Category Archives: Acharya Somdev jI

वेदों का काल क्या है ?

वेद
जिज्ञासा १ – कुछ विद्वान् वेदों का काल पाश्चात्य विद्वानों के आधार पर २००० या ३००० ईसा पूर्व ही मानते हैं, क्या यह ठीक है? और मैक्समूलर ऋग्वेद को दुनिया के पुस्तकालयों की सबसे पुरानी पुस्तक मानता है, क्या मैक्समूलर की यह मान्यता ठीक है? क्या हम आर्यों को भी इसी के अनुसार मानना चाहिए? कृपया, मार्गदर्शन करें।
– अनिरुद्ध आर्य, दिल्ली
समाधान- वेदों का काल जबसे मानवोत्पत्ति हुई है, तभी से है। आज इस काल को महर्षि दयानन्द के अनुसार १ अरब ९६ करोड़ ८ लाख ५३ हजार ११५वाँ वर्ष (२०१४ के अनुसार ) चल रहा है। पाश्चात्य विद्वानों द्वारा की गई वेदों की काल गणना ठीक नहीं है, क्योंकि इनके द्वारा की गई काल गणना निराधार, पक्षपात पूर्ण और कपोलकल्पना मात्र है। इस गणना के लिए इन विद्वानों के पास कोई ठोस प्रमाण नहीं है। जब हमारा लाखों वर्ष पुराना इतिहास सप्रमाण हमें प्राप्त हो रहा है, तब हम इनकी कुछ हजार वर्ष पूर्व की बात कैसे स्वीकार कर लें?  हाँ, इनकी बात को वह स्वीकार कर सकता है जो अपने ऋषियों, महापुरुषों से प्रभावित न होकर, पाश्चात्य संस्कृति व विद्वानों से प्रभावित रहा हो।
कुछ लोगों की निराधार व अल्पज्ञान भरी बात है कि ऋग्वेद की रचना सबसे पहले हुई और इसके बाद अन्य वेदों की। ऐसी मान्यता वाले लोग अथर्ववेद को तो ऋग्वेद से बहुत बाद का मानते हैं। इस बात का भी उनके पास कोई ठोस प्रमाण नहीं है।
हमारे ऋषियों के अनुसार चारों वेदों का काल एक ही है, एक ही साथ एक ही समय परमेश्वर ने ४ ऋषियों के हृदयों में चारों वेदों का अलग-अलग ज्ञान दिया, अर्थात् अग्नि ऋषि को ऋग्वेद का, वायु ऋषि को यजुर्वेद का, आदित्य ऋषि को सामवेद का और अङ्गिरा ऋषि को अथर्ववेद का ज्ञान दिया। ऋषियों ने ऐसा कहीं नहीं लिखा कि चारों वेदों की उत्पत्ति अलग-अलग समय में हुई। हमें वेद व ऋषियों के अनेक प्रमाण प्राप्त हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि चारों वेद एक ही समय में उत्पन्न हुए।

जैसे-
यस्मिन् वेदा निहिता विश्वरूपा:। -अथर्व. ४.३५.६
ब्रह्म प्रजापतिर्धाता लोका वेदा: सप्त ऋषयोग्नय:।
-अथर्व. १९.९.१२
इन दोनों मन्त्रों में वेद शब्द का बहुवचनान्त वेदा: शब्द प्रयुक्त हुआ है। यह वेदा: शब्द चारों वेदों का संकेतक है।
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत: ऋच: सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तस्मादजायत।।
-ऋ. १०.९०.९, यजु. ३१.७
यस्मिन्नृच: साम यजुœंषि यस्मिन्
प्रतिष्ठिता रथानाभाविवारा:।           -यजु. ३४.५
यस्मादृचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन्।
सामानि यस्य लोमान्यथर्वाङ्गिरसो मुखम्-
स्कम्भं तं ब्रूहि कतम: स्विदेव स:।।
-अथर्व. १०.७.२०
स्तोमश्च यजुश्चऽऋक् च साम च बृहच्च रथन्तरञ्च।
-यजु. १८.२९
ऋचो नामास्मि यजुंœषि
नामास्मि सामानि नामास्मि।        -यजु. १०.६७
स उत्तमां दिशमनुव्यचलत्।।
तमृचश्च सामानि च यजंूषि च ब्रह्म चानुव्यचलन्।।
-अथर्व. १५.६.७-८
एवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य नि:श्वसितमेतद्
यदृग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस:।।
श.ब्र. १४.५.४.१० व बृहद्.उप. ३४.१०
तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोऽथर्ववेद:।
– मु. ५.१.१.५
इत्यादि अनेक वेद व ऋषियों के प्रमाण सिद्ध करते हैं कि चारों वेदों का काल एक ही है।
आप मैक्समूलर की मान्यता के विषय में भी जानना चाहते हैं कि उनकी मान्यता ठीक है या नहीं। मैक्समूलर ने तथाकथित भाषाशास्त्र के आधार पर वेदों के रचना काल की सम्भावना सर्वप्रथम १८५९ ई.  में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ए हिस्ट्री ऑफ एशियट संस्कृत लिटरेचर’ में की थी। उनकी यह कालावधि किसी तथ्य पर आश्रित न होकर विशुद्ध कल्पना पर अवलम्बित थी, किन्तु यह मान्यता इतनी बार दुहरायी गयी कि परवर्ती समय में आधुनिक इतिहासकारों में बिना सोचे-समझे स्थापित-सी मानी जाने लगी, लेकिन स्वयं मैक्समूलर ने १८८९ में ‘जिफोर्ड व्याख्यानमाला’ के अन्तर्गत अपने इस मत पर सन्देह प्रकट किया था और ह्विटनी जैसे पाश्चात्य व प्रो. कुञ्जन राजा प्रभृति भारतीय इतिहासकारों ने भी मैक्समूलर के भाषाशास्त्र के आधार पर वेदों के काल सम्बन्धी मत का जोरदार खण्डन किया था। दूसरा जो मैक्समूलर ऋग्वेद को दुनिया की सबसे पुरानी पुस्तक कहता है, उसकी यह बात वेदों की रचना के सम्बन्ध में भ्रम पैदा करने के उद्देश्य से कही गई प्रतीत होती है। ऋषियों-महर्षियों के आधार पर आर्यसमाज की दृढ़ मान्यता के विपरीत ये वेदों का क्रमिक विकास सिद्ध करते हैं, जिससे वेद ईश्वरीय रचना न होकर मानवीय रचना सिद्ध हो सके।
इस सारे प्रसंग को मैक्समूलर की इन मान्यताओं के सन्दर्भ में भी देखा जाना चाहिए कि वह वेदों को बाइबिल से निचली श्रेणी का मानता है। कैथोलिक कॉमनवैल्थ के दिये गये एक साक्षात्कार में यह पूछे जाने पर कि विश्व में कौन-सा धर्मग्रन्थ सर्वोत्तम है, तो मैक्समूलर ने कहा-

“There is no doubt, however, that ethical teachings are far more prominent in the old and New Testament than in any other sacred book.” He also said “It may sound prejudiced, but talking all in all, I say the New Testament. After that, I should place the Quran which in its moral teachings is hardly more than a later edition of the New Testament. Then would follow…. according to my opinion, the Old Testament, The southern Buddhist Tripitika….. The Veda and the Avesta.” (LLMM, Vol. II, PP. 322-323)
अर्थात् ‘‘इसमें कोई सन्देह नहीं कि यद्यपि किसी भी अन्य ‘पवित्र पुस्तक’ की अपेक्षा (ईसाइयों के धर्म ग्रन्थ) ओल्ड और न्यू टेस्टामेंट में नैतिक शिक्षायें प्रमुखता से विद्यमान् हैं। उसने यह भी कहा- यह भले ही पक्षपातपूर्ण लगे, लेकिन सभी दृष्टियों से मैं कहता हूँ कि न्यू टेस्टामेंट सर्वोत्तम है। इसके बाद मैं कुरान को कहूँगा जो कि अपनी नैतिक शिक्षाओं में न्यू टेस्टामेंट के नवीन संस्करण के लगभग समीप है। उसके बाद….. मेरे विचार से ओल्ड टेस्टामेंट (यहूदियों का धर्मग्रन्थ), दी सदर्न बुद्धिस्ट त्रिपिटिका, (बौद्धों का धर्मग्रन्थ) फिर वेद और अवेस्ता (पारसियों का ग्रन्थ) है।’’
अत: आर्यों को वेद के सन्दर्भ में मैक्समूलर जैसे लोगों के मत को उद्धृत करने से बचना चाहिए। इसके स्थान पर ऋषियों-महर्षियों के मत को रखना चाहिए। लेकिन अगर कोई आर्य वेदों की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए मैक्समूलर को इस रूप में उद्धृत करता है कि ‘मैक्समूलर भी वेदों की प्राचीनता के प्रसंग में एक सत्य को अस्वीकार न कर सका, उसे भी ऋग्वेद को प्राचीनतम पुस्तक स्वीकार करना पड़ा’ इस रूप में बात रखी जा सकती है।

ईश्वर कहाँ रहता है ? : आचार्य सोमदेव जी

शंका:- क्या ईश्वर संसार में किसी स्थान विशेष में, किसी काल विशेष में रहता है? क्या ईश्वर किसी जीव विशेष को किसी समुदाय विशेष के कल्याण के लिए और दुष्टों का नाश करने के लिए भेजता है?

समाधान- ईश्वर इस संसार के स्थान विशेष वा काल विशेष में नहीं रहता। परमेश्वर संसार के प्रत्येक स्थान में विद्यमान है। जो परमात्मा को एक स्थान विशेष पर मानते हैं, वे बाल बुद्धि के लोग हैं। वेद ने परमेश्वर को सर्वव्यापक कहा है। वेदानुकूल सभी शास्त्रों में भी परमात्मा को सर्वव्यापक कहा गया है। एक स्थान विशेष पर परमेश्वर को कोई सिद्ध नहीं कर सकता , न ही शब्द प्रमाण से और न ही युक्ति तर्क से। हाँ, ईश्वर शब्द प्रमाण और युक्ति तर्क से विभु= सर्वत्र व्यापक तो सिद्ध हो रहा है, हो सकता है। वेद में कहा-

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुष:।

पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।

– य. ३१.३

इस पुरुष की इतनी महिमा है कि यह सारा ब्रह्माण्ड परमेश्वर के एक अंश में है, अर्थात् वह ईश्वर इस समस्त ब्रह्माण्ड में समाया हुआ अनन्त है। यह समस्त जगत् परमात्मा के एक भाग में है, अन्य तीन भाग तो परमात्मा के अपने स्वरूप में प्रकाशित हैं अर्थात् परमात्मा अनन्त है, सर्वत्र विद्यमान है, उसको किसी एक स्थान पर नहीं कह सकते।

नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वत:।

जेष: स्वर्वतीरप: सं गा अस्मश्यं धूनुहि।।

– ऋ. १.१०.८

इस मन्त्र के भावार्थ में महर्षि लिखते हैं – ‘‘जब कोई पूछे कि ईश्वर कितना बड़ा है तो उत्तर यह है कि जिसको सब आकाश आदि बड़े-बड़े पदार्थ भी घेरे में नहीं ला सकते, क्योंकि वह अनन्त है। इससे सब मनुष्यों को उचित है कि उसी परमात्मा को सेवन, उत्तम-उत्तम कर्म करने और श्रेष्ठ पदार्थों की प्राप्ति के लिए उसी से प्रार्थना करते रहें। जब जिसके गुण और कर्मों की गणना कोई नहीं कर सकता, तो कोई अंत पाने को समर्थ कैसे हो सकता है? और भी -’’

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापाविद्धम्।

कविर्मनीषी परिभू: स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्य:।।

– य. ४०.८

इस मन्त्र में परमेश्वर को सब में व्याप्त कहा है। इस व्याप्ति से ज्ञात हो रहा है कि परमात्मा किसी एक स्थान विशेष पर नहीं अपितु सर्वत्र है। इस प्रकार परमेश्वर के सर्वत्र व्यापक स्वरूप को सिद्ध करने के लिए शास्त्र के हजारों प्रमाण दिये जा सकते हैं। कोई भी प्रमाण ऐसा उपलब्ध नहीं होता जो परमात्मा को एकदेशीय सिद्ध करता हो।

युक्ति से भी कोई परमात्मा को किसी स्थान विशेष पर सिद्ध नहीं कर सकता। आज विज्ञान का युग है, वैज्ञानिकों ने समस्त पृथिवी, समुद्र, आकाश आदि को देख डाला है। जिन किन्हीं का भगवान् समुद्र, पहाड़ आकाश आदि में होता तो अब तक वह भगवान् वैज्ञानिकों के हाथ में होता। जो लोग ईश्वर को ऊपर सातवें वा चौथे आसमान अथवा इससे कहीं और ऊपर मानते हैं, वे यह सिद्ध नहीं कर सकते कि कौन-सा आसमान ऊपर है, कौन-सा आसमान नीचे, क्योंकि प्रमाण सिद्ध यह पृथिवी गोल है। इस गोल पृथिवी पर लगभग चारों और मानव आदि प्राणी रहते हैें।

जो मनुष्य भारत में रहते हैं, अर्थात् पृथिवी के  ऊपरी भाग पर रहते हैं, उनका आसमान उनके सिर के ऊपर और जो मनुष्य अमेरिका आदि देशों में है, अर्थात् पृथिवी के निचले भाग में रहते हैं, उनका आकाश (आसमान) भारत आदि देश में रहने वालों की अपेक्षा विपरीत होगा अर्थात् भारत वालों के पैरों में आकाश होगा। ऐसा ही पृथिवी के अन्य स्थानों पर रहने वाले मनुष्यों का आकाश जाने । पृथिवी के चारों ओर आकाश है, आसमान है, पृथिवी पर रहने वाले मनुष्यों के सिर जिस ओर होंगे, उनका आसमान उसी ओर होगा।

ऐसा विचार करने पर जो परमात्मा को आसमान में मानते हैं, वे भी एक स्थान विशेष पर सिद्ध नहीं कर सकते। इस विचार से भी परमात्मा सर्वत्र ही सिद्ध होगा, इसलिए परमात्मा सब स्थानों पर विद्यमान है, न कि किसी एक स्थान विशेष पर।

स्थान विशेष की कल्पना ब्रह्माकुमारी मत वालों की भी है। उनका कहना है कि यदि ईश्वर को सर्वव्यापक मानते हैं तो ईश्वर गन्दगी में शौच आदि में भी होगा, यदि ऐसा होगा तो ईश्वर भी गन्दा हो जायेगा। इन ब्रह्माकुमारी वालों ने ईश्वर को कितना कमजोर बना दिया? इन ब्रह्माकुमारी वालों को यह नहीं पता कि यह गंदगी भौतिक है और ईश्वर अभौतिक।

परमेश्वर के अभौतिक और सदा पवित्र होने से परमेश्वर के ऊपर इस गंदगी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हमारे ऊपर भी जो प्रभाव पड़ता है, वह इसलिये क्योंकि हमारे पास भौतिक शरीर इन्द्रियाँ आदि हैं, इनसे रहित होने पर हम जीवात्माओं पर भी उस गंदगी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ईश्वर तो सर्वथा इनसे रहित है तो ईश्वर पर इस गंदगी का प्रभाव कैसे पड़ेगा? इसलिए मलिनता से बचाने के लिए ईश्वर को एक स्थान विशेष पर मानना अज्ञानता ही है।

इसी प्रकार ईश्वर किसी काल विशेष में होता हो ऐसा नहीं है, परमेश्वर तो सदा सभी कालों में वर्तमान रहता है। काल विशेष में होने की कल्पना अवतारवादी कर सकते हैं, जो कि उनकी यह मान्यता सर्वथा असंगत है। वर्तमान, भूत एवं भविष्यकाल की आवश्यकता हम जीवों की अपेक्षा से है। परमेश्वर के लिए तो सदा वर्तमान रहता है, भूत-भविष्य परमात्मा के लिए नहीं है। परमात्मा सदा एक रस रहता है।

परमात्मा किसी जीव विशेष को किसी समुदाय विशेष की रक्षा वा दुष्टों के नाश के लिए भेजता हो- ऐसा भी नहीं है। यह कल्पना भी अवतारवादियों की है। परमात्मा तो जीवों के कर्मानुसार उनको जन्म देता है। जो जीव विशेष संस्कार युक्त होते हैं, वे जगत् के कल्याण और दुष्टों के नाश में प्रवृत्त होते हैं। ऐसा करने पर परमात्मा उनको आनन्द-उत्साह आदि प्रदान करता है, किन्तु ऐसा कदापि नहीं है कि परमात्मा ने किसी जीव विशेष को इस कार्य में लगााया हो। यदि ऐसा मानेंगे तो जीव की स्वतन्त्रता न रहेगी। ऐसा मानने पर सिद्धान्त की हानि होगी। कर्म फल व्यवस्था की सिद्धि ठीक से न हो पायेगी।

यदि कोई आत्मा किसी समुदाय की रक्षा करे तो दोष की भागी हो जायेगी, क्योंकि ऐसा कदापि नहीं हो सकता कि पूरे समुदाय में सभी लोग एक जैसे धर्मात्मा हो, उस समुदाय में उलटे लोग भी हो सकते हैं। समुदाय में होने से उनकी भी रक्षा करनी पड़ेगी जो कि न्याय न हो सकेगा। परमेश्वर न्यायकारी है, उसके द्वारा भेजी गई आत्मा को भी न्याय करना चाहिए जो कि वह कर न सकेगी।

अधिकतर लोगों की मान्यता है कि परमेश्वर किसी आत्मा को न भेजकर स्वयं अवतार लेते हैं । ऐसा करके परमात्मा सज्जनों की रक्षा और दुर्जनों का नाश करते हैं। इस प्रकार की मान्यता भी ईश्वर स्वरूप से विपरीत, वेद-शास्त्र के प्रतिकूल है, क्योंकि ईश्वर विभु है, अनन्त है, वह अनन्त प्रभु एक छोटे से सान्त शरीर में कैसे आ सकता है? परमेश्वर जन्म मरण से परे है, फिर शरीर में आकर जन्म-मृत्यु को कैसे प्राप्त कर सकता है? परमेश्वर का अवतार मानने पर इस प्रकार की अनेक दोषयुक्त बातों को मानना पड़ेगा।

अवतारवादियों का अवतार मानने का मुख्य आधार ये दो श्लोक हैं-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।

इन श्लोकों में अवतार लेने का कारण बतायाकि जब-जब धर्म की हानि होगी, तब-तब धर्म के उत्थान और अधर्म के नाश के लिए तथा श्रेष्ठों के परित्राण =रक्षा और दुष्टों के नाश के लिए ईश्वर अवतार लेता है। अब यहाँ विचारणीय यह है कि जिस परमात्मा ने बिना शरीर के इस सब ब्रह्माण्ड को रच डाला, हम सब प्राणियों के शरीरों की रचना की है, उस परमात्मा को कुछ क्षुद्र, दुष्ट व्यक्तियों को मारने के लिए शरीर धारण करना पड़े, यह बात बुद्धिग्राह्य नहीं है। इससे तो ईश्वर का ईश्वरत्व न रहकर ईश्वर का बहुत लघुत्व सिद्ध हो रहा है। यदि परमात्मा को यही करना है तो वह इस प्रकार के कार्य बिना शरीर के भी कर सकता है, क्योंकि वह पूर्ण समर्थ है।

गीता के उपरोक्त श्लोकों में अवतार का कारण हमने देखा, अब देवी भागवत पुराण में अवतार लेने का कारण देखिये। वहाँ लिखा है-

शपामि त्वां दुराचारं किमन्यत् प्रकरोमिते।

विधुरोहं कृत: पाप त्वयाऽहं शापकारणात्।।

अवतारा मृत्युलोके सन्तु मच्छापसंभवा:।

प्रापो गर्भभवं दु:ख भुक्ष्व पापाज्जनार्दन।।

देवी भागवत के इन श्लोकों में अवतार का कारण धर्म की रक्षा वा अधर्म के नाश करने के लिए नहीं कहा, अपितु भृगु का शाप कहा है। अर्थात् महर्षि भृगु ने विष्णु को दुराचार कर्म के कारण शाप दिया, उनके शाप के प्रभाव  से विष्णु का मृत्य ुलोक में अवतार हुआ। गीता के और देवी भागवत पुराण में अवतार के कारणों में परस्पर विरोध है। और देखिये-

बौद्धरूपस्त्वयं जात: कलौ प्राप्ते भयानके।

&&&

वेदधर्मपरायन् विप्रान् मोहयामास वीर्यवान्।

निर्वेदा कर्मरहितास्त्रवर्णा तामासान्तरे।।

यहाँ गीता से सर्वथा विपरीत अवतार का कारण कहा है। गीता धर्म की रक्षा को कारण कहती है और यहाँ तो धर्म के नाश के लिए अवतार ले लिया, अर्थात् भागवत पुराण कहता है- भगवान ने बुद्ध का अवतार लेकर, सबको विरुद्ध उपदेश देकर नास्तिक बनाया तथा वेद मार्ग का नाश किया। यहाँ ये अवतारवादियों के ग्रन्थ परस्पर विरुद्ध कथन कर रहे हैं।

यथार्थ में तो ईश्वर के किसी भी रूप में जन्म धारण करने की कल्पना ही युक्ति व शास्त्र विरुद्ध है, क्योंकि ईश्वर को किसी भी प्रकार के सहारे की आवश्यकता नहीं, चाहे वह सहारा किसी शरीर का हो अथवा किसी अन्य प्राणी का। परमेश्वर अपने सब कार्य करने में समर्थ है, उसको कोई अवतार लेने की आवश्यकता नहीं है।

वेद में ईश्वर को ‘‘अकायमव्रणमस्नाविरम्’’ कहा है। वह परमात्मा सूक्ष्म और स्थूल शरीर के बन्धन से रहित है, अर्थात् इन बन्धनों में नहीं पड़ता। श्वेताश्वतर उपनिषद् मेंऋषि ने कहा-

वेदाहमेतमजरं पुराणं सर्वात्मानं सर्वगतं विभुत्वात्।

जन्मनिरोधं प्रवदन्ति यस्य ब्रह्मवादिनो हि प्रवदन्ति नित्यम्।।

– ४.२१

अर्थात् वह परमात्मा अजर है, पुरातन (सनातन) है, सर्वान्तर्यामी है, विभु और नित्य है। ब्रह्मवादी सदा उसका बखान करते हैं। वह कभी जन्म नहीं लेता।

उपरोक्त सभी प्रमाणों से सिद्ध हो रहा है कि परमात्मा जीव के कर्मानुसार उसके भोग के लिए शरीर स्थान, समुदाय आदि देता है न कि अपनी इच्छा से किसी का नाश वा रक्षा के लिए उसको भेजता है और ऐसे ही स्वयं भी अवतार लेकर कुछ नहीं करता, अर्थात् स्वयं शरीर धारण करके किसी की रक्षा वा नाश नहीं करता।

यज्ञ विधि की शंका समाधान : आचार्य सोमदेव जी

जिज्ञासा १- आचार्य सोमदेव जी की सेवा में सादर नमस्ते।

आर्यसमाजी दुनिया के किसी कोने में क्यों न हो। वे भगवान् के लिए हवन ही करते हैं। वेद की आज्ञा के आधार पर हमारे टापू में भी आर्यसमाज की तीन संस्थाएँ हैं, जो यज्ञ हवन बराबर करते आ रहे हैं।

हवन करते समय कहीं-कहीं पहले आचमन करते हैं, अंगस्पर्श और शेष कर्मकाण्ड। कहीं पर देखते हैं कि बिना आचमन किये ईश्वर-स्तुति-प्रार्थना, शान्तिकरण और अन्य मन्त्र पढऩे के बाद आचमन करते हैं, अग्न्याधान करते हैं और शेष पश्चात्। उसमें सही कौन है? पहले आचमन, अंगस्पर्श या मन्त्रों को पढक़र आचमन, अंग स्पर्श बाद में। यह मनमानी तो नहीं है या ऋषि दयानन्द की आज्ञा के आधार पर करते हैं, यह आपकी वाणी के आशीर्वाद से स्पष्टीकरण हो जायेगा, प्रतीक्षा रहेगी। अग्रिम धन्यवाद।

– सोनालाल नेमधारी, मॉरिशस


जिज्ञासा २- माननीय आचार्य जी, सादर नमस्ते।

विनती विशेष, मैं परोपकारी का नियमित पाठक हूँ। ‘शंका समाधान’ स्तम्भ के माध्यम से बहुत सारी शंकाओं का समाधान हो जाता है, किन्तु अभी तक निम्न शंकाओं का समाधान नहीं मिला है, कृपा कर समाधान करें।

क- ब्रह्म पारायण यज्ञ क्या है तथा उसकी विधि किस प्रकार की है?

ख- यज्ञोपवीत धारण करते समय जिन मन्त्रों का पाठ किया जाता है, उसका दूसरा मन्त्र आधा ही क्यों लिखा तथा पढ़ा जाता है।

ग- आघारावाज्याभागाहुति जब-जब भी यज्ञ में जिस स्थान पर दी जायेगी, तब-तब उसी प्रकार निश्चित दिशाओं में दी जायेगी अथवा केवल यज्ञ के आरम्भ में ही? कृपया स्पष्ट करें।

घ- यज्ञ में आहुति देने के पश्चात् कहीं ‘इदं न मम’ बोला जाता है, कहीं नहीं। इसका प्राचीन गृह्य सूत्रादि ग्रन्थों के अनुसार क्या नियम है?

– आर्य प्रकाशवीर भीमसेन, उदगीर, महा.



समाधान १- यज्ञ करने की विधि के अनेक अंग है, स्तुति-प्रार्थना-उपासना, आचमन, अंगस्पर्श, जल सिञ्चन आदि। यज्ञ की विधि के अंगों का क्रम क्या हो, यह विधि विधान हमें एकरूप से देखने को नहीं मिलता। मुख्य रूप से आचमन व अंगस्पर्श के विषय में यह अधिक देखने को मिलता है। कहीं कोई आचमन, अंग-स्पर्श, स्तुति-प्रार्थना उपासना आदि मन्त्रों के पहले करता है, तो कहीं कोई बाद में। आर्यसमाज में यज्ञ की विधि में एकरूपता देखने को नहीं मिलती।

यदि एकरूपता स्थापित हो जाये तो सर्वोत्तम है, चाहे वह एकरूपता पहले आचमन, अंग-स्पर्श करने में हो, चाहे बाद में। पूरे विश्व में जहाँ भी आर्यसमाज का पुरोहित व्यक्ति यज्ञ करे-करवावे, तो उसी एकरूपता वाली पद्धति से करे-करवावे। ऐसा करने से हमारे संगठन में भी दृढ़ता आयेगी।

यदि आर्य-विद्वान्, आर्य-संस्थाएँ एकत्र होकर यज्ञ विषयक पद्धति को सुनिश्चित कर उसके अनुसार यज्ञ करें तो अधिक शोभनीय होगा।

हमारी दृष्टि से तो जो क्रम महर्षि दयानन्द ने संस्कार-विधि में दिया है, उसी क्रम से यज्ञ-विधि का सम्पादन करना चाहिए। महर्षि ने संस्कार-विधि में आचमन, अंगस्पर्श स्तुति-प्रार्थना-उपासना आदि मन्त्रों के बाद करने को लिखा, सो उनके लिखे अनुसार सभी आर्यजन अनुकरण करें। जहाँ कहीं हमें महर्षि का स्पष्ट लेख उपलब्ध नहीं होता, वहाँ आर्य-विद्वान् इक_ा हो, वेदानुकूल पद्धति का निर्माण कर लेवें और उसको स्थापित कर दें और आर्यजनों का कत्र्तव्य है कि उसका सब पालन करें। अस्तु।

समाधान २- (क) यज्ञ करने को ऋषियों ने हमारे जीवन से जोड़ा। जोडऩे के लिए इसको धार्मिक कृत्य के रूप में रखा। आज वर्तमान में धार्मिक कृत्य के नाम पर स्वार्थी लोग पाखण्ड करते दिखाई देते मिल जायेंगे, ऐसा करके वे अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। यज्ञ भी धार्मिक कृत्य है, इसमें भी स्वार्थी लोग अपना पाखण्ड जोड़ देते हैं। जैसे यज्ञों के विशेष-विशेष नाम रखना, सर्वमनोकामनापूर्ण यज्ञ, सर्वरोगहरण यज्ञ, अमुक-अमुक बचाओ यज्ञ, वशीकरण यज्ञ, शत्रुविनाशक यज्ञ आदि-आदि। जैसे ये आकर्षक नाम हंै, ऐसा ही ब्रह्मपारायण यज्ञ भी एक है। शास्त्र में ब्रह्मपारायण यज्ञ का वर्णन कहीं पढऩे-देखने को हमें मिला नहीं, किसी महानुभाव को मिला हो तो हमें भी अवगत कराने की कृपा करें। जब इसका वर्णन ही नहीं मिला तो इसकी विधि भी कैसे बता सकते हैं!

(ख) यज्ञोपवीत धारण करते समय जो दूसरे मन्त्र का पाठ किया जाता है, वह मन्त्र का आधा भाग है। आपका कथन है कि आधा भाग पूरा क्यों नहीं? इसमें हमारा कहना है कि अनेकत्र महर्षि की प्रवृत्ति देखी जाती है कि जितने भाग से प्रयोजन की सिद्धि हो रही है, उतने भाग को महर्षि ले लेते हैं, शेष को छोड़ देते हैं। यहाँ भी ऐसा ही है, इसलिए आधा भाग दिया है।

यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि।

अर्थात् तू यज्ञोपवीत है, तुझे यज्ञ कार्य के लिए यज्ञोपवीत के रूप में ग्रहण करता हूँ। यहाँ यज्ञोपवीत ग्रहण करना था इसलिए ‘उपनह्यामि’ तक का भाग ले लिया।

ग्रह्यसूत्र में ‘उपनह्यामि’ के बाद जो मन्त्र का भाग है वह यज्ञोपवीत विषयक नहीं है, उससे आगे प्रकरण बदल जाता है। वस्त्र, दण्ड आदि ग्रहण करने का प्रकरण प्रारम्भ हो जाता है, इसलिए मन्त्र का जितना भाग आवश्यक था, महर्षि उतने भाग का विनियोग कर लिया, शेष का नहीं।

(ग) ‘आघारावाज्याभागाहुति’ जब-जब देनी हो, तब-तब सुनिश्चित भाग में ही देनी चाहिए, यही उचित है।

(घ) यज्ञ में आहुति देने के पश्चात् ‘इदं न मम’ वाक्य कहाँ-कहाँ बोला जाता है और कहाँ नहीं, इसका ज्ञान हमें नहीं है, कहीं पढऩे को भी नहीं मिला, इसलिए इस विषय में कुछ कह नहीं सकते। हाँ, जैसा महर्षि ने निर्देश किया है, वैसा करते रहें, जब अधिक जानकारी प्राप्त हो जाये तो अधिक किया जा सकता है। अलम्।

 

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की मूर्ति सही या गलत : आचार्य सोमदेव जी

जिज्ञासा  समाधान – ११९

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा:- आदरणीय सम्पादक महोदय सादर नमस्ते। निवेदन यह है कि मैंने आर्य समाज मन्दिर में महर्षि दयानन्द जी का एक स्टेचू (बुत) जो केवल मुँह और गर्दन का है जिसका रंग गहरा ब्राउन है, रखा देखा है। पूछने पर पता चला कि यह किसी ने उपहार में दिया है। आप कृपया स्पष्ट करें कि क्या महर्षि का स्टेचू भेंट में लेना, बनाना और भेंट देना आर्य समाज के सिद्धान्त के अनुरूप है? जहाँ तक मेरा मानना है महर्षि ने अपनी प्रतिमा बनाने की सख्त मनाही की थी। कृपया स्पष्ट करें।

धन्यवाद, सादर।

– डॉ. पाल

समाधान:- महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन मेंं कभी सिद्धान्तों से समझौता नहीं किया। वे वेद की मान्यतानुसार अपने जीवन को चला रहे थे और सम्पूर्ण विश्व को भी वेद की मान्यता के प्रति लाना चाहते थे। वेद ईश्वर का ज्ञान होने से वह सदा निभ्र्रान्त ज्ञान रहता है, उसमें किसी भी प्रकार के पाखण्ड अन्धविश्वास का लेश भी नहीं है। वेद ही ईश्वर, धर्म, न्याय आदि के विशुद्ध रूप को दर्शाता है। वेद में परमेश्वर को सर्वव्यापक व निराकार कहा है। प्रतिमा पूजन का वेद में किसी भी प्रकार का संकेत नहीं है। महर्षि दयानन्द ने वेद को सर्वोपरि रखा है। महर्षि दयानन्द समाज की अवनति का एक बड़ा कारण निराकार ईश्वर की उपासना के स्थापना पर प्रतिमा पूजन को मानते हैं। जब से विशुद्ध ईश्वर को छोड़ प्रतिमा पूजन चला है तभी से मानव समाज कहीं न कहीं अन्धविश्वास और पाखण्ड में फँसता चला गया। जिस मनुष्य समुदाय में पाखण्ड अन्धविश्वास होता है वह समुदाय धर्म भीरु और विवेक शून्य होता चला जाता है। सृष्टि विरुद्ध मान्यताएँ चल पड़ती हैं, स्वार्थी लोग ऐसा होने पर भोली जनता का शोषण करना आरम्भ कर देते हैं।

महर्षि दयानन्द और अन्य मत सम्प्रदाय में एक बहुत बड़ा मौलिक भेद है। महर्षि व्यक्ति पूजा से बहुत दूर हैं और अन्य मत वालों का सम्प्रदाय टिका ही व्यक्ति पूजा पर है। महर्षि ईश्वर की प्रतिमा और मनुष्य आदि की प्रतिमा पूजन का विरोध करते हैं, किन्तु अन्य मत वाले इस काम से ही द्रव्य हरण करते हैं। इस व्यक्ति पूजा के कारण समाज में अनेक प्रकार के अनर्थ हो रहे हैं। इसी कारण बहुत से अयोग्य लोग गुरु बनकर अपनी पूजा करवा रहे हैं। जीते जी तो अपनी पूजा व अपने चित्र की भी पूजा करवाते ही हैं, मरने के बाद भी अपनी पूजा करवाने की बात करते हैं और भोली जनता ऐसा करती भी है। इससे अनेक प्रकार के अनर्थ प्रारम्भ हो जाते हैं। महर्षि दयानन्द ने जो अपना चित्र न लगाने की बात कही है, वह इसी अनर्थ को देखते हुए कही है। महर्षि विचारते थे कि इन प्रतिमा पूजकों से प्रभावित हो मेेरे चित्र की भी पूजा आरम्भ न कर दें। इसी आशंका के कारण महर्षि ने अपने चित्र लगाने का निषेध किया था।

यदि हम आर्य महर्षि के सिद्धान्तों के अनुसार चल रहे हैं, प्रतिमा पूजन आदि नहीं कर रहे हैं तो महर्षि के चित्र आदि लगाए जा सकते हैं रखे जा सकते हैं। चित्र वा मूर्ति रखना अपने आप में कोई दोष नहीं है। दोष तो उनकी पूजा आदि करने में हैं। महर्षि मूर्ति के विरोधी नहीं थे, महर्षि का विरोध तो उसकी पूजा करने से था। यदि महर्षि केवल चित्र वा मूर्ति के विरोधी होते तो अपने जीवन काल में इनको तुड़वा चुके होते, किन्तु महर्षि के जीवन से ऐसा कहीं भी प्रकट नहीं होता कि कहीं महर्षि दयानन्द ने मूर्तियों को तुड़वाया हो। अपितु यह अवश्य वर्णन मिलता है कि जिस समय महर्षि फर्रुखाबाद में थे, उस समय फर्रुखाबाद बाजार की नाप हो रही थी। सडक़ के बीच में एक छोटा-सा मन्दिर था, जिसमें लोग धूप दीप जलाया करते थे। बाबू मदनमोहन लाल वकील ने स्वामी जी से कहा कि मैजिस्ट्रेट आपके भक्त हैं, उनसे कहकर इस मठिया को सडक़ पर से हटवा दीजिये। स्वामी जी बोले ‘‘मेरा काम लोगों के मनो से मूर्तिपूजा को निकालना है, ईंट पत्थर के मन्दिरों को तोडऩा-तुड़वाना मेरा लक्ष्य नहीं है।’’ यहाँ महर्षि का स्पष्ट मत है कि वे मूर्ति पूजा के विरोधी थे, न कि मूर्ति के।

आर्य समाज का सिद्धान्त निराकार, सर्वव्यापक, न्यायकारी आदि गुणों से युक्त परमेश्वर को मानना व उसकी उपासना करना तथा ईश्वर वा किसी मनुष्य की प्रतिमा पूजन न करना है। इस आधार पर महर्षि का स्टेचू भेंट लेना देना आर्य समाज के सिद्धान्त के विपरीत नहीं, सिद्धान्त विरुद्ध तब होगा जब उस स्टेचू की पूजा आरम्भ हो जायेगी। आर्य समाज का सिद्धान्त चित्र की नहीं चरित्र की पूजा अर्थात् महापुरुषों के आदर्शों को देखना अपनाना है।

कि सी भी महापुरुष के चित्र वा स्टेचू को देखकर हम उनके गुणों, आदर्शों, उनकी योग्यता विशेष का विचार करते हैं तो स्टेचू का लेना-देना कोई सिद्धान्त विरुद्ध नहीं है। जब हम उपहार में पशुओं वा अन्य किन्हीं का स्टेचू भेंट कर सकते हैं तो महर्षि का क्यों नहीं कर सकते?

घर में जिस प्रकार की वस्तुएँ या चित्र आदि होते हैं उनका वैसा प्रभाव घर में रहने वालों पर पड़ता है। जब फिल्मों में काम करने वाले अभिनेता अभिनेत्रियों के भोंडे कामुकतापूर्ण चित्र वा प्रतिमाएँ रख लेते हैं, लगा लेते हैं तो घर में रहने वाले बड़े वा बच्चों पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है आप स्वयं अनुमान लगाकर देख सकते हैं। इसके विपरीत महापुरुषों क्रान्तिकारियों के चित्र घर में होते हैं तो घर वालों पर और बाहर से आने वालों पर कैसा प्रभाव पड़ता होगा। घर में रहने वालों की विचारधारा को घर में लगे हुए चित्र व वस्तुएँ बता देती हैं। अस्तु।

महर्षि ने अपनी प्रतिमा बनाने का विरोध किया था, वह क्यों किया इसका कारण ऊपर आ चुका है। स्टेचू, चित्र आदि का भेंट में लेना-देना आर्य समाज के सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं है। यह लिया-दिया जा सकता है, कदाचित् इसकी पूजा वा अन्य दुरुपयोग न किया जाय तो। इसमें इसका भी ध्यान रखें कि पुराण प्रतिपादित कल्पित देवता जो कि चार-आठ हाथ व चार-ेपाँच मुँह वाले वा अन्य किसी जानवर के  रूप में हों उनसे लेने देने से बचें।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

जिज्ञासा समाधान: – आचार्य सोमदेव

परमात्मा का गौणिक नाम ब्रह्मा क्यों है? क्योंकि ब्रह्म शब्द बहुवाचक है, जबकि ईश्वर एक है और ऋषि का नाम भी ब्रह्मा आया है, वह भी एक ही मनुष्य था। अग्रि, वायु, आदित्य और अंगिरा ऋषियों को ब्रह्मा नाम देने में क्या दोष है, क्योंकि वे सबसे महान् भी थे और यथार्थ में एक से अधिक भी थे।?

आपकी यह दूसरी जिज्ञासा भाषा को न जानने के कारण है। यदि संस्कृत भाषा को ठीक जान रहे होते तो ऐसी जिज्ञासा न करते। ‘ब्रह्मा’ शब्द एक वचन में ही है, बहुवचन में नहीं। ब्रह्म शब्द नपुंसक व पुलिंग दोनों में होता है। नपुंसक लिंग में ब्रह्म और पुलिंग में ब्रह्मा शब्द है। यह ब्रह्मा प्रथमा विभक्ति एक वचन का है। मूल शब्द ब्रह्मन् है, राजन् के तुल्य। ब्रह्मन् शब्द का बहुवचन ब्रह्मण: बनेगा, इसलिए ब्रह्मा शब्द को जो आप बहुवचन में देख रहे हैं सो ठीक नहीं। परमात्मा एक है, इसलिए उसका गौणिक नाम ब्रह्मा एक वचन में ही है। जब यह शब्द एक वचन में ही है तो इससे अग्रि, आदित्य आदि बहुतों का ग्रहण भी नहीं होगा। यदि ग्रहण करेंगे तो दोष ही लगेगा। और यदि ‘‘ब्रह्म शब्द बहुवाचक है’’ इससे आपका यह अभिप्राय है कि ब्रह्म शब्द ‘बहुत’ अर्थ को कहने वाला है और चूँकि परमात्मा एक है, अत: उसके लिए ब्रह्म शब्द का प्रयोग उचित नहीं है, तो यह कहना भी आपका ठीक नहीं है, क्योंकि ब्रह्म शब्द ‘बहुत’ अर्थ का वाचक नहीं है। ब्रह्म का अर्थ तो ‘बड़ा’ होता है। परमात्मा सबसे बड़ा है, अत: उसे ब्रह्म कहा जाता है। ‘सर्वेभ्यो बृहत्वात् ब्रह्म, अर्थात् सबसे बड़ा होने से ईश्वर का नाम ब्रह्म है।’

– स.प्र. १

ऐसे ही ब्रह्मा नाम के ऋषि सकल विद्याओं के वेत्ता होने के कारण ज्ञान की दृष्टि से सबसे बड़े थे, अत: उन्हें ब्रह्मा कहा गया। और ब्रह्मा परमात्मा का नाम इसलिए है-

योऽखिलं जगन्निर्माणेन बर्हति (बृंहति) वद्र्धयति स ब्रह्मा

जो सम्पूर्ण जगत् को रच के बढ़ाता है, उस परमेश्वर का नाम ब्रह्मा है। – स.प्र. १

जिज्ञासा समाधान :- आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा १- ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में लिखा है कि सृष्टि के प्रारम्भ में हजारों-लाखों मनुष्य परमात्मा ने अमैथुन से पैदा किये थे। यही सत्यार्थ प्रकाश में भी माना है। उन लाखों मनुष्यों में चार ऋषि भी पैदा हुये जो अग्रि, वायु, आदित्य और अंगिरा थे। उनको परमात्मा ने एक-एक वेद का ज्ञान दिया था। उस काल में स्त्रियाँ भी पैदा हुई होंगी, परन्तु परमात्मा ने एक या दो स्त्रियों को भी वेद का ज्ञान क्यों नहीं दिया? क्या परमात्मा के घर से भी स्त्रियों के साथ पक्षपात हुआ? इसका समाधान करें।

समाधान-(क) वेद परमात्मा का पवित्र ज्ञान है। यह वेदरूपी पवित्र ज्ञान मनुष्य मात्र के लिए है। वेद मनुष्य मात्र का धर्मग्रन्थ है। सृष्टि के आदि में परमेश्वर ने सभी मनुष्यों के लिए यह ज्ञान दिया। वेद का ज्ञान परमात्मा ने ऋषियों के हृदयों में दिया। चार वेद चार ऋषियों के हृदय में प्रेरणा कर के दिये। ऋग्वेद अग्रि ऋषि को, यजुर्वेद वायु नामक ऋषि को, सामवेद आदित्य ऋषि को और अथर्ववेद अंगिरा ऋषि को प्रदान किया। आपकी जिज्ञासा है कि वेद का ज्ञान ऋषियों (पुरुषों) को ही क्यों दिया, एक-दो स्त्री को क्यों नहीं दिया? इसका उत्तर महर्षि दयानन्द ने जो लिखा वह यहँा लिखते हैं-‘‘प्र.- ईश्वर न्यायकारी है वा पक्षपाती? उत्तर- न्यायकारी। प्र.- जब परमेश्वर न्यायकारी है, तो सब के हृदयों में वेदों का प्रकाश क्यों नहीं किया? क्योंकि चारों के हृदय में प्रकाश करने से ईश्वर में पक्षपात आता है।

उत्तर- इससे ईश्वर में पक्षपात का लेश (भी) कदापि नहीं आता, किन्तु उस न्यायकारी परमात्मा का साक्षात् न्याय ही प्रकाशित होता है, क्योंकि ‘न्याय’ उसको कहते हैं कि जो जैसा कर्म करे, उसको वैसा ही फल दिया जाये। अब जानना चाहिए कि उन्हीं चार पुरुषों का ऐसा पूर्व पुण्य था कि उनके हृदय में वेदों का प्रकाश किया गया।’’ -ऋ.भा.भू.

‘‘प्रश्न-उन चारों ही में वेदों का प्रकाश किया, अन्य में नहीं, इससे ईश्वर पक्षपाती होता है।

उत्तर-वे ही चार सब जीवों से अधिक पवित्रात्मा थे। अन्य उनके सदृश नहीं थे, इसलिए पवित्र विद्या का प्रकाश उन्हीं में किया।’’ – स.प्र. ७

महर्षि के वचनों से स्पष्ट हो रहा है कि परमात्मा पक्षपाती नहीं, अपितु इन चारों को वेद का ज्ञान देने से परमेश्वर का न्याय ही द्योतित हो रहा है। यदि इन चार ऋषियों जैसी पुण्य-पवित्रता किसी स्त्री में होती तो परमात्मा स्त्री को भी वेद का ज्ञान दे देता। परमात्मा तो योग्यता के अनुसार ही फल देता है। पक्षपात कभी नहीं करता। जिस आत्मा के पुरुष शरीर प्राप्त करने के कर्म हैं, उसको पुरुष और जिसके स्त्री बनने के कर्म हैं उसको स्त्री का शरीर देता है।

वेदों का ज्ञान ऋषियों को दिया, स्त्रियों को नहीं-इससे यह बात भी ज्ञात हो रही है कि स्त्री का शरीर पुरुष शरीर की अपेक्षा कुछ कम पुण्यों का फल है। अर्थात् अधिक पुण्यों का फल पुरुष शरीर और उससे कुछ हीन पुण्यों का फल स्त्री शरीर। परमेश्वर की दृष्टि में सब आत्मा एक जैसी हैं, आत्मा-आत्मा मेें परमेश्वर कोई भेद नहीं करता, किन्तु कर्मों के आधार पर तो भेद दृष्टि रखता है।

स्त्री-पुरुष दोनों बराबर हैं, बराबर का अधिकार होना चाहिए। यह इस रूप में उचित है कि दोनों अपनी उन्नति करने में स्वतन्त्र हैं, मुक्ति के अधिकारी दोनों बराबर है, ज्ञान प्राप्त करने में दोनों समान रूप से अधिकारी हैं, दोनों काम करने में स्वतन्त्र हैं। परमेश्वर ने यह सब दोनों को समान रूप से दे रखा है, किन्तु शरीर की दृष्टि से तो भेद है ही। संसार में भी पुरुष के शरीर में अधिक सामथ्र्य देखने को मिलता है, स्त्री शरीर में कम (किसी अपवाद को छोडक़र)। पुरुष को अधिक स्वतन्त्रता है, स्त्री को कम स्वतन्त्रता है। मनुष्य समाज ने अन्यायपूर्वक स्त्रियों पर जो बन्धन लगा रखे हैं, उस परतन्त्रता को यहाँ हम नहीं कह रहे। जो परतन्त्रता प्रकृति प्रदत्त है, वह स्त्रियों में अधिक है पुरुष में कम। यह प्रकृति प्रदत्त स्वतन्त्रता-परतन्त्रता हमारे कर्मों का ही फल है, पुण्यों का फल है। जिसके जितने अधिक पुण्य होते हैं, परमात्मा उसको ज्ञान, बल, सामथ्र्य, साधन सम्पन्नता अधिक देता है और जिसके पुण्य न्यून होते हैं, उसको ये सब भी कम होते चले जायेंगे।

ज्ञान का मिलना भी हमारे पुण्यों का फल है, इसलिए वेदरूपी पवित्र ज्ञान पक्षपात रहित न्यायकारी परमात्मा ने आदि सृष्टि में उत्पन्न हुए सबसे पुण्यात्मा पवित्र चार ऋषियों को ही दिया अन्यों को नहीं।

जिज्ञासा समाधान : आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा २महोदय जिज्ञासा समाधान के सन्दर्भ में अवगत हो कि मेरी जिज्ञासा कुछ अटपटी है। विषय है सूर्य संसार में ऊर्जा का स्रोत है। सूर्य के प्रचंड ताप व प्रकाश के बिना जीवन असंभव है। तथापि जानकारी करना है कि सूर्य को ऊर्जा कहाँ से प्राप्त होती है।

दूसरी बात यह कि उपनिषदों में सात लोक का वर्णन आता है। १. पृथ्वी लोक २. वायु लोक ३. अन्तरिक्ष लोक४. आदित्य लोक ५. चन्द्र लोक ६. नक्षत्र लोक ७. ब्रह्माण्ड लोक। क्या इन लोकों में भी लोगों का निवास संभव है।

– रामनारायण गुप्त, बिलासपुर

 

समाधान २– (क)परमेश्वर ने ब्रह्माण्ड की रचना की है, इस विशाल ब्रह्माण्ड में करोड़ों आकाश गंगाएँ हैं, उनमें करोड़ों-करोड़ों सूर्य हैं। सूर्य, जो ऊर्जा का स्रोत है, इसकी सतह का निर्माण हाइड्रोजन, हीलियम, लोहा, निकेल, ऑक्सीजन, सिलिकॅान, सल्फर, मैग्निशियम, कार्बन, नियोन, कैल्शियम, क्रोमियम तत्वों से हुआ है। इनमें से सूर्य के सतह पर हाइड्रोजन की मात्रा ७४ प्रतिशत तथा हीलियम २४ प्रतिशत है। इन्हीं तत्वों के कारण सूर्य में ऊर्जा है। सूर्य में हाइड्रोजन के जलने से हीलियम गैस उत्पन्न होती है, जो कि ऊर्जा का महा-भण्डार है।

सूर्य के कारण ही हम पृथिवी वासियों का जीवन चल रहा है। सुबह से शाम तक सूर्य अपनी किरणों से- जिनमें औषधीय गुणों का भंडार है, अनेक रोग उत्पादक कीटाणुओं का नाश करता है। स्वस्थ रहने के लिए जितनी शुद्ध हवा आवश्यक है, उतना ही प्रकाश भी आवश्यक है। प्रकाश में मानव शरीर के कमजोर अंगों को पुनः सशक्त और सक्रिय बनाने की अद्भुत क्षमता है। सूर्य के प्रकाश का संबन्ध केवल गर्मी देने से नहीं है, अपितु इसका मनुष्य के आहार के साथ भी घनिष्ट सम्बन्ध है। छोटे-बड़े पौधे व वनस्पतियों के पत्ते सूरज की किरणों के सान्निध्य से क्लोरोफिल नामक तत्व का निर्माण करते हैं। जिससे पौधों में हरापन होता है।

सूर्य ऊर्जा का महाभण्डार है। सूर्य के एक वर्ग सेंटीमीटर से जितनी ऊर्जा पैदा होती है, उतनी ऊर्जा १०० वाट के ६४ बल्बों को जलाने के लिए काफी है। सूर्य की जितनी ऊर्जा धरती पर पहुँचती है, उतनी ऊर्जा सम्पूर्ण मानवों द्वारा खपत की ऊर्जा से ६००० गुना ज्यादा होती है। जितनी ऊर्जा ३० दिन में धरती को सूर्य द्वारा मिलती है, उतनी ऊर्जा मानवों द्वारा पिछले ४०,००० साल से खपत ऊर्जा से कहीं अधिक है। यदि सूर्य की चमक (ऊर्जा) धरती पर एक दिन न पहुँचे तो धरती कुछ घंटों में बर्फ की तरह से जम जाएगी, सम्पूर्ण पृथिवी उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव जैसी हो जायेगी।

यह सब ऊर्जा सूर्य को कहाँ से मिलती है, यह आपकी जिज्ञासा है। सूर्य में यह ऊर्जा परमेश्वर की व्यवस्था से उत्पन्न होती है। वही परमेश्वर सूर्य की रचना करने वाला है। वह ही अपनी व्यवस्था से सूर्य में ऊर्जा उत्पन्न करने वाला है।

(ख) अन्य लोकों पर भी प्राणियों का वास सम्भव है। परमात्मा की व्यवस्था से जिस लोक की संरचना हुई है, उसी संरचना के आधार पर वहाँ वास सम्भव हो सकता है। न्यायदर्शन के सूत्र ३.१.२७ के भाष्य में वात्स्यायन मुनि लिखते हैं-

‘‘अप्तैजस्वायव्यानि लोकान्तरे शरीराणि’’

अर्थात् लोकान्तर में जल, अग्नि और वायु के शरीर होते हैं। इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि लोकान्तर में केवल जल, अग्नि अथवा वायु के शरीर होते हैं, अपितु इसका अर्थ है कि जहाँ जिसकी प्रधानता होगी वहाँ वैसा शरीर होगा।

पृथिवी से अतिरिक्त करोड़ों लोक-लोकान्तर व्यर्थ नहीं होंगे। जैसे इस पृथिवी पर प्राणियों का वास है, ऐसे अन्य लोकों पर भी होगा। दिल्ली से प्रकाशित ‘नवभारत टाइम्स’ के दिनांक २४ मार्च १९९० के अंक में कुछ ऐसी बात प्रकाशित हुई-हमारी दुनिया यह नहीं मानती कि उसके अलावा और भी दुनिया है। पृथिवी का आदमी अपनी दुनिया से इतना आश्वस्त है कि वह अन्य ग्रहों या आकाशगंगाओं पर बुद्धिमान् प्राणियों की मौजूदगी की बात पर विश्वास ही नहीं कर सकता। वह सोचता है कि ऐसा कैसे हो सकता है कि उस जैसे आदमी या उनसे भी अधिक बुद्धिमान् प्राणी अन्यत्र हो सकते हैं। किन्तु वैज्ञानिकों की दुनिया में आयें तो हमें विश्वास होने लगता है कि हाँ अन्यत्र भी प्राणी हो सकते हैं।

अनेक वर्षों से वैज्ञानिक मानते आये हैं कि पृथिवी के अतिरिक्त भी बुद्धिमान् प्राणी हैं। वर्तमान वैज्ञानिकों, प्राचीन ऋषियों व तर्क से तो यही लगता है कि अन्य लोकों पर प्राणियों का वास सम्भव है।

जिज्ञासा समाधान : आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा १ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चारों वर्णों का निर्णय तो कर्म के आधार पर होता है। नामकरण प्रकरण संस्कार विधि में नवजात शिशु ने अभी कोई कर्म ही नहीं किया तो किस आधार पर देवशर्मा, देववर्मा, देवगुप्त और देवदास नाम रखे जाएँ, यह बात मेरी समझ में नहीं आई। कृपया मेरी इस शंका का समाधान कर दीजिए।

– राज कुकरेजा, करनाल

यही जिज्ञासा यतीन्द्र आर्य, मन्त्री बालसमन्द, हिसार की भी है।

समाधान-१.लोक में हमारी पहचान हमारे नाम से होती है। जीवात्मा शरीर धारण कर जन्म लेता है, तब उस शरीर से युक्त मनुष्य का संसार में व्यवहार करने के लिए नाम रखा जाता है। सोलह संस्कारों में पांचवा संस्कार नामकरण संस्कार है। इस संस्कार में नवजात शिशु का सार्थक नाम रखा जाता है। शिशु के कुल, वंश को देखकर उस कुल की परम्परा अनुसार वा शिशु किस वर्ण में उत्पन्न हुआ है, उसके अनुसार नाम रखा जाता है।

महर्षि दयानन्द ने वर्णों के अनुसार नामों का संकेत किया है कि ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ हो तो अमुक नाम रखें, क्षत्रिय कुल का हो तो अमुक नाम रखें आदि।

दूसरी ओर महर्षि वर्ण का निश्चय बच्चे के बड़े हो जाने पर उसके गुण, कर्म के अनुसार करने को कहते हैं। अभी वर्ण का निश्चय हुआ नहीं और बच्चे का नाम ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि के नामों के अनुसार रखा जा रहा है। यहाँ विरोधाभास दिखाई दे रहा है। यही जिज्ञासा आप लोगों की है।

प्रथम यहाँ विचार करें कि महर्षि ने संस्कार विधि में जो बच्चे का नाम ब्राह्मण आदि का रखने के लिए कहा, वह उस बच्चे को ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि मानकर नहीं कहा है। महर्षि ने बच्चे का नाम उसके कुल के आधार पर किया है। बच्चा अभी किस वर्ण का है यह निश्चित नहीं हुआ है, फिर भी उसका नाम उसके कुल के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वाला रखने के लिए कहा है। दूसरी बात, भले ही बच्चों का अभी वर्ण निश्चित नहीं हुआ, ऐसा हेाते हुए भी अधिक सम्भावना है कि बच्चा जिस वर्ण में पैदा हुआ है, उसी का बने, क्योंकि अनुवांशिक गुण आना स्वाभाविक है। इसलिए भी उसके कुल के अनुसार नाम रख दिया जाता है।

अथवा शास्त्र में भावी संज्ञा का विधान भी है। अर्थात् जो परिस्थिति अभी तो नहीं है, किन्तु भविष्य में होने वाली है, जैसे कुर्ता अभी है नहीं फिर भी हम कपड़ा सिलाने वाले को कपड़ा देते हुए कहते हैं कि इसका कुर्ता बना दो। व्याकरण के ग्रन्थ महाभाष्य में भाविनी संज्ञा को दर्शाया है-

‘‘एवं तर्हि भाविनीयं संज्ञा विधास्यते, तद् यथा-कश्चित्कंचित्तन्तुवायमाह- ‘अस्य सूत्रस्य शाटकं वयेति, सः पश्यति यदि शाटको न वातव्यो न शाटकः, शाटको वातव्यश्चेति विप्रतिविद्धम् भाविनी खलवयं संज्ञाऽभिप्रेता, स मन्ये वातव्यो-यस्मिन्नुते शाटक इत्येतद् भवतीति।’’

– महाभाष्य १.१.४४ आह्निक ७

यह महाभाष्य का वचन हमने भावी संज्ञा होने के प्रमाण में दिया है। लोक में भी कोई डॉक्टर की पढ़ाई कर रहा है, डॉक्टर बना नहीं, फिर भी उसको डॉक्टर कहने लग जाते हैं। ऐसे ही यहाँ पर भी समझ सकते हैं।

स्वामी रामदेव जी नौ प्राणायाम, भस्रिका, कपालभाति, अनुलोम-विलोम आदि बताते हैं। लेकिन स्वामी दयानन्द जी ने न तो इनका वर्णन सत्यार्थ प्रकाश में किया है, न ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में। उन्होंने रेचक, पूरक व कुभक का वर्णन किया है कि इनको कम से कम तीन बार व अधिक से अधिक 21 बार या जितनी अपनी क्षमता हो उतनी बार करें। इनमें कोन सी विधि ठीक है,

जिज्ञासामाननीय, स्वामी रामदेव जी नौ प्राणायाम, भस्रिका, कपालभाति, अनुलोम-विलोम आदि बताते हैं। लेकिन स्वामी दयानन्द जी ने न तो इनका वर्णन सत्यार्थ प्रकाश में किया है, न ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में। उन्होंने रेचक, पूरक व कुभक का वर्णन किया है कि इनको कम से कम तीन बार व अधिक से अधिक 21 बार या जितनी अपनी क्षमता हो उतनी बार करें। इनमें कोन सी विधि ठीक है, स्वामी रामदेवजी वाली या स्वामी दयानन्दजी वाली। कृपया हमारा मार्गदर्शन करें। धन्यवाद

– तेजवीर सिंह, ए-1, जैन पार्क, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059

 

समाधानप्राणायाम परमेश्वर प्राप्ति के साधन अष्टाङ्ग योग का चौथा अङ्ग हैं। योग अंगों में सभी अंग महत्त्वपूर्ण है, सभी अंगों की महत्ता है। प्राणायाम की भी अपनी महत्ता है। प्राणायाम का महत्त्व प्रकट करते हुए महर्षि पतञ्जलि योग-दर्शन में लिखते हैं ‘‘ततः क्षीयते प्रकाशावरणम्’’ अर्थात् विधिपूर्वक योग-दर्शन में बताए प्राणायाम का निरन्तर अनुष्ठान करने से आत्मा-परमात्मा के ज्ञान को ढकने वाला आवरण जो अविद्या है वह नित्यप्रति नष्ट होता जाता है, और ज्ञान का प्रकाश बढ़ता जाता है। और भी योग-दर्शन में मन को प्रसन्न रखने वाले उपायों में प्राणायाम को भी महत्त्वपूर्ण कहा है। महर्षि ने सूत्र लिखा ‘‘प्रच्छर्दनविधारणायां वा प्राणस्य’’ (यो. 1.34) ‘‘जैसे भोजन के पीछे किसी प्रकार का वमन हो जाता है, वैसे ही भीतर के वायु को बाहर निकाल के सुखपूर्वक जितना बन सके उतना बाहर ही रोक दे। पुनः धीरे-धीरे लेके पुनरपि ऐसे ही करें। इसी प्रकार बारबार अभयास करने से प्राण उपासक के वश में हो जाता है और प्राण के स्थिर होने से मन, मन के स्थिर होने से आत्मा भी स्थिर हो जाता है। इन तीनों के स्थिर होने के समय अपने आत्मा के बीच में जो आनन्दस्वरूप अन्तर्यामी व्यापक परमेश्वर है, उसके स्वरूप में स्थिर हो जाना चाहिए।’’ (ऋ.भा.भू.)

इन ऋषि-वचनों से ज्ञात हो रहा है कि प्राणायाम हमारे मन को स्थिर व प्रसन्न करने में अति सहायक है। महर्षि दयानन्द व योग-शास्त्र के प्रणेता महर्षि पतञ्जलि ने योग में सहायक चार प्राणायामों को ही स्वीकार किया है। महर्षि दयानन्द ने इन चारों प्राणायामों की चर्चा सत्यार्थप्रकाश के तीसरे समुल्लास व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका की उपासना विषय में विस्तार से की है।

प्राणायाम का अर्थ क्या है, प्राणायाम-प्राण+आयाम इन दो शबदों से मिलकर बना है। प्राण की लमबाई, विस्तार, फैलाव, नियमन का नाम प्राणायाम है। प्राणायाम में प्राण का विस्तार किया जाता है, लमबे समय तक प्राण को रोका जाता है, ऐसी क्रिया जिसमें हो उसे प्राणायाम कहते हैं। ऐसी स्थिति में इन चार प्राणायाम में ही जो कि ऋषि प्रणीत है, प्राणायाम सिद्ध होते हैं। और भी-‘बाह्यस्य वायोराचमनं श्वासः’– बाह्य वायु का आचमन करना अर्थात् भीतर लेना ‘श्वास’ तथा ‘कौष्ठस्य वायोः निस्सारणं प्रश्वासः’-कोष्ठ के भीतर की वायु को बाहर निकालना ‘प्रश्वास’ है। इन दोनों की स्वाभाविक गति में विच्छेद-रुकावट डाल देना प्राणायाम कहाता है। श्वास-प्रश्वास नियमित रूप में बिना व्यवधान के चलते रहते हैं। प्राण अर्थात् श्वास-प्रश्वास की क्रिया की समाप्ति तो जीवन की समाप्ति है, अतः श्वास-प्रश्वास की गति को सर्वथा नहीं रोका जा सकता, उसमें अन्तर डाला जा सकता है। इस क्रिया से श्वास-प्रश्वास (प्राण) बन्द न होकर उसका आयाम-विस्तार होता है।

महर्षि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश में योग के चार प्राणायामों की विधि व उसके लाभ लिखते हैं-‘‘जैसे अत्यन्त वेग से वमन होकर अन्न जल बाहर निकल जाता है, वैसे प्राण से को बल से बाहर फेंक के बाहर ही यथाशक्ति रोक देवे। जब बाहर निकालना चाहे, तब मूलेन्द्रिय को ऊपर खींच के वायु को बाहर फेंक दे। तब तक मूलेन्द्रिय को खींचे रक्खे, जब तक प्राण बाहर ही रहता है। इस प्रकार प्राण बाहर अधिक ठहर सकता है। जब घबराहट हो तब धीरे-धीरे वायु भीतर को ले के फिर वैसा ही करते जायें। जितना सामर्थ्य और इच्छा हो। और मन (ओ3म) इसका जप करता जाय। इस प्रकार करने से आत्मा और मन की पवित्रता और स्थिरता होती है। एक ‘बाह्य’ अर्थात् बाहर ही अधिक रोकना। दूसरा ‘आयन्तर’ अर्थात् भीतर जीतना प्राण रोका जाय, उतना रोके। तीसरा ‘स्तभवृत्ति’ अर्थात् एक ही बार जहां का तहां प्राण को यथाशक्ति रोक देना। चौथा ‘बाह्यायन्तराक्षेपी’ अर्थात् जब प्राण भीतर से बाहर निकलने लगे तब उसके विरुद्ध उसको न निकलने देने के लिए बाहर से भीतर ले और बाहर से भीतर आने लगे तब भीतर से बाहर की ओर प्राण को धक्का देकर रोकता जाय। ऐसे एक दूसरे के विरुद्ध क्रिया करें तो दोनों की गति रुक कर प्राण अपने वश में होने से मन और इन्द्रियां भी स्वाधीन होते हैं। बल, पुरुषार्थ बढ़कर बुद्धि तीव्र, सूक्ष्मरूप हो जाती है कि जो बहुत कठिन और सूक्ष्म विषय को भी शीघ्र ग्रहण करती है। इससे मनुष्य शरीर में वीर्य-वृद्धि को प्राप्त होकर स्थिर बल, पराक्रम, जितेन्द्रियता, सब शास्त्रों को थोड़े ही काल में समझकर उपस्थित कर लेगा।’’ (स.प्र.3)

यहाँ महर्षि ने मानसिक व शारीरिक जो लाभ लिखे हैं वे इन चार प्राणायामों से ही माने हैं। ऋषियों द्वारा बनाई व बताई गई प्रत्येक क्रिया व बातें मनुष्य के लिए कल्याणकारी ही सिद्ध होती हैं।

योग-सिद्धि के लिए तो योगदर्शन में वर्णित प्राणायाम का विधान ऋषि ने किया है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए स्वामी रामदेव जी द्वारा बताई गई विधि भी कर सकते हैं।

यज्ञ के ब्रह्मा द्वारा यज्ञ में तीन बार दक्षिणा लेना कहाँ तक उचित है?

. यज्ञ के ब्रह्मा द्वारा यज्ञ में तीन बार दक्षिणा लेना कहाँ तक उचित है?

कृपया सविस्तार समाधान दीजिये। धन्यवाद!

– मन्त्री, रविकान्त राणा, सहारनपुर

समाधान-

(ग)यज्ञ करवाने के बाद यजमान पुरोहित को उचित दक्षिणा अपने सामर्थ्य अनुसार अवश्य देवें, यह शास्त्र का विधान है। यज्ञ की दक्षिणा एक बार यज्ञ समपन्न होने पर दी जाती है अथवा यज्ञ समपन्न होने पर पुरोहित को दक्षिणा लेनी चाहिए। वह दक्षिणा एक ही बार दी जाती है। तीन-तीन बार लेने वाला भी पुरोहित महापुरुष है, इसका तो आश्चर्य है। आज यज्ञ जैसे परोपकार-रूप कर्म को भी कमाई का साधन बनाते जा रहे हैं। पौराणिक पुरोहित तो धन-हरण के लिए यज्ञकर्म में अनेक अवैदिक लीलाएँ करते हैं, किन्तु आर्यसमाज के पुरोहित द्रव्य के लालच में ऐसी क्रियाएँ कर बैठते हैं। यजमान से संकल्प पाठ करवाते समय पैसे रखवा लेते हैं, यज्ञ की दक्षिणा तो लेते ही हैं। यज्ञ की पूर्णाहुति के बाद यजमानों व अन्य लोगों को फल व अन्य खाद्य पदार्थ का पुरोहित या ब्रह्मा अपने हाथ से प्रसाद के रूप में वितरण करते हैं, इस वितरण का प्रयोजन द्रव्य प्राप्ति ही है।

तीन-तीन बार दक्षिणा किस प्रकार ले लेते हैं यह तो मेरी भी समझ में नहीं आया। फिर भी जो तीन-तीन बार लेता है सो अनुचित ही करता है। अस्तु।