यज्ञ विधि की शंका समाधान : आचार्य सोमदेव जी

जिज्ञासा १- आचार्य सोमदेव जी की सेवा में सादर नमस्ते।

आर्यसमाजी दुनिया के किसी कोने में क्यों न हो। वे भगवान् के लिए हवन ही करते हैं। वेद की आज्ञा के आधार पर हमारे टापू में भी आर्यसमाज की तीन संस्थाएँ हैं, जो यज्ञ हवन बराबर करते आ रहे हैं।

हवन करते समय कहीं-कहीं पहले आचमन करते हैं, अंगस्पर्श और शेष कर्मकाण्ड। कहीं पर देखते हैं कि बिना आचमन किये ईश्वर-स्तुति-प्रार्थना, शान्तिकरण और अन्य मन्त्र पढऩे के बाद आचमन करते हैं, अग्न्याधान करते हैं और शेष पश्चात्। उसमें सही कौन है? पहले आचमन, अंगस्पर्श या मन्त्रों को पढक़र आचमन, अंग स्पर्श बाद में। यह मनमानी तो नहीं है या ऋषि दयानन्द की आज्ञा के आधार पर करते हैं, यह आपकी वाणी के आशीर्वाद से स्पष्टीकरण हो जायेगा, प्रतीक्षा रहेगी। अग्रिम धन्यवाद।

– सोनालाल नेमधारी, मॉरिशस


जिज्ञासा २- माननीय आचार्य जी, सादर नमस्ते।

विनती विशेष, मैं परोपकारी का नियमित पाठक हूँ। ‘शंका समाधान’ स्तम्भ के माध्यम से बहुत सारी शंकाओं का समाधान हो जाता है, किन्तु अभी तक निम्न शंकाओं का समाधान नहीं मिला है, कृपा कर समाधान करें।

क- ब्रह्म पारायण यज्ञ क्या है तथा उसकी विधि किस प्रकार की है?

ख- यज्ञोपवीत धारण करते समय जिन मन्त्रों का पाठ किया जाता है, उसका दूसरा मन्त्र आधा ही क्यों लिखा तथा पढ़ा जाता है।

ग- आघारावाज्याभागाहुति जब-जब भी यज्ञ में जिस स्थान पर दी जायेगी, तब-तब उसी प्रकार निश्चित दिशाओं में दी जायेगी अथवा केवल यज्ञ के आरम्भ में ही? कृपया स्पष्ट करें।

घ- यज्ञ में आहुति देने के पश्चात् कहीं ‘इदं न मम’ बोला जाता है, कहीं नहीं। इसका प्राचीन गृह्य सूत्रादि ग्रन्थों के अनुसार क्या नियम है?

– आर्य प्रकाशवीर भीमसेन, उदगीर, महा.



समाधान १- यज्ञ करने की विधि के अनेक अंग है, स्तुति-प्रार्थना-उपासना, आचमन, अंगस्पर्श, जल सिञ्चन आदि। यज्ञ की विधि के अंगों का क्रम क्या हो, यह विधि विधान हमें एकरूप से देखने को नहीं मिलता। मुख्य रूप से आचमन व अंगस्पर्श के विषय में यह अधिक देखने को मिलता है। कहीं कोई आचमन, अंग-स्पर्श, स्तुति-प्रार्थना उपासना आदि मन्त्रों के पहले करता है, तो कहीं कोई बाद में। आर्यसमाज में यज्ञ की विधि में एकरूपता देखने को नहीं मिलती।

यदि एकरूपता स्थापित हो जाये तो सर्वोत्तम है, चाहे वह एकरूपता पहले आचमन, अंग-स्पर्श करने में हो, चाहे बाद में। पूरे विश्व में जहाँ भी आर्यसमाज का पुरोहित व्यक्ति यज्ञ करे-करवावे, तो उसी एकरूपता वाली पद्धति से करे-करवावे। ऐसा करने से हमारे संगठन में भी दृढ़ता आयेगी।

यदि आर्य-विद्वान्, आर्य-संस्थाएँ एकत्र होकर यज्ञ विषयक पद्धति को सुनिश्चित कर उसके अनुसार यज्ञ करें तो अधिक शोभनीय होगा।

हमारी दृष्टि से तो जो क्रम महर्षि दयानन्द ने संस्कार-विधि में दिया है, उसी क्रम से यज्ञ-विधि का सम्पादन करना चाहिए। महर्षि ने संस्कार-विधि में आचमन, अंगस्पर्श स्तुति-प्रार्थना-उपासना आदि मन्त्रों के बाद करने को लिखा, सो उनके लिखे अनुसार सभी आर्यजन अनुकरण करें। जहाँ कहीं हमें महर्षि का स्पष्ट लेख उपलब्ध नहीं होता, वहाँ आर्य-विद्वान् इक_ा हो, वेदानुकूल पद्धति का निर्माण कर लेवें और उसको स्थापित कर दें और आर्यजनों का कत्र्तव्य है कि उसका सब पालन करें। अस्तु।

समाधान २- (क) यज्ञ करने को ऋषियों ने हमारे जीवन से जोड़ा। जोडऩे के लिए इसको धार्मिक कृत्य के रूप में रखा। आज वर्तमान में धार्मिक कृत्य के नाम पर स्वार्थी लोग पाखण्ड करते दिखाई देते मिल जायेंगे, ऐसा करके वे अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। यज्ञ भी धार्मिक कृत्य है, इसमें भी स्वार्थी लोग अपना पाखण्ड जोड़ देते हैं। जैसे यज्ञों के विशेष-विशेष नाम रखना, सर्वमनोकामनापूर्ण यज्ञ, सर्वरोगहरण यज्ञ, अमुक-अमुक बचाओ यज्ञ, वशीकरण यज्ञ, शत्रुविनाशक यज्ञ आदि-आदि। जैसे ये आकर्षक नाम हंै, ऐसा ही ब्रह्मपारायण यज्ञ भी एक है। शास्त्र में ब्रह्मपारायण यज्ञ का वर्णन कहीं पढऩे-देखने को हमें मिला नहीं, किसी महानुभाव को मिला हो तो हमें भी अवगत कराने की कृपा करें। जब इसका वर्णन ही नहीं मिला तो इसकी विधि भी कैसे बता सकते हैं!

(ख) यज्ञोपवीत धारण करते समय जो दूसरे मन्त्र का पाठ किया जाता है, वह मन्त्र का आधा भाग है। आपका कथन है कि आधा भाग पूरा क्यों नहीं? इसमें हमारा कहना है कि अनेकत्र महर्षि की प्रवृत्ति देखी जाती है कि जितने भाग से प्रयोजन की सिद्धि हो रही है, उतने भाग को महर्षि ले लेते हैं, शेष को छोड़ देते हैं। यहाँ भी ऐसा ही है, इसलिए आधा भाग दिया है।

यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि।

अर्थात् तू यज्ञोपवीत है, तुझे यज्ञ कार्य के लिए यज्ञोपवीत के रूप में ग्रहण करता हूँ। यहाँ यज्ञोपवीत ग्रहण करना था इसलिए ‘उपनह्यामि’ तक का भाग ले लिया।

ग्रह्यसूत्र में ‘उपनह्यामि’ के बाद जो मन्त्र का भाग है वह यज्ञोपवीत विषयक नहीं है, उससे आगे प्रकरण बदल जाता है। वस्त्र, दण्ड आदि ग्रहण करने का प्रकरण प्रारम्भ हो जाता है, इसलिए मन्त्र का जितना भाग आवश्यक था, महर्षि उतने भाग का विनियोग कर लिया, शेष का नहीं।

(ग) ‘आघारावाज्याभागाहुति’ जब-जब देनी हो, तब-तब सुनिश्चित भाग में ही देनी चाहिए, यही उचित है।

(घ) यज्ञ में आहुति देने के पश्चात् ‘इदं न मम’ वाक्य कहाँ-कहाँ बोला जाता है और कहाँ नहीं, इसका ज्ञान हमें नहीं है, कहीं पढऩे को भी नहीं मिला, इसलिए इस विषय में कुछ कह नहीं सकते। हाँ, जैसा महर्षि ने निर्देश किया है, वैसा करते रहें, जब अधिक जानकारी प्राप्त हो जाये तो अधिक किया जा सकता है। अलम्।

 

One thought on “यज्ञ विधि की शंका समाधान : आचार्य सोमदेव जी”

  1. Yaj havan mein ekroopta avashyak hai. Rishi dayanand ke nirdeshon ke anusaar samdya aur agnihotra/havan karna arsha vidhi hai. Samskaravidhi ki padhati ko apanayein. Svami ji Samskaravidhi mein likhte hain ki GRIHASRAM PRAKARANA mein jeisa likha hai weisa karein.

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