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शौर्य का हिमालय – स्वामी श्रद्धानन्द

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शौर्य का हिमालय – स्वामी श्रद्धानन्द

लेखक – प्रो राजेंद्र जिज्ञासु

आधुनिक युग में विश्व के स्वाधीनता सेनानियों में स्वामी श्रद्धानन्द  का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखने योग्य है । वह राजनीतिज्ञ नहीं थे राजनीति को मोड़ देने वाले विचारक थे । महर्षि दयानन्द जी महाराज ने ऋग्वेद भाष्य में लिखा है – कि ब्रहम्चारी, यति, वनस्थ, सन्यासी के लिए राज व्यवहार की प्रवृति  होनी योग्य नहीं । इस आर्ष नीति और मर्यादा का पालन करते हुए स्वामी श्रद्धानन्द राजनीति के दलदल में फंसना अनुचित मानते थे । जब जब देश को उनके मार्गदर्शन की आश्यकता हुयी, वह संकट सागर की अजगर सम लहरों को चीरते हुए आ गए ।

वह अतुल्य पराक्रमी थे । शौर्य के हिमालय थे । बलिदान की मूर्ती थे । विदेशी सत्ता को समाप्त करने के लिए भारत संघर्ष कर रहा था ।  स्वाधीनता संग्राम का अभी शैशव काल था।  इस शैशव काल में बड़े बड़े नेता भी खुलकर स्वराज्य की चर्चा करने से सकुचाते थे । अंग्रेजी शाषन के अत्याचारों का,  दमन चक्र का स्पष्ट शब्दों में विरोध करना किसी विरले प्रतापी का ही काम था । कांग्रेस के मंच से अभी अंग्रेज जाती की न्यायप्रियता में विश्वास प्रगट किया जाता था । राजनीति का स्वर बड़ा धीमा था ।

२० वी शताब्दी की  प्रथम दशाब्दी में हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का स्वर ऊंचा करने वाले राष्ट्र पुरुषों में श्रद्धानन्द जी का नाम बड़े सम्मान से लिया जावेगा । १९०७ ईस्वी में लाला लाजपत राय को निष्कासित कर दिया गया देश निकाला पाने वाले इस प्रथम भारतीय का खुल्लम खुल्ला पक्ष लेने वाले और उन्हें निर्दोष सिद्ध करने वाले श्रध्दानन्द के साहस की किस शब्दों में चर्चा की जावे ! तब स्तिथी यह थी कि लाल लाजपतराय के निकटतम आर्य समाजी मित्र मौन साध गए। लाला जी के पक्ष में दो शब्द लिखकर व बोलकर अंग्रेजों को दुत्कारने का साहस न बटोर सके । जिस आर्य गज़ट के लाल लाजपतराय संपादक रहे उस आर्य गज़ट में उनके लिए एक लेख न लिखा गया । तब श्रद्धानन्द का सिंहनाद आर्यों के हृदयों को गर्मा रहा था | आर्य गज़ट के एक भूतपूर्व संपादक महाशय शिवव्रतलाल वर्मन M.A. ( राधास्वामी सम्प्रदाय के गुरुदाता दयाल जी ) ने तब लाला जी के पक्ष में ‘आर्य मुसाफिर’ मासिक में एक लेख दिया था । यह पत्रिका स्वामी श्रद्धानन्द जी के संरक्षण मार्गदर्शन में प्रकशित होती थी । इसमें  श्री शिवव्रतलाल जी ने झंजोड़ कर लाल जी के साथियों से पूछा था कि वो चुप्पी क्यूँ साधे हुए हैं ?

लाल लाजपत राय स्वदेश लौटे । सूरत कांग्रेस हुयी । कांग्रेस में भयंकर फूट पड़ गयी तब श्रीयुत गोखले बोले १० जन १९०८ ईस्वी में स्वामी जी को पत्र लिखकर सूरत न पहुँचने पर उपालम्भ दिया और राष्ट्रीय आंदोलन पर बुरी फुट की बिजली से देश को बचाने के लिए उनका मार्गदर्शन माँगा।

स्वामी जी से मिलने की इच्छा प्रगट की । १९०७ ईस्वी में अमरावती से निकलने वाले उग्रवादी पत्र “कर्त्तव्य” पर राजद्रोह का अभियोग चला तब उसने क्षमा मांग ली | स्वामी जी ने इस पर लिखा “ऐसे गिरे हुए लफंगे यदी स्वराज्य प्राप्त कर भी लें तो विचारणीय यह है कि वह स्वराज्य कहीं रसातल में ले जाने वाला तो सिद्ध न होगा ।

 

मि नॉर्टन एक बार मद्रास में कांग्रेस के ऐतिहासिक अधिवेशन के स्वागत अध्यक्ष बने थे आपने बंगाल में क्रांतिकारियों के विरुद्ध सरकारी वकील बनना स्वीकार कर लिया । श्रद्धानन्द का मन्यु तब देखने योग्य था । आपने मि. नॉर्टन के इस कुकृत्य की कड़ी निंदा की | गोस्वामी नरेन्द्रनाथ क्रांतिकारियों से द्रोह करके सरकारी साक्षी बन गया । तब तेजस्वी श्रद्धानन्द ने उसे महाअधम विश्वासघाती लिखा इस साहस को किस तुला पर तौले । अभी अभियोग न्यायलय में चल रहा है वीर योद्धा फांसियों पर चढ़ाये जा रहे हैं | और मुंशीराम वकील होते हुए भी न्यायलय का अपमान कर रहा है । क्रांतिकारियों का पक्ष लेकर विपदाओं को आमंत्रित कर रहा है ।

श्रद्धानन्द तो बलाओं को बुला बुला कर उनसे जूझने में आनंद लेता था । गुरु के बाद का मोर्चा लगा | गुरुद्वारों की पवित्रता के लिए, रक्षा के लिए सिख भाई विदेशी शासन से बढ़ बढ़ कर भिड़ रहे थे ।  स्वामी जी की सिंह गर्जना अकाल तख़्त अमृतसर से अंग्रेजों ने सुनी तो घबराया हड़बड़ाया सिखों के सर्वोच्च धर्मस्थान से बोलने वाले वो ही एक मेव राष्ट्रीय नेता थे । इस भाषण करने के अपराध में स्वामी जी सिखों के जत्थेदार बनकर जेल गए |

सहस्त्र मील दूर केरल में छूत छात के विरुद्ध मोर्चा लगाने के लिए वृद्धावस्था में जा पहुंचे केरल में लोकमान्य नेता श्री मन्नम ने इन पंक्तियों के लेखक से कहा कि “स्वामी श्रद्धानन्द का साहस, जन सेवा के अरमान देखने योग्य थे” | इस सत्याग्रह ने राष्ट्र को एक नवीन चेतना दी |

१९२० ईस्वी में बर्मा में स्वराज्य के प्रचार के लिए गये । वहाँ स्वामी ने स्वत्रन्त्रतानन्द जी के साथ भी काम किया । मांडले की ईदगाह से २५००० की उपस्तिथि में स्वराज्य का सन्देश दिया ।  ईदगाह से विराट सभा को राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाने वाले येही २ नेता हुए हैं।

३० मार्च १९१९ ईस्वी को देहली के चांदनी चौक में आपने संगीनों के सम्मुख छाती तानकर भारतीय शूरता की धाक जमा दी । यह आपका ही साहस व अद्भुत आत्मोसर्ग था कि आपने ललकार कर कहा था कि निर्दोष जनता पर गोली चलने से पूर्व मेरी छाती को संगीनों से छेदो ।

तब एक कवी ने बड़े मार्मिक शब्दों में कहा था :

“नंगी संगीने मदान्ध सिपाही मेरी यह प्रजा अब कैसे निभेगी।

आत्मा कौन की मोह विच्छोह ताज सहनागत यूँ शरण कहेंगी ।”

जाना तह कौन की भारत के हित आपकी छाती यूँ ढाल बनेगी।

श्रद्धानन्द सरीके सपूत बता जननी फिर कब जानेगी ||

कोई कितना भी पक्षपात क्यूँ न करें इस तथ्य को कोई इतिहासकार नहीं झुठला सकता कि स्वामी श्रद्धानंद  का स्थान हमारे राष्ट्र निर्माताओं की अग्रिम पंक्ति में है । बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस महापुरुष ने विविध क्षेत्रों में बुराइयों से लड़ाई लड़ते हुए दुःख कष्ट झेले और अपना सर्वस्य समर्पण करके राष्ट्र को नव जीवन दिया। ऐसे बलिदानी महापुरुष को, मानवता के मान को हमारा शत शत प्रणाम |

स्वामी श्रद्धानन्द समय की चुनौती का जवाब थे

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स्वामी श्रद्धानन्द समय की चुनौती का  जवाब थे

लेखक – सत्यव्रत सिद्धांतालंकार

आरनॉल्ड तोयनबी एक प्रसिद्ध समाजशास्त्री हुए हैं।  उन्होंने समाज में होने वाले परिवर्तनों के सम्बन्ध में एक नियम का प्रतिपादन किया है।  उनका कथन है कि समाज में जब कोई असाधारण स्तिथी उत्पन्न हो जाती है , तब वह व्यक्ति तथा समाज के लिए चुनौती या चैलेंज का रूप धारण कर लेती है ।  वह परिस्तिथी व्यक्ति या समाज को मानो ललकारती है , उसके सामने एक आवाहन पटकती है और पूछती है कि है कोई माई का लाल जो इस असाधारण परिस्तिथी का इस ललकार का , इस चैलेंज का , इस आवाहन का , मर्द होकर सामना कर सके ।  इस ललकार का जवाब दे सके ?

तोयनबी का कथन है कि जब हम वैयक्तिक या सामाजिक रूप से किसी भौतिक या सामाजिक विकट परिस्तिथी से घिर जाते हैं , तब हममें या समाज में उस कठिन परिस्तिथी, कठिन समस्या को हल करने के लिए एक असाधारण क्रीयाशक्ति, असाधारण स्फ्रुरन उत्पन्न हो जाती है ।  भौतक अथवा सामाजिक कठिन , विषम परिस्तिथी हमें मलियामेट न कर दे , इसलिए परिस्तिथी के आवाहन उसकी ललकार , उसके चैलेंज के प्रतीक जो व्यक्ति प्रतिकिया करने के लिए उठ खड़े होते हैं , चैलेंज का उत्तर देते हैं , वे अपने को और समाज को बचा लेते हैं ।  जो समाज को नया मोड़ देते हैं वे ही समाज के नेता कहलाते हैं ।  जब समाज किसी उलझन में पड  जाता है तब उसमें से निकलना तो हर एक चाहता है हर व्यक्ति कि यही इच्छा होती है कि यह संकट दूर हो , परन्तु हर को उस चैलेंज का सामना करने के लिए अखाड़े में उतरने को तैयार नहीं होता ।  विक्षुप्त समाज का असंतोष , उसकी बैचेनी जिस व्यक्ति में प्रतिविम्बित हो जाती है , और प्रतिविम्बित होने पर जो व्यक्ति उस संतोष का सामना करने के लिए खम्बे ठोककर खड़ा होता है , वही जनता की आशाओं का सरताज होता है ।

मैं  स्वामी श्रद्धानन्द के जीवन को इसी दृष्टि से देखता हूँ ।  वे समय की चुनौती का, समय की ललकार का जीता जागता जवाब थे ।  क्या हमारे सामने चुनौतियाँ और ललकारें  नहीं आती ? हम हर दिन चुनौतियों से घिरे हुए हैं ।  परन्तु हममें उन चुनौतियों का सामना करने की हिम्मत नहीं ।  व्यक्ति जीवित रहता है तब वह चुनौतियों का सामना करता रहता है, समाज भी तभी तक जीवित रहता है जब तक वह चुनौतियों का सामना करता रहता है ।  चुनौतियों का काम ही व्यक्ति अथवा समाज में हिम्मत जगा देना है , परन्तु ऐसी अवस्था भी आ सकती है जब व्यक्ति अथवा समाज इतनी हिम्मत हार बैठे कि उसमें ललकार का सामना करने की ताकत ही न रहे।  ऐसी हालत में वह व्यक्ति बेकार हो जाता है समाज बेकार हो जाता है ।  स्वामी श्रद्धानन्द उन व्यक्तियों में से थे जो सामने चैलेंज को देखकर उसका सामना करने के लिए शक्ति के उफान से भर जाते थे ।  उनका  जीवन हर चुनौती का जवाब था | तभी ५० वर्ष बीत जाने पर हम उन्हें नहीं भुला सके ।

उनके जीवन के पन्नों को पलटकर देखिये कि वे क्या थे ? वे अपनी जीवनी में लिखते हैं जब उनके बच्चे स्कूल से पड़कर आते थे- “ईसा ईसा बोल तेरा क्या लगेगा मोल”।  आज भी हमारे बच्चे कान्वेंट स्कूलों में पड़कर बहुतेरी इस प्रकार की हरकतें करते हैं परन्तु हमारे सामने ऐसी कोई बात चुनौती का रूप नहीं धारण करती ।  उस समय में महात्मा मुंशीराम थे उनके सामने बच्चों का इस प्रकार गाना एक चुनौती के रूप में उठ खड़ा हुआ जिसकी प्रतिक्रिया के रूप में नवीन शिक्षा प्रणाली की नीवं रखी गयी ।  आज को सब लोग गुरुकुल शिक्षाप्रणाली के सिध्दांतों को शिक्षा के आदर्श तथा मुलभुत सिद्धान्त मानने लगे हैं उसका मूल एक चुनौती का सामना करना था ।  जो एक साधारण घटना के रूप में महात्मा मुंशीराम के सामने उठ खड़ी हुयी थी।

सत्यार्थ प्रकाश पड़ते हुए उन्होंने पड़ा कि गृह्स्थ आश्रम के बाद वानप्रस्थ में प्रवेश करना चाहिए ।  यह कोई नया आविष्कार नहीं था जो भी वैदिक संस्कृति से परिचित है वह जानता है कि इस संस्कृति में चार आश्रम हैं ।  परन्तु नहीं उन महान आत्मा के सामने यह एक चैलेंज था ।  पड़ते सब हैं, परन्तु उसके लिए तो पढ़ना पढ़ने  के लिए नहीं, करने के लिए था ।  गुरकुल विश्वविद्यालय की एक जंगल में स्थापना कर वे वहीं रहने लगे | मृतमान वानप्रस्थ आश्रम को उन्होंने अपने जीवन में क्रियात्मक रूप देकर जीवित कर दिया।  यह क्या था अगर वैदिक संकृति की चुनौती का जवाब नहीं था ।  फिर , वानप्रस्थ पर ही टिक नहीं गए ।  वानप्रस्थ के बाद सन्यास भी लिया ।  और देश में जितना महात्मा मुंशीराम यह नाम विख्यात था उतना ही स्वामी श्रद्धानन्द यह नाम भी विख्यात हो गया ।  ऐसे भी लोग मुझे मिले हैं जो महात्मा मुंशीराम और स्वामी श्रद्धानन्द की दोनों अलग अलग व्यक्ति समझते हैं ।  इसका कारण यही है कि महात्मा मुंशीराम ने जिस प्रकार  लगातार चुनौती पर चुनौती का सामना किया, उसी प्रकार स्वामी श्रद्धानन्द  ने भी चुनौती पर चुनौती का सामना किया इसीलिये कुछ व्यक्तियों के लिए जो यह नहीं जानते थे कि महात्मा मुंशीराम ही सन्यास ले कर स्वामी श्रद्धानन्द बन गए ये तो नाम तो महापुरुषों के नाम हो गए जो अपने अपने जीवन काल में असाधारण सामजिक परिस्तिथियों, सामाजिक ललकारों और चुनौतियों के साथ जूझकर अपने जीवन की अमर कहानी लिख गए।

गुरुकुल में रहकर वो एक पत्र निकला करते थे जिसका नाम था “सद्धर्म प्रचारक” ।  यह पत्र उर्दू में प्रकाशित हुआ करता था ।  इसके ग्राहक उर्दू जाने वाले थे हिंदी जानने वाले नहीं थे ।  लेकिन अचानक वह पत्र सब ग्राहकों के पास उर्दू के स्थान में हिंदी में पहुंचा ।  यह क्या चुनौती का जवाब नहीं था ।  जिस व्यक्ति ने घोषणा की हो कि वह गुरकुल में ऊंची से ऊंची शिक्षा मातृ भाषा हिंदी में देने का प्रबंध करेगा, उसका पत्र उर्दू में प्रकाशित हो यह विडम्बना थी ।  उन्हें मालूम था कि एकदम उर्दू से हिंदी में पत्र प्रकाशित करने से ग्राहक छंट जायेंगे परन्तु इस चैलेंज का उन्हे सामना करना था ।  परिणाम यह हुआ कि उनकी आवाज को सुनने के लिए ग्राहकों ने हिंदी सीखना शुरू किया पर पत्र के ग्राहक पहले से कई गुना बढ़  गए । लोग हिंदी की दुहाई देते और उर्दू या अंगरेजी में लिखते या बोलते थे परन्तु उस महान आत्मा के लिए यही बात एक चुनौती का काम कर गयी ।

वे किस प्रकार चुनौती का सामना करते थे इसके एक नहीं अनेक उदाहरण  हें ।  सत्यग्रह के दिनों में जब जनता का जुलुस दिल्ली के घण्टाघर की तरफ बढ़ता  जा रहा था तब गोर सिपाहियों ने इसे रोकने के लिए गोली चलने की धमकी दी थी ।  यह धमकी उस महान आत्मा के लिए भारत माता की बलिवेदी पर अपने को कुरबान कर देने की ललकार थी ।  साधारण प्रकृति के लोग उस धमकी को सुनकर ही तितर बितर हो जाते, परन्तु श्रद्धानन्द ही था जिसने छाती तानकर गोरों को गोली चलाने के लिए ललकारा ।  समाज शाश्त्र का यह नियम है कि असाधारण परिस्तिथी उत्पन्न होने पर महान  आत्मा के ह्रदय में असाधारण स्फुरण हो जाता है ।  असाधारण क्रिया शक्ति को उसे समकालीन मानव समाज से बहुत ऊपर लेजाकर शिखर पर खड़ा कर देती है ।

मुझे इस अवसर पर मथुरा शताब्दी की घटना स्मरण हो जाती है ।  उत्सव हो रहा था।  स्वामी जी उत्सव का सञ्चालन कर रहे थे ।  मुझे उन्होंने अपने पास कार्यवाही के संचालन के लिए बैठाया हुआ था ।  अचानक खबर आयी कि शहर में दंगा हो गया पण्डों ने आर्य समाजियों को पीटा उनपर लट्ठ चलाये ।  स्वामी जी इस समाचार को सुनकर ही मुझसे कहने लगे देखो कार्यवाही बदस्तूर चलाती रहो तुम यहाँ से मत हिलना मैं  मथुरा शहर जा रहा हूँ ।  स्वामी जी उसी समय घटना स्थल पर पहुंचे व स्तिथी को संभाल कर लौटे ।  इनके जीवन की एक एक घटना तोयानबी  के इस समाज शास्त्रीय नियम की विषद व्याख्या है कि विकट परिस्तिथी आने पर प्रत्येक व्यक्ति उस परिस्तिथी से निकलने के लिए उससे जूझना चाहता है परन्तु भीरुता के कारण जूझ नहीं पाता । उस समय के महापुरुष होता है जो सबकी पीड़ा को अपने ह्रदय में खींचकर परिस्तिथी की विषमता से लड़ने के लिए उठ खड़ा होता है और जब ऐसा कोई महापुरुष सामने आता है तब सबके सिर उसके पैरों में नत जाते हैं ।

समय की चुनौती का जवाब देने वाले जो महापुरुष भारत में हुए हैं उनके श्रेणी में स्वामी श्रद्धानन्द  का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जा चुका है । ऐसी महान आत्मा को मेरा बार बार नमस्कार है ।

प्रेमस्वरुप श्रीकृष्ण

shreenkrishna and arjun

प्रेमस्वरुपश्रीकृष्ण 

 

जो व्यक्ति अपने सुख से “उदासीन”हो चूका है,वही व्यक्ति अपने मित्र से, परिवार से,समाज से,राष्ट्र से,विश्व से,अर्थात संसार के हर प्राणी से प्रेम कर सकता है | जो व्यक्ति “अनासक्त” हो चूका है,वही प्रेमयुक्त कर्म कर सकता है | जो व्यक्ति स्वयं का “स्वामी” बन चूका है,वही व्यक्ति कर्म कर शांति प्राप्त कर सकता है और जो व्यक्ति भौतिक आकर्षणों से दूर हो चूका है वही व्यक्ति “प्रेम स्वरुप”बन सकता है | जहा आसक्ति है वहा प्रेम नहीं और जहा प्रेम है वहा आसक्ति नहीं | अनासक्त होना ही प्रेम में प्रवेश है | सम्यक रूप होना ही प्रेम में प्रवेश है | कर्म कर प्रतिदान की आशा न रखना ही प्रेम में प्रवेश है | निर्भय होना ही प्रेम में प्रवेश है |

 

मै सड़क छाप प्रेम की बात नहीं कर रहा हु,ऐसा प्रेम तो पशुओ में भी होता है | मै खाने पिलाने के प्रेम की बात नहीं कर रहा हू, ऐसा प्रेम तो दुश्मनों में भी होता है | मै लाड दुलार वाले प्रेम की बात नहीं कर रहा हू,ऐसा प्रेम तो उन बुद्धिहीन माता पिताओ में भी होता है जो अपने हाथो से अपने संतानों का भविष्य बिगाड़ देते है | मै लेन-देन के प्रेम की बात भी नहीं कर हू,ऐसा प्रेम तो उन बुद्धिहीन मित्रो में भी होता है,जो एक दुसरे को पथभ्रष्ट कर देते है | सत्य तो यह है यह प्रेम नहीं प्रेम का अनुचित प्रदर्शन है,जो लाखो करोडो व्यक्ति रोज इसका प्रदर्शन करते है | यह प्रेम नहीं मोह है, मद है,कामुकता है, प्रमाद है | मै तो उस प्रेम की बात कर रहा हू जहा त्याग है, तपस्या है,समर्पण है, बलिदान है, | मै तो उस प्रेम की बात कर रहा हू, जहा शिकायत नहीं,शिकवा नहीं, जलन नहीं, अफ़सोस नहीं,इर्ष्या नहीं, दंभ नहीं,दुःख नहीं, क्लेश नहीं, शोख नहीं | मै तो उस प्रेम की बात कर रहा हू जहा बुद्धि है, उन्नति है, और विकास है | मै तो उस प्रेम की बात कर रहा हू जो श्री कृष्ण में था, श्री रामचन्द्रजी में था, महर्षि दयानंद सरस्वती में  था, महर्षि कपिल में था | वास्तव में प्रेम का यही स्वरुप है | जहा प्रेम और बुद्धि हो वह मित्र हित में, समाज हित में, राष्ट्र हित में, विश्व हित में बाधा पड़ती है, ऐसा प्रेम योगियों का मानना है पर इन्हें प्रेम योगियों ने सत्य प्रेम पर पर्दा दाल रखा है और प्रेम के विशुद्ध रूप का डंका  पिट रहे है | बुद्धि युक्त प्रेम मित्र का, समाज का, राष्ट्र का, विश्व का कलायन करता है और बुद्धिहीन प्रेम संस्कार का, संस्कृति का, धर्मं का, कर्तव्य का, अर्थात मनुष्यता का नाश करता है |

प्रेम कभी किसी व्यक्ति से भी हो सकता है,समाज से भी हो सकता है, राष्ट्र से भी हो सकता है और विश्व से भी हो सकता है, पर प्रेम की सम्पूर्णता तब ही है जब प्रेम विश्व के सभी प्राणियों से हो | प्रेम का केंद्र बिंदु विश्व प्रेम ही है | किसी व्यक्ति, समाज आदि से प्रेम होना वह सिर्फ प्रेम में प्रवेश मात्र है पूर्णता नहीं |

 

प्रेम का लक्षण– जिस व्यक्ति में यह प्रेम प्रगट होता है. उस व्यक्ति में दो लक्षण दिखाई देते है | पहला वह व्यक्ति उदार स्वाभाववाला होता है और दूसरा है प्राणियों के हित के लिए, राष्ट्र हित के लिए, विश्व हित के लिए अहित का विरोधक होता है | उदार इतना होता है, की अपना सब कुछ न्युछावर कर देता है, यह तक की अपने प्राण भी त्याग कर देता है और विरोधक भी इतना होता है, की संसार में किसी भी व्यक्ति,किसी भी स्तिथि का सामना करता है | उसे एक तरह से अज्ञान का विनाशक भी कहा जाता है | उसके उदार और विरोधक होने का कारण प्रेम ही है | प्रेम के यह दो लक्षण उस व्यक्ति में एक साथ होते है |

 

प्रेम में दुःख नहीं- वास्तव में प्रेम की प्रतिक्रिया दुखद तो होती ही नहीं | अगर उसे कही दुःख, ईर्ष्या, द्वेष,जलन, चुबन, हो तो समज लेना यह व्यक्ति प्रेम में डूबा ही नहीं,यह तो मोह,मद,कामुकता, के डबके में गिरा हुआ व्यक्ति है | प्रेम में कभी कोई कष्ट नहीं होता उससे कोई क्लेश दायक प्रतिक्रिया नहीं होती |

 

प्रेम भरा ह्रदय- संसार में जो भी व्यक्ति इस बुद्धि युक्त प्रेम के स्थर को प्राप्त हुआ है उस व्यक्ति में यह दो लक्षण दिखाई देते ही है | उसके बुद्धि बल और उदारता के सामने कोई टिक नहीं सकता | उसका भीतरी और बाह्य जीवन दुःख रहित,क्लेश रहित,शोक रहित आदि दिखाई देते है | संसार की कोई भी परिस्तिथि उसे दुखी-सुखी नहीं कर सकती,इनसे रहित होकर वह अपना कार्य करता है और धर्मं अर्थात सत्य को लोगो के मस्तिष्क में स्थापित करता है | ( कई ऐसे भी व्यक्ति हुए है जिन्होंने अपने बुद्धि हीनता प्रीत के कारण अनेक मत मतान्तरो की स्थापना कर दी है या उसके अज्ञान के कारण हो गयी वेह सिर्फ अपने आचरण के कारण पूजे गए ऐसे व्यक्ति को ज्ञान के कारण पूजना नादानी ही होंगा ) प्रेम भरा हृदय अपने लिए नहीं जीता, वह सिर्फ संसार के लिए ही जीता है | उसका जीवन संसार के लिए सत्य का पथ होता है | जिसमे ऐसा प्रेम प्रगट होता है उसकी नज़र से, कर्म से, व्यव्हार से, स्वभाव से, प्रेम ही प्रगट होता है | उसकी दृष्टी किसी व्यक्ति पर, समाज पर, संप्रदाय पर नहीं विश्व पर ही होती है | ऐसा बुद्धियुक्त प्रेमी ही संसार के मनुष्यों को सत्य धर्मं का, सत्य विद्या का,वास्तविक परमात्मा का ज्ञान कराता है,परिचय कराता है,अनुमान कराता है | और बुद्धिहीन प्रेमी तो सिर्फ इन शब्दों में भटकता है |

मेरे दृष्टिकोण में-महाभारत का काल एक ऐसा काल बिता हुवा है, की जिस काल में एक से बढकर एक धुरंधर ने जन्म लिया | जिसमे एक तरफ शक्तिशाली, बुद्धिशाली,योधा,रथी-महारथी,राजनिपुन,धर्मात्मा,पुण्यात्मा,आचार्य,साधू,महात्मा,ऋषि-मुनि आदि थे तो दूसरी और ईर्ष्यालु,द्वेषी,छली, कपटी, पाखंडी,दम्बी,कामी, लोभी,आदि,दृष्ट प्रवृति के व्यक्तियों ने जन्म लिया | संसार में ऐसे बहुत कम परिस्थिया आती है जब हर क्षेत्र में एक समय में अपने अपने क्षेत्रो में लक्ष तक पहुच ने वाले धुरंधरो ने जन्म लिया हो और ऐसी परिस्थियों में भी ऐसी परिस्थिति बहोत ही दुर्लब होती है जब श्री कृष्ण जैसे योगेश्वर ने जन्म लिया हो,जो अपने पुरे जीवन में न कही झुकता है, न कभी टूटता है,न कभी पछताता, न कभी रोता है,न कभी व्याकुल होता, न कभी जय-पराजय की चिंता करता है, न कभी मान-अपमान का विचार करता है,न कभी किसी एक व्यक्ति के लिए विचार करता है |  अपने पुरषार्थ,कर्तुत्व,और नीतिमत्ता में उन्हें इतना विश्वास है, की अर्जुन को आश्वासित करते हुए वे कहते है की मेरी योजना में और विश्वरूप की व्यापकता में भीष्म,द्रोण,दुर्योधन,दुशासन,कर्ण,जय द्रथ आदि सब पहेले से ही मरे पड़े है | हे अर्जुन तू अपने भय का त्याग कर,तुझे तो केवल निमित बनना है | श्री कृष्ण ने ही उस समय की ऐसे मान्यता को तोडा था, की राजा देवता का प्रतिनिधि नहीं जनता का प्रतिनिधि होता है | श्री कृष्ण ऐसे प्रेमी की स्वयं प्रेम है | मित्र प्रेमी, मनुष्यता प्रेमी, कर्म प्रेमी,राष्ट्र प्रेमी,विश्व प्रेमी,सुव्यवस्था प्रेमी,व्यवार प्रेमी, सत्य प्रेमी, कर्तव्य प्रेमी, विद्या प्रेमी, धर्मं प्रेमी, संस्कृति प्रेमी उनके प्रेम स्वरुप की चर्चा करना दुर्लब है | ऐसा प्रगल्प बुद्धिशाली, कर्तुत्ववान,प्रज्ञावान,व्यवार कुशल,ज्ञानी और पराक्रमी, की जिसका कोई जोड़ नहीं | गृहस्थ प्रेमी होने के साथ-साथ अत्यंत सयंमी | उनमे सत्यानिष्ट थी तो कुटिल राजनीती अर्थात राजधर्म के उपदेष्टा  भी थे |अपने जीवन में सफल इतने, की जीवन के हर रूप में सफल चाए पुत्ररूप में हो,भ्राता रूप में,पिता रूप में, मित्र रूप में हो या मंत्री रूप में हो आदि………

मै महाभारत के श्री कृष्ण को, अर्जुन मित्र श्री कृष्ण को,देवकी और वासुदेव के पुत्र श्री कृष्ण को प्रेम के इसी केंद्र में पहुचा हुवा पाता हु, क्यों की उनके जीवन में किसी भी क्षण में मोह, मद, कामुकता, प्रमोद, शोक,इर्ष्या, द्वेष,लालसा, आदि कही नज़र नहीं आते है | उन्होंने कई दृष्ट राजाओ को मारा और मरवाया पर कही भी स्वयं ने राज सुख नहीं भोग था राजा नहीं बने | वहा योग्य अधिकारी व्यक्ति को ही राजा बनाया | जनता के प्रति यह उनका प्रेम ही था जिन्होंने इस भ्रमित सिद्दांत को तोडा की राजा कोई दैवी शक्ति नहीं, यदि वह अनीति कर तो दंडनीय है, यहाँ तक की आवश्यकता पड़ने पर उसका वध भी किया जा सकता है | ऐसा बोल और कर दिखाकर उस समय की राजनीती में क्रांति पैदा कर दी थी |

श्री कृष्ण जी अपने समय की जिन भ्रमित सामजिक रुढियो को जिस प्रकार चुनौती देकर तोडा वह उनके अदभुत क्रांतिकारी  रूप का दर्शन कराती है | जो प्रेम के दीवाने होते है प्रेम स्वरुप होते है वे ही क्रांतिकारी होते है | क्रांतिकारी वही होते है जो अनीति का, अज्ञान का, दुष्टता का विरोध करते है | श्री कृष्ण अनीति,अज्ञान,दुष्टता के इतने विरोधक थे, की पांडवो को उनका अधिकार प्राप्त कराने के लिए जब युधिस्ठिर के दूत बनकर धुतराष्ट्र की सभा में गए तब दुर्योधन के लिए कहा,जैसे हमने कुल की रक्षा के लिए दुराचारी कंस को मार दिया, वैसा ही उपाय दुर्योधन का करना चाइये | श्री कृष्ण इतने नीर्भिक थे की वेह हर निर्बलताओ से ऊपर उठे हुए थे | प्रेम स्वरुप व्यक्ति ही न्याय और निति का रक्षक हो सकता है |

श्री कृष्ण का एक ही  सपना था, की संसार का जीवन सुरक्क्षित  हो, विश्व में एक व्यवस्था कायम हो, राष्ट्रों में पारस्परिक प्रेम हो, प्रतेयक राष्ट्र अपनी आतंरिक राजनीति में स्वंतंत्र हो, प्रतेयक राष्ट्र का अपनी प्रतिभा का प्रकाश उसके अपने यहाँ की रीती-निति के अनुसार हो पूर्ण स्वतंत्रता से हो,इसी विचार को लेकर उन्होंने युधिष्ठिर के राजसु यज्ञ को सफल बनाने की सोचकर उसका साथ दिया, क्युकी युधिष्ठिर जैसा धर्मात्मा व्यक्ति ही ऐसा कर सकता है और उसका अंकुश राष्ट्रों को नियंत्रण में रख सकता है, क्यों की छोटे छोटे राष्ट्रों पर ऐसा अंकुश न हो तो राष्ट्र परस्पर संघर्ष के भय सैनिक व्यय की मात्रा बढ जाती है जिससे राष्ट्र फलने फूलने की बजाय खोखले हो जाते है | इसी आपसी संघर्ष को मिटाया और आपसी संभंध से राष्ट्रों को जोड़ा युधिष्ठिर के यज्ञ से | ऐसी सोच ऐसे विचार एक विश्व प्रेमी ही रख सक सकता है क्यों की कृष्ण कही के राजा तो नहीं थे और ना ही उन्हें कही के राज्य की लालसा थी | चाहते थे तो स्वयं सम्राट बन सकते थे, लेकिन प्रेमी तो स्वयं का सम्राट होता है, किसी भौतिक राज्य का नहीं | वह तो आत्मा राज्य का मानिक होता है किसी जमीं के तुकडे का नहीं | वह तो स्वतंत्र होता है किसी का दास नहीं | वह तो स्वराज्य में जीता है किसी सपने में नहीं | वह स्वयं के मद में रहता है किसी वस्तु के मद में नहीं |

आज भी कई लोग विश्वहित, विश्वप्रेम की बात कर विश्व को एक सूत्र में, एक व्यवस्था में बांधना चाहते है पर उनके बुद्धिहीन दिमाको में धर्मान्दता भरी हुई है, वह अपनी धर्मान्दता को फैलाना चाहते है मनुष्यता से भरे धर्मं को नहीं | वेह व्यवस्था के बहाने राष्ट्रों पर हुकूमत करना चाहते है राष्ट्रों की उन्नति नहीं | वे जानवर बनाना चाहते है इंसान नहीं | वेह डर फैलाना चाहते है प्रेम नहीं | उनके बुद्धिहीन दिमाक नशा चाहते है प्रेम नहीं | लेकिन श्री कृष्ण कल्पना के प्रेमी नहीं थे | कृष्ण अंध-विश्वास के प्रेमी नहीं थे | किसी वस्तु के नशे में नहीं थे |किसी के दास नहीं थे, वेह काल्पनिक धर्मं के गुलाम नहीं थे | वेह एक कर्मठ योगी थे, वेदों के ज्ञाता थे, विद्या के जानकार थे, सत्य के पुजारी थे, धर्मं के रक्षक थे, निर्बलो के आश्रय थे, दुष्टों के भक्षक थे, अनीति के विनाशक थे और आश्रितों के दानी थे |

प्रेम स्वरुप व्यक्ति ही ऐसी योग्यता, ऐसा स्थर, ऐसी उचाई, ऐसा जीवन, ऐसी नज़र, ऐसा प्रेम, ऐसा मुक्त स्वभाव, ऐसा मस्तिष्क, ऐसी उदारता, ऐसा जूनून, प्राप्त कर सकता है | संसार का नायक वाही हो सकता है, प्रलोभन से मुक्त वाही हो सकता है, अनासक्त वही हो सकता है जो इस प्रेम के केंद्र बिंदु में पंहुचा हुआ हो और मनुष्य जीवन की सफलता भी तब है, जब मनुष्य इस स्तिथि को प्राप्त कर ले |

महाभारत के युद्ध से, अपने निति निपुणता से और अपने अनासक्त भाव से जब श्री कृष्ण प्रसिद्ध हुए, सैखड़ो वर्षा बाद जनता उन्हें पूजने लगी तो कुछ पाखंडी दिमागों ने अपने काल्पनिक बातो को कृष्ण के नामो से जोड़ा | उन काल्पनिक कथाओ ने समय के साथ-साथ सम्प्रदायों का रूप धारण किया |वे संप्रदाय कृष्ण नाम लेकर फलने फूलने और बढने लगे | इन्ही बातो ने कृष्ण को चोर,चली,कपटी,व्यभिचारी,आदि बना दिया इन्ही कथाओ को लेकर जब कोई विधर्मी कृष्ण पर उंगली उठाता है, उन्हें दोषी बताता है तो कह देते है समर्थ को दोष नहीं, यह उनकी लीला है | सत्य तो यह है ईश्वरीय नियम,संसार का नियम सब पर सामान रूप से लागु होते है | दर्शन ग्रंथो की दृष्टी से लीला शब्द का अर्थ “स्वभाव”होता है | और अगर हम यह मानले कृष्ण का स्वभाव इन कथाओ के जैसा था, तो फिर वे निर्दोष कैसे? वे अनासक्त कैसे? वे प्रेमी कैसे? वे मित्र कैसे? वे मुक्त कैसे? वे ज्ञानी कैसे? वे बुद्धिशाली कैसे? वे व्यवस्थापक कैसे? वे पराक्रमी कैसे? और वे योगेश्वर कैसे? | ऐसे कथाओ से वे सैकड़ो दोष से गिर जाते है,यह सारे दोष उनके चरित्र को कलंकित करते है और उनके वास्तविक कर्तुत्व पर पर्दा डालते है | अगर हमने महाभारत के कृष्ण की पूजा की होती, तो आज भारत की ऐसी दुर्दशा नहीं हो रही होती |

हम इनका जन्मोत्सव क्यों मनाते है? अगर हमने इनकी वीरता के गुणों को, और चरित्र को नहीं अपनाया तो इक जन्मोत्सव मनाने से क्या लाभ? वास्तव में तो जन्मोत्सव राम, कृष्ण, दयानंद, कपिल जैसे व्यक्तियों का ही करना चैये ताकि हम उनको याद रखे उनके गुण, कर्म अपनाये और अपना भी वैसा ही स्वाभाव बनाये |स्वभाव निरंतर अभ्यास और प्रयत्नों से ही बनता है, सिर्फ सोचने मात्र से नहीं | आज लाखो या ऐसा करोडो स्वयं का या बच्चो का जन्मदिवस मनाते देखे जाते है | वे हमारे शास्त्रों के अन्दर झांके और देखे क्या यह हमारी सभ्यता है? कुछ क्षण विचार कर देखे, क्या वे इतने योग्य है? अपने भीतर डुबकी लगाये, क्या वे इतने उच्च स्तर पर है? क्या उनसे कुछ  शुद्ध विचारो की प्रेरणा मिल सकती है? क्या एक साल में एक दिन भी उन्होंने राष्ट्र को समर्पित किया है? अगर वे अपना तन, मन, धन, राष्ट्र को समर्पित करेंगे, तो क्या उन्हें जन्मदिन मानाने की आवश्यकता पड़ेंगी? उनका तो यह संसार ही जन्मोत्सव मनायेंगा |

आज प्रेम की विषय में लाखो व्यक्तियों ली गलत धारणा है | वास्तविकता यही है प्रेमवहीप्रगटहोताहैजहातीक्ष्णबुद्धिहोऔरशुद्धविचारहो| बुद्धिहीन प्रेम के कही रंग है है मद है, मोहा है, कामुकता है, प्रमाद है आदि क्या इन सब के ह्रदय में प्रेम है? वास्तव में यह प्रेम के नाम पर मोह, मद, कामुकता आदि है | यह प्रेम नहीं बस प्रेम की रट लगाईं हुई है | जो लोग भिकारियो को रोज रोटी खिलाते है क्या वे प्रशंसा के पात्र है? जो भिकारियो की संख्या बड़ा रहे है, उसके सामर्थ्य में कोई उन्नति नहीं होती और भिखारी आखिर भिखारी ही मरता है | जो लोग रोटी खिलाकर, इलाज करवाकर, धर्मं परिवर्तन करवा रहे है क्या वेह प्रशंसा के पात्र है? जो केवल अपने मत संप्रदाय की व्यक्ति संख्या बड़ा रहे है | जो सन्सर के मनुष्यों को मनुष्यता से नहीं काल्पनिक धर्मं से भरना चाहते है क्या वे प्रशंसा के पात्र है? जब परोपकार भी बिना बुद्धि या स्वार्थ रूपी परोपकार भी सामजिक बुराइया बड़ता है | मनुष्य का मनुष्य शत्रु बनता है, राष्ट्र के टुकडे कर देता है | विश्व को बाट देता है फिर बिना बुद्धि का प्रेम कितना नाश करेंगा? वह तो लाखो जन्मो तक अज्ञानता की खाई में धकेला जायेंगा |

मनुष्यता का नाश हुआ है, तो बुद्धिहीन प्रेम से| अनेक मत मतान्तरो का प्रचार प्रसार हुआ है, तो बुद्धिहीन प्रेम से | धर्मान्दता ने लाखो करोडो निर्दोष व्यक्तियों का रक्त बहा है बुद्धिहीन प्रेम से | लाखो करोडो गलत रास्ता अपनाते है तो बुद्धिहीन प्रेम से,  आत्मा, परमात्मा, का यथार्थ उपदेश देने वाले कितने व्यक्ति है? ज्यादातर भटकनेवाले और भटकाने वाले है |

 

प्रीत शब्दों से नहीं, नज़रो से होती प्रकट |

शुद्ध आत्मा के व्यवहार से होती प्रकट   ||

भेद यह करती नहीं, पक्ष ये लेती नहीं    |

नित्य रहे यह मौज में, यह कभी रोती नहीं ||

प्रीत हिन् रूप के, कितने रूप होते है |

मोह, मद, कामुकता, रूप नज़र यह आते है ||

प्रगल्भ बुद्धि का प्रकाश, विचार शुद्दी रकता है |

प्रीत के स्वरुप का, स्वाभाव प्रकट करता है ||

प्रीत न कभी भटके है, ना कभी भटकाती है |

जोडती है विश्व से, स्वराज्य सिंहासन देती है ||