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हिन्दी को समाप्त करने का षड़यन्त्र : डॉ धर्मवीर परोपकारिणी सभा अजमेर

पिछली सरकारों ने हिन्दी-संस्कृत को योजनाबद्ध रूप से समाप्त करने का कार्य किया। मोदी सरकार के आने से यह षड़यन्त्र अधिकारिक रूप से तो हट गया, परन्तु पिछले साठ वर्षों से जो इस कार्य में लगे हुए थे और आज भी शासन में प्रमुख पदों पर बैठे हैं, उनकी तड़प समझी जा सकती है। वे आज आदेश निर्देश की भाषा छोड़कर परामर्श व समझदारी के बहाने हिन्दी को समाप्त करने के अपने प्रयास को बढ़ाने लगे हैं। मनमोहनसिंह के प्रधानमन्त्रीत्व काल में हिन्दी के बिगाड़ का सर्वाधिक सरकारी प्रयास हुआ। मनमोहनसिंह की सरकार में हिन्दी के प्रयोग के लिए तीन ऐसे व्यक्ति उ    ारदायी थे जो हिन्दी के विरोधी तो है ही,

परन्तु उनको हिन्दी आती भी नहीं थी, उनमें प्रथम मनमोहनसिंह स्वयं थे। वे उर्दू, अंग्रेजी पढ़े होने से उनका हिन्दी भाषण सदा उर्दू में लिखा होता था, जिसे वे लालकिले से लेकर सम्मेलनों तक में पढ़ते थे, अन्यथा उनकी भाषा मन-वचन-कर्म से अंग्रेजी थी। दूसरी थी सोनिया गाँधी, जिन्हें हिन्दी नहीं आती थी और वे अपना हिन्दी भाषण रोमन में लिखकर पढ़ती थीं, यह उनका भाषा का प्रेम नहीं, विवशता थी। तीसरे व्यक्ति थे चिदम्बरम, जिन्हें हिन्दी से चिड़ थी। वे हिन्दी में न भाषण देते थे न बातचीत ही करते थे। चिदम्बरम को हिन्दी का मह व चुनाव में याद आया यदि वे हिन्दी में भाषण दे सकते तो वह भी प्रधानमन्त्री पद के प्रत्याशी होते। इन्हीं चिदम्बरम के गृहमन्त्रीत्व काल में श्री मनमोहनसिंह की अध्यक्षता में संविधान के विपरीत जाकर हिन्दी में उर्दू और अंग्रेजी श  दों को भरने की छूट दी गई। इन्हीं के कारण हिन्दी स्वरूप बिगाड़कर दूरदर्शन और समाचार पत्रों में हिन्दी के स्थान पर उर्दू, अंग्रेजी के श     दों का और हिन्दी को रोमन में लिखने का देशद्रोही प्रयास प्रारम्भ हुआ। आज सारे समाचार पत्र और दूरदर्शन ऐसे काम करते हैं जैसे सारे भारतीयों को अंग्रेजी भाषा और रोमन लिपि सिखाने का ठेका इन्हीं ने ले रखा है। सरकार के स्तर पर यह अभियान भले ही ठण्डा पड़ गया हो परन्तु सरकारी विद्वान् और तथाकथित विद्वान् अंग्रेजी के प्रभाव को बनाये रखने और उसकी गुणव   ाा सिद्ध करने में लगे हुए हैं। स्वतन्त्रता के साथ ही पराधीनता को बनाये रखने के जो निर्णय हुए उनमें सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी की अनिवार्यता भी है।

सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में हिन्दी के प्रयोग की माँग करने वाली जनहित याचिका का केन्द्र सरकार ने विरोध किया। जिसमें याचिकाक र्ाा ने कहा कि अब समय आ गया है कि संविधान के अनुच्छेद ३४३ में वर्णित प्रावधानों के अन्तर्गत हिन्दी को उच्च न्यायपालिका में राजभाषा बनाया जाये।

देशभर के २४ उच्च न्यायालयों एवं सर्वोच्च न्यायालय में हिन्दी को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव करने वाली जनहित याचिका को केन्द्र सरकार ने एक शपथ पत्र प्रस्तुत करते हुए अस्वीकार कर दिया है।

सर्वोच्च न्यायालय में यह जनहित याचिका शिव सागर तिवारी अधिवक्ता द्वारा दायर की गयी थी जिसमें कहा गया कि संविधान के अनुच्छेद ३४८ में कही गयी यह बात कि उच्च न्यायालय की राजभाषा अंग्रेजी होगी, संविधान का उल्लंघन है। यह वादी-प्रतिवादियों द्वारा नहीं समझी जाती है। इस सिलसिले में न्यायमूर्ति द ाू और बोबड़े की खण्डपीठ ने केन्द्र सरकार को नोटिस दिया था।

इसके प्रत्यु ार में गृह मन्त्रालय के राजभाषा विभाग ने उच्च न्यायपालिका में भाषा बदलकर हिन्दी करने का प्रस्ताव वर्ष २००४ के विधि आयोग के २१६वीं रिपोर्ट पर भरोसा करते हुए अस्वीकार कर दिया। रिपोर्ट में सांविधिक प्रावधानों का सावधानीपूर्वक विश्लेषण किया गया और इस सम्बन्ध में उच्च न्यायपालिका के वरिष्ठ सदस्यों के विचारों की ओर भी ध्यान दिया गया। इसमें कहा गया है-

‘‘किसी भी वर्ग के लोगों पर कोई भाषा उनकी इच्छा के विपरीत न थोपी जाए क्योंकि इससे हानि होने की सम्भावना है, उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों के लिए निर्णय करने की प्रक्रिया में भाषा एक मह    वपूर्ण कारक है। न्यायाधीशों को दोनों पक्षों की प्रस्तुति को सुनना और समझना होता है और उनके सम्यक् समायोजन के लिए कानून का प्रयोग करना होता है। उच्च न्यायपालिका में प्रायः अंग्रेजी और अमरीकन पुस्तकों एवं अभियोग विधि प्रकरणों पर आधारित है।’’

इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि न्यायपालिका में अंग्रेजी के प्रयोग से न्यायाधीश के एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में स्थानान्तरण के समय सुविधा रहती है और यही बात उच्च न्यायालय से सर्वोच्च न्यायालय में स्थानान्तरण के समय भी होती है।

केन्द्र सरकार ने अपने शपतथ-पत्र के अनुच्छेद ३४८ के उपभाग (२) में कही बात को सन्दर्भित किया है जिसके अनुसार राष्ट्रपति की पूर्व सहमति प्राप्त करके उस राज्य का राज्यपाल उस राज्य उच्च न्यायालय में हिन्दी के प्रयोग को अधिकृत कर सकता है।

जो मोदी शपथ मञ्च से संयुक्त राष्ट्र के मञ्च तक हिन्दी की महिमा गा रहे हैं, उनकी सरकार का विभाग हिन्दी की जड़ खोदने में लगा हुआ है। यह एक दासता का पोषक और देश के लिये लज्जित करने वाला कार्य है। मोदी सरकार को इस घटना का संज्ञान में लेकर तत्काल इसका सुधार करना चाहिए।

इस प्रकार का प्रयास अनेक स्तर पर चल रहा है। इसको इस बात से समझा जा सकता है कि पिछले दिनों दैनिक भास्कर समाचार पत्र में एक प्रसिद्ध स्तम्भ लेखक ने बड़े ही भोलेपन से हिन्दी को रोमन में लिखने का प्रस्ताव कर डाला। लेखक बड़ी दूर की कौड़ी लाया है, वह कहता है- अंग्रेजी बिना प्रोत्साहन के बड़ी तेजी से बढ़ रही है, उससे टक्कर लेने के लिए एक ही उपाय है- हिन्दी को रोमन में लिखा जाय। सम्भवतः लेखक समझता है कि हिन्दी रोमन में लिखते ही हिन्दी अंग्रेजी बन जायेगी जैसे भारतीय पेण्ट पहनकर अंग्रेज हो गये। लेखक का विचार है कि हम नवयुवकों पर हिन्दी थोपते हैं वह विद्रोह करता है ऐसे में हिन्दी को बचाने के लिए हिन्दी को रोमन में लिखना चाहिए। यह एक विडम्बना की बात है, आप कहते हैं नवयुवक हिन्दी के प्रति विद्रोह का भाव रखता है। मूल बात है आपने उसे हिन्दी सिखाई नहीं, वह हिन्दी नहीं बोलता या हिन्दी नहीं जानता, इसमें उसका क्या दोष? जब अंग्रेजी जो उसकी भाषा नहीं है वह आप उसे सीखने के लिए बाध्य करते हैं तो वह सीख जाता है, फिर वह हिन्दी नहीं सीख सकता- यह कथन तो इस देश के युवा का अपमान है। मोबाइल, कम्प्यूटर पर वह अंग्रेजी का उपयोग करने के लिए विवश है। यदि सरकार चाहती तो प्रारम्भ से ही हिन्दी का विकल्प दे सकती थी परन्तु सरकार हिन्दी को समाप्त कराना चाहती थी, इसलिये युवकों ने अंग्रेजी सीखली। इसमें सरकार दोषी है, युवक नहीं।

आज हिन्दी को रोमन में लिखकर आप क्या अनुभव कराना चाहते हैं? यदि आप हिन्दी रोमन में लिखते हैं और हिन्दी के स्थान पर अंग्रेजी उर्दू के श     दों का उपयोग करते हैं तो इसके पीछे केवल दो कारण हो सकते हैं। पहला आपकी दृष्टि में नागरी लिपि या हिन्दी श       दों में आपके भावों को अभिव्यक्त करने की क्षमता नहीं है या आप उन श दों से परिचित नहीं हैं। दूसरा कारण है आपको अपनी भाषा और लिपि का प्रयोग करने में शर्म का अनुभव होता है। तीसरा तो कोई कारण हो नहीं सकता। लेखक ने ऐसे देशों का उदाहरण दिया है जिन्होंने अपने देश से अपनी लिपि को विदाई देकर अपनी भाषा को रोमन लिपि दी। लेखक को यह ध्यान नहीं है कि संसार की लिपियों में नागरी लिपि तथा भाषाओं में संस्कृत भाषा सबसे अधिक वैज्ञानिक है। वैज्ञानिक और  समर्थ भाषा व लिपि को छोड़कर अवैज्ञानिक लिपियों की वकालत करना अपनी अज्ञानता को ही प्रकाशित करना है। जो लोग अंग्रेजी की वकालत करते हैं वे भूल जाते हैं कि अंग्रेजी को बढ़ाने और भारतीय भाषाओं को नष्ट करने के जितने प्रयत्न इन साठ वर्षों में सरकार द्वारा किये गये हैं उसका दसवाँ हिस्सा भी भारतीय भाषाओं के लिये किया होता तो आज इस देश का युवक ज्ञान-विज्ञान सीखने में कितना आगे बढ़ चुका होता, यह एक वैज्ञानिक देश बन चुका होता।

आज भाषा के पढ़ने की बात भाषा की योग्यता नहीं है अपितु भाषा को आजीविका से जोड़ना है। आज अंग्रेजी पढ़ने वाले को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है और अंग्रेजी पढ़े-लिखे को आजीविका के अवसर अधिक सुलभ हैं इसलिये अंग्रेजी पढ़ी जाती है। यह भाषा न तो वैज्ञानिक, न सरल, न हमारे लिए किसी तरह का गौरव देने वाली है। हम समझते हैं कि अंग्रेजी पढ़कर यूरोप अमेरिका में सुविधा से काम कर सकते हैं, बहुत धन कमा सकते हैं, यह बात मान कर उन्हें यूरोप में बसाना चाहते हैं पर बाहर जाने वालों की कितनी भी बड़ी संख्या हो वह भारत की जनसंख्या का एक दो प्रतिशत ही तो हो सकती है। फिर अठानवे प्रतिशत लोगों का गला क्यों घोट रहे हैं? प्रतिभा का विकास जो मातृभाषा में होता है, वह विदेशी भाषा में कभी नहीं हो सकता, फिर भी हम स्वयं पर अत्याचार करने के लिये विवश हैं। यह दासता हम क्यों नहीं छोड़ना चाहते। जो लोग आज हिन्दी को रोमन में लिखकर वैश्विक बनना चाहते हैं उनके लिये कभी विनोबा भावे द्वारा दिये परामर्श का स्मरण करना चाहिए। विनोबा भावे ने आज से पचास वर्ष पहले कहा था हमें एशिया महाद्वीप की भाषाओं को नागरी लिपि देने का प्रयास करना चाहिए। इससे पूरे एशिया महाद्वीप को मजबूत बना सकते हैं और यूरोप को टक्कर दे सकते हैं। ये अन्तर है सोच का। एक व्यक्ति अपने गौरव को विश्व में स्थापित करने का इच्छुक है, एक भिखारी बनकर सेठ के साथ दिखना चाहता है। स्तम्भकार मनमोहनसिंह की सोच को आगे बढ़ाने के लिए तत्पर दीखता है। इस षड़यन्त्र को समझने के लिए एक प्रसंग याद रखना उचित होगा। जब मनमोहनसिंह सरकार ने हिन्दी में अंग्रेजी उर्दू श  दों को भरने की संविधान विरुद्ध योजना को स्वीकृति दी, उसकी सबसे अधिक प्रशंसा पेंगुइन प्रकाशन ने की थी। उसने करोड़ों रुपये खर्च कर सम्मेलन करके सरकार के इस प्रयास की प्रशंसा की थी, इतना ही नहीं उसने यह भी कहा था कि यह प्रयास बहुत पहले स्वतन्त्रता के साथ ही हो जाना चाहिए था। आज भी विदेशी शक्तियाँ इस देश की औपचारिक भाषा के रूप में अंग्रेजी को इस देश में स्थापित देखना चाहती हैं। यह उन्हीं का विचार और उनकी ही योजना है। हिन्दी में अंग्रेजी श       दों की भरमार करके इसके भाषाई स्वरूप को समाप्त कर दिया जाये तथा इस देश की सभी प्रादेशिक भाषाओं को हिन्दी सहित रोमन लिपि दी जाये, जिससे इस देश की आत्मा ही समाप्त हो जाये, हम अपनी स्वतन्त्रता को भूल जाये और हमें उसका मह    व का कभी बोध न हो सके।

जो लोग हिन्दी की तुलना में अंग्रेजी को अधिक समर्थ और योग्य मानते हैं और देवनागरी की तुलना में रोमन का अधिक स्मरण करके उसे सक्षम समझते हैं, वे तुलना करके देखें। हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि के पीछे हजारों वर्ष का अनुभव और अनुसन्धान है। इसकी वैज्ञानिकता की तुलना करने का प्रयास करें तो उच्चारण की सटीकता और अर्थ प्रकाशन का सामर्थ्य किसी भी विश्व भाषा से अधिक है। आज जो अंग्रेजी की स्पेलिंग शुद्ध उच्चारण के लिए प्रतिष्ठा की लड़ाई लड़ते हैं, उन्हें इस अंग्रेजी से होने वाली मूर्खता का तो बोध भी नहीं होता। अभी दूरदर्शन समाचारों पर तलपदे का समाचार देते हुए। सारे अंग्रेजी पढ़े उद्घोषक तलपदे को तलपडे-तलपडे चिल्ला रहे थे।

रेल्वे में जितनी घोषणाएँ होती हैं, वे अंग्रेजी पढ़कर हिन्दी को भ्रष्ट करने वाली होती है- बांदीकुई को बन्दीकुई चिल्लाते हैं, घर घोड़ा को धारा धोरा हम अंग्रेजी से अनुवाद करके बोलते हैं और उससे होने वाली मूर्खता को हिन्दी के माथे पर मढ़ते हैं। इस प्रकार के प्रयत्न का बलपूर्वक विरोध करके अपनी भाषा और अपने गौरव को स्थापित करना होगा। जो अंग्रेजी का प्रयोग चाहते हैं वे उसका उपयोग कर उनपर हिन्दी न थोपी जाय परन्तु हिन्दी भाषा और भारतीय भाषा बोलने वालों पर अंग्रेजी क्यों थोपी जा रही है। इस अन्याय का निराकरण होना चाहिए। यह केवल हमारी भाषा के श     दों में सामर्थ्य है जिसे ऋषियों ने कहा है-

एकः श दः सम्यक् ज्ञातः।

सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके कामधुक् भवति।।

– धर्मवीर

रक्त्साक्षी पंडित लेखराम ने क्या किया ? क्या दिया ? राजेन्द्र जिज्ञासु

Pt Lekhram

मूलराज के पश्चात् पंडित लेखराम आर्य जाति के ऐसे पहले महापुरुष थे जिन्हें धर्म की बलिवेदी पर इस्लामी तलवार कटार के कारण शीश चढाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ . वे आर्य जाति के एक ऐसे सपूत थे जो धर्म प्रचार व जाती रक्षा के लिए प्रतिक्षण सर तली पर धरकर प्रतिपल तत्पर रहते थे . उन्हीं के लिए कुंवर सुखलाल जी ने यह लिखा था :

हथेली पे सर जो लिए फिर रहा हो

वे सर उसका धड से जुदा क्या करेंगे

पंडित लेखराम ने लेखनी व वाणी से प्रचार तो किया ही, आपने एक इतिहास रचा . आपको आर्यसमाज तथा भारतीय पुनर्जागरण के इतिहास में नई -२ परम्पराओं का जनक होने का गौरव प्राप्त हुआ . श्री पंडित रामचन्द्र जी देहलवी के शब्दों उनका नाम नामी आर्योपदेशकों के लिए एक गौरवपूर्ण उपाधि बन गया . वे आर्य पथिक अथवा आर्यामुसाफिर बने तो उनके इतिहास व बलिदान से अनुप्राणित होकर आर्यसमाज के अनेक दिलजले आर्य मुसाफिर पैदा हो गए . किस किस का नाम लिया जाए . मुसाफिर विद्यालय पंडित भोजदत्त से लेकर ठाकुर अमरसिंह कुंवर सुखलाल डॉक्टर लक्ष्मीदत्त पंडित रामचंद्र अजमेर जैसे अनेक आर्यमुसाफिर उत्पन्न किये.

धर्म पर जब जब वार हुआ पंडित लेखराम प्रतिकार के लिए आगे निकले . विरोधियों के हर लेख का उत्तर दिया . उनके साहित्य को पढ़कर असंख्य जन उस युग में व बाद में भी धर्मच्युत होने से बचे. श्री महात्मा विष्णुदास जी लताला वाले पंडित लेखराम का साहित्य पढ़कर पक्के वैदिक धर्मी बने . आप ही की कृपा से स्वामी स्वतान्त्रतानंद जी महाराज के रूप में नवरत्न आर्य समाज को दिया .

 

बक्षी रामरत्न तथा देवीचंद जी आप को पढ़ सुनकर आर्यसमाज के रंग में रंगे  गए. सियालकोट छावनी में दो सिख युवक विधर्मी बनने लगे . वे मुसलमानी साहित्य पढकर  सिखमत  को छोड़ने का निश्चय कर चुके थे . सिखों की शिरोमणि संस्था सिख सभा की विनती पर एक विशेष व्यक्ति को महात्मा मुंशी राम जी के पास भेजा गया की शीघ्र आप सिविल सर्जन पंडित लेखराम को सियालकोट भेजें . जाती के दो लाल बचाने  का प्रश्न है . पंडित लेखराम महात्मा जी का तार पाकर सियालकोट आये . सियालकोट के हिन्दू सिखों की भारी भीड़ समाज मंदिर में उन्हें सुनने  को उमड़ पड़ी . टिल धरने को भी वहां स्थान नहीं था .

दोनों युवकों को धर्म पर दृढ कर दिया गया . इनमें एक श्री सुन्दरसिंह ने आजीवन आर्यसमाज की सेवा की . सेना छोड़कर वह समाज सेवा के लिए समर्पित हो गया .

मिर्जा काद्यानी ने सत्बचन ( सिखमत  खण्डन ) पुस्तक लिखकर सिखों में रोष व निराशा उत्पन्न कर दी . उत्तर कौन दे ? सिखों ने पंडित जी की और से रक्षा करने के लिए निहारा . धर्मवीर लेखराम ने जालंधर में मुनादी करवा कर गुरु नानक जी के विषय में भारी सभा की . जालंधर छावनी के अनेक सिख जवान उनको सुनने के लिए आये . पंडित जी ने प्रमाणों की झडी  लगाकर मिर्जा की भ्रामक व विषैली पुस्तक का जो उत्तर दिया तो श्रोता वाह ! वाह ! कर उठे ! व्याख्यान की समाप्ति पर पंडित लेखराम जी को कन्धों पर उठाने की स्पर्धा आरम्भ हो गयी. मल्लयुद्ध के विजेता को अखाड़े में कन्धों पर उठाकर जैसे पहलवान घूमते  हैं वैसे ही पंडित जो उठाया गया .

 

जाती के लाल बचाने के लिए वे चावापायल में चलती गाडी से कूद पड़े. जवान भाई घर पर मर गया . वह सूचना पाकर घर न जाकर दीनानगर से मुरादाबाद मुंशी इन्द्रमणि जी के एक भांजे को इसाई मत से वापिस लाने पहुँच गए . मौलाना अब्दुल अजीज उस युग के एक्स्ट्रा असिस्टेंट कमिश्नर थे . इससे बड़ा पद कोई भारतीय पा ही नहीं सकता था . पंडित लेखराम का साहित्य पड़कर अरबी भाषा का इसलाम का मर्मग्य यह मौलाना पंजाब से अजमेर पहुंचा और परोपकारिणी सभा से शुद्ध करने की प्रार्थना की .”देश हितैषी “ अजमेर में छपा यह समाचार मेरे पास है . यह ऋषी जी के बलिदान के पश्चात् सबसे बड़ी शुद्धी थी .

स्वयं पंडित लेखराम ने इसकी चर्चा की है .यह भी बता दूँ की इसरो के महान भारतीय वैज्ञानिक डॉक्टर सतीश धवन मौलाना के सगे सम्बन्धियों में से थे . आपको लाला हरजसराय नाम दिया गया . इन्हें सभा ने लाहौर में शुद्ध किया . तब आर्यसमाज का कडा विरोध किया गया . अमृतसर के कुछ हिन्दुओं ने आर्य समाज का साथ भी दिया था . स्वामी दर्शनानंद तब पंडित लेखराम की सेना में थे तो उनके पिता पंडित रामप्रताप पोपमंडल  के साथ शुद्धि का विरोध कर रहे थे . आज घर वापस की रट  लगाने वाले शुद्धि के कर्णधार का नाम लेते घबराते व कतराते हैं  . क्या वे बता सकते हैं की स्वामी विवेकानन्द जी ने किस किस की घर वापसी करवाई . कांग्रेस का तो आदि काल का बंगाली ब्राहमण बनर्जी ही इसाई बन चूका था.

मौलाना अब्दुल्ला मेमार ने पंडित लेखराम जी के लिए “गौरव गिरि “ विशेषण का प्रयोग किया है . केवल एक ही गैर मुसलमान के लिए यह विशेषण अब तक प्रयुक्त हो हुआ है . यह है प्राणवीर पंडित लेखराम का इतिहास में स्थान व सम्मान .

सिखों की एक “सिख सभा “ नाम की पत्रिका निकाली गयी . इसका सम्पादक पंडित लेखराम जी का दीवाना था . पंडित लेखराम जी का भक्त व प्रशंषक था . उसका कुछ दुर्लभ साहित्य में खोज पाया . पंडित लेखराम जी जब धर्म रक्षा के लिए मिर्जा गुलाम अहमद की चुनौती स्वीकार कर उसका दुष्प्रचार रोकने कादियान पहुंचे तो मिर्जा घर से निकला ही नहीं

आप उसके इल्हामी कोठे पर साथियों सहित पहुँच गए . मिर्जा चमत्कार दिखाने की डींगे मारा करता था . पंडित जी ने कहा कुरआन में तो “खारिक आदात “ शब्द ही नहीं . उसने कहा _ है “ पंडित जी ने अपने झोले में से कुरान निकाल कर कहा  “ दिखाओ कहाँ है ?”

वहां यह शब्द हो तो वह दिखाए . मौलवियों ने इस पर मिर्जा को फटकार लगाईं हिया . पंडित जी ने अपनी ताली पर “ओम “ शब्द लिखकर मुट्ठी बंदकर के कहा “ खुदा से पूछकर  बताओ मैने क्या लिखा है ?. सिख सभा के सम्पादक ने लिखा है कि  मिर्जा की बोलती बंद  हो गयी , वह नहीं बता सका कि  पंडित जी ने अपनी तली पर क्या लिखा हिया . अल्लाह ने कोई सहायता न की . पंडित लेखराम जी के तर्क व प्रमाण दे कर देहलवी के प्रधान मंत्री राजा सर किशन प्रसाद को मुसलमान बनने  से बचाया था .

वेद सदन अबोहर पंजाब

आम आदमी पार्टी की वास्तविकता

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‘आप’ का बनना, चुनाव लड़ना, सरकार बनाना, सब कुछ अप्रत्याशित लगता है | जिस आशा के साथ इस पार्टी का निर्माण हुआ, उतनी ही निराशा इसके काम से है | इसके बनने के कारण में सामान्यजन की पीड़ा मुख्य है | इस पीड़ा का मूल शासन-प्रशासन में व्याप्त रिश्वतखोरी है | जिसके कारण नियम, व्यवस्था सब कुछ निरर्थक हो गई है| इस घूसखोरी के कारण सामान्य मनुष्य का जीवन कठिनाई में पद गया है | जिसका काम नियम से होना चाहिए, उसका काम नहीं होता | जिसका काम होने योग्य नहीं है, उसका काम पैसे देकर हो जाता है | इस कुचक्र में सामान्यजन फंस कर रह गया है, इस विवशता को उसने नियति मान लिया था | ऐसे समय में उसकी पीड़ा को छूने का काम इन वर्षों में हुआ है | आप पार्टी ने भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर जनता से समर्थन माँगा, परन्तु आज सरकार में बैठकर आदर्श की बात को व्यवहार के धरातल पर लाने में असफल हो गई | इसके कारण पर विचार करने पर एक बार स्पष्ट होती है की भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर सरकार बनाने वाले स्वयं भ्रष्टाचार के दोषी है |

भ्रष्टाचार को हमने बहुत संकुचित अर्थ में लिया है | भ्रष्टाचार शब्द पुरे आचरण की भ्रष्टता की बात करता है | केवल पैसे के या घुस लेने की बात भ्रष्टाचार नहीं है | घुस लेना तो बहुत मोटा अर्थ है | वास्तव में भ्रष्टाचार विचारों से प्रारम्भ होता है | जिनके विचार पवित्र नहीं है, उनका आचरण कैसे पवित्र हो सकता है ? भ्रष्टाचार मिटाने वालों के चरित्र और विचारों को देखने से उनके भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ने की इच्छा-शक्ति का पता लगता है | आप पार्टी के लोगों की जड़ों तक जाने पर आपको पता लगता है की ये उन विचारों का प्रतिनिधित्व करते है, जो इस देश के आचार-विचार और परम्परा से सहमति नहीं रखते | इनके सामने संकट भ्रष्टाचार नहीं है, भ्रष्टाचार को तो इन्होने लड़ाई के साधन के रूप में काम में लिया है | आप पार्टी के नेता केजरीवाल जहाँ खड़े होकर लड़ रहे हैं वह स्थान ही भ्रष्टाचार का उद्गम स्थल है | आधुनिक पठित वर्ग में सामाजिक लड़ाई वाले वर्ग का नाम गैर सरकारी संगठन है | इसे एनजीओ के नाम से जाना जाता है | भारत में चलने वाले ऐसे संगठनों की जांच पड़ताल में पाया गया है की अधिकाँश ऐसे स्वयंसेवी संगठन केवल कागजों पर काम करते हैं | जो संगठन या समाज संघर्ष करते हैं, उनका संघर्ष उद्देश्य के लिए नहीं होता | ये संगठन उन लोगों के संकेत पर नाचते है, जो इनको पैसा देते है | जो लोग इस प्रकार के संगठनों को पैसा देते है, उनका वास्तविक उद्देश्य संघर्ष करने वाले लोगों को अपने विरोधी को नष्ट करने में लगाना तथा ऐसे लोगों को सुविधाजीवी बनाकर उनको सामर्थ्यहीन करना होता है |

आप पार्टी के कार्यकर्ताओं का चरित्र देखेंगे तो यह स्पष्ट हो जाएगा | भाजपा के नेता हर्षवर्धन ने सदन में केजरीवाल और सिसोदिया पर आरोप लगाया था की इनके संगठनों ने फोर्ड फाउंडेशन से लाखों रुपये की सहायता ली है | आश्चर्य की बात है की केजरीवाल ने अपने उतर में इसकी चर्चा तक नहीं की | जो लोग विदेशी सहायता के तथ्य को समझते है, वे जानते हैं की ये संगठन आकर्षक सुन्दर नामों से काम करने वाले संगठनों से इस देश को तोड़ने और यहाँ की संस्कृति को निंदनीय बताकर उसे नष्ट करने के लिए बड़ी माता में धन देते हैं | इसको एक उदाहरण से समझा जा सकता है | पिछले वर्षों में फोर्ड फाउंडेशन ने विश्वविद्यालयों को अपनी कार्ययोजना को क्रियान्वित करने के लिए बहुत धन दिया, उसमें एक योजना थी- भारत की अनेकता में एकता | इस कार्यक्रम में लगता तो ऐसा है की जैसे बंटे हुए देश को एक करने का कार्य किया जा रहा है, परन्तु इसमें अलगाववाद को बढ़ावा देना इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य है | ये संगठन चर्च के माध्यम से समाज सुधार का काम करते हैं, परन्तु इनका उद्देश्य हिन्दू  समाज में विघटन उत्पन्न करके उसको बिगाड़ना हैं | इस फाउंडेशन की सहायता लेने वाले केजरीवाल किस रास्ते से देश की उन्नति करना चाहते हैं | यह पता लग जाता है | केजरीवाल को सामाजिक आन्दोलन में लाने वालो सुचना के अधिकार के आन्दोलन के लिए काम करने वाली श्रीमति अरुणा राय थीं | इस सब की पृष्ठभूमि देखने पर ज्ञात होता है की ये कांग्रेस, कम्युनिष्ट तथा विदेशी धन पर काम करने वाले संगठनों से जुड़े है | जो लोग सता में रहे हैं, सता के सहयोगी रहे हैं, वे एकाएक कैसे भ्रष्टाचार को मिटाने के अगुवा बन बैठे, यह समझने की बात है | अरविन्द केजरीवाल, अरुणा राय के दल के सदस्य हैं और अरुणा राय सोनिया गांधी की सलाहकारों में है | जो व्यक्ति सोनिया गांधी के सहयोगियों में हो, वह कौन से भ्रष्टाचार को हटाने की बात कर रहे हैं यह विचारणीय है | जो सरकार देश में अब तक सबसे अधिक भ्रष्टाचार में लिप्त रही है, उनके सहयोगी आज भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे हैं |

भ्रष्टाचार केवल पैसे से नहीं होता, आचरण एक व्यापक शब्द है | इसका सम्बन्ध जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से है | जो व्यक्ति स्वयं के व्यक्तिगत जीवन में भ्रष्टाचार का दोषी रहा हो, वह आज भी, आचरण से दूर कैसे रह सकता है | भ्रष्टाचार के विरुद्ध ‘आप’ का आन्दोलन एक नारे से आगे नहीं बढ़ सका है | झूठ बोलना, दूसरों पर दोषारोपण करना भी तो भ्रष्टाचार की श्रेणी में ही आता है | आज आप पार्टी भ्रष्टाचार के आन्दोलन को कांग्रेस की नीतियों के बचाव के लिए लड़ रही है | सामान्यजन की बात करने वाला केवल पैसे के बेईमानी की बात करता हैं, राष्ट्रद्रोह के विरोध में बोलना उचित नहीं समझता, सोनिया गांधी की सलाहकार परिषद् अल्पसंख्यकों के नाम पर हिन्दू समाज को कुचलने के लिए कानून बनाने के लिए तैयार खड़ी हैं, क्या यह आचरण देश और समाज के साथ भ्रष्टाचार नहीं है ? ऐसे लोगों को बचाने के लिए ही आप पार्टी का आन्दोलन है | कांग्रेस को आज भारतीय जनता पार्टी और मोदी से भय है और आप पार्टी भ्रष्टाचार के नाम पर मोदी विरोध करके देश के कांग्रेस विरोधी आन्दोलन को असफल करने के प्रयास में है | यह इमानदारी के नाम पर खेला जाने वाला बैईमानी का खेल है | इसी प्रकार आप पार्टी के अन्य नेताओं का भी इतिहास है | आज इंटरनेट ने जनता को सबकुछ सुलभ करा दिया है |

केजरीवाल के दुसरे साथी मनीष सिसोदिया भी अरुणा राय के दल के सदस्य है | यह कैसे माना जा सकता है, जो व्यक्ति कल तक कांग्रेस और कम्युनिस्टों के साथ काम कर रहा था आज भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई लड़ रहा है | यदि लड़ाई केवल भ्रष्टाचार के विरुद्ध हो तो सबसे पहले भ्रष्ट सरकार को केंद्र से हटाने की आवश्यकता है | आप में मुख्यमन्त्री से नेता तक अराजकता फैलाने को भ्रष्टाचार मिटाना कहते है | सदन में अराजकता तो सड़क पर अराजकता, इससे लाभ यह होता है की जनता का ध्यान मुख्य काम से हट जाता है | लोग इनके आचरण के पक्ष-विपक्ष बनकर विवाद में उलझे रहते है | दिल्ली सरकार के मन्त्री मनीष सिसोदिया भी स्वयं-सेवी संगठन चलाते रहे हैं और केजरीवाल के साथ अन्ना आन्दोलन में भाग लेकर आज भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन के अगुआ बने हुए हैं | आप पार्टी में विवादास्पद लोगों की भरमार हैं, इनमें एक नाम है- वकील प्रशांत भूषण | इनकी विशेषता है की नक्सलवादी लोग वार्ता के लिए इनको अपना मध्यस्थ मानते हैं | इसी से इनकी विचारधारा का पता लगता है | जो व्यक्ति देश के साथ द्रोह करता हो वह भ्रष्टाचार विरोधी नारों का खोखलापन प्रमाणित हो जाता है | इतना ही नहीं, प्रशांत भूषण को यह गौरव भी प्राप्त है की वे आज भी कश्मीर में जनमत की बात करते हैं | उनके विचार से कश्मीर के आतंकवादियों के विरुद्ध सेना की नियुक्ति वहां की जनता से पूछकर की जानी चाहिए | प्रशांत भूषण अपने राष्ट्र विरोधी वक्तव्यों के कारण हर समय विवाद में बने रहते हैं | समाचार देखने वाले जानते हैं की अमेरिका का एक संगठन जो कश्मीर के विषय में पाकिस्तानी  पक्ष पर अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठियां  करता था, जिनमें बड़े-बड़े पत्रकार, लेखक भाग लेते थे और पाकिस्तान के पैसे पर विदेश यात्रा का आनन्द उठाते थे | जब उस संगठन को चलाने वाले की करतूतें समाचार पत्रों में आई तो प्रशांत भूषण जैसे लोगों ने बड़े भोलेपन से कह दिया की हमें तो पता नहीं था | इन कार्यों से ही इनके भ्रष्टाचार विरोधी होने का पता चल जाता हैं | ऐसे लोग भ्रष्टाचार विरोध के नाम पर भ्रष्ट सरकार और विदेशी शक्तियों का बचाव करने में लगे हैं |

आप के एक और प्रमुख सदस्य योगेन्द्र यादव भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन में जुड़े, ये भी सोनियां गांधी की सलाहकार परिषद् के सदस्य थे | सोनियां गांधी के कारण विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सदस्य भी बन गए थे | बड़े मृदुभाषी हैं, यदि सोनियां गांधी भ्रष्ट नहीं है तो उनके सलाहकार कैसे भ्रष्ट हो सकते है | सोचने की बात है जो कल तक भ्रष्टाचार करने वालों के दल में थे, आज वे भ्रष्टाचार के विरोध में आन्दोलन में सूत्रधार बन गए | इनके भ्रष्टाचार मुक्त होने की इससे बड़ी कसौटी और क्या हो सकती है | आप पार्टी के प्रवक्ता गोपाल राय तो प्रारम्भ से साम्यवादी दल की ओर से छात्र संघ के अध्यक्ष रहे हैं | साम्यवादी दल की पवित्रता तो सामान्य तो सामान्य व्यक्ति जानता हैं | साम्यवाद का सूत्र संस्कृत-संस्कृति, हिंदी-हिन्दू का विरोध करना इन्हें मान्य है और ये भी देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने में देश को दिशा दे रहे हैं ?

वास्तव में ये आम शब्द के अपहरण जैसा है, जिसका आम आदमी के साथ सम्बन्ध नहीं वह आम की टोपी लगाकर आज ख़ास बन बैठा | बस ख़ास बनने के लिए आम बनने का नाटक है | यदि वास्तव में आम है तो इस देश में अर्थ से भी बड़ा अनर्थ, अर्थ से बड़ा भ्रष्टाचार भाषा का है | सामान्य मनुष्य का कष्ट रिश्वत से उतना नहीं है, जितना उसको बलपूर्वक विदेशी भाषा में व्यवहार करने में है | यदि कोई आम आदमी की बात करेगा तो उसे आम आदमी की भाषा में बात करनी होगी | क्या केजरीवाल की सरकार में दम है की वह आम आदमी को भाषा के भ्रष्टाचार से बचा सके ? संभवतः ऐसा प्रश्न आने पर इसे करने का साहस दिखा सके, इसमें संदेह है | वास्तविकता तो यह है की पिछले वर्षों में स्वामी रामदेव ने जो भ्रष्टाचार के विरोध में जो आन्दोलन वर्षों के प्रयास से खड़ा किया था | जिसके प्रभाव ने रामलीला मैदान में एक लाख लोगों को एकत्र कर जन आन्दोलन का रूप दिया था, उसे अरविन्द केजरीवाल ने अन्ना को जंतर-मंतर पर बैठा कर स्वामी रामदेव से झटक लिया और अन्ना को छोड़ आन्दोलन को अपने साथ जोड़कर दिल्ली की सता तक पहुँच गए | यदि केजरीवाल आम आदमी हैं वे आदमी की पीड़ा समझते है तो भ्रष्टाचार से मुक्ति दिला सकते है | अरविन्द केजरीवाल ने भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन में उन सबको ठगा है, जो भ्रष्टाचार समाप्ति की आशा से उनके साथ आये थे | आज वे सोचते होंगे की उन्हें कैसे मुर्ख बनाया गया |

नीतिकार ने ठीक ही कहा है—

प्रथमस्तावदहं मूर्खः द्वितीयो पाक्षबन्धकः,

ततो राजा च मन्त्री च सर्वं वे मुर्खमंडलम |

           -धर्मवीर

बोधत्व राष्ट्र के लिए शिवदेव आर्य

संसार में जितने भी पर्व तथा उत्सव आते हैं, उन सबका एक ही माध्यम (उद्देश्य) होता है – हम कैसे एक नए उत्साह के साथ अपने कार्य में लगें? हमें अब क्या-क्या नई-नई योजनाएं बनाने की आवश्यकता है, जो हमें उन्नति के मार्ग का अनुसरण करा सकें। समाज में दृष्टिगोचर होता है कि उस उत्सव से अमुक नामधारी मनुष्य ने अपने जीवन को उच्च बनाने का संकल्प लिया और पूर्ण भी किया।
यह सत्य सिद्धान्त है कि जो व्यक्ति सफल होते हैं, वह कुछ विशेष प्रकार से कार्य को करते हैं। शिवरात्री का प्रसिद्ध पर्व प्रायः सम्पूर्ण भारतवर्ष में बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। उपासक सम्पूर्ण दिन उपवास रखते हैं तथा रात्री को शिव की आराधना करते हुए शिव के दिव्य दर्शन प्राप्त करने का अतुलनीय प्रयास करते हैं। ऐसा ही प्रयास करने का इच्छुक अबोध बालक मूलशंकर भी आज से लगभग १७२ वर्ष पूर्व ‘शिवरात्री’ का पर्व परम्परागत रूप से मनाता है।
घोर अन्धकार को धारण की हुई कालसर्पिणी रूपी रात्री में एक अबोध बालक बोध की पिपासा लिये शिव के दर्शन करने का यत्न करता है। शिव की मूर्ति उसके नेत्रों के सामने थी। जैसे-जैसे रात्री का अन्धकार बढ़ता जा रहा था वैसे-वैसे ही बालक मूलशंकर का मन एकाग्र होता जा रहा था।
अचानक एक महत् आश्चर्यजन्य आश्चर्य का उदय होता है। शिव की प्रतिमा पर चूहे चढ़ गये। चूहें शनै-शनै (धीरे-धीरे) मिष्ठान्नों को खाने लगे और मूर्ति के ऊपर मल-मूत्र का विसर्जन कर रहे थे। इस कृत्य को देख बालक के होश उड़ गये। आखिर ये हो क्या रहा है? कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। अचानक याद आया कि पिता जी ने बताया था कि शिव इस संसार की रचना करते हैं तथा पालन करते हुए इस सृष्टि का संहार करते है। अरे, ये तो बडी विचित्र बात हुई भला जिसके दो हाथ हो, दो पैर हो, दो ही नेत्र आदि-आदि सब कुछ हमारे ही समान हो वह इतना विचित्र कैसे हो सकता है? वह इस सम्पूर्ण संसार का निर्माण कैसे कर सकता है? इतने बडे़-बडे़ पर्वतों तथा नदी-नालों का निर्माण कैसे कर सकता है? और यदि कर भी सकता है तो यह मूर्ति रूप में क्यों है? प्रत्यक्ष सामने क्यों नहीं आता? बहुत विचार-विमर्श करने के पश्चात् बालक ने पिता जी से पूछ ही लिया कि पिता जी! आप ने कहा था कि आज रात्री को शिव के दर्शन होंगे परन्तु अभी तक तो कोई शिव आया ही नहीं है। और ये चूहें कौन हैं, जो शिव के ऊपर चढ़े चढ़ावे को खाकर यहीं मल-मूत्र का विसर्जन कर रहे हैं? जब शिव सम्पूर्ण संसार का निर्माण करके उसका पालन करता है, तो ये अपनी स्वयं की रक्षा करने में क्यों असमर्थ हो रहा है? आखिर असली शिव कौन-सा है? कब दर्शन होंगे? आदि-आदि प्रश्नों से पिता श्री कर्षन जी बहुत परेशान हो गये तथा अपने सेवकों को आदेश दिया कि इसे घर ले जाओ। घर जाकर मां से भी यही प्रश्न, पर समाधान कहीं नहीं मिला। शिव की खोज में घर को छोड़ दिया। जो जहां बताता वहीं शिव को पाने की इच्छा से इधर-उधर भटकने लगा पर अन्त में अबोध को बोधत्व (ज्ञान) प्राप्त हो ही गया।
और उसी स्वरूप का वर्णन करते हुए आर्य समाज के द्वितीय नियम में लिखते हैं कि – जो सत्-चित्-आनन्दस्वरूप हो, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्म, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र हो और जो इस सम्पूर्ण सृष्टि की रचना, पालन तथा संहार करता हो, वही परमेश्वर है। इससे भिन्न को परमेश्वर स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसी परमेश्वर की सभी जनों को स्तुति, प्रार्थना उसी उपासना करनी चाहिए।
आज भी आवश्यकता है अपने अन्तःकरण की आवाज सुनने की । जब स्वयं के भीतर सोये हुऐ शिव को जागृत करेंगे तभी जाकर शिव के सत्य स्वरूप को जानने का मार्ग प्रशस्त हो पायेगा।
सच्चे शिव का जो संकल्प बालक मूलशंकर ने लिया था, उस संकल्प की परिणति शिव के दर्शन के रूप में हुई । वह कोई पाषाण नहीं और न ही कपोलकल्पित कैलाश पर्वतवासी था। उसी सत्य शिव के ज्ञान ने अबोध बालक मूलशंकर को महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती के नाम से विश्वभर में प्रसिद्ध करा दिया।
भारतवर्ष में देशहित अपने जीवन का सर्वस्व त्याग करने वाले अनेकशः महापुरुष हुए किन्तु महर्षि दयानन्द सरस्वती उन सभी महापुरुषों में सर्वश्रेष्ठ थे। सर्वश्रेष्ठ से यहां यह तात्पर्य बिल्कुल भी नहीं है कि किसी का अपमान अथवा निम्नस्तर को प्रस्तुत किया जाये। जितने भी महापुरुष हुए हैं, उन सबकी अपनी एक अविस्मरणीय विशेषता रही है कि वह अपने सम्पूर्ण जीवन में एक अथवा कुछ कार्यों में ही जुटे रहे। जैसे किसी ने स्वराज्य स्थापना पर, किसी ने धर्म पर, किसी ने विधवा विवाह पर, किसी ने स्वभाषा पर, किसी ने भ्रष्टाचार पर, किसी ने बाल-विवाह पर, किसी ने कन्या शिक्षा पर, किसी ने स्वसंस्कृति-सभ्यता पर ध्यान दिया है किन्तु ऋषिवर देव दयानन्द जी का जीवन एकांगी न होकर सभी दिशाओं में प्रवृत्त हुआ है। सभी विषय से सम्बन्धित कुकर्मों को समाप्त करने का प्रयास किया।
शिवरात्री के इस पर्व को बोधोत्सव के रूप में मनाने का उद्देश्य यह नहीं है कि बोधरात्री को जो हुआ उसे स्मरण ही किया जाये। अगर बोध रात्री का यही तात्पर्य होता तो स्वामी दयानन्द जी भी शिव को खोजने के लिए एकान्त शान्त पर्वत की किसी कंदरा में जाकर बैठ सकते थे। और उस परमपिता परमेश्वर का ध्यान कर सकते थे, मोक्ष को शीघ्र प्राप्त कर सकते थे किन्तु ऋषि ने वही शिव का स्वरूप स्वयं में अंगीकृत करके अर्थात् कल्याण की भावना को स्वयं के अन्दर संजोकर भारत माता की सेवा में जुट गये। ‘इदं राष्ट्राय इदन्नमम’ की भावना से अपने जीवन पथ पर निरन्तर अबाध गति से चलते रहे। और अपने जीवन से अनेक अबोधियों को बोधत्व प्राप्त कराकर देशहित समर्पित कराया।
आज हम जब भारत माता की जय बोलते हैं तो वो किसी देवी अथवा किसी व्यक्ति या समुदाय विशेष की जय नहीं है प्रत्युत प्रत्येक भारतवासी की जय बोलते हैं। हम सब इस बोधोत्सव पर बोधत्व को प्राप्त हो राष्ट्र हित में समर्पित होने वाले हो। ऋषिवर का प्रत्येक कर्म देश के हित में लगा और उनका भी यही स्वप्न था कि हमारा प्रत्येक नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति जागरुक हो एवं सत्य मार्ग का अनुसरण करे।

Whether women lack common sense?

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Woman in Indian civilization

Womanhood has been reverenced in the ancient Indian culture as a manifestation of divine qualities. Womanhood is a symbol of eternal virtues of humanity expressed in compassion, selfless love and caring for others. The Indian philosophers of yore (the rishis) considered that the seeds of divinity grow and blossom in a truly cultured society where women are given due respect and equal opportunities of rise and dignity. The scriptures and later works on Indian culture and philosophy stand witness to the fact that women indeed receive high recognition and respect in the Vedic age. The contribution of women rishis in making the ancient Indian culture a divine culture were not less than those of their male counterparts. In the later ages too, women had always been integral part of cultural, social and intellectual evolution of the human society. India has been country where we have been following up the principle of  “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया: ।( Yatra Naryastu Pujyante Ramante Tatra Devata Yatraitaastu Na Pujyante Sarvaastatrafalaah Kriyaah ।।)

i.e. “Where Women Are Honored , Divinity Blossoms There; And Where They Are Dishonored , All Action Remains Unfruitful.”

Women in Arabian Civilization

However there has been one civilization in far Arabian desert which doesn’t fall in line with this concept of the humanity towards the women and are of opinion that women are dumb and was treating them as a tool for their pleasure.

Women as Dweller of Hell

Sahih Muslim Hadith says that it is narrated on the authority of Abdullah B Umar that the Messenger of Allah said “O woman folk you should give charity and ask much Forgiveness for I say you in the bulk amongst the dweller of Hell. A wise lady among them said “Why is it, Messenger of Allah that our folk is in bulk in Hell. Upon this Messenger of Allah said “you curse too much and are un-grateful to you spouses.

This is totally baseless logic that women are not grateful to their spouses and they should pay charity as they are in bulk amongst the dweller of hell. Reason given behind being in bulk in hell is also out of the box that women curse too much that’s why they are part of hell. Opinion about the women doesn’t stop at this point, Sahish Muslim further recites that:

Women lack common sense

it is narrated on the authority of Abdullah B Umar that the Messenger of Allah said “ I have seen none lacking in common sense and failing in religion but ( at the same time) robbing the wisdom of the wise besides you. Upon this the woman remarked: what is wrong with our common sense and with religion?

Islamic Scholar Hamid Siddiqi adds that Woman know the art of playing with the sentiments of man and she succeeds in forcing her will upon him.

In our opinion both things are contradictory; in one place Mohammad sahab has said that woman lacks common sense however at the other place they are saying the woman have capability to rob their companions. If the part of population, which Muhammad sahab says that are superior to the women, is porn to be robbed by later in that case how the woman can be inferior from the section they are able to rob?

Evidence of women considered as half of man

The Holy Prophet said” your lack of common sense can be well judged that the evidence of two women is equal to one man. That is the lack of common sense. You spend some nights and days in which you do not pray and in the month of Radan ( during the days) you do not fast, that is failing in religion.

(Sahih Muslim by Imam Muslim rendered into English by Abdul Hamid Siddiqi : Part -1 page no 80)

Islamic scholar Hamid Siddiqi explains that The Holy Prophet has supported his contention with reason. Women are generally shy capricious and whimsical and are easily carried off by their emotions and thus their study of the situation is hardly objective. That is the reason why the Shari’ah has accepted the evidence of the two women equal to one man and it is only in this sphere that they are declared to be inferior in wisdom as compared with men.

This can be called a dark age in which women were considered common sense less in the Arabian part. However the position was totally different in Aryavart ( Bharatvarsh). The women occupied a very important position, in the ancient Bharat. Women were held in higher respect in India than in other ancient countries, and the Epics and old literature of India assign a higher position to them than the epics and literature of other religions. Hindu women enjoyed rights of property from the Vedic Age, took a share in social and religious rites.

it may be confidently asserted that in no nation of antiquity were women held in so much esteem as amongst the Hindus.” In Ancient India, however, The chivalrous treatment of women by Hindus is well known to all who know anything of Hindu society. Knowledge, intelligence, rhythm and harmony are all essential ingredients for any creative activity.

It is not unimportant, that Earth (prithivi) is considered female, and the goddess who bears the mountains and who brings forth food that feed all. Education for girls was regarded as quite important. While Bramhavadani girls were taught Vedic wisdom, girls of the Ksatriya girls were taught the use of the bow and arrow. Patanjali mentions the spear bearers (saktikis). Megasthanese speaks of Chandragupta’s bodyguard of Amazonian women. Kautilya mentions women archers (striganaih dhanvibhih). Similarly, Kautilya in his Artha sastra, which is also taken to be a document of Mauryan history, refers to women soldiers armed with bows and arrows.

Status of women in India can be judged by the law of Manu:

“Where women are honored there the gods are pleased; but where they are not honored no sacred rite yields rewards,” declares Manu Smriti (III.56) a text on social conduct.

“Women must be honored and adorned by their fathers, brothers, husbands and brothers-in-law, who desire their own welfare.” (Manu Smriti III, 55)

“Where the female relations live in grief, the family soon wholly perishes; but that family where they are not unhappy ever prospers.” (Manu Smriti III, 57)

“The houses, on which female relations, not being duly honored, pronounce a curse, perish completely as if destroyed by magic.” (Manu Smriti III, 58)

“Hence men, who seek their own welfare, should always honor women on holidays and festivals with gifts of ornaments, clothes, and dainty food.” (Manu Smriti III, 59)

No other Scripture of the world have ever given to the woman such equality with the man as the Scripture of the Hindus.

When Shankaracharya, the great commentator of the Vedanta, was discussing philosophy with another philosopher, a Hindu lady- Bharti, well versed in all the Scriptures, was requested to act as a judge.

It is the special injunction of the Vedas that no married man shall perform any religious rite, ceremony, or sacrifice without being joined in by his wife; the wife is considered a partaker and partner in the spiritual life of her husband; she is called, in Sanskrit, Sahadharmini, “spiritual helpmate.”

In the whole religious history of the world a second Sita will not be found. Her life was unique

In the Ramayana we read the account of Sulabha, the great woman Yogini, who came to the court of King Janaka and showed wonderful powers and wisdom, which she had acquired through the practice of Yoga. This shows that women were allowed to practice Yoga.

As in religion, Hindu woman of ancient times enjoyed equal rights and privileges with men, so in secular matters she had equal share and equal power with them. From the Vedic age women in India have had the same right as men and they could go to the courts of justice, plead their own cases, and ask for the protection of the law.

Motherhood is considered the greatest glory of Hindu women

 The Taittiriya Upanishad teaches, “Matridevo bhava” – “Let your mother be the god to you.”

Hindu tradition recognizes mother and motherhood as even superior to heaven. The epic Mahabharata says, “While a father is superior to ten learned priests well-versed in the Vedas, a mother is superior to ten such fathers, or the entire world.”

 

ब्रह्मकुमारी का सच : आचार्य सोमदेव जी

जिज्ञासा मैं परोपकारी का लगभग ३० वर्षों से नियमित पाठक हूँ। आपसे मैं आशा करता हूँ कि तथाकथित असामाजिक तत्वों  व संगठनों द्वारा आर्यसमाज व महर्षि दयानन्द की विचारधारा पर किए जा रहे हमलों व षड्यन्त्रों का आप जवाब ही नहीं देते, उन्हें शास्त्रार्थ के लिए चुनौती देने में भी सक्षम हैं। ऐसी मेरी मान्यता है। ऐसे ही एक पत्र मेरे (आर्यसमाज सोजत) पते पर दुबारा डाक से प्राप्त हुआ है। इस पत्र की फोटो प्रति मैं आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह पत्र ब्रह्माकुमारी संस्था से जुड़ा किसी व्यक्ति का है, मैंने उससे फोन पर बात भी की है तथा उसे कठोर शब्दों  में आमने-सामने बैठकर चर्चा के लिए चुनौती दी है। परन्तु फोन पर उसने कोई जवाब नहीं दिया।

आपकी जानकारी हेतु पत्र की फोटो प्रति पत्र के साथ संलग्न है। पत्र लिखने वाले ने नीचे अपना नाम के साथ चलभाष संख्या भी लिखी है। कृपया आपकी सेवा में प्रस्तुत है –

धर्माचार्य जानते हैं कि वे भगवान् से कभी नहीं मिले, वे यह भी जानते हैं कि वेदों शास्त्रों द्वारा भगवान् को नहीं जाना जा सकता, फिर यह किस आधार से भगवान् को सर्वव्यापी कहते हैं? कुत्ते  बिल्ली में भी भगवान् हैं, ऐसा कहकर, भगवान् की ग्लानि क्यों करते हैं? यदि इन्हें कोई कुत्ता कहे तो कैसा लगेगा? धर्माचार्य यह भी कहते हैं कि सब ईश्वर इच्छा से होता है। जरा सोचे! कि क्या छः माह की बच्ची से बलात्कार, ईश्वर इच्छा से होता है? क्या यही है ईश्वर इच्छा? अरे मूर्खों, निर्लज्जों, राम का काम, रामलीला करना है या रावण लीला? राम की आड़ में रावण लीला करने वाले राक्षसों, सम्भल जाओ, क्योंकि राक्षसों से धरती को मुक्त कराने राम आए हैं।

-अर्जुन, दिल्ली, मो.-०९२१३३२४१३४

– हीरालाल आर्य, मन्त्री आर्यसमाज सोजत नगर, जि. पाली, राज.-३०६१०४

समाधान वर्तमान में भारत देश के अन्दर हजारों गुरुओं ने मत-सम्प्रदाय चला रखे हैं, जो कि प्रायः वेद विरुद्ध हैं। ईसाई, मुस्लिम, जैन, बौद्ध, नारायण सम्प्रदाय, रामस्नेही सम्प्रदाय, राधास्वामी, निरंकारी, धन-धन सतगुरु (सच्चा सौदा), हंसा मत, जय गुरुदेव, सत्य साईं बाबा, आनन्द मार्ग, ब्रह्माकुमारी आदि मत ये सब वेद विरोधी हैं। सबके अपने-अपने गुरु हैं, ये सम्प्रदायवादी ईश्वर से अधिक मह    व अपने सम्प्रदाय के प्रवर्तक को देते हैं, वेद से अधिक मह व अपने सम्प्रदाय की पुस्तक को देते हैं।

आपने ब्रह्माकुमारी के विषय में जानना चाहा है। ब्रह्माकुमारी मत वाले हमारे प्राचीन इतिहास व शास्त्र के घोर शत्रु हैं। इस मत के मानने वाले १ अरब ९६ करोड़ ८ लाख, ५३ हजार ११५ वर्ष से चली आ रही सृष्टि को मात्र ५ हजार वर्ष में समेट देते हैं। ये लाखों वर्ष पूर्व हुए राम आदि के इतिहास को नहीं मानते हैं। वेद आदि किसी शास्त्र को नहीं मानते, इसके प्रमाण की तो बात ही दूर रह जाती है। वेद में प्रतिपादित सर्वव्यापक परमेश्वर को न मान एक स्थान विशेष पर ईश्वर को मानते हैं। अपने मत के प्रवर्तक लेखराम को ही ब्रह्मा वा परमात्मा कहते हैं।

इनके विषय में स्वामी विद्यानन्द जी ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ भास्कर में विस्तार से लिखा है, उसको हम यहाँ दे रहे हैं।

‘‘ब्रह्माकुमारी मत- दादा लेखराज के नाम से कुख्यात खूबचन्द कृपलानी नामक एक अवकाश प्राप्त व्यक्ति ने अपनी कामवासनाओं की तृप्ति के लिए सिन्ध में ओम् मण्डली नाम से एक संस्था की स्थापना की थी। सबसे पहले उसने कोलकाता से मायादेवी नामक एक विधवा का अपहरण किया। उसी के माध्यम से उसने अन्य अनेक लड़कियों को अपने जाल में फंसाया। इलाहाबाद के एक साप्ताहिक के द्वारा पोल खुलने पर सन् १९३७ में लाहौर में रफीखां पी.सी.एस. की अदालत में मुकदमा चला। मायादेवी ने अपने बयान में बताया कि ‘‘गुरु जी ने हमसे कहा कि तुम जनता में जाकर कहो कि मैं गोपी हूँ और ये भगवान् कृष्ण हैं। मैं बड़ी पापिनी हूँ। मैंने कितनी कुँवारी लड़कियों को गुमराह किया है। कितनी ही बहनों को उनके पतियों से दूर किया है……’’ (आर्य जगत् जालन्धर २३ जुलाई १९६१)। कलियुगी कृष्ण ने अदालत में क्षमा मांगी और भाग निकला। १३ अगस्त, १९४० में उसने बिहार में डेरा डाल दिया। चेले-चेलियाँ आने लगे। एक दिन एक बूढ़े हरिजन की युवा पत्नी धनिया को लेकर भाग खड़े हुए। फिर मुकदमा चला। धनिया ने अपने बयान में कहा- ‘‘इस गुरु महाराज ने हमें कहा था कि मैं आपका पति हूँ। ब्रह्माजी ने मुझे आपके लिए भेजा है।’’ इसी प्रकार नाना प्रकार के अनैतिक कर्म करते हुए दादा लेखराम हैदराबाद (सिन्ध) में जम गये और देवियों को गोपियाँ बनाकर रासलीलाएँ रचाने लगे। रासलीला की ओर से होने वाले व्यभिचार का पता जब प्रसिद्ध विद्वान्, ओजस्वी वक्ता और समाजसेवी साधु टी.एल. वास्वानी को चला तो वे उसके विरुद्ध मैदान में कूद पड़े। इससे सामान्यतः देशभर में और विशेषतः सिन्ध में तहलका मच गया। ओम् मण्डली के काले कारनामे खुलकर सामने आने लगे। यहाँ पर भी मुकदमा चला। पटना के ‘योगी’ पत्र से ‘सरस्वती’ (भाग ३९, संख्या खण्ड ६१, मई १९३८) का यह विवरण द्रष्टव्य है- ‘‘ओम् मण्डली पर पिकेटिंग शुरू हो गई है। सी.पी.सी. की धारा १०७ के अनुसार सिटी मजिस्ट्रेट की अदालत में पिकेटिंग करवाने वालों के साथ ओम् मण्डली के संस्थापक और चार अन्य सदस्यों पर मुकदमा चल रहा है।’’ दादा लेखराज को कारावास का दण्ड मिला।

भारत विभाजन के बाद से ब्रह्माकुमारी मत का मुख्यालय आबू पर्वत पर है। जनवरी १९६९ में दादा लेखराज की मृत्यु के बाद से दादी के नाम से चर्चित प्रकाशमणि इस सम्प्रदाय की प्रमुख रही हैं। वर्तमान में इस संस्था या सम्प्रदाय की लगभग दो हजार से अधिक शाखाएँ संसार के अनेक देशों में स्थापित हैं। मैट्रिक तक पढ़ी प्रकाशमणि आबू से विश्वभर में फैले अपने धर्म साम्राज्य का संचालन करती रही। समस्त साधक या साधिकाएँ, प्रचारक या प्रचारिकाएँ ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारी कहाती हैं। प्रचारिकाएँ प्रायः कुमारी होती हैं। विवाहित स्त्रियाँ अपने पतियों को छोड़कर या छोड़ी जाकर इस सम्प्रदाय में साधिकाएँ बन सकती हैं। ये भी ब्रह्माकुमारी ही कहाती हैं। पुरुष, चाहे विवाहित अथवा अविवाहित, ब्रह्मकुमार ही कहाते हैं। ब्रह्माकुमारियों के वस्त्र श्वेत रेशम के होते हैं। …..प्रचारिकाएँ विशेष प्रकार का सुर्मा लगाती हैं, जो इनकी सम्मोहन शक्ति को बढ़ाने में सहायक होता है। सात दिन की साधना में ही वे साधकों को ब्रह्म का साक्षात्कार कराने का दावा करती हैं।

अनुभवी लोगों के अनुसार –

‘तप्तांगारसमा नारी घृतकुम्भसमः पुमान्’

अर्थात् स्त्री जलते हुए अंगारे के समान और पुरुष घी के घड़े के समान है। दोनों को पास-पास रखना खतरे से खाली नहीं है। गीता में लिखा है-

यततो ह्यापि कौन्तये पुरुषस्य विपश्चितः।

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।

अर्थात् यत्न करते हुए विद्वान् पुरुष के मन को भी इन्द्रियाँ बलपूर्वक मनमानी की ओर खींच ले जाती हैं। भर्तृहरि ने कहा है-

विश्वामित्र पाराशरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशनास्तेऽपि

स्त्रीमुखपङ्कजे सुललितं दृष्ट्वैव मोहंगता।

अन्नं घृतदधिपयोयुतं भुञ्जति ये मानवाः,

तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद्विन्ध्यस्तरेत्सागरम्।।

अर्थात्- विश्वामित्र, पाराशर आदि महर्षि जो प ाों, वायु और जल का ही सेवन करते थे, वे भी स्त्री के सुन्दर मुखकमल को देखते ही मुग्ध हो गये थे। फिर घी, दुग्ध, दही आदि से युक्त अन्न खाने वाले मनुष्य यदि इन्द्रियों को वश में कर लें तो विन्ध्यपर्वत समुद्र में तैरने लगे।

इसलिए भगवान् मनु ने एकान्त कमरे में भाई-बहन के भी सोने का निषेध किया है।

वस्तुतः ब्रह्माकुमारों और कुमारियों का समागम मध्यकालीन वाममार्गियों के भैरवी चक्र जैसा ही प्रतीत होता है। दादा लेखराज तो ब्रह्माकुमारियों के साथ आलिंगन करते, मुख चूमते तथा…..। भक्तों का कहना है कि ब्रह्माकुमारियाँ तो उनकी पुत्रियों के समान हैं और दादा उनके पिता के समान। जैसे बच्चे उचक कर पिता की गोद में जा बैठते हैं, वैसे ही ब्रह्माकुमारियाँ दादा लेखराज की गोद में जा बैठती थीं और वे उन्हें पिता के  समान प्यार  करते थे।

बिठाकर गोद में हमको बनाकर वत्स सेते हैं, जरा सी बात है।

बनाने को हमें सच्चा समर्पण माँग लेते हैं।

हमें स्वीकार कर वस्तुतः सम्मान देते हैं।

लोकलाज कुल मर्यादा का, डुबा चलें हम कूल किनारा।

हमको क्या फिर और चाहिए, अगर पा सकें प्यार तुम्हारा।।

– भगवान् आया है, पृ. ५०, ५१, ६९

इनके धर्मग्रन्थ ‘सच्ची गीता’ पृष्ठ ९६ पर लिखा है-

‘‘बड़ों में भी सबसे बड़ा कौन है, जो सर्वोत्तम ज्ञान का सागर और त्रिकालदर्शी कहा जाता है। मेरे गुण सर्वोत्तम माने जाते हैं। इसलिए मुझे पुरुषो      ाम कहते हैं।’’

पुरुषो      ाम श द की दो निरुक्तियाँ होती हैं- एक है-

‘पुरुषेषु उ       ामः इति पुरुषो ामः।’

जो व्यक्ति परस्त्रियों के साथ रमण करता है, उन्हें अपनी गोद में बैठाता है और उनके….. उसे इन अर्थों में तो पुरुषो    ाम नहीं कहा जा सकता।

दूसरी निरुक्ति-

‘पुरुषेषु ऊतस्तेषु उ  ाम इति पुरुषो ामः’

के अनुसार दादा लेखराज को पुरुषो  ाम मानने में किसी को कोई आप      िा नहीं होनी चाहिए।

आश्चर्य की बात है कि अपनी सभाओं और सम्मेलनों में देश-परदेश के राजनेताओं, शासकों, न्यायाधीशों, पत्रकारों, शिक्षा शास्त्रियों तक को आमन्त्रित करने वाली ब्रह्माकुमारी संस्था मूल सिद्धान्तों, दार्शनिक मान्यताओं तथा कार्यकलापों को ये अभ्यागत लोग नहीं जानते। हो सकता है, वे ब्रह्माकुमारियों के….. खिंचे चले आते हों। आज तक निश्चित रूप से यह पता नहीं चल सका कि इस संस्था के करोड़ों रुपये के बजट को पूरा करने के लिए यह अपार राशि कहाँ से आती है। कहा जाता है कि ब्रह्माकुमारियाँ ही अपने घरों को लूट कर लाती हैं। पर उतने से काम बनता समझ में नहीं आता। कुछ स्वकल्पित चित्रों और चार्टों तथा रटी-रटाई श     दावली में अपने मन्तव्यों का परिचय देने वाली ब्रह्माकुमारियाँ और ब्रह्मकुमार राजयोग, शिव, ब्रह्मा, कृष्ण, गीता आदि की बातें तो करते हैं, परन्तु सुपठित व्यक्ति जल्दी ही भाँप जाता है कि महर्षि पतञ्जलि द्वारा प्रतिपादित राजयोग तथा व्यासरचित गीता का तो ये क, ख, ग भी नहीं जानते। ये विश्वशान्ति और चरित्र निर्माण के लिए आडम्बरपूर्ण आयोजन करते हैं, शिविर लगाते हैं, कार्यशालाएँ संचालित करते हैं, किन्तु उनमें से किसी का भी कोई प्रतिफल दिखाई नहीं देता।’’

पाठक, ब्रह्माकुमारी के मूल संस्थापक के चरित्र को इस लेख से जान गये होंगे, आज के रामपाल और उस समय के लेखराज में क्या अन्तर है? आर्यसमाज सदा से ही गलत का विरोधी रहा है, आज भी है। ब्रह्माकुमारी वाले अपने मूल सिद्धान्तों के लिए आर्यसमाज से चर्चा वा शास्त्रार्थ करना चाहे, तो आर्यसमाज सदा इसके लिए तैयार है।

आपने जो इनका पत्र संकलित कर भेजा है उसी से ज्ञात हो रहा है कि ये वेद-शास्त्र के निन्दक व वेदानुकूल ईश्वर को न मानने वाले हैं।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

आखिर क्या है वैलेंटाइन डे? शिवदेव आर्य

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भारतीय संस्कृति एवं परम्परा को समाज में इस प्रकार तोड़ा जा रहा है जिसका कोई बखान नहीं कर सकता और यदि लेखनी भारतीयता की व्यथा को व्यक्त करने की कोशिश भी करे तो उसे चारों ओर से कुचलने का प्रयास किया जाता है। पुनरपि ये लेखनी अपने कतव्र्य को कैसे भूल सकती है। ये तो अपने कर्म के प्रति सदैव कटिबद्ध रहती है। इसी लिए इसे ब्राह्मण की गौ कहा गया है अर्थात् ब्राह्मण की वाणी। ब्राह्मण को वेद सदैव आदेश देता है कि तू अपने कर्तव्य (जागृति) का विस्तार सदा करता रहे। जब-जब भी समाज में अन्धकार का वर्चस्व फैला है तब-तब लेखनी ने सूर्य के अद्वितीय प्रकाश के समान अन्धकार का दमन किया है।

आज भी कुछ इसी प्रकार हो रहा है। सभी को घोर अन्धकार ने इसप्रकार घेर लिया है जैसे किसी व्यक्ति के पास अपनी श्रेष्ठ वस्तु है किन्तु वह दूसरे की तुच्छ वस्तु से इतना आकृष्ट हो जाता है कि अपनी श्रेष्ठ वस्तु को भूला देता है।

हमारे देश में ऋतुओं के अनुसार पर्व तथा उत्सव मनाने की अद्वितीय परम्परा है । वसन्त पंचमी, मकर संक्रान्ति, माघ पूर्णिमा, श्रावणी उपाक्रम, होलिकोत्सव, दीपोत्सव आदि अनेक पर्व इस देश में एक नवीन ऊर्जा का संचार करते है किन्तु दुर्भाग्य है इस भारतवर्ष की युवा पीढ़ी का, जिसने अपने ऊर्जावान् पर्वों को भूला दिया और पाश्चात्य पर्वों को मनाने की प्रथा शुरू कर दी। पाश्चात्य देशों में उन पर्वों को मनाने के पीछे कोई न कोई कारण जरुर रहा होगा, जिसकी वहां आवश्यकता होगी। किन्तु बिना किसी कारण को जाने हमारे भारतवासी भाई लोग इन पर्वों को अपनी मन-मर्जी से मनाते हैं। मनाने के साथ-साथ कभी यह भी विचार नहीं करते कि हम जो ये पर्व मना रहे है, इसका उद्देश्य क्या है? क्या लाभ होगें? इत्यादि।

वैलेंटाइन डे, फ्रैंडशिप डे आदि अनेक पाश्चात्य पर्वों को मनाने के लिए हम सदैव उद्यत रहते हैं किन्तु अपने पर्वों को मनाने के लिए जगाना पड़ता है, शोभायात्राएं निकालनी पड़ती हैं, लोगों को भारतीय पर्वों की ओर आकृष्ट करने के लिए प्रलोभन दिये जाते हैं। फिर भी भारतीय पर्वों के प्रति निराशा भरा वातावरण चहु ओर दृष्टिगोचर होता है।

अभी हाल में ही फरवरी मास में युवाओं को अपनी ओर सर्वाधिक आकृष्ट करने वाला पाश्चात्य सभ्यता का पर्व वैलेंटाइन डे आ रहा है। जिस पर्व के सत्यार्थ को न समझ लोग मौज-मस्ती में निमग्न हो सब कुछ गलत कर बैठते है। बिना शादी-सुदा हुए ही भोग-विलासता की सभी हदें पार कर देते हैं। आखिर क्या कारण है, जो इस पर्व को मनाया जाता है? इसके पीछे क्या रहस्य छिपा हुआ है? क्योंकि पर्व मनाने के पीछे कोई न कोई उद्देश्य एवं रहस्य अवश्य छिपा होता है। इस वैलेंटाइन डे की भी बहुत लम्बी कहानी है।

सुहृद पाठकों!

आज से कई वर्षों पूर्व यूरोप की दशा वर्तमान यूरोप से बहुत निम्नस्तर की थी। यूरोप में पहले शादियां नहीं होती थी। लोग रखैलों में विश्वास रखते थे। पूरे यूरोप भर मे कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिल सकता, जिसकी एक शादी हुई हो अथवा जिसका एक स्त्री के साथ सम्बन्ध रहा हो। ये परम्परा उनके यहां आज से ही प्रचलित नहीं है अपितु कई हजार वर्षों से  यही होता चला आ रहा है। यूरोप के बड़े-बडे़ लेखक, विचारक तथा दार्शनिक भी इन्हीं परम्पराओं में संलिप्त थे। वे भी  ऐसे ही मौज-मस्ती भरे जीवन को जीना पसन्द करते थे। प्लूटो जैसा दार्शनिक भी एक स्त्री से सम्बन्ध नहीं रखता प्रत्युत अनेक स्त्रीयों से  रखता था। प्लूटो खुद इस बात को इस प्रकार लिखता है कि  ‘ मेरा 20-22 स्त्रीयों से सम्बन्ध रहा है।’ अरस्तु, रुसो आदि पाश्चात्य विचारक इसी प्रकार के थे। इन सभी पाश्चात्य दार्शनिकों ने हैवानियत की सभी हदें पार करते हुए मातृतुल्य पूजनीय स्त्रीयों के सन्दर्भ में एकमत होकर कहते हैं कि- ‘ स्त्री में तो आत्मा होती ही नहीं है। स्त्री तो मेज और कुर्सी के समान है, जब पुरानी से मन भर जाये तो नयी का प्रयोग करो’।

ऐसी घृणित मान्यता को देख कई बार लोगों का पत्थर दिल भी पिघल कर विद्रोह की भावना को जन्म देता है। ऐसे अनेक यूरोपियन हुए जिन्होंने बीच-बीच में इस प्रचलन का विरोध किया। ऐसे ही विरोधियों में एक वैलेंटाइन नामक  व्यक्ति भी था। जिसने इस कुप्रथा के प्रति आवाज उठायी। उसका कहना था कि हम लेग जो शारीरिक सम्बन्ध रखते हैं, वह  कुत्तों की तरह, जानवरों की तरह का है, ये अच्छा व्यवहार नहीं है। इससे शारीरिक रोग होते हैं। इसका सुधार करो, एक पति एक पत्नी के साथ विवाह करके ही रहे, विवाह के बाद ही शारीरिक सम्बन्धों को स्थापित करें। ऐसी बातों को वैलेंटाइन ने घूम-घूम कर लोगों को बताया और लोग भी जागृत हुए।संयोगवश वह एक चर्च के पादरी बन गये। चर्च में आने वाले प्रत्येक नागरिक को ऐसी ही सलाह देने लगे तो लोग प्रायः पूछ लेते कि आप ऐसा क्यों कर रहे हो? अपनी परम्पराओं को क्यों तोड़ना चाहते हो? दोष युक्त होने पर भी अपनी संस्कृति तो अच्छी होती है, पुनरपि आप ये सब क्यों कर रहे हो? इसके उत्तर में वह कहते कि आज-कल मैं भारतीय सभ्यता और दर्शन का अध्ययन कर रहा हूं और मुझे लगता है कि भारतीय सभ्यता तथा भारतीय जीवन श्रेष्ठ हैं और इसे स्वीकार करने में कोई हनि भी नहीं है। इसीलिए आप लोग मेरी बात को स्वीकार करो, कुछ लोग उनकी उस बात को स्वीकार करते और कुछ लोग अस्वीकार कर देते। धीरे-धीरे चर्च में ही शादीयां कराने लगे। सैकड़ों की संख्या में शादी होने लग गई तथा अनेक लोग इस घृणित कार्य से रुक गये। वैलेंटाइन के इस कार्य की सूचना पूरे रोम में जगह-जगह होने लगी। धीरे-धीरे ये बात रोम के राजा क्लौड़ीयस तक भी पहुंच गयी। राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। राजा ने तुरन्त वैलेंटाइन को बुलाकर कहा कि – तुम ये क्या गलत काम कर रहे हो? तुम अधर्म क्यों फैला रहे हो? अपसंस्कृति को अपना रहे हो? हम बिना शादी के रहने वाले लोग हैं, मौज-मस्ती में डूबे रहने वाले लोगों को तू बन्धन में बांधना चाहते हो, ये सब गलत है। वैलेंटाइन ने कहा – महाराज! मुझे लगता है कि ये ठीक नहीं है। ये बोलते ही राजा ने एक न सुनी और तुरन्त ही उसे फांसी की सजा सुना दी। क्लौड़ीयस ने उन सब को बुलाया, जिनकी वैलेंटाइन ने शादी करायी थी।

14 फरवरी 498 ई.वी को खुले मैदान में, सार्वजनिक रूप से वैलेंटाइन को सजा दे दी गई। जिन लोगों की वैलेंटाइन ने शादी करायी थी, वो लोग बहुत दुःखी हुए, इसी दुःख की याद में वैलेंटाइन डे मनाना शुरु हुआ।

आज ये वैलेंटाइन डे भारत में भी आ गया है पर ये बिल्कुल विपरीत है। जिस भारतवर्ष को वैलेंटाइन ने एक आदर्शवादी देश के रूप में स्वीकार कर अपने देश को भी उसी प्रकार बनाने का विचार किया था। जिस देश में शादी होना एक मान्य बात है, आज वहीं बिना शादी के घुमना तो एक आमबात (सामान्य) है। कहां हम किसी के आदर्शवादी थे और आज हम अपने देश को उसी गर्त में ले जाना चाह रहे हैं, जिस  गर्त से वैलेंटाइन अपने देश को बचाना चाहता है।

भारतीय लोग पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण मात्र ही नहीं कर रहे अपितु उसका अन्धानुकरण कर रहे हैं। वैलेंटाइन डे का यह दिवस बड़ा विचित्र है। जो दिवस उस पाश्चात्य महापुरुष के दुःख के रूप में स्वकीर किया जाता है। आज वही दिवस उसके सिद्धान्तों से सर्वथा विपरीति होता जा रहा है। भारतवर्ष में शादी के पवित्र बन्ध को तोड़ने के लिए इस दिवस को मनाया जाता है।

अब ये वैलेंटाइन हमारे स्कूलों, काॅलेजों व विश्वविद्यालयों में आ गया है, बड़ी धूम-धाम के साथ इसे मनाया जा रहा है। लड़के-लड़कियां बिना कुछ सोचे-विचारे एक दूसरे को वैलेंटाइन डे का कार्ड दे रहे हैं। और जो कार्ड होता है उसमें लिखा होता है कि- “Would You Be My Valentine” । इसका मतलब  किसी को मालूम नहीं होता है और अन्धी दौड़ में बस भागते ही रहते हैं। वो समझते हैं कि हम जिस किसी से प्यार करते हैं उसको ये कार्ड दिया जाता है, इसलिए इस कार्ड को वो सभी को दे देते हैं। ये कार्ड एक या दो लोगों को नहीं देते अपितु दस-बीस लोगों को दे देते हैं। कोई उनको इस कार्ड में लिखे वाक्य का तात्पर्य भी नहीं समझाता।

इस कार्य को बढ़ावा देने के लिए टेलीविजन चैनल इसका बहुत प्रचार तथा प्रसार करते हैं। बड़ी-बड़ी कम्पनियां अपने काम-धंधे को विस्तृत करने के लिए कार्ड, गिफ्ट, चाॅकलेट आदि को दुगुनी अथवा तीगुनी रकम में बेचते हैं।

यदि किसी लड़की को गुलाब दिया जाये और वह लड़की उस गुलाब को स्वीकार कर ले तो वैलेंटाइन और न स्वीकार करे तो उसी क्षण उसके चहरे पर तेजाब डाल दिया जाता है। ये कैसी परम्परा है? जिस कन्या को देवी के तुल्य समझा जाता है, उसी देवी के साथ खिलवाड़  हो रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि नारी ने बहुत तरक्की की है, लेकिन यह भी सच है कि हमारे पुरुष प्रधान देश में आज भी नारी को दबाया जाता है। समय आ गया है कि हम नारी का सम्मान करें। क्योंकि कहा भी गया है- ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्त रमन्ते तत्र देवता’। आओ! हम सब मिलकर नारी का सम्मान करें। देश को पुनः विश्वगुरु बनाने का यत्न करें।

 

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शिवदेव आर्य

गुरुकुल-पौन्धा, देहरादून-248007

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चलें यज्ञ की ओर…. शिवदेव आर्य, गुरुकुल-पौन्धा, देहरादून

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वेद व यज्ञ हमारी संस्कृति के आधार स्थम्भ हैं। इसके बिना भारतीय संस्कृति निश्चित ही पंगु है। यज्ञ का विधिविधान आदि काल से अद्यावधि पर्यन्त अक्षुण्ण बना हुआ है। इसकी पुष्टि हमें हड़प्पा आदि संस्कृतियों में बंगादि स्थलों पर यज्ञकुण्डों के मिलने से होती है।

वैदिक काल में ऋषियों ने यज्ञों पर अनेक अनुसन्धान किये। अनुसन्धान की प्रथा वहीं तक समाप्त नहीं हो गई अपितु इसका निर्वाहन निरन्तर होता चला आ रहा  है।  यज्ञ से प्राप्त अनेक लाभों को दृष्टि में रखते हुए शतपथ ब्राह्मणकार ने लिखा है कि ‘यज्ञो वै श्रेष्ठतं कर्म’ अर्थात् यज्ञ संसार का सबसे श्रेष्ठ कर्म है और इसी श्रेष्ठ कर्म को करने  से मनुष्य सर्वदा सुखी रहता है। इसी बात को ऋग्वेद में निरुपित करते हुए लिखते हैं कि-

‘ईजानाः स्वर्गं यन्ति लोकम्’

यज्ञ शब्द के  विवेचन से हमें ज्ञात होता कि ‘यज्ञदेवपूजासंगतिकरणदानेषु’ इस धातु से यज्ञ शब्द सि द्ध होगा, जिसका अर्थ होगा – देवताओं की पूजा, संगतिकरण तथा दान।

देवपूजा से तात्पर्य है कि देवों की पूजा अर्थात् परमपिता परमेश्वर, अग्नि,  वायु, इन्द्र, जल, विद्युत्, सूर्य, चन्द्र आदि देवताओं एवं वेदविज्ञ विद्वान् मनीषियों का यथावत् आदर सत्कार करना। संगतिकरण का अर्थ होगा कि पदार्थों की परस्पर संगति करना। संगतिकरण शब्द ही यज्ञ में विज्ञान का द्योतक है। यही शब्द यज्ञ में विज्ञान को सिद्ध करता है। क्योंकि सम्पूर्ण विज्ञान में पदार्थों का संयोग ही तो है। इस यज्ञ में अनेकशः पदार्थों का हवि के रूप में संयोग होता है। दान अर्थात् परोपकार के कार्यों को करना। यज्ञ में वेदमन्त्रों के द्वारा पदार्थों को अग्नि में आहुत किया जाता है। अग्नि उस पदार्थ को सूक्ष्म करके अन्तरिक्ष में जाकर सभी प्राणियों को लाभ प्रदान करता है। यह परोपकार करने का सर्वश्रेष्ठ साधन है। यज्ञ हमारे जीवन का अमूल्य अंग है। इस बात को प्रकाश जी की ये पंक्ति सिद्ध करती  हैं कि-

यज्ञ जीवन का हमारे श्रेष्ठ सुन्दर कर्म है।

यज्ञ करना-कराना आर्यों का धर्म है।।

                महर्षि देव दयानन्द जी ने सत्यार्थ प्रकाश के तृतीय समुल्लास में उद्धृत किया  है कि ‘जब तक इस होम करने का प्रचार रहा तब तक आर्यावर्त देश रोगों  से रहित और सुखों से पूरित था। अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाये।’

यज्ञ शब्द के अर्थ से यज्ञ के अनेक लाभ स्वयं ही  सिद्ध हो जाते हैं। वेद-मन्त्रों में यज्ञ के बहुशः लाभों को उद्धृत किया गया है। यज्ञ हमारे परर्यावरण की हानिकारक दुर्गन्ध युक्त वायु को समाप्त कर शुद्ध वायु  को स्थान प्रदान कराता है। यह पदार्थ विद्या  का ही परिणाम है। अग्नि का ही यह सामथ्र्य है कि वह हानिकारक वायु को वहां से हटा कर शुद्ध वायु का प्रवेश कराती है। इससे पर्यावरण की शुद्धि तथा रोगों का विनाश अपने आप ही हो जाता है क्योंकि प्रायः करके सभी रोग पर्यावरण के प्रदुषण होने के कारण ही होते हैं।

जिन रोगों का शमन करने के लिए मेडिकल साइंस आज तक मौन है वहां यही यज्ञ चिकित्सों रोगों का शमन करती है। अथर्ववेद में यज्ञ चिकित्सा का बहुत विस्तृत पूर्वक वर्णन किया गया है।

यज्ञ के गुणों का वखान करते हुए स्वामी दयानन्द सरस्वती जी महाराज अपने अमर-ग्रन्थ सत्यार्थ-प्रकाश के द्वादश (12) समुल्लास में लिखते हैं कि ‘अग्निहोत्रादि यज्ञों से वायु, वृष्टि, जल की शुद्धि द्वारा आरोग्यता का होना, उससे धर्म, काम और मोक्ष की सिद्धि होती है।’

वेद हमें स्पष्ट रूप से यज्ञ करने का आदेश देता है कि -मनुष्यैरेवं भूतो यज्ञः सदैव कार्यः…..(यजुर्वेद-१.२२), कस्त्वा विमुंचति स त्वा विमुंचति कस्मै त्वा विमुंचति…(यजुर्वेद-२.२३)  इत्यादि मन्त्रों के माध्यम से ऋषि हमें नित्य-प्रति यज्ञ कर अपने चरमपद (मोक्ष) को पाने के लिए सदैव उद्यत रहना चाहिए, ऐसा  उपदेश देते हैं।

द्वन्द्वों के सहन से परमपद की ओर….. शिवदेव आर्य, गुरुकुल पौन्धा, देहरादून

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प्राचीन काल से ही द्वन्द्वों के सहन करने का विशेष महत्त्व रहा है। प्रत्येक प्राणी के लिए द्वन्द्वों का सहन करना अत्यावश्यक है। द्वन्द्व-सहन से मनुष्य किसी भी प्रकार की देश-काल-परिस्थिति में विना किसी की सहायता लिये सहन कर सकता है।

प्रथम विचारणीय है द्वन्द्व किसे कहते है? इसके उत्तर के लिए हम गीता की ओर अपनी दृष्टि दौड़ते हैं तब हमें ज्ञात होता है कि –

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।

                        शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः।। (गीता-6/7)

अर्थात् जिसने अपने आपको इन्द्रियों की दासता से छुड़ा दिया है, उसका चित्त प्रशान्त रहता है और जिसप्रकार स्थिरदर्पण में सूर्य का प्रतिबिम्ब भी स्थिर और स्पष्ट दीखता रहता है, इसीप्रकार प्रशान्त चित्त में शीतोष्ण, सुख-दुःख, मानापमान आदि सब द्वन्द्वों के बीच एकरस परमात्मा का आनन्द एकाग्र समाहित रूप से प्रतिफलित होता है। अगर साधारण भाषा में कहे तो सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, मान-अपमान, वृष्टि-अनावृष्टि आदि जो ऋतुओं की विषताएॅं है, उन सबको सहन करने का नाम ही द्वन्द्व-सहन है।

प्रायः संसार में देखने को मिलता है कि ऋतुओं के बदलने पर बहुत से लोग रोगग्रस्त हो जाते हैं। इसका कारण खोजे तो पता चलता है कि ऋतुओं की विषमता को सहन करने की शारीरिक क्षमता नहीं थी, इसी कारण से लोग बीमार हो गये। और यदि ऋतुओं की विषमता को सहन करने का सामथ्र्य हम सबके अभ्यास से उत्पन्न हो जाये तो बीमार होने का प्रश्न ही उदित नहीं होता।

इसलिए जितने भी योगी-साधु-संन्यासी-साधक आदि होते हैं, वे सब स्वयं द्वन्द्वों को सहन करते हुए दुसरों को भी द्वन्द्व सहन करने का उपदेश देते हैं। इन्हीं द्वन्द्वों को सहन करने से मनुष्य किसी भी परिस्थिति में अपने जीवन का निर्वाह सम्यक् रूप से कर सकता है।

गुरुकुलीय व्यवस्था में ब्रह्मचारियों को जूतों आदि के धारण करने का निषेध, खान-पान में नमक, मिर्च आदि मसालों का सेवन तो बिल्कुल ही निषिद्ध होता है, सर्दी में कम से कम वस्त्रों को धारण करना, ठण्डी-ठण्डी हॅवाओं के चलते हुए भी ध्यान की अवस्था में घण्टों बैठे रहना, शृंगार से तो इतना दूर कि मानों शृंगार का नाम ही न जानते हों इत्यादि क्रियाकलापों के करने के पीछे आचार्य का कोई स्वयं का स्वार्थ नहीं होता अपितु ब्रह्मचारियों को द्वन्द्व-सहन करने की क्षमता को विकसित करना ही एक मात्र उद्देश्य होता है।

हानि-लाभ, जय-पराजय आदि ये भी द्वन्द्व हैं। इनके सहन करने से साधारण से साधारण मनुष्य भी उच्च स्थान को प्राप्त होता है। परन्तु जो इन द्वन्द्वों को सहन नहीं करते, वे मनुष्य हानि, पराजय, अपमान आदि से बिल्कुल पागल हो जाते हैं। मानसिक संतुलन खराब हो जाता है। निराशा का वातावरण चारों ओर से आकर घेर लेता है। इतना ही नहीं अपितु द्वन्द्वों को सहन करने की क्षमता के कम होने के कारण से लोग मृत्यु के सोपान को प्राप्त होते हैं। इस तरह द्वन्द्व की असह्यता से सदैव हानि और सह्यता से लाभ होता है।

द्वन्द्व-सहन के कारण मनुष्य विजय से अधिक प्रसन्न नहीं होता और न ही पराजय होने से हताश व निराश होता है। दोनों ही अवस्थाओं में अपने कर्तव्य में स्थिर रहता है। ऐसा द्वन्द्व सहनशील व्यक्ति जगत् में उच्च से उच्च स्थान को प्राप्त कर सकता है। इसलिए योगदर्शन में भी द्वन्द्वों को सहन करने का परामर्श दिया गया है। द्वन्द्व सहनं तपः अर्थात् द्वन्द्वों को सहन करना ही वास्तव में तप है।

द्वन्द्व का एक अर्थ ‘युद्ध’ भी हो सकता है। द्वन्द्व-सहन करो अर्थात् युद्ध को सहन करो। युद्ध को सहन करने का तात्पर्य है कि युद्ध में विजय प्राप्त करो। प्रत्येक मनुष्य के सम्मुख इस जगत् का विषाक्त वातावरण ही युद्ध है। अतः प्रत्येक मनुष्य को द्वन्द्व सहन करने अवश्य ही आने चाहिये।

आज संसार में वैयक्तिक, सामाजिक, रोगविषयक आदि-आदि अनेकशः युद्ध चल रहे हैं। अगर मनुष्य को इन युद्धों में विजय प्राप्त करनी है तो अवश्य ही द्वन्द्वों की सहन-शक्ति को विकसित करने की जरुरत है। अन्यथा मनुष्य के परास्त होने में देरी तक न लगेगी।

मनुष्य का व्यवहार प्रतिकुल होता जा रहा है। जैसे जो मनुष्य जितना अधिक सभ्य होता है, वह उतने ही अधिक वस्त्रों को धारण   करता है। वह मनुष्य उतना ही अधिक बीमार पड़ता है जबकि जंगल में रहने वाले जंगली मनुष्य जो वस्त्रों को नहीं पहनते है। अर्थात् द्वन्द्व को सहन करते है, वह कभी भी बीमार नहीं पड़ते।

यथार्थता में यदि हम जीवन के पथ पर बहुत ऊॅची उड़ान भरना चाहते हैं तो हमें द्वन्द्वों को सहन करने का अभ्यास करना चाहिए। यही गीता का उपदेश और मेरे लिखने का आशय है।