पष्ट रूप से फिलौरी जी का वेद के प्रति मन्तव्य आ गया। उनकी मान्यता रही कि वेद सत्य उपदेश नहीं करता। जिसका वेद पर विश्वास नहीं, उसका ईश्वर पर कैसे हो सकता है और वह सिद्धान्त को कैसे ठीक-ठीक प्रतिपादित कर सकता है, जैसा कि उनकी आरती से ज्ञात हो रहा है। अस्तु।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर रोड, अजमेर।   

विश्व में प्रथम बार वेद ऑन लाईन

विश्व में प्रथम बार
वेद ऑन लाईन
आज विज्ञान का युग है, विज्ञान ने प्रगति भी बहुत की हैं, इस प्रगति में तन्त्रजाल (इन्टरनेट) ने लोगों की जीवन शैली को बदल-सा दिया है। विश्व के किसी देश, किसी भाषा, किसी वस्तु, किसी जीव आदि की किसी भी जानकारी को प्राप्त करना, इस तन्त्रजाल ने बहुत ही सरल कर दिया है। विश्व के बड़े-बड़े पुस्तकालय नेट पर प्राप्त हो जाते हैं। अनुपलबध-सी लगने वाली पुस्तकें नेट पर खोजने से मिल जाती हैं।
आर्य जगत् ने भी इस तन्त्रजाल का लाभ उठाया है, आर्य समाज की आज अनेक वेबसाइटें हैं। इसी शृंखला में ‘आर्य मन्तव्य’ ने वेद के लिए एक बहुत बड़ा काम किया है। ‘आर्य मन्तव्य’ ने वेद को सर्वसुलभ करने के लिए onlineved.com नाम से वेबसाइट बनाई है। इसकी निमनलिखित विशेषताएँ हैं-
1. विश्व में प्रथम बार वेदों को ऑनलाईन किया गया है, जिसको कोई भी इन्टरनेट चलाने वाला पढ़ सकता है। पढ़ने के लिए पी.डी.एफ. किसी भी फाईल को डाउनलोड करने की आवश्यकता नहीं है।
2. इस साईट पर चारों वेद मूल मन्त्रों के साथ-साथ महर्षि दयानन्द सरस्वती, आचार्य वैद्यनाथ, पं. धर्मदेव विद्यामार्तण्ड, पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार व देवचन्द जी आदि के भाष्य सहित उपलबध हैं।
3. इस साईट पर हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी तथा मराठी भाषाओं के भाष्य उपलबध हैं। अन्य भाषाओं में भाष्य उपलबध कराने के लिए काम चल रहा है, अर्थात् अन्य भाषाओं में भी वेद भाष्य शीघ्र देखने को मिलेंगे।
4. यह विश्व का प्रथम सर्च इंजन है, जहाँ पर वेदों के किसी भी मन्त्र अथवा भाष्य का कोई एक शबद भी सर्च कर सकते हैं। सर्च करते ही वह शबद वेदों में कितनी बार आया है, उसका आपके सामने स्पष्ट विवेचन उपस्थित हो जायेगा।
5. इस साईट का सर्वाधिक उपयोग उन शोधार्थियों के लिए हो सकता है, जो वेद व वैदिक वाङ्मय में शोधकार्य कर रहे हैं। उदाहरण के लिए किसी शोधार्थी का शोध विषय है ‘वेद में जीव’, तब वह शोधार्थी इस साईट पर जाकर ‘जीव’ लिखकर सर्च करते ही जहाँ-जहाँ जीव शबद आता है, वह-वह सामने आ जायेगा। इस प्रकार अधिक परिश्रम न करके शीघ्र ही अधिक लाभ प्राप्त हो सकेगा।
6. इस साईट का उपयोग विधर्मियों के उत्तर देने में भी किया जा सकता है। जैसे अभी कुछ दिन पहले एक विवाद चला था कि ‘वेदों में गोमांस का विधान है’ ऐसे में कोई भी जनसामान्य व्यक्ति इस साईट पर जाकर ‘गो’ अथवा ‘गाय’ शबद लिखकर सर्च करें तो जहाँ-जहाँ वेद में गाय के विषय में कहा गया है, वह-वह शीघ्र ही सामने आ जायेगा और ज्ञात हो जायेगा कि वेद गो मांस अथवा किसी भी मांस को खाने का विधान नहीं करता।
7. विधर्मी कई बार विभिन्न वेद मन्त्रों के प्रमाण देकर कहते हैं कि अमुक मन्त्र में ये कहा है, वह कहा है या नहीं कहा। इसकी पुष्टि भी इस साईट के द्वारा हो सकती है, आप जिस वेद का जो मन्त्र देखना चाहते हैं, वह मन्त्र इस साईट के माध्यम से देख सकते हैं।
इस प्रकार अनेक विशेषताओं से युक्त यह साईट है। इस साईट को बनाने वाला ‘आर्य मन्तव्य’ समूह धन्यवाद का पात्र है। वेद प्रेमी इस साईट का उचित लाभ उठाएँगे, इस आशा के साथ।
– आचार्य सोमदेव, ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

(ख) श्री कृष्ण जी का जन्म खीरे से, जिसमें पीछे खीरे की बेल भी जुड़ी होती है, क्यों किया जाता है?

(ख) श्री कृष्ण जी का जन्म खीरे से, जिसमें पीछे खीरे की बेल भी जुड़ी होती है, क्यों किया जाता है?

आशा है, आप मेरे प्रश्नों का उत्तर देकर मुझे सन्तुष्ट करेंगे। जन्म करने वाले मेरी जिज्ञासा का समाधान नहीं कर सके।

– आशा आर्या, 14, मोहन मेकिन्स रोड, डालीगंज, लखनऊ-226020, उ.प्र

(ख) कृष्ण को खीरे की बेल से पैदा करवाना भी इनके अज्ञान का द्योतक है। कभी भी मनुष्य या अन्य प्राणी किसी बेल से उत्पन्न नहीं होते, न ही हो सकते। मनुष्यादि सदा माता-पिता के संयोग से पैदा होते हैं (आदि सृष्टि की रचना को छोड़कर)। सृष्टि विरुद्ध पैदा करने की लीला पुराणों में भरी पड़ी है और ये लोग वेद को छोड़ पुराणों को अधिक स्वीकारते हैं।

भागवत पुराण में सृष्टि रचना- विष्णु की नाभि से कमल, कमल से ब्रह्मा और ब्रह्मा के दाहिने पैर के अँगुठे से स्वायमभुव, और बायें अँगूठे से शतरूपा रानी। ललाट से रूद्र और मरीचि आदि दश पुत्र, उनसे दश प्रजापति। दक्ष की तेरह लड़कियों का विवाह कश्यप से। उनमें से दिति से दैत्य, दनु से दानव, अदिति से आदित्य, विनिता से पक्षी, कद्रू से सर्प, सरमा से कुत्ते-स्याल आदि और अन्य स्त्रियों से हाथी, घोड़े, ऊँट, गधा, भैंसा, घासफूस और बबूल आदि वृक्ष काँटे सहित उत्पन्न हुए। ये बिना सिर-पैर की बातें इनके सबसे अधिक प्रचलित भागवत पुराण की हैं। मनुष्य से इन्होंने गधे, घोड़े पैदा करवा दिये, काँटों वाले वृक्ष पैदा करवा दिये तो खीरे की बेल से कृष्ण जी को पैदा करवा देना इनके लिए कौन-सी बड़ी बात है।

ऐसा ही देवी भगवत का गपोड़ा है- जब देवी की इच्छा हुई कि संसार बनाना है, तब उसने अपना हाथ घिसा। उससे हाथ में छाला हुआ। उसमें से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। उससे देवी ने कहा कि तू मुझसे विवाह कर। ब्रह्मा ने कहा कि तू मेरी माता लगती है, मैं तुझसे विवाह नहीं कर सकता। ऐसा सुन माता को क्रोध चढ़ा और लड़के को भस्म कर दिया और फिर हाथ घिस कर उसी प्रकार दूसरा लड़का उत्पन्न किया, उसका नाम विष्णु रखा। उससे भी उसी प्रकार कहा। उसने भी न माना तो उसको भी भस्म कर दिया। पुनः इसी प्रकार  तीसरे लड़के को उत्पन्न किया और उसका नाम महादेव रखा और उससे कहा कि तू मुझसे विवाह कर। महादेव बोला कि मैं तुझसे विवाह नहीं कर सकता, तू दूसरा स्त्री का शरीर धारण कर। वैसा ही देवी ने किया। तब महादेव ने कहा कि ये दो ठिकाने राख-सी क्या पड़ी है? देवी ने कहा- ये तेरे भाई हैं, इन्होंने मेरी आज्ञा नहीं मानी, इसलिए भस्म कर दिये। महादेव ने कहा कि मैं अकेला क्या करूँगा, इनको जीवित कर दे और दो स्त्री उत्पन्न और कर, तीनों का विवाह तीनों से होगा। ऐसा ही देवी ने किया। फिर तीनों का तीनों के साथ विवाह हुआ। ये पोप लीला पुराण की है, इन पुराणवादियों के देवता हाथ से रगड़े हुए छाले से पैदा हुए हैं, कहीं विष्णु की नाभि से कमल और उससे ब्रह्मा तो खीरे की बेल से कृष्ण को पैदा ये कर दें तो कौन-सी बड़ी बात है!!! तात्पर्य है, जो आपने पूछा है, वह सब इन मिथ्यावादी, पुराणवादियों की लीला है, इसमें तथ्य कुछ भी नहीं है।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

श्री कृष्ण को भगवान मानने वाले उनका जन्म क्यों करते हैं, अन्य किसी देवी-देवता का जन्म क्यों नहीं करते?

जिज्ञासाऋषि उद्यान के सभी विद्वानों को मेरा सादर नमस्ते। ईश्वर आप सबको लबी आयु प्रदान करे। आप अपने जैसे विद्वानों को तैयार करें, ताकि जिज्ञासा-समाधान की शृंखला निरन्तर चलती रहे। मेरी जिज्ञासा है-

(क) श्री कृष्ण को भगवान मानने वाले उनका जन्म क्यों करते हैं, अन्य किसी देवी-देवता का जन्म क्यों नहीं करते?

– आशा आर्या, 14, मोहन मेकिन्स रोड, डालीगंज, लखनऊ-226020, उ.प्र.

समाधान– (क) वैदिक शुद्ध ज्ञान के अभाव में आज विश्वभर में पाखण्ड, अन्धविश्वास का बोलबाला है। इसकी चपेट से वही बच सकता है, जो महर्षि दयानन्द के दिखाये विशुद्ध वैदिक ज्ञान को अपना लेता है। केवल भारत में ही पाखण्ड, अन्धविश्वास नहीं है, अपितु जो देश अपने को विकसित व शिक्षित मानते हैं, उनके वहाँ भी यह सब आडमबर है। इस पाखण्ड में प्रायः सृष्टि विरुद्ध कपोल कल्पनाएँ ही होती हैं, जो कि मानव के उत्थान में बाधक ही बनती हैं। ईसाई लोगों की सृष्टि विरुद्ध मान्यता- ‘‘ईश्वर ने भूमि की धूल से आदम को बनाया और नथुनों में जीवन का श्वास फूँका और आदम जीवता प्राण हुआ और परमेश्वर ईश्वर ने ‘अदन’ में पूर्व की ओर एक ‘बारी’ लगाई और उस आदम को, जिसे उसने बनाया था, उसमें रखा।। और बारी (बाड़ी=रहने का स्थान) के मध्य में जीवन का पेड़ और भले-बुरे के ज्ञान का पेड़ भूमि में उगाया।। तौ.उ.पर्व 2. आ.7-9 इस बिना सिर-पैर की बात को ईसाई लोग मानते हैं।

और भी देखिए- परमेश्वर ईश्वर ने आदम को बड़ी नींद में डाला और वह सो गया। तब उसने उसकी पसलियों में से एक पसली निकाली और उसकी सन्ति मांस भर दिया (पसली के स्थान पर मांस भर दिया) और परमेश्वर ईश्वर ने आदम की उस पसली से एक नारी बनाई और उसे आदम के पास लाया। (तौ.उ.प. 2/आ 21-22) यहाँ भी पसली से स्त्री की उत्पत्ति सृष्टि विरुद्ध कथन है। महर्षि दयानन्द ने इस पर समीक्षा की है- ‘‘जो ईश्वर ने आदम को धूली से बनाया, तो उसकी स्त्री को धूली से क्यों नहीं बनाया? और जो नारी को हड्डी से बनाया, तो आदम को हड्डी से क्यों नहीं बनाया? और जैसे नर से निकलने से नारी नाम हुआ, तो नारी से नर नाम भी होना चाहिए…..।

देखो विद्वान् लोगो! ईश्वर की कैसी ‘पदार्थ विद्या’ अर्थात् ‘फिलासफी’ चलती है? जो आदम की एक पसली निकालकर नारी बनाई, तो सब मनुष्यों की एक पसली कम क्यों नहीं होती? और स्त्री के शरीर में एक पसली होनी चाहिए, क्योंकि वह एक पसली से बनी हुई है। क्या जिस सामग्री से जगत् बनाया, उस सामग्री से स्त्री का शरीर नहीं बन सकता था? इसलिए यह बाइबल का सृष्टिक्रम सृष्टि विद्या विरुद्ध है।’’

ऐसी ही सृष्टि विद्या विरुद्ध बातों को मुस्लिम मानते हैं, इनकी पुस्तकें भी व्यर्थ के चमत्कारों से भरी हुई हैं।

जैसे अन्य मतमतान्तरों में अविद्या के कारण पाखण्ड है, ऐसा ही पाखण्ड पुराणों को मानने वालों में है। कृष्ण के जन्म की जो आप पूछ रही हैं कि उनका ही जन्म क्यों करते-कराते हैं, यह इन जन्म कराने-करने वालों की बाल बुद्धि का द्योतक है, क्योंकि श्री कृष्ण जी का जन्म तो लगभग 5 हजार वर्ष पूर्व हुआ था। उस समय उन्होंने मानव कल्याण का कार्य किया था, समाज से देशद्रोही तत्त्वों को दूर कर समाज और देश को संगठित किया था। आज प्रति वर्ष इन पाखण्डों को मानने वालों की कृष्ण जी के जन्म कराने वाली बात ऐसी ही समझें, जैसे गुड्डे-गुड्डियों का खेल।

आपने पूछा- अन्य देवी-देवता का जन्म क्यों नहीं करवाते तो इस पर हमारा विचार है कि करवाने को तो ये अन्य का भी करवा सकते हैं, फिर भी कृष्ण जन्म कराने में इनको गप्फा अधिक मिलता है। कृष्ण जन्म के समय बधाइयों के नाम पर जनता को खूब लूटा जाता है, जिस प्रकार रामलीला करते हुए सीता विवाह कन्यादान के नाम पर लोगों को ठगते हैं। यह सब स्वार्थ के वशीभूत हो कर किया जाता है, जो कि अवैदिक है।

पुस्तक – परिचय पुस्तक का नाम – वेद प्रतिष्ठा लेखक –आचार्य सत्यजित्

पुस्तक – परिचय

पुस्तक का नाम वेद प्रतिष्ठा

लेखक आचार्य सत्यजित्

प्रकाशकवैदिक पुस्तकालय, दयानन्द आश्रम केसरगंज, अजमेर- 305001

पृष्ठ 334     मूल्य – 100/- रु. मात्र

समस्त ऋषियों ने वेद की प्रतिष्ठा को सर्वोपरि रखा है और वेद को स्वतः प्रमाण माना है। वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है, ईश्वर प्रदत्त होने से यह निर्भ्रम और पूर्ण ज्ञान है। वेद मानव मात्र के कल्याण का उपदेश करता है, क्योंकि सर्व कल्याणमय तो ईश्वर ही है, उसके द्वारा बताया गया ज्ञान भी कल्याणमय क्यों न होगा? वेद को मानव मात्र के हितार्थ ईश्वर ने आदि सृष्टि में उत्पन्न किया। आदि सृष्टि से लेकर जब तक मनुष्य समाज वेद के अनुसार अपने जीवन के चलाता रहा, तब तक मानव का आध्यात्मिक भौतिक विकास होता रहा, क्योंकि वेद ही एक ऐसा ज्ञान है, जिसमें सब प्रकार की सत्य विद्याएँ हैं। उन विद्याओं से व्यक्ति अपने अध्यात्म को चरम तक बढ़ा सकता है, ऐसे ही भौतिक विकास को भी चरम तक ले जा सकता है।

वेद स्वतःप्रमाण है, वेद को प्रमाणित करने के लिए किसी और प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, जैसे सूर्य को दिखाने के लिए किसी अन्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती। इतना सब होते हुए भी कुछ लोग वेद को ठीक से समझ नहीं पाते, वेद के न समझने में वेद दोषी नहीं है, अपितु वह व्यक्ति ही दोषी है, जो वेद की शैली को नहीं समझा पा रहा। उसके पीछे उसका अपना अज्ञान, हठ, स्वार्थसिद्धि व नास्तिकपना हो सकता है।

आर्य समाज ऋषि की मान्यतानुसार वेद को सर्वोपरि मानता है, वेद के प्रति श्रद्धा रखता है। आर्य समाज में भी कुछ ऐसे व्यक्ति हैं जो अपने को कहते तो आर्य समाजी हैं, किन्तु वेद के प्रति अन्यथा भाव रहते हैं। उनमें से दो व्यक्ति श्री उपेन्द्रराव व श्रीआदित्यमुनि जी थे, दोनों वेद को न तो ईश्वरकृत मानते और न ही वेद को समस्त सृष्टि के लिए मानते। इन लोगों ने वेद पर लगभग 100 आक्षेप किये थे, जिनका उत्तर कुछ विद्वान्  जैसे-तैसे देते रहे अथवा कुछ चुप रहे। जो विद्वान् जैसे-तैसे उत्तर देते रहे, उनसे ये दोनों चुप नहीं हुए, अपितु और अधिक मुखर होकर वेद के विरुद्ध बोलते-लिखते चले गये।

उपेन्द्ररावजी व आदित्यमुनि जी की बोलती तब बन्द हुई, जब परोपकारी पत्रिका में वेद व ऋषि के प्रति आगाध श्रद्धा रखने वाले, ऋषि के मन्तव्यों को जीवन में जीने वाले दर्शनशास्त्रों के मर्मज्ञ, साधनामय जीवन के धनी आचार्य श्री सत्यजित्जी ने ‘‘चतुर्वेद विद्आमने-सामने’’ लेख माला चला कर उनके एक-एक प्रश्न का उत्तर देना प्रारमभ किया। जब परोपकारी में इनको उत्तर दिये जाने लगे, तब ये दोनों बहाने बनाकर बचने लगे, आक्षेप न लगाकर अपने बचाव करने में भलाई समझने लगे। आचार्य श्री सत्यजित् जी की इन लेखमालाओं का प्रभाव यह हुआ कि वे दोनों इन उत्तरों की समालोचना तो दूर, अपनी रक्षा भी नहीं कर पाये। परोपकारी के ‘‘चतुर्वेद विद्आमने-सामने’’ लेखों से उन वेद प्रेमिओं को अपार सन्तोष हुआ जो इनके आक्षेपों से आहत होते रहते थे।

वेद प्रेमियों के लिए प्रसन्नता की बात यह है कि वेद पर किये गये जिन आक्षेपों के उत्तर आचार्य सत्यजित् जी ने दिये, वे उन सब आक्षेपों और उनके उत्तरों को इकट्ठा कर ‘‘वेदप्रतिष्ठा’’ नाम से पुस्तकाकार दे दिया है। इस पुस्तक में उपेन्द्ररावजी द्वारा किये गये 100 प्रश्नों में 28 प्रश्नों के उत्तर दिये गये हैं। पुस्तक में 39 विषय व तीन परिशिष्ट हैं। पाठक इस पुस्तक को पढ़कर वेद की प्रतिष्ठा के गौरव को अनुभव करेंगे। यथार्थ में यह पुस्तक वेद को प्रतिष्ठित करने वाली मिलेगी।

पुस्तक में लेखक आचार्य ने अपने विचार रखे- ‘‘पिछले कुछ दशकों से वेदों को अप्रतिष्ठित करने के प्रयास नये तरीके से किये, मूल आक्षेप तो पूर्ववत् ही थे। इनके समाधान भी किये गये, प्रवचनों, लेखों व पुस्तकों के माध्यम से ये समाधान प्रायः परमपरागत शैली में रहे। आक्षेपकों ने यह दुष्प्रचारित किया कि ये समाधान हमारे आक्षेपों का उचित समाधन करने में असमर्थ हैं। आक्षेपकों ने दुराग्रह पूर्वक हठ कर रखी थी कि आक्षेपों के उत्तर मात्र वेद व तर्क युक्ति से दिया जाएँ, अन्य ग्रन्थों का प्रमाण उन्हें स्वीकार्य नहीं है। ऐसे में विचार हुआ कि क्यों न इन्हें इन्हीं की शैली में उत्तर दिये जाए। साथ ही इनकी इस शैली को इन पर भी लागू करके आक्षेपों की भी समालोचना की जाए। इन्हें इसका बोध कराया जाए कि तर्क-युक्ति की बातें करने वाले आप लोग अपने विचारों-निर्णयों-आक्षेपों में कितने अधिक तर्क हीन व अयुक्ति युक्त हो जाते हैं। उन्हें भी तर्क युक्ति के आधार पर अपने गिरेबान में झँकवाया जाए, अपने मुख को दर्पण में दिखवाया जाए।’’

यह पुस्तक वेद की प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए है, जिसे पढ़कर पाठक लेखक की वेद के प्रति श्रद्धा व उनकी बौद्धिक क्षमता का अनुभव करेंगे। विशेषकर यह पुस्तक वेद प्रेमियों को अत्यधिक रुचिकर लगेगी, वेद के प्रति अधिक श्रद्धा पैदा करनेवाली लगेगी, वेद की शैली का परिचय कराने वाली मिलेगी। सुन्दर आवरण से युक्त, उत्तम छपाई व कागजयुक्त यह पुस्तक प्रत्येक वेद प्रेमी के लिए पठनीय है। गुरुकुलों व पुस्तकालयों के लिए आवश्यक है। आशा है, इस पुस्तक को प्राप्त कर पाठक वेद की प्रतिष्ठा बढ़ाएँगे।

-आ. सोमदेव, ऋषि उद्यान, अजमेर

 

 

(ख) अंजली में जल लेकर जल प्रसेचन हेतु पहले मन्त्र से यज्ञ वेदी की पूर्व दिशा में, दूसरे मन्त्र से पश्चिम दिशा में तथा तीसरे मन्त्र से उत्तर दिशा में जल सींचते हैं। इस प्रकार दक्षिण दिशा जल सिंचन से शेष रह जाती है। दक्षिण दिशा में जल तभी सींचा जाता है, जब अगले मन्त्र ‘ओ3म् देव सवितः…. नः स्वदतु।’ को बोलकर वेदी के चारों ओर जल प्रसेचन किया जाता है। जिज्ञासा यह है कि प्रथम बार में दक्षिण दिशा क्यों छोड़ दी जाती है?

(ख) अंजली में जल लेकर जल प्रसेचन हेतु पहले मन्त्र से यज्ञ वेदी की पूर्व दिशा में, दूसरे मन्त्र से पश्चिम दिशा में तथा तीसरे मन्त्र से उत्तर दिशा में जल सींचते हैं। इस प्रकार दक्षिण दिशा जल सिंचन से शेष रह जाती है। दक्षिण दिशा में जल तभी सींचा जाता है, जब अगले मन्त्र ‘ओ3म् देव सवितः…. नः स्वदतु।’ को बोलकर वेदी के चारों ओर जल प्रसेचन किया जाता है।

जिज्ञासा यह है कि प्रथम बार में दक्षिण दिशा क्यों छोड़ दी जाती है?

उपरोक्त के अतिरिक्त यह भी जिज्ञासा है कि दैनिक कर्म विधि समबन्धित पुस्तकों के कतिपय लेखकों ने जल प्रसेचन की प्रक्रिया निमनानुसार समपन्न करने हेतु निर्देशित किया हैः-

पूर्व में दक्षिण से उत्तर की ओर,

पश्चिम में दक्षिण से उत्तर की ओर तथा

उत्तर में पश्चिम से पूर्व की ओर

जल प्रसेचन करना चाहिये- ऐसा विधान क्यों किया गया है?

– आर.पी. शर्मा, मन्त्री, आर्यसमाजनईमण्डी, दयानन्दमार्ग, मुजफरनगर, उ.प्र.

समाधान-(ख) पूर्व में भी बताया कि यज्ञ कर्म क्रिया पूर्व और उत्तर की ओर होती है, अर्थात् पश्चिम से पूर्व और दक्षिण से उत्तर। यह प्रक्रिया ब्राह्मण ग्रन्थ में कही है-

‘‘प्राञ्च्युदञ्चि वा कर्माण्यनुतिष्ठेरन्।।’ ’जल प्रसेचन में भी इसी नियम का पालन किया है। पहले पूर्व की दिशा में दक्षिण से उत्तर जल प्रसेचन, फिर पश्चिम दिशा में दक्षिण से उत्तर, पश्चात् उत्तर दिशा में पश्चिम से पूर्व की ओर सिंचन, अन्त में उत्तर और पूर्व के कोने से प्रारमभ कर दक्षिण दिशा में सेचन करते हुए उसी स्थान पर पूर्ण करना जहाँ से चारों ओर जल सेचन प्रारमभ किया था। ऐसा करने पर ही शास्त्र के अनुसार सेचन होगा, अन्यथा क्रिया शास्त्रानुसार न होगी। आपने जो पूछा ऐसा विधान क्यों कर रखा है, तो इसका तो यह उत्तर हो गया।

अब आपकी इस बात पर विचार करें कि दक्षिण दिशा क्यों छोड़ दी? एक दृष्टि से देखें तो दक्षिण दिशा को भी छोड़ा नहीं है, सेचन तो वहाँ भी हुआ है। फिर भी जिस दृष्टि से छोड़ना दिख रहा है, उसको देखते हैं। यहाँ तीन दिशाओं के लिए एक-एक मन्त्र है, किन्तु चौथी दिशा के लिए पृथक् मन्त्र न हो कर चारों दिशाओं के लिए सामान्य मन्त्र दिया है। यहाँ देखने की बात यह है कि अपने यहाँ तीन बार को बहुलता का प्रतीक माना है, तीन बार पूर्ण आहुतियाँ, तीन बार आचमन, तीन समिधाएँ आदि-आदि। यहाँ भी तीन मन्त्रों को बहुलता का प्रतीक मानेंगे तो यह विचार नहीं बनेगा कि चौथी दिशा क्यों छोड़ दी और चौथी दिशा में जल सेचन तो हुआ ही है।

पाठकों को दृष्टि में रखते हुए यह भी यहाँ लिखते हैं कि जल सेचन का उद्देश्य क्या है? ‘‘यजुर्वेद 23.62 के अनुसार यज्ञ इस भुवन की नाभि, बीच है, केन्द्र है। इसके चारों ओर जल छिड़कने का अर्थ हमारी यह घोषणा है कि जैसे जल पवित्र है, शान्तिप्रद है, सुखदायक है, भेषज है, इषुरूप और जग के लिए जीवनदाता है, वैसे ही यह अग्निहोत्र भी जगत् के लिए पवित्र कारक, शान्तिदायक, सुखदायक, औषधरूप, रोगनिवारक, वर्षा के द्वारा प्रजा की दुर्भिक्ष से रक्षा करने वाला और औषधि, वनस्पति एवं समूचे प्राणिजगत् का जीवनदाता है। इस प्रकार जल के साम्य से यज्ञ की सर्वोत्कृष्टता को घोषित करना ही जल सिंचन का उद्देश्य है। जैसे जल अपनी विविध शक्तियों से जगत् का रक्षक है, वैसे ही यज्ञ भी अपनी विविध शक्तियों से जगत् का  रक्षक है….।’’  स्वामी मुनिश्वरानन्द जी और भी-

  1. ‘‘……जीव जन्तु यज्ञाग्नि के पास न पहुँचने पावें।
  2. 2. दूसरा कारण यह है कि यज्ञ की आहुतियाँ लगाने पर कुछ ऐसी गैसें भी पैदा होती हैं, जिनका समीपस्थ जल में शान्त होना आवश्यक है।
  3. 3. तीसरा कारण यह है कि हमने अग्न्याधान के मन्त्र से यज्ञ को भूः भूवः स्वः का रूप दिया, अर्थात् तीनों लोकों का स्वरूप माना है। ब्रह्माण्ड में प्रकाश लोक अर्थात् द्युलोक और पृथिवी लोक के बीच में जल का मार्ग है, अतः यज्ञ कुण्ड में जलती हुई अग्नि को प्रकाश लोक मानो और जहाँ पृथिवी पर यजमान बैठा है, उसे पृथिवी लोक मानो, तब उन दोनों के मध्य जल का मार्ग दिखाना आवश्यक है।
  4. 4. पृथिवी के बीच भी भौम अग्नि रहती है और पृथिवी के चारों ओर पानी भरा है, अतः पृथिवी रूप यज्ञ कुण्ड के गर्भ में भौम अग्नि के रूप में यज्ञाग्नि है और पृथिवी रूप यज्ञकुण्ड के चारों ओर जल दिखाना है।’’ – आचार्य विश्वश्रवा

इन सब में जो युक्ति युक्त और ठीक संगति लगती हो, उसको ग्रहण कर लें और जो उचित न लग रही हो, उसको विचार कर ठीक कर लें या छोड़ दें। अस्तु ।

– ऋषिउद्यान, पुष्करमार्ग, अजमेर

 

(क) हवन (अग्निहोत्र/ होम) में दो आघाराहुतियाँ दी जाती हैं, पहली ‘ओ3म् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये इदन्न मम।’ यज्ञ कुण्ड के उत्तर भाग में तथा दूसरी ‘ओ3म् सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय इदन्न मम।’ यज्ञ कुण्ड के दक्षिण भाग में दी जाती है। जिज्ञासा यह है कि ये आहुतियाँ पूर्व या पश्चिम दिशा में अथवा यज्ञ कुण्ड के मध्य भाग में क्यों नहीं देनी चाहिये?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासाआदरणीय आचार्य जी, नमस्ते। निवेदन है कि आपके स्तर से परोपकारी पत्रिका के माध्यम से जिज्ञासा समाधान के अन्तर्गत समाज के विभिन्न जागरूक सदस्यों की जटिल जिज्ञासाओं का सटीक एवं सन्तुष्टि कारक समाधान किया जाता है, जिसके लिये हम आपके आभारी है। कृपया, पत्रिका के माध्यम से हमारी निमनांकित जिज्ञासाओं का युक्ति युक्त समाधान देने की कृपा करें-

(क) हवन (अग्निहोत्र/ होम) में दो आघाराहुतियाँ दी जाती हैं, पहली ‘ओ3म् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये इदन्न मम।’ यज्ञ कुण्ड के उत्तर भाग में तथा दूसरी ‘ओ3म् सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय इदन्न मम।’ यज्ञ कुण्ड के दक्षिण भाग में दी जाती है।

जिज्ञासा यह है कि ये आहुतियाँ पूर्व या पश्चिम दिशा में अथवा यज्ञ कुण्ड के मध्य भाग में क्यों नहीं देनी चाहिये?

– आर.पी. शर्मा, मन्त्री, आर्यसमाजनईमण्डी, दयानन्दमार्ग, मुजफरनगर, उ.प्र.

समाधान– (क) यज्ञ कर्म कर्मकाण्ड का विषय है। यज्ञ कर्म में अनेक क्रियाएँ ऐसी हैं, जिनका सीधा-सीधा प्रयोजन हमें ज्ञात नहीं हो पाता। इस विषय में महर्षि दयानन्द का भी कोई उल्लेख नहीं मिलता। हाँ, सूत्रात्मक रूप से संक्षेप में ब्राह्मण ग्रन्थों में मिलता है, उसको हम कितना समझ पाते हैं, यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है।

आपके प्रश्न भी इसी विषय को लेकर हैं। हमने यहाँ जो विद्वानों ने संगति लगाने का प्रयास किया है, उसको लिखते हैं। पहला जो प्रश्न आपका है, उसके विषय में महर्षि दयानन्द ने दिशानिर्देश नहीं किया है, वहाँ तो यज्ञ कुण्ड के उत्तर भाग, दक्षिण भाग का निर्देश है। यजमान के बैठने के दो स्थान कहे हैं, यजमान या तो पश्चिम में पूर्वाभिमुख बैठे अथवा दक्षिण में बैठ  उत्तराभिमुख रहे। पहली स्थिति में तो यदि सूर्य आधार वाली दिशा लेंगे तो उत्तर-दक्षिण ठीक बनता है, किन्तु यदि दूसरी स्थिति दक्षिण में बैठ उत्तराभिमुख है, तो उत्तर-दक्षिण न होकर पश्चिम-पूर्व बनेगा। इन दिशाओं का निरूपण तो हमने कर लिया है, पर महर्षि ने तो यज्ञ कुण्ड का उत्तर-दक्षिण भाग कहा है।

महर्षि दयानन्द ने जो यजमान के बैठने का विधान किया है, शास्त्र के आधार पर किया है। यज्ञ कर्म में जो अभिधारण क्रिया की जाती है, वह पश्चिम से पूर्व मुख वा उत्तराभिमुख होने पर ही हो पाती है। आपने जो पूछा कि इन दो आहुतियों को मध्य भाग में क्यों नहीं दे देते, तो इसका सामान्य-सा उत्तर तो यह है कि इसका निर्देश मध्य में न करके उत्तर-दक्षिण भाग में किया है, इसलिए मध्य भाग में नहीं देते।

अब जो कुछ अन्य विद्वानों ने इस विषय में कहा, वह लिखते हैं- ‘‘प्रकाश देने वाली प्रधानतया चार वस्तुएँ संसार में हैं- अग्नि, सोम, प्रजापति और इन्द्र। अग्नि तत्त्व उत्तर में और सोम दक्षिण में है, अतः उत्तरायण में सूर्य अधिक प्रचण्ड और दक्षिणायन में अल्प तापवाला होता है। प्रजापति अर्थात् सुर्य और इन्द्र, अर्थात् विद्युत् के लिए कोई दिशा निर्दिष्ट नहीं की जा सकती, अतः यज्ञ कुण्ड के मध्य में आहुति दी जाती है।’

प्रजापति= पालन-पोषण करने वाला गृहस्थ बाहर से सामान लाकर घर के मध्य में डालता है। इन्द्र= राजा राष्ट्र का केन्द्र है, अतः ये दोनों आहुतियाँ मध्य में डाली जाती है। ’’ आचार्य विश्वश्रवा (यज्ञपद्धति मीमांसा)

‘‘यज्ञरूप यह जगत् ‘अग्निषोमात्मकं जगत्’ शतपथ ब्राह्मण के इस वचन के अनुसार अग्निषोमात्मक है, अर्थात् शुष्क और आर्द्र, इन दो भागों में बँटा हुआ है। हमारा यह यज्ञ इस विश्व ब्रह्माण्ड रूपयज्ञ की अनुकृति मात्र है। यह भी अग्नि तथा सोमात्मक है। इसमें भी आधा सूखा और आधा गीला है। समिधाएँ सामग्री सूखी हैं तो घृत तथा पायस आदि गीले हैं। सूखा सब आग्नेय है और गीला सब सोमात्मक है। इस प्रकार ये दोनों आहुतियाँ विश्व ब्रह्माण्ड में चल रहे ईश्वरीय यज्ञ और हमारे यज्ञ में अभिरूपता-एक रूपता समपादन के लिए दी जाती है।

…….नेत्र समबन्धी बात को यों कहा है कि ‘अग्निषोमायां यज्ञश्चक्षुमान्’ अर्थात् अग्नि और सोम से यज्ञ चक्षुमान् है । इसी प्रकार अग्निषोमयोरहं देवयज्यया चक्षुमान्  भूयासम्।। – तै.स. 1.6.2.3

अर्थात्- अग्नि और सोम इन दोनों के यजन से मैं चक्षुमान् हो जाऊँ। इस भाग में इन आहुतियों द्वारा यजमान् अग्नि और सोम के समान चक्षुष्मान् होने की कामना से ये दो आज्यभागाहुतियाँ देता है।

इस प्रकार (1) विश्व ब्रह्माण्ड में चल रहे यज्ञ के साथ अपने इस यज्ञ की अभिरूपता के लिए (2) मनुष्यों की आँखों की भाँति यज्ञ के दोनों नेत्रों के रूप में तथा (3) अग्नि और सोम के तुल्य तेज और सौमयतायुक्त नेत्रों की प्राप्ति की कामना से ये दो आज्यभागाहुतियाँ दी जाती हैं।

रही बात उत्तर और दक्षिण दिशा की। इसके लिए पहली बात आप यह ध्यान में रखें कि देव यज्ञ में प्रत्येक क्रिया प्रदक्षिणक्रम से की जाती है तथा यज्ञानुष्ठान के लिए यजमान् पुर्वाभिमुख बैठता है। इस अवस्था में प्रदक्षिणक्रम से यज्ञानुष्ठान करते समय यज्ञ की चक्षुस्थानीय पहली आहुति उत्तर में ही देनी होगी और दूसरी दक्षिण में। इन आहुतियों का उत्तर और दक्षिण दिशा से समबन्ध नहीं है, अपितु ये अग्नि और सोम की दो आहुतियाँ यज्ञ (कुण्ड) के वाम (उत्तर) और दक्षिण नेत्र के रूप में दी जाती हैं, क्योंकि नासिका सामने होती है और दोनों आँख-नाक उत्तर और दक्षिण दिशा में होते हैं। यज्ञ की नेत्रस्थानीय होने से ये दोनों आहुतियाँ कुण्ड के मध्य भाग से उत्तर और दक्षिण दिशा में दी जाती हैं। इन आहुतियों के उत्तर और दक्षिण दिशा में देने का यही एक मात्र कारण है।’’ – स्वामी मुनिश्वरानन्दजी (शंका-समाधान)

इस प्रसंग में जैसा स्वामी दयानन्द का कथन है कि यज्ञकुण्ड के उत्तर-दक्षिण भाग में आहुति दें, वैसा ही स्वामी मुनिश्वरानन्दजी ने माना और हमारा भी यही मानना है।

(3) मेरी तीसरी शंका है कि वेद, ऋषि-मुनि, विद्वान् तथा वैज्ञानिक आदि सभी यही मानते हैं कि पेड़-पौधों में आत्मा होती है, परन्तु कुछ पौधे जैसे- साग-सजी, मेथी-बथुवा, पालक आदि हम सब दैनिक प्रयोग करते हैं तो हम क्या इन आत्माओं का हनन करके पाप करते हैं? क्या हम पाप के भागी नहीं हुए? कृपया बताएँ।

(3) मेरी तीसरी शंका है कि वेद, ऋषि-मुनि, विद्वान् तथा वैज्ञानिक आदि सभी यही मानते हैं कि पेड़-पौधों में आत्मा होती है, परन्तु कुछ पौधे जैसे- साग-सजी, मेथी-बथुवा, पालक आदि हम सब दैनिक प्रयोग करते हैं तो हम क्या इन आत्माओं का हनन करके पाप करते हैं? क्या हम पाप के भागी नहीं हुए? कृपया बताएँ।

– सुमित्रा आर्या, 261/8, आदर्शनगर, सोनीपत, हरियाणा

समाधान-

(ग) पेड़-पौधों में आत्मा है, इसको प्रमाण पूर्वक अनेक विद्वान् स्वीकार करते हैं। अनेक विद्वानों ने स्वीकार किया है, आज विज्ञान भी इसको स्वीकार करता है, किन्तु कुछ विद्वान् वृक्षादि में आत्मा नहीं मानते। जो नहीं मानते, उनके लिए तो यह प्रश्न बनेगा ही नहीं। हाँ, जो आत्मा को वृक्षों में स्वीकारते हैं, उनके लिए यह प्रश्न बनता है। इस विषय में पहले भी अनेक वाद-विवाद हो चुके हैं, शास्त्रार्थ हो चुके हैं।

हमारी समझ से जिन पौधों का नाम आपने लिया है, उनका प्रयोग करने में हमें पाप नहीं लगेगा, ये पौधे परमेश्वर द्वारा हमारी जीवन रक्षा के लिए बनाए हैं। इनका प्रयोग करने का आदेश परमेश्वर द्वारा वेद के माध्यम से किया गया है। खेती करने का विधान परमात्मा की ओर से ही है। शाक-सबजी में जो पौधे प्रयोग में आते हैं, उनको लेने में पाप नहीं होता और उन आत्माओं का हनन भी नहीं होता, क्योंकि पेड़-पौधों में जो आत्माएँ होती हैं, वे मूर्छा अवस्था में होती हैं, उनकी इन्द्रियों का व्यवहार बाह्य जगत् से नहीं होता, इसलिए उनको अन्य प्राणियों की भाँति सुख-दुःख भी नहीं होता। हाँ, इसमें इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि जो वृक्षादि जगत् के लिए अधिक उपयोगी हैं, अनेक प्राणियों के लिए आश्रयरूप हैं, उन वृक्षों को काटने से अवश्य पाप लगेगा। मनुष्य की शरीर रक्षा के लिए परमात्मा ने जिन पौधों का निर्माण किया है, उनका प्रयोग करने में पाप नहीं लगेगा। अस्तु ।

– ऋषिउद्यान, पुष्करमार्ग, अजमेर