बोधत्व राष्ट्र के लिए शिवदेव आर्य

संसार में जितने भी पर्व तथा उत्सव आते हैं, उन सबका एक ही माध्यम (उद्देश्य) होता है – हम कैसे एक नए उत्साह के साथ अपने कार्य में लगें? हमें अब क्या-क्या नई-नई योजनाएं बनाने की आवश्यकता है, जो हमें उन्नति के मार्ग का अनुसरण करा सकें। समाज में दृष्टिगोचर होता है कि उस उत्सव से अमुक नामधारी मनुष्य ने अपने जीवन को उच्च बनाने का संकल्प लिया और पूर्ण भी किया।
यह सत्य सिद्धान्त है कि जो व्यक्ति सफल होते हैं, वह कुछ विशेष प्रकार से कार्य को करते हैं। शिवरात्री का प्रसिद्ध पर्व प्रायः सम्पूर्ण भारतवर्ष में बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। उपासक सम्पूर्ण दिन उपवास रखते हैं तथा रात्री को शिव की आराधना करते हुए शिव के दिव्य दर्शन प्राप्त करने का अतुलनीय प्रयास करते हैं। ऐसा ही प्रयास करने का इच्छुक अबोध बालक मूलशंकर भी आज से लगभग १७२ वर्ष पूर्व ‘शिवरात्री’ का पर्व परम्परागत रूप से मनाता है।
घोर अन्धकार को धारण की हुई कालसर्पिणी रूपी रात्री में एक अबोध बालक बोध की पिपासा लिये शिव के दर्शन करने का यत्न करता है। शिव की मूर्ति उसके नेत्रों के सामने थी। जैसे-जैसे रात्री का अन्धकार बढ़ता जा रहा था वैसे-वैसे ही बालक मूलशंकर का मन एकाग्र होता जा रहा था।
अचानक एक महत् आश्चर्यजन्य आश्चर्य का उदय होता है। शिव की प्रतिमा पर चूहे चढ़ गये। चूहें शनै-शनै (धीरे-धीरे) मिष्ठान्नों को खाने लगे और मूर्ति के ऊपर मल-मूत्र का विसर्जन कर रहे थे। इस कृत्य को देख बालक के होश उड़ गये। आखिर ये हो क्या रहा है? कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। अचानक याद आया कि पिता जी ने बताया था कि शिव इस संसार की रचना करते हैं तथा पालन करते हुए इस सृष्टि का संहार करते है। अरे, ये तो बडी विचित्र बात हुई भला जिसके दो हाथ हो, दो पैर हो, दो ही नेत्र आदि-आदि सब कुछ हमारे ही समान हो वह इतना विचित्र कैसे हो सकता है? वह इस सम्पूर्ण संसार का निर्माण कैसे कर सकता है? इतने बडे़-बडे़ पर्वतों तथा नदी-नालों का निर्माण कैसे कर सकता है? और यदि कर भी सकता है तो यह मूर्ति रूप में क्यों है? प्रत्यक्ष सामने क्यों नहीं आता? बहुत विचार-विमर्श करने के पश्चात् बालक ने पिता जी से पूछ ही लिया कि पिता जी! आप ने कहा था कि आज रात्री को शिव के दर्शन होंगे परन्तु अभी तक तो कोई शिव आया ही नहीं है। और ये चूहें कौन हैं, जो शिव के ऊपर चढ़े चढ़ावे को खाकर यहीं मल-मूत्र का विसर्जन कर रहे हैं? जब शिव सम्पूर्ण संसार का निर्माण करके उसका पालन करता है, तो ये अपनी स्वयं की रक्षा करने में क्यों असमर्थ हो रहा है? आखिर असली शिव कौन-सा है? कब दर्शन होंगे? आदि-आदि प्रश्नों से पिता श्री कर्षन जी बहुत परेशान हो गये तथा अपने सेवकों को आदेश दिया कि इसे घर ले जाओ। घर जाकर मां से भी यही प्रश्न, पर समाधान कहीं नहीं मिला। शिव की खोज में घर को छोड़ दिया। जो जहां बताता वहीं शिव को पाने की इच्छा से इधर-उधर भटकने लगा पर अन्त में अबोध को बोधत्व (ज्ञान) प्राप्त हो ही गया।
और उसी स्वरूप का वर्णन करते हुए आर्य समाज के द्वितीय नियम में लिखते हैं कि – जो सत्-चित्-आनन्दस्वरूप हो, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्म, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र हो और जो इस सम्पूर्ण सृष्टि की रचना, पालन तथा संहार करता हो, वही परमेश्वर है। इससे भिन्न को परमेश्वर स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसी परमेश्वर की सभी जनों को स्तुति, प्रार्थना उसी उपासना करनी चाहिए।
आज भी आवश्यकता है अपने अन्तःकरण की आवाज सुनने की । जब स्वयं के भीतर सोये हुऐ शिव को जागृत करेंगे तभी जाकर शिव के सत्य स्वरूप को जानने का मार्ग प्रशस्त हो पायेगा।
सच्चे शिव का जो संकल्प बालक मूलशंकर ने लिया था, उस संकल्प की परिणति शिव के दर्शन के रूप में हुई । वह कोई पाषाण नहीं और न ही कपोलकल्पित कैलाश पर्वतवासी था। उसी सत्य शिव के ज्ञान ने अबोध बालक मूलशंकर को महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती के नाम से विश्वभर में प्रसिद्ध करा दिया।
भारतवर्ष में देशहित अपने जीवन का सर्वस्व त्याग करने वाले अनेकशः महापुरुष हुए किन्तु महर्षि दयानन्द सरस्वती उन सभी महापुरुषों में सर्वश्रेष्ठ थे। सर्वश्रेष्ठ से यहां यह तात्पर्य बिल्कुल भी नहीं है कि किसी का अपमान अथवा निम्नस्तर को प्रस्तुत किया जाये। जितने भी महापुरुष हुए हैं, उन सबकी अपनी एक अविस्मरणीय विशेषता रही है कि वह अपने सम्पूर्ण जीवन में एक अथवा कुछ कार्यों में ही जुटे रहे। जैसे किसी ने स्वराज्य स्थापना पर, किसी ने धर्म पर, किसी ने विधवा विवाह पर, किसी ने स्वभाषा पर, किसी ने भ्रष्टाचार पर, किसी ने बाल-विवाह पर, किसी ने कन्या शिक्षा पर, किसी ने स्वसंस्कृति-सभ्यता पर ध्यान दिया है किन्तु ऋषिवर देव दयानन्द जी का जीवन एकांगी न होकर सभी दिशाओं में प्रवृत्त हुआ है। सभी विषय से सम्बन्धित कुकर्मों को समाप्त करने का प्रयास किया।
शिवरात्री के इस पर्व को बोधोत्सव के रूप में मनाने का उद्देश्य यह नहीं है कि बोधरात्री को जो हुआ उसे स्मरण ही किया जाये। अगर बोध रात्री का यही तात्पर्य होता तो स्वामी दयानन्द जी भी शिव को खोजने के लिए एकान्त शान्त पर्वत की किसी कंदरा में जाकर बैठ सकते थे। और उस परमपिता परमेश्वर का ध्यान कर सकते थे, मोक्ष को शीघ्र प्राप्त कर सकते थे किन्तु ऋषि ने वही शिव का स्वरूप स्वयं में अंगीकृत करके अर्थात् कल्याण की भावना को स्वयं के अन्दर संजोकर भारत माता की सेवा में जुट गये। ‘इदं राष्ट्राय इदन्नमम’ की भावना से अपने जीवन पथ पर निरन्तर अबाध गति से चलते रहे। और अपने जीवन से अनेक अबोधियों को बोधत्व प्राप्त कराकर देशहित समर्पित कराया।
आज हम जब भारत माता की जय बोलते हैं तो वो किसी देवी अथवा किसी व्यक्ति या समुदाय विशेष की जय नहीं है प्रत्युत प्रत्येक भारतवासी की जय बोलते हैं। हम सब इस बोधोत्सव पर बोधत्व को प्राप्त हो राष्ट्र हित में समर्पित होने वाले हो। ऋषिवर का प्रत्येक कर्म देश के हित में लगा और उनका भी यही स्वप्न था कि हमारा प्रत्येक नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति जागरुक हो एवं सत्य मार्ग का अनुसरण करे।

5 thoughts on “बोधत्व राष्ट्र के लिए शिवदेव आर्य”

  1. प्रेरणादाई सन्देश सच्चे शिव को जानने की अभिलासा पूर्ण करता एक उत्तम लेख ऋषि जीवन को सुक्षमतम और विराट रूप में दिखलाता लेख अबोधता से बोधत्व की और ले जाता लेख लेखनी की अद्भुत शैली है आपकी आपके विचारों को आत्मसात करते हुए ऋषि के विचारों को सम्पूर्ण भूमण्डल में स्थापित करने के उद्देश्य के साथ ओउम् कृण्वन्तो विश्वार्यम
    धन्य ऐ ऋषि तूने हमको जीना सीखा दिया
    वेदों का ज्ञान अंतस में फिर से जगा दिया
    चारो और तमस था अविद्या का राज था
    कर “प्रकाश” वेदों का तम को मिटा दिया
    धन्य ऐ ऋषि तूने हमको जीना सिखा दिया
    ओउम्

    1. namaste ji,
      pratikriya ke liye dhanywad ji,
      bs aap logo ka aashirwad milta rhe, rishiwar devdayanand ka kam rukega nhi……

  2. Kya Rishi Dayanand ji ne kha tha Ke Unka Janm divas aur Bodh Divas Utsav ke roop me Manaya Jave……Vedik dharm bhi ab ek mat ban kar reh gya hai….Jaisa aap ne likha hai Un baton ko aatm saat karna to uchit hai …Vishaw Arya sammelan par to dhanvan vaykti hi ja sakte hain…Foreign countries men….Mele to bahut lagte hain…sabhi maton ke…..utsav bhi hote hain….hum un par to aalochna karte hai… Log hamare par bhi Karne lag gaye hain..Hamara Purohit varg bhi Lobhi ho chuka hai..

  3. Bodhotsav ya manotsav mna aaj kl pouranikta se purn hota ja rha., jbki esa nhi hona cahiye, hona to ye chahiye rishi kee bato ko hm phle qatm sat kre fhir dusro ko rah de.

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