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अभिमान ही पराजय का मुख है।ऋषि उवाच

पराभवस्य हैतन्मुखं यदतिमानः – शतपथ ब्राह्मण ५.१.१.१

अभिमान ही पराजय का मुख है।

आजकल हम अपने आसपास अभिमान से भरे लोग देख रहे है। किसी को जाति का अभिमान है तो किसी को पैसो का। किसी को बोडी का अभिमान् है तो किसी को पूर्वजो का।

जिसने जबजब अभिमान् किया है तबतब वह ही नष्ट हुआ है।

शतपथकार इसे समझाते हुए कहते है की देवता और असुरोमें लडाई हो गयी।

दोनों सोचने लगे की कहां आहूति दे।

असुर अभिमान् के कारण अपने ही मुखमें आहूति देने लगे अर्थात् सब कुछ खुद को लिए ही करने लगे।

देवता एकदूसरे को आहूति देने लगे। उनहें सर्वस्व प्राप्त हो गया।

यह कथामें बहुत गहरा संदेश है। जिस परिवारमें लोग अपने ही बारेमें सोचते है, वह परिवारमे असुर रहते है।

और जो परिवारमें पहले दूसरो के बारेमें सोचा जाता है, वह परिवारमें देव बसते है।

भाई अपने बारेमें ना सोचकर अपने भाई के बारेमें सोचता है, वह सर्वस्व प्राप्त करलेता है।

जिस परिवारमें अपने से पहले दूसरों का विचार किया जाता है, वह सर्वस्व प्राप्त कर लेता है।

इसी लिए अभिमान् से दूर रहो और दूसरो को बारेमें सोचो।

विशेष हवन तथा संस्कार आदि करने से पहले एक य तीन दिन पहले से व्रत रखते हैं
जब व्रत रखे तो क्या व्रत मे खा सकते हैं?
उत्तर-देवो को खिलाने से पहले नही खाना चाहिए देव यज्ञ के माध्यम से खाते हैं। हवन उन्ही पदार्थो से करना चाहिए जो खाने योग्य हों जैसे मेवा जौ चावल खीर आदि।
तो जिन पदार्थो से हवन करे उन्हे नही खा सकते हैं क्योंकि पहले देव खायेंगे।

जिनका हवन मे प्रयोग न हो उनको खा सकते हैं
और उतना खाना चाहिए जिससे न खाने मे गणना हो सके।
व्रत मे वन मे उपजी हुई चीज खानी चाहिए औषधि य वनस्पति।
व्रत रखने के दूसरे दिन यज्ञ की जब तैयारी करते हैं तो पहले जल को लाकर वेदी के पास रखते हैं

सप्तर्षि कौन है ? ऋषि उवाच

वैदिक धर्म में सप्तर्षि की बहुत प्रतिष्ठा है। पुराण कथाओ में सप्तर्षि शब्द विविध ऋषिओं के साथ जोडा गया है।

आकाश में भी तारामंडल को सप्तर्षि नाम मिला है।

यह सप्तर्षि का वैदिक स्वरूप क्या है? चलीये देखते है।

बृहदारण्यकोपनिषद् २.२.४ में राजर्षि काश्यराज अजातशत्रु, बालाकी गार्ग्य को सप्तर्षि का अर्थ समझा रहे है।

इस उपनिषद् के अनुसार सप्तर्षि हमारे सिरमें रहनोवाली सात इन्द्रिय का समूह है। इस नाम के ऋषि इतिहासमें अवश्य हुए है, लेकिन सप्तर्षि का कंसेप्ट इन्द्रिय के अर्थमें है।

बृहदारण्क अनुसार

गौतम और भरद्वाज – दोनों कान
विश्वामित्र और जमदग्नि – दोनों नेत्र
वशिष्ठ और कश्यप – नाक के दो छिद्र
अत्रि – वाणी

इस प्रकार इन गौतम आदि नाम विविध इन्द्रिय के है। इन अर्थमें वह वेदमें भी आये है।

बादमें इसी नामके विविध ऋषि भी हुए जिससे यह भ्रम हुआ की वेदोमें यह जो नाम है, वह इन ऋषिओ के नाम है।

लेकिन वेदमें किसी मनुष्य का नाम नहीं। बृहदारण्यक के प्रमाण से वह सिद्ध होता है की वेदमें आये इन सब नामो के योगिक अर्थ है, लौकिक नहीं।

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा -रामनाथ विद्यालंकार

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा

राक्षस प्रकम्पित हों, अराति प्रकम्पित हों

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता:  यज्ञः । छन्दः स्वराड् जगती ।

शर्मास्यवधूतरक्षोऽवधूताऽअरितयोऽदित्यास्त्वगसि प्रति त्वादितिर्वेत्तु। अद्रिरसि वानस्प॒त्यो ग्रावसि पृथुबुध्नुः प्रति॒  त्वादित्यस्त्वग्वेत्तु ॥

-यजु० १ । १४

हे नायक!

तू राष्ट्र का (शर्म असि) शरणरूप और सुखदाता है। ऐसा प्रयत्न कर कि (रक्षः) राक्षस (अवधूतं) प्रकम्पित हो उठे, (अरातयः) शत्रु (अवधूताः) प्रकम्पित हो जाएँ। हे सेना ! तू (अदित्याः) राष्ट्रभूमि की (त्वक् असि) त्वचा है, (अदितिः) राष्ट्रभूमि (त्वा प्रति वेत्तु) तुझे जाने । हे नायक! तू (अद्रिः असि) पहाड़ है, बादल है, वज्र है, (वानस्पत्यः) ईंधन है, (ग्रावा असि) पाषाण है, (पृथुबुध्नः) विशाल मस्तिष्क वाला है। (अदित्याः त्वक्) राष्ट्रभूमि की त्वचारूप सेना (त्वा प्रति वेत्तु) तुझे जाने।।

हे राजन् !

हमने आपको अपना नेता चुना है, राष्ट्र का नायक बनाया है, क्योंकि आप प्रजा को शरण और सुख देने में समर्थ हैं। जब तक आपके प्रतिद्वन्द्वी राक्षसजन और शत्रु हैं, तब्र तक राष्ट्र सुखी नहीं हो सकता । निर्दय, हत्यारे, कुटिल, स्वार्थी लोग राक्षस कहलाते हैं, जिनसे सज्जनों की अपनी रक्षा करनी पड़ती है, जो एकान्त पाकर घात करते हैं या रात्रि में अपनी गतिविधि करते हैं । शत्रु वे हैं जो आपको पद्दलित करके आपका राज्य हथियाना चाहते हैं। वे शत्रु कुछ व्यक्ति भी हो सकते हैं और एक बड़ा सङ्गठन या शत्रु-राष्ट्र भी हो सकता है। आप उन आततायी, आतङ्कवादी राक्षसों और शत्रुओं लोगों के भी वश के नहीं होते ।

उत्साह का सञ्चय करके ही हनुमान् सीता की खोज में समुद्र पार करके लङ्का पहुँच गये थे और लक्ष्मण को पुनर्जीवित करने के लिए गन्धमादन पर्वत से संजीवनी बूटी ले आये थे। तू देवयज्ञ की अग्नि को भी अपने अन्दर धारण कर। परमात्मदेव की पूजा की अग्नि, विद्वानों के सेवा-सत्कार की अग्नि और अग्निहोत्र की अग्नि ही देवयज्ञ की अग्नि है। तू चिन्ताग्नि को विदा करके उसके स्थान पर परमेश्वर का चिन्तन कर, विद्वजनों के सत्कार का अतिथियज्ञ रचा और सायं-प्रात: अग्निहोत्र करके वायुमण्डल को शुद्ध और सुगन्धित कर।।

हे मेरे मन!

तू मेरे आत्मा के साथ ध्रुव रूप में रहनेवाला महारथी है, तू मेरा ध्रुव तारा है। मैं तुझे अपने आत्मा के सहायक महामन्त्री के रूप में प्रतिष्ठित करता हूँ। तू ‘ब्रह्मवनि’ हो, ब्रह्म के चिन्तन में सहायक बन, ब्रह्म के कीर्तन में सहायक बन, ब्रह्मबल के अर्जित करने में साधन बन, ब्राह्मण का कार्य करने में साधन बन । तू ‘ क्षत्रवनि’ हो, क्षात्रधर्म का पालन करने में सहायक हो, दीन-दु:खियों की रक्षा करने में साधन बन । तू ‘सजातवनि’ हो, शरीर में तेरे साथ आयी हुई जो ज्ञानेन्द्रियाँ चक्षु, श्रोत्र, रसना, नासिका और त्वचा हैं, उनसे प्राप्त होने वाले ज्ञानों की प्राप्ति में साधन बन, क्योंकि तेरा सहयोग यदि नहीं है तो मनुष्य आँखों से देखता हुआ भी नहीं देखता, कानों से सुनता हुआ भी नहीं सुनता, जिह्वा से चखता हुआ भी स्वाद नहीं पहचानता, नासिका से सूंघता हुआ भी गन्ध अनुभव नहीं करता, त्वचा से स्पर्श करता हुआ भी कोमल-कठोर को नहीं जानता।

हे मेरे मन!

मैं तुझे शत्रु के वध के लिए प्रतिष्ठित करता हूँ। पहले तो जो आन्तरिक षड् रिपु हैं काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, इनके विनाश में तुझे आत्मा का सहयोगी बनना है। दूसरे हैं बाह्य शत्रु, जो मेरी उन्नति में बाधक बनते हैं। उनका संहार करने के लिए या उन्हें मित्र बनाने के लिए भी मनोबल की आवश्यकता है।

हे मेरे आत्मन् !

हे मेरे मन! तुम यदि मिल कर उद्यम करो, तो बड़े से बड़ा अन्तः साम्राज्य और बाह्य साम्राज्य प्राप्त हो सकता है, बड़े से बड़ा अन्तः-शत्रु और बाह्य शत्रु पराजित हो सकता है।

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा

 

पाद-टिप्पणियाँ

१. (ञि) धृषा प्रागल्भ्ये, स्वादिः, क्तिन् ।

२. आमान् अपक्वान् अत्ति तम्-द०भा० ।

३. क्रव्यं पक्वमांसम् अत्ति तस्मान्निर्गतः तम्-द०भा० |

४. षिधु गत्याम्, भ्वादिः । ‘सेधति’ गत्यर्थक, निघं० २.१४।।

५. ब्रह्म वनति संभजते तत्। वन शब्दे संभक्तौ च, भ्वादिः ।

६. भ्रातृ-व्यन् प्रत्यय शत्रु अर्थ में । व्यन् सपत्ने, पा० ४.१.१४५ ।।

७. चिता चिन्ता द्वयोर्मध्ये चिन्ता चैव गरीयसी । चिता दहति निर्जीवं चिन्ता चैव सजीवकम् ।।

८. ध्रुवं ज्योतिर्निहितं दृशये कं मनो जविष्ठं पतयत्स्वन्तः।। —ऋ० ६.९.५

 

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा

अभिव्यक्ति की आजादी का बलात्कार (लोयोला कॉलेज कांड)

हिन्दू देवी देवताओं का अश्लीलता पूर्वक अपमान 

वीथी विरुधु विजाह नाम का एक लोक उत्सव चेन्नई के लोयोला कोलेज में मनाया गया और उसमें अभिव्यक्ति की आजादी का बलात्कार कर दिया गया

जी हाँ !! बलात्कार ! बलात्कार की परिभाषा यही तो है की किसी भी चीज का भोग उसकी सीमा से अधिक जाकर करना, उसकी इच्छा उसकी हद से अधिक जबरदस्ती करना

चन्नई में वामपंथ और ईसाई मिशनरी बहुत हावी है यह बात जानकारों से तो नहीं छुप्पी हुई है परन्तु देखकर, जानकर भी शुतुरमुर्ग बने हुए लोगों की खोपड़ियों को धरती से निकालकर उन्हें समझाने का समय आ गया है

एम् ऍफ़ हुसैन का नाम तो सुना ही होगा आपने, उसने जो सीमा अभिव्यक्ति की आजादी की पार की थी आज उसी तरह का कुकृत्य वीथी विरुधु विजाह उत्सव के दौरान लोयोला कोलेज में हुआ है

सहिष्णु कौम हिन्दुओं के देवी देवताओं पर अश्लील पेंटिंग बनाकर इस कोलेज में प्रस्तुत की गई है पेंटिंग इस तरह की निचले स्तर की है लिखते हुए भी शर्म आती है

एक पेंटिंग में हिन्दुओं के साहस के प्रतीक त्रिशूल को लड़की की योनी में घुसाया हुआ है

एक पेंटिंग में त्रिशूल को कोंडम पहना रखा है
एक पेंटिंग में भारत माता के प्रतीकात्मक चित्र पर वीर्य गिरते दिखाया है (चित्र में स्पर्म के मुहं की जगह टेलीकोम कम्पनियों के लोगो है )

बाकि पेंटिंग में त्रिशूल और हिन्दुओं को हत्यारा सिद्ध किया गया है

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बाकि कुछ राजनीती से प्रेरित है

आश्चर्य का विषय यह है की इस पर बीजेपी के आलावा किसी भी राजनैतिक सन्गठन ने आपति नही जताई बल्कि सीपीएम जैसी पार्टियों के पदाधिकरियों ने इसे कला बताते हुए इसका पक्ष ले लिया है

क्या यही है अभिव्यक्ति की आजादी, क्या इस आजादी का पैमाना यह है की अभिव्यक्ति प्रस्तुत करते हुए आप किसी भी मत मजहब की भावनाओं का अनादर ही नही बलात्कार तक कर डालों ?

चार्ली हेब्दों की पेंटिंग पर आप यहाँ तक उतेजित हो जाते हो की यह तथाकथित शांतिप्रिय सम्प्रदाय उस चार्ली हेब्दों के जीवन में पूर्णकालिक शांति कर देता है, तब आप शांतिप्रिय के कार्य को उचित ठहराते हुए चार्ली हेब्दों की अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रश्न उठाते हो, परन्तु जब यही कार्य हिन्दुओं के देवी देवताओं पर किया जाता है तो आप इसे अभिव्यक्ति की आजादी कहते हो

यह दोगलापन कहाँ से आ जाता है ?
क्या अभिव्यक्ति की प्रस्तुती करते हुए किसी भी हद तक चले जाओगे ? इसका हक आपको कौनसा संविधान देता है ? यदि इस कृत्य को अभिव्यक्ति की आजादी करार दिया गया तो विश्वास कीजिये कई चार्ली हेब्दो पैदा होंगे जो बिन बाप के पैदा हुए संतानों को भी अभिव्यक्ति की आजादी के तहत नंगा कर देंगे

वामपंथ इस देश में हद से अधिक हावी हो चूका है यदि अब समय रहते इसे इसी की भाषा में जवाब नही दिया गया तो विश्वास कीजिये यह आपके घरों में घुसकर आपको ही बाहर निकाल देगा

वामपंथ के इशारों पर हिन्दू

सबरीमाला
केरल में चल रहे इस भयंकर ड्रामे का अंत मुझे तो नही दिखता
वामपंथी और जो समूह महिलाओं के प्रवेश करने को लेकर समर्थन देकर आगे हुए है वे भी नही चाहते है कि ये ड्रामा बन्द हो

वामपंथ यही तो चाहता है कि हिन्दू अपनी मानसिकता को इतना संकीर्ण बनाये रखे और वे नारी सशक्तिकरण के नाम पर तुम्हें एक घटिया और नारी विरोधी मत पंथ सिद्ध करते रहे

क्योंकि हिंदुओं को वामियों ने दलितों से तो अलग कर ही दिया है (विश्वास नही होता ना अभी तीन राज्यों में आये परिणाम इसका चीखता चिल्लाता हुआ प्रमाण है कि तुम लोगों से दलितों को दूर कर लिया गया है)

अब नारी सशक्तिकरण की चाह रखने वाले उस बड़े महिला वर्ग को भी तुमसे अलग कर लिया जाए

वे तो चाहते है कि सबरीमाला के वे कब्जाधारी पण्डित समूह इसका भरपूर विरोध करें और आस्था के नाम पर हिंदुओं को भड़का कर महिलाओं के प्रवेश के विरुद्ध खड़ा रखे जिससे हिन्दू मत और उसकी संकीर्ण सोच के विरुद्ध महिलाओं को हर क्षेत्र में खड़ा किया जा सके

आज यह मंदिर है कल कोई और होगा और इसमें भी आश्चर्य नही होना चाहिए कि आगे चल ये जो जातिगत छुटपुट विवाद चल रहे है ये भी इसी तरह के बड़े तूल पकड़ेंगे

वामपंथियों का होमवर्क, उनकी तैयारी इतनी जबरदस्त है कि आध्यात्मिक अंधभक्ति, अंधविश्वास की जंजीरों में बंधा यह हिन्दू दिमाग उससे कभी पार नही पा सकता

क्या फर्क पड़ जायेगा यदि महिलाएं भी सबरीमाला में प्रवेश कर लेगी तो ? यदि हिन्दू तैयार हो जाये तो यह निर्णय तो उनके विशाल हृदय का प्रमाण सिद्ध होगा

महिलाओं की एक आयुसीमा तय कर रखी है और उसके पीछे तर्क यह है कि वे मासिक धर्म में जो अपवित्रता होती है उसके साथ मन्दिर में प्रवेश करेगी तो मन्दिर अपवित्र हो जाएगा

अर्थात वे सभी मन्दिर अपवित्र है जिनमें महिलाएं प्रवेश कर सकती है, क्या अपवित्र हृदय लिया हुआ व्यक्ति सबरीमाला में प्रवेश करेगा तो मन्दिर दूषित नही होगा ??

“यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमन्ते तत्र देवता”
फिर क्यों यह पंक्ति सुना सुनाकर इस बात का ढोंग करते हो कि हिन्दू मत पंथ में नारी को समान अधिकार दिया गया है

एक तरफ कहते हो जहां नारी पूजी जाती है वहां देवता रमण करते है, वही देव स्थान में ही नारी को नही जाने देते हो, फिर जब तुम पर नारी अधिकार हनन का आरोप लगता है तो चीखते चिल्लाते हो, रोते हो, सर फोड़ते हो

यही संकीर्ण सोच तो हिंदुओं को बांट रही है और विश्वास कीजिये आगे भी बांटेगी, किसी घमण्ड में मत रहिये की आपको कोई मिटा नही सकता, आपको मिटाने की अब किसी को आवश्यकता ही नही आप स्वयं अब मिटने को आतुर दिख रहे है

यह सबरीमाला उस तीन तलाक का ही तो जवाब है जिसे समाप्त करने पर सबसे अधिक खुश हिन्दू दिख रहे थे आज उसी का तमाचा खुद हिंदुओं की इस फ़तवाधारी सोच की वजह से पड़ा है जिसकी आग में केरल जल रहा है

वरना जो सहृदयता दिखाई होती महिलाओं के प्रवेश पर समर्थन दिखाया होता तो तीन तलाक से अधिक बड़ा तमाचा इन वामपंथियों को लगता

हिंदुओं को तो चाहिए कि वे अब नारी सशक्तिकरण के इस ड्रामे को खुद बढ़ाये और मस्जिदों में नारी के प्रवेश को लागू करवाने को इसी स्तर की मुहिम छेड़े

डटकर मस्जिदों के आगे खड़ी होकर इसी तरह प्रवेश करने को आगे आये

परन्तु वहां आपकी हिम्मत नही होती हिन्दू अपने आप में खुश है उसे बदला लेना नही आता, क्रिया की प्रतिक्रिया करना नही आता, सामने वाले को उसी की भाषा में जवाब देना नही आता, हिन्दू तो चाहता है कि उससे उसकी धार्मिक स्वतंत्रता नही छीनी जाए अरे राम मंदिर नही स्वयं राम बनों और उसकी धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला करो जिसने आप पर यह हमला किया है

हर समय रक्षात्मक स्थिति बनाये रखने से आप जीवित नही रह पाओगे, समय की आवश्यकता को देखते हुए आपको सठे साठयम समाचरेत को अपनाते हुए आक्रमक मुद्रा में आना ही होगा तभी आपका भविष्य उज्ज्वल, स्वछन्द और स्वतंत्र होगा अन्यथा एक दिन इसी संकीर्ण सोच के बोझ तले दबकर समाप्त हो जाओगे तब न मोदी आएगा न राम न ईश्वर

औ३म्🙏

गौरव आर्य
(पण्डित लेखराम वैदिक मिशन)

राष्ट्रिय—एकता एक चिंतन – शिवदेव आर्य

राष्ट्रिय—एकता एक चिंतन
 (लेख)
– शिवदेव आर्य,
गुरुकुल पौन्धा, देहरादून
मो—8810005096
किसी भी राष्ट्र के लिये राष्ट्रिय एक ता का होना अत्यन्त आवश्यक है। राष्ट्रिय एकता राष्ट्र को सशक्त व संगठित बनाये रखने की अनन्य साधिका है। राष्ट्रिय एकता विभिन्नताओं में एकता स्थापित करने की व्यवस्थापिका है।
    प्रायः कहा जाता है कि वर्तमान में भारत की राष्ट्रिय एकता सर्वमत समभाव पर आश्रित है। सर्वमत समभाव से तात्पर्य है कि सभी मतों के प्रति समान आदर-भाव। मुसलमानों के धार्मिक कृत्यों में हिन्दुओं की और हिन्दुओं के धार्मिक कृत्यों में मुसलमानों का एकत्रित हो जाना आदि राष्ट्रिय एकता का स्वरूप बताया जा रहा है।
जबकि मेरी दृष्टि में यह राष्ट्रिय-एकता को विखण्डित करने का षड्यन्त्र है।
यही वह विकृत अवधारणा है, जिसने भारतवर्ष का विभाजन किया, भारत में असहिष्णुता का पाठ पढ़ाया, वन्दे मातरम् को बोलना साम्प्रदायिक बताया और भारत में आतंकवाद, नकस्लबाद जैसी महाबिमारी को जन्म देकर हॅंसते हुए भारतवर्ष को करुणक्रन्दन से युक्त होने पर मजबूर कर दिया।
    भारतवर्ष के प्रायः सभी प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ-मन्दिरों, गुरुकुलों की व्यवस्था और आय पर सरकार का अधिाकार है, परन्तु भारत की किसी भी मस्जिद, गिरिजाघर या मदरसों की व्यवस्था पर सरकार कोई हस्तक्षेप नहीं करती। हिन्दुओं के बड़े-बड़े विद्वानों, सन्तों व विदुषियों को येन-केन प्रकारेण फ़ंसाकर जेल भिजवाया जाता है किन्तु मस्जिद तथा मदरसों के इमामों के दोष युक्त होने पर कुछ नहीं किया जाता। जामा मस्जिद दिल्ली के पूर्व प्रमुख इमाम अब्दुल्ला बुखारी को तीन-तीन बार न्यायालयों के समन के बावजूद हाथ तक नहीं लगाया गया। ‘हिन्दू लॉ’ को ‘गरीब की बहू सबकी भाभी’ मानकर छेड़खानी की जाती है किन्तु ‘मुस्लिम लॉ’ पर कोई हस्तक्षेप नहीं होता। भारत का सर्वोच्च न्यायालय भी ‘मुस्लिम लॉ’ की दलिलें प्रस्तुत करता है। मुस्लिम हज-यात्रियों पर सरकार करोड़ों रुपया खर्च करती है किन्तु कुम्भ मेले पर टैक्स लगाती है। फि़र ये व्यवस्थायें राष्ट्रिय एकता को कैसे सिद्ध कर सकती हैं? ये कैसा न्याय है और कैसी व्यवस्था है? क्या यह न्याय व व्यवस्था  प्रत्येक भारतीय के लिए एक समान है? और यदि नहीं है तो राष्ट्रिय एकता कैसे स्थापित हो पायेगी?
    हमारा भारतीय संविधान विभिन्न धार्मों, जातियों, प्रान्तों में विभेद खड़ा करने में राष्ट्रिय-एकता का स्वरूप निर्धारित करता है। अहिन्दू एक से अधिक विवाह कर सकता है, किन्तु हिन्दू एक पत्नी रहते हुए दूसरा विवाह रचाएं तो संविधान का उल्लंघन है। संविधान शिक्षा, नौकरी, पदोन्नति में जातीयता के आधार पर प्रोत्साहन देता है। चिकित्सा, इंजीनियरिंग के क्षेत्र में 80 प्रतिशत अंक पाने वाले वंचित रह जाते हैं और 25 प्रतिशत अंक पाने वाले सर्वथा अयोग्य भी जातिगत आरक्षण के नाम पर प्रविष्ट हो जाते हैं। ये कैसी विस्मता है? क्या ये पक्षपात नहीं है?
    भारत में भाषायी स्तर पर राष्ट्रिय एकता की माला में अंग्रेजी को पिरोया गया है। भारत की प्रान्तीय भाषायें राष्ट्रिय-एकता में सक्षम नहीं और संस्कृत पुत्री हिन्दी जो राष्ट्रिय-एकता की पथप्रदर्शिका बन सकती थी, उसमें नेताओं को साम्प्रदायिकता और दक्षिण भारत का अपमान दृष्टिगोचर होता है। इसलिए भारत में राष्ट्रिय एकता के निर्धारण में विदेशी भाषा अंग्रेजी एक सूत्र बनी हुई है। देखो! भला जिस भाषा को भारत के सभी लोग जानते तक न हों तो उस भाषा से एकता कैसे स्थापित हो सकती है? अंग्रेजी भाषा राष्ट्रिय एकता की जब सूत्र बनी तो अंग्रेजी सोच ने सभी के मन-मस्तिष्क को गहरा पहार किया कि हम आज भी काले अंग्रेज बनकर जी रहे हैं। अपनी सभ्यता व संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं। प्रातः जागरण से लेकर रात्रि शयन तक विदेशी वस्तुओं का प्रयोग तथा विदेशी सभ्यता का अन्धानुकरण हमारी राष्ट्रियता की पहचान बनती जा रही है।
    देश में व्याप्त साम्प्रदायिकता, जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद आदि सभी राष्ट्रिय एकता के अवरोधक तत्त्व हैं। ये सभी अवरोधाक तत्त्व राष्ट्रिय-एकता की दीवार को कमजोर बनाते हैं। इन अवरोधाक तत्त्वों के प्रभाव से ग्रसित होकर लोगों की मानसिकता क्षुद्र होतीं जा रही है, जो निज स्वार्थ  के चलते स्वयं को राष्ट्र की प्रमुख धारा से अलग रखते हैं। इन विघटनकारी तत्त्वों की संख्या जब और अधिाक होने लगती है तब ये सभी परस्पर राष्ट्रिय एकता को कमजोर बनाते हैं। इस प्रकार ये विभिन्नताएं जो हमारी संस्कृति की अमिट पहचान है, जिनपर हम गौरवान्वित होते हैं वे ही जब उग्र रूप धारण करती हैं तब यह हमारी एकता और अखण्डता की बाधाक बन जाती हैं। देश की एकता के लिए आन्तरिक अवरोधक तत्त्वों के अतिरिक्त बाह्य शक्तियॉं भी बाधाक बनती हैं। जो देश हमारी स्वतन्त्रता व प्रगति से ईर्ष्या रखते हैं, वे इसे खण्डित करने हेतु सदैव प्रयासरत् रहते हैं। कश्मीर की समस्या हमारी इन्हीं प्रयासों की उपज है, जिससे हमारे देश के कई नवयुवक दिग्भ्रमित होकर राष्ट्र की प्रमुख धारा से अलग हो चुके हैं।
    आज हमारे भारतवर्ष के लोगों में ऐसी क्षुद्र मासिकता विकसित हो गई है, जो अत्यन्त दयनीय है। यह देखकर बहुत आश्चर्य होता है कि उच्चबुद्धिजीविवर्ग अपना भारतीय अस्तित्व ही खो देता है। अभी हाल में ही एक ऐसी घटना भीमा कोरे गॉंव हिंसा से सम्बन्धिात हम सबके सामने आयी, जिसने सभी को स्तब्धा कर दिया। इसमें जो आरोपित पकड़े गये हैं वे बहुत की योग्य शिक्षाविद् हैं परन्तु उनकी मानसिकस्थिति को देख आश्चर्य लगता है। देश के माननीय प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी जी सहित अनेक शीर्षस्थ नेताओं को समाप्त करने के लिए एक योजनाबद्ध तरीके से कार्य हो रहा था, किन्तु हमारी की सुरक्षा ऐजन्सियों ने मिलकर अलग-अलग स्थानों से योजनाकर्ताओं को पकड़ा लिया। इन आरोपियों में मानवाधिाकार कार्यकत्री सुधा भारद्वाज, मानवाधिाकार एवं पत्रकार गौतम नवलखा, एक्टिविष्ट वर्नान गॉन्जारन्वेस, एक्टिविष्ट एवं वामपन्थी वरबरा रॉव एवं वकील अरुण फ़रेरा जैसे उच्चशिक्षाविद् शामिल हैं। इससे बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि इन लोगों के समर्थन में देश के बड़े-बड़े राजनेता व सामाजिक-कार्यकर्ता खड़े हैं। ऐसे राजनेताओं व सामाजिक-कार्यकर्ताओं को देखकर शर्म आती है? इनको देखकर हम कैसे कह सकते हैं कि हमारा देश राष्ट्रिय एकता में सम्बद्ध है? क्या ऐसे लोगों से देश की एकता व अखण्डता स्थिर रह सकती है?
    प्रत्येक राष्ट्र के लिए राष्ट्रिय एकता का होना अत्यावश्यक है। भारत जैसे एक असीम असमानताओं से भरे देश में एकता लोगों को जोड़ने वाले कारक के रूप में काम करता है। पिछले कुछ वर्षों से पाकिस्तान हिन्दू-मुस्लिम मतभेद बढ़ाते हुए एवं कश्मीर में भारत विरोधी भावनाओं एवं उग्रवाद को उकसाते हुए राष्ट्रिय एकता को कमजोर करने की कोशिश कर रहा है। इन्हीं विभाजनकारी नीतियों द्वारा अंग्रेजों ने सैकड़ों वर्षों तक भारत पर शासन किया। लेकिन जब भारत के लोगों ने इन मतभेदों से ऊपर उठकर ‘राष्ट्रवाद’ का प्रदर्शन किया तो अंग्रेज स्वयं ही भारत से जाने को उद्यत हो गये।
    लोकतन्त्रता की स्थिरता, स्वतन्त्रता की रक्षा एवं राष्ट्र के समग्र विकास के लिए राष्ट्रिय एकता और एकता निश्चित रूप से आवश्यक है। जब तक पूरा राष्ट्र एकता की भावना को अपनाने का प्रयास नहीं करता तब तक देश में कोई विकास या आर्थिक प्रगति नहीं हो पायेगी। इसलिए देश के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होना चाहिए कि वे राष्ट्रिय एकता को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रिय एकता को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएं।
    राष्ट्रिय एकता को अक्षुण्य बनाये रखने के लिए हम अपनी क्षुद्र मानसिकता से स्वयं को दूर रखें तथा इसमें बाधाक समस्त तत्त्वों का बहिष्कार करें। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि हम जिस क्षेत्र, प्रान्त, जाति या समुदाय से हैं परन्तु उससे पूर्व हम भारतीय नागरिक हैं। भारतीयता ही हमारी पहचान है। इसलिए हम कभी भी ऐसे कृत्य न करें जो हमारे देश के गौरव व उसकी प्रगति में बाधक बनें…….

योग किया नहीं जाता, जीया जाता है: आचार्य धर्मवीर

योग किया नहीं जाता, जीया जाता है

वर्तमान समय में योग एक बहुत प्रचलित शब्द है, परन्तु अपने अर्थ से बहुत दूर चला गया है। योग के सहयोगी शब्दों के रूप में समय-समय पर कुछ शब्दों का प्रयोग होता रहता है- योगासन, योग-क्रिया, योग-मुद्रा आदि। इसी प्रकार कुछ अलग-अलग क्रियाएँ, जिनसे प्रयोजन की सिद्धि हो सकती है, उनका भी योग नाम दिया गया है- राजयोग, मन्त्रयोग, हठयोग आदि। इनसे परमात्मा की प्राप्ति होना अलग-अलग ग्रन्थों में बताया गया है। मूलत: योग शब्द का अर्थ जोडऩा है। जोडऩा गणित में भी होता है, अत: संख्याओं के जोडऩे को योग कहते हैं। जिस कार्य से प्रयोजन की सिद्धि न हो, उसे वह नाम देना निरर्थक है। योग में किसी से जुडऩे का भाव अवश्य है। हम समझते हैं, योग प्रात:काल-सायंकाल करने की चीज है। योग चाहे आसन के रूप में किये जायें, चाहे साधना के रूप में। आसन के रूप में योगासन स्वास्थ्य के लिए किये जाते हैं, किन्तु पूरे दिन स्वास्थ्य-विरोधी आचरण करते हुए योगासन करके कोई स्वस्थ नहीं हो सकता, क्योंकि प्रात:काल-सायंकाल योगासन करके शरीर को सक्रिय तो कर लिया, परन्तु भोजन और विश्राम के द्वारा ऊर्जा का संग्रह किया जाता है। भोजन, विश्राम यदि ठीक नहीं तो आसन व्यर्थ हो जाते हैं। व्यायाम, आसन, प्राणायाम आदि से तो तन्त्र को दृढ़ता और सक्रियता प्रदान की जाती है। उसी प्रकार योग-साधना का प्रयोजन परमेश्वर से मिलना है, उससे जुडऩा या उस तक पहुँचना है। यदि योग परमेश्वर तक पहुँचने के उपाय का नाम है, तो विचार करने की बात यह है कि उस परमेश्वर की प्राप्ति का यत्न तो प्रात:काल सायंकाल घण्टा-दो-घण्टा किया जाये, उससे दूर होने के काम सारे दिन किये जायें तो कल्पना कर सकते हैं कि हम कब तक परमेश्वर को मिल सकेंगे? यह तो ऐसा हुआ जैसे प्रात:काल-सायंकाल अपने गन्तव्य की ओर दौड़ लगाना और दिनभर उसके विपरीत दिशा में दौडऩा। ऐसा व्यक्ति जन्म-जन्मान्तर तक भी अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार पूरे जीवन प्रात:-सायं सन्ध्या, योग करते रहने वाला कभी भी परमेश्वर तक नहीं पहुँच सकता, क्योंकि वह उद्देश्य की ओर थोड़े समय चलता है, उद्देश्य के विपरीत अधिक समय चलता है। ऐसा व्यक्ति लक्ष्य से दूर तो हो सकता है, परन्तु लक्ष्य तक कभी भी नहीं पहुँच सकता।

योग परमेश्वर तक पहुँचने का उपाय है, तो यह कार्य कुछ समय का नहीं हो सकता। जैसे कोई व्यक्ति यात्रा पर निकलता है, तो सभी कार्य करते हुए भी उसकी यात्रा, उसी दिशा में निरन्तर आगे-आगे बढ़ती रहती है। मार्ग में वह सोता है, खाता है, बात करता है, किन्तु उसकी न तो यात्रा की दिशा बदलती है, न यात्रा पर विराम लगता है और वह देरी से या जल्दी गन्तव्य तक पहुँच ही जाता है। इसी कारण वेदान्त दर्शन में साधना कब तक करनी चाहिए- इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है- आ प्रायणात्तत्रापि दृष्टम्। लक्ष्य की प्राप्ति तक साधना करने का विधान किया गया है, अत: योग केवल प्रात:काल-सायंकाल की जाने वाली क्रिया नहीं है। यह जीवनरूपी यात्रा है, जिसका प्रयोजन परमेश्वर तक पहुँचना या उसे प्राप्त करना है। यह यात्रा तब तक समाप्त या पूर्ण नहीं हो सकती, जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाये। यह जीवन-यात्रा कैसे सम्भव है? इसको बताने वाले अनेक शास्त्र हैं, परन्तु योगदर्शन इसका सबसे अधिक व्यवस्थित, उपयोगी एवं सरल शास्त्र है। इस सारे योगदर्शन को संक्षिप्त किया जाये, तो तीन सूत्रों में बाँधा जा सकता है, शेष शास्त्र तो इन सूत्रों का व्याख्यान है।

प्रथम योग कैसे होता है, यह सूत्र में कहा गया है- योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:। चित्त की वृत्तियों के निरोध-अवरोध करने का नाम योग है। जब चित्त की वृत्तियाँ अर्थात् उनका बाह्य व्यापार रुक जाता है, तो प्रयोजन की प्राप्ति हो जाती है। अगले सूत्र में बतलाया गया है, वह प्रयोजन क्या है, जो चित्त के बाह्य व्यापार को रोकने से सिद्ध होता है? तो पतञ्जलि मुनि कहते हैं- तदा द्रष्टु: स्वरूपे अवस्थानम्। चित्त का कार्य ही आत्मा को संसार से जोडऩा है, जब उसे संसार से जोडऩे के काम से रोक दिया जाता है तो वह बाहर के व्यापार को छोड़ कर भीतर के व्यापार में लग जाता है। उसके भीतर का व्यापार आत्मदर्शन कहलाता है, जब वह स्वयं में स्थित होता है तो अपने में स्थित परमात्मा का भी उसे सहज साक्षात्कार होता है, अत: योग परमात्मा के साक्षात्कार करने का नाम है। जब हमारा चित्त हमारी आत्मा में नहीं होता तो निश्चित रूप से विपरीत दिशा में लगा होता है। क्योंकि मन एक क्षण के लिए भी निष्क्रिय नहीं रहता, अत: मनुष्य के सोते, जागते, वह कार्य में लगा रहता है, तब यदि वह अन्तर्मुखी नहीं होगा तो निश्चित रूप से बहिर्मुखी होगा। उसी को बताने के लिये पतञ्जलि मुनि ने सूत्र बनाया है- वृत्तिसारूप्यमितरत्र चित्त की वृत्तियों का निरोध न करने की दशा में चित्त सांसारिक व्यापार में ही लगा रहता है। यह स्वाभाविक और अनिवार्य है।

योग एक यात्रा है, जो जीवन के प्रयोजन को प्राप्त करने के लिए की जाती है। इस योग को समझने के लिए एक और विधि हो सकती है। संक्षेप में योग क्या है- जैसे एक शब्द में योग को समझाना हो तो कैसे समझा जाये? एक शब्द में योग को जानना हो तो वह शब्द है- ईश्वरप्रणिधान। प्रणिधान शब्द का अर्थ है- समर्पण। जब कोई साधक सिद्ध बन जाता है, अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है, तब वह ईश्वर के प्रति अपना समर्पण कर देता है। जब व्यक्ति में समर्पण आता है, तब उसे अपना कुछ भी पृथक् रखने की इच्छा नहीं रहती, सब कुछ उसे उसका ही लगता है, जिसके प्रति वह समर्पित होता है। इसकी व्याख्या करते हुए व्यास जी कहते हैं- ऐसे साधक के कर्मों में- ईश्वरार्पणं तत्फलसंन्यासो वा, जैसे वह या तो स्वामी से पूछ कर कार्य करता है, उसके आदेश का पालन करता है और स्वयं कोई कार्य करता है तो उसे स्वामी के अर्पण कर देता है अर्थात् किये हुए कार्य के फल की इच्छा नहीं करता। ईश्वर और उसके मध्य स्वामी-सेवक का सम्बन्ध होता है, जैसे- श्रेष्ठ सेवक सदैव स्वामी को प्रसन्न करना चाहता है, सदा स्वामी के हित साधन में तत्पर रहता है, उसी प्रकार उपासक अपने उपास्य को प्रसन्न करने में तत्पर रहता है। स्वामी के आदेश की प्रतीक्षा करता है, आज्ञा पालन कर प्रसन्न होता है, अपने को धन्य समझता है, कृत-कृत्य मानता है।

ईश्वरप्रणिधान का महत्त्व समझने के लिये योगदर्शन के सूत्रों पर चिन्तन करना अच्छा रहता है। सूत्रों पर विचार करने से पता लगता है कि योग के अंगों में सबसे महत्त्वपूर्ण शब्द ईश्वरप्रणिधान है। योग दर्शन में साधना, समाधि की सिद्धि के बहुत सारे उपायों में पहला मुख्य उपाय बताया है, ईश्वरप्रणिधान। पतञ्जलि ने सूत्र लिखा है- समाधिसिद्धिरीश्वर- प्रणिधानात्- ईश्वरप्रणिधान से समाधि सिद्ध हो जाती है। व्यास कहते हैं- ईश्वरप्रणिधान से परमेश्वर प्रसन्न होकर तत्काल उसे अपना लेता है।

कुछ विस्तार से योग समझाते हुए योगदर्शन के दूसरे पाद में, जिसे साधन पाद कहा गया है, उसमें क्रिया योग और अष्टांग योग का व्याख्यान किया है। इन दोनों स्थानों पर ईश्वरप्रणिधान का उल्लेख किया गया है। क्रिया योग का पहला सूत्र है- तप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग:। तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान क्रिया योग के तीन अङ्ग हैं। इसी प्रकार अष्टांग योग में सर्वप्रथम यम-नियमों की चर्चा की गई है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि। इन आठ अंगों में प्रथम दो हैं- यम और नियम। यम हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। नियम हैं- शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान। इस प्रकार नियमों में अन्तिम है- ईश्वरप्रणिधान। विस्तार से जब योग का कथन किया जाता है तो उसे अष्टांग योग कहते हैं। इसमें भी ईश्वरप्रणिधान है। कुछ कम विस्तार से योग के अंग बतलाये गये हैं- तप: स्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि क्रियायोग:। इसमें भी ईश्वरप्रणिधान है तथा समाधि पाद में एक शब्द में जब योग की बात की गई है तो भी कहा गया- समाधिसिद्धिरीश्वर- प्रणिधानात्। अर्थात् एक शब्द में योग ईश्वरप्रणिधान है। यही उपासना है।

उपासना का अर्थ समझने के लिए उपनिषद् में एक सुन्दर दृष्टान्त आया है। वहाँ कहा गया है- जैसे भूखे बच्चे माँ की उपासना करते हैं, उसी प्रकार देवता अग्निहोत्र की उपासना करते हैं। उपासना ऐच्छिक नहीं है, जब इच्छा हुई की, जब इच्छा हुई नहीं की। समय मिला तो कर ली, नहीं समय मिला तो नहीं की। उपासना एक आन्तरिक भूख है, एक आवश्यकता है, जिसे पूरा किये बिना रहा नहीं जा सकता। एक भूख से पीडि़त बालक को माँ की जितनी आवश्यकता लगती है, उतनी ही तीव्र उत्कण्ठा एक उपासक के मन में उपास्य के प्रति होती है। तब उपासना सार्थक होती है। मनुष्य जिससे प्रेम करता है, जिसे चाहता है उसके निकट रहना चाहता है, उसी प्रकार परमेश्वर को उपासक अपने निकट देखना चाहता है। सदा अपने प्रिय की निकटता की इच्छा करना ही उपासना है।

जनसामान्य के मन में उपासना करने को लेकर बहुत संशय रहता है। उपासना कैसे प्रारम्भ की जाये, चित्त की वृत्तियों को कैसे रोका जाये, मन परमेश्वर में कैसे लगे आदि-आदि। जो लोग उपासना के अभ्यासी हैं, उनके अनुभव नवीन साधक के लिये उपयोगी हो सकते हैं। जहाँ तक मन को एकाग्र करने का प्रश्न है, मन कभी खाली नहीं रहता, उसकी रचना प्रकृति से हुई है, अत: वह स्वाभाविक रूप से सांसारिक विषयों की ओर दौड़ता है। उसे हम रोकना चाहते हैं, वह रुकने का नाम नहीं लेता। ऐसी परिस्थिति में मन को नियन्त्रित करने का सरल उपाय है- अपने पूर्व कार्यों का चिन्तन करना। इसमें प्रतिदिन प्रात:-सायं अपने दिनभर, रातभर के कार्यों पर विचार करने का विधान तो है ही, यदि दिन में जब भी खाली समय मिले, अपने पिछले कार्यों के विचार में मन को लगाया जाये, तो मन सरलता से अपने कार्यों पर विचार करने में व्यस्त हो जाता है। आज के, कल के, सप्ताह के या मास के कार्यों पर चिन्तन करते-करते मन अनायास ही उपासक के नियन्त्रण में हो जाता है। मन अपेक्षा करने लगता है कि उसे किसी कार्य में लगाया जाये, उसी समय मन को वाञ्छित कार्य में लगाया जा सकता है। उपासना की सफलता और उपासना में गति लाने के कई सरल नियम हैं, उनमें उपासना के लिए स्थान और समय का निश्चित करना भी आता है। निश्चित स्थान और निश्चित समय उपासक को उपासना के  लिये प्रेरित करते हैं। उपासना में बैठने के बाद आसन को सहज भाव से बिना बदले उपासक कितने समय बैठ सकता है, यह महत्त्वपूर्ण है। वस्तुत: आसन में इन्द्रियों को एकाग्र करने में सबसे सहयोगी क्रिया यही है कि उपासक कितनी देर तक आँखें बन्द करके बैठ सकता है? इन सामान्य बातों से उपासना में रुचि और गति दोनों बढ़ती हैं।

अब हमारी समझ में आ सकता है कि योग केवल प्रात:काल और सायंकाल किया जाने वाला व्यायाम नहीं, अपितु चौबीस घण्टे आनन्द में रमण करने का नाम है। जब हम जागते हुये, प्रात:काल के समय ब्रह्ममुहूर्त में सन्ध्या करते हैं, तब आँख बन्द करके योग करते हैं। सूर्योदय के समय सबके साथ बैठकर घी, सामग्री, समिधा से अग्निहोत्र करते हैं, यह भी उपासना है। अग्निहोत्र के लाभ बतलाते हुए ऋषि दयानन्द कहते हैं- यज्ञ में मन्त्रों के पढऩे से परमेश्वर की उपासना भी होती है। हम कह सकते हैं- यह आँख खोलकर अग्निहोत्र करना उपासना ही है। इसी प्रकार चौबीस घण्टे के व्यवहार में भी उपासना होनी चाहिए, तब उपासना क्या होगी? तब उपासना यम-नियम का पालन करना, दुकान करना, खेती करना, मजदूरी करना, नौकरी करना, सब कुछ उपासना होगी। उस समय यम-नियमों का पालन हो रहा होगा। इस प्रकार अकेले उपासना करना सन्ध्या है, परिवार के साथ उपासना करना अग्निहोत्र है और पूरे दिन सबके साथ, सभी प्रकार का व्यवहार यम-नियम पूर्वक करना सार्वजनिक उपासना है। यही योग है।

सामान्यजन की धारणा रहती है कि मुक्ति तो परमेश्वर की वस्तु है, वह उसकी कृपा व उसकी उपासना से मिलती है। यह बात सब लोग मानते और समझते हैं परन्तु संसार के विषय में ऐसा समझते हैं कि यह ईश्वर की वस्तु नहीं है या उससे विपरीत वस्तु है, इसीलिए संसार की वस्तुओं को पाने के लिए हम ईश्वर के विपरीत चलना आवश्यक मानते हैं। जबकि सच तो यह है कि संसार भी उसी ईश्वर का है जिसकी मुक्ति है, फिर जिस योग की साधना से ईश्वर मुक्ति देता है, वही ईश्वर योग की साधना करने से संसार के सामान्य सुख से वञ्चित क्यों रखेगा? योग संसार से होकर मुक्ति तक जाने का मार्ग है, इसलिए संसार का सुख भी बिना योग के मिलने की कल्पना नहीं की जा सकती। इस प्रकार संसार योग का विरोधी नहीं, योग की प्रयोगशाला है।

योग जीवन की यात्रा है, इसमें कभी गति तीव्र होती है, कभी मध्यम और कभी मन्द। इतना ही सब उपासना काल के बीच अन्तर है। इसी भाव को कृष्ण जी ने गीता के निम्न श्लोकों में कहा है-

नैव किञ्चित् करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।

पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्।।

प्रलपन्विसृजन्गृöन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।।

This is treason: Dr. Dharmveer

This is treason 

“ Pakistan Zindabad, India will bleed with a thousand cuts, How many Afzal’s will you sentence to death when each house will given birth to an Afzal, Kasmir will win its freedom, This fight will continue till India is destroyed”. These slogans even if heard in Pakistan would have been enough to make us agitated. We would have cursed Pakistan, made some announcements condemning the episode may be even announced action, but these slogans were heard on the 9th February in India’s capital at the Jawaharlal Nehru University. These slogans were raised by the students of the university. These slogans were repeated and the sentencing of the terrorist Afzal Guru was claimed to be the murder of justice. The Supreme court of India and her constitution were cursed repeatedly. Can a country expect its very own citizens to raise such slogans in the heart of its capital city and in a university! This is the tolerance of India! and it seems that these people are very miserable living in India.

JNU Delhi, has always been notorious for its anti national activities. From treason to nudity of Hindu goddesses, everything is seen to be a sign of being progressive, liberal and freedom of expression. The very foundation of this University is anti India. When the university was established it had all the departments except Sanskrit. When the then HRD Minister Murli Manohar Joshi decided to open Sanskrit department in the university, the students organized strikes, demonstrations and protests. However the central government went ahead and opened the Sanskrit department here.

The University also organized a beef festival on its campus which could not materialize due to protests by the ABVP and other hindu organizations. All the anti national and anti social activities are in the name of progress and freedom of expression.  These activities had so far not been brought to light and therefore no action had been taken. The past governments were also with them.  The University management and officials were also guardians of the same anti national brigade. The statement of the university professors and the officials in light of this incident is the result of the same tradition that has so far continued at this university.

Sandip Patra recently said on a news channel that the students and faculty who had earlier protested against the anti social and anti national activities at the university were punished, insulted and ultimately thrown out of the university.

When Zee news first broadcast the recent incident at JNU, the whole nation was enraged. Which citizen would hate his own country and detest his own fellow countrymen and claim his behavior to be his right. Those who study with the money paid for by the country declare their treason as their freedom of expression. There cannot be a greater misfortune for a country than this.  If this incident had transpired in China, Tiananmen square episode would have been repeated by now. The more disgraceful part of this episode is the way the media, political parties like Congress, AAP and the marxists are supporting these anti national students. Some want to dismiss this episode as just another incident by some outsiders and not the students. Others are trying to defend the incident as the freedom of expression.

This episode is nothing but treason and all those who are defending it are India’s traitors. Anyone who supports a traitor is also definitely a traitor himself. This episode could come to light because it was all captured over camera. When the president of the student union was brought before the judge he declined having shouted anti India slogans and blamed it on the outsiders. When he was shown the video evidence of him shouting the slogans, he blamed it on the students of ABVP of having spoilt the JNU environment. Basically he is saying that to stop a thief from stealing is spoiling the environment.  Some shameless politicians have also adopted this line and saying that it is not confirmed who was shouting the anti national slogans. They are also saying that the police should not enter the university campus to arrest these anti national students. It is interesting to note that the Pakistan supports can stay there, pakistani spies can live there, but the police protecting Indian citizens cannot enter the university.

 

We should also note here that this is not the first incident of this kind. There has been a chronology of such events. A similar episode had happened in Hyderabad. However a camera recording was not available for that incident. There it was associated with the atrocities on the Dalits. In the Hyderabad University more than 300 students had gathered to protest against the death sentence given to Yakub Menon. Students prayed for his soul and shouted that Yakub Menon will be born in each house. One of the member of the students’ council protested against this episode and wrote a scathing piece on his Facebook page. More than 30 Yakub Menon supporters dragged him out of his room in the middle of the night, beat him up and forced him to write an apology letter and got his Facebook post removed. Is this tolerance? Is it freedom of expression or social justice? Even if you do wrong it is your freedom of expression and if someone protests you will kill him? The mother of the student approached the court after this episode. The students of the University went on a strike and amidst all this the student” Rohit” committed suicide. The politicians and the anti national forces used this episode as the atrocities of the Modi Government on the Dalits and oppressed class. Rahul Gandhi and Kejriwal went to Hyderabad University to express their solidarity with the students. No one wants to pay attention to the real cause of this incident. No one went their to dissuade the students and no one criticized their actions.

 

The JNU episode is the second in the series. The student Rohit from Hyderabad had written to the central government to intervene and put an episode to such incidents. The central government’s response was in the interest of the society and the country. But India is a nation of Jaichands. Today the Congress and the whole opposition is occupied with just one thing – to make every action and every episode as an act against the Modi Government.  While the students of JNU were shouting anti India slogans, another episode was taking place simultaneously. Pamphlets with photos of Afzal Guru and Yakub Menon were distributed. They were criticizing the death sentence awarded to these terrorists. This was organized in another liberal bastion, the press club of India. Needless to stay that the faculty members of JNU were also a part of this group.

 

Is it possible in any other country of the world to use the government institutions for anti national activities?  It can happen only in India because the enemies of the State are a part of the system and the government machinery. From Nehru to Sonia gandhi, the objective of all governments was the same – destruction of India’s culture and it traditions. It is a result of their policies that Indians do not take pride in their own country, culture and traditions. Newer generations consider our beliefs to be backward and obsolete. The Western traditions were glorified and considered ideal at the same time destroying our own values. JNU is an example of this policy. These policies have nurtured anti national elements in the country. To grab the power appeasement has been followed to such an extent that all anti national activities were ignored.

 

The protests against the JNU episode are the result of awareness in the general public. The fact that some members of the student council opposed it and that a couple of news channels like Zee news stood firm and brought this episode to light have made a judicial investigation and action possible. These traitors are weak and cowardly and most of them ran at the first sign of trouble. Some of them are still at large. If those arrested are dealt with strictly then most of the supporters and comrades would be seen absconding.

 

Anyone in public who supports Afzal guru, shouts Long live Pakistan, eulogizes terrorists is a traitor. Anyone who shouts slogans of “ Long live Khalistan, praises Bhindarwale and distributes pamphlets in support of his actions is a traitor. Those who support them are also guilty of treason. Treason is an unpardonable offense and if dealt with strictly and firmly it might restraint these anti national activities. The students, zee news and times now and the public who raised their voice against the anti national activities at JNU deserve to be lauded.

Our scriptures say that the traitors should be punished severely –

In a nation where leadership is strong and justice and punishments is severe, it does not let its subjects deviate from the righteous path.

SCIENTIFIC EXPERIMENTAL STUDY OF AGNIHOTRA/HAVAN/YAJYAN: Ashish Arya

 

Maharishi Dayanand Saraswati in the third chapter(Samullas) of Satyarth Prakash answers about scientific nature of havan .”Those who know about matter know it for sure that matter never dies. Matter under the fire doesn’t get destroyed. It transforms from one state to another state. Fire enhances the character of matter. Only scent has not the disintegrating power to rid the house of its impure air , and replace it by the fresh pure air. It is fire alone which possesses that power, whereby it breaks up the impurities of the air , and reduces them to their component parts, which, getting lighter, are expelled from the house and replaced by fresh air from outside.”

He further says” In the ‘Golden Days’ of India ,saint and seers , princes and princesses, king and queens, and other people used to spend a large amount of time and money in performing and helping others to perform Homa ; and so long as this system lasted, India was free from disease and its people were happy. It can become again, if the same system were revised.”

 

Air pollution is a major environmental risk to health. By reducing air pollution levels, countries can reduce the burden of disease from stroke, heart disease, lung cancer, and both chronic and acute respiratory diseases, including asthma.  The lower the levels of air pollution, the better the cardiovascular and respiratory health of the population will be, both long- and short-term. Outdoor air pollution is a major environmental health problem affecting everyone in developed and developing countries alike.

WHO estimates that some 80% of outdoor air pollution-related premature deaths were due to ischemic heart disease and strokes, while 14% of deaths were due to chronic obstructive pulmonary disease or acute lower respiratory infections; and 6% of deaths were due to lung cancer. Ambient (outdoor air pollution) in both cities and rural areas was estimated to cause 3.7 million premature deaths worldwide per year in 2012; this mortality is due to exposure to small particulate matter of 10 microns or less in diameter (PM10), which cause cardiovascular and respiratory disease, and cancers.

 In addition to outdoor air pollution, indoor smoke is a serious health risk for some 3 billion people who cook and heat their homes with biomass fuels and coal. Some 4.3 million premature deaths were attributable to household air pollution in 2012. Almost all of that burden was in low-middle-income countries as well.

Six Common Air Pollutants,  known as “criteria  pollutants” are particulate matter, ground level ozone, carbon monoxide, sulfur oxides, nitrogen oxides.

Summary of Health Effects of Basic Air Pollutants:   

Carbon Monoxide-Poor  reflexes, Ringing in the ears, Headache, Dizziness, Nausea, Breathing Difficulties, Drowsiness, Reduced work capacity, Comatose state (can lead to death)

Lead (Pb)-Kidney Damage, Reproductive system damage, Nervous system damage (including brain dysfunction and altered neurophysical

behaviours)

Oxides of Nitrogen(NOX)- Increased risk of viral infections, Lung irritation (including pulmonary fibrosis and emphysema),Higher respiratory illness rates, Airway resistance, Chest tightness and discomfort, Eye burning, Headache

 Ozone (O3)-Respiratory system damage (lung damage from free radicals),Reduces mental activity, Damage to cell lining (especially in nasal

passage),Reduces effectiveness of the immune system, Headache ,Eye irritation, Chest discomfort, Breathing difficulties, Chronic lung diseases ( including asthma and emphysema),Nausea

Sulphur dioxide (SO2)-Aggravates heart and lung diseases, Increases the risk for respiratory illness (including chronic bronchitis, asthma, pulmonary emphysema),Cancer ( may not show for decades after exposure)

Respirable Particulate Matter(PM10) -Respiratory illness (including chronic bronchitis, increased asthma attacks, pulmonary emphysema),Aggravates heart disease

Results of Some Recent Experiments on Havan:

 EXPERIMENT -1

Prof.Pushpendra K.Sharma, S.Ayub, C.N.Tripathi, S.Ajnavi, S. K.Dubey (Professors ,Civil & Env.Engineering,HCST,Mathura & AMU, Aligarh,UP, INDIA)  conducted yajyan,  in laboratory and artificially generated pollution conditions. After taking 5-10 readings and studying all the different methodologies, using almost 324 Ahuties yajyan with clarified cow butter (ghee),Pipal wood (Ficusr eligiosa),Havan samagri (kapurkachari, gugal, nagarmotha, balchhaar or jatamansi, narkachura,sugandhbela, illayachi, jayphal, cloves and  dalchini etc.),they came across a conclusion that the air pollution of criteria pollutants can be effectively reduced opting column method using locally available materials and without adding any chemicals. Under the natural lab conditions and after creating local and artificial indoor air pollution it was noticed that Sox, Nox were considerably reduced by almost 51%, 60%respectively more by yajyan when compared without yajyan and both RSPM & SPM were also found to be reduced by 9% & 65% respectively more as compared to the condition without yajyan. Although the RSPM & SPM concentrations were still there but not to the extent of unhygienic conditions. The odor and smell of the Havan hall was not  at all objectionable.

 

EXPERIMENT -2

A group of scientists led by Dr. Manoj Garg, Director, Environmental and Technical Consultants and the Uttar Pradesh pollution control board conducted experiments during the Yajyan at Gorakhpur, U.P. These experiments were set up at about 20 meters east from the Yajyanshala. The samples of 100 ml each of water and air collected from the surroundings were
analyzed using high volume Envirotech APM-45 and other sensitive instruments. :

In Air Samples (unit mg per average sample) 

Instant Level of Sulphur dioxide Level of Nitrous Oxide
Before Yajyan 3.36 1.16
During  Yajyan 2.82 1.14
After Yajyan 0.80 1.02


Bacteria Count in Average Water Samples

Before Yajyan 4500 
During Yajyan 2470

 

After Yajyan 1250

 

 

  Minerals in the Ash (Bhasm) of Yajyan

Phosphorous 4076 mg per kg. Potassium 3407 mg per kg. Calcium 7822 mg per kg. Magnesium 6424 mg per kg. Nitrogen 32 mg per kg. Quispar 2% W/W These results clearly support the claims made about the role of Yagna in control of air pollution. The Deputy Director, Agriculture had submitted a technical report based on such results, recommending the use of Yagna’s ash as an effective fertilizer.

EXPERIMENT- 3

A study of Agnihotra yajyan effect on environment and plants was performed in New English School, Ramanbaug by Pranay Abhang (Teaching Associate, Institute of Bioinformatics and Biotechnology,Savitribai Phule Pune University,Pune) and Manasi Patil under the guidence of Dr.Pramod Moghe (Rtd.Sr.Scientist NCL,Pune) and Dr.G.R.Pathade(Principal,H.V.Desai College, Pune) with the support of Dr.R.G.Pardeshi, Mr.Purandare and Mr.Pathak.

To study the effect of Agnihotra on environment and plants, Agnihotra was performed in the School daily for the period of 8 days and experiments were carried out. The change in light intensity was measured before and after Agnihotra with help of lux meter. Agnihotra has tremendous effect on the environment. To observe the effect of Agnihotra fumes on microbial count in surrounding environment, the colony count was taken before and after Agnihotra. The result showed significant decrease in colony count after Agnihotra, which means Agnihotra reduces microbial load in the air. School is located on one of the busiest roads of Pune. Heavy traffic moves around the school. It was seen that SOx levels dropped significantly after performing Agnihotra while NOx levels remain  the same clearly stating that it can keep the pollutants in the surrounding air under check. Water released from houses, factories etc. contain many pathogens which lead to diseases ,When Agnihotra ash was added to this water it was found that the biological oxygen demand was decreased and the microbial count reduced considerably. It  was also observed Agnihotra ash when used for plants,there was increase in plant growth. With minimum expenditure on the yajyan one can relish enormous benefits.For the more details of this research visit to the given link below

http://www.agnihotra.com.au/wp-content/uploads/2015/08/Scientific-study-of-Vedic-Knowledge-Agnihotra.pdf

Dr.Satyaprakash, DSC has written a book in English entitled “AGNIHOTRA OR AN ANCIENT ANTI-POLLUTION PROCESS”  giving the scientific point of view. Dr.Satyaprakash was the Head of the Department of Chemistry in Allahabad University. He later on became a monk and was known as Swami Satyaprakashanand.  It is humbly suggested to readers to study above mentioned book to understand more scientific aspects of Agnihotra/Havan.

(Acharya Ashish Arya , Darshanacharya,Vaidic Sadhan Ashram,Tapovan,Nalapani,Dehradun,India,email-ashish.tapovan@yahoo.co.in)

REFERENCES

AGNIHOTRA OR AN ANCIENT ANTI-POLLUTION PROCESS(A STUDY FROM THE CHEMICAL STANDPOINT)BY DR. SATYAPRAKASH,DSC

SATYARTH PRAKASH BY SWAMI DAYANAND SARASWATI

http://ijirse.in/docs/Apr14/IJIRSE140407.pdf

http://www.agnihotra.com.au/wp-content/uploads/2015/08/Scientific-study-of-Vedic-Knowledge-Agnihotra.pdf

http://www.who.int/topics/air_pollution/en/

http://www.sanskritimagazine.com/vedic_science/experimental-study-of-agnihotra-homan/

http://kosh.s3.amazonaws.com/Literature/Integrated_Science_Of_Yagya.pdf

 

Religious Conversion through Temptation

Dec’2014 secession of parliament is stalled by our concern leader on the issue of religion conversion. Verily our elected members of parliament are our representatives and should be concerned over the issues of general public. It should be addressed in parliament. Religion conversion should not be a matter of temptation or threat. Different Muslim Member of Parliament heard saying that 95% of the Indian Muslims were Hindus. How they become Muslims these are not hidden facts. It was a conversion thru the force and lure which resulted in creating ground for Muslims in Aryavart. Sing of forceful conversion are still found as after passing lot of generations still converted Muslims are carrying their identity of Gotra like Chaudhary Muslim, Malik Muslims and Taygi Muslims etc. Chaudhary, Malik or Tyagi have not been forefather of Muslims community but these are the converted Muslims whose affection towards Hinduism have not allowed them to leave their surname and they are still carrying that identity.

In Vedic dharma it is preached “मनु॑र्भव(Rig 10/53/6) i.e. be a noble man for the benefit of the society. Vedic dharma works on the principle of “वसुधैव कुटुम्बकम” considering that all people of this universe are member of family and utmost love and care should be extended for everyone. It doesn’t preach that follow the particular idol or hate or kill who is not in line with your views it doesn’t preach to behead those who reject and hate what is revealed it does not threat that your good deeds will not have no effect at death or on the day of judgment because u have not followed what was told to you.

 

It is matter of joy that our elected representatives are aware now and has raised concerned on this issue. We do support the idea of stopping force full conversion thru temptation or through the treat. In this part we will discuss about few temptation offer given by few books of various sects to lure different people. We don’t think that such temptation can be a part of the book of GOD. In our opinion these would be the interpolated versed added by the mischievous people to tarnish the book of most merciful and gracious creator of universe. Otherwise what’s the necessarily to lure his own creation to follow a particular sects. We do request to the awaked member to parliament to have a look on such books that temp to convert people to their sect.

Verses From Holy Islamic Book 

[38:49]

This is a remembrance, of them, [made] by [the mention of] fair praise [of them] here; and indeed for the God-fearing, who comprise them, there will truly be a fair return, in the Hereafter —

 [38:50]

Gardens of Eden (jannāti ‘Adnin is either a substitution for, or an explicative supplement to, husna ma’ābin, ‘a fair return’) whose gates are [flung] open for them;

[38:51]

reclining therein, on couches; therein they call for plenteous fruit and drink.

[38:52]

And with them [there] will be maidens of restrained glances, restricting their eyes to their spouses, of a like age, of the same age, girls who are thirty three years of age (atrāb is the plural of tirb).

[56:8]

Those of the right [hand], those who are given their record [of deeds] in their right hand (fa-ashābu’l

maymanati is the subject, the predicate of which is [the following mā ashābu’l-maymanati]) — what of those of the right [hand]? — a glorification of their status on account of their admittance into Paradise.

[56:9]

And those of the left [hand] (al-mash’ama means al-shimāl, ‘left’), each of whom is given his record [of

deeds] in their left hands — what of those of the left [hand]? — an expression of contempt for their status on account of their admittance into the Fire.

[56:10]

And the foremost, in [the race to do] good, namely, the prophets (al-sābiqūna is a subject) the foremost:

(this [repetition] is to emphasise their exalted status; the predicate [is the following, ūlā’ika’l muqarrabūna])

[56:15]

[will be] upon encrusted couches, [their linings] woven onto rods of gold and jewels,

[56:16]

reclining on them, face to face (muttaki’īna ‘alayhā mutaqābilīna constitute two circumstantial qualifiers

referring to the [subject] person of the predicate [‘they’]).

[56:17]

They will be waited on by immortal youths, resembling young boys, never ageing;

[56:18]

with goblets (akwāb are drinking-vessels without handles) and ewers (abārīq [are vessels that] have handles and spouts) and a cup (ka’s is the vessel for drinking wine) from a flowing spring, in other words, wine flowing from a spring that never runs out,

[56:19]

wherefrom they suffer no headache nor any stupefaction (read yanzafūna or yanzifūna, [respectively

derived] from nazafa or anzafa al-shāribu, ‘the drinker became inebriated’), in other words, they do not get a headache from it nor do they lose their senses, in contrast to [the case with] the wine of this world;

[56:20]

and such fruits as they prefer,

[56:21]

and such flesh of fowls as they desire, for themselves to enjoy,

[56:22]

and houris, maidens with intensely black eyes [set] against the whiteness [of their irises], with wide eyes

(‘īn: the ‘ayn here is inflected with a kasra instead of a damma because it [the kasra] better harmonises with the yā’; the singular is ‘aynā’, similar [in pattern] to hamrā’; a variant reading [for wa-hūrun ‘īn] has the genitive case wa-hūrin ‘īn)

[56:23]

resembling hidden, guarded, pearls,

[18:31]

Those, for them there shall be Gardens of Eden, as a [place of] residence, underneath which rivers flow;

therein they shall be adorned with bracelets of gold (min asāwir: it is said that min here is either extra or

partitive; it [asāwir] is the plural of aswira — similar [in pattern] to ahmira [for himār] — which is the plural of siwār) and they shall wear green garments of fine silk (sundus) and [heavy] silk brocade (istabraq is that [silk] which is coarse: [God says] in the verse of [sūrat] al-Rahmān [Q. 55:54], lined with [heavy] silk brocade); reclining therein on couches (arā’ik is the plural of arīka, which is a bed inside a [curtained] canopy, and is also a tent adorned with garments and curtains for a bride). How excellent a reward, a requital, is Paradise, and how fair a resting-place!

[37:45]

they are served from all round, each one of them [is so served], with a cup (ka’san, [this denotes] the vessel with the drink in it) from a spring, of wine that flows along the ground like streams of water,

[37:46]

white, whiter than milk, delicious to the drinkers, in contrast to the wine of this world which is distasteful to drink,

[37:47]

wherein there is neither madness, nothing to snatch away their minds, nor will they be spent by it (read

yunzafūna or yunzifūna, from [1st form] nazafa or [4th form] anzafa, said of one drinking, in other words, they are [not] inebriated [by it], in contrast to the wine of this world),

[37:48]

and with them will be maidens of restrained glances, who reserved their glances [exclusively] for their

spouses and do not look upon any other — because of the beauty they [the maidens] see in them — with

beautiful eyes (‘īn means with large and beautiful eyes),

[37:49]

as if they were, in terms of [the starkness of their white] colour, hidden eggs, of ostriches, sheltered by their feathers from dust, the colour being that whiteness with a hint of pallor, which is the most beautiful of female complexions

[44:54]

So [shall it be] (an implied al-amru, ‘the matter’, should be read as preceding this); and We shall pair them, either in conjugality or [meaning] We shall join them, with houris of beautiful eyes, women of the fairest complexion with wide and beautiful eyes.

[76:19]

And they will be waited upon by immortal youths, [immortally] in the form of youths, never ageing, whom, when you see them you will suppose them, because of their beauty and the way in which they are scattered about [offering] service, to be scattered pearls, [strewn] from their string, or from their shells, in which they are fairer than [when they, the pearls, are] otherwise [not in their shells].

[2:25]

And give good tidings to, inform, those who believe, who have faith in God, and perform righteous deeds, such as the obligatory and supererogatory [rituals], that theirs shall be Gardens, of trees, and habitations, underneath which, that is, underneath these trees and palaces, rivers run (tajrī min tahtihā’l-anhāru), that is, there are waters in it (al-nahr is the place in which water flows [and is so called] because the water carves [yanhar] its way through it; the reference to it as ‘running’ is figurative); whensoever they are provided with fruits therefrom, that is, whenever they are given to eat from these gardens, they shall say, ‘This is what, that is, the like of what we were provided with before’, that is, before this, in Paradise, since its fruits are similar (and this is evidenced by [the following statement]): they shall be given it, the provision, in perfect semblance, that is, resembling one another in colour, but different in taste; and there for them shall be spouses, of houris and others, purified, from menstruation and impurities; therein they shall abide: dwelling therein forever, neither perishing nor departing therefrom. And when the Jews said, ‘Why does God strike a similitude about flies, where He says, And if a fly should rob them of anything [Q. 22:73] and about a spider, where He says, As the likeness of the spider [Q. 29:41]: what does God want with these vile creatures?

[47:15]

A similitude, a description, of the Garden promised to the God-fearing: [the Garden] that is shared equally by all those who enter it (this first clause is the subject, of which the predicate [follows:]) therein are rivers of unstaling water (read āsin or asin, similar [in form] to dārib, ‘striker’, and hadhir, ‘cautious’), that is to say, one that does not change, in contrast to the water of this world, which may change due to some factor; and rivers of milk unchanging in flavour, in contrast to the milk of this world, on account of its issuing from udders, and rivers of wine delicious to the drinkers, in contrast to the wine of this world, which is distasteful to drink; and [also] rivers of purified honey, in contrast to the honey of this world, which when it issues out of the bellies of bees becomes mixed with wax and other elements; and there will be for them therein, varieties [of], every fruit and forgiveness from their Lord, for He is pleased with them, in addition to His beneficence towards them in the way mentioned, in contrast to one who is a master of servants in this world, who while being kind to them may at the same time be wrathful with them. [Is such a one] like him who abides in the Fire? (ka-man huwa khālidun fī’l-nāri, the predicate of an implied subject, which is a-manhuwa fī hādha’l-na‘īm, ‘Is one who is amidst such bliss [as him who abides in the Fire]?’). And they will be given to drink boiling water which rips apart their bowels, that is, their entrails, so that these will be excreted from their rears. (Am‘ā’, ‘bowels’, is the plural of mi‘an, its alif being derived from the yā’ of their saying mi‘yān [as an alternative singular to mi‘an]).

 

By going through from the verses given above it is clear that various temptations are given whether it is related to women or wine or many other facilities those are not easily available to the common man. A lot of men women are in stage of starving in this world. These offers lure them to get convert and people get caught in such temptation. We believe in the creator of this universe and are of opinion that HE who has created this universe has power to create his follower also. What is the need of these offers to the mankind. We don’t think that these are part of the book of GOD. These would have been interpolated by the mischievous people for their benefit. Our leaders who have stalled the parliament should raise the voice against such verses and these should be banned. People should be free to choose what they want. Humanity should be preached to all the people instead of different sects. IF we get success in making this world noble place to live in what else can we require?