Tag Archives: salvation

द्वन्द्वों के सहन से परमपद की ओर….. शिवदेव आर्य, गुरुकुल पौन्धा, देहरादून

x3

प्राचीन काल से ही द्वन्द्वों के सहन करने का विशेष महत्त्व रहा है। प्रत्येक प्राणी के लिए द्वन्द्वों का सहन करना अत्यावश्यक है। द्वन्द्व-सहन से मनुष्य किसी भी प्रकार की देश-काल-परिस्थिति में विना किसी की सहायता लिये सहन कर सकता है।

प्रथम विचारणीय है द्वन्द्व किसे कहते है? इसके उत्तर के लिए हम गीता की ओर अपनी दृष्टि दौड़ते हैं तब हमें ज्ञात होता है कि –

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।

                        शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः।। (गीता-6/7)

अर्थात् जिसने अपने आपको इन्द्रियों की दासता से छुड़ा दिया है, उसका चित्त प्रशान्त रहता है और जिसप्रकार स्थिरदर्पण में सूर्य का प्रतिबिम्ब भी स्थिर और स्पष्ट दीखता रहता है, इसीप्रकार प्रशान्त चित्त में शीतोष्ण, सुख-दुःख, मानापमान आदि सब द्वन्द्वों के बीच एकरस परमात्मा का आनन्द एकाग्र समाहित रूप से प्रतिफलित होता है। अगर साधारण भाषा में कहे तो सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, मान-अपमान, वृष्टि-अनावृष्टि आदि जो ऋतुओं की विषताएॅं है, उन सबको सहन करने का नाम ही द्वन्द्व-सहन है।

प्रायः संसार में देखने को मिलता है कि ऋतुओं के बदलने पर बहुत से लोग रोगग्रस्त हो जाते हैं। इसका कारण खोजे तो पता चलता है कि ऋतुओं की विषमता को सहन करने की शारीरिक क्षमता नहीं थी, इसी कारण से लोग बीमार हो गये। और यदि ऋतुओं की विषमता को सहन करने का सामथ्र्य हम सबके अभ्यास से उत्पन्न हो जाये तो बीमार होने का प्रश्न ही उदित नहीं होता।

इसलिए जितने भी योगी-साधु-संन्यासी-साधक आदि होते हैं, वे सब स्वयं द्वन्द्वों को सहन करते हुए दुसरों को भी द्वन्द्व सहन करने का उपदेश देते हैं। इन्हीं द्वन्द्वों को सहन करने से मनुष्य किसी भी परिस्थिति में अपने जीवन का निर्वाह सम्यक् रूप से कर सकता है।

गुरुकुलीय व्यवस्था में ब्रह्मचारियों को जूतों आदि के धारण करने का निषेध, खान-पान में नमक, मिर्च आदि मसालों का सेवन तो बिल्कुल ही निषिद्ध होता है, सर्दी में कम से कम वस्त्रों को धारण करना, ठण्डी-ठण्डी हॅवाओं के चलते हुए भी ध्यान की अवस्था में घण्टों बैठे रहना, शृंगार से तो इतना दूर कि मानों शृंगार का नाम ही न जानते हों इत्यादि क्रियाकलापों के करने के पीछे आचार्य का कोई स्वयं का स्वार्थ नहीं होता अपितु ब्रह्मचारियों को द्वन्द्व-सहन करने की क्षमता को विकसित करना ही एक मात्र उद्देश्य होता है।

हानि-लाभ, जय-पराजय आदि ये भी द्वन्द्व हैं। इनके सहन करने से साधारण से साधारण मनुष्य भी उच्च स्थान को प्राप्त होता है। परन्तु जो इन द्वन्द्वों को सहन नहीं करते, वे मनुष्य हानि, पराजय, अपमान आदि से बिल्कुल पागल हो जाते हैं। मानसिक संतुलन खराब हो जाता है। निराशा का वातावरण चारों ओर से आकर घेर लेता है। इतना ही नहीं अपितु द्वन्द्वों को सहन करने की क्षमता के कम होने के कारण से लोग मृत्यु के सोपान को प्राप्त होते हैं। इस तरह द्वन्द्व की असह्यता से सदैव हानि और सह्यता से लाभ होता है।

द्वन्द्व-सहन के कारण मनुष्य विजय से अधिक प्रसन्न नहीं होता और न ही पराजय होने से हताश व निराश होता है। दोनों ही अवस्थाओं में अपने कर्तव्य में स्थिर रहता है। ऐसा द्वन्द्व सहनशील व्यक्ति जगत् में उच्च से उच्च स्थान को प्राप्त कर सकता है। इसलिए योगदर्शन में भी द्वन्द्वों को सहन करने का परामर्श दिया गया है। द्वन्द्व सहनं तपः अर्थात् द्वन्द्वों को सहन करना ही वास्तव में तप है।

द्वन्द्व का एक अर्थ ‘युद्ध’ भी हो सकता है। द्वन्द्व-सहन करो अर्थात् युद्ध को सहन करो। युद्ध को सहन करने का तात्पर्य है कि युद्ध में विजय प्राप्त करो। प्रत्येक मनुष्य के सम्मुख इस जगत् का विषाक्त वातावरण ही युद्ध है। अतः प्रत्येक मनुष्य को द्वन्द्व सहन करने अवश्य ही आने चाहिये।

आज संसार में वैयक्तिक, सामाजिक, रोगविषयक आदि-आदि अनेकशः युद्ध चल रहे हैं। अगर मनुष्य को इन युद्धों में विजय प्राप्त करनी है तो अवश्य ही द्वन्द्वों की सहन-शक्ति को विकसित करने की जरुरत है। अन्यथा मनुष्य के परास्त होने में देरी तक न लगेगी।

मनुष्य का व्यवहार प्रतिकुल होता जा रहा है। जैसे जो मनुष्य जितना अधिक सभ्य होता है, वह उतने ही अधिक वस्त्रों को धारण   करता है। वह मनुष्य उतना ही अधिक बीमार पड़ता है जबकि जंगल में रहने वाले जंगली मनुष्य जो वस्त्रों को नहीं पहनते है। अर्थात् द्वन्द्व को सहन करते है, वह कभी भी बीमार नहीं पड़ते।

यथार्थता में यदि हम जीवन के पथ पर बहुत ऊॅची उड़ान भरना चाहते हैं तो हमें द्वन्द्वों को सहन करने का अभ्यास करना चाहिए। यही गीता का उपदेश और मेरे लिखने का आशय है।