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आर्य समाज व आर्यवीर दल -कर्मवीर

 

किसी भी परिवार, संस्था, समाज या राष्ट्र को उन्नत बनाने में युवाओं का विशेष योगदान रहता है। इसका कारण यह होता है कि युवाओं के अन्दर उत्साह-सामर्थ्य-शक्ति अधिक होती है, जिसका अभाव बहुत छोटे बच्चों व वृद्धों में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। युवाओं के अन्दर किसी भी कार्य की दिशा व दशा बदलने की सामर्थ्य होती है, यदि युवा सचरित्र, समर्थ तथा निष्ठावान् हों।

यही कारण है कि आज हमारे देश के माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी यह दावा करते हैं कि हम भारत को दुनिया के शिखर पर ले जा सकते हैं, क्योंकि पूरे संसार में अन्य देशों की तुलना में भारत के पास सबसे अधिक युवाशक्ति है। यदि इस युवाशक्ति को ठीक मार्ग-दर्शन दिया जावे तो अवश्य ही भारत विश्व के श्रेष्ठतम देशों में होगा।

जिसके पास युवा शक्ति कम होती है, उसका भविष्य अन्धकार में जाने की सभावना रहती है, क्योंकि युवा कार्यकर्त्ताओंके अभाव में विशेषतः सैन्य व तकनीकी के क्षेत्र में तो उनकी सुरक्षा पर प्रश्न-चिह्न लगने लगते हैं। परिवार-समाज-राष्ट्र के पास सपत्ति हो, पर सुरक्षा की सामर्थ्य न हो तो उनकी सपदा पर विरोधियों की नीयत खराब होने लगती है।

कुछ ऐसी ही स्थिति वर्तमान में आर्य समाज की है। आर्य समाज ने भी अपने को सशक्त-समर्थ-सुरक्षित रखने के लिए युवा इकाई के रूप में आर्यवीर दल संगठन को बनाया। आर्यवीर दल की पहचान आर्य समाज के सैनिक संगठन के रूप में हुई।

आर्यवीर दल ने आर्य समाज के नेतृत्व में आर्य समाज की ही नहीं, अपितु आवश्यकता पड़ने पर अपनी सामर्थ्य/शक्ति के अनुसार सपूर्ण समाज, राष्ट्र एवं हिन्दू जाति की सेवा-सुरक्षा की। देश विभाजन के समय जो हिन्दू शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान (बंगलादेश) से आये, मुस्लिम अंसार गुण्डे उन पर आक्रमण करते, मारने व लूटने का यत्न करते। इस विपत्ति के समय आर्यवीर दल ने हिन्दू शरणार्थियों की सुरक्षा की उनकी सपत्ति को बचाया।

हिन्दुओं के गङ्गा-यमुना इत्यादि तीर्थ स्थलों पर मेले लगते। उनमें मुस्लिम युवक हिन्दू महिलाओं के साथ छेड़खानी करते, तो उनकी सुरक्षा के लिए आर्यवीरों को दायित्व दिया जाता था। हैदराबाद मुक्तिसंग्राम में आर्यवीरों का विशेष सहयोग – बलिदान रहा, क्योंकि आर्यवीरों को आर्य समाज के द्वारा धर्म-राष्ट्र की रक्षा के लिए सज्जित किया जाता था।

वर्तमान में भी आर्य समाज के बड़े समेलनों में व्यवस्था व सुरक्षा की जिमेदारी आर्यवीर दल को ही दी जाती है।

जिन आर्य समाजों में आर्यवीर दल सक्रिय है, उन आर्य समाजों की गतिविधि व शोभा अलग ही दिखाई देती है। वहाँ के कार्यक्रमों की व्यवस्था-सुरक्षा व व्यायाम प्रदर्शन आदि का लोगों के मस्तिष्क पर विशेष प्रभाव पड़ता है। भारत के अनेक प्रान्तों में आर्य समाज के साथ-साथ आर्यवीर दल का कार्य रहा है, इन्हीं प्रान्तों में वीरभूमि राजस्थान भी अग्रणी है। राजस्थान की आर्य समाजों में आर्यवीर दल की विशेष भूमिका है। आर्यवीर दल गंगापुर सिटी नेाी आर्य समाज के प्रचार-प्रसार में बड़ी भूमिका निभाई है। यहाँ का आर्यवीर दल संगठन बड़ा जागरूक है। वर्तमान में भी इस नगर में आर्यवीर दल की दो शाखाएँ सतत कार्य कर रही हैं, यहाँ के शिक्षक व आर्यवीर बड़े योग्य व उत्साही हैं। शाखाओं में आने वाले आर्यवीरों को शारीरिक रूप से सुदृढ़ किया जाता है, वहीं पर उनको योग्य आर्य भद्र पुरुषों द्वारा जीवन की उन्नति के लिए प्रेरित किया जाता है। जिसका परिणाम यह रहा कि शाखाओं में आने वाले दो-तीन आर्यवीरों ने राजस्थान की बोर्ड परीक्षाओं में भी  उच्च स्थान प्राप्त किया।

आर्य वीर दल गंगापुर सिटी के मुय प्रेरणा स्रोत माननीय मदनमोहन जी व उनके समस्त सहयोगी हैं। मदन मोहन जी ने अपना पूरा जीवन आर्य समाज व आर्यवीर दल की सेवा में लगाया है। आप एक निर्भीक व दृढ़ आस्थावान आर्य पुरुष है। आपकी छत्रछाया में आर्यवीर दल गंगापुर शहर कार्य करता है। प्रत्येक वर्ष दशहरा पर्व पर आर्यवीर दल द्वारा भव्य कार्यक्रम किया जाता है । जिसमें आर्यवीरों द्वारा व्यायाम प्रदर्शन होता है। शहर के अनेक स्त्री-पुरुष इस कार्यक्रम को देखने आते हैं। कार्यक्रम में एक विशेष कार्य यह किया जाता है कि दर्शक तथा कार्यकर्त्ता संगठन के लिए वीरनिधि एकत्र करते हैं। अपनी स्वेच्छा से लोग इसमें सहयोग करते हैं। यह इस नगर की वर्षों पुरानी परपरा है। इस दशहरे पर कार्यक्रम में समिलित होने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ।

आर्य वीर दल गंगापुर सिटी के 15 वर्ष के घोर संघर्ष के उपरान्त उच्च न्यायालय राजस्थान के आदेशानुसार नगर के बीच में पड़ने वाली 26 दुकानें पिछले वर्ष बन्द करा दी गई। इसका सारा श्रेय आर्यवीर दल व उसके नेता मदनमोहन जी को जाता है। आपने धैर्य नहीं छोड़ा और 15 वर्ष तक केस लड़ते रहे, अन्ततः सफलता प्राप्त हुई। ये हम सब आर्य जनों के गौरव पूर्ण कार्य है। शहर में मुस्लिमों की संया भी पर्याप्त है। यहाँ कई घटनाएँ ऐसी हुईं, जो हिन्दू युवतियाँ मुस्लिम युवकों के साथ चली गई, परन्तु उनका वैदिक रीति से विवाह संस्कार आर्य समाज ने कराया। इसी कारण से नगर के सभी पौराणिक लोग भी मदनमोहन जी का बहुत समान करते हैं तथा आर्य समाज व आर्य वीर दल को मुक्त हस्त से दान देते हैं। आपकी आयु लगभग 70 वर्ष है, परन्तु आपका उत्साह अभी भी युवकों जैसा है, इसीलिए आप सैंकड़ों योग्य आर्य वीरों के प्रेरणा स्रोत रहे। इसी गंगापुर शहर ने दिवंगत सीताराम जी जैसे कर्मठ आर्यवीर को तैयार किया।

इतना कुछ लिखने का उद्देश्य/प्रयोजन यह है कि आर्य समाज व आर्यवीर दल का माता-पिता व संतान जैसा संबंध है। संतान योग्य व समर्थ तथा संस्कारवान होती है तो माता-पिता की उन्नति-प्रगति, यश-प्रशंसा व सुरक्षा होती है। दुर्भाग्य से कुछ आर्य समाज के कथित पदाधिकारी गण आर्य समाज को अलग व आर्यवीर दल को अलग मानने लगे तथा आर्य वीर दल का विरोध करने लगे। आर्यवीरों के आर्य समाज में प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगाने लगे। इसका कारण रहा सपत्ति। जो अधिकारी आर्यसमाज के धन सपत्ति का मनमाने ढंग से उपभोग करते, आर्यवीर दल द्वारा विरोध किये जाने के भय से ऐसे आर्यवीर दल का बहिष्कार किया विरोध किया, ताकि वे निरंकुश होकर स्वार्थ सिद्धि कर सके।

कुछ दोष आर्यवीर दल का भी हो सकता है, परन्तु यदि सन्तान पथ से विचलित हो जाए तो उसको सही मार्ग दिखाने का दायित्व माता-पिता का होता। ऐसा ही दायित्व आर्य समाज का आर्यवीर दल के प्रति है।

जिस घर में संतान नहीं होती, उस गृहस्थ की सपत्ति पड़ोसियों की नजर टेढ़ी होने लगती है तथा जिसकी संतान योग्य हो बलवान हो, ऐसे गृहस्थ सुख चैन से जीवन व्यतीत करते हैं।

आर्य समाजों में युवकों को जोड़ने अपनी संया को बढ़ाने और न्यून खर्च में अच्छी सफलता प्राप्त करने का आर्यवीर दल एक उत्तम प्रक्रम है। हम सब आर्यभद्र पुरुषों का कर्त्तव्य है कि आर्य समाज की प्रत्येक संस्था में आर्य वीर दल की शाखाएँ चले, सब आर्य परिवारों के बच्चे शाखाओं में अनिवार्य रूप से भाग लें तथा आर्य जन उनको उत्तम चरित्र की शिक्षा दें, तो आर्य परिवारों के बच्चों को यह नहीं कहना पड़ेगा कि मेरे दादा-नाना आर्य समाजी थे।

अजमेर के अन्दर सरकारी परीक्षाएँ होती रहती है। ऋषि भूमि परोपकारिणी सभा में अनेक युवक परीक्षा के निमित्त आकर ठहरते हैं। कोई भी युवक एक बार यह कह दे कि मैं आर्य समाज से आया हूँ, आर्य समाज से पत्र लाये न लाये, परन्तु सभी के अधिकारियों की उदारता है कि सभा द्वारा सबके भोजन-आवास की समुचित व्यवस्था की जाती है। आये हुए युवकों से कई बार पूछ लेते हैं कि क्या आप आर्य समाजी हैं तो उत्तर मिलता है- मेरे दादा या नाना आर्य समाजी थे। मैं तो आर्य समाज में नहीं जाता हॅूँ। इसके कारण होते दादा-नाना यदि वे अपने पोते-नाती को आर्य समाज में लेकर जायेंगे, आर्यवीर दल द्वारा उन्हें खेल-खेल में आर्य सिद्धान्तों का ज्ञान होगा तो आर्य परिवारों के बच्चों को यह नहीं कहना पड़ेगा कि मेरे दादा-नाना आर्य समाजी थे, मैं नहीं।      -ऋषि उद्यान, अजमेर।

आज 23 दिसम्बर को 90 वें बलिदान दिवस पर ‘स्वामी श्रद्धानन्द का महान व्यक्ति और कार्य भावी पीढि़यों के लिए प्रेरणा’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

वैदिक धर्म व संस्कृति के प्रेमी, समाज सुधारक, विश्व-प्रसिद्ध संस्था गुरुकुल कांगड़ी के संस्थापक और शिक्षा शास्त्री, स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणीय नेता, हिन्दुओं के रक्षक, शुद्धि आन्दोलन के प्रणेता और शीर्ष नेता, धर्मोपदेशक, साहित्यकार स्वामी श्रद्धानन्द जी का आज नब्बेवां बलिदान दिवस है। 26 दिसम्बर, 1926 को 71 वर्ष की आयु में आज के ही दिन एक षड़यन्त्र के अन्तर्गत एक विधर्मी ने उन्हें रुणावस्था में धोखे से गोली मार कर शहीद कर दिया था। स्वामीजी का जीवन प्राचीन शास्त्रीय गुरुकुल शिक्षा पद्धति के पुनरुद्वार सहित ईश्वर प्रदत्त वेद द्वारा प्रचलित ज्ञान व विज्ञान पूर्ण मान्यताओं एवं सिद्धान्तों से युक्त सत्य वैदिक धर्म के प्रचार व प्रसार एवं हिन्दु जाति के संगठन व सुधार के कार्यों के लिए समर्पित था। आज उनके बलिदान दिवस पर उनको श्रद्धाजंलि प्रस्तुत करते हुए हम उनके समय की देश की प्रख्यात हस्तियों द्वारा उनको दी गई श्रद्धाजंलियों के माध्यम से उनके व्यक्तित्व व कृतित्व को जानने व जनाने का प्रयास कर रहे हैं।

 

संयुक्त प्रान्त (वर्तमान का उत्तर प्रदेश) के छोटे लाट सर जेम्स मेस्टन ने गुरुकुल वृन्दावन में संवत् 1923 में दिये अपने भाषण में उनके विषय में कहा था कि ‘मैंने शीघ्र ही आपकी मुख्य और पुरानी गुरुकुल कांगड़ी और उसी समय आपके नेताओं और मित्रों में से बहुतों से परिचय लाभ किया। इसी समय महात्मा मुंशीराम जी से मेरा परिचय हुआ। मुझे विश्वास है कि उनका विनय मेरे लिये प्रबल हेतु है कि उक्त नामी सज्जन के विषय में जो सम्मति मैंने स्थिर की है, उसे मैं प्रकट करूं। पर उनके भावों का सत्कार करते हुए निःसंकोच इतना अवश्य कहूंगा कि एक मिनिट भी उनके साथ रहते हुए उनके भावों की सत्यता और उनके उद्देश्यों कि उच्चता को अनुभव करना असम्भव है। दुर्भाग्यवश हम सब मुंशी नहीं हो सकते।

 

मौलाना मुहम्मद अली ने उनके विषय में लिखा है कि उनका (स्वामीजी का) मुख्य कार्य उनके धर्म-संगठन के सम्बन्ध में था और उस बारे में शंका नहीं की जा सकती। फिर भी इतना तो सही है ही कि वे जिसे अपना धर्म मानते थे, उसके लिये काम करने में उन्होंने उल्लेखनीय लगन दिखायी थी। उनकी हिम्मत के बारे में शंका ही नहीं थी। साहस और शौर्य के वे मिश्रण थे। गोरखों की संगीनों के सामने अपनी छाती खोल देने वाले उस बहादुर देश प्रेमी का चित्र अपनी नजर के सामने रखना मुझे बहुत अच्छा लगता है। ऐसी उम्दा मौत के मिलन से उन्हें तो कुछ नहीं लगता, मगर हमारे लिये यह महान् दुःखदायक घटना है।

 

पं. मदन मोहन मालवीय हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध नेता थे। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना सहित देश की आजादी में उनका उल्लेखनीय योगदान था। उन्होंने स्वामी श्रद्धानन्द जी के प्रति अपने भावों को प्रकट करते हुए लिखा है कि ‘हमारे परम देशभक्त और हिन्दू जाति के परम सेवक श्रद्धानन्द जी का देहान्त एक पतित पुरुष के हाथ से हुआ है। स्वामी जी इस देश के एक चमकते तारे थे। इनका देश-प्रेम 40 वर्ष से सरकार को विदित है। पहले तो वे वकालत करते थे। 20 वर्ष पहले इन्होंने गुरुकुल कांगड़ी स्थापित किया और उस संस्था को अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया। इनकी देश-भक्ति कैसी थी, इसका स्मरण कराने की जरूरत नहीं। आपको पता ही होगा कि दिल्ली में छाती खोलकर के बन्दूकों के सामने खड़े रहे थे। हिन्दू महासभा के काम में वे बड़ा भाग लेने वाले थे। शुद्धि के तो वे आचार्य ही थे। हजारों मलकानों को उन्होंने हिन्दू बनाया था। स्वामी जी को शुद्धि और संगठन की चिन्ता थी। 71 वर्ष की उम्र के ऐसे स्वामी को कोई मार डाले, यह लज्जा और शोक की बात है।

 

स्वामीजी के लिए तो यह बड़ी बात थी, क्योंकि उनकी ऐसी मृत्यु हिन्दू धर्म के मृत शरीर में नया प्राण-मन्त्र फूंकने जैसा है। ….इस प्रकार दिल्ली में हमारे एक प्रधान नेता ने धर्म की खातिर अपने प्राण दिये हैं। स्वामी श्रद्धानन्द भी ऐसे ही दूसरे शहीद हुए हैं। ये किसी धर्म के साथ वैर नहीं रखते थे। हिन्दुओं की सेवा करते थे। इससे हमें क्या सीखना है? जैसे तेगबहादुर की मृत्यु से हिन्दूजाति में जागृति आयी थी और औरंगजेब का जोर टूटा था, वैसे ही हमें यह चीज सीखनी है कि हिन्दूजाति का प्रत्येक मनुष्य शुद्धि और संगठन के काम में लग जाये।

 

स्वामी जी का दूसरा उपदेश यह है कि ऐसे काम में किसी भी प्रकार का डर न रखा जाये। उन्होंने शुद्धि के काम में डर नहीं रखा। इतना ही नहीं, परन्तु जरा भी अन्याय नहीं किया। वे कहते थे कि मुसलमान को हिन्दू बनाने का प्रत्येक हिन्दू को अधिकार है। मैं तो कहता हूं कि यह तबलीग (धर्म परिवर्तन या भ्रष्ट करने का आन्दोलन) सर्वथा बन्द हो जाये। ईसाई भी यह काम बन्द कर दें। मगर जब हजारों मुसलमान और ईसाई हिन्दुओं को धर्मभ्रष्ट करने को बैठे हैं, तब कोई हमें यह नहीं कह सकता कि हिन्दुओं की शुद्धि नहीं करनी चाहिये। अलबत्ता ऐसा करने में हम किसी के प्रति अन्याय करें, यह बात स्वामी जी हमेशा करते थे और यह भी कहते थे कि यह आन्दोलन राष्ट्रीय एकता का विरोधी नहीं होना चाहिये। घोर पाप होता हो तो भी हिन्दू अपने धर्म में दृढ़ रहे और बदला लेने का पाप न करें। भविष्य में किसी दिन हिन्दू-संतान की निन्दा हो, ऐसा नहीं होना चाहिये। स्वामी जी के शोकयुक्त अवसान का स्मारक किस ढंग से बनाये? एक दिन नियत किया जाये, जब सभी मिलें और उनके नाम से एक कोष बनाया जाये। उनके जाने से उनके साथ का हमारा सम्बन्ध टूट नहीं गया। वे अभी जिन्दा हैं।

 

सुप्रसिद्ध राष्ट्रीय कवि श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर ने स्वामी श्रद्धानन्द जी का स्मरण करते हुए कहा है कि हमारे देश में जो सत्य-व्रत को ग्रहण करने के अधिकारी हैं एवं इस व्रत के लिये प्राण देकर जो पालन करने की शक्ति रखते हैं, उनकी संख्या बहुत ही कम होने के कारण हमारे देश की इतनी दुर्गति है। ऐसी अवस्था जहां है, वहां स्वामी श्रद्धानन्द जैसे इतने बड़े वीर की इस प्रकार मृत्यु से कितनी हानि हुई होगी, इसका वर्णन करने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु इनके मध्य एक बात अवश्य है कि उनकी मृत्यु कितनी ही शोचनीय हुई हो, किन्तु इस मृत्यु ने उनके प्राण एवं चरित्र को उतना ही महान बना दिया है।

 

देश के सर्वोतम एवं महान नेता, भारत के प्रथम गृहमन्त्री और उपप्रधानमंत्री सरदार बल्लभभाई पटेल ने स्वामी श्रद्धानन्द जी का स्मरण करते हुए लिखा है कि स्वामी श्रद्धानन्द जी की याद आते ही 1919 का दृश्य मेरी आंखों के सामने खड़ा हो जाता है। सरकारी सिपाही फायर करने की तैयारी में है। स्वामी जी छाती खोल कर सामने जाते हैं और कहते हैं, लो, चलाओ गोलियां। उनकी उस वीरता पर कौन मुग्ध नहीं हो जाता? मैं चाहता हूं कि उस वीर संन्यासी का स्मरण हमारे अन्दर सदैव वीरता और बलिदान के भावों को भरता रहे।

 

उपन्यास सम्राट मुन्शी प्रेमचन्द ने उनको स्मरण कर लिखा है कि यों तो स्वामी जी प्राचीन आर्य आदर्शों के पूर्ण रूप में प्रवर्तक थे, पर मेरे विचार में राष्ट्रीय शिक्षा के पुनरुत्थान में उन्होंने जो काम किया है उसकी कोई नजीर नहीं मिलती। ऐसे युग में जब अन्य बाजारी चीजों की तरह विद्या बिकती है, यह स्वामी श्रद्धानन्द जी का ही दिमाग था जिसने प्राचीन गुरुकुल प्रथा में भारत के उद्धार का तत्व समझा। ….समय उनके अनुकूल न था, विरोधियों का पूछना ही क्या, चारों तरफ बाधायें ही बाधायें। पर वे जितने आदर्शवादी थे, उतने ही हिम्मत के धनी थे। किसी बात की परवाह न करते हुये गुरुकुलों की स्थापना कर दी।

 

पादरी सी.ए्फ. एण्ड्रूज व स्वामीजी में गहरे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। उनकी दृष्टि में इस जीवन में बहुत कम ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें मैं उतना प्रेम करता हूं जितना स्वामी श्रद्धानन्द जी को करता था। हमारी स्वच्छ, निर्मल तथा प्रगाढ़़ मैत्री में कदाचित् ही धुन्धलापन आया हो। उनके उच्च चरित्र की ही महत्ता थी जिसने उनके प्रति मेरे प्रेम को सच्चा और गहरा बनाया था। यह जानकर मैं बहुत प्रसन्न होता था कि स्वामी जी मुझ से प्रेम करते हैं। ….स्वामी श्रद्धानन्द एक अत्यन्त स्निग्ध और उदार हृदय रखते थे। जब कभी गरीबों, दुःखियों और दलितों के नाम पर उनके हृदय को अपील की जाती थी तो वह अपील उनके लिए अपरिहार्य हुआ करती थी। इसलिये जबजब बलिदान जयन्ती आये तबतब उनके सच्चे प्रेमियों का ध्यान गरीबों की ओर, जिन्हें वह प्यार करते थे, जाना चाहिये और उन गरीबों को भी परमात्मा के बच्चे समझना चाहिये।स्वतन्त्रता आन्दोलन की प्रसिद्ध नेत्री श्रीमती सरोजिनी नायडू ने स्वामी के विषय में लिखा है कि मेरी स्मृति और मेरे अनुराग के आराध्य देवता स्वामी श्रद्धानन्द वर्तमान संतति के सम्मुख एक ऐतिहासकि मूर्ति के रूप में विराजमान हैं। मैं सदैव अनुभव करती हूं कि स्वामी श्रद्धानन्द भारत के वीरकाल की एक दिव्य विभूति थे। अपनी भव्य-मूर्ति और ऊंचे व्यक्तित्व के द्वारा वह अपने साथियों में देवता की नाई रहा करते थे। वह अपने जीवन की शहादत की अन्तिम घडि़यों तक साहस और कर्मयोग की अनुपम मूर्ति रहे और भारतीय जीवन के धार्मिक व आध्यात्मिक क्षेत्र में और राष्ट्र सुधार के कार्यों में इन गुणों का सुन्दर परिचय देते रहे। गानव-समाज की सेवा के सम्बन्ध में उनके उच्च भावों का मैं बहुत आदर करती हूं।’

 

भारत की आजादी के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित करने वाले जीवित शहीद, अंग्रेजों द्वारा दो जन्मों के कारावास की सजा से दण्डित वा पुरस्कृत तथा काला पानी में रहकर जिन्होंने अनेक इतिहास नया इतिहास रचा, उस भारत माता के वीरसपूत वीर विनायक दामोदर सावरकर ने स्वामी श्रद्धानन्द को अपनी श्रद्धाजंलि में कहा है कि इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि हमारे श्रद्धेय स्वामी श्रद्धानन्द ने हिन्दू-जाति पर तथा हिन्दुस्तान की बलि-वेदी पर अपने जीवन की आहुति दे दी। उनका सम्पूर्ण जीवन विशेषकर उनकी शानदार मौत हिन्दू-जाति के लिये एक स्पष्ट सन्देश देतती है। ……हिन्दू-राष्ट्र के प्रति हिन्दुओं का क्या कर्तव्य है-इसे मैं स्वामी जी के अपने शब्दों में ही रखना चाहता हूं। सन् 1926 के 29 अप्रैल के ‘‘लिबरेटन” पत्र में वे लिखते हैं–‘‘स्वराज्य तभी सम्भव हो सकता है जब हिन्दु इतने अधिक संगठित और शक्तिशाली हों जाएं कि नौकरशाही तथा मुस्लिम धर्मोन्माद का मुकाबला कर सकें।” उपर्युक्त उद्धरण से हिन्दू जाति की तीव्र मांग का पता चल सकता है और विशेषकर ऐसे नाजुक समय में जबकि इस पर चारों ओर से आघात और आक्रमण हो रहे हों।

 

लेख को और अधिक विस्तार न देते हुए निवेदन है कि हमें स्वामी श्रद्धानन्द जी के व्यक्तित्व व कृतित्व को समझने के लिए उनकी आत्मकथा तथा उनके ग्रन्थों के संग्रह ‘‘श्रद्धानन्द ग्रन्थावली का अध्ययन करना चाहिये। यह अध्ययन हमारे जीवन का कर्तव्य निर्धारित करने में निश्चय ही सहायक हो सकता है। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपने जीवन में जो महान कार्य किए उनके कारण उनका यश सदैव विद्यमान रहेगा और भावी पीढ़ी उनसे प्रेरणा ग्रहण कर उनके विचारों के अनुरुप देश का निर्माण करने में अपने कर्तव्य का पालन करेंगे, इन्हीं शब्दों के साथ लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

वेदप्रचार की लगन ऐसी हो: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

वेदप्रचार की लगन ऐसी हो: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

 

आचार्य भद्रसेनजी अजमेरवाले एक निष्ठावान् आर्य विद्वान्

थे। ‘प्रभुभक्त दयानन्द’ जैसी उत्तम  कृति उनकी ऋषिभक्ति व

आतिथ्य  भाव का एक सुन्दर उदाहरण है। अजमेर के कई पौराणिक

परिवार अपने यहाँ संस्कारों के अवसर पर आपको बुलाया करते

थे। एक धनी पौराणिक परिवार में वे प्रायः आमन्त्रित किये जाते थे।

उन्हें उस घर में चार आने दक्षिणा मिला करती थी। कुछ वर्षों के

पश्चात् दक्षिणा चार से बढ़ाकर आठ आने कर दी गई।

एक बार उस घर में कोई संस्कार करवाकर आचार्य प्रवर लौटे

तो पुत्रों श्री वेदरत्न, देवरत्न आदि ने पूछा-क्या  दक्षिणा मिली?

आचार्यजी ने कहा-आठ आना।

बच्चों ने कहा-आप ऐसे घरों में जाते ही ज़्यों हैं? उन्हें क्या

कमी है?

वैदिक धर्म का दीवाना आर्यसमाज का मूर्धन्य विद्वान् तपःपूत

भद्रसेन बोला-चलो, वैदिकरीति से संस्कार हो जाता है अन्यथा

वह पौराणिक पुरोहितों को बुलवालेंगे। जिन विभूतियों के हृदय में

ऋषि मिशन के लिए ऐसे सुन्दर भाव थे, उन्हीं की सतत साधना से

वैदिक धर्म का प्रचार हुआ है और आगे भी उन्हीं का अनुसरण

करने से कुछ बनेगा।

 

‘भारत माता के वीर आदर्श सपूत शहीद रामप्रसाद बिस्मिल और उनके साथी’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

आज की युवापीढ़ी आधुनिक युग के निर्माता देशभक्तों को भूल चुकी है जिनकी दया, कृपा, त्याग व बलिदान के कारण आज हम स्वतन्त्र वातावरण में सम्मानजनक जीवन व्यतीत कर रहे हैं। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि आज की युवा पीढ़ी प्रायः धर्म, जाति व देश के प्रति अपने कर्तव्यों के प्रति सजग नहीं है वा विमुख है। यह आश्चर्य है कि हमें देश-विदेश के क्रिकेट आदि खिलाडि़यों, फिल्मी अभिनेताओं, बड़े-बड़े घोटाले व भ्रष्टाचार करने वाले राजनीतिज्ञों के नाम व कार्यो के बारे में तो ज्ञान है परन्तु जिन लोगों अपने जीवन को बलिदान करके देशवासियों को गुलामी व अपमानित जीवन जीने से बचाया है, उन्हें हम भूल चुके हैं। इसे देशवासियों की उन हुतात्मा बलिदानियों के प्रति कृतघ्नता ही कह सकते हैं। ऐसा क्यों हुआ? इसका सरल उत्तर है कि स्वतन्त्रता के बाद देश में जो वातावरण बना और नैतिकता, देश भक्ति व योग को शिक्षा पद्धति में अनिवार्य विषयों में सम्मिलित नहीं किया, उसके कारण ही ऐसा हुआ है। आज की युवा पीढ़ी ने स्वदेशी सभी अच्छी चीजों को छोड़ दिया है और पाश्चात्य अच्छी व बुरी सभी चीजों को अविवेकपूर्ण ढंग से अपनाया है व अपनाती जा रही है। ऐसे प्रतिकूल वातावरण में शहीदों के जन्म व बलिदान दिवस हमें अवसर देते हैं कि हम तत्कालीन परिस्थितियों में उनके द्वारा किए गये कार्यो पर दृष्टिपात कर उनका मूल्यांकन करें व उनसे शिक्षा व प्रेरणा ग्रहण कर अपना कर्तव्य निर्धारित करें। भारत माता को विदेशी आक्रान्ताओं से, जो देशवासियों को पल-प्रतिपल अपमानित करते थे, जिनके शासन में हमारा प्राचीन वैदिक सनातन धर्म व संस्कृति सुरक्षित नहीं थे, जो देश की सम्पदाओं को लूटते थे, देशवासियों के श्रम का व उनका बौद्धिक शोषण करते थे, जिन्होंने हमारी अस्मिता को अपने अहंकार व द्वेष-बुद्धि से कुचल दिया था, उन क्रूर शासकों से देश को मुक्त कराने के लिए जिस भारतमाता के वीर सपूत ने आज के दिन अपना तन, मन व धन मातृभूमि की स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर अर्पित किया था, उस नरपुगंव का नाम है पं. रामप्रसाद बिस्मिल।  शहीद बिस्मिल ने 29 वर्ष की भरी जवानी में 19 दिसम्बर, 1927 को फांसी के फन्दे को चूम कर अपना बलिदान दिया। उनके जीवन पर दृष्टि डालने पर ज्ञात होता है कि उनके जीवन का उद्देश्य विदेशी शासक अंग्रेजों की पराधीनता से देश को मुक्त कर सभी देशवासियों के प्राचीन धर्म व संस्कृति की रक्षा, सम्मानजनक जीवन के साथ देश की एकता व अखण्डता की रक्षा करते हुए सबकी शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक व आत्मिक उन्नति करना एवं वैदिक आदर्श सत्य व न्याय पर आधारित शासन स्थापित करना था।

 

रामप्रसाद बिस्मिल के पिता श्री मुरलीधर, चाचा श्री कल्याणमल तथा पितामह श्री नारायणलाल थे। आप चार भाई व पांच बहने थी जिनमें आप सबसे बड़े थे। पिता कुछ शिक्षित थे। ग्वालियर से आकर शाहजहांपुर, संयुक्त प्रान्त में बसे थे। मुरलीधरजी ने पहले नगर पालिका में 15 रूपये मासिक पर सर्विस की और इसके बाद कोर्ट में स्टाम्प पेपर बेचने का काम किया। आपके परिवार में पुत्रियों को जन्म लेते ही मार दिया जाता था परन्तु आपके पिता ने यह कुकृत्य नहीं किया यद्यपि आपके दादाजी का पुत्रियों की हत्या करने का परामर्श था। रामप्रसाद जी का जन्म 11 जून सन् 1897 को हुआ। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा हिन्दी व उर्दू में हुई। अपनी धर्म पारायणा माताजी की प्रेरणा से आपने अंग्रेजी भी सीखी।  बचपन में आपको अनेक बुरे व्यस्न लग गये। शाहजहांपुर में घर के पास ही आर्यसमाज मन्दिर था, वहां आप जाने लगे। मन्दिर के पण्डितजी ने आपको ब्रह्मचर्य व व्यायाम के बारे में बताया और उसका पालन करने को कहा जिससे आपको सही दिशा मिली।  आर्यसमाज मन्दिर में आपको श्री इन्द्रजीत जी का सत्संग प्राप्त हुआ। उन्होंने आपको ईश्वर का ध्यान करना व महर्षि दयानन्द रचित सन्ध्या करना सिखाया। उनकी प्रेरणा से आपने सत्यार्थप्रकाश पढ़ा। सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से आपके सारे व्यस्न छूट गये और आपमें देशप्रेम व देश को स्वतन्त्र कराने की प्रबल भावना उत्पन्न हुई। आपका स्वास्थ्य जो पहले खराब रहता था अब सन्ध्या, व्यायाम व योगाभ्यास से दर्शनीय हो गया। हमें आर्यसमाजी मित्र, आर्य विद्वान प्रो. अनूप सिंह से ज्ञात हुआ था कि आप अपने भव्य, प्रभावशाली व आकर्षक शरीर के कारण दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो गये। लोग दूर-दूर से आपकी प्रशंसा सुनकर आपको देखने आने लगे।

 

पं. रामप्रसाद बिसिल्ल जी को आर्यसमाज के सम्पर्क में आने से पूर्व अनेक दुर्व्यसन लग गये थे। दुर्व्यसनों के लिए पैसे चाहिये। इसके लिए वह पिता के पैसे भी चोरी कर लेते थे। दुर्व्यसनों को छुपकर किया जाता है, इसलिए अन्यों पर वह प्रायः प्रकट नहीं होते हैं। रामप्रसाद जी धूम्रपान, भांग का सेवन, चरित्र बिगाड़ने वाले उपन्यासों को पढ़ना व निरर्थक घूमना-फिरना व उसमें समय नष्ट करना जैसे लक्ष्य से भटके मनुष्य की भांति कार्य करते थे। रामप्रसाद जी का भाग्योदय हुआ। संयोग से आप आर्यसमाज के सम्पर्क में आये। यहां आर्यों की संगति व उनसे मिलने वाले तर्क पूर्ण सुझावों ने आपको प्रभावित करना आरम्भ किया। व्यस्नों से जीवन को होने वाली हानि का स्वरूप आप पर प्रकट होने से उनके प्रति अरूचि हो गई। हमने इस अल्प जीवन में अनेक लोगों को उठते हुए भी देखा है और वेदों व सत्यार्थ प्रकाश पढ़े व दूसरों को सदाचारी व आर्य बनाने वाले को नाना प्रकार के बुरे कार्य करते हुए भी पाया है जिनसे चरित्र का पतन होता है।  यह सामान्य बात है, ऐसी घटनायें समाचार पत्रों व टीवी आदि पर भी यदा-कदा देखने को मिलती रहती हैं। रामप्रसाद जी में जो दूषण थे वह अज्ञानता, मन के नियन्त्रित न होने व इन्द्रियों के दास बनने के कारण उत्पन्न हुए थे, उनका दूर होना सरल था। उन्हें इनके दुष्प्रभावों का ज्ञान हुआ तो उन्होंने इसे त्याग दिया और इनके त्याग से आत्मा की शुद्धि प्राप्त करके एक अज्ञात युवा महात्मा बन गये या महात्मा बनने के मार्ग पर तेजी से बढ़ चले।

 

आर्यसमाज में सन्ध्या, हवन, वहां के सच्चरित्र सदस्यों एवं विद्वानों के उपदेशों, उनकी संगति, वार्तालाप व उनकी सेवा का आप पर ऐसा प्रभाव हुआ कि आर्यसमाज में रहकर आप अपना अधिक समय व्यतीत करने लगे। पिता आर्यसमाज के वास्तविक स्वरूप से अपरिचित थे। उन्हें अपने पुत्र रामप्रसाद का वहां अधिक समय व्यतीत करना अच्छा नहीं लगता था। इससे वह उनसे क्रुद्ध हो गये। उन्होंने रामप्रसादजी को वहां जाने से मना किया और अपशब्द कहकर धमकी भी दी की सोते समय उसका गला काट देगें। इस कारण घर से भी उन्हें निकाल दिया। इस कठिन परीक्षा में, जिसे छोटी अग्नि परीक्षा भी कह सकते हैं, हमारे पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी पूरी तरह सफल हुए। यदि वह पिता के अनुचित सुझाव को मान लेते तो उनका जीवन निरर्थक होता और इतिहास में उनकी शहादत की जो युगान्तरकारी घटना घटी, वह न हुई होती।  यहां हम स्वामी श्रद्धानन्द के उदाहरण को भी स्मरण कर सकते हैं जब इस युवावस्था में नास्तिक युवा मुंशीराम, श्रद्धानन्द कहलाने से पूर्व का नाम, के पौराणिक व अन्धविश्वासों को मानने वाले पिता नानक चन्द बरेली में महर्षि दयानन्द के सत्संग में लेकर जाते हैं, इस आशा के साथ कि स्वामी दयानन्द के सत्संग व उपदेश के प्रभाव से इसकी नास्तिकता समाप्त हो जायेगी।  महर्षि दयानन्द के सत्संग से उनकी नास्तिकता भी समाप्त हुई, सारे दुव्र्यस्न भी समाप्त हुए और एक दुर्व्यसनी युवक आगे चलकर अपने युग का युगपुरूष बन गया जिसका स्मारक गुरूकुल कांगड़ी आज भी अतीत के स्वर्णिम कार्यों को संजोय हुए उनकी साक्षी दे रहा है।

 

पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी को मुंशी इन्द्रजीत से सत्यार्थ प्रकाश भी पढ़ने को मिला। सत्यार्थ प्रकाश से आपको ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति, धर्म, कर्म, यज्ञ, सन्ध्या, जीवन-मृत्यु के रहस्य, पुनर्जन्म, सुख, दुख, बन्धन, मोक्ष, देश भक्ति, मातृभूमि से प्रेम, उसकी सेवा, माता-पिता-गुरूजनों-सज्जनों-वृद्धों की सेवा, मत-मतान्तरों का वास्तविक ज्ञान व उन सबमें सत्य व असत्य मान्ताओं का मिश्रण, धर्म केवल एक है जिसमें सर्वांश सत्य होता है, असत्य बिल्कुल नहीं होता आदि का ज्ञान हुआ एवं मूर्तिपूजादि पोषित पौराणिक वा कथित सनातन धर्म सहित बौद्ध, जैन, नास्तिक मत, ईसाई व इस्लाम मत की अवैदिक व अज्ञानपूर्ण बातों का ज्ञान भी हो गया। इतना ज्ञान होना, इसके धारण की भावना का होना, इनकी इच्छा, संकल्प, प्रयत्न करना व इससे सहमत होना — यह सब एक महात्मा के लक्षण हैं। रामप्रसाद बिस्मिल भी इसके साक्षी बने व इन्हें अपने जीवन में धारण किया।

 

आर्यसमाज, शाहजहांपुर में एक बार आर्य संन्यासी स्वामी सोमदेव जी का आगमन हुआ। स्वामीजी धार्मिक विद्वान होने के साथ-साथ देश की परतन्त्रता व उसके परिणामों से व्यथित थे। आपको इनका सत्संग प्राप्त हुआ। सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय, संस्कृत वाक्य प्रबोध एवं व्यवहार भानु जैसे ग्रन्थों को पढ़कर देश को आजाद कराने के बीजों का वपन तो आपके हृदय में हो ही चुका था। उनको खाद व पानी स्वामी सोमदेव जी के सत्संग, वार्तालाप व सेवा से प्राप्त हुआ। उनके परामर्श से आपने देश की आजादी के लिए कार्य करने का अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। आर्य मनीषी डा. भवानी लाल भारतीय ने लिखा है कि स्वामी सोमदेव जी की शिक्षाओं से प्रभावित होकर रामप्रसाद बिस्मिल ने प्रतिज्ञा की – अंग्रेजी साम्राज्य का नाश करना मेरे जीवन का प्रमुख लक्ष्य होगा। इस प्रतिज्ञा के बाद आपने युवकों का एक संगठन बनाया। इस संगठन की योजनाओं को पूरा करने के लिए शस्त्रों की आवश्यकता थी और उन्हें खरीदने के धन चाहिये था। आपने धन की प्राप्ति के लिए एक पुस्तक लिखी जिसका नाम था – अमेरिका को स्वतन्त्रता कैसे मिली?’ इसकी बिक्री से प्राप्त धन अपर्याप्त था।  दूसरा उपाय यह किया कि पास के एक गांव पर सशस्त्र हमला कर धन लूटा गया। यह ध्यान रखा गया कि किसी को भी शारीरिक क्षति नहीं पहुंचानी है। पराधीन भारत माता को आजाद करने के लिए उसी की सन्तानों से धन प्राप्त करने का उस समय उन्हें यही तरीका दिखाई दिया। इस घटना से आप पुलिस की जानकारी में तो आ गये परन्तु गिरिफ्तारी से बचते रहे। सन् 1920 में राजनैतिक कैदियों व अन्य अपराधियों को आम माफी दिये जाने के बाद आपके नाम जारी वारण्ट भी रद्द हो गया। तब आप अज्ञात स्थान से शाहजहांपुर आ गये। जब आपने युवकों का सशस्त्र दल बनाया तो सुप्रसिद्ध देशभक्त, शहीद व आपके अभिन्न मित्र अशफाक उल्ला खां भी आपके सम्पर्क में आये। दोनों में पक्की दोस्ती हो गई। अशफाक को अपने मित्र बिस्मिलजी को बहुत निकट से देखने का अवसर मिला। वह भी आर्यसमाज मन्दिर में आने लगे। हम अनुमानतः कह सकते हैं कि उन्होंने आर्य समाज के सत्यस्वरूप को काफी हद तक समझा था। एक बार कुछ मुसलमानों ने आर्यसमाज पर आक्रमण कर दिया। अशफाक उल्ला उस समय आर्य समाज मन्दिर में पं. रामप्रसाद बिस्मिल के साथ ही थे।  अशफाक ने रामप्रसाद जी के साथ मिलकर आक्रमणकारियों को ललकारा था और उनके मंसूबे विफल कर दिये थे। इस मित्रता को सच्ची मित्रता कह सकते हैं और हिन्दू-मुस्लिम संबंधों की एक अच्छी मिसाल भी। इन दोनों की मित्रता के अनेक प्रसंग हैं, जो प्रेरणाप्रद हैं।

 

पं. राम प्रसाद बिस्मिल प्रसिद्ध उर्दू-फारसी के कवि भी थे। आपकी रचनायें आजादी के आन्दोलन के दिनों में सभी लोगों की जुबान पर होतीं थीं। आज भी उनमें ताजगी है, देश प्रेम व हृदय को छू लेने की उनमें अवर्णनीय क्षमता है। नमूने के रूप में कुछ को देखते हैं। फांसी के फन्दे को चूमने से पूर्व उन्होंने कहा था – मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे। बाकी मैं रहूं और मेरी आरजू रहे।। जब तक कि तन में जान रगों में लहू बहे। तेरा ही जिक्र और तेरी जुस्तजू रहे।। भारतमाता के प्रति अपने उद्गार व्यक्त करते हुए आपने लिखा था – यदि देश हित मरना पड़े मुझको सहस्रों बार भी। तो भी मैं इस कष्ट को निज ध्यान में लाऊं कभी।। हे ईश भारत वर्ष में शत बार मेरा जन्म हो। कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो।। देश प्रेम पर उनकी पंक्तियां हैं – ‘‘हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रहकर, हमको भी पाला था मांबाप ने दुख सहसह कर। वक्ते रूखसत उन्हें इतना भी आये कहकर, गोद में कभी आंसू बहें जो रूख से बहकर।। तिफ्ल उनको ही समझ लेना जी बहलाने का। देष सेवा का ही बहता है अब तो लहू नसनस में। हमने जब वादि गुरबत में कदम रखा था। दूर तक यादें वतन आईं थी समझाने को।  उनकी पंक्तियों सर फरोसी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजू कातिल में है। पर तो एक फिल्मी गीत बन चुका है जो कभी देश के बच्चे-बच्चे की जुबान पर होता था।  मरने से पूर्व उन्होंने लिखा – मरते बिस्मिल, रोशन, लाहिड़ी, अशफाक अत्याचार से, पैदा होगें सैकड़ों इनके रूधिर की धार से।

 

अन्याय करना व अन्याय सहना दोनों ही गलत हैं। अंग्रेज देशवासियों पर अमानवीय अत्याचार करते थे। जाते-जाते भी वह देश का विभाजन करा गये और इस बात का भी प्रयास किया कि खण्डित भारत सबल देश न बन सके। रामप्रसाद बिस्मिल जी अंग्रेजों के भारतीयों के प्रति अन्याय को दूर कर देशवासियों के लिए सम्मान, ईश्वर व प्रकृति प्रदत्त समानता व स्वतन्त्रता के अधिकारों को प्राप्त कराना व सभी सामाजिक बन्धुओं व देशवासियों को दिलाना चाहते थे। इसी विचारधारा ने उन्हें सशस्त्र क्रान्ति का नायक बनाया। हम जब विचार करते हैं कि कोई किसी की सम्पत्ति को छीन लें या उसकी अचल सम्पत्ति पर कब्जा कर लें, तो उस अन्यायकारी को कैसे हटा कर सम्पत्ति को मुक्त कराया जाये? इसके दो ही तरीके हैं कि पहले उसे बताया व समझाया जाये कि उसने गलत किया है, वह सम्पत्ति लौटा दें। प्रायः सम्पत्ति छीनने वाला व लूटने वाला अधिक बलवान होने के कारण सत्य के आग्रह करने पर सम्पत्ति लौटाता नही हैं। यदि ऐसा होता तो चीन ने हमारी भूमि अब तक हमें लौटा दी होती। पाकिस्तान ने अनधिकृत कश्मीर हमें सौंप दिया होता। यहां तो अन्य भागों पर भी कब्जा करने के मंसूबे बनायें जाते हैं और गुप्त रूप से उन पर कार्य भी किया जाता है जिसमें हमारे निर्दोष लोग अपने प्राणों से हाथ धो बैठते हैं। जनता के हाथ में ताकत तो होती नहीं। वह सरकार की ओर देखती है।  छीनी गई अपनी सम्पत्ति को अपने शत्रु से लेने का दूसरा तरीका केवल बल प्रयोग ही बचता है।  यही तरीका बाद में महान देशभक्त नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने भी अपनाया जिसको सारे देश ने समर्थन दिया।  उनका नारा – तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा। आज भी कानों में गूंज जाता है। ऐसा ही कुछ हमारे देशभक्त क्रान्तिकारी सोचते थे कि कैसे अपने अपमान को रोका जाये, हमें उचित अधिकार प्राप्त हों और देश स्वतन्त्र हो। उनके द्वारा अपनाया गया मार्ग गलत नहीं था। रामप्रसाद जी के सामने पृष्ठ भूमि कुछ अलग रही होगी। उन्होंने निर्णय किया कि शस्त्रों के लिए धन की जो आवश्यकता है उसे सरकारी खजाने का लूट कर पूरा किया जाये। वस्तुतः खजाने का धन भी जनता व देशवासियों का ही धन था। योजना बनाई गई और उसके अनुसार 9 अगस्त, सन् 1925 की रात्रि को जब रेल लखनऊ के निकट काकोरी स्टेशन पर पहुंचीं, तो उसे रोक कर उसमें सरकारी खजाने से 10,000 रूपये लूट लिए गये। यह घटना अपने आप में ही अत्याचारी अंग्रेजों के लिए एक सबक था कि उनके लाख प्रयत्नों, लोगो को दबाने व कुचलने के बाद भी ऐसी घटना घट गई। इससे बौखला करघटना में शामिल देशभक्तों की धर पकड़ का अभियान चला। रामप्रसाद बिस्मिल पकड़ लिये गये। उन पर दबाव डाला गया कि वह अपने सभी साथियों के नाम बताये। उन्हें निष्कृटतम् यातनायें दी गईं। वह सब उन्होने अपनी देशभक्ति के कारण सहन की। सरकार की ओर से दिखावे का मुकदमा चलाया गया और उन्हें मृत्यु दण्ड के रूप में फांसी की सजा दी गई। उनके अन्य साथियों अशफाक उल्ला खां, रोशन सिंह व राजेन्द्र लाहिड़ी को भी फांसी की सजा दी गई। हम जब विचार करते हैं तो हमें लगता है कि यह लोग अपनी मातृभूमि से प्रेम करते थे। उसे आजाद कराना चाहते थे। अंग्रेजों द्वारा जो भारतीयों का अपमान किया जाता था उसका यह लोग विरोध करते थे। इस सबका तो इन्हें पारितोषिक मिलना चाहिये था।  यदि वस्तुतः अंग्रेज न्यायप्रिय होते तो कदापि इन देशभक्त युवकों को सजा न देते।  अपने देश में भी तो वह इसी प्रकार से देश भक्ति के कार्य करते हैं। इससे यह सिद्ध है कि सत्य व न्याय का कोई गुण हमारे तत्कालीन शासकों में नही था। हमें देश के उन तत्कालीन बड़े नेताओं से भी शिकायत हैं जो इन युवकों को फांसी दिए जाने पर मौन व खामोश थे। इतना तो कह ही सकते कि यह निर्णय गलत है। अस्तु। पं. रामप्रसाद बिस्मिल को काल कोठरी में रखा गया। वहां का वातावरण पशुओं से भी बदतर था।  इस पर भी उन्होंने वहां योग साधना की और यह एक सुखद आश्चर्य है कि उस दूषित वातावरण में जहां मनुष्य जीवित नहीं रह सकता, उनके शरीर का भार घटने के स्थान पर बढ़ा। वहां रहते हुए उन्होंने अपनी आत्म कथा भी लिखी, जो सौभाग्य से उपलब्ध है और सभी युवक व वृद्धों के लिए पठनीय है। इस प्रेरणादायक आत्मकथा को स्कूली शिक्षा में सम्मिलित किया जाना चाहये था जिससे युवापीढ़ी देशभक्त बनती। परन्तु कहें किसे, सर्वत्र अहितकर वातावरण है। अब से 88 वर्ष पहले, 19 दिसम्बर, सन् 1927 को उन्हें गोरखपुर में फांसी पर चढ़ाया गया। प्रातः उठकर उन्होंने स्नान कर व्यायाम व सन्ध्या की और हवन किया। फांसी के फन्दे पर खड़े होकर अपनी इच्छा व्यक्त की और कहा – ‘I wish the downfall of British Empire’. यह कह कर वेदमन्त्र ओ३म् विश्वानिदेव सवितरदुरितानि परासुव यद् भद्रं तन्न सुव। कह कर फांसी पर झूल गये। इस समय आपकी आयु लगभग 29 वर्ष थी। देश को आजाद कराने की उनकी भावना आंशिक रूप से 15 अगस्त, सन् 1947 को पूरी हुई।  आजाद होने पर भी उनके स्वप्नों के अनुरूप देश नहीं बन सका। आज भी सत्य व न्याय पर आधारित अध्यात्म ज्ञान से सम्पन्न देश के निर्माण का कार्य शेष है जो कालान्तर मे पूरा होगा। युवा पीढ़ी उनके जीवन से प्रेरणा ग्रहण करे, यह अपेक्षा की जाती है। उनके बलिदान दिवस के अवसर पर हमारी पं. रामपप्रसाद बिस्मिल को हार्दिक श्रद्धांजलि। उनके अन्य साथी देशभक्त वीर अशफाक उल्ला खां, रोशन सिंह व राजेन्द्र लाहिड़ी जी को श्री सश्रद्ध सादर नमन।

 –मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

दूरभाषः 09412985121

‘मर्यादा पुरुषोत्तम राम का विश्व के महापुरुषों में सर्वोत्तम स्मरणीय चरित्र’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

यदि किसी मनुष्य को धर्म का साक्षात् स्वरुप देखना हो तो उसे वाल्मीकि रामायण का अध्ययन करना चाहिये। श्री राम का चरित्र वस्तुतः आदर्श धर्मात्मा का जीवन चरित्र है। महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना करके वस्तुतः श्री रामचन्द्र जी के काल में प्रचलित धर्म व संस्कृति को ही प्रचारित व प्रसारित किया है। उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में वैदिक धर्म व संस्कृति के उन्नयनार्थ बालक-बालिकाओं वा विद्यार्थियों के लिए जो पाठविधि दी है उसमें उन्होंने वाल्मीकि रामायण को भी सम्मिलित किया है। उन्होंने लिखा है कि मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण और महाभारत के उद्योगपर्वान्तर्गत विदुरनीति आदि अच्छेअच्छे प्रकरण जिनसे दुष्ट व्यसन दूर हों और उत्तमा सभ्यता प्राप्त हो को काव्यरीति से अर्थात् पदच्छेद, पदार्थोक्ति, अन्वय, विशेष्य विशेषण और भावार्थ को अध्यापक लोग जनावें और विद्यार्थी लोग जानते जायें। महर्षि दयानन्द की इन पंक्तियों से यह विदित होता है कि वह चाहते थे कि भारत का बच्चा-बच्चा मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी के जीवन चरित्र से परिचित हो और अपने जीवन और व्यवहार में अनको अपना आदर्श मानकर उनका अनुकरण करे। यह सुविदित तथ्य है कि वाल्मीकि रामायण में महाभारतकाल के बाद अनेक प्रक्षेप व क्षेपक डाल दिये गये। अतः रामायण का शुद्ध स्वरूप बालकों व विद्यार्थियों तक लाने के लिए आर्यसमाज के विद्वानों स्वामी जगदीश्वरानन्द जी और महात्मा प्रेमभिक्षु जी ने वाल्मिीकि रामायण के शुद्ध व ऐतिहासिक तथ्यों से युक्त भव्य, प्रभावशाली व संक्षिप्त संस्करणों का रामायण नाम से ही सम्पादन किया जिसे न केवल भारतीय अपितु विश्व के सभी लोगों को पढ़ना चाहिये।

 

प्रस्तुत लेख में हम भारत व विश्व के सर्वोत्तम आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवन के कुछ प्रेरणादायक व आदर्श प्रसंगों को प्रस्तत कर रहे हैं। आर्य विद्वान श्री कृष्णचन्द्र गर्ग जी ने उनके विषय में लिखा है कि श्री राम अयोध्या के राजा थे। वे बड़े प्रतापी, सहनशील, धर्मात्मा, प्रजापालक, निष्पाप, निष्कलंक थे। उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम भी कहा जाता है क्योंकि उन्होंने मानव समाज के लिए आदर्श व्यवहार की मर्यादाएं स्थापित कीं। वे आज से लगभग नौ लाख वर्ष पूर्व त्रेतायुग के अन्त में हुए थे। उनके समकालीन महर्षि वाल्मीकि ने अपने रामायण ग्रन्थ में उनका जीवन-चरित्र दिया है।

 

महर्षि वाल्मीकि अपने आश्रम में बैठे थे। घूमते हुए नारद मुनि वहां आ पहुंचे। तब वाल्मीकि ने नारद से पूछा? इस संसार में वीर, धर्म को जानने वाला, कृतज्ञ, सत्यवादी, सच्चरित्र, सब प्राणियों का हितकारी, विद्वान, उत्तम कार्य करने में समर्थ, सब के लिए प्रिय दर्शन वाला, जितेन्द्रिय, क्रोध को जीतने वाला, तेजस्वी, ईष्र्या करने वाला, युद्ध में क्रोध आने पर देव भी जिससे भयभीत हों ऐसा मनुष्य कौन है, यह जानने की मुझे उत्सुकता है। तब नारद मुनि ने ऐसे बहुत से दुर्लभ गुणों वाले श्री राम का वृत्तान्त सुनाया।

 

महाराजा दशरथ ने श्री राम को युवराज बनाने का अपना विचार सारी परिषत् के सामने रखा। तब परिषत् ने इस प्रस्ताव का अनुमोदन करते हुए श्री राम के गुणों का वर्णन इस प्रकार किया प्रजा को सुख देने में श्री राम चन्द्रमा के तुल्य हैं, वे धर्मज्ञ, सत्यवादी, शीलयुक्त, ईष्र्या से रहित, शान्त, दुखियों को सान्त्वचना देने वाले, मधुरभाषी, कृतज्ञ, और जितेन्द्रिय हैं।मनुष्यों पर कोई आपत्ति आने पर वे स्वयं दुःखी होते हैं और उत्सव के समय पिता की भान्ति प्रसन्न होते हैं। …. उनका क्रोध और प्रसन्नता कभी निरर्थक नहीं होती। वे मारने योग्य को मारते हैं और निर्दोषों पर कभी क्रोध नहीं करते।

 

श्री राम के गुणों का वर्णन कैकेयी ने स्वयं किया है। जब श्री राम को राजतिलक देने का निर्णय हुआ तब सभी को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। कैकेयी को यह समाचार उसकी दासी ने जाकर दिया। तब कैकेयी आनन्द विभोर हो गई और अपना एक बहुमुल्य हार कुब्जा को देकर कहने लगी-‘‘हे मथरे ! तूने यह अत्यन्त आनन्ददायक समाचार सुनाया है। इसके बदले में मैं तुम्हें और क्या दूं। परन्तु मन्थरा ने द्वेष से भरकर कहा कि राम के राजा बनने से तेरा, भरत का और मेरा हित न होगा। तब कैकेयी राम के गुणों का वर्णन करती हुई कहती है-‘‘राम धर्मज्ञ, गुणवान्, जितेन्द्रिय, सत्यवादी और पवित्र हैं तथा बड़े पुत्र होने के कारण वे ही राज्य के अधिकारी हैं। राम अपने भाईयों और सेवकों का अपनी सन्तान की तरह पालन करते हैं।

 

श्री राम की महत्ता वसिष्ठ के शब्दों में–

 

आहूतस्याभिषेकाय विसृष्टस्य वनाय च।

मया लक्षितस्तस्य स्वल्पोऽप्याकारविभ्रमः।।    (वाल्मीकि रामायण)

 

अर्थराज्याभिषेक के लिए बुलाए गए और वन के लिए विदा किए गए श्री राम के मुख के आकार में मैंने कोई भी अन्तर नहीं देखा। राज्याभिषेक के अवसर पर उनके मुख मण्डल पर कोई प्रसन्नता नहीं थी और वनवास के दुःखों से उनके चेहरे पर शोक की रेखाएं नहीं थी।

 

उदये सविता रक्तो रक्तरचास्तमये तथा। सम्पत्तौ विपत्तौ महतामेकरूपता।।

 

अर्थसूर्य उदय होता हुआ लाल होता है और अस्त होता हुआ भी लाल होता है। इसी प्रकार महापुरुष सम्पत्ति और विपत्ति में समान ही रहते हैं। सम्पत्ति प्राप्त होने पर हर्षित नहीं होते और विपत्ति पड़़ने पर दुःखी नहीं होते।

 

वन को जाते हुए श्री राम अयोध्यावासियों से कहते हैं-‘‘आप लोगों का मेरे प्रति जो प्रेम तथा सम्मान है, मुझे प्रसन्नता तभी होगी यदि आप मेरे प्रति किया जाने वाला व्यवहार ही भरत के प्रति भी करेंगे।

 

अपने नाना के यहां से अयोध्या लौटने पर जब भरत और शत्रुघ्न को पता लगा कि सारे पाप की जड़ मन्थरा है, तब शत्रुघ्न को उस पर बहुत क्रोध आया और उसने मन्थरा को पकड़ लिया और उसे भूमि पर पटक कर घसीटने लगा। तब भरत ने कहा–यदि इस कुब्जा के मारने का पता श्री राम को चल गया तो वह धर्मात्मा हम दोनों से बात तक करेंगे। यह थी श्री राम की महत्ता।

 

हनुमान जी अशोक वाटिका में सीता से श्री रामचन्द्र जी की बाबत कहते हैं-

 

यजुर्वेदविनीतश्च वेदविद्भिः सुपूजितः। धनुर्वेदे वेदे वेदांगेषु निष्ठितः।। 

 

अर्थ-श्री रामचन्द्र जी यजुर्वेद में पारंगत हैं, बड़े-बड़े ऋषि भी इसके लिए उनको मानते अर्थात् आदर देते हैं तथा वे धनुर्वेद और वेद वेदांगों में भी प्रवीण हैं। यह वेद-वेदांगों में प्रवीण होना उनके ऋषि होने का भी प्रमाण है। महाभारत के बाद श्री रामचन्द्र में निहित सभी गुणों वाले एक ही महापुरुष उत्पन्न हुए हैं। उनका नाम था स्वामी दयानन्द सरस्वती।

 

रामराज्य का वर्णन करते हुए वाल्मीकि रामायण में बताया गया है–

 

निर्दस्युरभवल्लोको नानर्थं कश्चिदस्पृशत्। स्म वृद्धा बालानां प्रेतकार्याणि कुर्वते।।

 

अर्थ-राज्य भर में चोरों, डाकुओं और लुटेरों का कहीं नाम तक न था। दूसरे के धन को कोई छूता तक न था। श्री राम के शासन काल में किसी वृद्ध ने किसी बालक का मृतक संस्कार (प्रेत कार्य) नहीं किया था अर्थात् राजा राम के समय में बाल मृत्यु नहीं होती थी।

 

सर्वं मुदितमेवासीत्सर्वो धर्मपरोऽभवत्। राममेवानुपश्यन्तो नाभ्यहिंसन्परस्परम्।।          

 

अर्थ–रामराज्य में सब अपने-अपने वर्णानुसार धर्म कार्यों में तत्पर रहते थे। इसलिए सब लोग सदा सुप्रसन्न रहते थे। राम दुःखी होंगे इस विचार से प्रजाजन परस्पर एक दूसरे को दुःख नहीं देते थे।

 

आर्यसमाज के शीर्षस्थ विद्वान व नेता, शिक्षाशास्त्री, समाज-सुधारक, शुद्धि आन्दोलन के प्रभावशाली नेता, स्वतन्त्रता आन्दोलन में अपने शौर्य और बुद्धिमत्ता से अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करने वाले स्वामी श्रद्धानन्द ने रामायण की रहस्य कथा नाम से एक लघु पुस्तिका लिखी है जो कि पठनीय है। इस लघु पुस्तिका में स्वामी श्रद्धानन्द ने स्वयं को रामायण का भक्त बताया है और रामचरितमानस का अंग्रेजी में अनुवाद करने वाले बुलन्दशहर में कलैक्टर रहे एक अंगे्रज महानुभाव श्री ग्राउस का एक संस्मरण प्रस्तुत किया है। उन्होंने लिखा है कि मेरे जैसे (रामायणानुरागी) भक्त को एक समय रामायण पर मुगध एक अंग्रेज अफसर मिले। उन्होंने रामायण का अंग्रेजी में अनुवाद किया था। उस अंग्रेज सज्जन ने मुझसे कहा कि ‘‘जगत् के वांग्मय (साहित्य) में राम जैसा (आदर्श) पात्र कहीं नहीं मिला। मैं धर्म में ख्रिश्ती हूं, ईसा का मैं अनुयायी हूं, फिर भी रामचन्द्र जी को एक हिन्दू भक्त जिस भाव से पूजता है उसी भाव से मैं भी राम की पूजा करता है। आप रामचन्द्र जी को मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं, वैसे ही मुझे भी राम पुरुषोत्तम प्रतीत होते हैं। रामचरित्र का जिसमें वर्णन है वह रामायण मुझे जगत् का अद्वितीय महाकाव्य प्रतीत होता है। राम और रामायण के परिचय से मेरा जीवन सार्थक को गया।  

 

लेख को विराम देने से पूर्व यह भी बताना है कि श्री राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे। वह युगपुरुष, आदर्श राजा, ईश्वरभक्त, मातृ-पितृ-भक्त, आदर्श भाई-पुत्र-शिष्य-प्रजापालक आदि थे। वह धर्म का साक्षात् रूप थे। यह भी जानना है कि वह इस संसार को बनाने व चलाने वाले ईश्वर नहीं थे, वह सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान, सृष्टिकत्र्ता, जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार या प्रारब्ध के अनुसार भिन्न-भिन्न योनियों में मनुष्यादि का जन्म देने वाले ईश्वर नहीं थे। संसार को बनाने व चलाने वाला ईश्वर अजन्मा है, वह कभी जन्म या अवतार नहीं लेता, वह सर्वव्यापक, निराकार व सर्वान्तर्यामी रूप से संसार के करने योग्य सभी कार्य कर सकता है। रावण व कंस व उनके जैसे किसी भी अन्यायकारी पुरुष का हनन करने के लिए उसे अवतार या जन्म लेने की किंचित आवश्यकता नहीं है। वह तो इच्छा मात्र से उनके प्राण उनके शरीर से पृथक कर सकता है। हमें रामायण व महाभारत आदि इतिहास के प्राचीन ग्रन्थों को पढ़कर श्री राम व योगेश्वर कृष्ण सहित महर्षि दयानन्द जी के गुणों को अपने जीवन में धारण करना है। इनके जीवन के अनुरुप जीवन बनाकर व वैदिक सिद्धान्तों का पूर्ण रूप से पालन करके ही हमारे जीवन का कल्याण सम्भव है। इन्हीं शब्दों के साथ लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

लाला जीवनदासजी का हृदय-परिवर्तन: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

 

आर्यसमाज के इतिहास से सुपरिचित सज्जन लाला जीवनदास

जी के नाम नामी से परिचित ही हैं। जब ऋषि ने विषपान से देह

त्याग किया तो जो आर्यपुरुष उनकी अन्तिम वेला में उनकी सेवा

के लिए अजमेर पहुँचे थे, उनमें लाला जीवनदासजी भी एक थे।

आपने भी ऋषि जी की अरथी को कन्धा दिया था।

आप पंजाब के एक प्रमुख ब्राह्मसमाजी थे। ऋषिजी को पंजाब

में आमन्त्रित करनेवालों में से आप भी एक थे। लाहौर में ऋषि के

सत्संग से ऐसे प्रभावित हुए कि आजीवन वैदिक धर्म-प्रचार के

लिए यत्नशील रहे। ऋषि के विचारों की आप पर ऐसी छाप लगी कि

आपने बरादरी के विरोध तथा बहिष्कार आदि की किञ्चित् भी

चिन्ता न की। जब लाहौर में ब्राह्मसमाजी भी ऋषि की स्पष्टवादिता

से अप्रसन्न हो गये तो लाला जीवनदासजी ब्राह्मसमाज से पृथक्

होकर आर्यसमाज के स्थापित होने पर इसके सदस्य बने और

अधिकारी भी बनाये गये।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि जब ऋषि लाहौर में पधारे तो

उनके रहने का व्यय ब्राह्मसमाज ने वहन किया था। कई पुराने

लेखकों ने लिखा है कि ब्राह्मसमाज ने यह किया गया व्यय माँग

लिया था।

पंजाब ब्राह्मसमाज के प्रधान लाला काशीरामजी और आर्यसमाज

के एक यशस्वी नेता पण्डित विष्णुदज़जी के लेख इस बात का

प्रतिवाद करते हैं।1

लाला जीवनदासीजी में वेद-प्रचार की ऐसी तड़प थी कि जहाँ

कहीं वे किसी को वैदिक मान्तयाओं के विरुद्ध बोलते सुनते तो झट

से वार्तालाप , शास्त्रार्थ व धर्मचर्चा के लिए तैयार हो जाते। पण्डित

विष्णुदत्त जी के अनुसार वे विपक्षी से वैदिक दृष्टिकोण मनवाकर ही

दम लेते थे। वैसे आप भाषण नहीं दिया करते थे।

अनेक व्यक्तियों ने उन्हीं के द्वारा सम्पादित  और अनूदित वैदिक

सन्ध्या से सन्ध्या सीखी थी।

अपने जीवन के अन्तिम दिनों में पण्डित लेखराम इन्हीं के

निवास स्थान पर रहते थे और यहीं वीरजी ने वीरगति पाई थी।

राजकीय पद से सेवामुक्त होने पर आप अनारकली बाजार

लाहौर में श्री सीतारामजी आर्य लकड़ीवाले की दुकान पर बहुत

बैठा करते थे। वहाँ युवक बहुत आते थे। उनसे वार्ज़ालाप करके

आप बहुत आनन्दित होते थे। बड़े ओजस्वी ढंग से बोला करते थे।

तथापि बातचीत से ही अनेक व्यक्तियों को आर्य बना गये। धन्य है

ऐसे पुरुषों का हृदय-परिवर्तन। 1893 ई0 के जज़्मू शास्त्रार्थ में

आपका अद्वितीय योगदान रहा।

 

जाओ, अपनी माँ से पूछकर आओ: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

जाओ, अपनी माँ से पूछकर आओ

 

देश-विभाजन से बहुत पहले की बात है, देहली में आर्यसमाज

का पौराणिकों से एक ऐतिहासिक शास्त्रार्थ हुआ। विषय था-

‘अस्पृश्यता धर्मविरुद्ध है-अमानवीय कर्म है।’

पौराणिकों का पक्ष स्पष्ट ही है। वे छूतछात के पक्ष पोषक थे।

आर्यसमाज की ओर से पण्डित श्री रामचन्द्रजी देहलवी ने वैदिक

पक्ष रखा। पौराणिकों की ओर से माधवाचार्यजी ने छूआछात के

पक्ष में जो कुछ वह कह सकते थे, कहा।

माधवाचार्यजी ने शास्त्रार्थ करते हुए एक विचित्र अभिनय

करते हुए अपने लिंग पर लड्डू रखकर कहा, आर्यसमाज छूआछात

को नहीं मानता तो इस अछूत (लिंग) पर रखे  इस लड्डू

को उठाकर खाइए।

 

इस पर तार्किक शिरोमणि पण्डित रामचन्द्र जी देहलवी ने

कहा, ‘‘चाहे तुम इस अछूत पर लड्डू रखो और चाहे इस ब्राह्मण

(मुख की ओर संकेत करते हुए कहा) पर, मैं लड्डू नहीं खाऊँगा,

परन्तु एक बात बताएँ। जाकर अपनी माँ से पूछकर आओ कि तुम

इसी अछूत (लिंग) से जन्मे हो अथवा इस ब्राह्मण (मुख)

से?’’

 

पण्डित रामचन्द्रजी देहलवी की इस मौलिक युक्ति को सुनकर

श्रोता मन्त्र-मुग्ध हो गये। आर्यसमाज का जय-जयकार हुआ। पोंगा

पंथियों को लुकने-छिपने को स्थान नहीं मिल रहा था। इस शास्त्रार्थ

के प्रत्यक्षदर्शी श्री ओमप्रकाश जी कपड़ेवाले मन्त्री, आर्यसमाज नया

बाँस, दिल्ली ने यह संस्मरण हमें सुनाया। अन्धकार-निवारण के

लिए आर्यों को  क्या क्या  सुनना पड़ा।

 

देखें तो पण्डित लेखराम को क्या  हुआ? प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

 

पण्डितजी के बलिदान से कुछ समय पहले की घटना है।

पण्डितजी वज़ीराबाद (पश्चिमी पंजाब) के आर्यसमाज के उत्सव

पर गये। महात्मा मुंशीराम भी वहाँ गये। उन्हीं दिनों मिर्ज़ाई मत के

मौलवी नूरुद्दीन ने भी वहाँ आर्यसमाज के विरुद्ध बहुत भड़ास

निकाली। यह मिर्ज़ाई लोगों की निश्चित नीति रही है। अब पाकिस्तान

में अपने बोये हुए बीज के फल को चख रहे हैं। यही मौलवी

साहिब मिर्ज़ाई मत के प्रथम खलीफ़ा बने थे।

पण्डित लेखरामजी ने ईश्वर के एकत्व व ईशोपासना पर एक

ऐसा प्रभावशाली व्याख्यान  दिया कि मुसलमान भी वाह-वाह कह

उठे और इस व्याख्यान को सुनकर उन्हें मिर्ज़ाइयों से घृणा हो गई।

पण्डितजी भोजन करके समाज-मन्दिर लौट रहे थे कि बाजार

में एक मिर्ज़ाई से बातचीत करने लग गये। मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद

अब तक कईं बार पण्डितजी को मौत की धमकियाँ दे चुका था।

बाज़ार में कई मुसलमान इकट्ठे हो गये। मिर्ज़ाई ने मुसलमानों को

एक बार फिर भड़ाकाने में सफलता पा ली। आर्यलोग चिन्तित

होकर महात्मा मुंशीरामजी के पास आये। वे स्वयं बाज़ार

गये, जाकर देखा कि पण्डित लेखरामजी की ज्ञान-प्रसूता, रसभरी

ओजस्वी वाणी को सुनकर सब मुसलमान भाई शान्त खड़े हैं।

पण्डितजी उन्हें ईश्वर की एकता, ईश्वर के स्वरूप और ईश की

उपासना पर विचार देकर ‘शिरक’ के गढ़े से निकाल रहे हैं।

व्यक्ति-पूजा ही तो मानव के आध्यात्मिक रोगों का एक मुख्य

कारण है।

यह घटना महात्माजी ने पण्डितजी के जीवन-चरित्र में दी है

या नहीं, यह मुझे स्मरण नहीं। इतना ध्यान है कि हमने पण्डित

लेखरामजी पर लिखी अपनी दोनों पुस्तकों में दी है।

यह घटना प्रसिद्ध कहानीकार सुदर्शनजी ने महात्माजी

के व्याख्यानों  के संग्रह ‘पुष्प-वर्षा’ में दी है।

 

ईश्वरीय ज्ञान: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

 

अपनी मृत्यु से पूर्व स्वामी रुद्रानन्द जी ने ‘आर्यवीर’ साप्ताहिक

में एक लेख दिया। उर्दू के उस लेख में कई मधुर संस्मरण थे।

स्वामीजी ने उसमें एक बड़ी रोचक घटना इस प्रकार से दी।

 

आर्यसमाज का मुसलमानों से एक शास्त्रार्थ हुआ। विषय था ईश्वरीय

ज्ञान। आर्यसमाज की ओर से तार्किक शिरोमणि पण्डित श्री रामचन्द्रजी

देहलवी बोले। मुसलमान मौलवी ने बार-बार यह युक्ति दी कि

सैकड़ों लोगों को क़ुरआन कण्ठस्थ है, अतः यही ईश्वरीय ज्ञान है।

पण्डितजी ने कहा कि कोई पुस्तक कण्ठस्थ हो जाने से ही ईश्वरीय

ज्ञान नहीं हो जाती। पंजाबी का काव्य हीर-वारसशाह व सिनेमा के

गीत भी तो कई लोग कण्ठाग्र कर लेते हैं। मौलवीजी फिर ज़ी यही

रट लगाते रहे कि क़ुरआन के सैकड़ों हाफ़िज़ हैं, यह क़ुरआन के

ईश्वरीय ज्ञान होने का प्रमाण है।

 

श्री स्वामी रुद्रानन्दजी से रहा न गया। आप बीच में ही बोल

पड़े किसी को क़ुरआन कण्ठस्थ नहीं है। लाओ मेरे सामने, किस

को सारा क़ुरआन कण्ठस्थ है।

 

इस पर सभा में से एक मुसलमान उठा और ऊँचे स्वर में

कहा-‘‘मैं क़ुरआन का हाफ़िज़ हूँ।’’

स्वामी रुद्रानन्दजी ने गर्जकर कहा-‘‘सुनाओ अमुक आयत।’’

वह बेचारा भूल गया। इस पर एक और उठा और कहा-‘‘मैं

यह आयत सुनाता हूँ।’’ स्वामीजी ने उसे कुछ और प्रकरण सुनाने

को कहा वह भी भूल गया। सब हाफ़िज़ स्वामी रुद्रानन्दजी के

सज़्मुख अपना कमाल दिखाने में विफल हुए। क़ुरआन के ईश्वरीय

ज्ञान होने की यह युक्ति सर्वथा बेकार गई।

 

पंडित विश्वनाथ विद्यालंकार का संछिप्त परिचय  : मनमोहन कुमार आर्य

 

अथर्ववेद और सामवेद भाष्यकार तथा अनेक प्रसिद्ध वैदिक ग्रंथों के रचयिता पण्डितप्रवर श्रद्धेय श्री विश्वनाथ विद्यालंकार विद्यामार्तण्ड वैदिक साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान् थे। उनका विद्याध्ययन गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार की गंगापार की तपःस्थली में हुआ था, जहाँ उन्होंने महात्मा मुंशीराम (बाद में स्वामी श्रद्धानन्द संन्यासी) के सांनिध्य में व्रत साधना करते हुए विविध विद्याओं का उपार्जन किया था। गुरुकुल कांगड़ी के सर्वप्रथम स्नातक थे पं. इन्द्र विद्यावाचस्पति तथा पं. हरिश्चन्द्र विद्यालंकार, जो दोनों ही गुरुकुल के संस्थापक महात्मा मुंशीराम जी के सुपुत्र थे तथा संवत् 1968 (सन् 1912) में स्नातक बने। आगामी वर्ष कोई स्नातक नहीं बना। उसके बाद संवत् 1970 (सन् 1914) में पांच स्नातक बने, उन्हीं में पं. विश्वनाथ विद्यालंकार भी थे। इस प्रकार वे गुरुकुल के प्रथम परिपक्व फलों में से थे। वेदों का पाण्डित्य प्राप्त करने में स्वामी दयानन्द सरस्वती को गुरु मानकर उनके ग्रन्थों से तथा उनके वेदभाष्य से सहायता लेकर किये गये उनके अपने परिश्रम का ही अधिक योगदान था, क्योंकि उस समय स्वामी दयानन्द की पद्धति से वेद पढा़नेवाले विद्वान् उपलब्ध नहीं थे। वेदों के अतिरिक्त श्री पण्डित जी भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शनशास्त्र, रसायनशास्त्र, खगोल ज्योतिष, आंग्लभाषा आदि के भी अच्छे विद्वान् थे। पूज्य पण्डित जी का एक संक्षिप्त परिचय उन्हीं के शब्दों में, जो उन्होंने स्वयं कुछ पंक्तियों में लिखा था, नीचे दिया जा रहा है।

 

‘‘मेरे पिता वजीराबाद, जिला गुजरांवाला (जो सम्प्रति पाकिस्तान में है) के निवासी थे। उनका नाम था लाला प्रीतमदास। इन दिनों देश भर में आर्यसमाज द्वारा गुरुकुल सम्बन्धी प्रचार से तथा गुरुकुल शिक्षा पद्धति के पक्ष में पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी जी आदि के विचारों से प्रेरणा पाकर मेरे पिताजी ने श्री मुंशीराम जी को मुझे गुरुकुल भेजने का वचन दे दिया। मैं उस समय लगभग 9 वर्ष का था। प्रारम्भ में वैदिक पाठशाला गुजरांवाला में मुझे प्रविष्ट कराया गया। यह वैदिक पाठशाला गुरुकुल का प्रारंभिक बीज था और इसके संचालक श्री मुंशीराम जी थे। स्व. श्री पं. गंगदत्त जी व्याकरणाचार्य वैदिक पाठशाला के आचार्य थे। इस पाठशाला में भावी गुरुकुल के ब्रह्मचारी भी रहते थे तथा अन्य उच्च आयुओं के विद्यार्थी भी। कुछ काल के पश्चात् ब्रह्मचारियों को शेष विद्यार्थियों से पृथक् गुजरांवाला की एक कोठी में ले आया गया। इस काल में स्व. पं. विष्णुमित्र जी ब्रह्मचारियों के आचार्य रहे। यहीं से ब्रह्मचारी श्री आचार्य पं. गंगादत्त जी तथा पं. विष्णुमित्र जी समेत श्री मुंशीराम जी की अध्यक्षता में गुरुकुल कांगड़ी

पहुंचे।’’

 

‘‘सन् 1914 में मैं स्नातक हुआ और लगभग दो-तीन मास बाद मुझे गुरुकुल में प्रोफेसर रूप में नियुक्त कर दिया गया। प्रारम्भ में मैं दर्शनशास्त्र तथा रसायनशास्त्र के पढ़ाने में नियुक्त हुआ। उस समय गुरुकुल में वेद पढ़ाने का कोई विशेष प्रबन्ध न था। दर्शन पढ़ाते हुए तर्कशास्त्र में मेरी रुचि न रही, इसलिये महात्मा मुंशीराम जी तथा प्रो. रामदेव जी की प्रेरणा से मैंने वेद पढ़ाने का कार्य स्वगत कर लिया। आचार्य रामदेव जी के आचार्यत्व-काल में लगभग 15 वर्ष उपाचार्यरूप में रहा, परन्तु कतिपय विषयों में मतभेद हो जाने पर त्यागपत्र दे दिया।”

 

‘‘वैदिक साहित्य के लेखनकार्य में मेरी रुचि सन् 1942 के पश्चात् हुई जबकि मैं गुरुकुल की सेवा से मुक्त हुआ। सर्वप्रथम मैंने ‘वैदिक गृहस्थाश्रम’ पुस्तक लिखी। राजाधिराज उमेदसिंह जी के राज्यारोहणकाल में मुझे राजाधिराज जी ने आमन्त्रित किया और राजसूय पद्धति के अनुसार राजसूय यज्ञ कराया और ‘वैदिक गृहस्थाश्रम’ के प्रकाशनार्थ उन्होंने मुझे तीन हजार रुपये देने का वचन दिया। उस राशि द्वारा पुस्तक देहरादून में सन् 1947 में प्रकाशित की गई।’’

 

‘‘पंजाब-विभाजन के पश्चात् लाहौर में सर्वस्व का नुकसान हो जाने पर देहरादून में आ बसा। सन् 1973 तक मैंने और कोई साहित्य-ग्रन्थ न लिखा, क्योंकि उसके प्रकाशनार्थ धन मेरे पास न था। सन् 1923-24 के लगभग अजमेर में रहकर परोपकारिणी सभा के तत्वावधान में ऋग्वेद के संशोधित मूलपाठ को तैयार किया और मथुरा-शताब्दी के निमित्त महर्षि दयानन्द की पुस्तकों के दो संस्कृत संस्करण तैयार कर परोपकारिणी सभा को दे दिये, जिन्हें मथुरा–शताब्दी के लिए प्रकाशित कर दिया गया।’’

 

‘‘सन् 1956-57 में लगभग दो वर्ष मैं आर्य सार्वदेशिक वाटिका में अनुसंधान का कार्य करता रहा। ‘वैदिक अनुसन्धान’ त्रैमासिक का प्रकाशन तथा महर्षि के ऋग्वेदभाष्य के सुगम संस्करण के रूप में लगभग एक हजार मन्त्रों का भाष्य परोपकारिणी सभा को दिया।’’

 

‘‘सन् 1973 के लगभग रायसाहिब श्री प्रतापसिंह जी चौधरी करनाल द्वारा दी गई आर्थिक सहायता से सामवेद का आध्यात्मिक भाष्य, अथर्ववेद-परिचय, यजुर्वेद-स्वाध्याय तथा पशुयज्ञ-समीक्षा ग्रन्थ छपे। अथर्ववेद भाष्य के चार खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं, 5वाँ खण्ड लिख रहा हूँ। ‘शतपथब्राह्मण और अग्निचयन-समीक्षा’ ग्रन्थ छप रहा है और प्रत्येक वर्ष एक नया ग्रन्थ लिखकर प्रकाशनार्थ भेज देता हूँ। इस सब पर व्यय रायसाहिब श्री प्रतापसिंह जी कर रहे हैं। अथर्ववेद के बाकी काण्डों पर भाष्य चल रहा है। लिखना अब शनैःशनैः ही होता है। स्वास्थ्य प्रायः सहायक नहीं रहा।’’

 

जब पूज्य पण्डित जी ने आत्मपरिचय की उपर्युक्त पंक्तियाँ लिखी थीं, तब तक अथर्ववेदभाष्य के अन्तिम चार खण्ड (अर्थात् काण्ड 11 से 20 तक) ही प्रकाशित हुए थे, तथा पाँचवाँ खण्ड (अर्थात् काण्ड 9 और 10 का भाष्य) चल रहा था। परन्तु मृत्यु से कुछ समय पूर्व पूज्य पण्डित जी के दृढ़ संकल्प तथा अध्यवसाय से अंतिम खंड (काण्ड १-३) के साथ सम्पूर्ण अथर्ववेद का भाष्य पाठकों के हाथों में पहुँच रहा है। प्रबल अस्वास्थ्य तथा लिखते हुए हाथ काँपने की दशा में भी मान्य पण्डित जी भाष्य पूर्ण कर सके, यह पाठकों के लिये वरदान ही है। समझा यह जा रहा था                                                                                                                                                                 कि प्रथम खण्ड का भाष्य नहीं हो पाया है, क्योंकि आदरणीय पण्डितजी के देहावसान के पश्चात् द्वितीय-तृतीय काण्ड का भाष्य तो मिल गया था, किन्तु प्रथम काण्ड का भाष्य उपलब्ध नहीं हो पा रहा था। परन्तु पण्डित जी की सुपुत्री श्रीमती इन्दिरा जी से हमारा संपर्क निरन्तर बना रहा तथा पण्डित जी के कागजों की छानबीन भी होती रही। परिणामतः प्रथम काण्ड का भाष्य भी उपलब्ध हो गया तथा हमने (श्री मनमोहन कुमार आर्य ने) प्रकाशनार्थ रामलाल कपूर ट्रस्ट बहालगढ़ को उसकी पाण्डुलिपि पहुँचा दी। काण्ड द्वितीय-तृतीय के भाष्य की पाण्डुलिपि उससे पूर्व ही स्वयं बहालगढ़ जाकर दे आये थे।

 

पू. पण्डित जी के अपने सम्बन्ध में लिखे गये एक त्रुटित हस्तलेख से ज्ञात होता है कि उनका जन्म सन् 1889 में हुआ था। आपके पिता श्री प्रीतमदास आर्य गुजरांवाला में आर्यसमाज के प्रधान थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के दर्शन किये थे। आर्यसमाज के सिद्धान्तों में दृढ़ता के कारण ही उन्होंने अपने पुत्र को गुरुकुल में प्रविष्ट कराया था। गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय से विद्यालंकार परीक्षा सन् 1914 में पं. विश्वनाथ जी ने प्रथम श्रेणी में सर्वप्रथम रहकर उत्तीर्ण की थी। वैदिक साहित्य, संस्कृत साहित्य, दर्शनशास्त्र और रसायनशास्त्र में पृथक्-पृथक् तथा सर्वयोग में भी प्रथम रहने के कारण आपको चार सुवर्णपदक एवं कई रजतपदक प्राप्त हुए थे। सन् 1914 में ही गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में उपाध्याय पद पर नियुक्त होकर निरन्तर 28 वर्षों तक सफल अध्यापन करते हुए मार्च सन् 1942 में वहाँ से सेवानिवृत हुए। सेवाकाल में आपका कार्य केवल पढ़ाना ही नहीं था, अपितु उपाचार्य होने के नाते छात्रों के व्रतपालन एवं चहुँमुखी विकास का भी आप उत्तरदायित्व सँभालते थे। समय-समय पर आप छात्रों की साहित्य संजीवनी आदि सभाओं में विविध विषयों पर भाषण देकर भी उनका ज्ञानवर्द्धन करते थे। विदेशों से जो छात्र या विद्वान् अपने ज्ञानवर्धनार्थ गुरुकुल आते थे, उनका भी वैदिक संस्कृति के विषय में मार्गदर्शन आप करते थे तथा वे गुरुकुल से पर्याप्त प्रभावित होकर स्वदेश लौटते थे।

 

वैदिक विषयों पर ग्रन्थलेखन प्रोफेसर विश्वनाथ जी ने गुरुकुल में रहते हुए ही आरम्भ कर दिया था, यद्यपि इनके अधिकतर ग्रन्थ सेवानिवृत्ति के पश्चात् लिखे गये। गुरुकुल में शिक्षक रहते हुए आपने वैदिक पशुयज्ञमीमांसा, वैदिक जीवन तथा सन्ध्या-रहस्य नामक पुस्तकें लिखी थीं। इनमें से प्रथम पुस्तक में आपने अनेक वैदिक एवं महाभारत, रामायण आदि के प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया है कि यज्ञों में पशुहिंसा वेदानुमोदित नहीं है। द्वितीय पुस्तक में वेदमन्त्रों द्वारा वैदिक जीवन की झांकी प्रस्तुत की गयी है। यह मथुरा-शताब्दी पर प्रकाशित हुई थी। तृतीय पुस्तक में भूमिका सहित सन्ध्या के मन्त्रों की व्याख्या है, जिसकी एक विशेषता यह है कि व्याख्या में खगोल ज्योतिष का पर्याप्त उपयोग किया गया है। सेवानिवृत्ति के उपरान्त आपने जो ग्रन्थ लिखे, उनमें सामवेद और अथर्ववेद इन दो वेदों का भाष्य उल्लेखनीय है। इनका सामवेदभाष्य अध्यात्मपरक है तथा अब तक विद्वानों द्वारा हिन्दी में जो भी अनुवाद या भाष्य लिखे गये हैं, उनमें महत्वपूर्ण है। अथर्ववेदभाष्य इन्होंने उल्टे क्रम से आरम्भ किया था। सर्वप्रथम 20वें काण्ड का भाष्य किया, तदनन्तर 19, 18, 17 आदि के क्रम से इतर काण्डों का। उल्टे क्रम से भाष्य करने में यह हेतु रहा प्रतीत होता है कि अन्त के काण्डों में रहस्यमय स्थल अधिक हैं, यथा 20वें काण्ड में कुन्ताप सूक्त, 19वें काण्ड में मणिबन्धन सूक्त, 18वें काण्ड में पितृमेध-सूक्त एवं 15वें काण्ड में व्रात्य-सूक्त। 14वें काण्ड में दोनों सूक्त विवाह-सूक्त हैं, जिन पर आपने विशेष मनन-मन्थन किया हुआ था एवं रहस्यमय, उलझन-भरे तथा विवादास्पद सूक्तों का भाष्य पहले पाठकों के सम्मुख रख देने का प्रलोभन उल्टे क्रम से भाष्य करने का विशेष प्रेरक रहा है। पण्डित जी ने इस अथर्ववेदभाष्य में अपने खगोल ज्योतिष, निरुक्त, गणित, भौतिक विज्ञान, दर्शनशास्त्र आदि के ज्ञान का पर्याप्त प्रयोग किया है, जिससे कई सूक्तों का रहस्य नवीनरूप में प्रस्फुटित करने में आप समर्थ हुए। भाष्यशैली अत्यन्त सुबोध है। पण्डित जी का एक प्रौढ़ ग्रन्थ ‘शतपथब्राह्मणस्थ अग्निचयनसमीक्षा’ है, जिसमें शतपथ के जटिल अग्निचयन-प्रकरण की मीमांसा की गयी है। इस कोटि का एक ग्रन्थ ‘यजुर्वेद स्वाध्याय तथा पशुयज्ञ-समीक्षा’ है। इससे आपके यजुर्वेद के सूक्ष्म तथा गहन अध्ययन का परिचय

मिलता है। आपकी कतिपय अन्य पुस्तकें वैदिक गृहस्थाश्रम, बाल सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभूमिका का सरल अध्ययन, ऋग्वेद-परिचय, अथर्ववेद-परिचय तथा वीर माता का उपदेश हैं।

 

अपने प्रगाढ़ वैदिक वैदुष्य तथा अमर साहित्य साधना के कारण पूज्य पण्डित जी को कई संस्थाओं ने सम्मानित तथा पुरस्कृत करके स्वयं को सौभाग्यशाली माना है। पण्डित जी की मातृ-संस्था गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय ने अपनी सर्वोच्च पूजोपाधि ‘विद्यामार्तण्ड’ से आपको सत्कृत किया। आर्यसमाज सान्ताक्रुज मुंबई ने सन् 1987 में आपको 21 सहस्र रुपयों की राशि, रजत-ट्राफी, उत्तरीय एवं प्रशस्तिपत्र अर्पित कर अपने वेदवेदांग-पुरस्कार से सम्मानित किया। इनके अतिरिक्त आप सन् 1979 में गंगाप्रसाद उपाध्याय पुरस्कार तथा सन् 1983 में पण्डित गोवर्धनशास्त्री पुरस्कार से भी आदृत हो चुके हैं। उत्तरप्रदेश संस्कृत अकादमी भी आपको अथर्ववेदभाष्य आदि पर पुरस्कृत कर चुकी हैं। पण्डित जी की आयु के शत वर्ष पूर्ण होने पर आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब की ओर से उसके प्रधान श्री वीरेन्द्र जी ने कन्या गुरुकुल देहरादून में एक आयोजन करके आपको सम्मानित किया था। इसी प्रकार आर्य प्रतिनिधि सभा, उत्तरप्रदेश के मन्त्री श्री धर्मेन्द्रसिंह आर्य द्वारा गठित समिति की ओर से भी आप समादृत हो चुके हैं।

 

आदरणीय पण्डित जी के अनेक ग्रन्थों के प्रकाशन का श्रेय रायसाहिब स्व. चौधरी प्रतापसिंह जी,  रामलाल कपूर ट्रस्ट बहालगढ़ तथा महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक को है। रायसाहिब द्वारा आर्थिक सहायता की निश्चिन्तता यदि पण्डित जी को न होती तो प्रकाशन के संदिग्ध होने के कारण वे ग्रन्थलेखन में भी प्रवृत्त न होते। रामलाल कपूर ट्रस्ट तथा पं. युधिष्ठिर मीमांसक ने पण्डित जी के ग्रन्थों के प्रकाशन में पूर्ण रुचि ली। रायसाहिब के दिवंगत हो जाने के पश्चात् यह समस्या थी कि अथर्ववेद के शेष छः काण्ड कैसे प्रकाशित होंगे। किन्तु अर्थाभाव से ग्रस्त होने पर भी श्री मीमांसक जी की प्रेरणा से उक्त ट्रस्ट ने शेष काण्डों के प्रकाशन का भार वहन किया।

 

पण्डित विश्वनाथ विद्यालंकार जी का जीवन अत्यन्त, सादगी तथा तपस्या से व्यतीत हुआ। उनका स्वभाव अति सरल था। आगंतुकों के सत्कार में उन्हें आनन्द आता था। गिरे हुए स्वास्थ्य में भी पत्रों का उत्तर अवश्य देते थे। सम्मत्यर्थ कोई लेखक उनके पास पुस्तकें भेजते थे तो उन पर सम्मति लिखना भी नहीं भूलते थे। गुरुकुल कांगड़ी के प्रायः सभी पुराने स्नातक उनके शिष्य हैं। अपने शिष्यों के प्रति उनके मन में वात्सल्य रहा। शिष्यों की उन्नति देख वे सदा प्रसन्न होते थे तथा उन्हें उत्साहित किया करते थे।

 

श्रीयुत पण्डित जी ने 103 वर्ष की दीर्घ आयु प्राप्त की। अन्तिम समय तक वह लेखन-कार्य करते रहे। 11 मार्च 1991 को उन्होंने इहलोक-लीला संवरण की। उनकी शवयात्रा में देहरादून तथा गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार के अनेक गणमान्य व्यक्ति सम्मिलित थे।

 

पण्डित जी की धर्मपत्नी श्रीमती कुन्ती देवी का जन्म सन् 1898 में क्वेटा में एक आर्यसमाजी परिवार में हुआ था। वे कन्या महाविद्यालय जालन्धर की प्रथम छात्राओं में थीं। पण्डित जी को सब कार्यों में सदा उनका सहयोग प्राप्त होता रहा। पण्डित जी के देहावसान के समय से ही वे अस्वस्थ चल रही थीं। 15 अप्रैल 1992 को 94 वर्ष की आयु में वे दिवंगत हो गयीं। उन्होंने चार पुत्रों एवं तीन पुत्रियों को जन्म दिया था। चार पुत्रों में क्रमशः डॉ. प्रेमनाथ, श्री राजेन्द्रनाथ, श्री सोमनाथ तथा श्री रवीन्द्रनाथ हैं, तीन पुत्रियाँ हैं श्रीमती कमला डबराल, श्रीमती विमला बहल, और श्रीमती इन्दिरा खन्ना। डॉ. प्रेमनाथ पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़ में दर्शन विभाग के अध्यक्ष थे, वे सन् 1975 में दिवंगत हो गये। श्री रवीन्द्रनाथ खन्ना बी.एस.एफ. में डिप्टी कमांडेंट थे। वे भी सम्प्रति इस लोक में नहीं हैं। इस समय शेष दोनों पुत्र एवं तीनों पुत्रियाँ विद्यमान हैं। पण्डित विश्वनाथ जी अपनी धर्मपत्नी सहित सबसे छोटी पुत्री श्रीमती इन्दिरा खन्ना के पास 61, कांवली रोड, देहरादून में रहते रहे, जो पूर्ण मनोयोग से उनकी सेवा करती रहीं। अधिकांश लेखन-कार्य पण्डित जी ने वहीं किया। इस प्रकार पण्डित जी के लेखन-कार्य का श्रेय उनकी पुत्री श्रीमती इन्दिरा जी एवं उनके परिवार को भी जाता है।

 

पं. विश्वनाथ विद्यालंकार जी ने जिस अमूल्य वैदिक साहित्य की रचना की है, उसके कारण उनका नाम सदा अमर रहेगा। उस साहित्य को पढ़कर उनके अनेक मानस पुत्र जन्म लेते रहेंगे।

 

मनमोहन कुमार आर्य                                                                                                                         रामनाथ वेदालंकार

196, दो, चुक्खूवाला, देहरादून                                                                                         वेदमन्दिर, ज्वालापुर, हरिद्वार